JAC Class 11 Political Science Important Questions in Hindi & English Jharkhand Board

JAC Jharkhand Board Class 11th Political Science Important Questions in Hindi & English Medium

JAC Board Class 11th Political Science Important Questions in Hindi Medium

Jharkhand Board Class 11th Political Science Important Questions: भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार

Jharkhand Board Class 11th Political Science Important Questions: राजनीतिक-सिद्धान्त

JAC Board Class 11th Political Science Important Questions in English Medium

JAC Board Class 11th Political Science Important Questions: Indian Constitution at Work

  • Chapter 1 Constitution: Why and How? Important Questions
  • Chapter 2 Rights in the Indian Constitution Important Questions
  • Chapter 3 Election and Representation Important Questions
  • Chapter 4 Executive Important Questions
  • Chapter 5 Legislature Important Questions
  • Chapter 6 Judiciary Important Questions
  • Chapter 7 Federalism Important Questions
  • Chapter 8 Local Governments Important Questions
  • Chapter 9 Constitution as a Living Document Important Questions
  • Chapter 10 The Philosophy of the Constitution Important Questions

JAC Board Class 11th Political Science Important Questions: Political Theory

  • Chapter 1 Political Theory: An Introduction Important Questions
  • Chapter 2 Freedom Important Questions
  • Chapter 3 Equality Important Questions
  • Chapter 4 Social Justice Important Questions
  • Chapter 5 Rights Important Questions
  • Chapter 6 Citizenship Important Questions
  • Chapter 7 Nationalism Important Questions
  • Chapter 8 Secularism Important Questions
  • Chapter 9 Peace Important Questions
  • Chapter 10 Development Important Questions

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौन भारत में बाहरी व्यक्ति है ?
(अ) रीता जो भारत में जन्मे अपने पिता और ब्रिटिश माँ के साथ रहती है।
(ब) जानकी जो भारत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए मारीशस से आई है।
(स) जयपुर का रहने वाला एक लड़का रहीम जो आस्ट्रेलिया में पढ़ाई कर रहा है।
(द) शांति भूषण जो अमेरिका में भारतीय उच्चायोग में भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी हैं।
उत्तर:
(ब) जानकी जो भारत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए मारीशस से आई है।

2. निम्न में किस आधार पर भारत की नागरिकता ग्रहण नहीं की जा सकती
(अ) वह व्यक्ति जिसका जन्म भारत में हुआ है।
(ब) भारत में निवास कर रहा वह व्यक्ति जिसके माता-पिता का जन्म भारत
(स) वह व्यक्ति जिसके माता-पिता संविधान लागू होने से कम से कम पांच
(द) वह विदेशी व्यक्ति जो शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत में रह रहा है।
उत्तर:
(द) वह विदेशी व्यक्ति जो शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत में रह रहा है।

3. निम्नलिखित में से किसे अपनी भारतीय नागरिकता छोड़नी पड़ेगी
(अ) जगन सिंह, जिसे डकैती डालते हुए पकड़ा गया।
(ब) मनोरमा, जिसे ब्रिटेन में अध्ययन के लिए शोधवृत्ति मिली है।
(स) सुरेश, जो छुट्टियाँ मनाने स्विट्जरलैंड गया है।
(द) अशोक मेहता, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति का सलाहकार नियुक्त किया गया है।
उत्तर:
(द) अशोक मेहता, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति का सलाहकार नियुक्त किया गया है।

4. टी. एच. मार्शल नागरिकता में कितने प्रकार के अधिकारों को शामिल मानते हैं-
(अ) चार
(ब) तीन
(स) दो
(द) पाँच
उत्तर:
(ब) तीन

5. टी. एच. मार्शल की नागरिकता सम्बन्धी धारणा मिलती-जुलती है-
(अ) उदारवाद से
(ब) मार्क्सवाद से
(स) राष्ट्रवाद से
(द) आदर्शवाद से
उत्तर:
(अ) उदारवाद से

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

6. भारतीय नागरिकता अधिनियम कब बनाया गया
(अ) 1955 में
(ब) 1951 में
(स) 1954 में
(द) 1952 में
उत्तर:
(अ) 1955 में

7. आदर्श नागरिकता के मार्ग में प्रमुख बाधा है-
(अ) संकीर्णता
(ब) उग्र राष्ट्रीयता
(स) अज्ञानता
(द) उक्त सभी
उत्तर:
(द) उक्त सभी

8. ‘नागरिकता और सामाजिक वर्ग’ के लेखक हैं-
(अ) टी. एच. मार्शल
(ब) डेविड हेल्ड
(स) रिची
(द) जॉन लॉक
उत्तर:
(अ) टी. एच. मार्शल

9. मार्शल टी. एच. ने नागरिकता में निम्न में से किस प्रकार के अधिकारों को शामिल नहीं किया
(अ) नागरिक अधिकार
(ब) संवैधानिक उपचारों का अधिकार
(स) राजनीतिक अधिकार
(द) सामाजिक अधिकार
उत्तर:
(ब) संवैधानिक उपचारों का अधिकार

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

10. संयुक्त राज्य अमेरिका के अनेक दक्षिणी राज्यों में काले और गोरे लोगों के भेदभावपूर्ण कानूनों के खिलाफ आंदोलन के प्रमुख ‘नेता थे-
(अ) मार्टिन लूथर किंग जूनियर
(ब) टी. एच. मार्शल
(स) ओल्गाटेलिस
(द) रॉबर्ट मुगावे।
उत्तर:
(अ) मार्टिन लूथर किंग जूनियर

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. नागरिकता की परिभाषा किसी राजनीतिक समुदाय की ……………… और ……………… सदस्यता के रूप में की गई है।
उत्तर:
पूर्ण, समान

2. शरणार्थी और …………………… प्रवासियों को कोई राष्ट्र पूर्ण सदस्यता देने के लिए तैयार नहीं है।
उत्तर:
अवैध

3. नागरिकता सिर्फ राज्यसत्ता और उसके सदस्यों के बीच के संबंधों का निरूपण नहीं बल्कि यह ………………….. आपसी संबंधों के बारे में भी ह।
उत्तर:
नागरिकों

4. किसी राष्ट्र की संपूर्ण और समान सदस्यता का अर्थ है कि सभी अमीर-गरीब नागरिकों को कुछ ……………….. अधिकार और सुविधाएँ मिलें।
उत्तर:
बुनियादी

5. देश के सभी नागरिकों को ‘पूर्ण और समान सदस्यता’ से संबंधित विवादों का समाधान बल प्रयोग के बजाय …………………. और ……………….. से हो।
उत्तर:
संधि-वार्ता, विचार-विमर्श

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. अवांछित आगन्तुकों को नागरिकता से बाहर रखने के लिए राज्य सत्ताएँ ताकत का प्रयोग करती हैं।
उत्तर:
सत्य

2. नागरिकता के नए आवेदकों को अनुमति देने की कसौटी हर देश में समान होती है।
उत्तर:
असत्य

3. नागरिकता प्रदान करने में फ्रांस में धर्म या जातीय मूल जैसे तत्त्व को वरीयता दी जाती है।
उत्तर:
असत्य

4. इजरायल ऐसा देश है जो धर्मनिरपेक्ष और समावेशी होने का दावा करता है।
उत्तर:
असत्य

5. समान नागरिकता की अवधारणा का अर्थ यही है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान करना सरकारी नीतियों का मार्गदर्शक सिद्धान्त हो।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. ‘नागरिकता और सामाजिक वर्ग’ पुस्तक (अ) सर्वोच्च न्यायालय का 1985 का एक निर्णय
2. संविधान के अनु. 21 में जीने के अधिकार में आजीविका का अधिकार भी शामिल है। (ब) भारत
3. एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश (स) राज्यविहीन शरणार्थी लोग
4. शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने को मजबूर लोग (द) इजरायल
5. नागरिकता देने में धर्म या जातीय मूल तत्त्व को वरीयता देने वाला देश (य) टी. एच. मार्शल

उत्तर:

1. ‘नागरिकता और सामाजिक वर्ग’ पुस्तक (य) टी. एच. मार्शल
2. संविधान के अनु. 21 में जीने के अधिकार में आजीविका का अधिकार भी शामिल है। (अ) सर्वोच्च न्यायालय का 1985 का एक निर्णय
3. एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश (ब) भारत
4. शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने को मजबूर लोग (स) राज्यविहीन शरणार्थी लोग
5. नागरिकता देने में धर्म या जातीय मूल तत्त्व को वरीयता देने वाला देश (द) इजरायल

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नागरिकता की परिभाषा किस रूप में की गई है?
उत्तर:
नागरिकता की परिभाषा किसी राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में की गई है।

प्रश्न 2.
भारत में नागरिकता कैसे हासिल की जा सकती है?
उत्तर:
भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीकरण या किसी भू-क्षेत्र के राजक्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है।

प्रश्न 3.
लोगों के विस्थापित होने या शरणार्थी होने के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए गए हैं।
उत्तर:
युद्ध, उत्पीड़न तथा अकाल।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 4.
ऐसे लोगों का उदाहरण दीजिए जो अपने ही देश या पड़ौसी देश में शरणार्थी बनने के लिए विवश किए
उत्तर:
सूडान के डरफर क्षेत्र के शरणार्थी, फिलिस्तीनी, बर्मी तथा बांग्लादेशी शरणार्थी।

प्रश्न 5.
शरणार्थियों की जांच करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने क्या कदम उठाया है?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ ने शरणार्थियों की जांच करने एवं उनकी मदद करने हेतु उच्चायुक्त नियुक्त किया है।

प्रश्न 6.
एक देश में भ्रमण हेतु आया हुआ अन्य देश का नागरिक क्या कहलाता है?
उत्तर:
विदेशी।

प्रश्न 7.
भारत में किस प्रकार की नागरिकता है?
उत्तर:
इकहरी नागरिकता।

प्रश्न 8.
नागरिकता में समाज के प्रति क्या दायित्व है?
उत्तर:
नागरिकता में समाज के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का नैतिक दायित्व शामिल है।

प्रश्न 9.
शहरों की गंदी बस्तियों की कोई दो समस्यायें लिखिये।
उत्तर:

  1. शौचालय, जलापूर्ति और सफाई की समस्या
  2. जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा की समस्या।

प्रश्न 10.
झोंपड़पट्टियों के निवासी किस प्रकार अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं?
उत्तर:
झोंपड़पट्टियों के निवासी अपने श्रम से अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान में नागरिकता की कौनसी धारणा को अपनाया है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में नागरिकता की लोकतांत्रिक और समावेशी धारणा को अपनाया गया है।

प्रश्न 12.
नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए हुए किसी एक संघर्ष का नाम लिखिये।
उत्तर:
1789 की फ्रांसीसी क्रांति।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 13.
शरणार्थियों के किन्हीं दो रूपों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:

  1. युद्ध या अकाल से विस्थापित लोग।
  2. यूरोप या अमेरिका में चोरी-छिपे घुसने के प्रयास में तत्पर लोग।

प्रश्न 14.
मार्शल ने नागरिकता में कौन-कौनसे तीन अधिकार शामिल किये थे?
उत्तर:
मार्शल नागरिकता में तीन प्रकार के अधिकारों को शामिल करते हैं, वे हैं

  1. नागरिक अधिकार
  2. राजनैतिक अधिकार
  3. सामाजिक अधिकार।

प्रश्न 15.
उन दो परिस्थितियों का उल्लेख कीजिये जिनमें नागरिकता समाप्त हो जाती है।
उत्तर:

  1. दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार करने पर।
  2. वह उस देश से बाहर लगातार निश्चित वर्षों तक, जैसे सात वर्ष तक निवास करता रहा हो।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में नागरिकता किन-किन आधारों पर प्राप्त की जा सकती है?
अथवा
भारत में नागरिकता किस प्रकार हासिल की जा सकती है?
उत्तर:
भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीयकरण या किसी भू-क्षेत्र के राज क्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है।

प्रश्न 2.
किसी राज्य की नागरिकता हेतु दो शर्तें बताइये।
उत्तर:
किसी राज्य की नागरिकता हेतु निम्न दो शर्तों का होना आवश्यक होता है।

  1. यदि कोई विदेशी एक निश्चित अवधि तक विदेश में रहता है तो उसका देशीयकरण कर उसे उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है।
  2. यदि कोई स्त्री अन्य देश के नागरिक से विवाह कर लेती है तो उसे अपने पति के देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 3.
कोई नागरिक अपनी नागरिकता का स्वेच्छा से त्याग किस प्रकार कर सकता है?
उत्तर:
अनेक देश अपने नागरिकों को यह अधिकार प्रदान करते हैं कि यदि वे अपनी इच्छा के अनुसार वहाँ नागरिकता छोड़कर किसी दूसरे अन्य देश की नागरिकता ग्रहण करना चाहें तो वे सरकार की अनुमति लेकर ऐसा कर सकते हैं। इसके लिये नागरिकों को सरकार के पास आवेदन करना होता है। जर्मनी में नागरिकता की समाप्ति के लिये इस प्रकार का नियम प्रचलित है।

प्रश्न 4.
नागरिकों के प्रमुख राजनीतिक अधिकार कौन-कौनसे हैं? उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
नागरिकों के प्रमुख राजनीतिक अधिकार ये हैं।

  1. मत देने का अधिकार।
  2. विधायिका की सदस्यता हेतु प्रत्याशी बनने का अधिकार।
  3. राजकीय पद धारण करने का अधिकार।
  4. कानून के समक्ष समानता का अधिकार।

प्रश्न 5.
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाये रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर:
नागरिकों की स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिए राज्य को केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी भी आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिये।

प्रश्न 6.
एक आदर्श नागरिक लोकतंत्र को किस प्रकार मजबूती प्रदान कर सकता है?
उत्तर:
एक आदर्श नागरिक निम्न उपायों से लोकतंत्र को मजबूती प्रदान कर सकता है।

  1. प्रत्येक नागरिक को अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिये।
  2. प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह देश एवं सरकार के प्रति आस्था रखे एवं वफादार रहे और किसी भी तरह का देशद्रोहिता का कार्य न करे।

प्रश्न 7.
नागरिक और बाहरी व्यक्ति में क्या अन्तर है?
उत्तर:
नागरिक और बाहरी व्यक्ति में अन्तर: नागरिक वह व्यक्ति है जो किसी देश या राज्य का सदस्य होता है, वह उसके प्रति निष्ठावान होता है तथा नागरिक और राजनैतिक अधिकारों का उपभोग करता है। वह देश के शासन में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेता है। बाहरी व्यक्ति वह व्यक्ति होता है जो किसी देश में अस्थाई रूप से निवास करता है। उसे उस देश के राजनैतिक व नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं। वह देश के शासन में भाग नहीं लेता।

प्रश्न 8.
जन्मजात और देशीयकृत नागरिक में क्या अन्तर है?
उत्तर:
जन्मजात और देशीयकृत नागरिक में अन्तर: जन्मजात नागरिक वह व्यक्ति कहलाता है जो उस देश में पैदा होता है या उसके माता-पिता उस देश के नागरिक होते हैं, जिसमें वह निवास कर रहा है। देशीयकृत नागरिक वह व्यक्ति होता है जो किसी अन्य देश की नागरिकता कुछ आवश्यक शर्तों को प्राप्त करता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 9.
राज्य प्रदत्त नागरिकता कैसे प्राप्त की जाती है?
उत्तर:
नागरिकता सामान्यतः जन्म के आधार पर प्रदान की जाती है और जब यह राज्य द्वारा प्रदान की जाती है तो उसे देशीयकरण नागरिकता कहा जाता है। राज्य द्वारा नागरिकता अनेक तरीकों से प्राप्त की जा सकती है। यथा

  1. एक स्त्री विवाह के बाद अपने पति की नागरिकता प्राप्त कर लेती है।
  2. एक गोद लिया बच्चा, गोद लेने के बाद अपने नये माता-पिता की नागरिकता प्राप्त कर लेता है।
  3. यदि कोई विदेशी एक राज्य में लम्बी अवधि से रह रहा है तथा अपने मूल राज्य में लौटने का उसका कोई इरादा नहीं है, तो वह नागरिकता के लिए प्रार्थना पत्र दे सकता है। उस विदेशी को कुछ निश्चित औपचारिकताओं के बाद तथा कुछ शर्तों को पूरा करने के बाद नागरिकता प्रदान की जा सकती है।
  4. सरकारी नौकरी करने या सम्पत्ति खरीदने के आधार पर भी किसी बाहरी व्यक्ति को राज्य नागरिकता प्रदान कर सकता है।
  5. कुछ क्षेत्र के हस्तांतरण के बाद भी प्रकृतिस्थ नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्न 10.
दोहरी नागरिकता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
दोहरी नागरिकता: सामान्यतः एक व्यक्ति एक समय में केवल एक ही राज्य का नागरिक हो सकता है। लेकिन एक नागरिक को दोहरी नागरिकता की आवश्यकता होती है। जब एक व्यक्ति रक्त सम्बन्ध के सिद्धान्त के आधार पर एक राज्य की प्रकृतिस्थ नागरिकता प्राप्त करता है और क्षेत्र के सिद्धान्त के आधार पर दूसरे राज्य की नागरिकता प्राप्त करता है। इस प्रकार वह जन्म से दोहरी नागरिकता प्राप्त करता है। ऐसी स्थिति में जब वह व्यक्ति वयस्क होता है तो उसे उन दो नागरिकताओं में किसी एक को चुनना पड़ता है। इसके बाद उसकी दोहरी नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 11.
सार्वभौमिक नागरिकता से क्या आशय है?
उत्तर:
सार्वभौमिक नागरिकता: सार्वभौमिक नागरिकता की धारणा का आशय यह है कि सभी व्यक्ति, जो किसी राज्य में रहते हैं, राज्य द्वारा स्वीकार किये जाने चाहिए और उन्हें उस राज्य का नागरिक घोषित किया जाना चाहिए तथा सभी व्यक्ति समाज के पूर्ण तथा समान सदस्य के रूप में होने चाहिए तथा उन्हें समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति जो राज्य में रह रहा है, चाहे वह वहाँ जन्म से रह रहा हो या दूसरे राज्य का आप्रवासी हो, चाहे वह यहाँ विधिक और आधिकारिक तौर पर आया आप्रवासी हो, चाहे गैर-कानूनी रूप से आया घुसपैठिया हो, वह नागरिकता के अधिकार और स्तर का अधिकारी होना चाहिए। तब विश्व में कहीं भी कोई भी व्यक्ति शरणार्थी या राज्यविहीन नहीं होगा। लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है।

प्रश्न 12.
वैश्विक नागरिकता से क्या आशय है?
उत्तर:
वैश्विक नागरिकता: वैश्वीकरण की अवधारणा के विकास के साथ-साथ वैश्विक नागरिकता की अवधारणा का विकास हो रहा है। वैश्विक नागरिकता की अवधारणा में राज्य की सीमाओं तथा पासपोर्ट की आवश्यकता की बाधायें नहीं रहेंगी। विश्व के सभी भागों के लोग संचार के इंटरनेट, टेलीविजन और सेलफोन के साधनों के कारण परस्पर अन्तर्सम्बन्धित महसूस करते हैं। इस प्रकार एक व्यक्ति अपने आपको न केवल एक विशेष समाज का सदस्य महसूस करता है, बल्कि वह सम्पूर्ण विश्व का सदस्य भी महसूस करता है। इस प्रकार किसी विशेष राज्य की नागरिकता विश्व की नागरिकता में बदल दी जानी चाहिए। वैश्विक नागकिरता पूरे विश्व की सदस्यता के रूप में मिलनी चाहिए।

लेकिन यह अवधारणा अव्यावहारिक है क्योंकि कोई भी राज्य अपनी संप्रभुता को त्यागना नहीं चाहता। वैश्विक नागरिकता की अवधारण को व्यावहारिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि राष्ट्रीय नागरिकता को वैश्विक नागरिकता के साथ इस समझ के साथ जोड़ा जाये कि हम आज अन्तर्सम्बद्ध विश्व में रहते हैं। साथ ही हमें विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोगों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करना चाहिए तथा राष्ट्रीय सीमाओं के पार के लोगों और सरकारों के साथ काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

प्रश्न 13.
एक आदर्श नागरिक के लिये कौनसे गुण आपकी दृष्टि में आवश्यक हैं?
अथवा
एक आदर्श नागरिक के गुणों का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
उत्तर:
आदर्श नागरिक के गुण-एक आदर्श नागरिक में निम्नलिखित गुण होने आवश्यक हैं।

  1. एक अच्छे नागरिक को शिक्षित होना चाहिए ताकि उसे अपने अधिकारों व कर्तव्यों का ज्ञान हो सके।
  2. एक अच्छे नागरिक में समाज सेवा, दूसरों की सहायता, परस्पर प्रेम तथा सहनशीलता आदि गुण होने चाहिए।
  3. अच्छे नागरिक को दूसरे नागरिकों, समाज तथा राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।
  4. एक अच्छा नागरिक अपने देश के प्रति वफादार, देशभक्त व निष्ठावान होता है।

प्रश्न 14.
एक नागरिक और एक विदेशी में चार अन्तर लिखिये।
उत्तर:
एक नागरिक और एक विदेशी में अन्तर: एक नागरिक और एक विदेशी में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित

  1. एक नागरिक उस राज्य का स्थायी निवासी होता है जिसमें वह रह रहा है, जबकि विदेशी दूसरे राज्य का स्थायी निवासी होता है।
  2. नागरिकों को राजनैतिक, नागरिक व सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं, विदेशियों को नहीं।
  3. नागरिक अपने राज्य के प्रति भक्तिभाव रखता है, जबकि विदेशी उस राज्य के प्रति वफादार होता है जिसका कि वह नागरिक है।
  4. युद्ध के समय विदेशियों को राज्य की सीमा से बाहर जाने के लिए कहा जा सकता है, परन्तु नागरिकों को नहीं।

प्रश्न 15.
” लोकतंत्र के सफल संचालन के लिये नागरिकों का जागरूक होना जरूरी है। ” संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना जरूरी है। उदाहरण के लिए प्रतिवाद करने का अधिकार हमारे संविधान में नागरिकों के लिए सुनिश्चित की गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पक्ष है, बशर्ते कि वह प्रतिवाद दूसरे लोगों या राज्य के जीवन या सम्पत्ति को हानि न पहुँचाये। यदि नागरिक इस सम्बन्ध में जागरूक होंगे तो वे समूह बनाकर, प्रदर्शन कर, मीडिया का उपयोग कर, राजनीतिक दलों से अपील कर या अदालत में जाकर जनमत और सरकारी नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं। अदालतें उस पर निर्णय दे सकती हैं या समाधान के लिए सरकार से आग्रह कर सकती हैं। इससे समाज में समय-समय पर उत्पन्न होने वाली समस्याओं का सर्वमान्य समाधान निकल सकता है।

प्रश्न 16.
“नागरिकता राज्य सत्ता और उसके सदस्यों के बीच विधिक संबंधों का निरूपण है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
नागरिकों के विधिक कर्तव्यों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
नागरिकों के विधिक कर्तव्य: नागरिकों के विधिक कर्तव्य हैं जो राज्य द्वारा पारिभाषित, मान्य तथा लागू किये जाते हैं तथा जिनका उल्लंघन करने पर नागरिक दंड का भागी बनता है। नागरिकों के प्रमुख विधिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं।
1. कानूनों का पालन करना: राज्य शांति व्यवस्था तथा जीवन की सुरक्षा हेतु कानून बनाता है जो कि व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं। नागरिक का यह पहला कर्तव्य है कि वह राज्य द्वारा निर्मित कानूनों का पालन करे। वे व्यक्ति जो कानूनों का उल्लंघन करेंगे, उन्हें राज्य द्वारा दंडित किया जा सकता है। कानूनों का पालन करके नागरिक राज्य को उसके उद्देश्यों को पूरा करने में सहयोग करते हैं।

2. करों का भुगतान करना:
सरकार को अपने कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। सरकार धन की प्राप्ति हेतु कर लगाती है। अत: नागरिकों का यह कानूनी कर्तव्य है कि वे अपने हिस्से के करों का भुगतान ईमानदारी से करें। करों को ईमानदारी से न चुकाने पर राज्य द्वारा दण्ड भी दिया जा सकता है।

3. राज्य के प्रति वफादारी:\
राज्य प्रत्येक नागरिक को अनेक प्रकार के अधिकार प्रदान करता है; कई प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान करता है तथा बाहरी आक्रमणों व प्राकृतिक विपदाओं से उनकी रक्षा करता है। अतः प्रत्येकं नागरिक से राज्य के प्रति निष्ठा व भक्ति की आशा की जाती है। प्रत्येक नागरिक का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह देशद्रोह न करे तथा देश की रक्षा हेतु हर संभव प्रयत्न करे।

4. सैनिक सेवा में भाग लेना:
नागरिकों का यह भी कर्तव्य है कि आवश्यकता पड़ने पर देश की सुरक्षा हेतु सेना में भर्ती हो । राज्य की रक्षा हेतु नागरिकों से यह आशा की जाती है कि वे प्रत्येक चीज का त्याग करने, यहाँ तक कि अपने जीवन को न्यौछावर करने के लिए तैयार रहें।

5. राजनीतिक अधिकारों का उचित प्रयोग:
प्रत्येक नागरिक का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह अपने मत देने के अधिकार का सदुपयोग करे। यदि इस अधिकार का प्रयोग करके बुरे व्यक्तियों का चुनाव किया जायेगा तो वे शक्ति का दुरुपयोग करेंगे तथा पूरा समाज इसे भुगतेगा |

6. संविधान का आदर करना:
प्रशासन संविधान के अनुसार कार्य करता है। निर्वाचित व्यक्ति व मंत्रीगण संविधान की शपथ लेते हैं। इसलिए सभी नागरिकों को भी संविधान के प्रति आदर प्रदर्शित करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 17.
आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य अपने नागरिकों को कौन-कौन से राजनैतिक अधिकार प्रदान करते
उत्तर:
आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य अपने नागरिकों को निम्नलिखित राजनैतिक अधिकार प्रदान करते हैं।

  1. मतदान का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार प्रदान किया जाता है। इसके द्वारा वे समय-समय पर होने वाले चुनावों के द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। ये प्रतिनिधि ही सरकार का निर्माण करते हैं तथा शासन को चलाते हैं।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में प्रत्येक नागरिक को निर्वाचन में खड़ा होने का भी अधिकार है। निर्वाचित होने के बाद व्यक्ति नागरिकों के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का निर्माण करते हैं।
  3. सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर सरकारी नौकरियाँ पाने का अधिकार है।
  4. कानून के समक्ष समानता का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया जाता है।
  5. अभिव्यक्ति या धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को अभिव्यक्ति तथा धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 18.
“नागरिकता राज्यसत्ता और उसके सदस्यों के बीच विधिक सम्बन्धों के निरूपण के साथ-साथ नागरिकों के आपसी सम्बन्धों का भी निरूपण है ।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नागरिकता एक तरफ जहाँ राज्य सत्ता और उसके सदस्यों के बीच विधिक सम्बन्धों, जैसे कानूनों का पालन करने, करों का भुगतान करने, राज्य के प्रति वफादारी, सैनिक सेवा में भाग लेना, राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग तथा संविधान के आदर, आदि का निरूपण है। लेकिन इसके साथ ही साथ यह नागरिकों के आपसी सम्बन्धों के बारे में भी है। यथा

  1. इसमें नागरिकों के एक-दूसरे के प्रति और समाज के प्रति निश्चित दायित्व शामिल हैं।
  2. इसमें समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का नैतिक दायित्व भी शामिल होता है।
  3. नागरिकों को देश के सांस्कृतिक और प्राकृतिक संसाधनों का उत्तराधिकारी और न्यासी भी माना जाता है।

प्रश्न 19.
भारत में नागिरकता किस प्रकार मिलती है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीयकरण या किसी भू-क्षेत्र के राजक्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता प्राप्त की जा सकती है। यथा

  • संविधान लागू होने के पश्चात् भारत में पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति भारत का नागरिक होगा।
  • संविधान लागू होने के पश्चात् भारत के बाहर पैदा हुआ वह व्यक्ति भारत का नागरिक होगा, यदि जन्म के समय उसका पिता वंशक्रम से भारत का नागरिक रहा हो।
  • पंजीकरण के द्वारा निम्नलिखित व्यक्ति भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।
    1. भारत में उत्पन्न व्यक्ति जो पंजीकरण के लिए आवेदन पत्र देने के छ: महीने पहले से भारत में आमतौर पर निवास करते रहे हों।
    2. भारत में पैदा हुए व्यक्ति जो भारत के बाहर किसी अन्य देश में आमतौर पर निवास करते रहे हों।
    3. भारतीय नागरिकों की पत्नियाँ।
    4. भारतीय नागरिकों के नाबालिग बच्चे।
  •  कोई भी विदेशी व्यक्ति भारतीय सरकार को कुछ निर्धारित शर्तों का पालन करके आवेदन करके भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है। इसे देशीयकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्ति कहा जाता है।

प्रश्न 20.
नागरिकता किन-किन कारणों से खो जाती है? कोई चार कारण लिखिये।
अथवा
किसी नागरिक की नागरिकता कैसे समाप्त हो सकती है?
उत्तर:
नागरिकता की समाप्ति के कारण: किसी नागरिक की नागरिकता की समाप्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. देशद्रोह या निरंतर विद्रोही गतिविधियाँ: यदि कोई नागरिक देश के साथ गद्दारी करते हुए संविधान का अनादर करे तथा देश की शांति व्यवस्था को लगातार भंग करे तो उसे देश की नागरिकता से वंचित किया जा सकता है।
  2. किसी भू-भाग के पृथक् होने पर: यदि किसी देश का कोई भाग किसी समझौते या संधि द्वारा अलग हो जाए, तो वहाँ के सभी नागरिक दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त करेंगे व उन्हें पहले देश की नागरिकता छोड़नी होगी।
  3. विदेश में सरकारी अधिकारी के रूप में नियुक्ति: जब कोई व्यक्ति किसी विदेशी सरकार की सेवा में पद ग्रहण करता है, तो उसकी मूल नागरिकता समाप्त हो सकती है।
  4. विदेशी से विवाह: यदि कोई भारतीय स्त्री किसी विदेशी से विवाह करती है, तो वह भारतीय नागरिकता छोड़कर अपने पति के देश की नागरिकता ग्रहण कर सकती है।
  5. विदेश में स्थायी निवास: यदि कोई भारतीय नागरिक विदेश में स्थायी रूप में जाकर रहने लगे, तब वह अपने देश की नागरिकता खो देता है।

प्रश्न 21.
“नागरिक आज जिन अधिकारों का प्रयोग करते हैं, उन सभी को संघर्ष के बाद हासिल किया गया है।” ऐसे कुछ संघर्षों का उदाहरण दीजिए। यथा
उत्तर:
नागरिक आज जिन अधिकारों का प्रयोग करते हैं, उन सभी को संघर्ष के बाद हासिल किया गया है।

  1. यूरोप में राजतंत्रों के विरुद्ध संघर्ष:
    अनेक यूरोपीय देशों में जनता ने अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए कुछ प्रारंभिक संघर्ष शक्तिशाली राजतंत्रों के खिलाफ छेड़े थे। उनमें कुछ हिंसक संघर्ष भी थे, जैसे – 1789 की फ्रांसीसी क्रांति।
  2. एशिया व अफ्रीका में संघर्ष:
    एशिया और अफ्रीका के अनेक उपनिवेशों में समान नागरिकता की माँग औपनिवेशिक शासकों से स्वतंत्रता हासिल करने के संघर्ष का भाग रही। दक्षिण अफ्रीका में समान नागरिकता पाने के लिए अफ्रीका की अश्वेत आबादी को सत्तारूढ़ गोरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ लम्बा संघर्ष करना पड़ा जो 1990 के दशक के आरंभ तक जारी रहा।
  3. महिला व दलित आंदोलन:
    वर्तमान में विश्व के अनेक हिस्सों में महिला और दलित आंदोलन भी इस संघर्ष का एक भाग हैं।

प्रश्न 22.
आदर्श नागरिकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के उपाय लिखिये।
उत्तर:
आदर्श नागरिकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के उपाय: आदर्श नागरिकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए अग्रलिखित उपाय किये जा सकते हैं।

  1. उचित शिक्षा: आदर्श नागरिकता के मार्ग की प्रमुख बाधा अज्ञानता है। इस बाधा को दूर करने के लिए नागरिकों को मानवीय मूल्य पर आधारित उचित शिक्षा दिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। उचित शिक्षा से उनके विचारों में परिपक्वता आयेगी तथा अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का ज्ञान होगा।
  2. आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति: आदर्श नागरिकता के मार्ग की एक अन्य बाधा व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाना है। इसलिए देश में ऐसी आर्थिक व्यवस्था होनी चाहिए जिससे नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति सुचारु रूप से हो सके।
  3. राष्ट्रीय चरित्र का विकास: किसी भी राष्ट्र के व्यक्ति आदर्श नागरिक तभी बन सकते हैं जबकि उस राष्ट्र का राष्ट्रीय चरित्र उच्च कोटि का हो। अर्थात् लोग राष्ट्र को अपने स्वार्थों से ऊँचा स्थान दें तथा सभी प्रकार की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सोचें।
  4. विश्व बंधुत्व की भावना: आदर्श नागरिकता के मार्ग की एक अन्य बाधा उग्र राष्ट्रीयता की भावना है। यह नागरिकों की मनोवृत्ति संकीर्ण बनाती है। इस बाधा को दूर करने के लिए आवश्यक है कि वसुधैव कुटुम्बकम् एवं विश्व बंधुत्व की भावना को स्वीकार कर लिया जाये।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘नागरिक’ कौन होता है? भारतीय संविधान नागरिक के बारे में क्या कहता है? भारत में नागरिकता ग्रहण करने की पद्धतियों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
‘नागरिक’ से आशय: नागरिक वह व्यक्ति है जो किसी राज्य का सदस्य होता है, उसके प्रति निष्ठावान होता है, उसे नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं और वह देश के शासन में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में, भागीदार होता है।

भारत का संविधान एवं नागरिक: भारत के संविधान का भाग 2 केवल उन वर्गों के लोगों के बारे में उल्लेख करता है जो संविधान के लागू होने के समय अर्थात् 26 जनवरी, 1950 को भारतीय नागरिक माने गये। नागरिकता से संबंधित शेष बातों की व्यवस्था भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 में की गई है।

1. संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता: संविधान के प्रारंभ पर निम्नलिखित व्यक्तियों को अधिवास द्वारा नागरिकता प्रदान की गई।
संविधान के अनुच्छेद 5 के अनुसार इस संविधान के आरंभ पर प्रत्येक व्यक्ति, जिसका भारत में अधिवास (Domicile) है, भारत का नागरिक होगा, यदि

  • वह भारत में जन्मा हो। अथवा
  • उसके माता-पिता में से कोई भी भारत में जन्मा हो ।
  • जो संविधान के प्रारंभ होने से ठीक पहले कम से कम पांच वर्षों तक भारत का साधारण तौर से निवासी रहा हो।

इस प्रकार भारत में अधिवास (निवास) द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिए दो शर्तें पूरी होनी चाहिए – प्रथम, यह कि व्यक्ति का भारत में अधिवास हो; और दूसरा, यह कि वह व्यक्ति उक्त वर्णित तीन शर्तों में से एक शर्त पूरी कर रहा. हो।

2. भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार नागरिकता प्राप्त करने की विधियाँ:
भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार भारत में निम्नलिखित पांच प्रकार से नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।

  • जन्म से नागरिकता:
    संविधान लागू होने के पश्चात् भारत में पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति भारत का नागरिक होगा। लेकिन यदि उसके जन्म के समय उसके पिता को ऐसे मुकदमों या कानूनी प्रक्रियाओं से विमुक्ति प्राप्त थी, जो भारत में कूटनीतिक राजदूतों को प्रदान की जाती है या उसका पिता एक विदेशी शत्रु है और उसका जन्म ऐसे स्थान में होता है, जो उस समय शत्रु के कब्जे में है, तो ऐसा व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं होगा।
  • वंश क्रम द्वारा नागरिकता की प्राप्ति;
    कोई ऐसा व्यक्ति जो 26 जनवरी, 1950 को या उसके बाद भारत के बाहर पैदा हुआ हो, भारत का नागरिक होगा, यदि उसके जन्म के समय में उसका पिता वंशक्रम से भारत का नागरिक रहा हो।

3. पंजीकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्ति-व्यक्तियों के कुछ वर्ग जिन्हें भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं है, निर्धारित अधिकारियों के समक्ष पंजीकरण करवा कर उसे ग्रहण कर सकते हैं। पंजीकरण द्वारा निम्नलिखित व्यक्ति नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।

  • भारत में उत्पन्न व्यक्ति जो रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन पत्र देने के छः महीने पहले से भारत में आमतौर से निवास करते रहे हों।
  • भारत में पैदा हुए व्यक्ति जो भारत के बाहर किसी अन्य देश में आमतौर से निवास करते रहे हों।
  • भारतीय नागरिकों की पत्नियाँ।
  • भारतीय नागरिकों के नाबालिग बच्चे।

4. देशीयकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्ति:
कोई भी विदेशी व्यक्ति भारतीय सरकार को देशीयकरण के लिए आवेदन करके भारत की नागरिकता ग्रहण कर सकता है। देशीयकरण का अर्थ है। कुछ शर्तों का पालन करके किसी देश की नागरिकता लेना। हो। देशीयकरण द्वारा भारतीय नागरिकता प्राप्ति के लिए निम्नलिखित शर्तों को पूरा करना आवश्यक है।

  • वह किसी ऐसे देश का नागरिक न हो जहाँ भारतीय देशीयकरण द्वारा नागरिक बनने से रोक दिये जाते हों।
  • उसने अपने देश की नागरिकता का परित्याग कर दिया हो और केन्द्रीय सरकार को इस बात की सूचना दे दी
  • वह देशीयकरण के लिए आवेदन करने की तिथि से पहले 12 वर्ष तक या तो भारत में रहा हो या भारत सरकार की सेवा में रहा हो।
  • उपर्युक्त 12 वर्षों के पहले के कुल 7 वर्षों में से कम-से-कम 4 वर्ष तक उसने भारत में निवास किया हो या भारत सरकार की नौकरी में रहा हो।
  • वह अच्छे चरित्र का व्यक्ति हो।
  • वह राज्यनिष्ठा की शपथ ग्रहण करे।
  • उसे भारतीय संविधान द्वारा मान्य भाषा का सम्यक् ज्ञान हो।
  • देशीयकरण के प्रमाणपत्र की प्राप्ति के उपरान्त उसका भारत में निवास करने या भारत सरकार की नौकरी में रहने का इरादा हो।

5. क्षेत्र के समावेशन के आधार पर नागरिकता: यदि कोई नया क्षेत्र भारत का भाग बन जाता है, तो भारत सरकार उस क्षेत्र के लोगों को नागरिकता दे देगी।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 2.
भारतीय नागरिकता की समाप्ति कितने प्रकार से हो सकती है?
उत्तर:
भारतीय नागरिकता की समाप्ति: भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार भारतीय नागरिकता की समाप्ति निम्नलिखित तीन प्रकार से हो सकती है।
1. नागरिकता का परित्याग: कोई भी वयस्क भारतीय नागरिक, जो किसी दूसरे देश का भी नागरिक है, भारतीय नागरिकता को त्याग सकता है। इसके लिए उसे एक घोषणा करनी होगी और इस घोषणा के पंजीकृत हो जाने पर वह भारत का नागरिक नहीं रह जायेगा।

2. दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार करने पर यदि भारत का कोई भी नागरिक अपनी इच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता को स्वीकार कर लेता है तो उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है।

3. नागरिकता से वंचित किया जाना: भारत की केन्द्र सरकार किसी भी भारतीय नागरिक को उसकी नागरिकता से वंचित कर सकती है। देशीयकरण, पंजीकरण, अधिवास और निवास के आधार पर बने हुए किसी भी नागरिक को भारत सरकार एक आदेश जारी करके उसको नागरिकता से वंचित कर सकती है, बशर्ते कि उसे यह समाधान हो जाये कि लोकहित के लिए यह उचित नहीं है कि उसे भारत का नागरिक बने रहने दिया जाये। था। केन्द्र सरकार इस प्रकार का आदेश तभी जारी करेगी जब उसे इस बात का समाधान हो जाये कि

  • पंजीकरण या देशीयकरण कपट से, मिथ्या निरूपण से या किसी सारवान तथ्य को छिपाकर प्राप्त किया गया
  • उस व्यक्ति ने व्यवहार या भाषण द्वारा अपने को भारतीय संविधान के प्रति निष्ठाहीन दिखाया है।
  • किसी ऐसे युद्ध में, जिसमें भारत युद्धरत रहा हो, अवैध रूप से दुश्मन से व्यापार या संचार किया हो।
  • वह अपने पंजीकरण या देशीयकरण से पांच वर्ष की अवधि के अन्दर कम से कम दो वर्ष के लिए दण्डित किया गया हो।
  • यदि वह भारत से बाहर लगातार 7 वर्षों तक सामान्यतयां निवास करता रहा हो।

प्रश्न 3.
नागरिकता का अर्थ स्पष्ट करते हुये बताइये कि जन्मजात नागरिकता किन स्थितियों में प्राप्त होती
अथवा
नागरिकता से क्या आशय है? नागरिकता प्राप्त करने की विधियों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
नागरिकता का अर्थ: नागरिकता वह वैज्ञानिक व्यवस्था है जिसके द्वारा नागरिक को राज्य की ओर से सामाजिक और राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा उसे राज्य तथा दूसरे नागरिकों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार नागरिकता एक कानून सम्मत पद है। गैटिल के अनुसार, “नागरिकता किसी व्यक्ति की उस स्थिति को कहते हैं जिसके अनुसार वह अपने राज्य में साधारण और राजनीतिक अधिकारों का भोग करता है तथा अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए तैयार रहता है।” नागरिकता प्राप्त करने की विधियाँ किसी भी राज्य में नागरिकता प्राप्त करने की दो विधियाँ होती हैं।
(अ) जन्मजात नागरिकता
(ब) देशीयकरण द्वारा प्राप्त नागरिकता

(अ) जन्मजात नागरिकता: जन्मजात नागरिकता निम्नलिखित स्थितियों में प्राप्त होती है।

  1. रक्त या वंश के आधार पर:
    रक्त या वंश के आधार पर बच्चा जन्म लेते ही उस देश का नागरिक समझा जाता है, जिस देश के उसके माता-पिता नागरिक होते हैं, चाहे बच्चे का जन्म उसके माता-पिता के देश में हुआ हो या विदेश में । जर्मनी, फ्रांस आदि अनेक देशों में यही नियम मान्य है।
  2. जन्म स्थान के आधार पर:
    जन्म स्थान के आधार पर बच्चा उस देश का नागरिक समझा जाता है जहाँ उसका जन्म होता है, चाहे उसके माता-पिता किसी अन्य देश के नागरिक हों। अर्जेंटाइना में इसी नियम का पालन किया जाता है।
  3. मिश्रित नियम: इस नियम के अनुसार यदि किसी देश के नागरिकों की सन्तान का जन्म विदेश में होता है। अथवा विदेश के नागरिकों का जन्म उस देश में होता है, जहाँ उस देश के माता-पिता उस समय निवास कर रहे हैं तो दोनों ही स्थितियों में वह बच्चा उस देश का नागरिक होता है जहाँ उसका जन्म होता है। इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा भारत में इसी नियम को अपनाया गया है।

(ब) देशीयकरण द्वारा प्राप्त नागरिकता: देशीयकरण द्वारा निम्नलिखित उपायों से नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।

  1. निवास: यदि कोई विदेशी एक निश्चित अवधि तक विदेश में रहता है तो उसका देशीयकरण कर उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है। निवास की अवधि भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रखी गई है। भारत में यह 10 वर्ष रखी गयी है।
  2. विवाह: यदि कोई स्त्री अन्य देश के नागरिक से विवाह कर लेती है तो उसे अपने पति के देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है। अधिकांश देशों में यह विधि प्रचलित है।
  3. गोद लेने पर: यदि किसी देश का नागरिक किसी अन्य देश में उत्पन्न बालक को गोद ले लेता है तो वह बालक अपने देश की नागरिकता खोकर नये देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है।
  4. सरकारी पद: यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य देश में कोई सरकारी पद प्राप्त कर लेता है तो वह उस राज्य की नागरिकता प्राप्त कर सकता है। रूस में यह नियम प्रचलित है।
  5. सम्पत्ति क्रय द्वारा: यदि कोई व्यक्ति किसी देश में भूमि आदि अचल सम्पत्ति खरीद लेता है तो उसे उस देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है।
  6. विजय द्वारा: जब कोई देश युद्ध में अन्य देश पर विजय प्राप्त करके उसे अपने में मिला लेता है तो उस देश के नागरिकों को विजेता देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है।
  7. वैधता: यदि किसी नागरिक के किसी विदेशी महिला से अवैध सन्तान उत्पन्न हो जाये तो माता-पिता के आपस में नियमानुसार विवाह कर लेने पर सन्तान को पिता के देश की नागरिकता प्राप्त हो जाती है।
  8. योग्यता या विद्वता: कुछ देशों में कुछ प्रमुख विद्वानों को अपने देश की नागरिकता प्रदान कर दी जाती है अथवा उनके निवास की अवधि में रियायत कर दी जाती है, जैसे – 10 वर्ष के स्थान पर 1 वर्ष।

प्रश्न 4.
सार्वभौमिक नागरिकता की अवधारणा की व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
सार्वभौमिक नागरिकता: सार्वभौमिक नागरिकता से आशय यह है कि किसी देश की पूर्ण एवं समान सदस्यता उन सबको उपलब्ध होनी चाहिए, जो सामान्यतः उस देश में रहते या काम करते हैं या जो नागरिकता के लिए आवेदन करते हैं। किसी देश में रहने वाले सभी व्यक्तयों से यहाँ आशय यह है कि वे व्यक्ति उस देश में चाहे शरणार्थियों के रूप में रहे हों या अवैध आप्रवासियों के रूप में, यदि वे उस देश की नागरिकता के लिए आवेदन करते हैं, तो उन्हें उस देश की नागरिकता प्रदान करने से वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति जो किसी राज्य में रह रहा है, उसे उस राज्य की नागरिकता के लिए मान्यता देनी चाहिए।

लेकिन किसी भी राज्य द्वारा सार्वभौमिक नागरिकता प्रदान नहीं की जा रही है। सूडान के डरफन क्षेत्र के शरणार्थी, फिलिस्तीनी, बर्मी या बंगलादेशी शरणार्थी जैसे अनेक उदाहरण हैं जो अपने ही देश या पड़ौसी देश में शरणार्थी बनने के लिए मजबूर किये गये हैं और ये राज्यविहीन हैं, जिन्हें किसी देश की नागरिकता प्राप्त नहीं है। वे शिविरों या अवैध प्रवासियों के रूप में रहने को मजबूर हैं। प्रायः वे कानूनी रूप से कार्य नहीं कर सकते, संपत्ति अर्जित नहीं कर सकते। ऐसे लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिए कुछ विद्वानों ने सार्वभौमिक नागरिकता की अवधारणा प्रतिपादित की। सार्वभौमिक नागरिकता की अवधारणा की अव्यावहारिकता – यद्यपि सार्वभौमिक नागरिकता की अवधारणा एक प्रभावित करने वाला विचार है, लेकिन निम्नलिखित कारणों से यह व्यावहारिक नहीं है।

  1. प्रत्येक राज्य यह निर्धारित करता है कि उसकी जनसंख्या, क्षेत्र, रोजगार के अवसरों, व्यापार तथा व्यवसाय को ध्यान में रखते हुए कितने लोगों को राज्य में प्रवेश दिया जाना चाहिए। कोई भी राज्य लोगों की अनियंत्रित भीड़ को देश की अर्थव्यवस्था व आर्थिक विकास की दृष्टि से स्वीकार नहीं कर सकता।
  2. प्रत्येक राज्य को यह निर्धारित करना पड़ता है कि किस प्रकार को आप्रवासी उसकी अर्थव्यवस्था, सामाजिक वातावरण तथा संस्कृति के विकास के लिए उचित होंगे। कोई भी राज्य प्रत्येक प्रकार के आप्रवासियों – शिक्षित, अशिक्षित, कुशल और अकुशल- को आने की अनुमति देकर राज्य स्वयं की सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ना नहीं चाहता।
  3. राज्य को कानून और व्यवस्था को भी ध्यान में रखना पड़ता है। यदि वह अनियंत्रित शरणार्थियों को प्रवेश देने की स्वीकृति दे देगा तो उसके यहाँ कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है।
  4. आप्रवासियों का अनियंत्रित प्रवेश और उनको नागरिकता प्रदान करना सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक पहचान तथा आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव डाल सकता है।

अनेक देश यद्यपि वैश्विक और समावेशी नागरिकता का समर्थन करते हैं लेकिन वे नागरिकता देने की शर्तें भी निर्धारित करते हैं। ये शर्तें आमतौर पर देश के संविधान और कानूनों में लिखी होती हैं और अवांछित आगंतुकों को नागरिकता से बाहर रखने के लिए राज्य सत्ताएँ ताकत का प्रयोग करती हैं। राज्यकृत नागरिकता सभी अवैध लोगों को नागरिकता प्रदान करने में असमर्थ रहती है। इसलिए सार्वभौमिक नागरिकता की अवधारणा प्रभावित करती है और इस समस्या का हल भी सुझाती है, लेकिन संप्रभु राज्य की अवधारणा से मिलने वाली नागरिकता के चलते यह अवधारणा अव्यावहारिक है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 5.
शरणार्थियों द्वारा कौन-कौन सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है? वैश्विक नागरिकता की अवधारणा किस प्रकार इनकी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है?
अथवा
वैश्विक नागरिकता की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वैश्विक नागरिकता की अवधारणा: आज हम एक ऐसे विश्व में रहते हैं जो आपस में जुड़ा हुआ है। संचार के इंटरनेट, टेलीविजन और सेलफोन जैसे नये साधनों ने विश्व के विभिन्न हिस्सों की हलचलों को हमारे तत्काल सम्पर्क के दायरे में ला दिया है। टेलीविजन के पर्दे पर विनाश और युद्धों को देखने से विश्व के विभिन्न देशों के लोगों में साझे सरोकार और सहानुभूति विकसित होने में मदद मिली है। विश्व नागरिकता के समर्थकों का मत है कि चाहे विश्व- कुटुम्ब और वैश्विक समाज अभी विद्यमान नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार लोग आज एक-दूसरे से जुड़ा महसूस करते हैं।

इसलिए विश्व नागरिकता की अवधारणा की दिशा में सक्रिय हुआ जा सकता है। विश्व नागरिकता में विश्व के सभी व्यक्ति एक परिवार के सदस्य की तरह होते हैं। राज्यों की सीमाओं की बाधाएँ वैश्विक नागरिकता के अन्तर्गत समाप्त हो जायेंगी और विभिन्न राज्यों में व्यक्तियों तथा वस्तुओं का स्वतंत्र आवागमन होगा। अतः एक राज्य की नागरिकता पूरे विश्व में आने-जाने तथा सभी जगह समान अधिकारों की प्राप्ति के लिए पर्याप्त होगी। लोग यह महसूस करेंगे कि वे किसी व्यक्तिगत समाजों के सदस्य नहीं हैं, बल्कि एक वैश्विक समाज के सदस्य हैं।

