JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

Jharkhand Board Class 12 Political Science भारतीय राजनीति : नए बदलाव InText Questions and Answers

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प्रश्न 1
‘अगर हर सरकार एक-सी नीति पर अमल करे तो मुझे नहीं लगता कि इससे राजनीति में कोई बदलाव आयेगा।’
उत्तर:
यदि सभी सरकारें या उनसे सम्बद्ध राजनीतिक दल एक ही प्रकार की नीतियाँ अपनाएं तो इससे राजनीतिक व्यवस्था स्थिर व जड़ हो जायेगी। लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इस प्रकार की नीति लागू होना सम्भव नहीं है क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनमत सर्वोपरि होता है और जनसामान्य के हित अलग-अलग होते हैं और यह हित समय और परिस्थितियों के अनुसार निरन्तर परिवर्तित भी होते रहते हैं, इसलिए प्रत्येक सरकार को जन इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करना पड़ता है।

ऐसी स्थिति में सभी सरकारें एक जैसी नीति का अनुसरण नहीं कर सकतीं। इसके अतिरिक्त भारत जैसे बहुदलीय व्यवस्था वाले देश में तो इस प्रकार की नीति लागू करना बिल्कुल भी सम्भव नहीं है क्योंकि भारत में प्रत्येक दल की विचारधारा व कार्यक्रमों में व्यापक अन्तर है और ये राजनीतिक दल सत्ता में आने पर अलग-अलग ढंग से निर्णय लेते हैं।

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प्रश्न 2.
चलो मान लिया कि भारत जैसे देश में लोकतान्त्रिक राजनीति का तकाजा ही गठबन्धन बनाना है। लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि हमारे देश में हमेशा से गठबन्धन बनते चले आ रहे हैं। अथवा, राष्ट्रीय स्तर के दल एक बार फिर से अपना बुलंद मुकाम हासिल करके दिखाएंगे।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में गठबन्धन का दौर हमेशा से चला आ रहा है । यह बात कुछ हद तक सहीं है, लेकिन इन गठबन्धनों के स्वरूप में व्यापक अन्तर है। पहले जहाँ एक ही पार्टी के भीतर गठबन्धन होता था अब पार्टियों के बीच गठबन्धन होता है। जहाँ तक राष्ट्रीय दलों के प्रभुत्व का सवाल है, वर्तमान दलीय व्यवस्था के बदलते दौर में अपना बुलंद मुकाम पाना बहुत कठिन है। क्योंकि वर्तमान में भारतीय दलीय व्यवस्था का स्वरूप बहुदलीय हो गया है जिसमें राष्ट्रीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के महत्त्व को भी नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि भारत में नब्बे के दशक से गठबन्धन सरकारों का सिलसिला चला आ रहा है।

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प्रश्न 3.
मुझे इसकी चिन्ता नहीं है कि सरकार किसी एक पार्टी की है या गठबन्धन की। मसला तो यह है कि कोई सरकार काम कौनसे कर रही है? क्या गठबन्धन सरकार में ज्यादा समझौते करने पड़ते हैं? क्या गठबन्धन सरकार साहसी और कल्पनाशील नीतियाँ नहीं अपना सकती?
उत्तर:
सरकारों का स्वरूप चाहे कैसा भी हो। चाहे वह गठबन्धन सरकार हो या एक ही दल की सरकार हो लेकिन सरकार जनता की कसौटियों पर खरी उतरे वही सफल सरकार है। गठबन्धन सरकारों में विभिन्न दल आपसी समझौतों या शर्तों के आधार पर सरकार का गठन करते हैं। इन दलों के सभी के अपने-अपने हित एवं स्वार्थ होते हैं जिन्हें पूरा करने हेतु निरन्तर प्रयास करते रहते हैं।

जहाँ आपसी हितों में रुकावट या टकराव आता है वहीं दल अलग हो जाते हैं और सरकारें गिर जाती हैं। इस प्रकार गठबन्धन सरकारों में स्थिरता बहुत कम पायी जाती है। इस प्रकार की सरकारों में स्वतन्त्र निर्णय लेना सम्भव नहीं है। इस प्रकार गठबन्धन सरकार साहसी और कल्पनाशील नीतियाँ नहीं अपना सकती।