शरणार्थियों से आशय: शरणार्थी वे व्यक्ति हैं जिन्हें किसी भी देश की नागरिकता प्राप्त नहीं है या वे राज्यविहीन व्यक्ति हैं। युद्ध, उत्पीड़न, अकाल या अन्य कारणों से लोग विस्थापित होते हैं। अगर कोई देश उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता और वे अपने घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन और शरणार्थी हो जाते हैं। अनेक देशों में युद्ध या उत्पीड़न से पलायन करने वाले लोगों को अंगीकार करने की नीति है। लेकिन वे भी लोगों की अनियंत्रित भीड़ को स्वीकार करना सुरक्षा के संदर्भ में देश को जोखिम में डालना नहीं चाहेंगे। भारत में यद्यपि उत्पीड़ित लोगों को आश्रय उपलब्ध कराने की नीति अपनायी गयी है, लेकिन भारत राष्ट्र की सभी सीमाओं से पड़ौसी देशों के लोगों का प्रवेश हुआ है और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। इनमें से अनेक लोग वर्षों या पीढ़ियों तक राज्यहीन व्यक्तियों के रूप में पड़े रहते हैं। शिविरों या अवैध प्रवासी के रूप में। ये हैं।

शरणार्थियों या राज्यविहीन व्यक्तियों की समस्यायें: राज्यविहीन व्यक्तियों या शरणार्थियों की प्रमुख समस्यायें

  1. वे शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने को मजबूर किये जाते हैं।
  2. उन्हें कोई भी सामाजिक-राजनैतिक अधिकार नहीं मिले होते।
  3. प्राय: वे कानूनी तौर पर काम नहीं कर सकते या अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते या सम्पत्ति अर्जित नहीं कर सकते।

वैश्विक नागरिकता की अवधारणा और शरणार्थियों की समस्याओं का समाधान यद्यपि अभी तक वैश्विक नागरिकता की अवधारणा का विचार अन्तर्राष्ट्रीय जगत में स्वीकार नहीं किया जा सका है, लेकिन यदि यह स्वीकार कर लिया जाता है तो यह शरणार्थियों की अनेक समस्याओं का समाधान कर देगा तथा उनके लिए लाभकारी रहेगा। यथा

  1. वैश्विक नागरिकता की अवधारणा के कारण संसार का कोई भी व्यक्ति राज्यविहीन या शरणार्थी नहीं रहेगा।
  2. शरणार्थी अधिकारों के वंचन से पीड़ित नहीं होंगे।
  3. पूरे विश्व के लोगों में राज्य की सीमाओं के आर-पार मानव जाति की सहायता करने का भाव विकसित होगा।
  4. वैश्विक नागरिकता अनेक वैश्विक समस्याओं, जैसे- आतंकवाद, पर्यावरण को खतरा, कुछ राज्यों में जनाधिक्य की समस्या तथा कुछ राज्यों में भोजन तथा स्वास्थ्य की समस्यायें आदि को हल करने में लाभप्रद होगी।

 

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. व्यक्ति के उच्चतम विकास हेतु परमावश्यक है।
(अ) अधिकार
(ब) सम्पत्ति
(स) न्याय व्यवस्था
(द) कानून
उत्तर:
(अ) अधिकार

2. राज्य द्वारा मान्य और कानून द्वारा रक्षित अधिकार कहे जाते हैं।
(अ) प्राकृतिक अधिकार
(ब) वैधानिक अधिकार
(स) नैतिक अधिकार
(द) परम्परागत अधिकार
उत्तर:
(ब) वैधानिक अधिकार

3. निर्वाचित होने का अधिकार निम्नांकित में से किस श्रेणी के अन्तर्गत आता है।
(अ) सामाजिक अधिकार
(ब) आर्थिक अधिकार
(स) राजनैतिक अधिकार
(द) धार्मिक अधिकार
उत्तर:
(स) राजनैतिक अधिकार

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

4. ‘अधिकार वह माँग है जिसे समाज स्वीकार करता है तथा राज्य लागू करता है।” यह कथन किसका है।
(अ) लास्की
(ब) ग्रीन
(स) बोसांके
(द) वाइल्ड
उत्तर:
(स) बोसांके

5. प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा के अन्तर्गत निम्न में से कौनसा अधिकार प्राकृतिक नहीं माना गया है।
(अ) काम का अधिकार
(ब) जीवन का अधिकार
(स) स्वतंत्रता का अधिकार
(द) संपत्ति का अधिकार
उत्तर:
(अ) काम का अधिकार

6. मानव अधिकारों के पीछे मूल मान्यता यह है कि-
(अ) अधिकार प्रकृति प्रदत्त हैं।
(ब) अधिकार ईश्वर प्रदत्त हैं।
(स) अधिकार जन्मजात हैं।
(द) मनुष्य होने के नाते सभी मनुष्य अधिकारों को पाने के अधिकारी हैं।
उत्तर:
(द) मनुष्य होने के नाते सभी मनुष्य अधिकारों को पाने के अधिकारी हैं।

7. आज प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा की जरूरत के प्रति चेतना ने कौनसे अधिकारों की मांग पैदा की है?
(अ) स्वच्छ हवा तथा शुद्ध जल जैसे अधिकारों की मांग
(ब) आजीविका के अधिकार तथा बच्चों के अधिकारों की मांग
(स) स्वतंत्रता व समानता के अधिकारों की मांग
(द) सम्पत्ति व सांस्कृतिक अधिकारों की मांग
उत्तर:
(अ) स्वच्छ हवा तथा शुद्ध जल जैसे अधिकारों की मांग

8. निम्नलिखित में कौनसा अधिकार राजनैतिक अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता है?
(अ) वोट देने का अधिकार
(ब) काम पाने का अधिकार
(स) चुनाव लड़ने का अधिकार
(द) राजनैतिक दल बनाने का अधिकार
उत्तर:
(ब) काम पाने का अधिकार

9. निम्नलिखित में कौनसा अधिकार आर्थिक अधिकार है?
(अ) स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जांच का अधिकार
(ब) विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार
(स) असहमति प्रकट करने का अधिकार
(द) बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हेतु पर्याप्त मजदूरी का अधिकार
उत्तर:
(द) बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हेतु पर्याप्त मजदूरी का अधिकार

10. नागरिकों का सांस्कृतिक अधिकार है।
(अ) काम पाने का अधिकार
(ब) स्वतंत्रता का अधिकार
(स) अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार
(द) चुनाव लड़ने का अधिकार
उत्तर:
(स) अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

11. निम्न में कौनसा अधिकार हमें सृजनात्मक और मौलिक होने का मौका देता है।
(अ) आजीविका का अधिकार
(ब) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
(स) समानता का अधिकार
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ब) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. अधिकार उन बातों का द्योतक है जिन्हें मैं और अन्य लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए ……………….. समझते हैं।
उत्तर:
आवश्यक

2. ……………… हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं।
उत्तर:
अधिकार

3. विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नए खतरे और चुनौतियाँ उभरती आयी हैं, त्यों-त्यों उन ………………… लगातार बढ़ती गई है, जिनका लोगों ने दावा किया है।
उत्तर:
मानवाधिकारों

4. हाल के वर्षों में प्राकृतिक अधिकार शब्द से ज्यादा …………………. शब्द का प्रयोग हो रहा है।
उत्तर:
मानवाधिकार

5. ………………… में उन अधिकारों का उल्लेख रहता है, जो बुनियादी महत्त्व के माने जाते हैं।
उत्तर:
संविधान।

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. अधिकार सिर्फ यह ही नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है, वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है।
उत्तर:
सत्य

2. हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता की मर्यादा का उल्लंघन किये बगैर काम करे।
उत्तर:
सत्य

3. धार्मिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी और राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं।
उत्तर:
असत्य

4. लोकतांत्रिक समाज वोट देने तथा प्रतिनिधि चुनने के दायित्वों को पूरा करने के लिए आर्थिक अधिकार मुहैया करा रहे हैं।
उत्तर:
असत्य

5. अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार राजनैतिक अधिकार के अन्तर्गत आता है।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. मत देने का अधिकार (अ) सांस्कृतिक अधिकार
2. रोजगार पाने का अधिकार (ब) संयुक्त राष्ट्र संघ
3. अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए (स) आर्थिक अधिकार संस्थाएँ बनाने का अधिकार
4. मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा (द) प्राकृतिक अधिकार
5. अधिकार ईश्वर प्रदत्त हैं। (य) राजनैतिक अधिकार

उत्तर:

1. मत देने का अधिकार (य) राजनैतिक अधिकार
2. रोजगार पाने का अधिकार (स) आर्थिक अधिकार
3. अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए (अ) सांस्कृतिक अधिकार
4. मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा (ब) संयुक्त राष्ट्र संघ
5. अधिकार ईश्वर प्रदत्त हैं। (द) प्राकृतिक अधिकार

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मानव अधिकारों के घोषणा पत्र से क्या आशय है ?
उत्तर:
मानव अधिकारों का संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र अधिकारों के उन दावों को मान्यता देने का प्रयास है। विश्व समुदाय गरिमा और आत्मसम्मानपूर्ण जीवन के लिए आवश्यक मानता है।

प्रश्न 2.
अधिकार किस सत्ता को सीमित करते हैं?
उत्तर:
अधिकार राज्य की सत्ता को सीमित करते हैं।

प्रश्न 3.
राजनीतिक अधिकार किन्हें प्राप्त होते हैं?
उत्तर:
राजनीतिक अधिकार नागरिकों को प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 4.
किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
दो प्रमुख राजनीतिक अधिकार हैं।

  1. मतदान करने एवं उम्मीदवार बनने का अधिकार
  2. सरकारी पद ग्रहण करने व सरकार की आलोचना का अधिकार।

प्रश्न 5.
मत देने और प्रतिनिधि चुनने का अधिकार किन अधिकारों के अन्तर्गत आता है?
उत्तर:
राजनीतिक अधिकारों के अन्तर्गत।

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प्रश्न 6.
एक आर्थिक और एक सामाजिक अधिकार का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
काम प्राप्त करने का अधिकार एक आर्थिक अधिकार है जबकि शिक्षा का अधिकार एक सामाजिक अधिकार

प्रश्न 7.
वयस्क मताधिकार से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
एक निश्चित उम्र के पश्चात् मत देने के लिए प्रदत्त अधिकार को वयस्क मताधिकार कहा जाता है।

प्रश्न 8.
संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को कब स्वीकार और लागू
उत्तर:
10 दिसम्बर, 1948 को।

प्रश्न 9.
संविधान में कौनसे अधिकारों का उल्लेख रहता है?
उत्तर:
संविधान में बुनियादी महत्व के अधिकारों का उल्लेख रहता है।

प्रश्न 10.
मानवाधिकारों की अवधारणा का प्रयोग किसलिए किया जाता रहा है?
उत्तर:
नस्ल, जाति, धर्म और लिंग पर आधारित असमानताओं को चुनौती देने के लिए।

प्रश्न 11.
भारत में संविधान में वर्णित अधिकारों को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
मूल अधिकार।

प्रश्न 12.
मानव अधिकार का आशय स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो लोगों के चहुँमुखी विकास एवं कल्याण के लिए अति आवश्यक होते

प्रश्न 13.
उस सिद्धान्त का नाम लिखिये जो अधिकारों को रीति-रिवाज एवं परम्पराओं की उपज मानता है।
उत्तर:
ऐतिहासिक सिद्धान्त।

प्रश्न 14.
किस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार कानून का परिणाम है?
उत्तर:
वैधानिक सिद्धान्त के अनुसार।

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प्रश्न 15.
अधिकारों के आदर्शवादी सिद्धान्त की क्या मान्यता है?
उत्तर:
एक आदर्श व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकारों की आवश्यकता है।

प्रश्न 16.
काम के अधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
काम के अधिकार से तात्पर्य है। प्रत्येक व्यक्ति को उचित पारिश्रमिक पर आजीविका के साधन उपलब्ध

प्रश्न 17.
मानवाधिकारों के दावों की सफलता किस कारक पर सर्वाधिक निर्भर करती है?
उत्तर:
मानवाधिकारों के दावों की सफलता सरकारों और कानून के समर्थन पर सर्वाधिक निर्भर करती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए व्यक्ति द्वारा समाज से किये जाने वाले वे दावे ( माँगें) हैं, जिन्हें समाज सामाजिक हित की दृष्टि से मान्यता प्रदान कर देता है और राज्य उनके संरक्षण की मान्यता दे देता है।

प्रश्न 2.
अधिकार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:

  1. अधिकार व्यक्तियों को सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
  2. अधिकार हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं क्योंकि ये लोगों की प्रतिभा और दक्षता को विकसित करने में सहयोग देते हैं।

प्रश्न 3.
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा क्या है?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा के अनुसार व्यक्ति के अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। वे व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त हैं। परिणामतः कोई व्यक्ति या शासक उन्हें हमसे छीन नहीं सकता।

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प्रश्न 4.
प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्तकारों ने कौनसे अधिकार प्राकृतिक बताए हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार थे।

  1. जीवन का अधिकार,
  2. स्वतंत्रता का अधिकार
  3. सम्पत्ति का अधिकार।

प्रश्न 5.
प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का प्रयोग किस उद्देश्य के लिए किया जाता था?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का प्रयोग राज्यों या सरकारों के द्वारा स्वेच्छाचारी शक्तियों के प्रयोग का विरोध करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 6.
मानवाधिकारों की अवधारणा के पीछे मूल मान्यता क्या है?
उत्तर:
मानवाधिकारों की अवधारणा के पीछे मूल मान्यता यह है कि सभी लोग मनुष्य होने मात्र से कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं। एक मानव के रूप में हर मनुष्य विशिष्ट और समान महत्त्व का है तथा सभी मनुष्य समान हैं, इसलिए सबको स्वतंत्र रहने तथा अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर मिलने चाहिए।

प्रश्न 7.
” विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नए खतरे और चुनौतियाँ उभरती आई हैं, त्यों-त्यों मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती गई है जिनका लोगों ने दावा किया है?” इस कथन को कोई एक उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
आज हम प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा की चुनौती का सामना कर रहे हैं, इस चुनौती के प्रति सजगता के चलते हमने जिन नये मानवाधिकारों की मांगें पैदा की हैं, वे हैं – स्वच्छ हवा, शुद्ध जल और टिकाऊ विकास के अधिकारों की मांग। इससे स्पष्ट होता है कि समाज में बढ़ते खतरों के प्रति सजगता ने मानवाधिकारों की सूची में वृद्धि की है।

प्रश्न 8.
मानवाधिकारों का क्या महत्व है?
उत्तर:
मानव अधिकारों के पीछे मूल मान्यता यह है कि सब लोग, मनुष्य होने मात्र से कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणा-पत्र उन दावों को मानव-अधिकारों के रूप में मान्यता प्रदान करता है, जिन्हें विश्व समुदाय सामूहिक रूप से गरिमा और आत्म- – सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक मानता है। पूरे विश्व के उत्पीड़ित लोग मानवाधिकारों की अवधारणा का प्रयोग उन कानूनों को चुनौती देने का कार्य कर रहे हैं, जो उन्हें समान अवसरों और अधिकारों से वंचित करते हैं। इस प्रकार मानव अधिकार मनुष्य के अच्छे जीवन जीने के लिए एक गारन्टी प्रदान करते हैं।

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प्रश्न 9.
“मेरा अधिकार राजसत्ता को खास तरीके से काम करने के कुछ वैधानिक दायित्व सौंपता है ।” इस कथन को एक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यदि कोई समाज यह महसूस करता है कि जीने के अधिकार का अर्थ अच्छे स्तर के जीवन का अधिकार है, तो वह राजसत्ता से ऐसी नीतियों के अनुपालन की अपेक्षा करता है कि वह स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छ पर्यावरण और अन्य आवश्यक निर्धारकों का प्रावधान करे। इससे स्पष्ट होता है कि मेरा अधिकार यहाँ राजसत्ता को खास तरीके से काम करने के लिए कुछ वैधानिक दायित्व सौंपता है।

प्रश्न 10.
नागरिकों के प्रमुख राजनैतिक अधिकार कौन-कौनसे हैं ? उल्लेख करो।
उत्तर:
नागरिकों के प्रमुख राजनीतिक अधिकार ये हैं।

  1. मत देने तथा प्रतिनिधि चुनने का अधिकार,
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार,
  3. राजनैतिक दल बनाने का अधिकार तथा
  4. किसी भी राजनैतिक दल का सदस्य बनने का अधिकार।

प्रश्नं 11.
चार ऐसे अधिकारों का उल्लेख कीजिए जो बुनियादी अधिकार के रूप में मान्य हैं।
उत्तर:

  1. जीवन का अधिकार,
  2. स्वतंत्रता का अधिकार,
  3. समान व्यवहार का अधिकार और
  4. राजनीतिक भागीदारी का अधिकार बुनियादी अधिकारों के रूप में मान्य हैं।

प्रश्न 12.
“अधिकार हमारे सम्मान और गरिमामय जीवन बसर करने के लिए आवश्यक हैं। ” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
अधिकार उन बातों का द्योतक है जिन्हें लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए आवश्यक समझते हैं। उदाहरण के लिए, आजीविका का अधिकार सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जरूरी है क्योंकि यह व्यक्ति को आर्थिक स्वतंत्रता देता है। इसी प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें सृजनात्मक और मौलिक होने का मौका देता है। चाहे यह लेखन के क्षेत्र में हो अथवा नृत्य, संगीत या किसी अन्य रचनात्मक क्रियाकलाप में

प्रश्न 13.
स्पष्ट कीजिये कि अधिकार हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर:
अधिकार हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं क्योंकि ये लोगों को उनकी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने में सहयोग देते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार हमारी तर्क शक्ति विकसित करने में मदद करता है, हमें उपयोगी कौशल प्रदान करता है और जीवन में सूझ-बूझ के साथ चयन करने में सक्षम बनाता है। यदि कोई कार्यकलाप हमारे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक है तो उसे अधिकार नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए, नशीली दवाएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं तथा धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसलिए इनके सेवन के अधिकार को मान्य नहीं किया जा सकता। अतः स्पष्ट है कि अधिकार वे दावे ही हो सकते हैं जो हमारी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने में सहयोग देते हैं।

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प्रश्न 14.
अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा क्या है?
उत्तर:
अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त: प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्तकारों के अनुसार अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। हमें ये अधिकार जन्म से प्राप्त हैं। परिणामतः कोई व्यक्ति या शासक उन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिन्हित किये थे

  1. जीवन का अधिकार,
  2. स्वतंत्रता का अधिकार और
  3. संपत्ति का अधिकार। हम इन अधिकारों का दावा करें या न करें, व्यक्ति होने के नाते हमें ये प्राप्त हैं।

प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा का प्रयोग राज्यों अथवा सरकारों के द्वारा स्वेच्छाचारी शक्ति के प्रयोग का विरोध करने तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 15.
मानवीय गरिमा के बारे में कांट के विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
मानवीय गरिमा- कांट का कहना है कि अन्य प्राणियों से अलग प्रत्येक मनुष्य की एक गरिमा होती है और मनुष्य होने के नाते उसके साथ इसी के अनुकूल बर्ताव किया जाना चाहिए। कांट के लिए, लोगों के साथ गरिमामय बर्ताव करने का अर्थ था- उनके साथ नैतिकता से पेश आना। यह विचार उन लोगों के लिए संबल था जो लोग सामाजिक ऊँच- नीच के खिलाफ और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे।

प्रश्न 16.
कांट के मानवीय गरिमा के विचार ने अधिकार की कौनसी अवधारणा प्रस्तुत की?
उत्तर:
कांट के मानवीय गरिमा के विचार ने अधिकार की एक नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। इस अवधारणा में निम्न बातों पर बल दिया गया है।

  1. हमें दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए, जैसा हम अपने लिए दूसरों से अपेक्षा करते हैं।
  2. हमें यह निश्चित करना चाहिए कि हम दूसरों को अपनी स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं बनायेंगे।
  3. हमें लोगों के साथ उस तरह का बर्ताव नहीं करना चाहिए जैसा कि हम निर्जीव वस्तुओं के साथ करते हैं।
  4. हमें लोगों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि वे मनुष्य हैं।

प्रश्न 17.
प्राकृतिक अधिकारों तथा मौलिक अधिकारों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकारों तथा मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं।

  1. मौलिक अधिकारों का वर्णन प्रत्येक देश के संविधान में होता है, लेकिन प्राकृतिक अधिकारों का नहीं।
  2. मौलिक अधिकार वाद योग्य हैं जबकि प्राकृतिक अधिकार नहीं।
  3. मौलिक अधिकार राज्य में उपलब्ध होते हैं, लेकिन प्राकृतिक अधिकार प्राकृतिक अवस्था में ही संभव हो सकते हैं।

प्रश्न 18.
विविध समाजों में बढ़ते खतरों और चुनौतियों के कारण मानवाधिकारों के नए दावे किये जा रहे हैं। ये दावे किस बात की अभिव्यक्ति करते हैं?
उत्तर:
विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नये खतरे व चुनौतियाँ उभरती हैं, त्यों-त्यों लोगों ने नवीन मानवाधिकारों की मांग की है। उदाहरण के लिए आज प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता व उसके प्रति बढ़ती जागरूकता ने स्वच्छ हवा, शुद्ध जल और टिकाऊ विकास जैसे अधिकारों की मांगें पैदा की हैं। ये दावे मानव गरिमा के अतिक्रमण के प्रति नैतिक आक्रोश के भाव को अभिव्यक्त करते हैं और वे समस्त मानव समुदाय हेतु अधिकारों के प्रयोग और विस्तार के लिए एकजुट होने का आह्वान करते हैं।

प्रश्न 19.
क्या कानूनी मान्यता के आधार पर किसी अधिकार का दावा किया जा सकता है?
उत्तर:
मानवाधिकारों की सफलता बहुत कुछ सरकारों और कानून के समर्थन पर निर्भर करती है। इसी कारण अधिकारों की कानूनी मान्यता को इतना महत्त्व दिया गया है। और इस महत्त्व को देखते हुए कुछ विद्वानों ने ‘अधिकार को ऐसे दावों के रूप में परिभाषित किया है, जिन्हें राज्य मान्यता दे। ‘ कानूनी मान्यता से यद्यपि हमारे अधिकारों को समाज में एक दर्जा मिलता है; तथापि कानूनी मान्यता के आधार पर किसी अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता ।

प्रश्न 20.
अधिकारों के चार प्रमुख लक्षण लिखिये।
उत्तर:
अधिकारों के चार प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं।

  1. अधिकार एक विवेकसंगत और न्यायसंगत दावा है अधिकार समाज में कुछ कार्य करने के लिए मनुष्य या मनुष्य समूह द्वारा किया गया वह विवेकसंगत और न्यायसंगत दावा है जिसे समाज द्वारा अधिकार के रूप में मान्य किया जाता है।
  2. अधिकार केवल समाज में ही संभव है-अधिकार केवल समाज में ही संभव है। समाज से बाहर कोई अधिकार संभव नहीं है।
  3. अधिकार समाज द्वारा प्रदत्त- मनुष्य का कोई दावा या माँग तभी अधिकार बनता है जब उसे समाज मान्यता प्रदान कर देता है। समाज की स्वीकृति के बिना कोई माँग (दावा) अधिकार का रूप नहीं ले सकती।
  4. अधिकार में सबका हित निहित है-समाज व्यक्ति के किसी दावे को सामाजिक हित की दृष्टि से ही स्वीकार कर उसे अधिकार का रूप प्रदान करता है। अतः प्रत्येक अधिकार में समाज का हित निहित होता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 21.
आधुनिक राज्य अपने नागिरकों को कौन-कौनसे राजनैतिक अधिकार प्रदान करते हैं?
उत्तर:
आधुनिक राज्य अपने नागरिकों को निम्न राजनैतिक अधिकार प्रदान करते हैं।

  1. मत देने का अधिकार: आधुनिक प्रजातांत्रिक राज्यों में अपने नागिरकों को वयस्क मताधिकार प्रदान किया गया है जिसके माध्यम से वे अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करते हैं और उन प्रतिनिधियों द्वारा शासन-कार्य किया जाता है।
  2. निर्वाचित होने का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य सभी नागरिकों को कुछ निश्चित अर्हताएँ पूरी करने के बाद निर्वाचित होने का अधिकार प्रदान करते हैं। इसी अधिकार के माध्यम से व्यक्ति देश की उन्नति में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है।
  3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार: आधुनिक राज्य अपने नागरिकों को योग्यता के आधार पर सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करते हैं।
  4. राजनैतिक दल बनाने व उसका सदस्य बनने का अधिकार: आधुनिक उदारवादी लोकतांत्रिक राज्य अपने नागिरकों को राजनैतिक दल बनाने या किसी राजनैतिक दल का सदस्य बनने का अधिकार भी प्रदान करते हैं।

प्रश्न 22.
राजनीतिक अधिकारों की दो विशेषताएँ बताइये तथा प्रमुख राजनीतिक अधिकारों का उल्लेख कीजिये हैं।
उत्तर:
राजनीतिक अधिकारों की विशेषताएँ।

  1. राजनीतिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी तथा राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते
  2. राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं।
  3. राजनीतिक अधिकार व नागरिक स्वतंत्रताएँ मिलकर लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव का निर्माण करते हैं।

प्रमुख राजनैतिक अधिकार: प्रमुख राजनैतिक अधिकार तथा नागरिक स्वतंत्रताएँ ये हैं-मत देने तथा प्रतिनिधि चुनने का अधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, राजनीतिक पार्टियाँ बनाने या उनमें शामिल होने का अधिकार । प्रमुख नागरिक स्वतंत्रताएँ हैं। विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जांच का अधिकार, प्रतिवाद करने तथा असहमति प्रकट करने का अधिकार।

प्रश्न 23.
आर्थिक अधिकार किसे कहते हैं? लोकतांत्रिक देश आर्थिक अधिकारों को किस तरह से मुहैया करा रहे हैं?
उत्तर:
आर्थिक अधिकार: आर्थिक अधिकार वे अधिकार हैं जिनके द्वारा व्यक्ति भोजन, वस्त्र, आवास तथा स्वास्थ्य जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हैं। इन बुनियादी जरूरतों को पूरा किये बिना राजनीतिक अधिकारों का कोई मूल्य नहीं है। करते हैं। लोकतांत्रिक समाज विभिन्न तरीकों से लोगों की इन आवश्यकताओं व अधिकारों को पूरा कर रहे हैं। यथा

  1. कुछ देशों में नागरिक, खासकर निम्न आय वाले नागरिक, आवास और चिकित्सा जैसी सुविधाएँ राज्य से प्राप्त।
  2. कुछ अन्य देशों में बेरोजगार व्यक्ति कुछ न्यूनतम भत्ता पाते हैं; ताकि वे अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकें।
  3. भारत में सरकार ने अन्य कार्यवाहियों के साथ-साथ ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरूआत की है।

प्रश्न 24.
अधिकार हमारे ऊपर क्या जिम्मेदारियाँ डालते हैं?
उत्तर:
अधिकार हम सब पर निम्नलिखित जिम्मेदारियाँ डालतें हैं।

  1. अधिकार हमें बाध्य करते हैं कि हम अपनी निजी जरूरतों और हितों की ही न सोचें, बल्कि कुछ ऐसी चीजों की भी रक्षा करें, जो हम सबके लिए हितकर हैं।
  2. अधिकार मुझसे यह अपेक्षा करते हैं कि मैं अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करूँ।
  3. टकराव की स्थिति में हमें अपने अधिकारों को संतुलित करना होता है।
  4. नागरिकों को अपने अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियंत्रणों के बारे में सतर्क तथा जागरूक रहना चाहिए।

प्रश्न 25.
नागरिक अधिकार तथा राजनीतिक अधिकार में अन्तर बताइये प्रत्येक का एक उदाहरण दीजिये।
उत्तर:
नागरिक अधिकार: नागरिक अधिकार वे अधिकार हैं जो कि व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता से संबंधित हैं वे व्यक्ति के सामाजिक विकास या समाज से व्यक्ति के सम्बन्धों से भी संबंधित होते हैं। ये मूलभूत तथा आवश्यक अधिकार हैं तथा गैर-लोकतांत्रिक राज्यों में भी ये नागरिकों को प्राप्त होते हैं। नागरिक अधिकारों के उदाहरण हैं। जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जांच का अधिकार तथा प्रतिवाद करने तथा असहमति व्यक्त करने का अधिकार आदि।

राजनीतिक अधिकार: राजनीतिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी तथा राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं। ये अधिकार सामान्यतः लोकतांत्रिक राज्यों में ही नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं। राजनीतिक अधिकारों के उदाहरण हैं- मत देने का अधिकार, प्रतिनिधि चुनने का अधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, राजनैतिक दल बनाने का अधिकार आदि।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार हमारे ऊपर क्या जिम्मेदारियाँ डालते हैं? उदाहरण सहित विवेचन कीजिये।
उत्तर:
अधिकार और जिम्मेदारियाँ
अधिकार न केवल राज्य पर यह जिम्मेदारी डालते हैं कि वह खास तरीके से काम करे, बल्कि हम सब पर भी यह जिम्मेदारी डालते हैं। इनका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।

1. सबके हित सम्बन्धी चीजों की रक्षा करना:
अधिकार हमें बाध्य करते हैं कि हम अपनी निजी जरूरतों और हितों की ही न सोचें, बल्कि कुछ ऐसी चीजों की भी रक्षा करें, जो हम सबके लिए हितकर हैं। उदाहरण के लिए, ओजोन परत की हिफाजत करना, वायु और जल प्रदूषण कम से कम करना, नए वृक्ष लगाकर और जंगलों की कटाई रोक कर हरियाली बरकरार रखना, पारिस्थितिकीय संतुलन कायम रखना आदि ऐसी चीजें हैं, जो हम सबके लिए अनिवार्य हैं। ये सबके हित की बातें हैं, जिनका पालन हमें अपनी और भावी पीढ़ियों की हिफाजत की दृष्टि से अवश्य करना चाहिए।

2. अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करना:
अधिकार यह अपेक्षा करते हैं कि मैं अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करूँ अगर मैं यह कहता हूँ कि मुझे अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार मिलना ही चाहिए तो मुझे दूसरों को भी यही अधिकार देना होगा। अगर मैं अपनी पसंद के कपड़े पहनने में, संगीत सुनने में दूसरों का हस्तक्षेप नहीं चाहता, तो मुझे भी दूसरों की पसंदगी में दखलंदाजी से बचना होगा। मेरे अधिकार में मेरा यह कर्त्तव्य निहित है कि मैं दूसरों को इसी तरह के अधिकार का उपभोग करने दूँ।

अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए मैं दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता। मैं स्वतंत्र भाषण देने के अधिकार का प्रयोग अपने पड़ोसी की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने के लिए नहीं कर सकता। इससे उसके जीवन के अधिकार में बाधा पहुँचेगी और मेरा यह दायित्व है कि मैं अपने अधिकार का प्रयोग अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करते हुए ही कर सकता हूँ। दूसरे शब्दों में, मेरे अधिकार सबके लिए बराबर और एक ही अधिकार के सिद्धान्त से सीमाबद्ध हैं।

3. टकराव की स्थिति में अपने अधिकारों को संतुलित करना:
मेरे अधिकार में ही मेरा यह दायित्व निहित है कि टकराव की स्थिति में मैं अपने अधिकारों को संतुलित करूँ। उदाहरण के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मेरा अधिकार मुझे तस्वीर लेने की अनुमति देता है, लेकिन अगर मैं अपने घर में नहाते हुए किसी व्यक्ति की उसकी इजाजत के बिना तस्वीर ले लूँ और उसे इंटरनेट पर डाल दूँ, तो यह उसकी गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होगा। इसलिए मुझे मेरे अधिकार को उस स्थिति में सीमित कर लेना चाहिए जब वह किसी दूसरे के अधिकार में दखलंदाजी करता हो।

4. अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियंत्रणों के प्रति जागरूक रहना:
नागरिकों का यह दायित्व है कि वे अपने अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियंत्रणों के प्रति जागरूक रहें। आजकल कई सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों की स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध लगा रही हैं। नागरिकों के अधिकारों और भलाई की रक्षा के लिए जरूरी मान कर राष्ट्रीय सुरक्षा का समर्थन किया जा सकता है। लेकिन किसी बिंदु पर सुरक्षा के लिए आवश्यक मान कर थोपे गए प्रतिबंध अपने आप में लोगों के अधिकारों के लिए खतरा बन जायें तो ? क्या उसे लोगों की चिट्ठियाँ देखने या फोन टेप करने की इजाजत दी जा सकती है? क्या सच कबूल करवाने के लिए उसे यातना का सहारा लेने दिया जाना चाहिए?

ऐसी स्थितियों में यह प्रश्न उठता है कि संबद्ध व्यक्ति समाज के लिए खतरा तो नहीं पैदा कर रहा है? गिरफ्तार लोगों को भी कानूनी सलाह की इजाजत या न्यायालय के सामने अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर मिलना चाहिए। इसलिए लोगों की नागरिक स्वतंत्रता में कटौती करते समय हमें अत्यन्त सावधान होने की आवश्यकता है क्योंकि इनका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। सरकारें निरंकुश हो सकती हैं, वे लोगों के कल्याण की जड़ खोद सकती हैं। इसलिए हमें अपने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने में सतर्क तथा जागरूक रहना चाहिए क्योंकि यह जागरूकता ही लोकतांत्रिक समाज की नींव का निर्माण करती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 2.
अधिकार किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अधिकार का अर्थ तथा परिभाषा: व्यक्ति की उन मांगों को अधिकार कहते हैं जो उसने अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज के समक्ष रखीं और समाज ने उन्हें समाज के हित की दृष्टि से उचित मानते हुए मान्यता दे दी। कुछ विद्वान अधिकारों के लिए सामाजिक मान्यता के साथ-साथ राज्य की मान्यता को भी आवश्यक मानते हैं। क्योंकि अधिकारों की सफलता के लिए राज्य का संरक्षण अर्थात् कानूनी संरक्षण अति आवश्यक है।

इसलिए वे अधिकार को ऐसे दावों के रूप में परिभाषित करते हैं, जिन्हें राज्य ने मान्य किया हो। लेकिन कानूनी मान्यता के आधार पर किसी अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता। कभी-कभी राज्य द्वारा असंरक्षित लेकिन समाज द्वारा मान्य मांगें भी अधिकार कहलाती हैं। जैसे काम पाने का अधिकार राज्य ने भले ही स्वीकार न किया हो, परन्तु समाज द्वारा मान्य होने पर वह अधिकार कहलायेगा। है।” अधिकार की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. बोसांके के अनुसार, “एक अधिकार समाज द्वारा मान्यता प्राप्त तथा राज्य द्वारा प्रवर्तित व्यक्ति का एक दावा
  2. लास्की के अनुसार, ” अधिकार सामाजिक जीवन की वे दशाएँ हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का सर्वोत्तम विकास नहीं कर सकता।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि अधिकारों का अर्थ उन सुविधाओं, स्वतंत्रताओं तथा अवसरों का होना है जो कि एक व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक हैं तथा जो समाज द्वारा मान्य तथा राज्य द्वारा संरक्षित हैं।

अधिकारों की विशेषताएँ अधिकारों की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई जा सकती हैं।
1. अधिकार एक दावा है:
अधिकार समाज में कुछ कार्य करने के लिए मनुष्य या मनुष्य समूह द्वारा किया गया एक दावा है। यह दावा समाज के प्रति किया जाता है। मनुष्य समाज के समक्ष अपनी आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपनी मांगें प्रस्तुत करता है।

2. अधिकार केवल समाज में ही संभव हैं: समाज से बाहर कोई अधिकार संभव नहीं है। अधिकार केवल समाज में ही संभव हैं।

3. अधिकार समाज द्वारा प्रदत्त होते हैं: मनुष्य की कोई मांग या दावा तभी अधिकार बनता है जब उसे समाज मान्यता प्रदान कर देता है। कोई दावा या मांग जो समाज द्वारा स्वीकृत नहीं की जाती है, अधिकार नहीं बन सकती।

4. अधिकार विवेकसंगत और न्यायसंगत दावा है:
व्यक्ति का केवल वही दावा समाज द्वारा अधिकार के रूप में मान्य होता है जो न्यायसंगत तथा विवेकसंगत होता है। यदि समाज इस बात से सहमत हो जाता है कि व्यक्ति द्वारा किया गया दावा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास तथा समाज के हित के लिए आवश्यक हैं या समाज के लिए हानिकारक नहीं है, तभी समाज उस दावे को अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान करता है। कोई भी अन्यायपरक तथा अविवेकीय दावा समाज द्वारा अधिकार के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता।

5. अधिकार में सबका हित निहित है:
अधिकार में सबका कल्याण निहित है। समाज किसी दावे को सबके हित की दृष्टि से ही स्वीकार करता है और अधिकार का उपभोग समाज के हित में ही करना होता है। ऐसा कोई भी अधिकार व्यक्ति को प्रदान नहीं किया जा सकता जो कि समाज के लिए हानिकारक हो या लोगों के कल्याण के विरुद्ध हो । एक अधिकार का उपभोग सामाजिक हित पर प्रतिबन्ध लगाकर नहीं किया जा सकता।

6. अधिकार सीमित हैं:
समाज में किसी व्यक्ति को निरपेक्ष अधिकार (Absolute right) नहीं दिया जा सकता। उस पर युक्तियुक्त सीमाएँ समाज के हित में हमेशा लगी होती हैं। किसी व्यक्ति को अधिकारों के दुरुपयोग की अनुमति नहीं दी जा सकती। किसी व्यक्ति को यह अनुमति भी नहीं दी जा सकती कि वह अपने अधिकार का उपभोग करने में दूसरों को हानि पहुँचाये।

7. अधिकार सबको समान रूप से प्रदान किये जाते हैं:
अधिकार सार्वभौमिक हैं तथा वे समाज के सभी लोगों को समानता के आधार पर प्रदान किये जाते हैं। जो स्वतंत्रताएँ एक को प्रदान की जाती हैं, वे ही स्वतंत्रताएँ अन्य लोगों को भी प्रदान की जाती हैं। अधिकारों के प्रदान करने में जाति, रंग, वंश, जन्म तथा लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।

8. अधिकार विकासशील हैं:
अधिकार हमेशा के लिए समान रूप में नहीं रहते। वे देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। समाज व्यक्ति के दावों को लोगों के विचार, समय और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुरूप मान्यता प्रदान करता है। इसलिए अधिकारों की कोई निश्चित और स्थायी सूची नहीं बनाई जा सकती है। विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नयी चुनौतियाँ तथा आवश्यकताएँ उभरती हैं, त्यों-त्यों उनका सामना करने के लिए लोगों द्वारा समाज के समक्ष नये दावे प्रस्तुत किये जाते हैं। इस प्रकार अधिकारों की सूची वर्तमान काल में निरन्तर बढ़ती जा रही है।

9. अधिकारों में कर्त्तव्य निहित हैं:
अधिकार और कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्रत्येक मेरे अधिकार में मेरा कर्त्तव्य भी निहित है, उसके प्रति अन्य लोगों के कर्त्तव्य तथा राज्य के कर्त्तव्य भी निहित हैं।

10. अधिकार राज्य द्वारा संरक्षित हैं:
एक अधिकार तभी सफल हो सकता है जब राज्य के कानूनों द्वारा उसकी सुरक्षा की जाये। अधिकारों की सफलता में राज्य व उसके कानून के महत्त्व को देखते हुए यह भी कहा जाता है कि एक अधिकार वह दावा है जिसे राज्य संरक्षित करे तथा लागू करे। राज्य ही अधिकारों को मान्यता देता है, परिभाषित करता है, लागू करता है तथा उनकी सुरक्षा करता है। राज्य उन व्यक्तियों को दंडित करता है जो दूसरों के अधिकारों के विरुद्ध कार्य करते हैं। राज्य के बाहर अधिकारों का प्रवर्तन संभव नहीं है। अतः स्पष्ट है कि अधिकार वे सुविधाएँ, स्वतंत्रताएँ और अवसर हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास तथा समाज हित के लिए समाज द्वारा व्यक्ति को प्रदान किये गए हैं तथा वे राज्य द्वारा संरक्षित हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 3.
अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा बताते हुए उसके विभिन्न स्वरूपों/प्रकारों की व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा: अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा के लिए पूर्व प्रश्न का उत्तर देखें । अधिकार के विभिन्न स्वरूप ( प्रकार ) अधिकार के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं।
1. राजनैतिक तथा नागरिक अधिकार:
अधिकांशतः लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ राजनैतिक अधिकारों का घोषणा- पत्र बनाने से अपनी शुरुआत करती हैं। राजनैतिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी तथा राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं। इनमें वोट देने और प्रतिनिधि चुनने, चुनाव लड़ने, राजनीतिक पार्टियाँ बनाने या उनमें शामिल होने जैसे अधिकार शामिल हैं। राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं या नागरिक अधिकारों से जुड़े होते हैं। नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ है। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जाँच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार, प्रतिवाद करने तथा असहमति प्रकट करने का अधिकार। इस प्रकार नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकार मिलकर किसी सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियाद का निर्माण करते हैं।

2. आर्थिक अधिकार:
राजनीतिक भागीदारी का अपना अधिकार पूरी तरह से हम तभी अमल में ला सकते हैं जब भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य जैसी हमारी बुनियादी जरूरतें पूरी हों। इसीलिये लोकतांत्रिक समाज इन दायित्वों को स्वीकार कर रहे हैं और आर्थिक अधिकार मुहैया कर रहे हैं। कुछ देशों में नागरिक, खासकर निम्न आय वाले नागरिक, आवास और चिकित्सा जैसी सुविधायें राज्य से प्राप्त करते हैं। कुछ अन्य देशों में बेरोजगार व्यक्ति कुछ न्यूनतम भत्ता पाते हैं, ताकि वे अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकें। भारत में, सरकार ने ग्रामीण और शहरी गरीबों की मदद के लिये अन्य कार्यवाहियों के साथ हाल में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरूआत की है।

3. सांस्कृतिक अधिकार:
अधिकाधिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ नागरिकों के सांस्कृतिक दावों को भी मान्यता दे रही हैं। अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिये संस्थाएँ बनाने के अधिकार को बेहतर जिन्दगी जीने के लिये आवश्यक माना जा। इस प्रकार लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अधिकारों की सूची लगातार बढ़ती गई है रहा है।

4. बुनियादी अधिकार:
कुछ मूल अधिकार जैसे- जीने का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, समान व्यवहार का अधिकार और राजनीतिक भागीदारी का अधिकार, ऐसे बुनियादी अधिकार के रूप में मान्य हैं, जिन्हें प्राथमिकता देनी ही है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौनसा कथन असत्य है।
(अ) न्याय मिलने में देरी न्याय मिलने के समान होता है।
(ब) भारत में स्त्रियों और पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन देने की व्यवस्था की गई है।
(स) प्राचीन भारत समाज में न्याय धर्म के साथ जुड़ा था।
(द) कनफ्यूशियस का तर्क था कि गलत करने वालों को दंडित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम रखना चाहिए।
उत्तर:
(अ) न्याय मिलने में देरी न्याय मिलने के समान होता है।

2. न्याय का अर्थ है।
(अ) अपने मित्रों के साथ भलाई करना
(ब) अपने दुश्मनों का नुकसान करना
(स) अपने हितों को साधना
(द) सभी लोगों की भलाई सुनिश्चित करना।
उत्तर:
(द) सभी लोगों की भलाई सुनिश्चित करना।

3. ‘न्याय का सिद्धान्त’ पुस्तक के लेखक हैं।
(अ) डायसी
(ब) आस्टिन
(स) जॉन रॉल्स
(द) प्लेटो।
उत्तर:
(स) जॉन रॉल्स

4. निम्न में से किसमें न्याय का समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त लागू हुआ है।
(अ) एक स्कूल में पुरुष शिक्षक को महिला शिक्षक से अधिक वेतन मिलता है।
(ब) पत्थर तोड़ने के किसी काम में सभी जातियों के लोगों को समान पारिश्रमिक दिया गया है।
(स) छात्रों को उनकी पुस्तिकाओं की गुणवत्ता के आधार पर अंक दिये गये।
(द) विकलांग लोगों को नौकरियों में प्रवेश के लिए आरक्षण दिया गया।
उत्तर:
(ब) पत्थर तोड़ने के किसी काम में सभी जातियों के लोगों को समान पारिश्रमिक दिया गया है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

5. विभिन्न राज्य सरकारों ने भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम उठाये हैं।
(अ) लोगों के साथ समाज के कानूनों और नीतियों के संदर्भ में समान बरताव करने के लिए।
(ब) जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए।
(स) सबको समान भूमि वितरण के लिए।
(द) बंजर पड़ी भूमि के वितरण के लिए।
उत्तर:
(ब) जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए।

6. न्याय के ‘अज्ञानता के आवरण’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
(अ) सुकरात
(ब) प्लेटो ने
(स) कांट ने
(द) रॉल्स ने।
उत्तर:
(द) रॉल्स ने।

7. ” न्यायपूर्ण समाज वह है, जिसमें परस्पर सम्मान की बढ़ती हुई भावना और अपमान की घटती हुई भावना मिलकर एक करुणा से भरे समाज का निर्माण करे।” यह कथन है।
(अ) डॉ. भीमराव अंबेडकर का
(स) प्लेटो का
(ब) जे. एस. मिल का
(द) रॉल्स का।
उत्तर:
(अ) डॉ. भीमराव अंबेडकर का

8. न्याय के सम्बन्ध में न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है।
(अ) जे. एस. मिल द्वारा
(ब) बेंथम द्वारा
(स) जॉन रॉल्स द्वारा
(द) प्लेटो द्वारा।
उत्तर:
(स) जॉन रॉल्स द्वारा

9. न्याय पर लिखी गई प्लेटो की पुस्तक का नाम है।
(अ) पॉलिटिक्स
(ब) रिपब्लिक
(स) सामाजिक समझौता
(द) न्याय का सिद्धान्त।
उत्तर:
(ब) रिपब्लिक

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

10. सामाजिक न्याय का वर्णन भारतीय संविधान में कहाँ किया गया हैं?
(अ) राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में
(स) मौलिक अधिकारों में
(ब) प्रस्तावना में
(द) सर्वोच्च न्यायालय में।
उत्तर:
(ब) प्रस्तावना में

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. प्राचीन भारतीय समाज में न्याय …………….. के साथ जुड़ा था।
उत्तर:
धर्म

2. प्लेटो के अनुसार न्याय में हर व्यक्ति को उसका ………………… देना शामिल है।
उत्तर:
वाजिब हिस्सा

3. कांट के अनुसार, अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक का …………………. यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हो ।
उत्तर:
प्राप्य

4. समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का …………………. के सिद्धान्त के साथ संतुलन बिठाने की जरूरत है।
उत्तर:
समानुपातिकता

5. जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ …………………. से बरताव किया जाये।
उत्तर:
भिन्न ढंग।

निम्नलिखित में से सत्य/ असत्य कथन छाँटिये

1. योग्यता के पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे।
उत्तर:
सत्य

2. सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से नहीं है।
उत्तर:
असत्य

3. रॉल्स का न्याय सिद्धान्त ‘अज्ञानता के आवरण में सोचना’ है।
उत्तर:
सत्य

4. न्याय के लिए लोगों के रहन-सहन के तौर-तरीकों में पूर्ण समानता और एकरूपता की आवश्यकता है।
उत्तर:
असत्य

5. मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबंधित बाजार का समर्थन करते हैं।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. रिपब्लिक (अ) प्राचीन भारतीय समाज
2. न्याय धर्म के साथ जुड़ा था (ब) चीन के दार्शनिक
3. इमैनुएल कांट (स) न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त
4. कन्फ्यूशस (द) एक जर्मन दार्शनिक
5. जॉन रॉल्स (य) प्लेटो

उत्तर:

1. रिपब्लिक (य) प्लेटो
2. न्याय धर्म के साथ जुड़ा था (अ) प्राचीन भारतीय समाज
3. इमैनुएल कांट (द) एक जर्मन दार्शनिक
4. कन्फ्यूशस (ब) चीन के दार्शनिक
5. जॉन रॉल्स (स) न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सही मिलान करें

(क) प्लेटो (i) भारतीय संविधान के निर्माताओं में महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेडकर (ii) द रिपब्लिक का लेखक
(ग) मुक्त बाजार नीति (iii) सुप्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक
(घ) जॉन रॉल्स (iv) राज्य के हस्तक्षेप की विरोधी

उत्तर:

(क) प्लेटो (ii) द रिपब्लिक का लेखक
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेडकर (i) भारतीय संविधान के निर्माताओं में महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
(ग) मुक्त बाजार नीति (iv) राज्य के हस्तक्षेप की विरोधी
(घ) जॉन रॉल्स (iii) सुप्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक

प्रश्न 2.
प्लेटो के अनुसार न्याय क्या है?
उत्तर:
प्लेटो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य मिल जाये, यही न्याय है।

प्रश्न 3.
सुकरात ने न्यायसंगत होना क्यों आवश्यक बताया है?
उत्तर:
सुकरात ने न्यायसंगत होना इसलिए आवश्यक बताया क्योंकि न्याय में सभी की भलाई निहित रहती है।

प्रश्न 4.
सामाजिक न्याय से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि वस्तुओं और सेवाओं का न्यायोचित वितरण हो।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 5.
प्लेटो ने न्याय सम्बन्धी विचार किस पुस्तक में व्यक्त किये हैं?
उत्तर:
‘द रिपब्लिक’ में।

प्रश्न 6.
भारत में संविधान में सामाजिक न्याय का उल्लेख कहाँ किया गया है?
उत्तर:
प्रस्तावना में।

प्रश्न 7.
न्याय की देवी की प्रतिमा में उसकी आँखों पर बँधी पट्टी किस बात का संकेत करती है?
उत्तर:
उसके निष्पक्ष रहने का संकेत करती है।

प्रश्न 8.
सामाजिक न्याय में किस पर बल दिया जाता है?
उत्तर:
अन्याय के उन्मूलन पर।

प्रश्न 9.
अन्यायपूर्ण समाज की कोई एक विशेषता बताइये।
उत्तर:
वह समाज जहाँ वंचितों को अपनी स्थिति सुधारने का कोई मौका न मिले, अन्यायपूर्ण समाज कहलाता है।

प्रश्न 10.
‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की एक विशेषता लिखिये।
उत्तर:
इसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील बने रहने की उम्मीद बँधती है।

प्रश्न 11.
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार की क्या जिम्मेदारी बन जाती है?
उत्तर:
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार को न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की जिम्मेदारी बन जाती है।

प्रश्न 12.
न्याय के सम्बन्ध में चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस का क्या तर्क था?
उत्तर:
कन्फ्यूशियस के अनुसार गलत करने वालों को दण्डित करना और भले लोगों को पुरस्कृत करना ही न्याय

प्रश्न 13.
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार की क्या जिम्मेदारी बन जाती है?
उत्तर:
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार को न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों में सामंजस्य स्थापित करने की जिम्मेदारी बन जाती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्लाउकॉन और एडीमंटस के अनुसार अन्यायी लोग न्यायी लोगों से किस प्रकार बेहतर स्थिति में हैं?
उत्तर:
ग्लाउकॉन के अनुसार, अन्यायी लोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कानून तोड़ते-मरोड़ते हैं, कर चुकाने से कतराते हैं, झूठ और धोखाधड़ी का सहारा लेते हैं। इसलिए वे न्याय के रास्ते पर चलने वाले लोगों से ज्यादा सफल होते हैं।

प्रश्न 2.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये? इस सम्बन्ध में कौन-कौन से सिद्धान्त पेश किये गये
उत्तर:
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये, इस सम्बन्ध में तीन सिद्धान्त पेश किये गये हैं। ये हैं-

  1. समान लोगों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त
  2. समानुपातिक न्याय का सिद्धान्त और
  3. विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 3.
यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं तो सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए क्या और क्यों जरूरी होगा?
उत्तर:
यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समान धरातल मिल सके।

प्रश्न 4.
राज्य को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की मदद के तीन तरीके बताइये।
उत्तर:

  1. खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना तथा समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को हानि पहुँचाये बिना सुविधाहीनों की मदद करना।
  2. सरकार द्वारा गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराना।
  3. वंचितों के लिए आरक्षण की नीति लागू करना।

प्रश्न 5.
मुक्त बाजार व्यवस्था के कोई दोष लिखिये।
उत्तर:

  1. मुक्त बाजार व्यवस्था में बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं की कीमत गरीब लोगों की पहुँच से प्राय: दूर हो जाती है।
  2. मुक्त बाजार पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के पक्ष में काम करने का रुझान दिखलाते हैं।

प्रश्न 6.
प्लेटो के अनुसार हमारा दीर्घकालीन हित कानून का पालन करने एवं न्यायी बनने में क्यों है? प्लेटो के अनुसार यदि हर कोई अन्यायी हो जाए, यदि हर आदमी अपने स्वार्थ के लिए कानून के साथ खिलवाड़ करे, तो किसी के लिए भी अन्याय से लाभ पाने की गारंटी नहीं रहेगी, कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा और इससे संभव है कि सबको नुकसान पहुँचे। इसलिए हमारा दीर्घकालीन हित इसी में है कि हम कानून का पालन करें और न्यायी बनें।

प्रश्न 7.
प्लेटो के अनुसार न्याय का गुण क्या है?
उत्तर:
प्लेटो के अनुसार न्याय में सभी लोगों की भलाई निहित रहती है। न्याय में कुछ लोगों के लिए हित और कुछ लोगों के लिए अहित की भावना नहीं होती, बल्कि उसमें सबका हित निहित होता है। इसलिए जो स्थिति या कानून या नियम सबके लिए हितकारी है, वही न्याय है।

प्रश्न 8.
सबका हित कैसे सुनिश्चित किया जाये?
अथवा
सबकी भलाई की सुनिश्चितता के लिए क्या किया जाना आवश्यक है?
उत्तर:
जनता या सबकी भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है। इस अर्थ में न्याय वह है जिसमें हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा प्राप्त हो।

प्रश्न 9.
हर व्यक्ति का प्राप्य क्या है?
उत्तर:
कांट के अनुसार, हर मनुष्य की गरिमा होती है। अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है तो उनमें से हर व्यक्ति का प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हों।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 10.
मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थन में तीन तर्क दीजिये।
उत्तर:

  1. मुक्त बाजार व्यवस्था से योग्यता और प्रतिभा के अनुसार प्रतिफल मिलेगा।
  2. मुक्त बाजार व्यवस्था स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा आदि बुनियादी सेवाओं का सबसे कारगर तरीका है।
  3. मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है क्योंकि उसका सरोकार प्रतिभा और कौशल से होता है।

प्रश्न 11.
न्याय के सम्बन्ध में चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस का क्या तर्क था?
उत्तर:
न्याय के सम्बन्ध में चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस का तर्क था कि गलत करने वालों को दण्डित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम करना चाहिए।

प्रश्न 12.
सरकारें न्याय के तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य बिठाने में क्या कठिनाई महसूस करती हैं? उत्तर-सरकारें कभी-कभी न्याय के तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य बिठाने में निम्न कठिनाई महसूस करती

  1. समकक्षों के बीच समान बरताव के सिद्धान्त पर अमल कभी-कभी योग्यता को उचित प्रतिफल देने के खिलाफ खड़ा हो जाता है।
  2. योग्यता को पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे। ऐसी स्थिति में सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे।

प्रश्न 13.
सामाजिक न्याय को परिभाषित कीजिये।
अथवा
सामाजिक न्याय का अर्थ बताइये।
उत्तर:
सामाजिक न्याय से यह अभिप्राय है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू हों तथा वस्तुओं और सेवाओं का न्यायोचित वितरण भी हो।

प्रश्न 14.
क्या यह न्यायोचित है? हरियाणा की एक पंचायत ने निर्णय दिया कि अलग-अलग जातियों के जिस लड़के और लड़की ने शादी कर ली थी, वे अब गाँव में नहीं रहेंगे।
उत्तर:
नहीं, यह न्यायोचित नहीं है क्योंकि यह निर्णय शादी करने वाले सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू नहीं किया गया है तथा यह कानून सम्मत नहीं है।

प्रश्न 15.
सामाजिक न्याय के प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक न्याय के प्रमुख लक्षण ये हैं।

  1. समान लोगों के प्रति समान बरताव: सामाजिक न्याय का पहला लक्षण यह है कि समकक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाये, उनमें वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाये।
  2. समानुपातिक न्याय: सामाजिक न्याय का दूसरा लक्षण समानुपातिक न्याय का है अर्थात् लोगों को उनके प्रयास के पैमाने पर अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत किया जाये।
  3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त: सामाजिक न्याय का तीसरा लक्षण लोगों की विशेष जरूरतों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

प्रश्न 16.
“सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है।” इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
न्यायपूर्ण वितरण समाज में सामाजिक न्याय पाने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू हों। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। क्योंकि सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है; चाहे वह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का।

इसका अभिप्राय यह है कि यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक विषमताएँ हैं, तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने उद्देश्यों के लिए प्रयास कर सके और स्वयं को अभिव्यक्त कर सके। भारत में विभिन्न राज्य सरकारों ने जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए ही भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम उठाये हैं।

प्रश्न 17.
हम किस तरह के समाज को अन्यायपूर्ण कहेंगे?
उत्तर:
हम उस समाज को अन्यायपूर्ण कहेंगे, जहाँ धनी और गरीब के बीच खाई इतनी गहरी हो कि वे बिल्कुल भिन्न-भिन्न दुनिया में रहने वाले लगें और जहाँ अपेक्षाकृत वंचितों को अपनी स्थिति सुधारने का कोई मौका न मिले, चाहे वे कितना ही कठिन श्रम क्यों न करें। दूसरे शब्दों में यदि किसी समाज में बेहिसाब धन-दौलत और इसके स्वामित्व के साथ जुड़ी सत्ता का उपभोग करने वालों तथा बहिष्कृतों और वंचितों के बीच गहरा और स्थायी विभाजन मौजूद हो, तो हम उस समाज को अन्यायपूर्ण समाज कहेंगे।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 18.
न्यायपूर्ण समाज के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:
न्यायपूर्ण समाज: न्यायपूर्ण समाज को लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर उपलब्ध करानी चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें; समाज में अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें तथा इसके साथ ही समान अवसरों के जरिये अपने चुने हुए लक्ष्य की ओर बढ़ सकें।

प्रश्न 19.
समान लोगों के प्रति समान व्यवहार का क्या अर्थ है?
उत्तर:
समान लोगों के साथ समान व्यवहार का अर्थ है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए वे समान अधिकार और समान व्यवहार के अधिकारी हैं। इसी दृष्टि से आज अधिकांश उदारवादी लोकतंत्रों में जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति के अधिकारों के साथ समाज के अन्य सदस्यों के साथ समान अवसरों के उपभोग करने का सामाजिक अधिकार और मताधिकार जैसे राजनैतिक अधिकार दिये जाते हैं। समान लोगों के प्रति समान व्यवहार के सिद्धान्त के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव न किया जाये। उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए, इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं।

प्रश्न 20.
रॉल्स के न्याय सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
रॉल्स का तर्क है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाये। जबकि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उस समाज में हमारी जगह क्या होगी? अर्थात् हम नहीं जानते कि किस किस्म के परिवार में हम जन्म लेंगे; हम उच्च जाति के परिवार में पैदा होंगे या निम्न जाति में; धनी होंगे या गरीब, सुविधा सम्पन्न होंगे या सुविधाहीन?

अगर हमें यह नहीं मालुम हो कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौनसे विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा। रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति में लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बँधती है। विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ के मद्देनजर चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों।

प्रश्न 21.
भारत में सामाजिक न्याय की स्थिति क्या है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान में देश के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करने का लक्ष्य घोषित किया गया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं।

  1. संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं अर्थात् मूल अधिकारों के माध्यम से समकक्षों के बीच समान बरताव के सिद्धान्त का पालन किया गया है। इनमें सभी को कानून के समक्ष समता प्रदान की गई है, जाति, धर्म, लिंग, वंश के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया है। छुआछूत को समाप्त किया गया है, भेदभाव पैदा करने वाली उपाधियों का अन्त किया गया। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
  2. भारत में समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त को भी समकक्षों के बीच समान व्यवहार के सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाया गया है।
  3. भारत में मूल अधिकारों के अन्तर्गत ही विशेष जरूरतों के लिए विशेष ख्याल का सिद्धान्त भी अपनाया है इस हेतु वंचितों के लिए आरक्षण की नीति लागू की गई है।

प्रश्न 22.
न्याय का क्या अर्थ है? कोई एक परिभाषा दीजिये।
उत्तर:
न्याय का सरोकार समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है, जिनके द्वारा समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक लाभ और सामाजिक कर्त्तव्यों का बँटवारा किया जाता है। प्लेटो ने न्याय को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, ‘प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य मिल जाय, यही न्याय मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति का प्राप्य यह है कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हों तथा सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर महत्व दिया जाये।

प्रश्न 23.
समानुपातिक न्याय क्या है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समानुपातिक न्याय: समानुपातिक न्याय से यह आशय है कि लोगों को मिलने वाले लाभों को तय करते समय उनके विभिन्न प्रयासों और कौशलों को मान्यता दी जाये अर्थात् लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत किया जाये। काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग- अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण करना ही समानुपातिक न्याय है। लेकिन समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त के साथ ही समानुपातिकता के सिद्धान्त का संतुलन बिठाना आवश्यक है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 24.
न्याय के तीन सिद्धान्त कौन-से हैं? प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
न्याय के तीन सिद्धान्त हैं।

  1. समकक्षों के बीच समान बरताव
  2. समानुपातिक न्याय और
  3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल। यथा

1. समकक्षों के बीच समान बरताव:
न्याय का एक सिद्धान्त है कि समकक्षों के बीच समान व्यवहार किया जाये । मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और बरताव के अधिकारी हैं। इसलिए आज अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में जीवन, स्वतंत्रता, सम्पत्ति तथा मताधिकार जैसे कुछ महत्वपूर्ण अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्रदान किये गये हैं। समान अधिकारों के अलावा समकक्षों में समान बरताव के सिद्धान्त के लिए जरूरी है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेद नहीं किया जाये, बल्कि उन्हें उनके काम के आधार पर जाँचा जाये। उदाहरण के लिए यदि स्कूल में पुरुष शिक्षक को महिला शिक्षक से ज्यादा वेतन मिलता है, तो यह समकक्षों के बीच समान बरताव के सिद्धान्त के विपरीत है। अतः अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय:
समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त का आशय यह है कि लोगों को मिलने वाले लाभों को तय करते समय उनके विभिन्न प्रयास और कौशलों को मान्यता दी जाये । अर्थात् किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण किया जाये । इस प्रकार समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का समानुपातिक सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाने की आवश्यकता है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल:
न्याय का तीसरा सिद्धान्त यह है कि समाज पारिश्रमिक या कर्त्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखे। समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में ही यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाय । जैसे – वंचित और विकलांग लोग । इसी संदर्भ में भारत में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यूनतम आवश्यक बुनियादी स्थितियाँ क्या हैं? इस लक्ष्य को पाने के तरीकों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
न्यूनतम आवश्यक बुनियादी स्थितियाँ लोगों की जिंदगी के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियों के सम्बन्ध में सामान्यतः इस बात पर सहमति है कि स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की बुनियादी मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं। लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी समझी जाती है।

न्यूनतम आवश्यक बुनियादी स्थितियों की पूर्ति के तरीके: लोगों की जिंदगी के लिए न्यूनतम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि राज्य (सरकार) को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की मदद करनी चाहिए, जिससे कि वे अन्य लोगों के साथ एक हद तक समानता का आनंद ले सकें। इस लक्ष्य को पाने के लिए निम्नलिखित दो तरीकों पर बल दिया जाता है; ये हैं।

(अ) मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना तथा समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को नुकसान पहुँचाये बगैर सुविधाहीनों की मदद करना।
(ब) राज्य के हस्तक्षेप की व्यवस्था। यथा

(अ) मुक्त बाजार की व्यवस्था: मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि

  1. जहाँ तक संभव हो, व्यक्तियों को सम्पत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और लाभ के मामले में दूसरों के साथ अनुबंध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतंत्र रहना चाहिए ।
  2. लाभ की अधिकतम मात्रा हासिल करने हेतु दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता करने की छूट होनी चाहिए।
  3. मुक्त बाजार के समर्थक बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर देने के पक्षधर हैं।

मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थन में तर्क: मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर देने से बाजारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। वे इसके पक्ष में निम्न तर्क देते हैं।

  1. मुक्त बाजार व्यवस्था से योग्यता और प्रतिभा से युक्त लोगों को अधिक प्रतिफल मिलेगा जबकि अक्षम लोगों को कम हासिल होगा ।
  2. स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा तथा ऐसी अन्य बुनियादी सेवाओं के विकास के लिए बाजार को अनुमति देना ही लोगों के लिए इन बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति का सबसे कारगर तरीका हो सकता है।
  3. मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है क्योंकि यह किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि आप स्त्री हैं या पुरुष। वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सरोकार प्रतिभा और कौशल से है। अगर आपके पास योग्यता है तो बाकी सब बातें बेमानी हैं।
  4. मुक्त बाजार व्यवस्था हमें ज्यादा विकल्प प्रदान करता है।
  5. मुक्त बाजार में निजी उद्यम जो सेवाएँ मुहैया कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्राय: बेहतर होती है।

मुक्त बाजार व्यवस्था के विपक्ष में तर्क: मुक्त बाजार व्यवस्था के विपक्ष में निम्नलिखित प्रमुख तर्क दिये जाते हैं।

  1. सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन: मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य को हस्तक्षेप करना आवश्यक है ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो सकें। वृद्धों और रोगियों की विशेष सहायता मुक्त बाजार व्यवस्था में संभव नहीं हो पाती है, राज्य ही ऐसी सहायता प्रदान कर सकता है।
  2. यद्यपि बाजारी वितरण हमें उपभोक्ता के तौर पर ज्यादा विकल्प देता है, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों। लेकिन बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध होना आवश्यक है। लेकिन मुक्त बाजार व्यवस्था में इन सेवाओं की कीमतें गरीब लोगों की पहुँच के बाहर हो जाती हैं।
  3. मुक्त बाजार आमतौर पर पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखलाते हैं।

(ब) राज्य के हस्तक्षेप की व्यवस्था
कुछ विद्वानों का मत है कि गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए अर्थात् पूर्णतया मुक्त बाजार के स्थान पर राज्य को सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य को हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो सकें। यदि हम बुनियादी वस्तुओं व सेवाओं को आम लोगों को मुहैया कराने के लिए निजी एजेन्सियों को देंगे, तो वे लाभ की दृष्टि रखते हुए इन वस्तुओं व सेवाओं को मुहैया करायेंगी। यदि निजी एजेन्सियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं तो वे उस खास बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ मुहैया करायेंगी।

जबकि बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। निजी एजेन्सियाँ ऐसी व्यवस्थाएँ नहीं कर सकतीं, इसलिए सरकार को इस क्षेत्र में हस्तक्षेप कर गरीबों को न्यूनतम बुनियादी व अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ व सेवाएँ खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध करानी चाहिए। यही कारण है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय खुले हैं और खुले भी हैं तो वे निम्नस्तरीय हैं। स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी यही सच है। इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे? Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. इनमें से कौनसी विशेषता एक सफल संविधान की विशेषता है।
(क) वह संविधान जो प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के प्रावधानों का आदर करने का कोई कारण अवश्य देता है।
(ख) वह संविधान् जिसमें समाज के अल्पसंख्यक समूहों का उत्पीड़न करने की अनुमति दी गई हो।
(ग) वह संविधान जो अन्य लोगों की तुलना में कुछ लोगों को ज्यादा सुविधायें देता है।
(घ) वह संविधान जो सुनियोजित ढंग से समाज के छोटे-छोटे समूहों की शक्ति को और मजबूत करता है।
उत्तर:
(क) वह संविधान जो प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के प्रावधानों का आदर करने का कोई कारण अवश्य देता है।

2. संविधान की संतुलित रूपरेखा बनाने की एक कारगर विधि यह है कि-
(क) किसी एक संस्था का सारी शक्तियों पर एकाधिकार हो।
(ख) शक्ति को कई संस्थाओं में विभाजित कर दिया जाये।
(ग) संविधान को अत्यधिक लचीला बनाया जाये।
(घ) संविधान को अत्यधिक कठोर बनाया जाये।
उत्तर:
(ख) शक्ति को कई संस्थाओं में विभाजित कर दिया जाये।

3. भारत के संविधान का केवल एक ही प्रावधान ऐसा है जो लगभग बिना किसी वाद-विवाद के पास हो गया। यह प्रावधान है।
(क) मौलिक अधिकारों सम्बन्धी
(ग) संघात्मक व्यवस्था सम्बन्धी
(ख) संसदात्मक व्यवस्था सम्बन्धी
(घ) सार्वभौमिक मताधिकार सम्बन्धी
उत्तर:
(घ) सार्वभौमिक मताधिकार सम्बन्धी

4. भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्व सम्बन्धी प्रावधान निम्नलिखित में से किस देश के संविधान से लिये गये हैं।
(क) अमेरिका के संविधान से
(ख) फ्रांस के संविधान से
(ग) आयरलैंड के संविधान से
(घ) ब्रिटिश के संविधान से
उत्तर:
(ग) आयरलैंड के संविधान से

5. भारतीय संविधान में फ्रांस के संविधान से ग्रहण किया गया है।
(क) स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का सिद्धान्त
(ख) कानून निर्माण की विधि
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति
(घ) अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धान्त।
उत्तर:
(क) स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का सिद्धान्त

JAC Class 11 Political Science  Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

6. निम्नलिखित में से किसे ब्रिटिश संविधान से ग्रहण किया गया है।
(क) मौलिक अधिकारों की सूची
(ख) सरकार का संसदीय स्वरूप
(ग) अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धान्त
(घ) अर्द्ध-संघात्मक सरकार का स्वरूप
उत्तर:
(ख) सरकार का संसदीय स्वरूप

7. कनाडा के संविधान से जो प्रावधान भारत के संविधान में ग्रहण किया गया है, वह है।
(क) कानून के शासन का विचार
(ग) अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धान्त
(ख) कानून निर्माण की विधि
(घ) न्यायपालिका की स्वतंत्रता
उत्तर:
(ग) अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धान्त

8. निम्नलिखित में से जो प्रावधान भारतीय संविधान में ब्रिटिश संविधान से ग्रहण नहीं किया गया है, वह ।
(क) सर्वाधिक मत के आधार पर चुनाव में जीत का फैसला
(ख) सरकार का संसदीय स्वरूप
(ग) कानून के शासन का विचार
(घ) मौलिक अधिकारों की सूची
उत्तर:
(घ) मौलिक अधिकारों की सूची

9. लोकतांत्रिक संविधानों में कानून के निर्माण का निर्णय लिया जाता है।
(क) राजा द्वारा
(ख) साम्यवादी पार्टी द्वारा
(ग) जन प्रतिनिधियों द्वारा
(घ) न्यायपालिका द्वारा
उत्तर:
(ग) जन प्रतिनिधियों द्वारा

10. सरकार को आय और सम्पत्ति की असमानता को कम करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। यह प्रावधान संविधान के है। जिस कार्य को इंगित करता है, वह है।
(क) सरकार की शक्ति पर सीमा
(ख) समाज की आकांक्षाएँ व लक्ष्यों को पूरा करने की क्षमता प्रदान करना
(ग) समाज में निर्णय लेने की शक्ति को निर्धारित करना
(घ) बुनियादी नियमों का समूह उपलब्ध कराना।
उत्तर:
(ख) समाज की आकांक्षाएँ व लक्ष्यों को पूरा करने की क्षमता प्रदान करना

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. संविधान का पहला काम यह है कि वह ……………………. नियमों का एक ऐसा समूह उपलब्ध कराए जिससे समाज के सदस्यों में न्यूनतम समन्वय व विश्वास बना रहे। होगी।
उत्तर:
बुनियादी

2. …………………. यह स्पष्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी और सरकार कैसे निर्मित होगी।
उत्तर:
संविधान

3. संविधान सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों पर कुछ ………………… भी लगाता है।
उत्तर:
सीमाएँ

4. संविधान सरकार को ऐसी ………………….प्रदान करता है, जिससे कि वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके। अधिकारों की रक्षा करते हैं।
उत्तर:
क्षमता ( शक्तियाँ)

5. अधिकतर संविधान कुछ ………………… अधिकारों की रक्षा करते हैं।
उत्तर:
मूलभूत।

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निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. भारतीय संविधान जातीयता या नस्ल को नागरिकता के आधार के रूप में मान्यता नहीं देता।
उत्तर:
सत्य

2. विश्व के सर्वाधिक सफल लिखित संविधान भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के हैं।
उत्तर:
सत्य

3. भारत ने अपने संविधान पर पूर्ण जनमत संग्रह कराया जिसमें सभी लोगों ने अपनाये जा रहे संविधान के पक्ष या विपक्ष में राय दी।
उत्तर:
असत्य

4. भारतीय संविधान सभा की रचना 1935 के संविधान की प्रस्तावना के आधार पर हुई।
उत्तर:
असत्य

5. हमारी संविधान सभा के सदस्य सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने गए थे।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. 2015 में नया संविधान बनाया (अ) भारत में
2. 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ (ब) 9 दिसम्बर, 1946
3. भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक (स) जवाहरलाल नेहरू
4. संविधान सभा में प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव (द) डॉ. बी. आर. अम्बेडकर
5. संविधान सभा के अध्यक्ष (य) नेपाल ने
6. प्रारूप समिति के सभापति (र) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

उत्तर:

1. 2015 में नया संविधान बनाया (य) नेपाल ने
2. 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ (अ) भारत में
3. भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक (ब) 9 दिसम्बर, 1946
4. संविधान सभा में प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव (स) जवाहरलाल नेहरू
5. संविधान सभा के अध्यक्ष (र) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान का निर्माण कितने समय में हुआ?
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण संविधान सभा द्वारा 2 वर्ष, 11 मास और 18 दिन के अथक प्रयास से 26 नवम्बर, 1949 को सम्पन्न हुआ।

प्रश्न 2.
संविधान का पहला काम क्या है?
उत्तर:
संविधान बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह उपलब्ध कराये जिससे समाज के सदस्यों में न्यूनतम समन्वय और विश्वास बना रहे।

प्रश्न 3.
संविधान का दूसरा काम क्या है?
उत्तर:
संविधान यह स्पष्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी और सरकार कैसे निर्मित होगी।

JAC Class 11 Political Science  Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

प्रश्न 4.
संविधान सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों की सीमाएँ तय करता है। ये सीमाएँ किस रूप में मौलिक होती हैं?
उत्तर:
संविधान द्वारा सरकार पर लगाई गई सीमाएँ इस रूप में मौलिक होती हैं कि सरकार कभी उनका उल्लंघन नहीं कर सकती।

प्रश्न 5.
सरकार की शक्तियों को सीमित करने का सबसे सरल तरीका क्या है?
उत्तर:
सरकार की शक्तियों को सीमित करने का सबसे सरल तरीका यह है कि नागरिक के रूप में व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को स्पष्ट कर दिया जाये।

प्रश्न 6.
सामान्यत: मूल अधिकारों को कब सीमित किया जा सकता है?
उत्तर:
सामान्यतः मूल अधिकारों को राष्ट्रीय आपातकाल में सीमित किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अम्बेडकर थे।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान में कौनसा प्रावधान सरकार को ऐसी शक्तियाँ देता है कि वह समाज की भलाई के लिए कार्य कर सके?
उत्तर:
भारत के संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक तत्व सरकार से लोगों की आकांक्षाएँ पूरी करने की अपेक्षा करते हैं।

प्रश्न 9.
कौनसा सम्बन्ध किसी देश की राष्ट्रीय पहचान बनाता है?
उत्तर:
विभिन्न राष्ट्रों में देश की केन्द्रीय सरकार और विभिन्न क्षेत्रों के बीच के सम्बन्धों को लेकर भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ होती हैं। यह सम्बन्ध उस देश की राष्ट्रीय पहचान बनाता है

प्रश्न 10.
संविधान किसी समाज की बुनियादी राजनैतिक पहचान कैसे होता है?
उत्तर:
संविधान के माध्यम से ही कोई समाज ‘शासन कैसे होगा’ और ‘शासित कौन होंगे’, जैसे बुनियादी नियमों और सिद्धान्तों पर सहमत होकर अपनी मूलभूत राजनीतिक पहचान बनाता है।

प्रश्न 11.
संविधान हमें एक नैतिक पहचान कैसे देता है?
उत्तर:
संविधान आधिकारिक बंधन लगाकर यह तय कर देता है कि कोई क्या कर सकता है और क्या नहीं। ऐसा करके वह हमें एक नैतिक पहचान देता है।

प्रश्न 12.
ऐसे दो राजनैतिक और नैतिक बुनियादी नियमों का उल्लेख कीजिये जो विश्व के सभी प्रकार के संविधानों में स्वीकार किये गये हैं।
उत्तर:

  1. अधिकतर संविधान कुछ मूलभूत अधिकारों की रक्षा करते हैं।
  2. अधिकतर संविधान ऐसी सरकारें संभव बनाते हैं जो किसी न किसी रूप में लोकतांत्रिक होती हैं।

प्रश्न 13.
संविधान का प्रभावी होना अनेक कारणों पर निर्भर है। किसी एक कारण का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
संविधान के प्रभावी होने का पहला कारण यह है कि उसे सफल राष्ट्रीय आन्दोलन के लोकप्रिय नेताओं द्वारा बनाया गया हो जिनके पास समाज के सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता हो।

JAC Class 11 Political Science  Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

प्रश्न 14.
क्या भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को एक न एक ऐसा कारण देता है जिससे वह उसकी सामान्य रूपरेखा का समर्थन कर सके? यदि हाँ तो क्यों?
उत्तर:
हाँ, भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को उसकी सामान्य रूपरेखा का समर्थन करने का कोई न कोई कारण देता है, क्योंकि यह उन्हें विश्वास दिलाता है कि वह बुनियादी न्याय को प्राप्त करने के लिए ढाँचा उपलब्ध कराता है।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान सभा की रचना किस योजना के अनुसार हुई?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा की रचना लगभग उसी योजना के अनुसार हुई जिसे ‘कैबिनेट मिशन’ ने प्रस्तावित किया था।

प्रश्न 16.
उन दो कारकों का उल्लेख कीजिये जो भारतीय संविधान को प्रभावी और सम्मान के योग्य बनाते हैं।
उत्तर:

  1. संविधान सभा मोटे तौर पर सबका प्रतिनिधित्व कर रही थी।
  2. संविधान सभा के सदस्यों ने सार्वजनिक हित और सार्वजनिक विवेक को ध्यान में रखते हुए कार्य किया।

प्रश्न 17.
स्पष्ट कीजिये कि भारत की संविधान सभा ने व्यापक दृष्टिकोण से कार्य किया।
उत्तर:
भारत की संविधान सभा ने व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए ही सम्पूर्ण विश्व से सर्वोत्तम चीजों को ग्रहण किया और उन्हें अपना बना लिया।

प्रश्न 18.
भारत के विभाजन के बाद संविधान सभा में किस दल का वर्चस्व था तथा उसकी सीटें कितने प्रतिशत थीं?
उत्तर:
भारत के विभाजन के बाद संविधान सभा में कांग्रेस का वर्चस्व था और उसे 82% सीटें प्राप्त थीं।

प्रश्न 19.
भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन की धारणा कहाँ से ली गई है?
उत्तर:
भारत के संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन की धारणा अमेरिका के संविधान से ली गई है।

प्रश्न 20.
नेपाल लोकतांत्रिक गणराज्य कब बना?
उत्तर:
नेपाल सन् 2008 में लोकतांत्रिक गणराज्य बना।

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प्रश्न 21.
नेपाल ने लोकतांत्रिक गणराज्य के नये संविधान को कब अपनाया?
उत्तर:
नेपाल में सन् 2015 में नये संविधान को अपनाया।

प्रश्न 22.
भारत की संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर:
भारत की संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव पं. जवाहर लाल नेहरू ने

प्रश्न 23.
भारत की संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
भारत की संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय नागरिकों के कोई पाँच मौलिक कर्त्तव्य लिखो। होगी।
उत्तर:
भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह प्रस्तुत किया 1

  1. संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे;
  2. भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
  3. देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
  4. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे ; तथा
  5. प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्द्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखे।

प्रश्न 2.
संविधान के कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
संविधान के कार्य निम्नलिखित हैं।

  1. संविधान समाज में बुनियादी नियमों को उपलब्ध कराता।
  2. संविधान यह स्पष्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी तथा सरकार कैसे निर्मित
  3. वह सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों की सीमाएँ निश्चित करता है।
  4. वह सरकार को ऐसी शक्तियाँ भी देता है जिससे वह सामूहिक भलाई के लिए कार्य कर सके।

प्रश्न 3.
संविधान सरकार की शक्तियों को किस तरह से सीमित करता है?
उत्तर:
संविधान सरकार की शक्तियों को कई तरह से सीमित करता है। यथा

  1. संविधान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्पष्ट करता है ताकि कोई भी सरकार कभी भी उनका उल्लंघन न कर सके। है।
  2. संविधान नागरिकों को मनमाने ढंग से बिना किसी कारण के गिरफ्तार करने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता
  3. संविधान नागरिकों को कुछ मौलिक स्वतंत्रताओं का अधिकार प्रदान करता है।

प्रश्न 4.
सरकार को सकारात्मक कार्य कर सकने और समाज की आकांक्षाओं और उसके लक्ष्य को अभिव्यक्ति दे सकने की सामर्थ्य प्रदान करने वाले भारत के संविधान के उपबन्धों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान सरकार को वह सामर्थ्य प्रदान करता है जिससे वह कुछ सकारात्मक लोक कल्याणकारी कदम उठा सके और जिन्हें कानून की मदद से लागू किया जा सके। ऐसा सामर्थ्य प्रदान करने वाले प्रावधानों को भारत के संविधान की प्रस्तावना का समर्थन प्राप्त है और ये प्रावधान संविधान के मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्व वाले भागों में पाये जाते हैं।

JAC Class 11 Political Science  Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

प्रश्न 5.
दक्षिण अफ्रीका के संविधान के ऐसे प्रावधानों का उल्लेख कीजिये जो सरकार को समाज की सामूहिक भलाई के लिये कार्य कर सकने की शक्तियाँ देते हैं।
उत्तर:
दक्षिण अफ्रीका का संविधान में सरकार को समाज की सामूहिक भलाई के कार्य करने से संबंधित प्रमुख प्रावधान ये हैं।

  1. वह सरकार को पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने और अन्यायपूर्ण भेदभाव से व्यक्तियों और समूहों को बचाने का प्रयास करने के लिए कदम उठाने का अधिकार देता है।
  2. वह यह प्रावधान भी करता है कि सरकार धीरे-धीरे सभी के लिए पर्याप्त आवास और स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध कराये।

प्रश्न 6.
इण्डोनेशिया के संविधान में सरकार को समाज की सामूहिक भलाई के काम करने में समर्थ बनाने वाले उपबन्धों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. इण्डोनेशिया का संविधान सरकार को यह जिम्मेदारी देता है कि वह राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था बनाए और उसका संचालन करे।
  2. यह संविधान यह भी सुनिश्चित करता है कि सरकार गरीब और अनाथ बच्चों की देखभाल करेगी।

प्रश्न 7.
संविधान क्या है?
उत्तर:
संविधान वह दस्तावेज या दस्तावेजों का पुंज है जिसमें राज्य के बारे में कई प्रावधान होते हैं। ये प्रावधान बताते हैं कि राज्य का गठन कैसे होगा और वह किन सिद्धान्तों का पालन करेगा।

प्रश्न 8.
संस्थाओं की संतुलित रूपरेखा से क्या आशय है?
उत्तर:
संस्थाओं की संतुलित रूपरेखा से यह आशय है कि संविधान यह सुनिश्चित करे कि किसी एक संस्था का सारी शक्तियों पर एकाधिकार न हो। ऐसा करने के लिए सरकार की शक्ति को संविधान द्वारा कई संस्थाओं में बांट दिया जाता है ताकि कोई एक संस्था संविधान को नष्ट न कर सके। इसके साथ ही संविधान में बाध्यकारी मूल्य, नियम और प्रक्रियाओं के साथ-साथ कार्यप्रणाली में लचीलापन का संतुलन होना चाहिए ताकि वह आवश्यकताओं और परिस्थितियों के साथ अनुकूलन कर सके।

प्रश्न 9.
” भारत में संविधान सभा का विचार एक आस्था का प्रतीक बन चुका था ।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत में संविधान सभा के अस्तित्व में आने से बहुत पहले संविधान सभा की माँग उठ चुकी थी। 9 दिसम्बर, 1946 के अध्यक्षीय भाषण में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने महात्मा गांधी के कथन को याद करते हुए कहा कि स्वराजं का अर्थ है जनता के द्वारा स्वतंत्र रूप से चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से व्यक्त उनकी इच्छा। अतः उन्होंने कहा कि ” देश में राजनीतिक रूप से जागरूक सभी वर्गों में संविधान सभा का विचार एक आस्था का प्रतीक बन चुका था। ”

प्रश्न 10.
उन तीन कारकों का उल्लेख कीजिए जो संविधान को प्रभावी और सम्मान के योग्य बनाते हैं?
उत्तर:
संविधान को प्रभावी और सम्मान योग्य बनाने वाले तीन कारक ये हैं।

  1. संविधान ऐसे लोकप्रिय नेताओं द्वारा बनाया गया हो जिनके पास लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता हो।
  2. संविधान लोगों को यह विश्वास दिलाता हो कि वह बुनियादी न्याय को प्राप्त करने के लिए ढाँचा उपलब्ध कराता है।
  3. संविधान संस्थाओं की संतुलित रूपरेखा प्रस्तुत करता हो।

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प्रश्न 11.
स्पष्ट कीजिये कि भारत का संविधान एक जीवंत सच्चाई है।
उत्तर:
भारत का संविधान संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता और दूरदृष्टि का प्रमाण है कि वे देश को एक ऐसा संविधान दे सके जिसमें जनता द्वारा मान्य आधारभूत मूल्यों और सर्वोच्च आकांक्षाओं को स्थान दिया गया है। यही वह कारण है कि जिसकी वजह से इतनी जटिलता से बताया गया संविधान न केवल अस्तित्व में है, बल्कि एक जीवन्त सच्चाई भी है जबकि दुनिया के अन्य अनेक संविधान कागजी पोथों में ही दबकर रह गये।

प्रश्न 12.
कोई ऐसे चार उदाहरण दीजिये जिन पर संविधान सभा के सदस्यों में वैध सैद्धान्तिक आधार पर मतभेद थे।
उत्तर:
संविधान सभा के सदस्यों में वैध सैद्धान्तिक आधार पर प्रमुख मतभेद इस प्रकार थे।

  1. भारत में शासन प्रणाली केन्द्रीकृत होनी चाहिए या विकेन्द्रीकृत?
  2. राज्यों के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए?
  3. न्यायपालिका की क्या शक्तियाँ होनी चाहिए?
  4. क्या संविधान को संपत्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए?

प्रश्न 13.
भारत की संविधान सभा की रचना किस योजना के अनुसार हुई उसके प्रस्तावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1935 में स्थापित प्रान्तीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष विधि से संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हुआ। संविधान सभा की रचना लगभग उसी योजना के अनुसार हुई जिसे ब्रिटिश मंत्रिमंडल की एक समिति ‘कैबिनेट मिशन’ ने प्रस्तावित किया था। कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार:

  1. प्रत्येक प्रान्त, देशी रियासत या रियासतों के समूह को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें दी गईं। मोटे तौर पर दस लाख की जनसंख्या पर एक सीट का अनुपात रख गया। परिणामतः ब्रिटिश प्रान्तों को 292 सदस्य चुनने तथा देशी रियासतों को न्यूनतम 93 सीटें आवंटित की गईं।
  2. प्रत्येक प्रान्त की सीटों को तीन प्रमुख समुदायों मुसलमान, सिक्ख और सामान्य में उनकी जनसंख्या के अनुपात में बाँट दिया गया।
  3. प्रान्तीय विधान सभाओं में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों ने अपने प्रतिनिधियों को चुना और इसके लिए उन्होंने समानुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमण मत पद्धति का प्रयोग किया।
  4. देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के चुनाव का तरीका उनके परामर्श से तय किया गया।

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प्रश्न 14.
भारत की संविधान सभा के स्वरूप पर प्रकाश डालिये।
उत्तर:
संविधान सभा का स्वरूप:

  1. सदस्य संख्या: विभाजन के बाद पाकिस्तान के क्षेत्रों से चुनकर आए सदस्यों को घटाने के बाद संविधान सभा के वास्तविक सदस्यों की संख्या 299 रह गई। इनमें से 26 नवम्बर, 1949 को कुल 284 सदस्य उपस्थित थे जिन्होंने अंतिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किये
  2.  प्रतिनिधित्वपूर्ण: यद्यपि भारत की संविधान सभा के सदस्य सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुने गये थे पर उसे ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधि – परक बनाने के प्रयास किये गये। यथा

(क) सभी धर्म के सदस्यों को जनसंख्या के अनुपात में सीटें दी गईं।

(ख) संविधान सभा में उस समय के अनुसूचित वर्ग के 26 सदस्य थे।

(ग) यद्यपि विभाजन के बाद संविधान सभा में कांग्रेस का वर्चस्व था। उसे 82% सीटें प्राप्त थीं। लेकिन स्वयं कांग्रेस विविधताओं से भरी हुई एक ऐसी पार्टी थी जिसमें लगभग सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व था।

प्रश्न 15.
भारत का संविधान एक ऐसी सरकार बनाने की नैतिक प्रतिबद्धता है जो राष्ट्रीय आन्दोलन में लोगों को दिये गये आश्वासनों को पूरा करेगी।
अथवा
भारत की संविधान सभा केवल उन सिद्धान्तों को मूर्त रूप और आकार दे रही थी जो उसने राष्ट्रीय आन्दोलन से विरासत में प्राप्त किये थे ।
उत्तर:
राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत :
भारत की संविधान सभा केवल उन सिद्धान्तों को मूर्त रूप और आकार दे रही थी जो उसने राष्ट्रीय आन्दोलन में विरासत में प्राप्त किये थे। संविधान लागू होने के कई दशक पूर्व से ही राष्ट्रीय आन्दोलन में उन प्रश्नों पर चर्चा हुई थी जो संविधान बनाने के लिए प्रासंगिक थे। जैसे- भारत में सरकार का स्वरूप और संरचना कैसी होनी चाहिए, हमें किन मूल्यों का समर्थन करना चाहिए, किन असमानताओं को दूर करना चाहिए आदि ? इन बहसों से प्राप्त निष्कर्षो अर्थात् इन बहसों से बने सिद्धान्तों पर आम सहमति को ही संविधान में अंतिम रूप प्रदान किया गया।

प्रमुख सिद्धान्त:
राष्ट्रीय आन्दोलन से जिन सिद्धान्तों को संविधान सभा में लाया गया उनका सर्वोत्तम सारांश नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव में मिलता है। इस प्रस्ताव में संविधान सभा के उद्देश्यों तथा संविधान सभा की सभी आकांक्षाओं और मूल्यों को समाहित किया गया था। इसी प्रस्ताव के आधार पर हमारे संविधान में समानता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, संप्रभुता और सार्वजनीन पहचान जैसी बुनियादी प्रतिबद्धताओं को संस्थागत स्वरूप दिया गया।

प्रश्न 16.
सरकार की सभी संस्थाओं को संतुलित ढंग से व्यवस्थित करने में संविधान सभा की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संस्थाओं को संतुलित रूप से व्यवस्थित करने में संविधान सभा की भूमिका- सरकार की सभी संस्थाओं को संतुलित रूप से व्यवस्थित करने की दृष्टि से संविधान सभा ने निम्न प्रयास किये
1. संस्थाओं को संतुलित ढंग से व्यवस्थित करने की दृष्टि से मूल सिद्धान्त यह रखा गया कि सरकार लोकतांत्रिक रहे और जन कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो। संविधान सभा ने शासन के विभिन्न अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच समुचित संतुलन स्थापित करने के लिए बहुत विचार मंथन किया तथा संसदीय शासन व्यवस्था और संघात्मक शासन व्यवस्था को स्वीकार किया।

2. शासकीय संस्थाओं की संतुलित व्यवस्था स्थापित करने में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूसरे देशों के प्रयोगों और अनुभवों से सीखने का प्रयास किया; उन्होंने अन्य संवैधानिक परम्पराओं से कुछ ग्रहण करने से कोई परहेज नहीं किया। उन्होंने विभिन्न देशों से उनके प्रावधानों को भी लिया। लेकिन उन्होंने इन्हें तभी लिया जब वे भारत की समस्याओं और आशाओं के अनुरूप सिद्ध हुए। साथ ही उन्होंने इनमें आवश्यकतानुसार आवश्यक परिवर्तन कर इन्हें ग्रहण कया और उन्हें अपना बना लिया ।

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प्रश्न 17.
भारत की संविधान सभा की कामकाज की शैली तथा कार्यविधि को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संविधान सभा की कामकाज की शैली: यद्यपि भारत की संविधान सभा समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रही थी, तथापि वे प्रतिनिधि केवल अपनी पहचान या समुदाय का ही प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे बल्कि वे पूरे देश के हित को ध्यान में रखकर विचार-विमर्श कर रहे थे। सदस्यों में प्रायः मतभेद हो जाते थे लेकिन सदस्यों द्वारा अपने हितों के आधार पर शायद ही कोई मतभेद हुआ हो। ये मतभेद वास्तव में वैध सैद्धान्तिक आधार पर थे। सार्वभौमिक मताधिकार के विषय को छोड़कर संविधान के प्रत्येक विषय पर संविधान सभा के सदस्यों में गंभीर विचार- विमर्श और वाद-विवाद हुए।

संविधान सभा की कार्यविधि: संविधान सभा की सामान्य कार्यविधि में भी सार्वजनिक विवेक का महत्व स्पष्ट दिखाई देता था। विभिन्न मुद्दों के लिए संविधान सभा की आठ मुख्य कमेटियाँ थीं। इनके अध्यक्षों के विचार एक-दूसरे के समान नहीं थे। फिर भी सबने एक साथ मिलकर काम किया। प्रत्येक कमेटी ने आम तौर पर संविधान के कुछ-कुछ प्रावधानों का प्रारूप तैयार किया जिन पर बाद में पूरी संविधान सभा में चर्चा की गई।

आमतौर पर यह प्रयास किया गया कि फैसले आम राय से हों और कोई भी प्रावधान किसी खास हित समूह के पक्ष में न हो। कई प्रावधानों पर निर्णय मत विभाजन से भी लिये गये। ऐसे अवसरों पर हर तर्क और शंका का समाधान बहुत ही सावधानी से किया गया। लिखित रूप में उनका जवाब दिया गया। अवधि तथा बैठकें -2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन की अवधि में संविधान सभा की बैठकें 166 दिनों तक चलीं। इसके सत्र अखबारों और आम लोगों के लिए खुले हुए थे।

प्रश्न 18.
भारतीय संविधान में कौनसी दो विशेषताएँ अमेरिकी संविधान से अपनाई गई हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में निम्न दो विशेषताएँ अमेरिकी संविधान से अपनायी गई हैं-

  1. मौलिक अधिकार: भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान के अधिकारों की सूची से मिलते-जुलते हैं।
  2. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान अमेरिकी संविधान की भांति देश का सर्वोच्च संविधान है और भारतीय सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिकी न्यायालय की भांति न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्राप्त है

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव किसने प्रस्तुत किया? इसके मुख्य उपबन्धों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
उद्देश्य प्रस्तावं- संविधान सभा के समक्ष 13 दिसम्बर, 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया। 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। उद्देश्य प्रस्ताव के प्रमुख बिन्दु – उद्देश्य प्रस्ताव के प्रमुख बिन्दु ( उपबन्ध) निम्नलिखित हैं।

  1. भारत एक स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य है।
  2. भारत ब्रिटेन के अधिकार में आने वाले भारतीय क्षेत्रों, देशी रियासतों और देशी रियासतों के बाहर के ऐसे क्षेत्र जो हमारे संघ का अंग बनना चाहते हैं, का एक संघ होगा।
  3. संघ की इकाइयाँ स्वायत्त होंगी और उन सभी शक्तियों का प्रयोग और कार्यों का संपादन करेंगी जो संघीय सरकार को नहीं दी गई हैं।
  4. संप्रभु और स्वतंत्र भारत तथा इसके संविधान की समस्त शक्तियों और सत्ता का स्रोत जनता है।
  5. भारत के सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, कानून के समक्ष समानता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा कानून और सार्वजनिक नैतिकता की सीमाओं में रहते हुए भाषण, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना, व्यवसाय, संगठन और कार्य करने की मौलिक स्वतंत्रता की गारण्टी और सुरक्षा दी जायेगी।
  6. अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्र, दलित व अन्य पिछड़े वर्गों को समुचित सुरक्षा दी जायेगी।
  7. गणराज्य की क्षेत्रीय अखंडता तथा थल, जल और आकाश में इसके संप्रभु अधिकारों की रक्षा सभ्य राष्ट्रों के कानून और न्याय के अनुसार की जायेगी।
  8. विश्वशांति और मानव कल्याण के विकास के लिए देश स्वेच्छापूर्वक और पूर्ण योगदान करेगा।

इस प्रकार उद्देश्य प्रस्ताव में संविधान की सभी आकांक्षाओं और मूल्यों को समाहित किया गया था। इसी प्रस्ताव के आधार पर हमारे संविधान में समानता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, संप्रभुता और एक सर्वजनीन पहचान जैसी बुनियादी प्रतिबद्धताओं को संस्थागत स्वरूप दिया गया।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में विभिन्न देशों के संविधानों से लिये गये प्रावधानों का उल्लेख कीजिये।
अथवा
‘भारतीय संविधान उधार लिए गए सिद्धान्तों का समूह है।’ व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
विभिन्न देशों के संविधानों से लिये गए प्रावधान: शासकीय संस्थाओं की सर्वाधिक संतुलित व्यवस्था स्थापित करने में भारत के संविधान निर्माताओं ने दूसरे देशों के प्रयोगों और अनुभवों से कुछ सीखने में कोई संकोच नहीं किया। उन्होंने अन्य संवैधानिक परम्पराओं से कुछ ग्रहण करने से भी कोई परहेज नहीं किया। साथ ही उन्होंने किसी भी ऐसे बौद्धिक तर्क या ऐतिहासिक उदाहरण की अनदेखी नहीं की जो उनके कार्य को सम्पन्न करने के लिए जरूरी था। अतः उन्होंने विभिन्न देशों से निम्नलिखित प्रावधानों को ग्रहण किया
(अ) 1935 के एक्ट का प्रभाव: हमारे संविधान निर्माता 1935 के एक्ट से अत्यधिक प्रभावित थे। हमारे संविधान का अनुच्छेद 362, 1935 के एक्ट की धारा 102 से मिलता-जुलता है।

(ब) ब्रिटिश संविधान से लिये गये प्रावधान: भारतीय संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश संविधान से निम्नलिखित प्रावधान लिये।

  1. सर्वाधिक मत के आधार पर चुनाव में जीत का फैसला।
  2. सरकार का संसदीय स्वरूप।
  3. कानून के शासन का विचार।
  4. विधायिका में अध्यक्ष का पद और उसकी भूमिका।
  5. कानून निर्माण की विधि|

(स) अमेरिका के संविधान से लिये गये प्रावधान – भारतीय संविधान निर्माताओं ने अमेरिका के संविधान से निम्नलिखित प्रावधान लिये-

  1. मौलिक अधिकारों की सूची।
  2. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता।

(द) कनाडा के संविधान से लिये गये प्रावधान – कनाडा के संविधान से ये प्रावधान ग्रहण किये।

  1. एक अर्द्ध-संघात्मक सरकार का स्वरूप ( सशक्त केन्द्रीय सरकार वाली संघात्मक व्यवस्था)।
  2. अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धान्त।

(य) अन्य संविधानों से ग्रहण किये गये प्रावधान – भारतीय संविधान निर्माताओं ने अन्य संविधानों से भी निम्न प्रावधानों को ग्रहण किया।

  1. आयरलैंड के संविधान से उन्होंने राज्य के नीति निर्देशक तत्व के प्रावधानों को ग्रहण किया।
  2. फ्रांस के संविधान से उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धान्त को ग्रहण किया।

लेकिन इन प्रावधानों को लेना कोई नकलची मानसिकता का परिणाम नहीं था बल्कि उन्होंने प्रत्येक प्रावधान को इस कसौटी पर कसा कि वह भारत की समस्याओं और आशाओं के अनुरूप है। इस प्रकार एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने इन प्रावधानों को ग्रहण किया तथा भारत की समस्याओं, आशाओं व परिस्थितियों के अनुरूप उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर ग्रहण किया और उन्हें अपना बना लिया । इसलिए यह कहना गलत है कि यह संविधान उधार का था।

प्रश्न 3.
संविधान क्या है? संविधान के उन कारकों पर प्रकाश डालिये जो संविधान को प्रभावी और सम्मान के योग्य बनाते हैं।
उत्तर:
संविधान से आशय: संविधान वह दस्तावेज या दस्तावेजों का पुंज है जो यह बताता है कि राज्य का गठन कैसे होगा और वह किन सिद्धान्तों का पालन करेगा। भारत का संविधान जहाँ एक लिखित दस्तावेज है, वहीं इंग्लैण्ड का संविधान दस्तावेजों और निर्णयों की एक लंबी श्रृंखला के रूप में है जिसे सामूहिक रूप से संविधान कहा जा सकता है। संविधान को प्रभावी और सम्मान योग्य बनाने के कारक – किसी भी संविधान को प्रभावी और सम्मान योग्य बनाने के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं।

1. संविधान को प्रचलन में लाने का तरीका;
इसका अभिप्राय यह है कि कोई संविधान कैसे अस्तित्व में आया; किसने संविधान बनाया और उनके पास इसे बनाने की शक्ति कितनी थी। यदि कोई संविधान सैनिक शासकों या ऐसे अलोकप्रिय नेताओं के द्वारा बनाये जाते हैं जिनके पास लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता नहीं होती, तो ऐसे संविधान निष्प्रभावी होते हैं। 1948 के बाद नेपाल में पाँच संविधान, 1948, 1951, 1959, 1962 और 1990 में बनाये जा चुके हैं, लेकिन ये सभी संविधान नेपाल नरेश द्वारा प्रदान किये गये। इसलिए निष्प्रभावी रहे।

यदि संविधान सफल राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद बनी संविधान निर्मात्री सभा के द्वारा बनाया जाता है जिसके सदस्य राष्ट्रीय आन्दोलन के लोकप्रिय नेता हों और जिनके पास समाज के सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता हो, तो ऐसी संविधान सभा द्वारा बनाया गया संविधान प्रभावी होता है। यही कारण है कि विश्व के सर्वाधिक सफल संविधान भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के हैं जिन्हें एक सफल राष्ट्रीय आन्दोलन के बाद बनाया गया था। संविधान निर्माताओं की लोकप्रियता समाज के विभिन्न वर्गों को अपने साथ ले चलने की उनकी क्षमता, उनका दृष्टिकोण तथा उनका प्रभाव संविधान को प्रभावी बनाता है।

2. संविधान के मौलिक प्रावधान संविधान के प्रभावी और सम्मान योग्य होने के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के प्रावधानों का आदर करने का कोई कारण अवश्य देता है। जो संविधान लोगों को यह विश्वास दिलाता है कि वह बुनियादी न्याय को प्राप्त करने के लिए ढांचा उपलब्ध कराता है, वह संविधान प्रभावी होता है। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जो संविधान अपने सभी नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता की जितनी अधिक सुरक्षा करता है, उसकी सफलता की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।

3. संस्थाओं की संतुलित रूपरेखा: जो संविधान, संविधान में शक्तियों का बंटवारा इस प्रकार करता है कि कोई एक समूह या संस्था संविधान को नष्ट नहीं कर सके। ऐसे संविधान को प्रभावी संविधान कहा जा सकता है। ऐसा करने के लिए सरकार की शक्ति को कई संस्थाओं में बांट दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान सरकार की शक्ति को एक समान धरातल पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं और स्वतंत्र संवैधानिक निकाय जैसे निर्वाचन आयोग आदि में बांट देता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि यदि कोई एक संस्था संविधान को नष्ट करना चाहे तो अन्य दूसरी संस्थाएँ उसके अतिक्रमण को नियंत्रित कर लेंगी। किसी संविधान को प्रभावी और सम्मान योग्य बनाने के लिए उपर्युक्त तीन कारकों का होना आवश्यक है।

JAC Class 11 Political Science  Important Questions Chapter 1 संविधान – क्यों और कैसे?

प्रश्न 4.
संविधान से आप क्या समझते हैं? हमें संविधान की क्या आवश्यकता है?
अथवा
संविधान क्या है? संविधान द्वारा किये जाने वाले कार्यों की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिये।
उत्तर:
संविधान से आशय: ( इसको पूर्व प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट किया जा चुका है।) संविधान की आवश्यकता अथवा संविधान द्वारा किये जाने वाले कार्य किसी समाज के लिए बुनियादी नियमों का समूह उपलब्ध कराकर समाज में तालमेल बिठाने, समाज में शक्ति के मूल वितरण को स्पष्ट कर सरकार का निर्माण करने; सरकार की शक्तियों पर सीमाएँ लगाने तथा नागरिकों को मूल अधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताएँ प्रदान करने, सरकार को वह सामर्थ्य प्रदान करने जिससे वह कुछ सकारात्मक लोक- कल्याणकारी कदम उठा सके एवं राष्ट्र की बुनियादी पहचान के लिए संविधान की अत्यन्त आवश्यकता है। संविधान अपने कामों से समाज की इन आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संविधान के कार्यों की रूपरेखा अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दी गई है।

1. संविधान तालमेल बिठाता है। संविधान का पहला काम यह है कि वह बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह उपलब्ध कराये जिससे समाज के सदस्यों में एक न्यूनतम समन्वय और विश्वास बना रहे। सी भी समूह को सार्वजनिक रूप से मान्यता प्राप्त कुछ बुनियादी नियमों की आवश्यकता होती है जिसे. समूह के सभी सदस्य जानते हों, ताकि आपस में एक न्यूनतम समन्वय बना रहे। लेकिन ये नियम केवल पता ही नहीं होने चाहिए वरन् उन्हें लागू भी किया जाना चाहिए। इसलिए जब इन नियमों को न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है तो इससे सभी को विश्वास हो जाता है कि और लोग भी इन नियमों का पालन करेंगे, क्योंकि ऐसा न करने पर उन्हें दंड दिया जायेगा। संविधान ऐसे नियमों को न केवल उपलब्ध कराता है, बल्कि उन्हें न्यायालय द्वारा लागू भी करवाता है।

2. निर्णय लेने की शक्ति का निर्धारण: संविधान का दूसरा काम यह स्पष्ट करना है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी। संविधान यह भी तय करता है कि सरकार कैसे निर्मित होगी । संविधान कुछ ऐसे बुनियादी सिद्धान्तों का समूह है जिसके आधार पर राज्य का निर्माण और शासन का निर्माण होता है। वह समाज में शक्ति के मूल वितरण को स्पष्ट करता है तथा यह तय करता है कि कानून कौन बनायेगा – राजा या केवल एक दल विशेष या जनता या जन-प्रतिनिधि। यदि यह काम जन प्रतिनिधियों द्वारा करना है तो संविधान यह भी तय करता है कि उन प्रतिनिधियों का चयन कैसे होगा और कुल प्रतिनिधि कितने होंगे । इस प्रकार संविधान सरकार का निर्माण करने वाली सत्ता है।

3. सरकार की शक्तियों पर सीमाएँ: सविधान का तीसरा काम यह है कि वह सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों की कोई सीमा तय करे। ये सीमाएँ इस रूप में मौलिक होती हैं कि सरकार कभी उनका उल्लंघन नहीं कर सकती। संविधान सरकार की शक्तियों को कई तरह से सीमित करता है। यथा

  • वह नागरिकों के मूल अधिकारों को स्पष्ट कर देता है ताकि कोई भी सरकार उनका उल्लंघन न कर सके।
  • वह नागरिकों को मनमाने ढंग से बिना किसी कारण के गिरफ्तार करने के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है।
  • वह नागरिकों को कुछ मौलिक स्वतंत्रताएँ प्रदान कर देता है, जैसे भाषण की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता आदि।
    व्यवहार में इन अधिकारों व स्वतन्त्रताओं को राष्ट्रीय आपातकाल में सीमित किया जा सकता है और संविधान उन परिस्थितियों का भी उल्लेख करता है जिनमें इन अधिकारों को वापिस लिया जा सकता है।

4. समाज की आकांक्षाएँ और लक्ष्य: संविधान का चौथा काम यह है कि वह सरकार को ऐसी क्षमता प्रदान करे जिससे वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके और एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए उचित परिस्थितियों का निर्माण कर सके। आधुनिक संविधान निर्णय लेने की शक्ति के वितरण और सरकार की शक्ति पर प्रतिबंध लगाने के काम के साथ- साथ एक ऐसा सक्षम ढांचा भी प्रदान करते हैं जिससे सरकार कुछ सकारात्मक कार्य कर सके और समाज की आकांक्षाएँ और उसके लक्ष्य को अभिव्यक्ति दे सके। उदाहरण के लिए भारत के संविधान में मौलिक अधिकार और राज्य की नीति के निर्देशक तत्व ऐसे ही प्रावधान हैं।

5. राष्ट्र की बुनियादी पहचान: संविधान किसी समाज की बुनियादी पहचान होती है अर्थात् इसके माध्यम से किसी समाज की एक सामूहिक इकाई के रूप में पहचान होती है। संविधान के द्वारा कोई समाज कुछ. बुनियादी नियमों और सिद्धान्तों पर सहमत होकर अपनी मूलभूत राजनीतिक पहचान बनाता है। संविधान आधिकारिक बंधन लगाकर यह तय कर देता है कि कोई क्या कर सकता है और क्या नहीं। इस तरह संविधान उस समाज को नैतिक पहचान भी देता है।

अधिकतर संविधान कुछ मूलभूत अधिकारों की रक्षा करते हैं और ऐसी सरकारें संभव बनाते हैं जो किसी न किसी रूप में लोकतांत्रिक होती हैं। लेकिन राष्ट्रीय पहचान की अवधारणा अलग-अलग संविधानों में अलग-अलग होती है। जहाँ जर्मनी के संविधान ने ‘जर्मन नस्ल’ को नागरिकता की अभिव्यक्ति दी है, वहाँ भारतीय संविधान ने जातीयता या नस्ल को नागरिकता के आधार के रूप में मान्यता नहीं दी है। विभिन्न राष्ट्रों में देश की केन्द्रीय सरकार और विभिन्न क्षेत्रों के बीच सम्बन्धों को लेकर विभिन्न अवधारणाएँ होती हैं। यह सम्बन्ध उस देश की राष्ट्रीय पहचान बनाते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौनसा समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन करता है।
(अ) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ब) केवल श्वेत लोगों को ही एक डिब्बे में यात्रा करने की अनुमति है।
(स) स्त्रियों को नौकरियों में मातृत्व अवकाश प्रदान किया गया है।
(द) अनुसूचित जाति के लोगों को नौकरियों में आरक्षण दिया गया है।
उत्तर:
(ब) केवल श्वेत लोगों को ही एक डिब्बे में यात्रा करने की अनुमति है।

2. निम्नलिखित में से कौनसा तर्क समानता की सकारात्मक विभेदीकरण, विशेषकर आरक्षण की नीति का समर्थन करता है।
(अ) यह मनमाने तरीके से समाज के अन्य वर्गों को समान व्यवहार के अधिकार से वंचित करती है।
(ब) यह भी एक तरह का भेदभाव है।
(स) यह वंचित समूहों के अवसर की समानता के अधिकार को व्यावहारिक बनाती है।
(द) यह जातिगत पूर्वाग्रहों को और मजबूत कर समाज को विभाजित करती है ।
उत्तर:
(स) यह वंचित समूहों के अवसर की समानता के अधिकार को व्यावहारिक बनाती है।

3. निम्नलिखित में से कौनसी विभेदक बरताव की मांग समानता के सिद्धान्त को यथार्थपरक नहीं बनाती है।
(अ) विकलांगों को सार्वजनिक स्थानों पर विशेष ढलान वाले रास्तों की मांग
(ब) रात में कॉल सेंटर में काम करने वाली महिला को कॉल सेंटर आते-जाते समय विशेष सुरक्षा की मांग
(स) श्वेत लोगों के लिए पृथक् से विश्राम गृह बनाने की मांग
(द) कामकाजी महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर बालबाड़ी की मांग
उत्तर:
(स) श्वेत लोगों के लिए पृथक् से विश्राम गृह बनाने की मांग

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

4. निम्नलिखित में कौनसा कथन समानता को दर्शाता है।
(अ) वर्तमान में विश्व में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ‘ लागू किया जा चुका है।
(ब) दुनिया के 50 सबसे अमीर आदमियों की सामूहिक आमदनी दुनिया के 50 करोड़ सबसे गरीब लोगों की सामूहिक आमदनी के बराबर है।
(स) दुनिया की 40 प्रतिशत गरीब जनसंख्या का दुनिया की कुल आमदनी में हिस्सा केवल 5 प्रतिशत है, जबकि 5 प्रतिशत अमीर लोग दुनिया की 40 प्रतिशत आमदनी पर नियंत्रण करते हैं।
(द) अपने देश में हम आलीशान आवासों के साथ-साथ झोंपड़पट्टियां भी देखते हैं।
उत्तर:
(अ) वर्तमान में विश्व में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ‘ लागू किया जा चुका है।

5. निम्नलिखित में किस प्रकार की समानता के अभाव में स्वतंत्रता प्रभावहीन हो जाती है?
(अ) नैतिक समानता
(ब) प्राकृतिक समानता
(स) धार्मिक समानता
(दं) आर्थिक समानता
उत्तर:
(दं) आर्थिक समानता

6. जाति एवं रंगभेद विरोधी आन्दोलन मांग करता है।
(अ) राजनीतिक समानता की
(ब) सामाजिक समानता की
(स) राष्ट्रीय समानता की
(द) धार्मिक समानता की
उत्तर:
(ब) सामाजिक समानता की

7. ” समानता स्वतंत्रता की शत्रु नहीं, उसकी एक आवश्यक शर्त है।” यह कथन है।
(अ) प्लेटो का
(ब) अरस्तू का
(स) आर. एस. टोनी का
(द) लार्ड एक्टन का
उत्तर:
(स) आर. एस. टोनी का

8. “र्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता एक भ्रम है।” यह कथन है।
(अ) प्रो. जोड का
(ब) गांधी का
(स) प्लेटो का
(द) अरस्तू का
उत्तर:
(अ) प्रो. जोड का

9. छुआछूत विरोधी निम्नलिखित में से किस समानता के पक्षधर हैं।
(अ) नैतिक समानता
(ब) सामाजिक समानता
(स) राजनीतिक समानता
(द) आर्थिक समानता
उत्तर:
(ब) सामाजिक समानता

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10. निम्नलिखित में कौनसा कथन ठीक है?
(अ) पूर्ण समानता केवल प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है।
(ब) पूर्ण समानता केवल तानाशाही शासन में संभव है।
(स) पूर्ण समानता असंभव है।
(द) पूर्ण समानता केवल संसदीय शासन में ही संभव है।
उत्तर:
(स) पूर्ण समानता असंभव है।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. समानता का दावा है कि सभी ………………. समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं।
उत्तर:
मनुष्य

2. फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का नारा था – स्वतंत्रता, ……………….. और भाईचारा।
उत्तर:
समानता

3. लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण …………………. पैदा होती हैं।
उत्तर:
प्राकृतिक

4. समाज में अवसरों की असमानता होने से ………………… असमानताएँ पैदा होती हैं।
उत्तर:
समाजजनित

5. ……………… असमानताएँ विशेषाधिकार जैसी असमानताओं को बढ़ावा देती हैं।
उत्तर:
आर्थिक

निम्नलिखित में से सत्य/ असत्य कथन छाँटिये

1. उदारवाद स्त्री – पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है।
उत्तर:
असत्य

2. नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता ‘पितृसत्ता’ का परिणाम है।
उत्तर:
सत्य

3. उदारवादी मानते हैं कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ एक-दूसरे से अनिवार्यत: जुड़ी होती हैं।
उत्तर:
असत्य

4. मार्क्स का मानना था कि खाईनुमा असमानताओं का बुनियादी कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों का निजी स्वामित्व है।
उत्तर:
सत्य

5. समानता की प्राप्ति के लिए जरूरी है कि सभी निषेध या विशेषाधिकारों का अन्त किया जाये।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. फ्रांसीसी क्रांति
2. साझी मानवता
3. प्राकृतिक असमानताएँ
4. समाजजनित असमानताएँ
5. नारीवादी
उत्तर:
(अ) सभी मनुष्य समान सम्मान एवं परवाह के हकदार
(ब) अवसरों की असमानता का परिणा
(स) स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों के पक्षधर
(द) जन्मजात विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम
(य) स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का नारा

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता के कोई दो आयाम लिखो।
उत्तर:

  1. राजनीतिक समानता
  2. सामाजिक समानता।

प्रश्न 2.
समानता का नैतिक आदर्श क्या है?
उत्तर:
समानता का नैतिक आदर्श है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं।

प्रश्न 3.
सामाजिक समानता का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक समानता का तात्पर्य है। समाज से विशेषाधिकारों का अन्त होना तथा समाज में सभी व्यक्तियों का व्यक्ति होने के नाते समान महत्व होना।

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प्रश्न 4.
प्राकृतिक समानता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
प्राकृतिक समानता से आशय है कि प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्य बराबर हैं।

प्रश्न 5.
अवसरों की समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसरों का मिलना ही अवसरों की समानता

प्रश्न 6.
भारत के प्रमुख समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने कौनसी पाँच तरह की असमानताओं का उल्लेख किया?
उत्तर:
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने

  1. स्त्री-पुरुष असमानता,
  2. रंग आधारित असमानता,
  3. जातिगत असमानता,
  4. आर्थिक असमानता तथा
  5. कुछ देशों का अन्य पर औपनिवेशिक शासन की असमानता का उल्लेख किया।

प्रश्न 7.
सामाजिक समानता की स्थापना के लिए नागरिकों का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए?
उत्तर:
सामाजिक समानता की स्थापना हेतु नागरिकों का दृष्टिकोण उदार एवं व्यापक होना चाहिए।

प्रश्न 8.
समाजवादी राज्यों में समानता के किस रूप पर विशेष बल दिया जाता है?
उत्तर:
आर्थिक समानता पर।

प्रश्न 9.
समाज में आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएँ बढ़ने पर क्या परिणाम होगा?
उत्तर:
अमीर वर्ग गरीब वर्ग का तथा उच्च वर्ग निम्न वर्ग का शोषण करने लगेगा।

प्रश्न 10.
स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त कौनसा है?
उत्तर:
नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है।

प्रश्न 11.
नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता किसका परिणाम है?
उत्तर:
नारीवाद के अनुसार स्त्री पुरुष असमानता पितृसत्ता का परिणाम है।

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प्रश्न 12.
समानता का हमारा आत्मबोध क्या कहता है?
उत्तर:
समानता का हमारा आत्मबोध यह कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान के हकदार हैं।

प्रश्न 13.
राज्य के समाज के सबसे वंचित सदस्यों की मदद करने के कोई दो तरीके लिखिये।
उत्तर:

  1. आरक्षण
  2. कम उम्र से ही विशेष सुविधायें प्रदान करना।

प्रश्न 14.
कुछ सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में किस प्रकार की असमानता कायम रखती हैं?
उत्तर:
बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं।

प्रश्न 15.
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में फ्रांसीसी क्रांति में क्रांतिकारियों का क्या नारा था?
उत्तर:
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुई फ्रांसीसी क्रांति में ‘स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा’ फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का नारा था।

प्रश्न 16.
स्पष्ट करें कि स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी नहीं हैं?
उत्तर:
स्वतंत्रता तथा समानता दोनों का उद्देश्य व्यक्ति के विकास, सुविधाएँ व उसके व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा है, इसलिए यह विरोधी नहीं है।

प्रश्न 17.
20वीं सदी में समानता की मांग कहाँ और किसके द्वारा उठायी गयी थी?
उत्तर:
20वीं सदी में समानता की मांग एशिया और अफ्रीका के उपनिवेश विरोधी स्वतंत्रता संघर्षों के दौरान महिलाओं और दलित समूहों द्वारा उठायी गयी थी।

प्रश्न 18.
आज भी विश्व में किस प्रकार की असमानताएँ व्याप्त हैं?
उत्तर:
आज भी विश्व में धन-सम्पदा, अवसर, कार्य-स्थिति और शक्ति की भारी असमानताएँ व्याप्त हैं।

प्रश्न 19.
हम असमानता के किन आधारों को अस्वीकार करते हैं?
उत्तर:
हम असमानता के जन्म सम्बन्धी आधारों; जैसे धर्म, नस्ल, जाति या लिंग आदि, को अस्वीकार करते हैं।

प्रश्न 20.
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में किस कारण पैदा होती हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं।

प्रश्न 21.
समार्जजनित असमानताएँ किस कारण पैदा होती हैं?
उत्तर:
समाजजनित असमानताएँ समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं।

प्रश्न 22.
असमानता को समाप्त करने के लिए किन्हीं दो सकारात्मक कार्यवाहियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और होस्टल जैसी सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करना तथा नौकरियों व शैक्षिक संस्थाओं में उनके प्रवेश की विशेष व्यवस्था करना।

प्रश्न 23.
सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को किस प्रकार का उपाय माना गया है? उत्तर- इसे एक निश्चित अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समान लोगों के साथ समान व्यवहार का अर्थ बताइये
अथवा
समानता के आदर्श से क्या आशय है?
उत्तर:
समानता के आदर्श का आशय है। साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य समान व्यवहार के हकदार हैं; लेकिन इसका अभिप्राय व्यवहार के सभी तरह के अन्तरों का उन्मूलन नहीं है, बल्कि यह है कि हमें जो अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए।

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प्रश्न 2.
समानता का राजनैतिक आदर्श क्या है?
उत्तर:
एक राजनैतिक आदर्श के रूप में समानता की अवधारणा उन विशिष्टताओं पर बल देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के अन्तर के बाद भी साझेदार होते हैं। जैसे’ मानवता के प्रति अपराध’ सभी के लिए समान हैं।

प्रश्न 3.
समानता का नैतिक आदर्श क्या है?
उत्तर:
समानता का नैतिक आदर्श यह है कि हर धर्म ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं।

प्रश्न 4.
प्राकृतिक असमानता और सामाजिक असमानता में क्या अन्तर है?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ वे हैं जिन्हें समाज ने पैदा किया है, जो समाजजनित हैं।

प्रश्न 5.
राजनैतिक समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
राजनैतिक समानता से आशय है। समाज के सभी नागरिकों को कुछ मूल अधिकार, जैसे—मतदान का अधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति तथा धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता आदि प्राप्त हों।

प्रश्न 6.
सामाजिक समानता क्या है?
उत्तर:
सामाजिक समानता: सामाजिक समानता से आशय यह है कि समाज के विभिन्न समूह और समुदायों के लोगों के पास समाज में उपलब्ध साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो। समाज में सभी सदस्यों के जीवनयापन के लिए अन्य चीज़ों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारण्टी दी गई हो।

प्रश्न 7.
समानता को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
समानता को परिभाषित करना आसान नहीं है। कुछ विचारकों के अनुसार समानता से आशय प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करने से है। लेकिन हर स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के साथ एक समान व्यवहार करना संभव नहीं है। प्रकृति ने भी सभी व्यक्तियों को सभी तरह से एक समान नहीं बनाया है। इस प्रकार समानता का अर्थ है- जन्म, लिंग, रंग, जाति तथा वंश पर आधारित भेदभाव के बिना सभी लोगों के व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसरों की उपलब्धि।

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प्रश्न 8.
” साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। लेकिन लोगों से बराबर सम्मान का व्यवहार करने का अर्थ यह आवश्यक नहीं है कि हमेशा एक जैसा व्यवहार किया जाये। कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं करता और न ही यह संभव है। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन आवश्यक है। अलग-अलग काम, अलग- अलग लोगों को अलग-अलग महत्त्व व लाभ दिलाता है। व्यवहार का यह अन्तर न केवल स्वीकार्य है, बल्कि आवश्यक भी है। समानता के समान व्यवहार में यह बात भी निहित है।

प्रश्न 9.
आर्थिक समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
आर्थिक समानता: आर्थिक समानता से आशय है कि समाज के लोगों में धन-दौलत व आय की समानता हो। लेकिन समाज में धन-दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही। आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं, ताकि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति को सुधार सके। लेकिन किसी समाज में कुछ खास वर्ग के लोग पीढ़ियों से बेशुमार धन-दौलत तथा इससे हासिल होने वाली सत्ता का उपयोग करते हैं, तो समाज अत्यधिक धनी और अत्यधिक निर्धन दो वर्गों में बंट जायेगा। ऐसी स्थिति में आर्थिक समानता से आशय है समान अवसर उपलब्ध कराने के साथ-साथ आवश्यक संसाधनों पर जनता का नियंत्रण कायम करके या अन्य उपाय करके आर्थिक असमानता की खाइयों को कम करके समान अवसर की उपलब्धता को व्यावहारिक भी बनाना।

प्रश्न 10.
समानता के महत्त्व का संक्षिप्त में वर्णन करो।
उत्तर:
समानता व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। इसके बिना अशान्ति एवं अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। समानता के अभाव में स्वतंत्रता भी निरर्थक होती है। उदाहरण के लिए आर्थिक समानता होने पर ही राजनीतिक स्वतन्त्रता का सही अर्थों में उपयोग किया जा सकता है। समानता के बिना कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता है। समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं । समानता की अवधारणा एक राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर जोर देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बावजूद साझेदार होते हैं।

प्रश्न 11.
अवसरों की समानता से क्या आशय है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
अवसरों की समानता: अवसरों की समानता से यह आशय है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और समान अवसरों के हकदार हैं। इसका आशय यह है कि समाज में लोग अपनी पसंद और प्राथमिकताओं के मामलों में अलग हो सकते हैं, उनकी प्रतिभा और योग्यताओं में भी अन्तर हो सकता है और इस कारण कुछ लोग अपने चुने हुए क्षेत्रों में बाकी लोगों से ज्यादा सफल हो सकते हैं, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी चीजों की उपलब्धता में असमानता नहीं होनी चाहिए। इस असमानता के चलते अवसरों की समानता व्यावहारिक नहीं हो सकती।

प्रश्न 12.
समानता को लोकतंत्र की आधारशिला क्यों कहा गया है?
उत्तर:
समानता लोकतंत्र की आधारशिला है क्योंकि लोकतंत्र की स्थापना के लिए राजनीतिक समानता का होना अति आवश्यक है। राजनीतिक समानता के अन्तर्गत समाज के सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना है। समान नागरिकता अपने साथ कुछ मूल अधिकार, जैसे मतदान का अधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता लाती है। ये ऐसे अधिकार हैं, जो नागिरकों को अपना विकास करने और राज्य के कामकाज में हिस्सा लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं।

अतः स्पष्ट है कि समानता लोकतंत्र की आधारशिला है। दूसरे, समानता के अभाव में स्वतंत्रता का भी कोई मूल्य नहीं। यदि सभी को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल जाये, लेकिन आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक असमानता के कारण शोषणकारी स्थितियाँ बनी रहें तो राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थात् लोकतंत्र निरर्थक हो जायेगा। अतः लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए राजनैतिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानता भी आवश्यक है।

प्रश्न 13.
समानता के विभिन्न प्रकार कौन-कौनसे हैं ? स्पष्ट करो।
उत्तर:
विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के तीन प्रकारों को रेखांकित किया है। ये निम्न हैं।

  1. राजनीतिक समानता: सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना, वयस्क मताधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
  2. सामाजिक समानता: सामाजिक समानता का आशय अवसरों की समानता देने से है। इसका उद्देश्य विभिन्न समूह और समुदाय के लोगों के पास उपलब्ध साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो।
  3. आर्थिक समानता: आर्थिक समानता से आशय है। समाज के सदस्यों और वर्गों के बीच धन, सम्पत्ति और आय की अत्यधिक भिन्नता न हो।

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प्रश्न 14.
समानता क्या है? समानता का नैतिक और राजनैतिक आदर्श क्या है? समझाइये।
उत्तर:
समानता का अर्थ: समानता से यह आशय हैं कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं समानता का नैतिक और राजनैतिक आदर्श समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनैतिक आदर्श के रूप में मानव समाज को प्रेरित और निर्देशित करती रही है। नैतिक आदर्श के रूप में समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। समानता की अवधारणा एक राजनैतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर जोर देती है जिसमें तमाम मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बाद भी साझेदार होते हैं। इस प्रकार नैतिक और राजनैतिक आदर्श के रूप में समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं।

प्रश्न 15.
क्या समानता का मतलब व्यक्ति से हर स्थिति में एक समान बरताव करना है?
उत्तर:
समानता का हमारा आत्मबोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और समान व्यवहार के हकदार हैं। लेकिन लोगों से समान सम्मान और समान व्यवहार करने का मतलब आवश्यक नहीं कि हमेशा एक जैसा व्यवहार किया जाये। कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं करता। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन जरूरी है। अलग-अलग काम और अलग-अलग लोगों को महत्त्व और लाभ भी अलग-अलग मिलता है।

कई बार इस व्यवहार में यह अन्तर न केवल स्वीकार्य होता है, बल्कि आवश्यक भी होता है। लेकिन कई बार लोगों से अलग तरह का व्यवहार इसलिए किया जाता है कि उनका जन्म किसी खास धर्म, नस्ल, जाति या लिंग में हुआ है। असमान व्यवहार के ये आधार समानता के सिद्धान्त में अस्वीकृत किये गयेहैं। लेकिन लोगों की आकांक्षाएँ और लक्ष्य अलग-अलग हो सकते हैं और हो सकता है कि सभी को समान सफलता न मिले। समानता के आदर्श से जुड़े होने का यह अर्थ नहीं है कि सभी तरह के अन्तरों का उन्मूलन हो जाए। यहाँ हमारा अभिप्राय केवल इतना है कि हमसे जो व्यवहार किया जाता है और हमें जो भी अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए।

प्रश्न 16.
विभेदक बरताव द्वारा समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक समानता या कानून के समक्ष समानता आवश्यक तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं। कभी-कभी यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, उनसे अलग-अलग बरताव करना आवश्यक होता है। इस उद्देश्य से लोगों के बीच कुछ अन्तरों को ध्यान में रखना होता है । जैसे— विकलांगों की सार्वजनिक स्थानों पर विशेष दलान वाले रास्तों की मांग न्यायोचित होगी, क्योंकि इससे ही उन्हें सार्वजनिक भवनों में प्रवेश करने का समान अवसर मिल सकेगा। ऐसे अलग-अलग बरतावों को समानता को बढ़ावा देने वाले उपायों के रूप में देखा जाना चाहिए। इसी को विभेदक बरताव द्वारा समानता की स्थापना कहते हैं।

प्रश्न 17.
अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ के विचार को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सकारात्मक कार्यवाही: कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। असमानताओं को मिटाने के लिए जरूरी होगा कि असमानता की गहरी खाइयों को भरने वाले अधिक सकारात्मक कदम उठाए जाएँ। इसीलिए सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं के संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं। सकारात्मक कार्यवाही के रूप- सकारात्मक कार्यवाही के कई रूप हो सकते हैं। यथा

  1. इसमें वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल जैसी सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करने की नीति हो सकती है।
  2. इसमें नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष व्यवस्था करने की नीतियाँ हो सकती हैं। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित समय अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि विशेष बरताव इन समुदायों को वर्तमान वंचनाओं से उबरने में सक्षम बनाएगा और फिर ये अन्य समुदायों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा कर सकेंगे।

प्रश्न 18.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है। इस सम्बन्ध में आप अपने विचार लिखिये।
उत्तर:
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है। लेकिन मैं इस मत से सहमत नहीं हूँ। असमानता प्राकृतिक और सामाजिक दोनों हैं। प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं, विशिष्टताओं तथा उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। प्राकृतिक असमानताएँ न्यायोचित होती हैं तथा इन्हें बदला नहीं जा सकता। दूसरी तरफ सामाजिक असमानताएँ सामाजिक विशेषाधिकारों, अवसरों की असमानता तथा शोषण के कारण पैदा होती हैं। सामाजिक असमानताएँ समाजजनित होती हैं, ये न्यायोचित नहीं होतीं तथा इन्हें बदला जा सकता है।

प्रश्न 19.
समाज में समानता की स्थापना हेतु सुझाव दीजिये।
उत्तर:
किसी समाज में समानता की स्थापना हेतु निम्न प्रयास किये जाने चाहिए

  1. राजनीतिक समानता की स्थापना: किसी भी लोकतांत्रिक समाज में समानता की स्थापना हेतु सभी व्यक्तियों को समान नागरिकता प्रदान करनी चाहिए। इससे राजनीतिक और कानूनी समानता की स्थापना होगी । राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
  2. अवसरों की समानता प्रदान करना: समाज में सभी सदस्यों के जीवन-यापन के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने के अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी चीजों की गारण्टी होनी चाहिए। राज्य को इस दिशा में विशेष प्रयत्न करना चाहिए कि सभी लोगों को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसरों की समानता हो।
  3. विभेदक बरताव द्वारा समानता: लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, इसके लिए विशिष्ट लोगों के लिए विभेदक बरताव की व्यवस्था भी सरकार को करनी चाहिए। जैसे विकलांगों के लिए ढलान वाले रास्तों का होना।
  4. सकारात्मक कार्यवाही या नीतियाँ: अवसरों की समानता को बढ़ाने के लिए सरकार को वंचितों के लिए विशिष्ट नीतियाँ भी बनानी चाहिए। जैसे—भारत में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

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प्रश्न 20.
‘राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना अधूरी है।’ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना अधूरी है क्योंकि।

  1. आर्थिक असमानता के कारण समाज धनी और निर्धन वर्गों में बँट जाता है। गरीब वर्ग के पास चुनाव लड़ने के साधनों की कमी होती है। अतः वे अपनी निर्धनता के कारण अपने इस राजनीतिक अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। फलतः धनी वर्ग ही राजनीतिक सत्ता का उपभोग करता रहता है।
  2. प्राय: यह भी देखने में आया है कि राजनीतिक दलों एवं मीडिया पर भी गरीब वर्ग की अपेक्षा धनी वर्ग का नियंत्रण रहता है। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी वे समान उपभोग नहीं कर पाते हैं।

प्रश्न 21.
‘समानता और स्वतंत्रता में क्या सम्बन्ध है?’ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समानता और स्वतंत्रता में संबंध – समानता और स्वतंत्रता एक-दूसरे की पूरक हैं। ‘समानता के बिना स्वतन्त्रता अधूरी है।’ अतः दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। यथा

  1. स्वतंत्रता और समानता का विकास साथ- साथ हुआ है।
  2. दोनों का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास हेतु उचित वातावरण का निर्माण करना है।
  3. स्वतन्त्रता का उपभोग करने के लिए समानता परमावश्यक है।
  4. समानता और स्वतंत्रता दोनों लोकतंत्र के आधार – स्तंभ हैं।

प्रश्न 22.
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण का सबसे कारगर उपाय क्या मानते हैं?
उत्तर:
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण का सबसे कारगर तथा उचित तरीका प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त को मानते हैं। उनका मानना है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष परिस्थितियों में लोगों के बीच प्रतिस्पर्द्धा ही समाज में लाभांशों के वितरण का सबसे न्यायपूर्ण और कारगर उपाय होती है। जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतन्त्र और खुली होगी, असमानताओं की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा।

प्रश्न 23.
राममनोहर लोहिया की सप्त क्रांतियाँ क्या थीं?
उत्तर:
भारत में प्रमुख समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया ने पाँच तरह की असमानताओं की पहचान की, जिनके खिलाफ एक साथ लड़ना होगा। ये पाँच असमानताएँ थीं

  1. स्त्री-पुरुष असमानता
  2. चमड़ी के रंग पर आधारित असमानता
  3. जातिगत असमानता
  4. कुछ देशों का अन्य पर औपनिवेशिक शासन
  5. आर्थिक असमानता। लोहिया का कहना था कि इस असमानताओं में से प्रत्येक की अलग-अलग जड़ें हैं और उन सबके खिलाफ अलग-अलग लेकिन एक साथ संघर्ष छेड़ने होंगे। उनके लिए उक्त पाँच असमानताओं के खिलाफ संघर्ष का अर्थ था पाँच क्रांतियाँ। उन्होंने इस सूची में दो और क्रांतियों को शामिल किया
  6. व्यक्तिगत जीवन पर अन्यायपूर्ण अतिक्रमण के खिलाफ नागरिक स्वतंत्रता के लिए क्रांति तथा
  7. अहिंसा के लिए, सत्याग्रह के पक्ष में शस्त्र त्याग के लिए क्रांति । ये ही सप्तक्रांतियां थीं, जो लोहिया के अनुसार समाजवाद का आदर्श हैं।

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प्रश्न 24.
भारत द्वारा अपनाई गयी सकारात्मक विभेदीकरण, विशेषकर आरक्षण की नीति के विरोध में आलोचक क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
आरक्षण की नीति के विरोध में तर्क- आरक्षण की नीति के आलोचक इसके विरोध में समानता के सिद्धान्त का सहारा लेते हुए निम्नलिखित तर्क देते हैं।

  1. वंचितों को उच्च शिक्षा या नौकरियों में आरक्षण या कोटा देने का कोई भी प्रावधान अनुचित है, क्योंकि यह मनमाने तरीके से समाज के अन्य वर्गों को समान व्यवहार के अधिकार से वंचित करता है।
  2. आरक्षण भी एक तरह का भेदभाव है जबकि समानता की माँग है कि सब लोगों से बिल्कुल एक तरह से व्यवहार हो।
  3. जब हम जाति के आधार पर अंतर करते हैं, तब हम जातिगत और नस्लगत पूर्वाग्रहों को और भी मजबूत कर रहे होते हैं।

प्रश्न 25.
नारीवाद क्या है?
उत्तर:
नारीवाद: नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है। वे स्त्री या पुरुष नारीवादी कहलाते हैं, जो मानते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक समतापूर्ण जीवन जी सकते हैं।

प्रश्न 26.
‘नारीवादियों के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता का मूल कारण पितृसत्ता है।’ इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पितृसत्ता से आशय एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था से है, जिसमें पुरुष को स्त्री से अधिक महत्त्व और शक्ति दी जाती है। इसके अनुसार पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। लेकिन नारीवादियों का कहना है कि स्त्री-पुरुष के बीच जैविक विभेद तो प्राकृतिक है, लेकिन लैंगिकता ( स्त्री-पुरुष के बीच सामाजिक भूमिकाओं का विभेद) समाजजनित है।

पितृसत्ता ने श्रम का विभाजन कुछ ऐसा किया है जिसमें स्त्री घरेलू किस्म के कार्यों के लिए जिम्मेदार है तो पुरुष की जिम्मेदारी सार्वजनिक और बाहरी दुनिया के कार्यक्षेत्र से है। नारीवादियों का मत है कि निजी और सार्वजनिक के बीच यह विभेद और सामाजिक लैंगिकता की असमानता के सभी रूपों को दूर किया जा सकता है। स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष असमानता का मूल कारण पितृसत्ता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता क्या है? समानता के आयामों को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
समानता का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके प्रकारों की व्याख्या कीजिये।
उत्तर: समानता का अर्थ समानता की अवधारणा में यह निहित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं। समान अवसरों की समानता को व्यावहारिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी चीजों की उपलब्धता में अत्यधिक असमानताएँ न हों तथा जन्म, धर्म, नस्ल, जाति एवं लिंग के आधार पर लोगों के साथ कोई भेद-भावपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता हो और न ही अवसरों की उपलब्धता में इनके आधार पर व्यक्तियों के बीच कोई भेदभाव किया जाता हो। समानता के आयाम विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीन आयामों को रेखांकित किया है। यथा

1. राजनीतिक समानता:
लोकतांत्रिक समाजों में सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना राजनैतिक समानता में शामिल है। समान नागरिकता अपने साथ कुछ मूलभूत अधिकार, जैसे मतदान का अधिकार, कहीं भी आने- जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता लाती है। ये ऐसे अधिकार हैं, जो नागरिकों को अपना विकास करने और राज्य के काम-काज में हिस्सा लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। अतः ये अधिकार राजनीतिक समानता के अंग हैं। लेकिन ये समान औपचारिक अधिकार हैं, जिन्हें संविधान और कानूनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है। राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है, लेकिन यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है क्योंकि सभी नागरिकों को समान अधिकार देने वाले देशों में भी काफी असमानता विद्यमान हैं। ऐसी असमानताएँ प्रायः सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में नागरिकों को उपलब्ध संसाधनों और अवसरों की भिन्नता का परिणाम होती हैं। इसलिए प्राय: समान अवसर के लिए एक समान स्थितियों की माँग उठती है।

2. सामाजिक समानता:
राजनीतिक समानता या समान कानूनी अधिकार देना समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम था। राजनीतिक समानता की जरूरत उन बाधाओं को दूर करने में है जिन्हें दूर किए बिना लोगों का सरकार में अपनी बात रखने और उपलब्ध साधनों तक पहुँचना संभव नहीं होगा। लेकिन समानता के उद्देश्य की दूसरी आवश्यकता यह है कि विभिन्न समूह और समुदायों के लोगों के पास इन साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो। इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज में सभी सदस्यों के जीवनयापन के लिए अन्य चीजों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारण्टी हो। इन सुविधाओं के अभाव में समाज के सभी सदस्यों के लिए समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करना संभव नहीं होगा।

भारत में समान अवसरों के मद्देनजर एक विशेष समस्या कुछ सामाजिक रीति-रिवाजों से सामने आती है। देश के विभिन्न हिस्सों में औरतों को उत्तराधिकार का समान अधिकार नहीं मिलता, उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने से भी हतोत्साहित किया जाता है आदि। ऐसे मामलों में राज्य औरतों को समान कानूनी अधिकार प्रदान करके, शिक्षण या कुछ अन्य देशों में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन जैसे उपाय करके अपनी भूमिका निभाता है। लोगों में जागरूकता बढ़ाने और इन अधिकारों का प्रयोग करने वालों को समर्थन देकर भी राज्य अपनी भूमिका निभा सकता है।

3. आर्थिक समानता:
आर्थिक समानता से आशय समाज में धन-दौलत या आय की समानता का होना है। यह सही है कि समाज में धन- – दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही। आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। यह माना जाता है कि समान अवसर कम से कम उन्हें अपनी हालत को सुधारने का मौका देते हैं जिनके पास प्रतिभा और संकल्प है। समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना छुपी रहती है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है।

लेकिन समाज में अत्यधिक आर्थिक असमानताएँ भी नहीं होनी चाहिए। अगर किसी समाज में लोगों के कुछ खास वर्ग के लोग पीढ़ियों से बेशुमार धन-दौलत और इसके साथ हासिल होने वाली सत्ता का उपभोग करते हैं, तो समाज दो वर्गों – अत्यधिक धनी और विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग और अत्यधिक निर्धन और विशेषाधिकारविहीन वर्ग में बंट जाता है। ये आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं। इसलिए ऐसी असमानताओं को दूर करने के लिए सरकार को सकारात्मक कार्यवाही की नीतियाँ बनानी चाहिए ताकि अत्यधिक आर्थिक असमानता को कम किया जा सके और अवसर की समानता को व्यावहारिक बनाया जा सके।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 2.
समाज में समानता की स्थापना के सम्बन्ध में मार्क्सवादी विचारधारा को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
मार्क्सवाद मार्क्सवाद हमारे समाज की एक प्रमुख राजनीतिक विचारधारा है। मार्क्स 19वीं सदी का एक प्रमुख विचारक था। उसके विचारों को मार्क्सवादी विचारधारा के रूप में जाना जाता है। उसके सामाजिक असमानता व समानता सम्बन्धी प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं।

  1. आर्थिक संसाधनों का निजी स्वामित्व आर्थिक असमानता का प्रमुख कारक: समाज में अत्यधिक असमानताओं का मूल कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों, जैसे। जल, जंगल, जमीन या तेल समेत अन्य प्रकार की सम्पत्ति का निजी स्वामित्व है। निजी स्वामित्व मालिकों के वर्ग को सिर्फ अमीर नहीं बनाता, बल्कि उन्हें राजनैतिक शक्ति भी प्रदान करता है। यह शक्ति उन्हें राज्य की नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने में सक्षम बनाती हैं और वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरा साबित हो सकते हैं।
  2. आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं का कारक हैं। मार्क्सवादी यह महसूस करते हैं कि आर्थिक असमानताएँ सामाजिक रुतबे या विशेषाधिकार जैसी अन्य तरह की सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं।
  3. समानता की स्थापना के लिए संसाधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व आवश्यक: समाज में असमानता से निबटने के लिए हमें समान अवसर उपलब्ध कराने से आगे जाने और आवश्यक संसाधनों तथा अन्य तरह की सम्पत्ति पर जनता का नियंत्रण कायम करने और सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
उदारवादी विचारधारा के समानता सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
उदारवादी: उदारवादी विचारधारा आधुनिक युग की प्रमुख राजनैतिक विचारधारा है। समाज में समानता की स्थापना के सम्बन्ध में उदारवादी दृष्टिकोण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन:
उदारवादी विचारक समाज में संसाधनों और लाभांश के वितरण के सर्वाधिक कारगर और उचित तरीके के रूप में प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। वे मानते हैं कि स्वतंत्र और निष्पक्ष परिस्थितियों में लोगों के बीच प्रतिस्पर्द्धा ही समाज में लाभांशों के वितरण का सबसे न्यायपूर्ण और कारगर उपाय है। जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतंत्र और खुली होगी असमानताओं की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा।

उनका कहना है कि नौकरियों में नियुक्ति और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए चयन के उपाय के रूप में प्रतिस्पर्द्धा का सिद्धान्त सर्वाधिक न्यायोचित व कारगर है। उदाहरण के लिए, अपने देश में अनेक छात्र व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में नामांकन की आशा करते हैं, जबकि प्रवेश के लिए अत्यधिक कड़ी प्रतिस्पर्द्धा है। समय-समय पर सरकार और अदालतों शैक्षणिक संस्थानों और प्रवेश परीक्षाओं का नियमन करने के लिए हस्तक्षेप किया है, ताकि प्रत्याशी को उचित और समान अवसर मिले, फिर भी कुछ को प्रवेश नहीं मिलता, लेकिन इसे सीमित सीटों के बंटवारे का निष्पक्ष तरीका माना जाता है।

2. राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक असमानताएँ अनिवार्यतः
एक-दूसरे से जुड़ी नहीं होतीं – उदारवादी उक्त तीनों असमानताओं को अनिवार्यतः एक-दूसरे से जुड़ी होने के सिद्धान्त पर सहमत नहीं हैं। इसलिए उनका मानना है कि इनमें से हर क्षेत्र की असमानताओं का निराकरण ठोस तरीके से करना चाहिए। इसलिए लोकतंत्र राजनीतिक समानता प्रदान करने में सहायक हो सकता है। लेकिन सामाजिक तथा आर्थिक असमानताओं के समाधान के लिए विविध सकारात्मक रणनीतियों की खोज करना भी आवश्यक है।

3. असमानता अपने आप में समस्या नहीं:
उदारवादियों के लिए असमानता अपने आप में समस्या नहीं है, बल्कि वे केवल ऐसी अन्यायी और गहरी असमानताओं को ही समस्या मानते हैं, जो लोगों को उनकी वैयक्तिक क्षमताएँ विकसित करने से रोकती हैं।

प्रश्न 4.
नारीवाद से आप क्या समझते हैं? स्त्री-पुरुष असमानता के सम्बन्ध में नारीवाद विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
नारीवाद: नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है। वे स्त्री या पुरुष नारीवादी कहलाते हैं जो मानते हैं कि स्त्री – पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक समतापूर्ण जीवन जी सकते हैं। असमानता के सम्बन्ध में प्रमुख नारीवादी विचार स्त्री-पुरुष असमानता व समानता के सम्बन्ध में नारीवादी सिद्धान्त की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं।

1. स्त्री-पुरुष असमानता पितृसत्ता का परिणाम है:
नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता ‘पितृसत्ता’ का परिणाम है। पितृसत्ता से आशय एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था से है, जिसमें पुरुष को स्त्री से अधिक महत्त्व और शक्ति दी जाती है। पितृसत्ता के अनुसार पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। नारीवादी पितृसत्ता की इस धारणा से सहमत नहीं हैं।

2. स्त्री-पुरुष के बीच जैविक ( लिंग ) भेद और सामाजिक भूमिका सम्बन्धी भेद में अन्तर है।
नारीवादी विचारक स्त्री-पुरुष के बीच जैविक विभेद और उनके बीच सामाजिक भूमिकाओं के विभेद के बीच अन्तर करने पर बल देते हैं। उनका कहना है कि जैविक विभेद (लिंग-भेद ) प्राकृतिक और जन्मजात होता है जबकि दोनों के बीच सामाजिक भूमिकाओं का भेद समाजजनित है। यह एक जीव विज्ञान का तथ्य है कि केवल औरत ही गर्भ धारण करके बालक को जन्म दे सकती है, लेकिन जीव विज्ञान के तथ्य में यह निहित नहीं है कि जन्म देने के बाद केवल स्त्री ही बालक का लालन-पालन करे। इस प्रकार नारीवादियों ने यह स्पष्ट किया है कि स्त्री-पुरुष के बीच भूमिकाओं सम्बन्धी भेद प्राकृतिक नहीं बल्कि समाजजनित हैं।

3. घरेलू और बाह्य कार्यों के विभाजन की अस्वीकृति:
नारीवादियों का मत है कि पितृसत्ता ने ही ऐसा श्रम विभाजन किया है कि स्त्री निजी और घरेलू किस्म के कार्यों के प्रति जिम्मेदार है और पुरुष बाहरी कार्यों के प्रति । नारीवादी इस विभेद को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि अधिकतर स्त्रियाँ ‘ सार्वजनिक और बाहरी क्षेत्र’ में भी सक्रिय होती हैं । इसीलिए विश्व में स्त्रियाँ घर से बाहर अनेक क्षेत्रों में कार्यरत हैं और घरेलू कामकाज की पूरी जिम्मेदारी केवल स्त्रियों के कंधों पर है। नारीवादी इसे स्त्रियों के कंधों पर दोहरा बोझ बताते हैं। इस दोहरे बोझ के बावजूद स्त्रियों को ‘सार्वजनिक क्षेत्र के निर्णयों में ‘ना’ के बराबर महत्त्व दिया जाता है।

4. सामाजिक भूमिका सम्बन्धी लैंगिक असमानता के सभी रूपों को मिटाया जा सकता है:
नारीवादियों का मानना है कि निजी / सार्वजनिक के बीच यह विभेद और समाज या व्यक्ति द्वारा गढ़ी हुई भूमिका जनित लैंगिक असमानता के सभी रूपों को मिटाया जा सकता है तथा लिंग-सम्बन्धी समानता की स्थापना के लिए असमानता के इन रूपों को मिटाया जा सकता है और मिटाया जाना चाहिए।
कीजिए।

प्रश्न 5.
” आज समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता अधिक नजर आती है। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाज में व्याप्त असमानता: यद्यपि आज विश्व में समानता व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसे अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है; तथापि विश्व समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता अधिक नजर आती है। हम एक ऐसी जटिल दुनिया में रहते हैं जिसमें धन-संपदा, अवसर, कार्य स्थिति और शक्ति की भारी असमानता है। नीचे विश्व और हमारे देश के स्तर पर असमानता दर्शाने वाले कुछ आंकड़े दिये गये हैं-

  1. दुनिया के 50 सबसे अमीर आदमियों की सामूहिक आमदनी दुनिया के 40 करोड़ सबसे गरीब लोगों की सामूहिक आमदनी से अधिक है।
  2. दुनिया की 40 प्रतिशत गरीब जनसंख्या का दुनिया की कुल आमदनी में हिस्सा केवल 5 प्रतिशत है, जबकि 10 प्रतिशत अमीर लोग दुनिया की 54 प्रतिशत आमदनी पर नियंत्रण करते हैं।
  3. पहली दुनिया खासकर उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के अगड़े औद्योगिक देशों में दुनिया की जनसंख्या का 25 प्रतिशत हिस्सा रहता है, लेकिन दुनिया के 86 प्रतिशत उद्योग इन्हीं देशों में हैं और दुनिया की 80 प्रतिशत ऊर्जा इन्हीं देशों में इस्तेमाल की जाती है।
  4. इन अगड़े औद्योगिक देशों (उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों) के निवासी भारत या चीन जैसी विकासशील देशों के निवासी की तुलना में कम से कम तीन गुना अधिक पानी, दस गुना ऊर्जा, तेरह गुना लोहा और इस्पात तथा 14 गुना कागज का उपभोग करता है।
  5. गर्भावस्था से जुड़े कारणों से मरने का खतरा नाइजीरिया के लिए 18 में से 1 मामले में है, जबकि कनाडा के लिए यह खतरा 8700 में से 1 मामले में है।
  6. जमीन से अंदर से निकालने वाले ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम और गैस) के जलने से दुनियाभर में जो कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है, उसमें से पहली दुनिया के औद्योगिक देशों का हिस्सा दो-तिहाई है। अम्लीय वर्षा के लिए जिम्मेदार सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड का भी तीन-चौथाई हिस्सा इन्हीं देशों द्वारा उत्सर्जित होता है। ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले बहुत सारे उद्योगों को विकसित देशों से हटाकर विकासशील देशों में लगाया जा रहा है।
  7. अपने देश में हम आलीशान आवासों के साथ-साथ झोंपड़पट्टियाँ, विश्वस्तरीय सुविधाओं से लैस स्कूल और वातानुकूलित कक्षाओं के साथ-साथ पेयजल और शौचालय की सुविधा से विहीन स्कूल, भोजन की बर्बादी के साथ-साथ भुखमरी देख सकते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 6.
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं से आप क्या समझते हैं? इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट कीजिये तथा दोनों के फर्क करने में आने वाली कठिनाइयों को भी स्पष्ट कीजिये।
अथवा
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं से आप क्या समझते हैं? इन दोनों में अन्तर करना क्यों उपयोगी है तथा क्या इनके बीच के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मापदण्ड के तौर पर उपयोग किया जा सकता है?
उत्तर:
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ राजनीतिक सिद्धान्त में प्राकृतिक असमानताओं और समाजजनित असमानताओं में अन्तर किया जाता है। यथा प्राकृतिक असमानताएँ – प्राकृतिक असमानताएँ वे होती हैं जो लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। समाजजनित (सामाजिक) असमानताएँ समाजजनित असमानताएँ वे होती हैं, जो समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर अग्रलिखित हैं।

  1. प्राकृतिक असमनताएँ लोगों की जन्मजात विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताओं को समाज ने पैदा किया है।
  2. प्राकृतिक असमानताओं को सामान्यतः बदला नहीं जा सकता जबकि सामाजिक असमानताओं को बदला जा सकता है।

दोनों असमानताओं में अन्तर करने की उपयोगिता प्राकृतिक और समाजमूलक असमानताओं में अन्तर करना इसलिए उपयोगी होता है क्योंकि इससे स्वीकार की जा सकने लायक और अन्यायपूर्ण असमानताओं को अलग-अलग करने में सहायता मिलती है। प्राकृतिक असमानताएँ जहाँ स्वीकार की जा सकने लायक होती हैं, वहीं समाजजनित असमानताएँ अन्यायपूर्ण होती हैं जिन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। दोनों असमानताओं में अन्तर करने में आने वाली कठिनाइयाँ प्राकृतिक असमानताओं और सामाजिक असमानताओं में अन्तर करने में निम्नलिखित कठिनाइयाँ आती हैं।

1. दोनों में अन्तर हमेशा साफ और अपने आप स्पष्ट नहीं होता:
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं में फर्क हमेशा साफ और अपने आप स्पष्ट नहीं होता। उदाहरण के लिए जब लोगों के व्यवहार में कुछ असमानताएँ लम्बे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। ऐसा लगने लगता है कि जैसे कि वे जन्मजात हों और आसानी से बदल नहीं सकतीं। जैसे औरतें अनादि काल से ‘अबला’ कही जाती थीं। उन्हें भीरु एवं पुरुषों से कम बुद्धि का माना जाता था, जिन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत थी। इसलिए यह मान लिया गया था कि औरतों को समान अधिकार से वंचित करना न्यायसंगत है। आज ऐसे सभी मानकों और मूल्यांकनों पर सवाल उठाये जा रहे हैं तथा इस असमानता को प्राकृतिक असमानता नहीं माना जा सकता। ऐसी ही अन्य अनेक धारणाओं पर अब सवाल उठाये जा रहे हैं।

2. प्राकृतिक मानी गयी कुछ असमानताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रही हैं:
प्राकृतिक असमानता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि ये असमानताएँ अपरिवर्तनीय होती हैं। लेकिन प्राकृतिक मानी गयी कुछ असमानताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रही हैं। उदाहरण के लिए, चिकित्सा विज्ञान और तकनीकी प्रगति ने विकलांग व्यक्तियों का समाज में प्रभावी ढंग से काम करना संभव बना दिया है। आज कम्प्यूटर नेत्रहीन व्यक्ति की मदद कर सकते हैं, पहियादार कुर्सी और कृत्रिम पाँव शारीरिक अक्षमता के निराकरण में सहायक हो सकते हैं।

कॉस्मेटिक सर्जरी से किसी व्यक्ति की शक्ल- सूरत बदली जा सकती है। आज अगर विकलांग लोगों को उनकी विकलांगता से उबरने के लिए जरूरी मदद और उनके कामों के लिए उचित पारिश्रमिक देने से इस आधार पर इनकार कर दिया जाए कि प्राकृतिक रूप से वे कम सक्षम हैं, तो यह अधिकतर लोगों को अन्यायपूर्ण लगेगा।

इन सब जटिलताओं के कारण प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं के बीच के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मानदण्ड के रूप में उपयोग करना कठिन होता है। इसी कारण बहुत से सिद्धान्तकार अपने चयन से पैदा हुई असमानता और व्यक्ति के विशेष परिवार या परिस्थितियों में जन्म लेने से पैदा हुई असमानता में फर्क करते हैं तथा वे चाहते हैं कि परिवेश से जन्मी असमानता को न्यूनतम और समाप्त किया जाये।

प्रश्न 7.
हम समानता को किस प्रकार बढ़ावा दे सकते हैं?
अथवा
हम समानता की ओर कैसे बढ़ सकते हैं और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में असमानता को न्यूनतम कैसे कर सकते हैं?
उत्तर:
हम समानता को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं?
वर्तमान में इस विचार पर निरन्तर बहस जारी है कि समानता की ओर बढ़ने के लिए कौन-से सिद्धान्त और नीतियाँ आवश्यक हैं? समानता की ओर बढ़ने के लिए प्रमुख कदमों की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई हैकीजिए।

1. औपचारिक समानता की स्थापना:
समानता लाने की दिशा में पहला कदम असमानता और विशेषाधिकार की औपचारिक व्यवस्था को समाप्त करना होगा। विश्व में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानताओं को कुछ रीति-रिवाजों और कानूनी व्यवस्थाओं से संरक्षित रखा गया है। इनके द्वारा समाज के कुछ हिस्सों को सभी प्रकार के अवसरों और लाभों का आनंद उठाने से रोका जाता था। यथा

  1. बहुत सारे देशों में गरीब लोगों को मताधिकार से वंचित रखा जाता था।
  2. महिलाओं को बहुत सारे व्यवसाय और गतिविधियों में भाग लेने की इजाजत नहीं थी।
  3. भारत में जाति-व्यवस्था निचली जातियों को शारीरिक श्रम के अलावा कुछ भी करने से रोकती थी।
  4. कुछ देशों में केवल कुछ खास परिवारों के लोग ही सर्वोच्च पदों तक पहुँच सकते हैं।

समानता की प्राप्ति के लिए ऐसे सभी निषेधों व विशेषाधिकारों का अन्त किया जाना आवश्यक है। चूँकि ऐसी बहुत सी व्यवस्थाओं को कानून का समर्थन भी प्राप्त है, इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार और कानून असमानतामूलक ऐसी व्यवस्थाओं को संरक्षण देना बंद करे। हमारे देश के संविधान में भी यही किया है। संविधान धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने का निषेध करता है तथा छुआछूत की प्रथा का भी उन्मूलन करता है। वर्तमान में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में संविधान तथा सरकारें औपचारिक (कानूनी ) रूप से समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर चुकी हैं और इस सिद्धान्त को जाति, नस्ल, धर्म या लिंग के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को कानून के एक समान बर्ताव के रूप में समाहित किया है।

2. विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक समानता अर्थात् कानून के समक्ष समानता का सिद्धान्त पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, इसके लिए उनसे अलग बरताव करना भी आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, विकलांगों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर विशेष ढलान वाले रास्तों का होना, या रात में कॉल सेंटर में काम करने वाली महिला को कॉल सेंटर आते-जाते समय विशेष सुरक्षा की व्यवस्था करना आदि। इससे उनके काम के समान अधिकार की रक्षा हो सकेगी। ऐसे विभेदक बरतावों को समानता की कटौती के रूप में नहीं बल्कि समानता को बढ़ावा देने वाले उपायों के रूप में देखा जाना चाहिए।

3. सकारात्मक कार्यवाही की नीतियाँ:
कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। इसी संदर्भ में हमारे देश में आरक्षण की नीति अपनाई गई है। सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। असमानताओं को मिटाने के लिए असमानता की गहरी खाइयों को भरने वाले अधिक सकारात्मक कदम उठाए जाएँ। इसीलिए सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं को संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं।

सकारात्मक कार्यवाही के अनेक रूप हो सकते हैं। इसमें वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करने से लेकर नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष व्यवस्था करने तक की नीतियाँ हो सकती हैं। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित समय अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि विशेष बरताव इन समुदायों को वर्तमान वंचनाओं से उबरने में सक्षम बनायेगा और फिर ये अन्य समुदायों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा कर सकेंगे। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समानता के विषय में सोचते हुए हमें प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल एक जैसा मानने और प्रत्येक व्यक्ति को मूलतः समान मानने में अन्तर करना चाहिए।

मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग बरताव की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना ही होना चाहिए। एक खास स्थिति में विशेष बरताव जरूरी है या नहीं, इसके लिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक समूह समान अधिकारों का उसी प्रकार आनंद उठा सके जैसा कि शेष समाज। यह विशेष बरताव वर्चस्व या शोषण की नई संरचनाओं को जन्म न दे अथवा यह समाज में विशेषाधिकार और शक्ति को फिर से स्थापित करने वाला एक प्रभावशाली उपकरण न बने। संक्षेप में, विशेष बरताव का उद्देश्य और औचित्य एक न्यायपरक और समतामूलक समाज को बढ़ावा देने के माध्यम के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में जो राष्ट्रवाद का अवगुण है, वह है।
(अ) देशभक्ति
(ब) लोगों को स्वतंत्रता की प्रेरणा देना
(स) उग्र-राष्ट्रवाद
(द) राष्ट्रीय एकता
उत्तर:
(स) उग्र-राष्ट्रवाद

2. निम्नलिखित में कौनसा राष्ट्रवाद का गुण
(अ) उग्र-राष्ट्रवादी भावना
(ब) साम्राज्यवाद की प्रेरणा देना
(स) राष्ट्रीय एकता की भावना
(द) पृथकतावादी आंदोलनों को प्रेरित करना
उत्तर:
(स) राष्ट्रीय एकता की भावना

3. निम्नलिखित में आत्म-निर्णय की अवधारणा का गुण है
(अ) लोगों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करना
(ब) सीमा विवादों का कारण होना
(स) पृथकतावादी आंदोलनों को प्रेरित करना
(द) शरणार्थी की समस्या का कारण
उत्तर:
(अ) लोगों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करना

4. क्यूबेकवासियों द्वारा किस राष्ट्र में पृथकवादी आंदोलन चलाया जा रहा है
(अ) उत्तरी स्पेन में
(ब) कनाडा में
(स) इराक में
(द) श्रीलंका में
उत्तर:
(ब) कनाडा में

5. श्रीलंका में निम्नलिखित में से किस समूह द्वारा पृथकतावादी आंदोलन चलाया जा रहा है-
(अ) कुर्दों द्वारा
(ब) बास्कवासियों द्वारा
(स) क्यूबेकवासियों द्वारा
(द) उक्त सभी
उत्तर:
(द) उक्त सभी

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

6. निम्नांकित में से राष्ट्रीयता का तत्त्व है
(अ) भौगोलिक एकता
(ब) भाषा, संस्कृति तथा परम्पराएँ
(स) नस्ल अथवा प्रजाति की एकता
(द) तमिलों द्वारा
उत्तर:
(द) तमिलों द्वारा

7. ” राष्ट्रवाद हमारी अंतिम आध्यात्मिक मंजिल नहीं हो सकती। मेरी शरण स्थली तो मानवता है। मैं हीरों की कीमत पर शीशा नहीं खरीदूँगा तथा जब तक मैं जीवित हूँ, देशभक्ति को मानवता पर कदापि विजयी नहीं होने
दूँगा ।” उक्त कथन है
(अ) रवीन्द्रनाथ का
(ब) पण्डित नेहरू का
(स) महात्मा गाँधी का
(द) जे. एस. मिल का
उत्तर:
(अ) रवीन्द्रनाथ का

8. निम्न में से भारत में राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाला प्रमुख कारक है-
(अ) विदेशी प्रभुत्व
(ब) पाश्चात्य विचार तथा शिक्षा
(स) सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन
(द) उक्त सभी
उत्तर:
(द) उक्त सभी

9. नेशनेलिटी शब्द किस लैटिन भाषी शब्द से उत्पन्न हुआ है?
(अ) नेट्स
(ब) नेलि
(स) नेसट्
(द) नेशन
उत्तर:
(अ) नेट्स

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10. राष्ट्र निर्माण के लिए साझे राजनैतिक आदर्श हैं।
(अ) लोकतंत्र
(ब) धर्मनिरपेक्षता
(स) उदारवाद
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. 20वीं सदी में नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो ……………………. की सदस्यता पर आधारित थी।
उत्तर:
राष्ट्र-राज्य

2. दुनिया में ……………… आज भी एक प्रभावी शक्ति है।
उत्तर:
राष्ट्रवाद

3. भविष्य के बारे में साझा नजरिया, अपना भू क्षेत्र और साझी ऐतिहासिक पहचान तथा स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाने की सामूहिक चाहत ………………. को बाकी समूहों से अलग करती है।
उत्तर:
राष्ट्र

4. बाकी सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र के लोग …………………….. का अधिकार मांगते हैं।
उत्तर:
आत्मनिर्णय

5. आज दुनिया की सारी राज्य सत्ताएँ इस …………………… में फँसी हैं कि आत्मनिर्णय के आंदोलनों से कैसे निपटा जाये।
उत्तर:
दुविधा।

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. भारतीय संविधान में धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की संरक्षा के लिए विस्तृत प्रावधान हैं।
उत्तर:
सत्य

2. राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया वर्तमान में खत्म हो गई है।
उत्तर:
असत्य

3. राष्ट्रवाद ने जहाँ एक ओर वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया, वहाँ यह बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी हिस्सेदार रहा है।
उत्तर:
सत्य

4. भारत का औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र होने का संघर्ष राष्ट्रवादी संघर्ष नहीं था।
उत्तर:
असत्य

5. बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. गणतंत्र दिवस की परेड (अ) राष्ट्र और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक काल्पनिक समुदाय
2. इराक में कुर्दों का आंदोलन, (ब) जवाहरलाल नेहरू
3. अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं (स) जवाहरलाल नेहरू यहूदियों का दावा काल्पनिक समुदाय और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक
4. ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक (द) भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक
5. उनका मूल गृह-स्थल फिलिस्तीन उनका स्वर्ग है (य) एक पृथकतावादी आंदोलन.

उत्तर:

1. गणतंत्र दिवस की परेड (द) भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक
2. इराक में कुर्दों का आंदोलन, (य) एक पृथकतावादी आंदोलन.
3. अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं (अ) राष्ट्र और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक काल्पनिक समुदाय
4. ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक (ब) जवाहरलाल नेहरू
5. उनका मूल गृह-स्थल फिलिस्तीन उनका स्वर्ग है (स) जवाहरलाल नेहरू यहूदियों का दावा काल्पनिक समुदाय और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक क्यों है?
उत्तर:
क्योंकि गणतंत्र दिवस की परेड सत्ता और शक्ति के साथ विविधता की भावना को भी प्रदर्शित करती है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रवाद के किन्हीं चार प्रतीकों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. राष्ट्रगान
  2. राष्ट्रीय ध्वज
  3. राष्ट्रीय नागरिकता
  4. स्वतन्त्रता दिवस।

प्रश्न 3.
19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद ने कौनसी प्रमुख भूमिका निभायी?
उत्तर:
19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद ने छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।

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प्रश्न 4.
20वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद की क्या भूमिका रही?
उत्तर:
यूरोप में 20वीं सदी में राष्ट्रवाद आस्ट्रियाई – हंगरियाई, ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के पतन का हिस्सेदार रहा।

प्रश्न 5.
20वीं सदी में भारत तथा अन्य पूर्व उपनिवेशों के औपनिवेशिक शासन से मुक्त होने के राष्ट्रवादी संघर्ष किस आकांक्षा से प्रेरित थे?
उत्तर:
ये संघर्ष विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य स्थापित करने की आकांक्षा से प्रेरित थे।

प्रश्न 6.
वर्तमान विश्व के किन्हीं दो पृथकतावादी आंदोलनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आज विश्व में

  1. इराक के कुर्दों तथा
  2. श्रीलंका के तमिलों द्वारा पृथकतावादी आंदोलन चलाए जा रहे हैं।

प्रश्न 7.
राष्ट्र निर्माण के किन्हीं दो तत्त्वों के नाम लिखिये।
उत्तर:

  1. साझे विश्वास तथा
  2. साझा इतिहास

प्रश्न 8.
बास्क राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता क्या चाहते हैं?
उत्तर:
बास्क राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता यह चाहते हैं कि बास्क स्पेन से अलग होकर एक स्वतंत्र देश बन जाये।

प्रश्न 9.
आत्मनिर्णय के अपने दावे में कोई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से क्या मांग करता है?
उत्तर:
आत्मनिर्णय के अपने दावे में कोई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करता है कि उसके पृथक् राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये।

प्रश्न 10.
‘एक संस्कृति और एक राज्य’ की अवधारणा से क्या आशय है?
उत्तर:
एक संस्कृति – एक राज्य’ की अवधारणा से यह आशय है कि अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राज्य मिले।

प्रश्न 11.
‘एक संस्कृति एक राज्य’ की अवधारणा को 19वीं सदी में मान्यता देने के कोई दो परिणाम लिखिये।
उत्तर:

  1. इससे राज्यों की सीमाओं में बदलाव किये गये।
  2. इससे सीमाओं के एक ओर से दूसरी ओर बहुत बड़ी जनसंख्या का विस्थापन हुआ।

प्रश्न 12.
राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्वों में से किन्हीं दो का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
अशिक्षा, साम्प्रदायिकता की भावना।

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प्रश्न 13.
ऐसे दो राष्ट्रों के उदाहरण दीजिए जिनमें अपनी कोई सामान्य भाषा नहीं है।
उत्तर:
कनाडा, भारत।

प्रश्न 14.
कनाडा में मुख्यतः कौनसी भाषाएँ बोली जाती हैं?
उत्तर:
अंग्रेजी, फ्रांसीसी।

प्रश्न 15.
विभिन्न राष्ट्र अपनी गृहभूमि को क्या नाम देते हैं?
उत्तर:
मातृभूमि या पितृभूमि या पवित्र भूमि।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले दो कारकों का उल्लेख कीजिये । उत्तर-राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले दो कारक ये हैंरहे हैं।
1. संयुक्त विश्वास: संयुक्त या साझे विश्वास से ही राष्ट्र का निर्माण होता है तथा इसी के चलते उसका अस्तित्व बना रहता है।

2. इतिहास; राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला दूसरा कारक इतिहास है। एक राष्ट्र की स्थायी पहचान का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के लिए ही संयुक्त स्मृतियों, ऐतिहासिक अभिलेखों की रचना द्वारा इतिहास बोध निर्मित किया जाता है।

प्रश्न 2.
वर्तमान विश्व के किन्हीं चार पृथकतावादी आन्दोलनों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
आज विश्व में

  1. कनाडा के क्यूबेकवासियों
  2. उत्तरी स्पेन के बास्कवासियों
  3. इराक के कुर्दों तथा
  4. श्रीलंका के तमिलों द्वारा पृथकतावादी आन्दोलन चलाये जा रहे हैं।

प्रश्न 3.
राष्ट्र परिवार से किस रूप में भिन्न है?
उत्तर:
परिवार प्रत्यक्ष सम्बन्धों पर आधारित होता है जिसका प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी रखता है, जबकि राष्ट्र प्रत्यक्ष सम्बन्धों पर आधारित नहीं होता है।

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प्रश्न 4.
बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेता अपने स्वतंत्र देश की मांग के समर्थन में क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेता अपने लिए स्वतंत्र देश की माँग के समर्थन में यह तर्क देते हैं कि

  1. उनकी संस्कृति तथा भाषा स्पेनी संस्कृति और भाषा से भिन्न है।
  2. बास्क क्षेत्र की पहाड़ी भू-संरचना उसे शेष स्पेन से भौगोलिक तौर पर अलग करती है।
  3. उनकी विशिष्ट न्यायिक, प्रशासनिक और वित्तीय प्रणालियाँ हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत कोई समूह क्या अधिकार चाहता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत कोई समूह शेष सामाजिक समूहों से अलग अपना राष्ट्र तथा अपना शासन अपने आप करने और भविष्य को तय करने का अधिकार चाहता है।

प्रश्न 6.
राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या का समाधान क्या है?
उत्तर:
राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या का समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं है, वर्तमान राज्यों को अधिक से अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है।

प्रश्न 7.
राष्ट्र और राष्ट्रीयता के बीच क्या अन्तर है?
उत्तर:
राष्ट्र और राष्ट्रीयता के बीच अन्तर केवल राजनीतिक संगठन और स्वतंत्र राज्य सम्बन्धी है। राष्ट्रीयता में सांस्कृतिक एकता तो होती है लेकिन संगठन तथा स्वतंत्र राज्य नहीं होता है। जब राष्ट्रीयता अपने आपको स्वतंत्र होने की इच्छा रखने वाली राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित कर लेती है तो वह राष्ट्र बन जाती है।

प्रश्न 8.
पिछली दो शताब्दियों में राष्ट्रवाद ने इतिहास रचने में क्या योगदान दिया है?
उत्तर:
पिछली दो शताब्दियों में राष्ट्रवाद ने इतिहास रचने में निम्न योगदान दिया है।

  1. इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है।
  2. इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  3. राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण – पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। आज दुनिया का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में बंटा हुआ है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रवाद के दो प्रमुख चरणों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के दो प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं।

  1. 19वीं सदी यूरोप में राष्ट्रवाद ने छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन इसी का परिणाम है।
  2. 20वीं सदी में राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी हिस्सेदार रहा है। यूरोप में 20वीं सदी के आरम्भ में आस्ट्रियाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी और डच साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था।

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प्रश्न 10.
अगर हम धर्म के आधार पर अपनी राष्ट्रवादी पहचान स्थापित कर दें तो इसका क्या दुष्परिणाम हो सकता है?
उत्तर:
अगर हम धार्मिक विभिन्नताओं की अवहेलना कर एक समान धर्म के आधार पर अपनी पहचान स्थापित कर दें तो हम बहुत ही वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण कर सकते हैं।

प्रश्न 11.
‘एक संस्कृति और एक राज्य की धारणा के विकास का सकारात्मक पहलू क्या था ?
उत्तर:
‘एक संस्कृति और एक राज्य’ की धारणा के विकास का सकारात्मक पहलू यह था कि उन बहुत सारे राष्ट्रवादी समूहों को राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे।

प्रश्न 12.
19वीं सदी में राष्ट्र निर्माण हेतु ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मान्यता के क्या दुष्परिणाम हुए?
उत्तर:
19वीं सदी में राष्ट्र निर्माण हेतु ‘एक संस्कृति: एक राज्य’ की मान्यता के परिणामस्वरूप बहुत से छोटे एवं नव स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। इसके कारण राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए तथा एक ओर से दूसरी ओर बहुत बड़ी जनसंख्या का विस्थापन हुआ। परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने घरों से उजड़ गये। बहुत सारे लोग साम्प्रदायिक हिंसा के भी शिकार हुए।

प्रश्न 13.
आज दुनिया की सारी राज्य सत्ताएँ किस दुविधा में फँसी हैं?
उत्तर:
आज दुनिया की सारी राज्य सत्ताएँ अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों के आन्दोलनों से निपटने की इस दुविधा में फँसी हैं कि इन आन्दोलनों से कैसे निपटा जाये?

प्रश्न 14.
एक राष्ट्र के भू-क्षेत्र में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों की समस्या का समाधान क्या है?
उत्तर:
एक राष्ट्र के भू-क्षेत्र में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों की समस्या का समाधान नये राज्यों के गठन में नहीं है बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है तथा यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग संस्कृतियों और नस्लीय पहचानों के लोग देश में अन्य नागरिकों के साथ सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें।

प्रश्न 15.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की अब क्या पुनर्व्याख्या की जाती है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की अब यह पुनर्व्याख्या की जाती है कि राज्य के भीतर किसी राष्ट्रीयता के लिए कुछ लोकतांत्रिक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान की जाये। प्रत्येक देश अल्पसंख्यकों की माँगों के सम्बन्ध में अत्यन्त उदारता एवं दक्षता का परिचय दे।

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प्रश्न 16.
” पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान दिया है।” इस कथन पर एक टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद ने निम्न रूपों में इतिहास रचने में योगदान दिया है

  1. इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है।
  2. इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है।
  3. इंसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  4. साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का भी यह कारण रहा है।
  5. आज विश्व का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र – राज्यों में विभाजित है और मौजूदा राष्ट्रों के अन्तर्गत अभी भी अलगाववादी राष्ट्रवादी संघर्ष जारी हैं।

प्रश्न 17.
राज्य व राष्ट्र में तीन अन्तर लिखिये।
उत्तर:
राज्य व राष्ट्र में तीन प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

  1. आवश्यक तत्व सम्बन्धी अन्तर: एक राज्य में आवश्यक रूप से चार तत्वों – जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार और संप्रभुता का होना आवश्यक है, लेकिन एक राष्ट्र में राज्य के ये आवश्यक तत्व लागू नहीं होते हैं। उसमें चार से कम तत्व हो सकते हैं और अधिक तत्व भी हो सकते हैं।
  2. निश्चित भू-भाग सम्बन्धी अन्तर- प्रत्येक राज्य का एक निश्चित भू-भाग होता है, लेकिन एक राष्ट्र के लिए निश्चित भू-भाग होना आवश्यक नहीं है।
  3. संप्रभुता सम्बन्धी अन्तर- राज्य के लिए संप्रभुता का होना आवश्यक है, लेकिन राष्ट्र के लिए संप्रभुता की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 18.
राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के प्रमुख चरणों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के प्रमुख चरण-राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं।

  1. छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण और सुदृढ़ीकरण से वृहत्तर राज्यों की स्थापना का चरण: 19वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के तहत हुआ था।
  2. स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियों का राष्ट्रीय निष्ठाओं के रूप में विकास; राज्य की सीमाओं के सृदृढ़ीकरण के साथ-साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं।
  3. नई राजनीतिक पहचान: नए राष्ट्र के लोगों ने नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी। पिछली शताब्दी में हमने अपने देश को सुदृढ़ीकरण की ऐसी ही प्रक्रिया से गुजरते देखा है।
  4. बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में हिस्सेदार; यूरोप में 20वीं सदी में आस्ट्रियाई – हंगेरियाई, रूसी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था।
  5. सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया: राष्ट्रों की सीमाओं की पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया अभी जारी है। 1960 से ही राष्ट्र-राज्य कुछ समूहों या अंचलों द्वारा उठाई गई राष्ट्रवादी मांगों का सामना करते आ रहे हैं। इन मांगों में पृथक् राज्य की मांग भी शामिल है। आज दुनिया के अनेक भागों में ऐसे राष्ट्रवादी संघर्ष जारी हैं।

प्रश्न 19.
राष्ट्र से क्या आशय है?
उत्तर:
राष्ट्र से अभिप्राय-राष्ट्र बहुत हद तक एक काल्पनिक समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं, जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं।

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प्रश्न 20.
राष्ट्रवाद के लिए एक समान भाषा या जातीय परम्परा जैसी सांस्कृतिक पहिचान का आधार लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा क्यों हो सकता है?
उत्तर:
यद्यपि एक ही भाषा बोलना आपसी संवाद को काफी आसान बना देता है। इसी प्रकार समान धर्म होने पर बहुत सारे विश्वास और सामाजिक रीतिरिवाज साझे हो जाते हैं। लेकिन यह उन मूल्यों के लिए खतरा भी उत्पन्न कर सकता है जिन्हें हम लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसके निम्नलिखित दो कारण हैं

1. विश्व के सभी बड़े धर्म अंदरूनी तौर से विविधता से भरे हुए हैं। एक ही धर्म के अन्दर बने विभिन्न पंथ हैं और धार्मिक ग्रंथों तथा नियमों की उनकी व्याख्याएँ भी काफी अलग-अलग हैं। अगर हम उन पंथिक विभिन्नताओं की अवहेलना कर एक समान धर्म के आधार पर एक पहचान स्थापित कर देंगे तो इससे एक वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण होगा जो लोकतंत्र के मूल आदर्शों के विपरीत होगा।

2. विश्व के अधिकतर समाज सांस्कृतिक रूप से विविधता से भरे हैं। एक ही भू-क्षेत्र में विभिन्न धर्म और भाषाओं के लोग साथ-साथ रहते हैं। किसी राज्य की सदस्यता की शर्त के रूप में किसी खास धार्मिक या भाषायी पहचान को आरोपित कर देने से कुछ समूह निश्चित रूप से शामिल होने से रह जायेंगे। इससे इन समूहों की या तो धार्मिक स्वतंत्रता बाधित होगी या राष्ट्रीय भाषा न बोलने वाले समूहों की हानि होगी। दोनों ही स्थितियों में ‘समान बर्ताव और सबके लिए स्वतंत्रता’ के आदर्श में भारी कटौती होगी, जिसे हम लोकतंत्र के लिए अमूल्य मानते हैं।

प्रश्न 21.
राष्ट्रीय आत्म निर्णय के अधिकार से क्या आशय है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्मनिर्णय: जब कोई सामाजिक समूह शेष सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र चाहता है । वह अपना शासन अपने आप करने और अपने भविष्य को तय करने का अधिकार चाहता है तो उसके इस अधिकार को ही आत्म-निर्णय का अधिकार कहते हैं। इसके दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये। प्राय: राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग उन लोगों की ओर से की जाती है जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो। कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा से जुड़े होते हैं। कुछ दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा से होता है।

प्रश्न 22.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारकों को संक्षेप में स्पष्ट कीजिये।
अथवा
राष्ट्रवाद के प्रमुख तत्वों को स्पष्ट करो।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के प्रमुख तत्व या उसे प्रेरित करने वाले कारक: राष्ट्रवाद के प्रमुख तत्व तथा राष्ट्रवाद को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं।

  1. साझे विश्वास: राष्ट्र विश्वास के जरिये बनता है। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी कायम रह सकता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं।
  2. इतिहास: जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं, उनके भीतर अपने बारे में स्थायी पहचान की भावना होती है। वे देश की स्थायी पहचान का खाका प्रस्तुत करने के लिए साझा स्मृतियों, किंवदन्तियों और ऐतिहासिक अभिलेखों के जरिए इतिहास बोध निर्मित करते हैं।
  3. भू-क्षेत्र: किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी साझी अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। इसलिए जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, वे एक गृहभूमि की बात करते हैं। जिसे वे मातृभूमि, पितृभूमि या पवित्र भूमि कहते हैं।
  4. साझे राजनीतिक आदर्श-राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। साझे राजनीतिक आदर्श, जैसे लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद आदि राष्ट्र के रूप में उनकी राजनीतिक पहचान को बताते हैं।
  5. साझी राजनीतिक पहचान: राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारण ‘साझी राजनीतिक पहचान’ अर्थात् ‘एक मूल्य- समूह के प्रति निष्ठा’ का होना आवश्यक है। इस मूल्य समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जाता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
बास्क में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की मांग को स्पष्ट कीजिये। क्या बास्क राष्ट्रवादियों की अलग राष्ट्र की मांग जायज है? आपकी दृष्टि में इसका क्या समाधान हो सकता है?
उत्तर:
बास्क में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की मांग: बास्क स्पेन का एक पहाड़ी और समृद्ध क्षेत्र है। इस क्षेत्र को स्पेनी सरकार ने स्पेन राज्य संघ के अन्तर्गत ‘स्वायत्त’ क्षेत्र का दर्जा दे रखा है, लेकिन बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेतागण इस स्वायत्तता से संतुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि बास्क स्पेन से अलग होकर एक स्वतंत्र देश बन जाए। बास्क राष्ट्रवादियों के तर्क। बास्क राष्ट्रवादी अपनी मांग के समर्थन में निम्न तर्क देते हैं।

  1. उनकी संस्कृति स्पेनी संस्कृति से बहुत भिन्न है।
  2. उनकी अपनी भाषा है, जो स्पेनी भाषा से बिल्कुल नहीं मिलती है।
  3. बास्क क्षेत्र की पहाड़ी भू-संरचना उसे शेष स्पेन से भौगोलिक तौर पर अलग करती है।
  4. रोमन काल से अब तक बास्क क्षेत्र ने स्पेनी शासकों के समक्ष अपनी स्वायत्तता का कभी समर्पण नहीं किया। उसकी न्यायिक, प्रशासनिक एवं वित्तीय प्रणालियाँ उसकी अपनी विशिष्ट व्यवस्था के जरिए संचालित होती थीं।

आधुनिक बास्क आंदोलन के कारण

  1. 19वीं सदी के अंत में स्पेनी शासकों ने बास्क क्षेत्र की विशिष्ट राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था को समाप्त करने की कोशिश की।
  2. 20वीं सदी में तानाशाह फ्रैंको ने इस स्वायत्तता में और कटौती कर दी। उसके बास्क भाषा को सार्वजनिक स्थानों, यहाँ तक कि घर में भी बोलने पर पाबंदी लगा दी।
  3. यद्यपि वर्तमान स्पेनी शासन ने इन दमनकारी कदमों को वापस ले लिया है, तथापि बास्क आंदोलनकारियों का स्पेनी शासन के प्रति संदेह और क्षेत्र में बाहरी लोगों के प्रवेश का भय बरकरार है।

समस्या का संभव समाधान: दमन किये जाने या दमन किये जाने के भय के बने रहने के कारण पैदा हुई बास्क राष्ट्रवादियों की अलग राष्ट्र की मांग जायज है। लेकिन यदि स्पेन का शासन बास्क लोगों के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की कद्र करते हुए उनमें भरोसा पैदा करने में समर्थ हो जाते हैं तो वे बास्क के लोगों की स्पेन के प्रति निष्ठा स्वतः ही प्राप्त कर लेंगे। अंतः निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि बास्क के लोगों की समस्या का समाधान नए राज्य के गठन में नहीं है बल्कि वर्तमान स्पेन राज्य को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है तथा यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक और साथियों की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें।

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प्रश्न 2.
राज्य और राष्ट्र में क्या अन्तर है?
उत्तर:
राज्य और राष्ट्र में अन्तर यद्यपि सामान्य बोलचाल में राज्य और राष्ट्र शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त किया जाता है तथा दोनों को समानार्थी समझा जाता है। लेकिन दोनों शब्द समानार्थी नहीं हैं, दोनों में स्पष्ट अन्तर है। दोनों के अन्तर को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. राज्य के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक है:
प्रत्येक राज्य के चार आवश्यक तत्त्व होते हैं। ये हैं- जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार और संप्रभुता। लेकिन राष्ट्र के लिए इन चारों तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है। एक राष्ट्र के 10 तत्त्व हो सकते हैं; दूसरे के केवल चार हो सकते हैं और किसी अन्य के केवल तीन भी हो सकते हैं। राष्ट्र के तत्त्व बदल भी सकते हैं। इस प्रकार राज्य के आवश्यक तत्त्व राष्ट्र के लिये लागू नहीं होते।

2. राज्य के लिए एकता की भावना अनिवार्य नहीं हैं:
एक राज्य के लोग एक निश्चित भू-भाग में निवास करते हैं, उनमें एकता और एकत्व ( oneness) की भावना का होना आवश्यक नहीं है। लेकिन एक राष्ट्र के सदस्यों में एकता की भावना का होना आवश्यक है। यदि किसी समूह के लोग साथ-साथ रहते हैं लेकिन उनमें एकत्व की कोई भावना नहीं है जो अन्य लोगों से उसे अलग करती हो, तो वह समूह राष्ट्र नहीं कहला सकता।

3. राज्य का भू-भाग निश्चित होता है:
प्रत्येक राज्य का एक निश्चित भू-भाग होता है, लेकिन राष्ट्र का निश्चित भू-भाग नहीं होता। एक राष्ट्र में एक या एक से अधिक राज्य हो सकते हैं और एक राज्य में दो या अधिक राष्ट्र हो सकते हैं। यद्यपि वर्तमान में एक राष्ट्र एक राज्य का विचार प्रचलित है और एक राष्ट्र अपने प्रयासों से देर-सवेर स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता है।

4. राज्य के पास संप्रभुता होती है: राज्य के लिए संप्रभुता का होना आवश्यक है, लेकिन राष्ट्र के लिए संप्रभुता की आवश्यकता नहीं होती। जब कोई समूह राजनैतिक चेतना प्राप्त कर लेता है और अपनी स्वतंत्रता के लिये प्रयत्न करना प्रारंभ कर देता है, वह समूह स्वयं में एक राष्ट्र की रचना करता है; लेकिन जब तक लोगों को संप्रभुता प्राप्त नहीं होगी, वे राज्य का निर्माण नहीं कर सकते हैं।

5. राष्ट्र अधिक स्थायी है- राष्ट्र राज्य की तुलना में अधिक स्थायी है। जब एक समाज अपनी संप्रभुता को खो देता है, तब राज्य समाप्त हो जाता है, लेकिन उसके सदस्यों की एकता की भावना उसकी राष्ट्र के रूप में पहचान बनाए रखती है। शक्ति के द्वारा पारम्परिक एकता की भावना को समाप्त नहीं किया जा सकता।

6. राष्ट्र की अपेक्षा राज्य भौतिक है- राष्ट्र एक एकता की भावना है लेकिन राज्य वह है जब उसके चारों तत्व एक साथ हों। इनमें भूमि, जनसंख्या और सरकार तीनों तत्व भौतिक हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद को परिभाषित कीजिये। इसके गुण तथा दोषों की व्याख्या कीजिये।
अथवा
राष्ट्रवाद के पक्ष व विपक्ष में तर्क दीजिये।
उत्तर:
राष्ट्र से आशय: राष्ट्र बहुत हद तक एक ‘काल्पनिक समुदाय’ होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं जिससे वे अपनी पहचान कायम रखते हैं।

राष्ट्रवाद का अर्थ: इस प्रकार सामान्य बोलचाल में राष्ट्रवाद का अर्थ है। राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र के लिए बलिदान की भावना, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान की भावना तथा राष्ट्रीय झंडे, राष्ट्रीय प्रतीकों तथा राष्ट्रीय पर्वों, जैसे- स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि के प्रति आदर प्रदर्शित करना है।

राष्ट्रवाद को दो प्रमुख प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. सकारात्मक राष्ट्रवाद: जब लोग अपने राष्ट्र से प्रेम करते हैं तथा इसके विकास तथा बेहतरी के लिए प्रयास करते हैं तो इसे सकारात्मक राष्ट्रवाद कहा जाता है।
  2. नकारात्मक राष्ट्रवाद: जब हम केवल अपने राष्ट्र से ही प्रेम करते हैं और दूसरे राष्ट्रों से घृणा करते हैं, उनका शोषण करते हुए अपने राष्ट्र का विकास करना चाहते हैं तो उसे नकारात्मक या उग्र राष्ट्रवाद कहते हैं। नकारात्मक राष्ट्रवाद के संघर्ष, युद्ध, लोगों की स्वतंत्रताओं में कटौती आदि बुरे परिणाम होते हैं।

राष्ट्रवाद के गुण
अथवा
राष्ट्रवाद के पक्ष में तर्क

राष्ट्रवाद के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं।
1. राष्ट्रवाद लोगों में विश्वास तथा नया जोश जगाता है: राष्ट्रवाद लोगों में परस्पर विश्वास पैदा करता है। यह राष्ट्र-राज्य की बेहतरी के लिए खड़ा होता है और नागरिकों को अपने राष्ट्र को शक्तिशाली और महान बनाने के लिए उसके प्रति भक्ति रखने तथा सभी प्रकार के त्याग करने की प्रेरणा देता है । वे देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता तथा अनुशासन की नवीन भावना में अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं को भी भूल जाते हैं। इटली और जर्मनी के एकीकरण में यही घटित हुआ है।

2. देशभक्ति:
राष्ट्रवाद देश भक्ति के लिए लोगों को प्रेरित करता है और उन्हें अपने समाज, देश तथा राष्ट्र के लिए सभी प्रकार के त्याग करने के लिए तैयार करता है। यह राष्ट्रवाद ही है, जब एक राष्ट्र की टीम दूसरे राष्ट्र से मैच जीतती है तो उससे उन्हें गर्व होता है।

3. यह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लोगों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद विदेशी प्रभुत्व से लोगों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने को प्रेरित करता है। 18वीं सदी में भारत में राष्ट्रीयता की चेतना न होने से वह ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन हो गया। लेकिन भारतीयों में जब राष्ट्रवाद की चेतना का उदय हुआ तथा उसका विस्तार हुआ तो उन्होंने स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन प्रारंभ कर दिया और भारत की स्वतंत्रता तक वह चलता रहा। इसी प्रकार एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के अन्य देशों में भी राष्ट्रवाद ने विदेशी शासन से स्वतंत्रता प्रदान करने में केन्द्रीय भूमिका निबाही

4. यह राष्ट्र के चहुंमुखी विकास हेतु लोगों को कठिन परिश्रम के लिए प्रेरित करता है:
एक समाज जो राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित है लम्बे समय तक अविकसित तथा पिछड़ा हुआ नहीं रह सकता। लोग अपने राष्ट्र के चहुंमुखी विकास पर गौरवान्वित होते हैं और जब वे यह देखते हैं कि उनका राष्ट्र शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आर्थिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है, तो उन्हें ग्लानि होती है। वे विश्व में अपने राष्ट्र को उन्नति के उच्च शिखर पर लाने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं।

5. नए राज्यों का उदय:
बड़े राज्यों को दो या अधिक नये राष्ट्रों में विभाजित कर नये राष्ट्र-राज्यों के निर्माण के लिए राष्ट्रवाद उत्तरदायी रहा है। राष्ट्रवाद के कारण नये राज्यों के लोग अपनी नई राजनीतिक पहचान प्राप्त करते हैं। उदाहरण के लिए आस्ट्रियाई हंगेरियाई साम्राज्य को विभाजित कर दो नए राष्ट्र-राज्य आस्ट्रिया और हंगरी का निर्माण राष्ट्रवाद की भावना के तहत ही हुआ।

6. राष्ट्रीय एकता, शक्ति और सुदृढ़ीकरण: राष्ट्रवाद लोगों को अपने छोटे-छोटे मतभेदों तथा विवादों को भूलकर राष्ट्र की एकता के लिए एक हो जाने के लिए प्रेरित करता है। राष्ट्रीय एकता राष्ट्र को शक्तिशाली बनाती है और राष्ट्र सुदृढ़ तथा ताकतवर बनता है। इस प्रकार राष्ट्रवाद लोगों को एकता में बांध देता है और विशेष रूप से संकटकाल में तथा विदेशी आक्रमण के विरुद्ध लोगों को एक चट्टान की तरह एकजुट होकर प्रतिरोध करने को प्रेरित करता है।

7. राजनीतिक स्थायित्व: राष्ट्रवाद राजनैतिक स्थायित्व भी लाता है। राष्ट्रवाद के प्रभाव के अन्तर्गत शक्तिशाली राष्ट्रीय एकता बनी रहती है जो कि सरकार को शक्तिशाली बनाती है। लोग राजनीतिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि सरकारों को बार-बार अपदस्थ करना तथा शासन व्यवस्था का निरन्तर बदलाव राष्ट्र को बदनाम करेगा।

राष्ट्रवाद के अवगुण
अथवा
राष्ट्रवाद के विपक्ष में तर्क

राष्ट्रवाद के प्रमुख अवगुण निम्नलिखित हैं:
1. राष्ट्रवाद जल्दी ही उग्र राष्ट्रवाद में बदल जाता है:
राष्ट्रवाद दूसरे राष्ट्रों के प्रति गहरे घृणा के भाव को प्रेरित करता है और इस कारण यह जल्दी ही उग्र राष्ट्रवाद में बदल जाता है और लोग अन्य राष्ट्रों व वहाँ के लोगों को अपना दुश्मन मानना शुरू कर देते हैं। वे अपने राष्ट्र को विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली तथा विकसित राष्ट्र बनाने के लिए प्रयास प्रारंभ कर देते हैं। इस प्रकार राष्ट्रों के बीच जल्दी ही एक प्रजाति का भाव उदित हो जाता है जो कि बहुत हानिकारक है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र इसे प्राप्त करने के लिए उचित और अनुचित सभी उपलब्ध साधनों को अपनाने लग जाता है। प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को निरुत्साहित करता है तथा उसे निम्नस्तरीय बताने का प्रयास करता है।

2. राष्ट्रवाद बड़े राष्ट्रों को छोटे राष्ट्रों में तोड़ने के लिए प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के विचार के आधार पर कुछ बड़े राज्यों के लोगों को छोटे-छोटे राज्यों में परिवर्तित कराने की मांग उठाने की प्रेरणा देता है। -भाषा- भाषियों तथा भिन्न-भिन्न अधिकतर समाज सांस्कृतिक रूप से विविधता से भरे हैं। प्रत्येक समाज में विभिन्न धर्मों, क्षेत्रीय संस्कृतियों व उप-संस्कृतियों के लोग रहते हैं। वे क्षेत्र जो एक राष्ट्र के अन्तर्गत अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं, उनमें जल्दी ही एक पृथक् राष्ट्र के विकास के भाव विकसित हो जाते हैं और एक पृथक् स्वतंत्र राज्य की स्थापना हेतु आन्दोलन प्रारंभ कर देते हैं। आस्ट्रियाई – हंगेरियाई साम्राज्य इसी आधार पर दो राज्य – राष्ट्रों- आस्ट्रिया और हंगरी में विभाजित हो गया।

3. राष्ट्रीय एकता पर दुष्प्रभाव:
यदि किसी राज्य में जनसंख्या दो या अधिक राष्ट्रों की निवास करती है, उसमें राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना तथा सुदृढ़ बनाना बहुत कठिन होता है। लोगों के मध्य राष्ट्रवाद की चेतना उन्हें एक पृथक् राज्य के लिए विभाजित तथा संघर्षरत रखती है। कभी-कभी धर्म या भाषा के छोटे आधारों पर ही वे पृथक् राष्ट्र होने का दावा करते हैं और एक पृथक् राज्य की मांग करते हैं। एक राज्य में दो या अधिक राष्ट्रों के लोगों के बीच एकत्व की भावना नहीं पाई जाती।

4. व्यक्ति के अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध:
राष्ट्रवाद प्रायः लोगों की स्वतंत्रताओं और उनके अधिकारों को भी प्रतिबंधित कर देता है। प्रजातांत्रिक सरकारों में शासक दल और शासक राष्ट्रवाद की भावनाओं को उभारकर लोगों की स्वतंत्रताओं और अधिकारों में कटौती करने का प्रयास करता है। लोग राष्ट्र के आदर और उसकी महानता के लिए अपनी स्वतंत्रताओं और अधिकारों की परवाह नहीं करते हैं और तानाशाह या महत्त्वाकांक्षी शासक इन भावनाओं का दुरुपयोग करते हैं।

5. राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है: राष्ट्रवाद जल्दी ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित होकर साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है।

6. राष्ट्रवाद पृथकतावादी आंदोलनों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद भारत तथा विश्व के अन्य राष्ट्रों में पृथकतावादी आंदोलनों को भी प्रेरित करता है। आजकल विश्व में राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग के तहत कनाडा में क्यूबेकवासियों, स्पेन में बास्कवासियों, तुर्की और इराक में कुर्दों तथा श्रीलंका में तमिलों द्वारा पृथक् राष्ट्र हेतु पृथकतावादी आन्दोलन चला रखा है। वे मुख्य राष्ट्र से पृथक् होकर अपना एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। ऐसे पृथकतावादी आंदोलन राज्यों को छोटे-छोटे राज्यों में परिवर्तित कर देंगे।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 4.
बहुलवादी समाज़ में राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद की समस्याओं की विवेचना कीजिये तथा उनके समाधान के उपाय बताइये।
उत्तर:
बहुलवाद या बहुलवादी समाज; प्रायः सभी राज्य या समाज इन दिनों बहुलवादी समाज हैं। एक बहुलवादी समाज वह समाज है जिसमें विभिन्न धर्मों, पंथों, भाषा-भाषी, विभिन्न संस्कृतियों या उपसंस्कृतियों, विभिन्न वंशों व जातियों के लोग रहते हों तथा उनकी रीति-रिवाज और परम्पराएँ भी भिन्न-भिन्न हों। यदि किसी राज्य के लोगों की एक जाति है, वे एक ही धर्म का पालन करते हैं; एक भाषा बोलते हैं, उनकी एक ही सांस्कृतिक पहचान है तथा उनकी परम्पराएँ तथा रीतिरिवाज समान हैं, तो वह समाज या राज्य बहुलवादी नहीं है। इस प्रकार बहुलवादी समाज के आधारभूत तत्त्व हैं। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर लोगों में विविधता।

भारतीय समाज एक बहुलवादी समाज है। यहाँ लोग अनेक धर्मों, जैसे हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, जैन, बुद्ध आदि – में विश्वास करते हैं। लोग विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं। 21 भाषाएँ यहाँ संवैधानिक मान्यता प्राप्त हैं। यहाँ भिन्न-भिन्न परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज हैं तथा लोगों की भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियाँ भी हैं। इसी प्रकार स्विट्जरलैंड एक बहुलवादी समाज है। स्विट्जरलैंड में तीन भाषा-भाषी लोग फ्रेंच, जर्मन तथ इटालियन रहते हैं।

बहुलवादी समाज में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रवाद की भावना को बनाए रखने एवं विकसित करने में आने वाली समस्याएँ:
बहुलवादी समाज में राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद की भावना को बनाए रखना तथा उसको सुदृढ़ करते रहना आसान काम नहीं है। बहुलवादी समाज में लोग धर्म, भाषा या क्षेत्र के छोटे-छोटे मुद्दों या मामलों पर विभाजित रहते हैं।

उदाहरण के लिए भारत इसी समस्या के कारण स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी एक राष्ट्र-भाषा को नहीं अपना पाया है। अभी भी अंग्रेजी राष्ट्रीय भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है क्योंकि यहाँ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं। यद्यपि देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को संवैधानिक रूप से सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकार किया गया हैं, लेकिन अभी तक इसे कार्यालयी स्थान नहीं मिला है। यहाँ साम्प्रदायिक, जातिगत, क्षेत्रीय आदि विविधताओं के कारण इनके आधारों पर संघर्ष होते रहते हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता, सुदृढ़ता बाधित होती है और राष्ट्रवाद की भावना कमजोर होती है।

बहुलवादी समाज में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रवाद के सुदृढ़ीकरण के उपाय: एक बहुलवादी समाज में राष्ट्रवाद की भावना तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय करने आवश्यक हैं।

  1. बहुलवादी राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए अल्पसंख्यक समूहों और उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा के अधिकार प्रदान किये जाने चाहिए।
  2. इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया जाना चाहिए। इन अधिकारों को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार और सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भी सुरक्षा का प्रावधान करते हैं।
  3. इनं समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के रूप में भी मान्यता दी जानी चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि राष्ट्रीय पहचान को समावेशी रीति से परिभाषित करना होगा जो राष्ट्र-राज्य के सभी सदस्यों की महत्ता और अद्वितीय योगदान को मान्यता दे सके।
  4. यदि कुछ अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों, प्रतिनिधिपरक निकायों का शैक्षिक सुविधाओं में उचित भाग नहीं मिल पाता है तो उन्हें इन क्षेत्रों में उचित भाग दिलाने हेतु सरकार को कुछ विशिष्ट उपाय, जैसे  कुछ विशिष्ट सुविधाएँ प्रदान करना, आरक्षण की नीति लागू करना आदि किये जाने चाहिए। भारत में इसी दृष्टि से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा स्त्रियों के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गये हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 5.
राष्ट्रवाद पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की समालोचना को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राष्ट्रवाद पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की समालोचना: रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरोधी थे और भारत की स्वाधीनता के अधिकार का दावा करते थे। वे महसूस करते थे कि उपनिवेशों के ब्रितानी प्रशासन में ‘मानवीय संबंधों की गरिमा बरकरार रखने’ की गुंजाइश नहीं है। यद्यपि ब्रितानी सभ्यता में इस विचार को स्थान दिया गया है और औपनिवेशिक शासन इस विचार का पालन नहीं कर पा रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ब्रिटिश दासता से भारत की स्वतंत्रता के प्रमुख सेनानी थे; लेकिन वे संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोधी थे। संकीर्ण राष्ट्रवाद के स्थान पर वे ‘मानवता’ पर बल देते थे। अर्थात् वे मानवतावादी राष्ट्रवादी थे।

वे मानव-मानव में कोई भेद नहीं करते थे। इसलिए स्वतंत्र भारत में प्रत्येक मानव को समान महत्त्व मिलना चाहिए। वे राष्ट्रवाद की क्षेत्रीय संकीर्णता, भाषायी संकीर्णता, धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर ‘बहुलवादी समाज और मानवता’ को अपनाने पर बल देते थे। उनकी अंतिम आध्यात्मिक मंजिल राष्ट्रवाद न होकर मानवता थी। उनका कहना था कि ” जब तक मैं जीवित हूँ देशभक्ति को मानवता पर कदापि विजयी नहीं होने दूँगा।” इसका आशय यह है कि राष्ट्रवाद जब तक मानवता को साथ लेकर चलता है, तब तक ही उसका स्वागत करना चाहिए।

यदि राष्ट्रवाद की भावना के तहत मानवता का हनन होता है अर्थात् देशभक्ति की भावना के तहत व्यक्तियों का बलिदान देकर राष्ट्रवाद को बढ़ाया जाता है, तो यह राष्ट्रवाद मानवता विरोधी है। व्यक्ति के अधिकारों, स्वतंत्रताओं को राष्ट्रवाद के लिए बलिदान देने वाले राष्ट्रवाद के वे विरोधी थे। वे देश के स्वाधीनता आन्दोलन में मौजूद संकीर्ण राष्ट्रवाद के कटु आलोचक थे। उन्हें भय था कि तथाकथित भारतीय परम्परा के पक्ष में पश्चिमी सभ्यता को खारिज करने का विचार यहीं तक नहीं रुकेगा।

आगे चलकर यह अपने देश में मौजूद ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम समेत तमाम विदेशी प्रभावों के खिलाफ आसानी से आक्रामक भी हो सकता है। उनकी यह आशंका सत्य सिद्ध हुई और इसी के चलते भारत, भारत और पाकिस्तान दो भागों में विभाजित हो गया। अतः स्पष्ट है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर बहुलवादी राष्ट्रवाद, मानवता को साथ लेकर चलने वाले राष्ट्रवाद के समर्थक थे, न कि संकीर्ण राष्ट्रवाद के।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 विकास

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 विकास

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science विकास Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आप विकास से क्या समझते हैं? क्या विकास की प्रचलित परिभाषा से समाज के सभी वर्गों को लाभ होता है?
उत्तर:
विकास से आशय: ‘विकास’ शब्द अपने व्यापकतम अर्थ में उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन की अभिलाषा के विचारों का वाहक है। लेकिन ‘विकास’ शब्द का प्रयोग व्यवहार में व्यापक अर्थ में नहीं किया है, बल्कि इसका प्रयोग प्रायः ‘आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और समाज का आधुनिकीकरण’ जैसे संकीर्ण अर्थों में किया गया है। इसे प्राय: पहले से निर्धारित लक्ष्यों या बांध, उद्योग, अस्पताल जैसी परियोजनाओं को पूरा करने से जोड़कर देखा जाता है।

विकास का प्रभाव:
प्रचलित अर्थ में विकास का अर्थ आर्थिक विकास और आधुनिकीकरण से लिया गया है। विकास की इस प्रचलित परिभाषा में विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों तक नहीं पहुँचा। इस प्रक्रिया में समाज के कुछ हिस्से लाभान्वित हुए जबकि बाकी लोगों को अपने घर, जमीन, जीवन शैली को बिना किसी भरपाई के खोना पड़ा। उदाहरण के लिए बड़े बांधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों और खनन कार्यों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ।

विस्थापन का परिणाम आजीविका खोने और दरिद्रता में वृद्धि के रूप में सामने आया। अगर ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परम्परागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होते हैं, तो वे समाज के हाशिये पर चले जाते हैं। बाद में वे शहरी और ग्रामीण गरीबों की विशाल आबादी में शामिल हो जाते हैं। लम्बी अवधि में अर्जित परम्परागत कौशल नष्ट हो जाते हैं। संस्कृति का भी विनाश होता है, क्योंकि जब लोग नई जगह पर जाते हैं, तो वे अपनी पूरी सामुदायिक जीवन-पद्धति खो बैठते हैं। ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को जन्म दिया है।

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प्रश्न 2.
जिस तरह का विकास अधिकतर देशों में अपनाया जा रहा है उससे पड़ने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों की चर्चा कीजिये।
उत्तर:
अधिकतर देशों में आर्थिक उन्नति और समाज के आधुनिकीकरण के रूप में पश्चिमी देशों के स्तर पर पहुँचने का प्रयास विकास के अन्तर्गत किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में विकासशील देशों ने औद्योगीकरण, कृषि और शिक्षा के आधुनिकीकरण एवं विस्तार के जरिए तेज आर्थिक उन्नति का लक्ष्य निर्धारित किया। यह विश्वास किया गया कि विकास की यह प्रक्रिया समाज को अधिक आधुनिक और प्रगतिशील बनाएगी तथा उसे उन्नति के पथ पर ले जाएगी। विकास के प्रभाव विकास की इस प्रक्रिया से निम्नलिखित सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव पड़े।

(अ) सामाजिक प्रभाव: विकास के इस मॉडल को अपनाने के कारण बहुत बड़ी सामाजिक कीमत चुकानी पड़ी है। यथा

  1. विस्थापन, दरिद्वत्ता में वृद्धि और आजीविका का खोना-बांधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों और खनन कार्यों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ जिसका परिणाम आजीविका खोने और दरिद्रता में वृद्धि के रूप में सामने आया।
  2. परम्परागत कौशल और संस्कृति का नष्ट होना: ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परम्परागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होकर समाज के हाशिये पर चले जाते हैं तथा वे गरीबों की विशाल आबादी में शामिल हो जाते हैं । इससे उनके परम्परागत कौशल नष्ट हो जाते हैं और संस्कृति का भी विनाश होता है तथा वे नई जगह पर जाकर अपनी पूरी सामुदायिक जीवन पद्धति खो बैठते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विकास की इस प्रक्रिया से समाज के कुछ हिस्से ही लाभान्वित हुए हैं जबकि शेष लोगों को अपने घर, जमीन, जीवन-शैली को बिना किसी भरपाई के खोना पड़ा है। लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार हुए हैं। ग्रामीण लोग अपने पारम्परिक व्यवसाय को भूलते जा रहे हैं तथा विद्यमान संस्कृतियों का विनाश होता जा रहा है।
  3. संघर्षों का जन्म: ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को जन्म दिया है।
  4. विकास के लाभ और कीमत का असमान वितरण: विकास के अधिकांश फायदों को ताकतवर लोगों ने हथिया लिया और इसकी अधिकांश कीमत अति दरिद्रों तथा आबादी के असुरक्षित हिस्सों ने चुकाई। यथा

(ब) पर्यावरण पर प्रभाव: विकास की वजह से अनेक देशों में पर्यावरण को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचा है।

  1. विशाल जंगली भू-भाग विकास के कारण बांधों में डूब रहा है और इससे पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ रहा है।
  2. तटीय वनों के नष्ट होने और समुद्रतट के निकट वाणिज्यिक उद्यमों के स्थापित होने के कारण दक्षिणी और दक्षिणी पूर्वी – एशिया के तटों पर समुद्री तूफानों ने अत्यधिक नुकसान किया है।
  3. वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है। इससे तटीय इलाकों के समुद्र में डूब जाने का खतरा पैदा हो रहा है।
  4. विकास के प्रभावस्वरूप वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, जिसके कारण अनेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं।
  5. ऊर्जा के उत्तरोत्तर बढ़ते उपयोग से ऊर्जा के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं।

प्रश्न 3.
विकास की प्रक्रिया ने किन नए अधिकारों के दावों को जन्म दिया है?
उत्तर:
विकास के अधिकांश लाभों को ताकतवर लोगों ने हथिया लिया है और इसकी कीमत अति दरिद्रों और आबादी के असुरक्षित हिस्से को चुकानी पड़ी है। इसलिए विकास की प्रक्रिया ने अनेक नये अधिकारों के दावों को जन्म दिया है। यथा

  1. लोकतंत्र में लोगों को यह अधिकार मिलना चाहिए कि उनके जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में उनसे सलाह ली जाये।
  2. लोगों को आजीविका का अधिकार दिया जाना चाहिए ताकि वे लोग, जिनकी आजीविका के स्रोत को विकास के कारण खतरा पैदा होने पर, आजीविका के अधिकार का दावा सरकार से कर सकें।
  3. समुदाय को नैसर्गिक संसाधनों के उपयोग के परम्परागत अधिकार मिलने चाहिए। यह दावा विशेषकर आदिवासी और आदिम समूहों द्वारा किया जा रहा है, जिनका सामुदायिक जीवन और पर्यावरण के साथ सम्बन्ध विशेष प्रकार का होता है।
  4. पूरी मानवता के साझे नैसर्गिक संसाधनों की व्यवस्थाओं का काम जनसमूह के विभिन्न तबकों की प्रतिस्पर्द्धात्मक मांगों को पूरा करने के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य की दावेदारियों के बीच संतुलन भी कायम करना आवश्यक है।

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प्रश्न 4.
विकास के बारे में निर्णय सामान्य हित को बढ़ावा देने के लिए किए जाएँ, यह सुनिश्चित करने में अन्य प्रकार की सरकार की अपेक्षा लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्या लाभ हैं?
उत्तर:
विकास के बारे में निर्णय सामान्य हित को बढ़ावा देने के लिए करने के लिए अन्य प्रकार की सरकार की अपेक्षा लोकतांत्रिक सरकार के निम्नलिखित अधिक लाभ हैं।
1. लोकतंत्र में संसाधनों को लेकर विरोध या बेहतर जीवन के बारे में विभिन्न विचारों के द्वन्द्व का हल विचार- विमर्श और सभी के अधिकारों के प्रति सम्मान के जरिए होता है, जबकि अन्य प्रकार की सरकारों में ये विचार ऊपर से थोपे जाते हैं।

2. लोकतांत्रिक देशों में निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा लेने के अधिकार पर जोर दिया जाता है। अगर बेहतर जीवन हासिल करने में समाज का हर व्यक्ति साझीदार है, तो विकास की योजनाएँ बनाने और उसके क्रियान्वयन के तरीके ढूँढ़ने में भी हर व्यक्ति को शामिल करने की आवश्यकता है और लोकतंत्र में ही यह व्यवस्था संभव है।

3. लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय लोगों के शामिल रहने से समुदायों को नुकसान पहुँचा सकने वाली परियोजनाओं को रद्द करना संभव होता है। इसके साथ ही योजना बनाने और नीतियों के निर्धारण में स्थानीय लोगों की संलग्नता से लोगों के लिए अपनी जरूरतों के मुताबिक संसाधनों के उपयोग की भी गुंजाइश रहती है।

4. लोकतांत्रिक व्यवस्था में विकास की विकेन्द्रित पद्धति आसानी से क्रियान्वित की जा सकती है। इससे परम्परागत और आधुनिक स्रोतों से मिलने वाली तमाम तरह की तकनीकों के रचनात्मक तरीकों के इस्तेमताल को संभव बनाती है।

प्रश्न 5.
विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जवाबदेह बनाने में लोकप्रिय संघर्ष और आन्दोलन कितने सफल रहे हैं?
उत्तर:
विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को उत्तरदायी बनवाने में लोकप्रिय संघर्षों और आन्दोलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यथा-
1. पर्यावरण संरक्षण के प्रति सरकार को जिम्मेदार, जवाबदेह और जागरूक बनाना:
इस प्रकार के संघर्ष और आन्दोलन सरकार को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जिम्मेदार, जवाबदेह तथा जागरूक बनाते हैं। वे उन तथ्यों और आंकड़ों को लोगों के समक्ष लाते हैं, जिन्हें सरकार छुपाने का प्रयास करती है। उदाहरण के लिए नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने बांधों से लोगों की जमीन डूबने और उसके कारण उनकी आजीविका छिनने से लगभग दस लाख लोगों के विस्थापन की समस्या को सरकार के समक्ष उजागर किया तथा इस तथ्य को भी स्पष्ट किया कि विशाल जंगली भू-भाग भी इस बांध में डूब जायेगा, इससे पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ेगा। इस प्रकार ये आन्दोलन विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जागरूक करता है तथा उनके लिए सरकार को उत्तरदायी ठहराता है।

2. जन चेतना को जाग्रत करना: ऐसे संघर्ष व आन्दोलन जन चेतना को भी जागृत करते हैं और लोग संबंधित परियोजना के औचित्य पर सरकार से प्रश्न करते हैं। एक बहुत बड़े जनसमुदाय के आन्दोलन में शामिल होने के कारण सरकार प्रभावित लोगों की समस्याओं को सुनने व उनका समाधान करने को बाध्य होती है।

 विकास JAC Class 11 Political Science Notes

→ विकास पद का अर्थ
व्यापक अर्थ – विकास शब्द अपने व्यापकतम अर्थ में उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन की अभिलाषा के विचारों का वाहक है।

→ संकीर्ण अर्थ:
विकास शब्द का प्रयोग प्रायः आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और समाज का आधुनिकीकरण जैसे संकीर्ण अर्थों में भी होता है। साधारण बोलचाल में विकास को प्राय: पहले से निर्धारित लक्ष्यों या बांध, उद्योग, अस्पताल जैसी परियोजनाओं को पूरा करने से जोड़कर देखा जाता है । इस अर्थ में विकास की प्रक्रिया में समाज के कुछ हिस्से लाभान्वित होते हैं जबकि शेष लोगों को अपने घर, जमीन, जीवन शैली को बिना किसी भरपाई के खोना पड़ता है।

→ विकास की चुनौतियाँ:
विकास की अवधारण ने 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल की। उस समय एशिया और अफ्रीका के बहुत से देशों ने राजनीतिक आजादी हासिल की थी। इनके निवासियों का जीवन स्तर निम्न था। चिकित्सा, शिक्षा और अन्य सुविधाएँ कम थीं। इन्हें अक्सर ‘अविकसित’ या ‘विकासशील’ देश कहां जाता था। इन्हें अपने देश की गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, निरक्षरता और शिक्षा व चिकित्सा आदि बुनियादी सुविधाओं के अभाव की समस्याओं का समाधान करना था जिसे उनकी बहुसंख्यक आबादी भुगत रही थी। स्वतंत्रता के बाद इन देशों ने अपने संसाधनों का उपयोग अपने राष्ट्रीय हित में सर्वश्रेष्ठ तरीके से कर इन चुनौतियों से निपटने हेतु विकास परियोजनाएँ शुरू कीं।

आरंभिक वर्षों में अविकसित या विकासशील देशों द्वारा प्रयुक्त विकास की अवधारणा – आरंभिक वर्षों में विकास की अवधारणा में जोर आर्थिक उन्नति और समाज के आधुनिकीकरण के रूप में पश्चिमी देशों के स्तर तक पहुँचने पर था। विकासशील देशों ने औद्योगीकरण, कृषि और शिक्षा के आधुनिकीकरण एवं विस्तार के जरिए तेज आर्थिक उन्नति का लक्ष्य निर्धारित किया गया था । अनेक देशों ने विकास की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं का सूत्रपात किया। ऐसा प्राय: विकसित देशों की मदद और कर्ज के जरिए किया गया।

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→ भारत और अन्य देशों में अपनाया गया विकास का मॉडल:
स्वतंत्रता के बाद भारत में विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला बनी। इनमें भाखड़ा नागल बांध, देश के विभिन्न हिस्सों में इस्पात संयंत्रों की स्थापना, खनन, उर्वरक उत्पादन और कृषित तकनीकों में सुधार जैसी अनेक वृहद् परियोजनाएँ शामिल थीं। विकास का जो मॉडल भारत और अन्य देशों द्वारा अपनाया गया, उसकी विगत वर्षों में बहुत अधिक आलोचना हुई है।

→ भारत में अपनाए गए विकास के मॉडल के उद्देश्य – इसके प्रमुख उद्देश्य थे

  • देश की सम्पदा में वृद्धि करना
  • बढ़ती सम्पन्नता असमानता को कम करने में सहायक
  • समाज को अधिक आधुनिक और प्रगतिशील बनाना तथा
  • सम्पूर्ण समाज की उन्नति करना।

→ विकास के मॉडल की आलोचनाएँ- विकास का उक्त मॉडल अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं रहा। इसकी निम्न प्रमुख आलोचनाएँ हुईं:  आर्थिक हानि

  • मंहगा विकास अधिक वित्तीय लागत – दीर्घकालिक कर्ज में वृद्धि।
  • गरीबी और रोगों में कमी नहीं आई।

→ सामाजिक हानि:

  • बड़ी संख्या में विस्थापन आजीविका का छिनना, दरिद्रता में वृद्धि, परम्परागत कौशल का नष्ट होना तथा सांस्कृतिक विनाश।
  • ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को जन्म दिया।
  • विशाल बांधों में विशाल जंगली भू-भाग बांध में डूब जायेंगे जिससे पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ेगा। नर्मदा नदी पर बनी सरदार सरोवर योजना के तहत बनने वाले बाँधों के निर्माण के खिलाफ चलने वाला आंदोलन; इन्हीं तथ्यों को रेखांकित करता है।

→ पर्यावरण की हानि: विकास के कारण वनों का कटाव, वायु प्रदूषण का बढ़ना, वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन से ताप का बढ़ना तथा ध्रुवों की बर्फ अधिक पिघलने से तटीय इलाकों के डूबने का खतरा। इसका वंचितों पर तात्कालिक और तीखा प्रभाव पड़ेगा। ऊर्जा के स्रोतों की कमी आयेगी।

→ नकारात्मक मॉडल: विकास का यह मॉडल ऊर्जा के उत्तरोतर बढ़ते उपयोग पर निर्भर है और विश्व में प्रयुक्त ऊर्जा का अधिकांश भाग कोयला या पैट्रोलियम से आता है, जिनको पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है। इन संसाधनों की परिमित प्रकृति को देखते हुए यह मॉडल नकारात्मक है।

→ विकास का मूल्यांकन:

  • सकारात्मक प्रभाव: विकास के कारण कुछ देशों ने अपनी आर्थिक उन्नति की दर बढ़ाने, यहाँ तक कि गरीबी घटाने में भी कुछ सफलता हासिल की है।
  • नकारात्मक प्रभाव:
    • असमानताओं में विशेष कमी नहीं आयी है।
    • गरीबी लगातार एक समस्या बनी हुई है।
    • अमीर और गरीब के बीच की दूरी बढ़ती गयी है।
    • विकास का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिला है।

विकास की संकीर्ण अवधारणा के मॉडल की असफलता को देखते हुए विकास की व्यापक अवधारणा को अपनाने की आवश्यकता महसूस की गई। व्यापक अर्थ में अब विकास ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे। विकास को मापने के वैकल्पिक तरीके: मानव विकास प्रतिवेदन तथा मानव विकास सूचकांक – इस अवधारणा के अनुसार विकास को ऐसी प्रक्रिया होना चाहिए, जो अधिकाधिक लोगों को उनके जीवन में अर्थपूर्ण तरीके से विकल्पों को चुनने की अनुमति दे। इसकी पूर्व शर्त है। बुनियादी जरूरतों की पूर्ति। इनकी पूर्ति के बिना किसी व्यक्ति के लिए गरिमामय जीवन गुजारना और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना असंभव है।

→ विकास की वैकल्पिक अवधारणा: आवश्यकता क्यों?

  • परम्परागत विकास से मानव और पर्यावरण दोनों के लिहाज से भारी कीमत चुकानी पड़ी है।
  • विकास के फायदे का वितरण भी लोगों में असमान रूप से हुआ।
  • विकास की कीमत अतिदरिद्रों व आबादी के असुरक्षित हिस्सों को अधिक चुकानी पड़ी है।
  • अधिकतर देशों में विकास की ‘ऊपर से नीचे’ की रणनीतियाँ अपनायी गईं अर्थात् इससे सम्बन्धित नीतियों का निर्णय राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के उच्चतर स्तरों पर लिया गया तथा आम नागरिकों से सलाह नहीं ली गयी या विकास से प्रभावित होने वाले लोगों को इसमें शामिल नहीं किया गया। न तो सदियों से हासिल उनके अनुभवों और ज्ञान का उपयोग किया गया और न उनके हितों का ध्यान रखा गया। इस तरह परम्परागत विकास परियोजनाओं से लाभ उठाने वाले सत्ताधारी तबकों द्वारा तैयार व लागू किया गया। फलतः न्यायपूर्ण और टिकाऊ विकास हेतु विकास की वैकल्पिक अवधारणा की आवश्यकता महसूस की गयी।

→ विशेषताएँ: विकास की वैकल्पिक अवधारणा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं। अधिकारों के दावे – विकास की वैकल्पिक अवधारणा ने अनेक नए अधिकारों के दावों को जन्म दिया है। ये हैं।

  • लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में सरकार उनसे सलाह ले।
  • लोगों को जीविका का अधिकार है और विकास के द्वारा यदि सरकार उनकी आजीविका के स्रोत को खतरा पैदा करती है, तो वे लोग सरकार से आजीविका का दावा कर सकते हैं।
  • समुदाय को नैसर्गिक संसाधनों के उपयोग का परम्परागत अधिकार मिलना चाहिए। यह विशेष रूप से आदिवासी और आदिम समुदायों पर लागू होता है।
  • जनसमूह के विभिन्न तबकों की प्रतिस्पर्द्धात्मक माँगों को पूरा करने के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य की दावेदारियों के बीच भी संतुलन कायम करना आवश्यक है।

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→ लोकतांत्रिक सहभागिता:

  • अगर बेहतर जीवन हासिल करने में समाज का हर व्यक्ति साझीदार है तो विकास की योजनाएँ बनाने और उसके क्रियान्वयन तरीके ढूँढ़ने में भी हरेक व्यक्ति को शामिल करने की जरूरत है।
  • भागीदारी सुनिश्चित करने का एक प्रस्तावित रास्ता स्थानीय विकास योजनाओं के बारे में निर्णय स्थानीय निर्णयकारी संस्थाओं को लेने देना है।
  • विकास की विकेन्द्रीकृत पद्धति परम्परागत और आधुनिक स्रोतों से मिलने वाली समस्त तकनीकों के रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल को संभव बनाती है।

→ विकास और जीवन शैली- विकास का वैकल्पिक मॉडल विकास की मंहगी, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली और प्रौद्योगिकी से संचालित सोच से दूर होने की कोशिश करता है। विकास को लोगों के जीवन की उस गुणवत्ता से नापा जाना चाहिए, जो उनकी प्रसन्नता, सुख-शांति और बुनियादी जरूरतों के पूरा होने में झलकती है। इस हेतु निम्न प्रयास किये जाने चाहिए

  • प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने और ऊर्जा के फिर से प्राप्त हो सकने वाले स्रोतों का यथासंभव उपयोग करने के प्रयास किये जाने चाहिए। जैसे – वर्षा जल संचयन, सौर व जैव गैस संयंत्र, लघु पन बिजली परियोजना आदि।
  • इन गतिविधियों को स्थानीय स्तर पर लागू करना तथा लोगों की अधिक संलग्नता आवश्यकता होगी।
  • छोटे-छोटे बाँध बनाए जाएँ: इससे विस्थापन कम होगा तथा लागत कम आयेगी तथा स्थानीय आबादी के लिए हितकर होंगे।
  • स्वतंत्रता और सृजनशीलता भरा जीवन स्तर: लोग विकास लक्ष्यों को तय करने में सक्रिय भागीदार हों। इससे अधिकार, स्वतंत्रता तथा न्याय का भी विस्तार होगा।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 विकास 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 विकास Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. विकास का व्यापकतम अर्थ है।
(अ) समाज का आधुनिकीरण
(ब) समाज का पश्चिमीकरण
(स) आर्थिक विकास की दर में वृद्धि
(द) सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करना।
उत्तर:
(द) सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करना।

2. विकास की कीमत जो पर्यावरण को चुकानी पड़ी है।
(अ) वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन
(ब) बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों से विस्थापन
(स) संस्कृति का विनाश
(द) गरीबी में वृद्धि
उत्तर:
(अ) वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन

3. सरदार सरोवर परियोजना के तहत बनने वाले बांधों के निर्माण के खिलाफ आंदोलन चल रहा है।
(अ) चिपको आंदोलन
(ब) नर्मदा बचाओ आन्दोलन
(स) गंगा बचाओ आंदोलन
(द) यमुना बचाओ आंदोलन
उत्तर:
(ब) नर्मदा बचाओ आन्दोलन

4. किसी देश के अविकसित होने का सूचक नहीं है।
(अ) लोग भोजन के अभाव में भूख से मरते हैं।
(ब) लोग आश्रय के अभाव में ठंड से मरते हैं।
(स) अभाव और वंचनाओं की मुक्ति।
(द) बच्चे विद्यालय जाने के बजाय काम कर रहे हैं।
उत्तर:
(स) अभाव और वंचनाओं की मुक्ति।

5. विकास का मॉडल सर्वाधिक निर्भर है।
(अ) वायु पर
(ब) नदियों पर
(स) ऊर्जा पर
(द) वर्षा पर
उत्तर:
(स) ऊर्जा पर

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6. ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ सम्बन्धित है।
(अ) टिहरी बाँध परियोजना से
(ब) सरदार सरोवर से
(स) मनेरी झाली परियोजना से
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(ब) सरदार सरोवर से

7. निम्न में से विस्थापन का परिणाम नहीं होता है।
(अ) संस्कृति का विनाश
(ब) दरिद्रता में वृद्धि
(स) आजीविका का खोना
(द) जीवन – स्तर का उन्नत होना
उत्तर:
(द) जीवन – स्तर का उन्नत होना

8. औद्योगीकरण व्याख्या करता है।
(अ) विकास के व्यापक अर्थ की
(ब) विकास के संकीर्ण अर्थ की
(स) विकास के वास्तविक अर्थ की
(द) विकास के गलत अर्थ की
उत्तर:
(ब) विकास के संकीर्ण अर्थ की

9. अधिकांश निवासियों के निम्न जीवन स्तर वाला देश कहा जायेगा।
(अ) विकसित
(ब) अतिविकसित
(स) विकासशील
(द) अविकसित
उत्तर:
(द) अविकसित

10. विकास के कारण निम्न में से किसे नुकसान नहीं पहुँचा है।
(अ) पर्यावरण को
(ब) विस्थापितों को
(स) धनी वर्ग को
(द) वन्य जीवों को
उत्तर:
(द) वन्य जीवों को

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. विकास शब्द अपने व्यापकतम अर्थ में उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन की अभिलाषा के विचारों का ………………… है।
उत्तर:
वाहक

2. 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्रता प्राप्त देशों को अक्सर अविकसित या ………………….. देश कहा जाता था।
उत्तर:
विकासशील

3. आरंभिक वर्षों में विकास की अवधारणा में जोर आर्थिक उन्नति और समाज को आधुनिकीकरण के रूप में …………………. देशों के स्तर पर पहुँचने का था।
उत्तर:
पश्चिमी

4. विकास की वजह से अनेक देशों में ………………… को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचा है।
उत्तर:
पर्यावरण

5. विगत वर्षों में दुनिया में अमीर और गरीब के बीच की दूरी …………………. ही गई है।
उत्तर:
बढ़ती।

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. विकास को अब व्यापक अर्थ में ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे।
उत्तर:
सत्य

2. पर्यावरणवाद की जड़ें औद्योगीकरण के खिलाफ 19वीं सदी में विकसित हुए विद्रोह में देखी जा सकती हैं।
उत्तर:
सत्य

3. जिन लोगों के जीवन पर विकास योजनाओं का तत्काल असर पड़ता है, प्रायः उनसे पूर्ण सलाह ली जाती है तथा उनके हितों का ध्यान रखा जाता है।
उत्तर:
असत्य

4. संसाधनों के अविवेकशील उपयोग का अमीरों पर तात्कालिक और तीखा प्रभाव पड़ता है।
उत्तर:
असत्य

5. विकास का काम समाज के व्यापक नजरिये के अनुसार ही होता है।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. अविकसित या विकासशील देश (अ) विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला
2. भारत (ब) बड़ी संख्या में लोगों का अपने घरों व क्षेत्रों से विस्थापन
3. बड़े बाँधों का निर्माण तथा औद्योगिक गतिविधियाँ (स) ओगोनी लोगों के अस्तित्व के लिए आंदोलन
4. केन सारो वीवा (द) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम
5. मानव विकास प्रतिवेदन (य) एशियाई व अफ्रीका के नव-स्वतंत्र देश

उत्तर:

1. अविकसित या विकासशील देश (य) एशियाई व अफ्रीका के नव-स्वतंत्र देश
2. भारत (अ) विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला
3. बड़े बाँधों का निर्माण तथा औद्योगिक गतिविधियाँ (ब) बड़ी संख्या में लोगों का अपने घरों व क्षेत्रों से विस्थापन
4. केन सारो वीवा (स) ओगोनी लोगों के अस्तित्व के लिए आंदोलन
5. मानव विकास प्रतिवेदन (द) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास किसे कहते हैं?
उत्तर:
विकास को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे।

प्रश्न 2.
अविकसित या विकासशील देशों से क्या आशय है?
उत्तर:
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में एशिया- अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों को अक्सर अविकसित या विकासशील देश कहा जाता है। क्योंकि यहाँ के लोगों का जीवनस्तर निम्न तथा शिक्षा, चिकित्सा व अन्य सुविधाओं का अभाव है।

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प्रश्न 3.
विकासशील देशों के किस बोध ने उन्हें विकास परियोजनाएँ शुरू करने की प्रेरणा दी?
उत्तर:
अपने संसाधनों का उपयोग राष्ट्रीय हित में करने के बोध ने विकासशील देशों को विकास परियोजनाएँ शुरू करने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 4.
आरंभिक वर्षों में विकास की अवधारणा में किस बात पर जोर दिया गया?
उत्तर:
आरंभिक वर्षों में विकास की अवधारणा में जोर आर्थिक उन्नति और समाज के आधुनिकीकरण के रूप में पश्चिमी देशों के स्तर तक पहुँचने पर था।

प्रश्न 5.
विकास के कोई दो नकारात्मक प्रभाव बताइये।
उत्तर:

  1. विकासशील जगत में गरीबी एक समस्या बनकर उभरी
  2. दुनिया में अमीर और गरीब के बीच की दूरी बढ़ी है।

प्रश्न 6.
पर्यावरण संगठन क्या प्रयास करते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण संगठन पर्यावरण को बिगड़ने से बचाने के उद्देश्यों की रोशनी में सरकार की औद्योगिक एवं विकास नीतियों को बदलने के लिए दबाव डालने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 7.
विकास की कीमत किन लोगों को चुकानी पड़ती है?
उत्तर:
विकास की कीमत अति दरिद्रों और आबादी के असुरक्षित हिस्से को चुकानी पड़ती है।

प्रश्न 8.
विकास के प्रारंभिक मॉडल का कोई एक दोष बताइए।
उत्तर:
विकास का प्रारंभिक मॉडल पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाला है।

प्रश्न 9.
विकासशील देशों ने अपना विकास कार्य आरम्भ कैसे किया?
उत्तर:
विकासशील देशों ने अपना विकास कार्य विकसित देशों की मदद और कर्ज के जरिये प्रारम्भ किया।

प्रश्न 10.
भारत में विकास का क्या मॉडल चुना गया?
उत्तर:
भारत में विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में विविध क्षेत्रों में बड़ी परियोजनाओं का मॉडल चुना गया।

प्रश्न 11.
आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवों पर बर्फ क्यों पिघल रही है?
उत्तर:
वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से।

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प्रश्न 12.
आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवों पर बर्फ के पिघलने का क्या परिणाम हो सकता है?
उत्तर:
इन ध्रुवों पर बर्फ के पिघलने से समुद्र तटीय क्षेत्र डूब सकते हैं।

प्रश्न 13.
विकास की रणनीतियों का चयन किनके द्वारा किया जाता है?
उत्तर:
राजनीतिक नेता तथा उच्च पदासीन नौकरशाहों के द्वारा।

प्रश्न 14.
विकास के कोई दो पक्ष लिखिए।
उत्तर:

  1. आर्थिक विकास
  2. सामाजिक विकास।

प्रश्न 15
बड़ी परियोजनाओं के फलस्वरूप किस वर्ग के लोग विस्थापित होते हैं?
उत्तर:
बड़ी परियोजनाओं के फलस्वरूप प्रायः गरीब, आदिवासी व दलित लोग विस्थापित होते हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकासशील देश किसे कहा जाता है?
अथवा
अविकसित या विकासशील देश किन देशों को कहा गया और क्यों ?
उत्तर:
1950 और 1960 के दशक में एशिया और अफ्रीका के बहुत से देशों ने राजनीतिक आजादी हासिल की थी। औपनिवेशिक शासन में इनके संसाधनों का उपयोग उपनिवेशवादियों के फायदे के लिए किये जाने के कारण अधिकतर देश निर्धन बना दिये गए थे। उनके निवासियों का जीवन स्तर निम्न था। शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सुविधाएँ कम थीं। इसीलिए इन देशों को प्रायः ‘अविकसित’ या ‘विकासशील’ कहा जाता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक शासन के अधीन राष्ट्र पिछड़े हुए क्यों रह गये?
उत्तर:
औपनिवेशिक शासन के दौरान शासक राष्ट्रों ने शासित राष्ट्रों के संसाधनों का उपयोग अपने लाभ के लिए किया तथा उन्होंने शासित राष्ट्रों के हितों की कोई परवाह नहीं की। इस कारण औनिवेशिक शासन के अधीन शासित राष्ट्र पिछड़े हुए रह गये।

प्रश्न 3.
नव स्वतंत्र हुए अविकसित या विकासशील देशों की सबसे महत्त्व चुनौती क्या थी?
उत्तर:
नव स्वतंत्र हुए एशिया व अफ्रीका के अविकसित या विकासशील देशों के सामने सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, निरक्षरता और बुनियादी सुविधाओं के अभाव की निहायत जरूरी समस्याओं का समाधान करना था जिसे उनकी बहुसंख्यक आबादी भुगत रही थी।

प्रश्न 4.
अविकसित या विकासशील देशों को विकास परियोजनाएँ बनाने की प्रेरणा किससे मिली?
उत्तर:
अविकसित या विकासशील देशों के नेताओं का मानना था कि वे पिछड़े इसलिए हैं कि औपनिवेशिक शासन में उनके संसाधनों का उपयोग उनके फायदे के लिए नहीं उपनिवेशवादियों के फायदे के लिए होता था । स्वतंत्रता के द्वारा वे अपने संसाधनों का उपयोग अपने राष्ट्रीय हित में सर्वश्रेष्ठ तरीके से करके पिछड़ेपन को दूर कर सकते हैं। इस बोध ने इन देशों को विकास परियोजनाएँ शुरू करने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 5.
विकासशील देशों ने विकास का कौनसा मॉडल अपनाया?
उत्तर:
विकासशील देशों ने औद्योगीकरण, कृषि और शिक्षा के आधुनिकीकरण एवं विस्तार के जरिए तेज आर्थिक उन्नति का लक्ष्य निर्धारित किया था। उनका मानना था कि इस तरह के सामाजिक और आर्थिक बदलाव को शुरू करने में केवल राज्य सत्ता ही सक्षम माध्यम है। विकसित देशों की मदद और कर्ज के जरिये अनेक देशों ने विकास की महत्वाकांक्षी योजनाओं का सूत्रपात किया।

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प्रश्न 6.
लोगों के विस्थापित होने से संस्कृति का विनाश कैसे होता है?
उत्तर:
जब लोग विस्थापित किये जाते हैं तो वे अपनी पूरी सामुदायिक जीवन-पद्धति खो बैठते हैं। लम्बी अवधि में उनकी जीवन-पद्धति बदल जाती है। इस प्रकार लोगों के विस्थापित होने से संस्कृति का विनाश होता है।

प्रश्न 7.
पारिस्थितिकीय संकट क्या है?
उत्तर:
हमारे चारों ओर पारिस्थितिकी का निर्माण करने वाले घटक, जैसे- जल, वायु, वन, वन्यजीव आदि का विनाश जब मानवजनित या अन्य किसी कारण से होता है, तो यह विनाश होना ही पारिस्थितिकीय संकट कहलाता है।

प्रश्न 8.
भारत में विकास परियोजनाओं के क्या लक्ष्य रखे गये थे?
उत्तर:
भारत में विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत जो अनेक वृहद् परियोजनाएँ लागू की गईं, उनके निम्नलिखित लक्ष्य रखे गये थे

  1. यह बहुआयामी रणनीति आर्थिक रूप से प्रभावकारी होगी तथा देश की सम्पदा में महत्त्वपूर्ण वृद्धि होगी।
  2. सम्पन्नता की वृद्धि धीरे-धीरे रिसकर समाज के सबसे गरीब तबके तक रिसकर पहुँचेगी और असमानता को कम करने में सहायक होगी।
  3. विकास की प्रक्रिया समाज को अधिक आधुनिक और प्रगतिशील बनायेगी और उसे उन्नति के पथ पर ले जाएगी।

प्रश्न 9.
विकास के परिप्रेक्ष्य में क्या महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
विकास के परिप्रेक्ष्य में निम्न बातों को देखना महत्त्वपूर्ण है।

  1. विकास के क्रम में लोगों के अधिकारों का सम्मान होना चाहिए।
  2. विकास के लाभ का उचित वितरण होना चाहिए।
  3. विकास की प्राथमिकताओं के बारे में निर्णय सहमति से लिये जाएं।

प्रश्न 10.
नर्मदा पर सरदार सरोवर परियोजना के तहत बनने वाले बड़े बांधों के समर्थकों के क्या तर्क हैं? उत्तर- बड़े बांधों के समर्थकों के तर्क ये हैं।

  1. बड़े बाँधों से बिजली पैदा होगी।
  2. इससे काफी बड़े क्षेत्र में जमीन की सिंचाई में मदद मिलेगी।
  3. इससे सौराष्ट्र व कच्छ के रेगिस्तानी क्षेत्र को पेयजल भी उपलब्ध होगा।

प्रश्न 11.
नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना के तहत बनने वाले बड़े बाँधों के विरोध में नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नेताओं के क्या तर्क हैं?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नेता बड़े बांधों के विरोध में निम्न तर्क देते हैं।

  1. इन बांधों के बनने से अपनी जमीन के डूबने और उसके कारण अपनी आजीविका के छिनने से दस लाख से अधिक लोगों के विस्थापन की समस्या पैदा हो गई है।
  2. इन बांधों से विशाल जंगली भू-भाग बांध में डूब जायेगा जिससे पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ेगा।

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प्रश्न 12.
विकास के मॉडल की प्रमुख आलोचनाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
विकास की ‘ऊपर से नीचे’ की रणनीति के महत्त्वपूर्ण प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विकास के मॉडल की आलोचनाएँ या विकास की ‘ऊपर से नीचे की रणनीति के महत्त्वपूर्ण

  1. महँगा विकास: विकास का यह मॉडल विकासशील देशों के लिए काफी मँहगा साबित हुआ है। इसमें वित्तीय लागत बहुत अधिक रही और अनेक देश दीर्घकालीन कर्ज से दब गए। विकास की उपलब्धि लिए गए कर्ज के अनुरूप नहीं रही।
  2. विस्थापन जनित सामाजिक समस्याओं का उदय-बड़े बांधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों और खनन कार्यों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ। विस्थापन का परिणाम आजीविका खोने और दरिद्रता में वृद्धि के रूप में सामने आया। इससे परम्परागत कौशल नष्ट हुआ तथा संस्कृति का भी विनाश हुआ। ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को जन्म दिया है।
  3. धीमी गति: विकास की गति धीमी रही। दरिद्रता, बेकारी, अज्ञानता या शिक्षा की कमी, रोगों का फैलना जैसी समस्यायें आज भी एशिया और अफ्रीका के देशों में विद्यमान हैं।
  4. पर्यावरण पर दुष्प्रभाव: विकास की वजह से अनेक देशों में पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान पहुँचा है। वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, वायु प्रदूषण में वृद्धि, ऊर्जा का उत्तरोत्तर बढ़ता उपयोग आदि ने अनेक समस्यायें पैदा की हैं।

प्रश्न 13.
वर्तमान में विकास की व्यापक अवधारणा को अपनाने की क्यों आवश्यकता महसूस की गई है?
उत्तर:
वर्तमान में निम्नलिखित कारणों से विकास की व्यापक अवधारणा को अपनाने की आवश्यकता महसूस की गई है।

  1. विकास के संकीर्ण अवधारणा वाले मॉडल का आर्थिक उन्नति पर अत्यधिक ध्यान होने से अनेक प्रकार की समस्यायें बढ़ीं, जैसे गरीब और अमीर की खाई में वृद्धि हुई, पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ा, अनेक लोगों को विस्थापनजनित अनेक सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
  2. विकास के संकीर्ण अवधारणा वाले मॉडल को अपनाने से आर्थिक उन्नति भी हमेशा सन्तोषजनक नहीं रही है।
  3. असमानताओं में गंभीर कमी नहीं आई है।
  4. गरीबी लगातार एक समस्या बनी हुई है।

उक्त कारणों से विकास को अब व्यापक अर्थ में एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे।

प्रश्न 14.
विकास को मापने के किसी एक वैकल्पिक तरीके को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
‘मानव विकास प्रतिवेदन’ और ‘मानव विकास सूचकांक’ को समझाइये।
उत्तर:
मानव विकास प्रतिवेदन: विकास को मापने के लिए अब ‘आर्थिक उन्नति के सूचकांक की दर’ के स्थान पर वैकल्पिक तरीके खोजे जा रहे हैं। इसी तरह का एक प्रयास ‘मानव विकास प्रतिवेदन’ है, जिसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) वार्षिक तौर पर प्रकाशित करता है। इस प्रतिवेदन में साक्षरता और शैक्षिक स्तर, आयु संभाविता और मातृ- मृत्यु दर जैसे विभिन्न सामाजिक संकेतकों के आधार पर देशों का दर्जा निर्धारित किया जाता है। इस उपाय को मानव विकास सूचकांक कहा गया है। इस अवधारणा के अनुसार विकास को ऐसी प्रक्रिया होना चाहिए, जो अधिकाधिक लोगों को उनके जीवन में अर्थपूर्ण तरीके से विकल्पों को चुनने की अनुमति दे तथा सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करे।

प्रश्न 15.
विस्थापन क्या है? इसका क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
विस्थापन से आशय: बड़े बांधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों, खनन कार्य आदि के कारण जब लोगों को अपना घर व क्षेत्र छोड़ना पड़ता है, तो यह उनका विस्थापन कहलाता है। आता है। विस्थापन के परिणाम – विस्थापन के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं।

  1. विस्थापन का परिणाम विस्थापित लोगों की आजीविका खोने और उनकी दरिद्रता में वृद्धि के रूप में सामने
  2. विस्थापन के कारण लोगों का परम्परागत कौशल नष्ट हो जाता है क्योंकि विस्थापन के कारण ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परम्परागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होकर शहरी और ग्रामीण गरीबों की विशाल आबादी का हिस्सा बन जाते हैं और लंबी अवधि में अर्जित उनका परम्परागत कौशल नष्ट हो जाता है।
  3. विस्थापन के कारण उनकी संस्कृति का भी विनाश होता है क्योंकि जब लोग नई जगह पर जाते हैं तो वे अपनी पूरी सामुदायिक जीवन-पद्धति खो बैठते हैं।
  4. ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को जन्म दिया है।

प्रश्न 16.
विकास के संकुचित अर्थ पर आधारित विकास के मॉडल की सीमाओं का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
विकास के संकुचित अर्थ पर आधारित विकास के मॉडल की सीमाएँ – विकास के संकुचित अर्थ पर आधारित विकास के मॉडल की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. इस मॉडल से मानव और पर्यावरण दोनों के लिहाज से भारी कीमत चुकानी पड़ी है।
  2. विकास नीतियों के कारण जो कीमत चुकानी पड़ी है उसका और विकास के फायदों का वितरण लोगों के. बीच असमान रूप से हुआ है।
  3. अधिकतर देशों में विकास की ‘ऊपर से नीचे’ की रणनीतियाँ अपनायी गयी हैं अर्थात् नीतियों के निर्धारण और उनके क्रियान्वयन के सभी फैसले राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के उच्चतर स्तरों पर होते हैं।
  4. जिन लोगों के जीवन पर विकास योजनाओं का तत्काल प्रभाव पड़ता है, उनसे सलाह नहीं ली जाती है।
  5. न तो सदियों से हासिल लोगों के अनुभवों और ज्ञान व कौशल का उपयोग किया जाता है और न ही उनके हितों का ध्यान रखा जाता है।

प्रश्न 17.
स्वतंत्रता के बाद भारत ने विकास का क्या मॉडल चुना?
उत्तर:
स्वतंत्रता के बाद भारत ने विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला बनायी। इनमें निम्न प्रयास किये गये

  1. इन योजनाओं में भाखड़ा नांगल बांध, देश के विभिन्न हिस्सों में इस्पात संयंत्रों की स्थापना, खनन, उर्वरक उत्पादन, कृषि तकनीकों में सुधार जैसी अनेक परियोजनाएँ चलायी गईं।
  2. इन पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश की सम्पदा में वृद्धि और लोगों की दशा सुधारने के प्रयत्न किये गये।
  3. विज्ञान तथा तकनीकी को प्रोत्साहित करने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे नये शैक्षणिक संस्थान स्थापित किये गये। इन सबके माध्यम से समाज की प्रगति की उम्मीद की गई।

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प्रश्न 18.
विकास की विकेन्द्रित पद्धति के क्या लाभ होते हैं?
उत्तर:
विकास की विकेन्द्रित पद्धति के लाभ;

  1. विकास की विकेन्द्रित पद्धति के अन्तर्गत लोगों को अत्यधिक प्रभावित करने वाले मसलों पर लोगों से परामर्श किया जाता है। इससे समुदाय को हानि पहुँचा सकने वाली परियोजनाओं को रद्द करना संभव होता है।
  2. योजना बनाने और नीतियों के निर्धारण में लोगों के लिए अपनी जरूरतों के मुताबिक संसाधनों के उपयोग की भी गुंजाइश बनती है। जैसे सड़क कहाँ बने, बसों या मेट्रों का मार्ग कौनसा हो, मैदान व विद्यालय कहाँ पर हो आदि।
  3. विकास की विकेन्द्रित पद्धति में लोगों के पीढ़ियों से संग्रहित ज्ञान व अनुभवों की अनदेखी नहीं होती है, बल्कि यह परम्परागत और आधुनिक स्रोतों से मिलने वाली तमाम तरह की तकनीकों के रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल को संभव बनाती है।

प्रश्न 19.
विकास से होने वाली हानि को कम करने के लिए क्या किया जा सकता है?
उत्तर:
विकास से होने वाली हानि को कम करने के लिए निम्न प्रयास किये जा सकते हैं।

  1. प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने और ऊर्जा के फिर से प्राप्त हो सकने वाले स्रोतों का यथासंभव उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। वर्षा जल संचयन, सौर एवं जैव गैस संयंत्र, लघु पनबिजली परियोजना, जैव कचरे से खाद बनाने हेतु कंपोस्ट – गड्ढे बनाना आदि इस दिशा में संभव प्रयासों के कुछ उदाहरण हैं। इन गतिविधियों को स्थानीय स्तर पर लागू करें क्योंकि इनके लिए जन सहभागिता की अधिक आवश्यकता होगी।
  2. बड़े बांधों के स्थान पर छोटे बांध बनाए जाएं, जिनमें कम निवेश की आवश्यकता होती है और विस्थापन भी मामूली होता है। ऐसे छोटे बांध स्थानीय जनसंख्या के लिए अधिक लाभकारी हो सकते हैं।
  3. विकास लक्ष्यों को तय करने में लोकतांत्रिक तरीका अपनाया जाये तथा जनता की इन्हें तय करने में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाये।

प्रश्न 20.
पर्यावरणवाद से आप क्या समझते हैं? समझाइये।
उत्तर:
पर्यावरणवाद: पर्यावरणविदों द्वारा पर्यावरण को बचाने के लिए वे जो तर्क दिये जा रहे हैं, उन्हें सम्मिलित रूप से पर्यावरणवाद कहा जाता है।
पर्यावरणविदों के तर्क: पर्यावरणविदों का कहना है कि मानव को पारिस्थितिकी के सुर में सुर मिलाते हुए जीना सीखना चाहिए और पर्यावरण में अपने तात्कालिक हितों के लिए छेड़छाड़ बंद करनी चाहिए। उनका मानना है कि पृथ्वी का जिस सीमा तक उपभोग हो रहा है और प्राकृतिक साधनों को जिस तरह नष्ट किया जा रहा है, उससे हम आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल उजाड़ धरती, जहरीली नदियाँ और प्रदूषित हवा ही छोड़कर जायेंगे।

  1. पर्यावरण आन्दोलन: पर्यावरणवाद या पर्यावरण आन्दोलन की जड़ें औद्योगीकरण के खिलाफ 19वीं सदी में विकसित हुए विद्रोह में देखी जा सकती हैं।
  2. पर्यावरण आन्दोलन के संगठन: वर्तमान में पर्यावरण आन्दोलन एक विश्वव्यापी मामला बन गया है। विश्व भर में इसके हजारों गैर सरकारी संगठन तथा ‘ग्रीन पार्टियाँ’ इसके गवाह हैं। कुछ पर्यावरण संगठनों में ग्रीन पीस और वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड शामिल हैं।
  3. पर्यावरण संगठनों के कार्य: ये पर्यावरण समूह पर्यावरण उद्देश्यों की रोशनी में सरकार की औद्योगिक एवं विकास नीतियों को बदलने के लिए दबाव डालने का प्रयास करते हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास की अवधारणा से आप क्या समझते हैं? समझाइये।
उत्तर:
विकास की अवधारणा से आशय: औद्योगिक क्रांति तथा औद्योगीकरण के बाद से विकास के विचार ने महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। अधिकांश यूरोपीय राष्ट्रों ने विकास प्रक्रिया प्रारंभ की तथा 20वीं शताब्दी में ‘विकसित इटली राष्ट्रों’ का दर्जा प्राप्त किया। इस प्रकार 20वीं सदी में अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, रूस, इजरायल, जापान, तथा कनाडा आदि को विकसित राष्ट्र माना गया। भारत सहित एशिया और अफ्रीका के अनेक राष्ट्र जो द्वितीय महायुद्ध के बाद औपनिवेशिक दासता से स्वतंत्र हुए थे, उन्हें अविकसित या विकासशील राष्ट्र कहा गया।

इनमें अधिकतर देश कंगाल बना दिये गए थे और उनके निवासियों का जीवन स्तर निम्न था । शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सुविधाएँ कम थीं। इस प्रकार ये देश गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, निरक्षरता, अशिक्षा, कमजोर स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाओं के अभाव की गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे थे। इन राष्ट्रों ने अपने संसाधनों का उपयोग अपने राष्ट्रीय हित में सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने की दृष्टि से विकास परियोजनाएँ बनाना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार विकास की कोई एक सार्वजनिक परिभाषा नहीं दी जा सकती है।

व्यापक अर्थ में विकास की अवधारणा: व्यापकतम अर्थ में विकास उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन की अभिलाषा के विचारों का वाहक है।
संकीर्ण अर्थ में विकास की अवधारणा: विकास शब्द का प्रयोग प्रायः आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और समाज का आधुनिकीकरण जैसे संकीर्ण अर्थों में भी होता रहता है। विकास की अवधारणा विगत वर्षों में काफी बदली है।

(अ) प्रारंभिक वर्षों में अपनायी गयी विकास की अवधारणा: प्रारंभिक वर्षों में विकास की जो अवधारणा अपनायी गई उससे आशय रहा है। आर्थिक उन्नति और समाज का आधुनिकीकरणं। इस अर्थ में विकास सामान्यतः एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य है। परम्परागत समाज का आधुनिक समाज में रूपान्तरण। साथ ही इसका सम्बन्ध आर्थिक उन्नति से है क्योंकि आर्थिक विकास ही विकास की वह प्रथम शर्त है जिससे समाज में बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक विकास, नागरिक स्वतंत्रताएँ तथा राजनीतिक भागीदारी भी सन्निहित हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र हुए एशिया और अफ्रीका के देशों ने विकास की इस अवधारणा को अपनाते हुए विकास का जो मॉडल अपनाया, वह विकास सम्बन्धी उद्देश्यों को पूरा करने में पूर्णतः सफल नहीं रहा। इसकी सीमाओं को देखते हुए अब विकास की व्यापक अवधारणा को अपनाने की आवश्यकता महसूस की गई है।

(ब) विकास की व्यापक अवधारणा- विकास को अब व्यापक अर्थ में एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे। विकास की व्यापक अवधारणा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. इसमें मानव विकास प्रतिवेदन तथा मानव विकास सूचकांक के द्वारा विकास का मापन किया जाता है। इसके अन्तर्गत साक्षरता और शैक्षिक स्तर, आयु संभाविता और मातृ- मृत्यु दर जैसे विभिन्न सामाजिक संकेतकों के आधार पर देशों का दर्जा निर्धारित किया जाता है।
  2. इस अवधारणा के अन्तर्गत विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अधिकाधिक लोगों को उनके जीवन में अर्थपूर्ण तरीके से विकल्पों को चुनने की अनुमति देती है।
  3. इसकी पूर्ण शर्त है। बुनियादी जरूरतों की पूर्ति । इनकी पूर्ति के वगैर किसी व्यक्ति के लिए गरिमामय जीवन गुजारना और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना असंभव है।
  4. इस प्रक्रिया में विकास से प्रभावित लोगों के अनेक अधिकारों की मांग की गई हैं।
  5. इसमें विकास सम्बन्धी निर्णय लेने और उसके क्रियान्वयन में जनता की सहभागिता पर विशेष बल दिया गया है।
  6. यह एक स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षित रखने और ऊर्जा के फिर से प्राप्त हो सकने वाले स्रोतों के यथासंभव उपयोग करने के प्रयासों पर बल देती है।

प्रश्न 2.
एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र राष्ट्रों ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया उसे स्पष्ट कीजिए। उसकी सीमाओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
एशिया व अफ्रीका के नव-स्वतंत्र राष्ट्रों के विकास का मॉडल
1950 और 1960 के दशक में, जब अधिकतर एशियाई व अफ्रीकी देशों ने औपनिवेशिक शासन से आजादी हासिल की तब उनके सामने प्रमुख चुनौती गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, निरक्षरता और बुनियादी सुविधाओं के अभाव की समस्याओं का समाधान करना था जिसे उनकी बहुसंख्यक आबादी भुगत रही थी। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए इन देशों ने अपने संसाधनों का उपयोग अपने राष्ट्रीय हित में सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने के लिए विकास परियोजनाएँ क्रियान्वित कीं।

एशिया: अफ्रीकी देशों का विकास का मॉडल एशिया तथा अफ्रीका के नव-स्वतंत्र राष्ट्रों ने विकास के मॉडल में आर्थिक उन्नति और समाज के आधुनिकीकरण पर बल दिया। विकासशील देशों ने औद्योगीकरण, कृषि और शिक्षा के आधुनिकीकरण और विस्तार के माध्यम से तेज आर्थिक उन्नति का लक्ष्य निर्धारित किया था। दूसरे, इस मॉडल में राज्य सत्ता या सरकार के माध्यम से सामाजिक तथा आर्थिक बदलाव के लिए विकास की महत्वाकांक्षीय योजनाओं का सूत्रपात किया गया। तीसरे, विकास की महत्वाकांक्षी योजनाएँ विकसित देशों की मदद और कर्ज के माध्यम से चालू की गईं। लक्ष्य – विकास की इन योजनाओं के प्रमुख लक्ष्य थे

  1. बहुआयामी विकास की रणनीति आर्थिक रूप से प्रभावकारी होगी और देश की सम्पदा में वृद्धि होगी।
  2. सम्पदा में वृद्धि से आने वाली सम्पन्नता धीरे-धीरे समाज के गरीब तबके तक पहुँच जायेगी और असमानता को कम करने में सहायक होगी।
  3. यह विश्वास किया गया कि विकास की प्रक्रिया समाज को अधिक आधुनिक और प्रगतिशील बनाएगी और उसे उन्नति के पथ पर ले जाएगी। विकास के मॉडल की आलोचनाएँ (सीमाएँ ) विकास का जो मॉडल भारत तथा अन्य एशिया- अफ्रीका के राष्ट्रों द्वारा अपनाया गया उसकी निम्नलिखित प्रमुख आलोचनाएँ की गई हैं।

1. अत्यधिक महंगा विकास:
विकासशील देशों में जिस तरीके से विकास मॉडल को अपनाया गया है, वह इनके लिए काफी मंहगा साबित हुआ है। इसमें वित्तीय लागत बहुत अधिक रही और अनेक देश दीर्घकालीन कर्ज से दब गए। अफ्रीका अभी तक अमीर देशों से लिए गए भारी कर्ज तले कराह रहा है। विकास के रूप में उपलब्धि, लिए गए कर्ज के अनुरूप नहीं रही।

2. मानव और समाज को हानि:
विकास के इस मॉडल के कारण बहुत बड़ी मानवीय व सामाजिक कीमत भी चुकानी पड़ी है। इस विकास के अन्तर्गत हुए बड़े बांधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों और खनन कार्यों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ। विस्थापन का परिणाम आजीविका खोने और गरीबी में वृद्धि के रूप में सामने आया। विस्थापित ग्रामीण लोग गरीबों की विशाल आबादी में शामिल हो गए और लम्बी अवधि में अर्जित ‘परम्परागत कौशल नष्ट होते गए। विस्थापन से संस्कृति का भी विनाश हुआ क्योंकि विस्थापित लोग नई जगह पर जाकर रहने लग गए और वहाँ जाकर अपनी सामुदायिक जीवन-पद्धति को खो बैठे। ऐसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को भी जन्म दिया है।

3. पर्यावरण को हानि:
विकास की वजह से अनेक देशों में पर्यावरण को भी काफी ज्यादा नुकसान पहुँचा है। विकास के कारण तटीय वनों के नष्ट होने से और समुद्रतट के निकट वाणिज्यिक उद्यमों के स्थापित होने के कारण दक्षिणी और दक्षिणी – पूर्वी एशिया के तटों पर सुनामी ने कहर ढाया। विकास के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है जिससे समुद्र जल की सतह उठ रही है। इससे तटीय क्षेत्रों के डूब जाने का खतरा पैदा हो रहा है।

विकास के कारण वायु प्रदूषण बढ़ रहा है जिसके कारण अनेक रोगों का विस्तार हो रहा है:
विकास के कारण संसाधनों का अविवेकपूर्ण उपयोग किया गया जिसका वंचितों पर तात्कालिक और अधिक तीखा प्रभाव पड़ा। जलावन, जड़ी-बूटी और आहार आदि के रूप में जंगल के संसाधनों का अपने गुजारे के लिए विविध प्रकार से उपयोग करने वाले गरीबों पर जंगलों के नष्ट होने का बुरा असर पड़ा।
विकास के इस मॉडल में ऊर्जा के लिए कोयला और पैट्रोलियम के उपयोग पर बल दिया गया। इनके स्रोतों का पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है। इनके समाप्त हो जाने पर आगामी पीढ़ियाँ प्रभावित होंगी।

4. विकास के लाभ का असमान वितरण:
विकास की नीतियों के कारण जो कीमत चुकानी पड़ी है उसका; और विकास के लाभों का वितरण भी लोगों के बीच असमान रूप से हुआ है। इसके कारण असमानता में कमी नहीं आई है तथा गरीब और अमीर की खाई और बढ़ गई है।

5. ऊपर से नीचे की रणनीतियाँ:
अधिकतर देशों में विकास की ‘ऊपर से नीचे’ की रणनीतियाँ अपनाई गई हैं अर्थात् विकास की प्राथमिकताओं व रणनीतियों का चयन और परियोजनाओं के वास्तविक क्रियान्वयन के सभी फैसले आम तौर पर राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के उच्चतर स्तरों पर होते हैं। जिन लोगों के जीवन पर विकास योजनाओं का तत्काल असर होता है, उनसे तनिक भी सलाह नहीं ली जाती है। इससे न तो सदियों से हासिल उनके अनुभवों और ज्ञान का उपयोग हो पाता है और न उनके हितों का ध्यान रखा जाता है।

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प्रश्न 3.
विकास की व्यापक अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विकास की व्यापक अवधारणा: विकास की आर्थिक उन्नति और समाज के आधुनिकीकरण के अर्थ से सम्बद्ध संकुचित अवधारणा की आलोचनाओं व सीमाओं को देखते हुए अब इस बात को उत्तरोत्तर स्वीकृति मिल रही है कि विकास की व्यापक अवधारणा को अपनाया जाये।

विकास की व्यापक अवधारणा से आशय: इस अवधारणा के अन्तर्गत विकास को व्यापक अर्थ में एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे और अधिकाधिक लोगों को उनके जीवन में अर्थपूर्ण तरीके से विकल्पों को चुनने की अनुमति दे।

विकास की व्यापक अवधारणा को मापने के वैकल्पिक तरीके: मानव विकास सूचकांक अब विकास को केवल आर्थिक उन्नति के सूचकांक की दर के जरिये मापना अपर्याप्त माना जा रहा है और इसके मापने के वैकल्पिक तरीके खोजे जा रहे हैं। इसी तरह का एक प्रयास ‘मानव विकास प्रतिवेदन’ है, जिसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) वार्षिक तौर पर प्रकाशित करता है। इस प्रतिवेदन में साक्षरता और शैक्षिक स्तर, आयु संभाविता और मातृ-मृत्यु दर जैसे विभिन्न सामाजिक संकेतकों के आधार पर देश का दर्जा निर्धारित किया जाता है। इस उपाय को मानव विकास सूचकांक कहा गया।

बुनियादी आवश्यकता पर आधारित दृष्टिकोण: विकास की पूर्व शर्त है कि आहार, शिक्षा, स्वास्थ्य; आश्रय कपड़ा ‘जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हो। बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के बगैर किसी व्यक्ति के लिए गरिमामय जीवन गुजारना और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना असंभव है। अभाव अथवा वंचनाओं से मुक्ति ही किसी व्यक्ति की पसंदगी और इच्छाओं की पूर्ति की कुंजी है।

न्यायपूर्ण और टिकाऊ विकास हेतु वैकल्पिक तरीकों पर बल: विकास के पुरातन मॉडल तथा संकीर्ण अवधारणा की सीमाओं तथा ‘ऊपर से नीचे’ की अपनायी गयी रणनीतियों के कारण विकास, परियोजनाओं से लाभ उठाने वाले सत्ताधारी तबकों द्वारा तैयार और लागू की जाने वाली प्रक्रिया बन गया है। इस स्थिति ने न्यायपूर्ण और टिकाऊ विकास के बारे में वैकल्पिक तरीके से सोचने और उसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता को रेखांकित किया है। यथा

1. अधिकारों के दावे: विकास की संकीर्ण अवधारणा के अन्तर्गत विकास के अधिकांश लाभों को तो ताकतवर लोगों ने हथिया लिया है और विकास की कीमत अति दरिद्र और आबादी के असुरक्षित हिस्से को चुकानी पड़ी है। चाहे यह कीमत पारिस्थितिकी तंत्र में हानि के कारण से हो या विस्थापन और आजीविका खोने के कारण। इस स्थिति से निजात पाने के लिए विकास की वैकल्पिक व्यापक अवधारणा के अन्तर्गत नए अधिकारों के दावों को जन्म दिया है। ये दावे निम्नलिखित हैं।

  1. लोकतंत्र में लोगों को यह अधिकार है कि उनके जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में उनसे सलाह ली जाए।
  2. लोगों को आजीविका का अधिकार है जिसका दावा वे सरकार से अपनी आजीविका के स्रोत पर खतरा पैदा होने पर कर सकते हैं।
  3. आदिवासी और आदिम समुदाय, जिनका सामुदायिक जीवन और पर्यावरण के साथ सम्बन्ध विशेष प्रकार का होता है, को नैसर्गिक संसाधनों पर अधिकार होना चाहिए। यह समुदाय संसाधनों के उपयोग के परम्परागत अधिकारों का दावा कर सकते हैं।
  4. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का यह कर्तव्य है कि वे जनसमूह के विभिन्न तबकों की प्रतिस्पर्द्धात्मक मांगों को पूरा करने के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य की दावेदारियों के बीच संतुलन कायम करें।

2. लोकतांत्रिक सहभागिता:
लोकतंत्र में संसाधनों को लेकर विरोध या बेहतर जीवन के बारे में विभिन्न विचारों के द्वन्द्व का हल विचार-विमर्श और सभी के अधिकारों के प्रति सम्मान के जरिए होता है। इन्हें ऊपर से थोपा नहीं जा सकता। इस दृष्टि से यदि बेहतर जीवन हासिल करने में समाज का हर व्यक्ति साझीदार है, तो विकास की योजनाएँ बनाने और उसके कार्यान्वयन के तरीके ढूँढ़ने में भी हरेक व्यक्ति को शामिल करने की आवश्यकता है। इसके दो लाभ हैं प्रथमतः, आपको योजना बनाते समय विशेष जरूरतों का ज्ञान होगा और दूसरे, निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी से सभी तबके अधिकार सम्पन्न बनेंगे। निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित करने का एक प्रस्तावित रास्ता विकास योजनाओं के बारे में निर्णय स्थानीय निर्णयकारी संस्थाओं को लेने देना है।

इससे निम्नलिखित दो बांतें सुनिश्चित होंगी:

  1. अत्यधिक प्रभावित करने वाले मसलों पर लोगों से परामर्श होगा और समुदाय को हानि पहुँचा सकने वाली परियोजनाओं को रद्द करना संभव होगा।
  2. योजना बनाने और नीतियों के निर्धारण में संलग्नता से लोगों के लिए अपनी जरूरतों के मुताबिक संसाधनों के उपयोग की भी संभावना बनती है। सड़क कहाँ बने, स्थानीय बसों या मेट्रो का मार्ग कौनसा हो, मैदान या विद्यालय कहाँ पर हो। किसी गाँव को चेक डैम की जरूरत है या इंटरनेट कैफे की, इस तरह के निर्णय उन्हीं लोगों द्वारा लिए जाने चाहिए। इस प्रकार विकास की विकेन्द्रित पद्धति परम्परागत और आधुनिक स्रोतों से मिलने वाली तमाम तरह की तकनीकों के रचनात्मक तरीके के प्रयोग को संभव बनाती है।

3. विकास और जीवन शैली:
विकास का वैकल्पिक मॉडल विकास की मंहगी, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली प्रौद्योगिकी से संचालित सोच से दूर होने की कोशिश करता है। इसका मानना है कि विकास को लोगों के जीवन की गुणवत्ता से नापा जाना चाहिए, जो उनकी प्रसन्नता, सुख-शांति और बुनियादी जरूरतों के पूरा होने में झलकती है। इस हेतु निम्नलिखित प्रयास किये जाने चाहिए

  1. एक स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने और ऊर्जा के फिर से प्राप्त हो सकने वाले स्रोतों का यथासंभव उपयोग करने के प्रयास किए जाने चाहिए। वर्षा जल संचयन, सौर एवं जैव गैस संयंत्र, लघु पन बिजली परियोजना, जैव कचरे से खाद बनाने हेतु कंपोस्ट – गड्ढे बनाना आदि इस दिशा में संभव प्रयासों के कुछ उदाहरण हैं। इन गतिविधियों को स्थानीय स्तर पर लागू करना और इसलिए लोगों की अधिक संलग्नता आवश्यक होगी।
  2. बड़े सुधार को प्रभावी बनाने के लिए बड़ी परियोजनाएँ ही एकमात्र तरीका नहीं हैं। उदाहरण के लिए-बड़े बांधों के स्थान पर छोटे बांध बनाए जा सकते हैं, जिनमें बहुत कम निवेश की जरूरत होती है तथा विस्थापन बहुत कम होता है। ऐसे छोटे बांध आबादी के लिए भी अधिक फायदेमंद हो सकते हैं।
  3. हमें अपने जीवन स्तर को बदलकर उन साधनों की आवश्यकताओं को भी कम करने की जरूरत है, जिनका नवीकरण नहीं हो सकता।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 शांति 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter  9 शांति Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. आधुनिक युग की सबसे बड़ी माँग है।
(अ) परमाणु शस्त्रीकरण को बढ़ावा देकर शक्ति संतुलन स्थापित करना।
(ब) आतंकवाद को बढ़ावा देना।
(स) विश्व शांति की स्थापना करना।
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) विश्व शांति की स्थापना करना।

2. विश्व शांति के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधा है।
(अ) निःशस्त्रीकरण
(ब) आतंकवाद
(स) अन्तर्राष्ट्रीय कानून
(द) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन
उत्तर:
(ब) आतंकवाद

3. विश्व शांति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने का उपाय है।
(अ) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन
(ब) युद्ध
(स) साम्प्रदायिकता
(द) शस्त्रीकरण
उत्तर:
(अ) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन

4. निम्न में से कौनसा शांति का तत्व नहीं है।
(अ) अहिंसा
(ब) करुणा
(स) सहयोग
(द) बंधुत्व की भावना का अभाव
उत्तर:
(द) बंधुत्व की भावना का अभाव

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

5. निम्न में से कौनसा विचारक युद्ध को महिमा मंडित करने वाला था?
(अ) महात्मा गांधी
(ब) मार्टिन लूथर किंग
(स) फ्रेडरिक नीत्शे
(द) गौतम बुद्ध
उत्तर:
(स) फ्रेडरिक नीत्शे

6. भारत में प्रमुख शांतिवादी विचारक रहे हैं।
(अ) सुभाष चंद्र बोस
(ब) महात्मा गाँधी
(स) भगतसिंह
(द) चन्द्रशेखर आजाद
उत्तर:
(ब) महात्मा गाँधी

7. हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराये।
(अ) अमेरिका ने
(ब) जर्मनी ने
(स) फ्रांस ने
(द) इंग्लैण्ड ने
उत्तर:
(अ) अमेरिका ने

8. जातिभेद हिंसा का उदाहरण है।
(अ) युद्धजनित हिंसा
(ब) विचारजनित हिंसा
(स) संरचनात्मक हिंसा
(द) आतंकवाद
उत्तर:
(स) संरचनात्मक हिंसा

9. युद्ध जनित विनाश को और अधिक भीषण बनाने में योगदान है-
(अ) उन्नत तकनीक का
(ब) हिंसक विचारों का
(स) हथियारों का
(द) उपर्युक्त सभी का
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी का

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

10. निम्न में से वर्तमान में जिस प्रकार की अशांति सर्वाधिक आम हो गई है, वह
(अ) साम्प्रदायिक हिंसा
(ब) पड़ोसी देशों में युद्ध
(स) विश्व युद्ध
(द) आतंकवाद
उत्तर:
(द) आतंकवाद

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. ………………… की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद मानवता ने इसका महत्त्व पहचाना है।
उत्तर:
शांति

2. शांति की परिभाषा अवसर ………………….. की अनुपस्थिति के रूप में की जाती है।
उत्तर:
युद्ध

3. न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और ………………….. के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करके ही प्राप्त की जा सकती है।
उत्तर:
संघर्ष

4. चूंकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के ……………….. में ही रचे जाने चाहिए।
उत्तर:
दिमाग

5. शांतिवादी का मकसद लड़ाकुओं की क्षमता को कम करके आंकना नहीं, …………………. के अहिंसक स्वरूप पर बल देना है।
उत्तर:
प्रतिरोध

निम्नलिखित में सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गाँधीजी द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप का एक प्रमुख उदाहरण है।
उत्तर:
सत्य

2. जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे शांति को महिमामंडित करने वाला विचारक था।
उत्तर:
असत्य

3. हिंसा प्राय: समाज की मूल संरचना में ही रची-बसी है।
उत्तर:
सत्य

4. शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल की जा सकती है।
उत्तर:
असत्य

5. गाँधीजी के अनुसार अहिंसा अतिशय सक्रिय शक्ति है, जिसमें कायरता और कमजोरी का कोई स्थान नहीं है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. फ्रेडरिक नीत्शे (अ) इटली के समाज – सिद्धान्तकार
2. विल्फ्रेडो पैरेटो (ब) शीतयुद्ध
3. क्यूबाई मिसाइल संकट (स) नस्लवाद और साम्प्रदायिकता
4. संरचनात्मक हिंसा का उदाहरण (द) शांति कायम करने का एक तरीका
5. विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक (य) एक जर्मन दार्शनिक

उत्तर:

1. फ्रेडरिक नीत्शे (य) एक जर्मन दार्शनिक
2. विल्फ्रेडो पैरेटो (अ) इटली के समाज – सिद्धान्तकार
3. क्यूबाई मिसाइल संकट (ब) शीतयुद्ध
4. संरचनात्मक हिंसा का उदाहरण (स) नस्लवाद और साम्प्रदायिकता
5. विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक (द) शांति कायम करने का एक तरीका

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शांतिवाद क्या है?
उत्तर:
शांतिवाद विवादों से सुलझाने के औजार के बतौर युद्ध या हिंसा के बजाय शांति का उपदेश देता है।

प्रश्न 2.
जर्मन दार्शनिक नीत्शे का क्या मानना था?
उत्तर:
जर्मन दार्शनिक नीत्शे का मानना था कि सिर्फ संघर्ष ही सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, इसलिए युद्धं श्रेष्ठ है।

प्रश्न 3.
शांति लगातार बहुमूल्य क्यों बनी हुई है?
उत्तर:
शांति लगातार बहुमूल्य बनी हुई है क्योंकि शांति की अनुपस्थिति में मानवता ने भारी कीमत चुकाई है।

प्रश्न 4.
शांति को परिभाषित कीजिये अथवा शांति क्या है?
उत्तर:
शांति एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यापकतम अर्थों में मानव-कल्याण की स्थापना हेतु आवश्यक नैतिक व भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं। हिंसा ।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

प्रश्न 5.
संरचनात्मक हिंसा के किन्हीं दो रूपों के नाम लिखिये।
उत्तर:
संरचनात्मक हिंसा के दो रूप ये हैं।

  1. जाति-भेद आधारित हिंसा व शोषण
  2. वर्ग-भेद आधारित

प्रश्न 6.
रंगभेदी हिंसा का कोई एक उदाहरण दीजिये।
उत्तर:
दक्षिणी अफ्रीका की गोरी सरकार की 1992 तक अपनी बहुसंख्यक अश्वेत आबादी के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार।

प्रश्न 7.
न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति कैसे प्राप्त की जा सकती है?
उत्तर:
न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्षों के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिये ही प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्न 8.
शांतिवादियों का मकसद ( उद्देश्य ) क्या है?
उत्तर:
शांतिवादियों का उद्देश्य है। प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर बल देना। वैसे संघर्षों का एक प्रमुख तरीका सविनय नागरिक अवज्ञा है।

प्रश्न 9.
शांतिवादी उत्पीड़न से लड़ने के लिए किसकी वकालत करते हैं?
उत्तर:
शांतिवादी उत्पीड़न से लड़ने के लिए सत्य और प्रेम को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं।

प्रश्न 10.
गांधीजी के अहिंसा सम्बन्धी विचार को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
गांधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ कल्याण और अच्छाई का सकारात्मक और सक्रिय क्रियाकलाप है। इसमें किसी को चोट न पहुँचाने का विचार भी शामिल है।

प्रश्न 11.
शांति के मार्ग में आने वाली दो बाधायें लिखिये।
उत्तर:
आतंकवाद, शस्त्रीकरण।

प्रश्न 12.
शांति स्थापना के कोई दो उपाय लिखिये।
उत्तर:
युद्धों को रोकना, संरचनात्मक हिंसा के रूपों को खत्म करना।

प्रश्न 13.
द्वितीय विश्व युद्ध का अन्त किस घटना के साथ हुआ?
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध का अन्त अमरीका द्वारा जापान के दो नगरों हिरोशिमा और नागासाकी पर अणुबम गिराने के साथ हुआ।

प्रश्न 14.
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् किन दो देशों ने सैन्य बल नहीं रखने का निर्णय लिया?
उत्तर:
जापान, कोस्टारिका।

प्रश्न 15.
विश्व में परमाणविक हथियार से मुक्त क्षेत्र कितने हैं?
उत्तर:
छ: क्षेत्र

प्रश्न 16.
क्यूबाई मिसाइल संकट कब हुआ था और इसका प्रमुख कारण क्या था?
उत्तर:
क्यूबाई मिसाइल संकट 1962 में हुआ था। इसका कारण अमरीकी जासूसी विमानों द्वारा क्यूबा में सोवियत संघ की आणविक मिसाइलों को खोजना था।

प्रश्न 17.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कौनसी दो महाशक्तियाँ उभरीं?
अथवा
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् कि दो महाशक्तियों में प्रतिस्पर्द्धा का दौर चला?
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद:

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका
  2. सोवियत संघ नामक दो महाशक्तियाँ उभरी और उनके बीच प्रतिस्पर्द्धा का दौर चला।

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प्रश्न 18.
आज जीवन किस कारण अत्यधिक असुरक्षित है?
उत्तर:
आतंकवादी गतिविधियों के बढ़ने के कारण।

प्रश्न 19.
संरचनात्मक हिंसा को समाप्त करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:
न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना।

प्रश्न 20.
शांति की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
मानव कल्याण की स्थापना के लिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
हिंसा की समाप्ति और शांति की स्थापना के कोई दो उपाय सुझाइए।
उत्तर:
हिंसा की समाप्ति और शांति की स्थापना के लिये ये दो उपाय किये जाने चाहिए

  1. सर्वप्रथम लोगों के सोचने-समझने के तरीकों में बदलाव लाना चाहिए। इसके लिए करुणा, हैं।
  2. समाज में संरचनात्मक हिंसा के रूपों को समाप्त कर सह अस्तित्व वाले समाज का निर्माण किया जाये।

प्रश्न 2.
शांति के बारे में नकारात्मक सोच वाले दो विचारकों के विचारों को संक्षेप में बताइये।
उत्तर:

  1. नीत्शे का मानना था कि सिर्फ संघर्ष ही सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।
  2. विल्फ्रेडो पैरेटो का दावा था कि अधिकतर समाजों में शासक वर्ग का निर्माण सक्षम और अपने लक्ष्यों को पाने के लिए शक्ति का प्रयोग करने के लिए तैयार लोगों से होता है।

प्रश्न 3.
आज लोग शांति का गुणगान क्यों करते हैं?
उत्तर:
आज लोग शांति का गुणगान निम्न कारणों से करते हैं।

  1. वे इसे अच्छा विचार मानते हैं।
  2. शांति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद मानवता ने इसका महत्व पहचाना है।
  3. आज जीवन अतीत के किसी भी समय से कहीं अधिक असुरक्षित है क्योंकि हर जगह के लोग आतंकवाद के बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं।

प्रश्न 4.
संरचनात्मक हिंसा के कोई पाँच उदाहरण लिखिये।
उत्तर:
संरचनात्मक हिंसा से उत्पन्न कुछ प्रमुख उदाहरण ये हैं।

  1. जातिभेद
  2. वर्गभेद
  3. पितृसत्ता
  4. उपनिवेशवाद
  5. नस्लवाद
  6. साम्प्रदायिकता।

प्रश्न 5.
परम्परागत जाति-व्यवस्था के दुष्परिणाम को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
परम्परागत जाति-व्यवस्था कुछ खास समूह के लोगों को अस्पृश्य मानकर बरताव करती थी। छुआछूत के प्रचलन ने उन्हें सामाजिक बहिष्कार और अत्यधिक वंचना का शिकार बना रखा था।

प्रश्न 6.
वर्ग-व्यवस्था से उत्पन्न हिंसा को समझाइये
उत्तर:
वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था ने भी असमानता और उत्पीड़न को जन्म दिया है। विकासशील देशों की अधिकांश कामकाजी जनसंख्या असंगठित क्षेत्र से सम्बद्ध है, जिसमें मजदूरी और काम की दशा बहुत खराब है।

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प्रश्न 7.
पितृ सत्ता की अभिव्यक्ति किस प्रकार की हिंसाओं में होती है?
उत्तर:
पितृ सत्ता से स्त्रियों को अधीन बनाने तथा उनके साथ भेदभाव के रूप सामने आते हैं। इसकी अभिव्यक्ति कन्या भ्रूण हत्या, लड़कियों को अपर्याप्त पोषण, बाल-विवाह, अशिक्षा, पत्नी को पीटना, दहेज- अपराध, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न और बलात्कार में होती है।

प्रश्न 8.
रंगभेद से जनित हिंसा को एक उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
रंगभेद में एक समूचे नस्लगत समूह या समुदाय का दमन करना शामिल रहता है। उदाहरण के लिए दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार ने 1992 तक अपनी बहुसंख्यक अश्वेत जनसंख्या के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया।

प्रश्न 9.
न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति कैसे प्राप्त की जा सकती है?
उत्तर:
न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिये प्राप्त की जा सकती है। इसमें हर तबके के लोगों के बीच अत्यधिक सम्पर्क को प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए।

प्रश्न 10.
लोगों के दिमाग में शांति के विचार कैसे लाये जा सकते हैं?
उत्तर:
लोगों के दिमाग में शांति के विचार लाने के लिए करुणा जैसे अनेक पुरातन आध्यात्मिक सिद्धान्त और ध्यान जैसे अभ्यास बिल्कुल उपयुक्त हैं। आधुनिक नीरोगकारी तकनीक और मनोविश्लेषण जैसी चिकित्सा पद्धतियाँ भी यह काम कर सकती हैं।

प्रश्न 11.
शांति कैसे समाज की उपज हो सकती है?
उत्तर:
न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए अनिवार्य है और शांति, ऐसे ही समाज की उपज हो सकती है।

प्रश्न 12.
क्या विश्व शांति बनाए रखने के लिए हिंसा जरूरी है?
उत्तर:
नहीं, विश्व शांति बनाए रखने के लिए हिंसा जरूरी नहीं है, बिना हिंसा के भी शांति स्थापित की जा सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून ने सभी राज्यों को अन्य राज्यों के आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा का अधिकार दिया है। यह आत्मरक्षा प्रत्येक देश अन्य देश के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाकर, परस्पर सामाजिक-आर्थिक सहयोग द्वारा कर सकता है।

प्रश्न 13.
शांति को बेकार या महत्वहीन बताने वाले विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:

  1. जर्मन दार्शनिक विचारक फ्रेडरिक नीत्शे ने शांति को महत्त्व नहीं दिया क्योंकि उसका मानना था कि सिर्फ संघर्ष ही सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
  2. अनेक विचारकों ने शांति को बेकार बताया है और संघर्ष की प्रशंसा व्यक्तिगत बहादुरी और सामाजिक जीवन्तता के वाहक के तौर पर की है।
  3. विल्फ्रेडो पेरेटो का दावा था कि अधिकतर समाजों में शासक वर्ग का निर्माण सक्षम और अपने लक्ष्यों को पाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करने के लिए तैयार लोगों से होता है।

प्रश्न 14.
क्या हिंसा कभी शांति को प्रोत्साहित कर सकती है?
उत्तर:
हिंसा कभी भी शांति को प्रोत्साहित नहीं कर सकती। कई बार यह तर्क दिया जाता है कि तानाशाहों या लोगों को उत्पीड़न करने वाले शासकों को हटाने के लिए हिंसा का प्रयोग उचित है। लेकिन व्यवहार में अच्छे उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी हिंसा का प्रयोग हानिकारक होता है क्योंकि हिंसा से जन और धन की हानि होती है। इसके अतिरिक्त एक बार शुरू होने के पश्चात् हिंसा में वृद्धि हो सकती है और उस पर नियंत्रण करना कठिन हो जाता है। अतः हिंसा के परिणाम सदा बुरे होते हैं।

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प्रश्न 15.
” हिंसा प्राय: समाज की मूल संरचना में रची-बसी है।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक संस्थाएँ और प्रथाएँ जैसे जाति प्रथा, वर्ग-भेद, पितृसत्ता, लिंगभेद आदि असमानता को बढ़ाते हैं। इन आधारों पर उच्च वर्ग अन्य वर्गों से भेदभाव पूर्ण व्यवहार करते हैं। शोषित वर्ग द्वारा चुनौती या विरोध करने पर हिंसा पैदा होती है। इस प्रकार हिंसा प्राय: समाज की मूल संरचना में रची-बसी होती है क्योंकि लगभग प्रत्येक समाज में इस प्रकार के भेदभाव व असमानताएँ पाई जाती हैं।

प्रश्न 16.
आज की दुनिया में शांति इतनी कमजोर क्यों है?
उत्तर:
आज की दुनिया में शांति पर खतरे का सायां निरन्तर छाया हुआ है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. आतंकवाद: आज विश्व में जीवन अतीत के किसी भी समय से कहीं अधिक असुरक्षित है क्योंकि हर जगह के लोग आतंकवाद के बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं और इस खतरे का साया हमेशा मौजूद है।
  2. आक्रामक राष्ट्रों या महाशक्ति का स्वार्थपूर्ण आचरण: आधुनिक काल में दबंग राष्ट्रों ने अपनी संप्रभुता का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन किया है और क्षेत्रीय सत्ता संरचना तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को भी अपनी प्राथमिकताओं और धारणाओं के आधार पर बदलना चाहा है। इसके लिए उन्होंने सीधी सैनिक कार्यवाही का भी सहारा लिया है और विदेशी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। ऐसे आचरण का ज्वलंत उदाहरण अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका का ताजा हस्तक्षेप है। इससे उभरे युद्ध में बहुत-सी जानें गई हैं।
  3. नस्ल – संहार; वैश्विक समुदाय नस्ल संहार अर्थात् किसी समूचे जन- समूह के व्यवस्थित संहार का मूक दर्शक बना रहता है। यह खासकर रवांडा में साफ तौर पर दिखा।

प्रश्न 17.
क्या वर्तमान में शांति एक चुका हुआ सिद्धान्त है?
उत्तर:
यद्यपि आतंकवाद, ताकतवर आक्रामक शब्दों के स्वार्थपूर्ण आचरण, आधुनिक हथियारों एवं उन्नत तकनीक का दक्ष और निर्मम प्रयोग, नस्ल संहार आदि की घटनाओं के कारण ऐसा लगता है कि वर्तमान में शांति एक चुका हुआ सिद्धान्त हो चुका है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि शांति एक चुका हुआ सिद्धान्त है। शांति आज भी विश्व में महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त बना हुआ है। इसे निम्न उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है।

  • दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान और कोस्टारिका जैसे देशों ने सैन्यबल नहीं रखने का फैसला किया हुआ है।
  • विश्व के अनेक हिस्सों में परमाणविक हथियार से मुक्त क्षेत्र बने हैं, जहाँ आणविक हथियारों को विकसित और तैनात करने पर एक अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त समझौते के तहत पाबंदी लगी है। आज इस तरह के छः क्षेत्र हैं जिनमें ऐसा हुआ है। ये हैं
    1. दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र,
    2. लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र,
    3. दक्षिण – पूर्व एशिया,
    4. अफ्रीका,
    5. दक्षिण प्रशांत क्षेत्र और
    6. मंगोलिया।
  • सोवियत संघ के विघटन से अति शक्तिशाली देशों के बीच सैनिक व परमाणविक प्रतिद्वन्द्विता पर पूर्ण विराम लग गया है और अन्तर्राष्ट्रीय शांति के लिए प्रमुख खतरा समाप्त हो गया है।
  • समकालीन युग में एक शांति आंदोलन जारी है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से राजनैतिक और भौगोलिक अवरोधों के बावजूद दुनिया में बड़े पैमाने पर इसने अनुयायी पैदा किए हैं। इस आंदोलन को विभिन्न तबके के लोगों ने बढ़ावा दिया है तथा इसका लगातार विस्तार हो रहा है। इसने शांति अध्ययन नामक ज्ञान की एक नई शाखा का सृजन किया है।

प्रश्न 18.
शांति आंदोलन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
शांति आंदोलन: वर्तमान काल में शांति को बढ़ावा देने के लक्ष्य को लेकर होने वाली अनेक लोकप्रिय पहलकदमियों को प्राय: शांति आंदोलन कहा जाता है। दोनों विश्वयुद्ध के कारण हुए विध्वंस ने इस आंदोलन को प्रेरित किया और तभी से यह जोर पकड़ता गया है। राजनैतिक और भौगोलिक अवरोधों के बावजूद दुनिया में बड़े पैमाने पर इसने अनुयायी पैदा किए हैं।

इसके अनुयायी: शांति आंदोलन को विभिन्न तबके के लोगों ने बढ़ावा दिया है। इन लोगों में लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, पुजारी, राजनेता और मजदूर सभी शामिल हैं। विस्तार: इसका लगातार विस्तार हुआ है। महिला सशक्तीकरण, पर्यावरण सुरक्षा जैसे अन्य आंदोलनों के समर्थकों से पारस्परिक फायदेमंद जुड़ाव होने से यह और सघन हुआ है। इस आंदोलन ने शांति अध्ययन नामक ज्ञान की एक नई शाखा का भी सृजन किया है तथा इण्टरनेट जैसे माध्यम का इसने कारगर इस्तेमाल भी किया है।

प्रश्न 19.
शांतिवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
शांतिवाद: शांतिवाद विवादों को सुलझाने के औजार के बतौर युद्ध यां हिंसा के बजाय शांति का उपदेश देता है। इसमें विचारों की अनेक छवियाँ शामिल हैं। इसके दायरे में कूटनीति को अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान करने में प्राथमिकता देने से लेकर किसी भी हालत में हिंसा और ताकत के इस्तेमाल के पूर्ण निषेध तक आते हैं शांतिवाद सिद्धान्तों पर भी आधारित हो सकता है और व्यावहारिकता पर भी। यथा

  1. सैद्धान्तिक शांतिवाद: सैद्धान्तिक शान्तिवाद का जन्म इस विश्वास से होता है कि युद्ध, सुविचारित घातक हथियार, हिंसा या किसी भी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नैतिक रूप से गलत है।
  2. व्यावहारिक शांतिवाद: व्यावहारिक शांतिवाद ऐसे किसी चरम सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करता है। यह मानता है कि विवादों के समाधान में युद्ध से बेहतर तरीके भी हैं या फिर यह समझता है कि युद्ध पर लागत ज्यादा आती है और फायदे कम होते हैं।

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प्रश्न 20.
अहिंसा के बारे में गांधीजी के विचारों पर एक टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
अहिंसा के बारे में गांधीजी के विचार:
1. नकारात्मक अर्थ:
नकारात्मक अर्थ में गांधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ शारीरिक चोट, मानसिक चोट या आजीविका की क्षति से बाज आना भर नहीं है। इसका अर्थ किसी को नुकसान पहुँचाने के विचार तक को छोड़ देना है। गांधीजी का मानना था कि “यदि मैंने किसी की हानि पहुँचाने में किसी किसी अन्य की सहायता की अथवा किसी हानिकर कार्य से लाभान्वित हुआ तो मैं हिंसा का दोषी होऊंगा।” इ अर्थ में हिंसा के बारे में उनके विचार संरचनात्मक हिंसा को समाप्त करने के पक्ष में थे।

2. सकारात्मक अर्थ:
सकारात्मक अर्थ में अहिंसा के सम्बन्ध में गांधीजी का कहना है कि अहिंसा को सजग संवेदना के माहौल की अपेक्षा होती है। उनके लिए अहिंसा का अर्थ कल्याण और अच्छाई का सकारात्मक और सक्रिय क्रियाकलाप है। अहिंसा में कायरता और कमजोरी को कोई स्थान नहीं है।

प्रश्न 21.
शांतिवादी किसी न्यायपूर्ण संघर्ष में भी हिंसा के इस्तेमाल के खिलाफ नैतिक रूप से क्यों खड़े होते हैं?
उत्तर:
शांतिवादियों का मत है कि अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो जाता है क्योंकि इस प्रक्रिया में अतिवादी हिंसक आंदोलन प्रायः संस्थागत रूप धारण करता है और राजनीतिक व्यवस्था का पूर्ण अंग बन जाता है। उदाहरण के लिए नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने हिंसात्मक साधनों का प्रयोग कर अल्जीरिया के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया।

उसने अपने देश को फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों के बोझ से 1962 में मुक्त तो कराया, लेकिन उसका शासन जल्दी ही निरंकुशवाद में परिणत हो गया। इसकी प्रतिक्रिया वहाँ इस्लामी रूढ़िवाद के उभार के रूप में हुई। इसीलिए शांतिवादी किसी न्यायपूर्ण संघर्ष में भी हिंसा के प्रयोग का विरोध करते हैं । वे उत्पीड़न से लड़ने के लिए उत्पीड़नकारियों का दिल-दिमाग जीतने के लिए प्रेम और सत्य को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शांति को परिभाषित कीजिए। इसके महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
शांति का अर्थ: शांति आज विश्व का लोकप्रिय विचार है। इसकी कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार दी गई
1. शांति की परिभाषा अक्सर युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में की जाती है।
यह परिभाषा सरल है, लेकिन भ्रामक भी है। सामान्य रूप से हम युद्ध को देशों के बीच हथियारबंद संघर्ष समझते हैं। बोस्निया में इस तरह का संघर्ष नहीं था; लेकिन इससे शांति का उल्लंघन तो हुआ ही था। इससे यह स्पष्ट होता है कि यद्यपि प्रत्येक युद्ध शांति को भंग करता है, लेकिन शांति का हर अभाव केवल युद्ध के कारण ही हो यह आवश्यक नहीं। युद्ध न होने पर भी शांति हो, यह आवश्यक नहीं है।

2. शांति को युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार समेत सभी प्रकार के हिंसक संघर्ष के अभाव के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
यह परिभाषा पहली परिभाषा की तुलना में अधिक विस्तृत है लेकिन संरचनात्मक हिंसा के रूपों की इसमें उपेक्षा की गई है। जबकि संरचनात्मक हिंसा के चलते भी समाज में शांति स्थापित नहीं हो पाती है। संरचनात्मक भेदभावों के रूप हैं जातिभेद, वर्गभेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता। इन संरचनात्मक हिंसाओं का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक नुकसानों से गुजरता है, वे उसके भीतर शिकायतों को पैदा करते हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक कायम रहती हैं। ऐसे समूह कभी – कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताज़ा दौर की शुरुआत कर सकते हैं। अतः न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिये ही प्राप्त की जा सकती है।

3. शांति को संतुष्ट लोगों के समरस सहअस्तित्व के रूप में समझा जा सकता है। संतुष्ट लोगों के समरस सहअस्तित्वपूर्ण न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा को समाप्त करके ही की जा सकती है शांति ऐसे ही समाज की उपज हो सकती है।

4. शांति एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकतम अर्थों में मानव कल्याण की स्थापना के लिए जरूरी नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं- चूंकि शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती। यह कोई अन्तिम स्थिति नहीं बल्कि एक प्रक्रिया है।

शांति का महत्त्व: शांति के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. जीवन की सुरक्षा संभव:
राज्य का पहला और प्रमुख कार्य है लोगों के जीवन की रक्षा करना। लोगों के जीवन की रक्षा केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही संभव है। यदि किसी समाज में शांति का वातावरण नहीं होगा तो उसके सदस्य निरन्तर रूप से जीवन की असुरक्षा से भयभीत रहेंगे। जहाँ शक्ति का शासन है, शक्ति ही कानून है, वहाँ न तो शांति हो सकती है और न जीवन की सुरक्षा।

2. व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास संभव:
प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीविका हेतु कोई न कोई कार्य करता है। व्यक्ति अपने जीविका उत्पादन के विभिन्न कार्यों को तभी कुशलता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं जब समाज में शान्ति
हो। जब हिंसा, उपद्रवों का वातावरण होता है तो लोग घर के अन्दर ही रहना पसंद करते हैं और वे स्वतंत्रतापूर्वक, निर्भय होकर, ठीक प्रकार से अपनी जीविका पूर्ति के कर्तव्यों को नहीं कर पाते हैं। इसलिए समाज के विकास के लिए, व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए, समाज के उपयोगी कार्यों को करने के लिए समाज में शांति का होना आवश्यक है।

3. विविध प्रकार की सांसारिक गतिविधियों के कुशल संचालन के लिए आवश्यक:
समस्त व्यापारिक गतिविधियों, औद्योगीकरण, कृषिगत गतिविधियाँ आदि सभी केवल शांतिमय वातावरण में ही संचालित हो सकती हैं। जहाँ कानून-व्यवस्था का अभाव हो, अशान्ति का वातावरण हो या हिंसा का वातावरण हो, ये सभी गतिविधियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं।

4. समृद्धि का पूरक:
शांति और समृद्धि परस्पर पूरक हैं। जहाँ शांति नहीं है, वहाँ समृद्धि नहीं आ सकती। अशान्ति के वातावरण में विकास के सभी कार्य पिछड़ जाते हैं। सरकारी मशीनरी को अपना सारा ध्यान शांति एवं व्यवस्था की स्थापना में लगा देना पड़ता है। एक देश जिसे निरन्तर साम्प्रदायिक दंगों, हिंसक संघर्षों, जातीय संघर्षों तथा सामाजिक वैमनस्य का सामना करना पड़ता है, वह विकास की आशा नहीं कर सकता क्योंकि सरकार की आय का अधिकांश भाग शांति व्यवस्था की स्थापना में ही खर्च हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि शांति समृद्धि और विकास लाती है।

5. विदेशी व्यापार में वृद्धि: विदेशी व्यापार शांति के समय में ही फलता-फूलता है। यदि दो राष्ट्र हथियारों की प्रतियोगिता या शीत युद्ध में रत हैं, उनके बीच पारस्परिक व्यापार रुक जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच अधिकांश व्यापार इसीलिए अवरुद्ध है क्योंकि दोनों के बीच शांति के सम्बन्ध नहीं हैं। विदेशी व्यापार मित्रवत सम्बन्धों में ही विकसित होता है और मित्रवत सम्बन्ध परस्पर शांति के सम्बन्धों में ही संभव है।

6. मानवता का विकास: जब युद्ध होता है, तब मानवता पीड़ित होती है और शांतिकाल में विकसित होती है। मानवता का विकास शांति को बढ़ावा देता है। समस्त वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कार, खोजें, जीवन की सुविधाएँ शांतिमय वातावरण और परस्पर सहयोग के कारण ही संभव हुई हैं। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि शांति हमारी इसी पीढ़ी के लिए ही आवश्यक नहीं है, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
संरचनात्मक हिंसा क्या है? संरचनात्मक हिंसा के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संरचनात्मक हिंसा का अर्थ-हिंसा प्रायः समाज की मूल संरचना में ही रची-बसी है। जब हिंसा सामाजिक संस्थाओं से समाज में निहित रीति-रिवाजों से, समाज द्वारा मान्य संस्थाओं से प्रकट होती है, तो उसे संरचनात्मक हिंसा कहते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में जाति प्रथा के तहत जाति आधारित असमानताएँ समाज में मान्य तथा स्वीकृत होती हैं और उच्च जातियाँ तथाकथित निम्न जातियों को दबाती हैं, तो यह स्थिति हिंसा को जन्म देती है। जब एक उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों पर आक्रमण करते हैं, उनके घरों को जलाते हैं, उन्हें उत्पीड़ित करते हैं, तो यह संरचनात्मक हिंसा का स्पष्ट उदाहरण है।

जब एक स्त्री द्वितीय स्तर की नागरिक समझी जाती है और उसे समाज में पुरुष के साथ समानता का दर्जा नहीं दिया जाता है तथा उसका शोषण तथा उत्पीड़न किया जाता है, तो यह भी एक संरचनात्मक हिंसा है। इस प्रकार वह हिंसा जो समाज की संरचना के कारण प्रकट होती है, संरचनात्मक हिंसा कहलाती है। संरचनात्मक हिंसा के रूप: संरचनात्मक हिंसा के अनेक रूप हैं। इनका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।

1. भारत में परम्परागत जाति व्यवस्था:
भारत में परम्परागत जाति व्यवस्था कुछ खास समूह के लोगों को अस्पृश्य मानकर बरताव करती थी। आजाद भारत के संविधान द्वारा गैर-कानूनी करार दिये जाने तक छुआछूत के प्रचलन ने उन्हें सामाजिक बहिष्कार और अत्यधिक वंचना का शिकार बना रखा था । भयावह रीति-रिवाजों के इन जख्मों से उबरने के लिए देश अभी तक संघर्ष कर रहा है।

2. वर्ग व्यवस्था:
विश्व में हर समाज में वर्ग-व्यवस्था विद्यमान है और वर्गों के आधार पर समाज में स्तरीकरण पाया जाता है। वर्ग-व्यवस्था ने भी काफी असमानता और उत्पीड़न को जन्म दिया है। विकासशील देशों की कामकाजी आबादी असंगठित क्षेत्र से सम्बद्ध है, जिसमें मेहनताना और काम की दशा बहुत खराब है। विकसित देशों में भी निम्न वर्गीय लोगों की अच्छी-खासी आबादी मौजूद है। कुछ वर्ग गरीबी के कारण झुग्गी-झोंपड़ियों या गंदी बस्तियों
में रहते हैं और बेरोजगारी, अशिक्षा, भूख और बीमारी का सामना करते रहते हैं। वर्गों के बीच ऐसी असमानता समाज की समरसता और शांति को भंग कर देती है।

3. पितृसत्ता आधारित भेदभाव:
प्रायः सभी पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था में सबसे बड़ा पुरुष सदस्य परिवार का मुखिया होता है। पितृसत्ता पर आधारित ऐसे सामाजिक संगठन की परिणति स्त्रियों को व्यवस्थित रूप से अधीन बनाने और उनके साथ भेदभाव करने में होती है। इसकी अभिव्यक्ति कन्या भ्रूण हत्या, लड़कियों को अपर्याप्त पोषण और शिक्षा न देना, बाल-विवाह, पत्नी को पीटना, दहेज से सम्बंधित अपराध, कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार और घर की इज्जत के नाम पर हत्या में होती है। भारत में निम्न लिंगानुपात पितृसत्तात्मक विध्वंस का मर्मस्पर्शी सूचक है। हम उस स्थिति में समाज में शांति की आशा कैसे कर सकते हैं जब संसार की लगभग आधी आबादी भेदभाव, उत्पीड़न तथा समान अधिकारों से वंचित हो।

4. उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद:
साम्राज्यवाद और उपानिवेशवाद भी संरचनात्मक हिंसा का एक रूप है। द्वितीय महायुद्ध तक उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ने विदेशी शासन के रूप में लोगों पर प्रत्यक्ष और लम्बे समय तक गुलामी थोप दी थी । यद्यपि वर्तमान में यह लगभग असंभव है लेकिन इजरायली प्रभुत्व के खिलाफ चालू फिलिस्तीनी संघर्ष दिखाता है कि इसका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। इसके अलावा, यूरोपीय उपनिवेशवादी देशों के पूर्ववर्ती उपनिवेशों को अभी भी बहुआयामी शोषण के उन प्रभावों से पूरी तरह उबरना शेष है, जिसे उन्होंने औपनिवेशिक काल में झेला।

5. रंगभेद और साम्प्रदायिकता:
रंगभेद और साम्प्रदायिकता में एक समूचे नस्लगत समूह या समुदाय पर लांछन लगाना और उनका दमन करना शामिल रहता है। कई बार इसका उपयोग मानव विरोधी कुकृत्यों को जायज ठहराने में किया जाता रहा है। 1865 तक अमेरिका में अश्वेत लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा, हिटलर के समय जर्मनी में यहूदियों को कत्लेआम तथा दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार की 1992 तक अपनी बहुसंख्यक अश्वेत आबादी के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार करने वाली रंगभेद की नीति इसके उदाहरण हैं।

पश्चिमी देशों में नस्ली भेदभाव गोपनीय तौर पर अभी भी जारी है। अब इसका प्रयोग प्रायः एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों के आप्रवासियों के खिलाफ होता है। साम्प्रदायिकता को नस्लवाद का दक्षिण एशियाई प्रतिरूप माना जा सकता है जहाँ शिकार अल्पसंख्यक धार्मिक समूह होते हैं। हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक नुकसानों से गुजरता है वे उसके भीतर शिकायतें पैदा करती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक कायम रहती हैं।

ऐसे समूह कभी: कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताजा दौर की शुरुआत कर सकते हैं। दक्षिण एशिया में विभिन्न समुदायों द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ लम्बे समय से मन में रखी पुरानी शिकायतों के उदाहरण हमारे पास हैं, जैसे 1947 में भारत के विभाजन के दौरान भड़की हिंसा से उपजी शिकायतें।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 शांति

प्रश्न 3.
हिंसा को कैसे समाप्त किया जा सकता है? क्या हिंसा कभी शांति को प्रोत्साहित कर सकती है?
उत्तर;
हिंसा की समाप्ति: शांति को प्रोत्साहित करने के लिए यह आवश्यक है कि समाजों से हिंसा को समाप्त किया जाये । हिंसा की समाप्ति के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए-
1. लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव:
एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने उचित ही टिप्पणी की है कि “चूंकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।”

गौतम बुद्ध ने भी कहा है कि “सभी दुष्कर्म मन के कारण उपजते हैं। यदि मन रूपान्तरित हो जाए तो क्या दुष्कर्म बने रह सकते हैं?” इस तरह के प्रयास के लिए करुणा जैसे अनेक पुरातन आध्यात्मिक सिद्धान्त और ध्यान जैसे अभ्यास बिल्कुल उपयुक्त हैं। आधुनिक नीरोगकारी तकनीक और मनोविश्लेषण जैसी चिकित्सा पद्धतियाँ भी यह काम कर सकती हैं।

2. संरचनात्मक हिंसा की समाप्ति:
हिंसा का आरंभ महज किसी व्यक्ति के दिमाग में नहीं होता; इसकी जड़ें कतिपय सामाजिक संरचनाओं में भी निहित होती हैं। इसलिए हिंसा की समाप्ति के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक संरचनाओं में निहित हिंसा के कारणों को समाप्त किया जाये। इसके लिए सामाजिक भेदभावों, सामाजिक असमानताओं, जाति आधारित उत्पीड़न तथा दबाव, प्रजातिगत भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि समाज में सामाजिक समानता, आर्थिक और राजनीतिक समानता, लैंगिक समानता, विभिन्न धर्मों व समुदायों के बीच सौहार्द्र कायम किया जा सके। न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए आवश्यक है। शांति, जिसे संतुष्ट लोगों के समरस सह-अस्तित्व के रूप में समझा जाता है, ऐसे ही समाज की उपज हो सकती है।

3. हिंसा की समाप्ति तथा शांति की स्थापना स्थायी नहीं ह:
शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती। शांति कोई अंतिम स्थिति नहीं बल्कि ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकतम अर्थों में मानव कल्याण की स्थापना के लिए जरूरी नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं हिंसा से शांति की स्थापना नहीं की जा सकती कुछ लोगों का विचार है कि शक्ति का प्रयोग करके, हिंसा के द्वारा हिंसा को समाप्त किया जा सकता है।

उनका कहना है कि यदि आप शांति चाहते हैं तो हमें युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए। वे इस आधार पर अपने विचारों के समर्थन में तर्क देते हैं कि राज्य कानून तोड़ने वालों तथा अपराधियों को दंडित करने के लिए तथा हिंसा को समाप्त करने के लिए समाज में राज्य सर्वाधिक भौतिक शक्ति का प्रयोग करता है।

यह तर्क दिया जाता है कि तानाशाहों और उत्पीड़क शासकों को हिंसा और शक्ति के द्वारा जबरन हटाकर भी जनता को निरन्तर नुकसान होने से रोका जा सकता है। या फिर उत्पीड़ित लोगों के मुक्ति संघर्षों को हिंसा के कुछ इस्तेमाल के बावजूद न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है। लेकिन उक्त विचार कुछ विचारकों के ही हैं, सभी के नहीं। अधिकांश विद्वान और विचारकों का मत है कि हिंसा के द्वारा शांति की स्थापना नहीं की जा सकती। हिंसा के द्वारा हिंसा की समाप्ति हमेशा अल्प अवधि के लिए ही होती है। हिंसा के द्वारा शांति की स्थापना नहीं की जा सकती, इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं।

1. राज्य का आधार शक्ति नहीं, इच्छा है:
टी. एच. ग्रीन ने लिखा है कि राज्य का आधार लोगों की इच्छा है। अतः राज्य हिंसा और शक्ति पर आधारित नहीं है। राज्य शक्ति का उपयोग केवल कुछ अपराधियों तथा कानून तोड़ने वालों के विरुद्ध करता है, न कि जनता के विरुद्ध। जब आम जनता सरकार के विरुद्ध हो जाती है, तो उसकी सेना भी हथियार डाल देती है। क्रांतियाँ इसकी उदाहरण हैं।

2. हिंसा के द्वारा हिंसा की समाप्ति अल्प होती है:
जब हिंसा के द्वारा हिंसा को समाप्त किया जाता है, तो यह थोड़े समय के लिए हो सकती है, स्थायी नहीं। जब शत्रु या विपक्षी यह देखता है कि वह इस समय कमजोर है, वह झुक जाता है और हमेशा इस अवसर की तलाश में रहता है कि इसका बदला ले सके। जिस व्यक्ति के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग किया जाता है, वह हिंसा उसके मस्तिष्क में उससे बदला लेने की भावना पैदा कर देती है। इस प्रकार हिंसा द्वारा हिंसा की समाप्ति या शांति की स्थापना अल्पकालिक होती है।

3. हिंसा की प्रवृत्ति नियंत्रण से बाहर हो जाने की है:
चाहे हिंसा का मकसद कितना ही अच्छा क्यों न रहा हो, लेकिन अपनी नियंत्रण से बाहर हो जाने की प्रवृत्ति के कारण यह आत्मघाती होती है। एक बार शुरू हो जाने पर इसकी प्रवृत्ति नियंत्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि हिंसा हिंसा को बढ़ाती है, न कि कम करती है।

4. हिंसा हृदय परिवर्तन के द्वारा समाप्त की जानी चाहिए:
शांतिवादियों का मकसद लड़ाकुओं की हिंसा को कम करके आंकना नहीं, प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर बल देना है। वैसे संघर्षों का एक प्रमुख तरीका सविनय अवज्ञा है और उत्पीड़न की संरचना की नींव हिलाने में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल होता रहा है। भारतीय स्वतंत्रता आदोलन के दौरान गांधीजी द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है। नागरिक अवज्ञा के दबाव में अन्यायपूर्ण संरचनाएँ भी रास्ता दे सकती हैं। कभी-कभार वे अपनी विसंगतियों के बोझ से ध्वस्त भी हो सकती हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौनसी बात धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत है।
(अ) किसी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता देना।
(ब) राज्य द्वारा किसी खास धर्म के साथ गठजोड़ बनाना।
(स) सरकार द्वारा धार्मिक संस्थाओं की प्रबन्धन समितियों की नियुक्ति करना।
(द) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
उत्तर:
(द) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।

2. निम्न में से कौनसी विशेषता पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता की नहीं है।
(अ) राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति।
(ब) धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अटल नीति।
(स) विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता पर बल देना।
(द) एक धर्म के भिन्न पंथों के बीच समानता पर बल देना।
उत्तर:
(अ) राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति।

3. निम्न में से कौनसी विशेषता भारतीय धर्म निरपेक्षता की है
(अ) धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अटल नीति ।
(ब) राज्य धार्मिक सुधारों हेतु दखल नहीं दे सकता।
(स) व्यक्ति और उसके अधिकारों को ही महत्त्व देना।
(द) अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ध्यान देना।
उत्तर:
(द) अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ध्यान देना।

4. निम्न में से कौनसी भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचना नहीं है।
(अ) धर्म-विरोधी
(स) सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण
(ब) पश्चिम से आयातित
(द) अल्पसंख्यकवाद।
उत्तर:
(स) सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

5. धर्म निरपेक्षता की संकल्पना के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(अ) व्यक्तिगत समानता
(स) अंतः धार्मिक समानता
(ब) अंतर – धार्मिक समानता
(द) अन्तर- धार्मिक व अंत: धार्मिक समानता
उत्तर:
(द) अन्तर- धार्मिक व अंत: धार्मिक समानता

6. धर्म निरपेक्षता विरोध करती है।
(अ) स्वतंत्रता का
(ब) समानता का
(स) धार्मिक वर्चस्व का
(द) राज्य सत्ता का
उत्तर:
(स) धार्मिक वर्चस्व का

7. धर्म निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल में धर्म है।
(अ) एक निजी मामला
(स) चर्च का मामला
(ब) सरकार का मामला
(द) न्यायालय का मामला
उत्तर:
(अ) एक निजी मामला

8. भारतीय धर्म निरपेक्षता राज्य को अनुमति देती है।
(अ) धार्मिक भेदभाव की
(स) धार्मिक सुधार की
(ब) धार्मिक आयोजनों की
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(स) धार्मिक सुधार की

9. धर्म निरपेक्षता बढ़ावा देती हैं।
(अ) धर्मों में समानता को
(ब) धर्मतांत्रिक राज्य को
(स) अस्पृश्यता को
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(अ) धर्मों में समानता को

10. धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता के लिये जरूरी है।
(अ) धर्म में हस्तक्षेप
(स) धर्म का विरोध
(ब) एक राज्य धर्म
(द) धर्म से सम्बन्ध विच्छेद
उत्तर:
(द) धर्म से सम्बन्ध विच्छेद

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

11. धर्मनिरपेक्ष राज्यों में निम्न में से कौनसा शामिल नहीं होना चाहिए।
(अ) धार्मिक स्वतंत्रता
(ब) धार्मिक भेदभाव
(सं) अन्तर – धार्मिक समानता
(द) अंत: धार्मिक समानता
उत्तर:
(ब) धार्मिक भेदभाव

12. सभी धर्म निरपेक्ष राज्यों में कौनसी बात सामान्य है।
(अ) वे धर्मतांत्रिक हैं।
(ब) वे किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।
(स) वे न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) वे न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. भारत में धर्मनिरपेक्षता का विचार ………………… वाद विवादों और परिचर्चाओं में सदैव मौजूद रहा है।
उत्तर:
सार्वजनिक

2. पड़ौसी देश, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ……………….. की स्थिति ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
उत्तर:
धार्मिक अल्पसंख्यकों

3. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त …………………. वर्चस्व का विरोध करता है।
उत्तर:
अंतर – धार्मिक

4. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त …………………. वर्चस्व का भी विरोध करता है।
उत्तर:
अंतः धार्मिक

5. धर्म और राज्य सत्ता के बीच संबंध विच्छेद ……………………. राज्यसत्ता के लिए जरूरी है।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्ष

6. भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित ………………… सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी।
उत्तर:
धार्मिक

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. भारतीय धर्मनिरपेक्षता का संबंध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं है, अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है।
उत्तर:
सत्यं

2. भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश नहीं है।
उत्तर:
असत्य

3. भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अन्तः धार्मिक और अंतर- धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित नहीं किया है।
उत्तर:
असत्य

4. भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म से सैद्धान्तिक दूरी कायम रखने के सिद्धान्त पर चलती है जो हस्तक्षेप की गुंजाइश भी बनाती है।
उत्तर:
सत्य

5. धर्मनिरपेक्षता के अमेरिकी मॉडल में धर्म और राज्य सत्ता के संबंध विच्छेद को पारस्परिक निषेध के रूप में समझा जाता है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों (अ) धर्मनिरपेक्षता का उत्पीड़न
2. अन्तर धार्मिक वर्चस्व एवं अंतः धार्मिक वर्चस्व दोनों (ब) धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद का विरोध करना
3. देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू महिलाओं का मंदिरों (स) धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल में प्रवेश वर्जित
4. धर्म और राज्यसत्ता के संबंध विच्छेद को परस्पर निषेध के रूप में समझना (द) भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मॉडल
5. वह धर्मनिरेपक्षता जो धर्म और राज्य के बीच पूर्ण (य) धर्मों के बीच वर्चस्ववाद

उत्तर:

1. पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों (य) धर्मों के बीच वर्चस्ववाद
2. अन्तर धार्मिक वर्चस्व एवं अंतः धार्मिक वर्चस्व दोनों (अ) धर्मनिरपेक्षता का उत्पीड़न
3. देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू महिलाओं का मंदिरों (ब) धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद का विरोध करना
4. धर्म और राज्यसत्ता के संबंध विच्छेद को परस्पर निषेध के रूप में समझना (स) धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल में प्रवेश वर्जित
5. वह धर्मनिरेपक्षता जो धर्म और राज्य के बीच पूर्ण (द) भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मॉडल


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मतांत्रिक राज्य किसे कहा जाता है?
उत्तर;
धर्मतांत्रिक राज्य उस राज्य को कहते हैं जो किसी धर्म विशेष को राज्य का धर्म घोषित कर उसे संरक्षण प्रदान करता है।

प्रश्न 2.
धार्मिक भेदभाव रोकने का कोई एक रास्ता बताइये।
उत्तर:
हमें आपसी जागरूकता के साथ एक साथ मिलकर काम करना चाहिए।

प्रश्न 3.
धर्म निरपेक्षता कैसा समाज बनाना चाहती है?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता अंतर- धार्मिक तथा अंतः धार्मिक दोनों प्रकार के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 4.
किसी धार्मिक समूह के वर्चस्व को रोकने के लिए राष्ट्र को किस बात से बचना चाहिए?
उत्तर:
राष्ट्र को किसी भी धर्म के साथ किसी भी प्रकार के गठजोड़ से बचना चाहिए।

प्रश्न 5.
धर्म निरपेक्षता किस बात को बढ़ावा देती है?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है

प्रश्न 6.
भारत में धर्म निरपेक्षता का विकास किस बात को ध्यान में रखकर हुआ है?
उत्तर:
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को ध्यान में रखकर।

प्रश्न 7.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य धर्म से कैसा सम्बन्ध रखता है?
उत्तर:
इसमें राज्य धर्म के सैद्धान्तिक दूरी रखते हुए उसमें हस्तक्षेप की गुंजाइश रखता है।

प्रश्न 8.
सभी धर्म निरपेक्ष राज्यों में कौनसी चीज सामान्य है?
उत्तर:
सभी धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।

प्रश्न 9.
“हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे दो दशक के बाद भी अपने घर नहीं लौट सके हैं।” यह कथन क्या दर्शाता है?
उत्तर:
यह कथन अन्तर: धार्मिक वर्चस्व और एक धार्मिक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के उत्पीड़न को दर्शाता है।

प्रश्न 10.
धर्म निरपेक्षता के दो पहलू कौनसे हैं?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता के दो पहलू हैं।

  1. अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध और
  2. अंतः धार्मिक वर्चस्व का विरोध।

प्रश्न 11.
अन्तर- धार्मिक वर्चस्व से क्या आशय है?
उत्तर:
अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का आशय है। नागरिकों के एक धार्मिक समूह द्वारा दूसरे समूह को बुनियादी आजादी से वंचित करना।

प्रश्न 12.
अंत: धार्मिक वर्चस्व से क्या आशय है?
उत्तर:
अंतः धार्मिक वर्चस्व से आशय है धर्म के अन्दर छिपा वर्चस्व

प्रश्न 13.
धर्मतांत्रिक राष्ट्र किस बात के लिए कुख्यात रहे हैं?
उत्तर:
धर्मतांत्रिक राष्ट्र अपनी श्रेणीबद्धता, उत्पीड़न और दूसरे धार्मिक समूह के सदस्यों को धार्मिक स्वतंत्रता न देने के लिए कुख्यात रहे हैं।

प्रश्न 14.
किन्हीं दो धर्मतांत्रिक राष्ट्रों के उदाहरण दीजिये।
उत्तर:

  1. मध्यकालीन यूरोप में पोप की राज्य सत्ता और
  2. आधुनिक काल में अफगानिस्तान में तालिबानी राज्य सत्ता धर्मतांत्रिक राष्ट्रों के उदाहरण हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 15.
आधुनिक काल में विद्यमान ऐसा राज्य कौनसा है जो धर्मतांत्रिक न होते हुए भी किसी खास धर्म के साथ गठजोड़ बनाये हुए है? थी।
उत्तर:
पाकिस्तान यद्यपि धर्मतांत्रिक राष्ट्र नहीं है, लेकिन सुन्नी इस्लाम उसका आधिकारिक राज्य धर्म है।

प्रश्न 16.
20वीं सदी में तुर्की में किस शासक ने धर्म निरपेक्षता पर अमल किया?
उत्तर:
मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने।

प्रश्न 17.
मुस्तफा कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप कैसा था?
उत्तर:
मुस्तफा कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता धर्म में सक्रिय हस्तक्षेप के जरिए उसके दमन की हिमायत करती

प्रश्न 18.
जवाहर लाल नेहरू की धर्म निरपेक्षता का स्वरूप कैसा था?
उत्तर:
नेहरू की धर्म निरपेक्षता थी। सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में धर्म निरपेक्षता की स्थिति को लेकर कौनसे मामले काफी पेचीदा हैं?
उत्तर:

  1. एक ओर तो यहाँ प्रायः हर राजनेता धर्म निरपेक्षता की शपथ लेता है, हर राजनीतिक दल धर्म निरपेक्ष होने की घोषणा करता है।
  2. दूसरी ओर, तमाम तरह की चिंताएँ और संदेह धर्म निरपेक्षता को घेरे रहते हैं। पुरोहितों, धार्मिक राष्ट्रवादियों, कुछ राजनीतिज्ञों तथा शिक्षाविदों द्वारा धर्म निरपेक्षता का विरोध किया जाता है।

प्रश्न 2.
धर्म निरपेक्षता क्या है?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता एक ऐसा नियामक सिद्धान्त है जो अन्तर- धार्मिक और अंतः धार्मिक, दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है। यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है।

प्रश्न 3.
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद से क्या आशय है?
अन्तर:
धार्मिक वर्चस्व को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
उत्तर:
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद अर्थात् अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का आशय यह है कि किसी देश या समाज में बहुसंख्यक धर्मावलम्बी अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों या किसी एक अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों को उनकी धार्मिक पहचान के कारण उत्पीड़ित करते हैं। दूसरे शब्दों में, नागरिकों के एक धार्मिक समूह को दुनिया की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है।

प्रश्न 4.
धर्म के अन्दर वर्चस्व ( अन्तः धार्मिक वर्चस्व ) से क्या आशय है?
उत्तर:
किसी देश में जब एक धर्म कई धार्मिक सम्प्रदायों में विभाजित हो जाता है और वे धार्मिक सम्प्रदाय परस्पर अपने से भिन्न मत रखने वाले सम्प्रदाय के सदस्यों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं, तो यह अन्तः धार्मिक वर्चस्ववाद कहा जाता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 5.
धार्मिक भेदभाव रोकने के कोई तीन व्यक्तिगत रास्ते बताइये।
उत्तर:

  1. हम आपसी जागरूकता के लिए मिलकर काम करें।
  2. हम शिक्षा के द्वारा लोगों की सोच बदलने का प्रयास करें।
  3. हम साझेदारी और पारस्परिक सहायता के व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों के संदेहों को दूर करें।

प्रश्न 6.
एक राष्ट्र को किसी धार्मिक समूह के वर्चस्व को कैसे रोकना चाहिए?
उत्तर:
एक राष्ट्र को किसी धार्मिक समूह के वर्चस्व को रोकने हेतु निम्न प्रयास करने चाहिए

  1. प्रथमत: संगठित धर्म और राज्य सत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद होना चाहिए।
  2. दूसरे, उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना होगा।
  3. तीसरे, उसे शांति, धार्मिक स्वतंत्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी, अन्तर- धार्मिक तथा अन्तः धार्मिक समानता के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।

प्रश्न 7.
धर्म निरपेक्षता की यूरोपीय या अमेरिकी मॉडल की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय या अमेरिकी मॉडल की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. राज्यसत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्यसत्ता के मामलों में दखल नहीं देगा। दोनों के अपने अलग-अलग क्षेत्र व सीमाएँ हैं।
  2. राज्य किसी धार्मिक संस्था को मदद नहीं देगा।

प्रश्न 8.
धर्म निरपेक्षता के भारतीय मॉडल की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता के भारतीय मॉडल की विशेषताएँ :

  1. भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं, अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है।
  2. भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है।

प्रश्न 9.
भारतीय राज्य धार्मिक सुधारों की पहल करते हुए और धर्म से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किये बिना किस आधार पर धर्म निरपेक्ष होने का दावा करता है?
उत्तर:
धार्मिक सुधारों की पहल करते हुए और धर्म से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किये बिना भी भारतीय राज्य का धर्म निरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न ही किसी धर्म को राजधर्म मानता है। इसके परे, इसने धार्मिक समानता के लिए अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है।

प्रश्न 10.
क्या भारतीय धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवादी है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
नहीं, भारतीय धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवादी नहीं है क्योंकि भारत में अल्पसंख्यकों को जो विशेषाधिकार दिये गये हैं, वे उनके धर्म की सुरक्षा तथा बहुसंख्यक धार्मिक समूहों के वर्चस्व को रोकने के लिए दिये गये हैं, न कि उनके वर्चस्व को स्थापित करने के लिए।

प्रश्न 11.
धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है- हमारे अधिकांश दुःख-दर्द मानव निर्मित हैं, इसलिए उनका अन्त हो सकता है। लेकिन हमारे कुछ कष्ट मानव निर्मित नहीं हैं। धर्म, कला और दर्शन ऐसे दुःख-दर्दों के सटीक प्रत्युत्तर हैं। धर्म निरपेक्षता इस तथ्य को स्वीकार करती है और इसीलिए धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है।

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प्रश्न 12.
धर्म निरपेक्ष होने के लिए किसी राज्य सत्ता को क्या-क्या करना होगा?
उत्तर:
धर्म निरपेक्ष होने के लिए किसी राज्य सत्ता को निम्नलिखित बातों को अपनाना होगाv

  1. धर्म निरपेक्ष होने के लिए राज्य सत्ता को धर्मतांत्रिक होने से इनकार करना होगा अर्थात् संगठित धर्म और राज्यसत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद होना चाहिए।
  2. उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना होगा।
  3. धर्म निरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो अंशत: ही सही, गैर-धार्मिक स्रोतों से निकलते हैं। ऐसे लक्ष्यों में शांति; धार्मिक स्वतंत्रता; धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्ज़ना से आजादी; और साथ ही अन्तर- धार्मिक व अंत: धार्मिक समानता शामिल रहनी चाहिए।

प्रश्न 13.
धर्म निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल- धर्म निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित

  1. राज्य सत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्यसत्ता के मामलों में दखल नहीं देगा। दोनों के अपने अलग-अलग क्षेत्र हैं और अलग-अलग सीमाएँ हैं।
  2. राज्य किसी धार्मिक संस्था को मदद नहीं देगा। वह धार्मिक समुदायों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं को वित्तीय सहयोग नहीं देगा।
  3. जब तक धार्मिक समुदायों की गतिविधियाँ देश के कानून द्वारा निर्मित व्यापक सीमा के अन्दर होती हैं, वह इन गतिविधियों में व्यवधान पैदा नहीं कर सकता।
  4. पश्चिमी धर्म निरपेक्षता स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है। यह व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों की बात करती है। इसमें समुदाय आधारित अधिकारों अथवा अल्पसंख्यक अधिकारों की कोई गुंजाइश नहीं है।
  5. इसमें राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई जगह नहीं है।

प्रश्न 14.
भारतीय राज्य धर्म और राज्य के बीच पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किये बिना अपनी धर्म निरपेक्षता का दावा किस आधार पर करती है? भारतीय धर्म निरपेक्षता में धर्म और राज्यसत्ता के मध्य सम्बन्धों के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
अथवा.
धर्म निरपेक्षता के भारतीय मॉडल को समझाइये।
अथवा
भारतीय धर्म निरपेक्षता की विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता का स्वरूप: भारतीय राज्य का धर्म निरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न किसी धर्म को राजधर्म मानता है। इस सिद्धान्त को मानते हुए इसने विभिन्न धर्मों व पंथों के बीच समानता हासिल करने के लिए परिष्कृत नीति अपनायी है। इसी नीति के चलते वह अमेरिका शैली में धर्म से विलग भी हो सकता है या जरूरत पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध: भारतीय राज्य धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध भी बना सकता है। यह बात अस्पृश्यता पर प्रतिबंध जैसी कार्यवाहियों में झलकती है।
  2. धर्म के साथ जुड़ाव के सम्बन्ध: भारतीय राज्य धर्म के साथ जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी चुन सकता है। इसीलिए संविधान तमाम धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी खुद की शिक्षण संस्थाएँ खोलने और चलाने का अधिकार देता है जिन्हें राज्य सत्ता की ओर से सहायता भी मिल सकती है।
  3. शांति, स्वतंत्रता और समानता पर बल: भारतीय राज्य शांति, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए वह धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध बनाने या जुड़ाव के सम्बन्ध बनाने की कोई भी रणनीति अपना सकता है।
  4. सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति: भारतीय धर्म निरपेक्षता तमाम धर्मों में सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है। ऐसा हस्तक्षेप हर धर्म के कुछ खास पहलुओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित करता है। जैसे धर्म के स्तर पर मान्य जातिगत विभाजन को अस्वीकार करना।

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प्रश्न 15.
धर्म निरपेक्ष राज्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्ष राज्य की विशेषताएँ। धर्म निरपेक्ष राज्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. धर्म निरपेक्ष राज्य में राज्य सत्ता और धर्म में पृथकता होती है। दोनों के अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्र होते हैं।
  2. धर्म निरपेक्ष राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राजकीय धर्म मानता है और न किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करता है।
  3. धर्म निरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को कानून के समक्ष समान समझा जाता है। किसी धर्म का दूसरे धर्म पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता और न ही राज्य दूसरे धर्मों की तुलना में किसी विशेष धर्म को प्राथमिकता देता है।
  4. धर्म निरपेक्ष राज्य के लोग धार्मिक स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं। किसी व्यक्ति पर किसी विशेष धर्म को लादा नहीं जाता। प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता दी जाती है कि वह किसी भी धर्म को माने और पूजा की कोई भी विधि अपना सकता है।
  5. सामान्यतः राज्य तब तक लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि किसी धार्मिक समुदाय की गतिविधि या धार्मिक संस्थाएँ कानून के विरुद्ध कार्य न करें तथा शांति व्यवस्था की समस्या खड़ी न करें।
  6. राज्य समाज में व्याप्त विविध धर्मों के बीच कोई भेदभाव नहीं करता है।
  7. राज्य धर्म के आधार पर सरकारी सेवाओं में अवसरों को प्रदान करने तथा अधिकार प्रदान करने के सम्बन्ध में व्यक्तियों के बीच कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बना सकता है।
  8. धर्म निरपेक्ष राज्य में व्यक्ति को एक नागरिक होने के नाते अधिकार प्रदान किये जाते हैं, न कि किसी धार्मिक समुदाय का सदस्य होने के नाते।

प्रश्न 16.
भारत में राजपत्रित अवकाशों की सूची को ध्यान से पढ़ें। क्या यह भारत में धर्म निरपेक्षता का उदाहरण प्रस्तुत करती है? तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:

  1. भारत में उपर्युक्त राजपत्रित अवकाशों की सूची में सभी धर्मों – हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, जैन तथा बौद्ध धर्मों के प्रमुख त्यौहारों को छुट्टी प्रदान कर प्रत्येक धर्मावलम्बी को अपना त्यौहार स्वतंत्रतापूर्वक मनाने का समान अवसर दिया गया है।
  2. दूसरे, सभी धर्मों के त्यौहारों पर सभी धर्मावलम्बियों को छुट्टी प्रदान की गई है ताकि सभी लोग एक-दूसरे के त्यौहारों में शरीक हो सकें। इस प्रकार सभी धर्मावलम्बियों को समान महत्त्व दिया गया है। यह भारतीय धर्म निरपेक्षता का स्पष्ट उदाहरण है।

प्रश्न 17.
धर्म निरपेक्षता के बारे में नेहरू के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता के बारे में नेहरू के विचार – नेहरू स्वयं किसी धर्म का अनुसरण नहीं करते थे। लेकिन उनके लिए धर्म निरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति विद्वेष नहीं था। उनके लिए धर्म निरपेक्षता का अर्थ था।

  1. सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण।
  2. वे ऐसा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे जो सभी धर्मों की हिफाजत करे, अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करे और खुद किसी धर्म को राज्य धर्म के बतौर स्वीकार न करे।
  3. वे धर्म और राज्य के बीच पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद के पक्ष में भी नहीं थे। उनके विचार के अनुसार, समाज में सुधार के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्य सत्ता धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकती है।
  4. उनके लिए धर्म निरपेक्षता का मतलब था तमाम किस्म की साम्प्रदायिकता का पूर्ण विरोध।
  5. उनके लिए धर्म निरपेक्षता सिद्धान्त का मामला भर नहीं था, वह भारत की एकता और अखंडता की एकमात्र गांरटी भी था। इसलिए बहुसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता की आलोचना में वे खास तौर पर कठोरता बरतते थे क्योंकि इससे राष्ट्रीय एकता पर खतरा उत्पन्न होता था।

प्रश्न 18.
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद को दर्शाने वाले कोई तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद को दर्शाने वाले तीन उदाहरण निम्नलिखित हैं।

  1. 1984 में दिल्ली और देश के बाकी हिस्सों में लगभग चार हजार सिख मारे गये। पीड़ितों के परिवारजनों का मानना है कि दोषियों को आज तक सजा नहीं मिली है।
  2. हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे दो दशकों के बाद भी अपने घर नहीं लौट सके हैं।
  3. सन् 2002 में गुजरात में लगभग 2000 मुसलमान मारे गए। इन परिवारों के जीवित बचे हुए बहुत से सदस्य अभी भी अपने गाँव वापस नहीं जा सके हैं, जहाँ से वे उजाड़ दिए गए थे।
    इन सभी उदाहरणों में हर मामले में किसी एक धार्मिक समुदाय को लक्ष्य किया गया है और उसके लोगों को उनकी धार्मिक पहचान के कारण सताया गया है; उन्हें बुनियादी आजादी से वंचित किया गया है।

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प्रश्न 19.
अंतः धार्मिक वर्चस्व को सोदाहरण समझाइये। धर्म के अन्दर वर्चस्व को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
उत्तर:

  1. एक ही धर्म के अन्दर एक वर्ग – विशेष का बोलबाला ( वर्चस्व ) होने की स्थिति अन्तः धार्मिक वर्चस्व की स्थिति कहलाती है।
  2. जब कोई धर्म एक संगठन में बदलता है तो आम तौर पर इसका सर्वाधिक रूढ़िवादी हिस्सा इस पर हावी हो जाता है जो किसी किस्म की असहमति बर्दाश्त नहीं करता। अमेरिका के कुछ हिस्सों में धार्मिक रूढ़िवाद बड़ी समस्या बन गया है जो देश के अन्दर भी शांति के लिए खतरा पैदा कर रहा है और बाहर भी । हिन्दू धर्म में कुछ तबके भेदभाव से स्थायी तौर पर पीड़ित रहे हैं। मसलन, दलितों को हिन्दू मंदिरों में प्रवेश से हमेशा रोका जाता है। देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू महिलाओं का भी मंदिरों में प्रवेश वर्जित है।
  3. कई धर्म संप्रदायों में टूट जाते हैं और निरन्तर आपसी हिंसा और भिन्न मत रखने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं। उपर्युक्त तीनों ही उदाहरण धर्म के अन्दर वर्चस्व के हैं।

प्रश्न 20.
अल्पसंख्यकवाद से क्या आशय है? क्या भारत में अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेषाधिकारों के रूप में देखा जाना चाहिए?
उत्तर:
अल्पसंख्यकवाद: भारतीय धर्मनिरपेक्षता की एक आलोचना अल्पसंख्यकवाद कहकर की जाती है। इसका आशय यह है कि भारतीय राज्य सत्ता अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी करती है और उन्हें विशेष सुविधाएँ प्रदान करती है। इस प्रकार भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म के आधार पर भेदभाव करती है। लेकिन यह आलोचना त्रुटिपरक है। क्योंकि अपने महत्त्वपूर्ण हितों की पूर्ति किसी व्यक्ति का प्राथमिक अधिकार होता है और जो बात व्यक्तियों के लिए सही . है, वह समुदायों के लिए भी सही होगी।

इस आधार पर अल्पसंख्यकों के सर्वाधिक मौलिक हितों की क्षति नहीं होनी चाहिए और संवैधानिक कानून द्वारा उसकी हिफाजत की जानी चाहिए। भारतीय संविधान में ठीक इसी तरीके से इस पर विचार किया गया है। जिस हद तक अल्पसंख्यकों के अधिकार उनके मौलिक हितों की रक्षा करते हैं, उस हद तक वे न्यायसंगत हैं। अल्पसंख्यकों को जो विशेष अधिकार दिये जा रहे हैं, उसका उद्देश्य उन्हें समान अवसर प्रदान करने की विधान है, न कि उन्हें विशेष अधिकार देना। उनके लिए यह वैसे ही सम्मान और गरिमा से भरा बरताव है जो दूसरों के साथ किया जा रहा है। इसका मतलब यही है कि अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष सुविधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय धर्म निरपेक्षता और पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता और पश्चिमी धर्म निरपेक्षता में अन्तर – यद्यपि सभी धर्म निरपेक्ष राज्यों में कुछ विशेषताएँ कॉमन होती हैं जैसे-

  1. राज्य धर्म पर आधारित नहीं है।
  2. राज्य किसी विशेष धर्म को न तो अंगीकर करता है और न उसे स्थापित करता है तथा
  3. राज्य और धर्म में पृथकता होती है।

लेकिन राज्य धर्म से किस सीमा तक दूरी रखता है, यह प्रत्येक धर्म निरपेक्ष राज्य में भिन्न-भिन्न होता है। भारतीय धर्म निरपेक्ष मॉडल और अमेरिकी मॉडल पर आधारित पाश्चात्य धर्म निरपेक्ष मॉडल में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

1. धर्म और राज्य सत्ता की पृथकता:
पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता के अन्तर्गत राज्य और धर्म के बीच पूर्ण पृथकता है। इस विच्छेद को पारस्पिक निषेध के रूप में समझा जाता है। इसका अर्थ है- राज्य सत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्य सत्ता के मामलों में दखल नहीं देगा। दोनों के अपने अलग-अलग कार्य व क्षेत्र हैं। राज्य सत्ता की कोई नीति पूर्णतः धार्मिक तर्क के आधार पर निर्मित नहीं हो सकती। लेकिन भारत में इस तरह की पूर्ण और पारस्परिक पृथकता नहीं है।

भारतीय राज्य सैद्धान्तिक दूरी की नीति का पालन करता है। इसी आधार पर राज्य ने हिन्दुओं में स्त्रियों और दलितों के शोषण का विरोध किया है। इसने भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया है।

2. धार्मिक संस्थाओं को सहायता:
पाश्चात्य, धर्म निरपेक्षता के अन्तर्गत, राज्य धार्मिक संस्थाओं को मदद नहीं दे सकता, वह धार्मिक समुदायों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं को वित्तीय सहयोग नहीं दे सकता। वे अपने कार्यों की व्यवस्था स्वयं के व्यक्तिगत प्रयासों से ही करते हैं। इसी के साथ-साथ राज्य धार्मिक संस्थाओं के कार्यों में तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता, जब तक कि वे कानून द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करती हैं।

लेकिन भारत में राज्य धार्मिक संस्थाओं को आर्थिक मदद देता है। वह धार्मिक समुदायों और अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक सहयोग दे सकता है । यह उनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है और उनसे कुछ निश्चित नियमों तथा विनियमों को पालन करने के लिए कह सकता है।

3. धर्म की स्वतंत्रता:
पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है। इसका अभिप्राय है कि राज्य केवल व्यक्तियों, नागरिकों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को ही मान्यता देता है। यह अल्पसंख्यक समुदायों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता नहीं देता।

लेकिन भारत में राज्य न केवल व्यक्तियों, नागरिकों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता देता है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को भी मान्यता देता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम रखने का अधिकार है तथा वे शांतिपूर्ण ढंग से अपने धर्म का प्रचार भी कर सकती हैं।

4. राज्य समर्थित धार्मिक सुधार:
पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यह राज्यसत्ता और धर्मसत्ता के बीच अटल विभाजन में विश्वास करती है। इसलिए राज्य धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन भारतीय धर्मनिरपेक्षता राज्य समर्थित धार्मिक सुधारों की वकालत करती है तथा सैद्धान्तिक दूरी के सिद्धान्त को अपनाती है। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। भारतीय राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को खत्म करने हेतु कानून बनाए हैं।

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प्रश्न 2.
धर्म निरपेक्षवाद से क्या आशय है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षवाद का अर्थ: सामान्य अर्थ में धर्म निरपेक्षवाद एक ऐसा वातावरण है जहाँ कानून की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं अर्थात् कानून सभी धर्मों के साथ समान रूप से व्यवहार करता है; लोग धार्मिक स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं तथा जहाँ राज्य के प्रशासन और मानव जीवन के ऊपर किसी धर्म का वर्चस्व नहीं है। राज्य सत्ता और धर्म को अलग-अलग रखा जाता है और प्रशासन धार्मिक नियमों के अनुसार नहीं चलता बल्कि वह सरकार द्वारा पारित कानूनों के अनुसार चलता है। एक समाज जिसमें ऐसा वातावरण पाया जाता है, उसे धर्म निरपेक्ष समाज कहा जाता है और एक राज्य जिसमें ऐसा वातावरण पाया जाता है उसे धर्म निरपेक्ष राज्य कहा जाता है। धर्म निरपेक्षवाद की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

1. डोनाल्ड स्मिथ के शब्दों में, “धर्म निरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसके अन्तर्गत धर्म-विषयक, व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है, जो व्यक्ति के साथ व्यवहार करते समय धर्म को बीच में नहीं लाता है, जो संवैधानिक रूप से किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है और न किसी धर्म की उन्नति का प्रयत्न करता है और न ही किसी धर्म के मामले में हस्तक्षेप करता है। ”

2. श्री लक्ष्मीकांत मैत्र के अनुसार, ” धर्म निरपेक्ष राज्य से अभिप्राय यह है कि ऐसा राज्य धर्म या धार्मिक समुदाय के आधार पर किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई भेदभाव नहीं करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य की ओर से . किसी विशिष्ट धर्म को मान्यता प्राप्त नहीं होगी।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि धर्म निरपेक्ष राज्य से अभिप्राय एक ऐसे राज्य से है जिसका अपना कोई धर्म नहीं होता और जो धर्म के आधार पर व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं करता। इसका अर्थ एक अधर्मी या धर्म विरोधी या नास्तिक राज्य से नहीं है बल्कि एक ऐसे राज्य से है जो धार्मिक मामलों में तटस्थ रहता है क्योंकि यह धर्म को व्यक्ति की निजी वस्तु मानता है।

धर्म निरपेक्षवाद की विशेषताएँ: धर्म निरपेक्षवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. धर्मों के बीच वर्चस्ववाद का विरोध;
धर्म निरपेक्षता को सर्वप्रमुख रूप से ऐसा सिद्धान्त समझा जाना चाहिए जो विभिन्न धर्मों के बीच किसी भी धर्म के वर्चस्ववाद का विरोध करता है अर्थात् यह अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। यह समाज में विद्यमान विभिन्न धर्मों के बीच समानता पर बल देता है तथा सभी धर्मों की आजादी को बढ़ावा देता है। दूसरे शब्दों में

  • सभी धर्म समान स्तर पर आधारित हैं और समाज में उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाता है।
  • दूसरे धर्मों पर किसी एक धर्म के वर्चस्व का यह विरोध करता है तथा वे एक-दूसरे को समान आदर देते हैं।
  • धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति का दूसरों पर वर्चस्व नहीं होना चाहिए।

2. धर्म के अन्दर वर्चस्व का विरोध:
धर्म निरपेक्षता का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है। धर्म के अन्दर छुपे वर्चस्व का विरोध करना अर्थात् अन्तः धार्मिक वर्चस्व का विरोध करना। जब कोई धर्म एक संगठन में बदलता है तो आम तौर पर इसका सर्वाधिक रूढ़िवादी हिस्सा इस पर हावी हो जाता है जो किसी किस्म की असहमति बर्दाश्त नहीं करता। अमेरिका के कुछ हिस्सों में धार्मिक रूढ़िवाद बड़ी समस्या बन गया है जो देश के अन्दर भी शांति के लिए खतरा पैदा कर रहा है. और बाहर भी।

हिन्दू धर्म में कुछ तबके भेदभाव से स्थायी रूप से पीड़ित रहे हैं। मसलन, दलितों को हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश से रोका जाता रहा है। कई धर्म सम्प्रदायों में टूट जाते हैं और निरन्तर आपसी हिंसा तथा भिन्न मत रखने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं। ये स्थितियाँ धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद की हैं। धर्म निरपेक्षवाद धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद के सभी रूपों का विरोध करता है।

3. धर्म निरपेक्ष राज्य: धर्म निरपेक्षतावाद धर्म निरपेक्ष समाज के साथ-साथ धर्म निरपेक्ष राज्य का समर्थन करता है। धर्म निरपेक्ष राज्य की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  • राज्य सत्ता किसी खास धर्म के प्रमुखों द्वारा संचालित नहीं होनी चाहिए।
  • धार्मिक संस्थाओं और राज्य सत्ता की संस्थाओं के बीच सम्बन्ध विच्छेद अवश्य होना चाहिए।
  • राज्य सत्ता को किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से दूर रहना आवश्यक है।
  • राज्य सत्ता को शांति, धार्मिक स्वतंत्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी, अन्तर-1 – धार्मिक समानता और अन्तः धार्मिक समानता के लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।

4. अन्य विशेषताएँ: धर्म निरपेक्षवाद की निम्न अन्य प्रमुख विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं।

  • राज्य को व्यक्तियों के धार्मिक मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक कि उसकी गतिविधियाँ कानून द्वारा निर्धारित सीमाओं के बाहर न हों, शांति व्यवस्था व देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा न हों।
  • समाज में सभी व्यक्तियों को किसी भी धर्म को अपनाने, उसके प्रति विश्वास रखने तथा इच्छानुसार पूजा-पाठ करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
धर्म निरपेक्षता के भारतीय मॉडल की प्रमुख विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता का भारतीय मॉडल: भारतीय धर्म निरपेक्षता पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
1. अन्तर-धार्मिक समानता:
भारतीय धर्म निरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर बल नहीं देती है। यह अन्तर- धार्मिक समानता पर अधिक बल देती है। भारत में पहल से ही अन्तर- धार्मिक सहिष्णुता की संस्कृति मौजूद थी। पश्चिमी आधुनिकता के आगमन ने भारतीय चिंतन में समानता की अवधारणा को सतह पर ला दिया जिसने समुदाय के अन्दर समानता पर बल देने की ओर अग्रसर किया और अन्तर सामुदायिकता के विचार को उद्घाटित किया। इस प्रकार धार्मिक विविधता,

‘अन्तर – धार्मिक सहिष्णुता’ और ‘अन्तर – सामुदायिक समानता’ ने परस्पर अन्तःक्रिया कर भारतीय धर्म निरपेक्षता की ‘अन्तर- धार्मिक समानता’ की विशिष्टता को निर्मित किया। ‘ अन्तर- धार्मिक समानता’ की प्रमुख विशेषताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

  • राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और न ही वह किसी विशेष धर्म को औपचारिक रूप से बढ़ावा देगा अर्थात् भारतीय राज्य न तो धर्मतांत्रिक है और न ही वह किसी धर्म को राजधर्म मानता है।
  • राज्य की दृष्टि में सभी धर्म एकसमान हैं। वह सभी धर्मों को समान संरक्षण प्रदान करता है।
  • कानून की दृष्टि में सभी धर्मों के व्यक्ति समान हैं। धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।
  • सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है।

2. व्यक्तियों तथा अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है। इस विशेषता के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का समावेश किया गया है।

  • हर व्यक्ति को अपने पसंद का धर्म मानने तथा अपनी पसंद के अनुसार पूजा-पाठ करने की स्वतंत्रता है। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म में विश्वास रखने, धार्मिक कार्य करने तथा प्रचार करने का अधिकार है; लेकिन यह स्वतंत्रता कानून के दायरे में रहते हुए प्राप्त है अर्थात् जब इस स्वतंत्रता का उपभोग करते हुए कोई व्यक्ति कानून एवं व्यवस्था व नैतिकता को खतरे में डालेगा तो राज्य उसकी इस स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकता है।
  • धार्मिक अल्पसंख्यकों को भीं अपनी खुद की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम रखने का अधिकार है। सभी धर्मों को दान द्वारा इकट्ठे किये गए धन से संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार है। सभी धर्मों के लोगों को अपने धर्म सम्बन्धी मामलों का प्रबन्ध करने का अधिकार है और वे चल तथा अचल सम्पत्ति प्राप्त कर सकते हैं।
  • सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करने एवं उनका प्रबन्ध करने का अधिकार है।
  • सरकार शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देते समय धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी। किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाई जाने वाली शिक्षा संस्था में प्रवेश देने से धर्म के आधार पर इनकार नहीं किया जायेगा।

3. राज्य समर्थित धार्मिक सुधा: भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की काफी गुंजाइश है और अनुकूलता भी। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। भारतीय राज्य ने बाल-विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म द्वारा लगाए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं।

4. धर्मों में राज्यसत्ता के सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति: भारतीय राज्यसत्ता ने धार्मिक समानता हासिल क़रने के लिए अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है। इसी नीति के चलते व अमेरिकी शैली में धर्म से पृथक् भी हो सकती है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकती है। यथा

  • भारतीय राज्य धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध भी बना सकता है। यह बात अस्पृश्यता पर प्रतिबन्ध जैसी कार्यवाहियों में झलकती है।
  • भारतीय राज्य धर्मों से जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी अपना सकता है। इसीलिए, भारतीय संविधान तमाम धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने खुद की शिक्षण संस्थाएँ खोलने और चलाने का अधिकार देता है जिन्हें राज्य सत्ता की ओर से सहायता भी मिल सकती है।

शांति, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए भारतीय राज्य सत्ता ये तमाम जटिल रणनीतियाँ अपना सकती है। इस प्रकार भारतीय धर्म निरपेक्षता तमाम धर्मों में राज्य सत्ता के सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है । ऐसा हस्तक्षेप हर धर्म के कुछ खास पहलुओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित करता है तथा यह संगठित धर्मों के कुछ पहलुओं के प्रति एक जैसा सम्मान दर्शाने की अनुमति भी देता है ।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 4.
भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचना किन आधारों पर की जाती है? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचनाएँ: भारतीय धर्म निरपेक्षता की निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती हैं।
1. धर्म विरोधी:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की एक प्रमुख आलोचना यह की जाती है कि यह धर्म विरोधी है। इसके समर्थन में आलोचक निम्नलिखित तर्क देते हैं।

  1. यह संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध करती है।
  2. यह धार्मिक पहचान के लिए खतरा पैदा करती है।

लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि ‘संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध’ धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है। दूसरे यह धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है। इसलिए यह धार्मिक पहचान को खतरा पैदा करने के स्थान पर उसकी हिफाजत करती है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता की धर्म विरोधी होने की आलोचना निराधार है। हाँ, यह धार्मिक पहचान के मतांध, हिंसक, दुराग्रही और अन्य धर्मों के प्रति घृणा उत्पन्न करने वाले रूपों पर अवश्य चोट करती है।

2. पश्चिम से आयातित:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की दूसरी आलोचना यह है कि यह ईसाइयत से जुड़ी हुई है अर्थात् पश्चिमी चीज है और इसीलिए भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है।
धर्म और राज्य का पारस्परिक निषेध जिसे पश्चिमी धर्म निरपेक्ष समाजों का आदर्श माना जाता है; भारतीय धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता की प्रमुख विशेषता नहीं है। भारतीय धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता समुदायों के बीच शांति को बढ़ावा देने के लिए धर्म से सैद्धान्तिक दूरी बनाए रखने की नीति पर चलती है और खास समुदायों की रक्षा के लिए वह उनमें हस्तक्षेप भी कर सकती है।

इस प्रकार यह धर्म निरपेक्षता न तो पूरी तरह से ईसाइयत से जुड़ी है और न शुद्ध पश्चिम से आयातित है, बल्कि यह पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों की अन्तःक्रिया से उपजी है जो भारतीय परिस्थितियों के लिए सर्वथा उपयुक्त है। अतः पश्चिम से आयातित होने की आलोचना भी निराधार है।

3. अल्पसंख्यकवाद:
भारतीय धर्म निरपेक्षता पर अल्पसंख्यकवाद का आरोप इस आधार पर मढ़ा जाता है कि यह अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी करती है। लेकिन ये अल्पसंख्यक अधिकार, उनके विशेषाधिकार नहीं हैं, बल्कि उनके मौलिक हितों की रक्षा करने तक ही सीमित हैं। ये अधिकार अल्पसंख्यक धर्म वालों को वैसा ही सम्मान और गरिमा भरा बरताव प्रदान करने के लिए हैं जैसा कि दूसरों के साथ किया जा रहा है। अतः अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष सुविधाओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इस प्रकार भारतीय धर्म निरपेक्षता की अल्पसंख्यकवाद होने की आलोचना भी निराधार है।

4. अतिशय हस्तक्षेपकारी:
एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता उत्पीड़नकारी है और समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता में अतिशय हस्तक्षेप करती है। लेकिन यह भारतीय धर्म निरपेक्षता के बारे में गलत समझ है। यद्यपि यह सही है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म और राज्य के पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद के विचार को नहीं स्वीकार करती है और सैद्धान्तिक हस्तक्षेप को मानती है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह अतिशय हस्तक्षेपकारी व उत्पीड़नकारी है। यह भी सही है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता राज्य सत्ता समर्थित धार्मिक सुधार की इजाजत देती है। लेकिन इसे उत्पीड़नकारी हस्तक्षेप के समान नहीं माना जा सकता। यह धर्म के विकास के लिए है, न कि धर्म के उत्पीड़न के लिए।

5. वोट बैंक की राजनीति:
एक आलोचना यह की जाती हैं कि भारतीय धर्म निरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है। अनुभवजन्य राजनीति के दावे के रूप में यह पूर्णतः असत्य भी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र में राजनेताओं के लिए वोट पाना जरूरी है। यह उनके काम का अंग है और लोकतांत्रिक राजनीति बड़ी हद तक ऐसी ही है। लोगों के किसी समूह के पीछे लगने या उनका वोट पाने की खातिर कोई नीति बनाने का वादा करने के लिए राजनेताओं को दोष देना उचित नहीं है। यदि अल्पसंख्यकों का वोट पाने वाले धर्म निरपेक्ष राजनेता उनकी मांग पूरी करने में समर्थ होते हैं, तो यह धर्म निरपेक्षता की सफलता होगी, क्योंकि धर्म निरपेक्षता अल्पसंख्यकों के हितों की भी रक्षा करती है।

6. एक असंभव परियोजना:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि यह एक ऐसी समस्या का हल ढूँढ़ना चाहती है जिसका समाधान है ही नहीं। यह समस्या है। गहरे धार्मिक मतभेद वाले लोग कभी भी एक साथ शांति से नहीं रह सकते। लेकिन यह आलोचना त्रुटिपरक है क्योंकि भारतीय सभ्यता का इतिहास दिखाता है कि इस तरह साथ-साथ रहना बिल्कुल संभव है। ऑटोमन साम्राज्य इसका स्पष्ट उदाहरण है। इसके प्रत्युत्तर में आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि आज ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि अब समानता लगातार प्रभावी सांस्कृतिक मूल्य बनती जा रही है। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता एक असंभव परियोजना का अनुसरण नहीं वरन् भविष्य की दुनिया को प्रतिबिंब प्रस्तुत करना है।