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प्रश्न 4.
क्या इससे पिछड़े और दलित समुदायों के सभी नेताओं को लाभ होगा या इन समूहों के भीतर मौजूद कुछ ताकतवर जातियाँ और परिवार ही सारे फायदे अपनी मुट्ठी में कर लेंगे?
उत्तर:
इससे पिछड़े और दलित समुदायों के सभी नेताओं का लाभ तो शायद ही हो अपितु हमने यह देखा है कि ऐसे संगठनों में मौजूद कुछ नेता अत्यधिक ताकतवर और रसूखवाले हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
असल मुद्दा नेताओं का नहीं, जनता का है! क्या इस बदलाव से सचमुच के वंचितों के लिए बेहतर नीतियाँ बनेंगी और उन पर कारगर तरीके से अमल होगा या फिर यह सारा कुछ एक राजनीतिक खेल मात्र बनकर रह जाएगा?
उत्तर:
हम इस बात को पूरी तरह नकार नहीं सकते कि ऐसे बदलावों से वंचितों के लिए कोई बेहतर नीतियाँ नहीं बनीं और उन पर कारगर तरीके से अमल होगा। परंतु कई बार नेताओं ने ऐसे नीतियों का फायदा जरूरतमंदों तक पूरा-पूरा नहीं पहुँचने दिया।

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प्रश्न 6.
क्या हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि जो लोग ऐसे जनसंहार की योजनाएँ बनाएँ, अमल करें और उसे समर्थन दें। वे कानून के हाथों से बच न पाएँ? ऐसे लोगों को कम-से-कम राजनीतिक रूप से तो सबक सिखाया ही जा सकता है।
उत्तर:
भारत में धर्म, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर अनेक बार साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन साम्प्रदायिक दंगों के पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न राजनीतिक दलों का हाथ रहा है। ये दल अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु दुष्प्रचार करते हैं जिससे जनसामान्य इनके बहकावे में आकर गलत कदम उठाते हैं। भारत में 1984 के सिख दंगे हों, अयोध्या की घटना हो या 2002 में गुजरात का गोधरा काण्ड, इन सभी घटनाओं के पीछे राजनीतिक दलों की स्वार्थपूर्ण नीति रही है।

इन घटनाओं को रोकने के लिए आवश्यक है कि ऐसे राजनीतिक दल व उनके नेतृत्वकर्ता जिनका आपराधिक रिकार्ड रहा है या साम्प्रदायिक दंगों में लिप्त रहे हैं उन पर चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने पर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए। जो लोग नरसंहार की योजना बनाएँ या उस पर अमल करें उन्हें कानून द्वारा सख्त सजा दी जानी चाहिए।

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प्रश्न 1.
उन्नी – मुन्नी ने अखबार की कुछ कतरनों को बिखेर दिया है। आप इन्हें कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करें।
(क) मंडल आयोग की सिफारिशें और आरक्षण विरोधी हंगामा
(ख) जनता दल का गठन
(ग) बाबरी मस्जिद का विध्वंस
(घ) इन्दिरा गांधी की हत्या
(ङ) राजग सरकार का गठन
(च) संप्रग सरकार का गठन
(छ) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम
उत्तर:
(क) इन्दिरा गांधी की हत्या (1984)
(ख) जनता दल का गठन (1988)
(ग) मण्डल आयोग की सिफारिश और आरक्षण विरोधी हंगामा (1990)
(घ) बाबरी मस्जिद का विध्वंस (1992)
(ङ) राजग सरकार का गठन (1999)
(च) गोधरा दुर्घटना और उसके परिणाम (2002)
(छ) संप्रग सरकार का गठन (2004)।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित में मेल करें-

(क) सर्वानुमति की राजनीति (i) शाहबानो मामला
(ख) जाति आधारित दल (ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय (iii) गठबन्धन सरकार
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत (iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति

उत्तर:

(क) सर्वानुमति की राजनीति (iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति
(ख) जाति आधारित दल (ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय (i) शाहबानो मामला
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत (iii) गठबन्धन सरकार

प्रश्न 3.
1989 के बाद की अवधि में भारतीय के आपसी जुड़ाव के क्या रूप सामने आये हैं?
उत्तर:
1989 के बाद भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे – 1989 के बाद भारतीय राजनीति में कई बदलाव आये जिनमें कांग्रेस का कमजोर होना, मण्डल आयोग की सिफारिशें एवं आन्दोलन, आर्थिक सुधारों को लागू करना, राजीव गांधी की हत्या तथा अयोध्या मामला प्रमुख हैं । इन स्थितियों में भारतीय राजनीति में जो मुद्दे प्रमुख रूप से उभरे उनसे राजनीतिक दलों का आपसी जुड़ाव निम्न रूप में सामने आया-

  1. कांग्रेस ने स्थिर सरकार का मुद्दा उठाकर कहा कि देश में स्थिर सरकार कांग्रेस ही दे सकती है।
  2. भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा उठाकर हिन्दू मतों को अपने पक्ष में कर अपने जनाधार को ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक करने का प्रयास किया।
  3. लोकदल व जनता दल ने मंडल आयोग की सिफारिशों का मुद्दा उठाकर पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लामबंद करने का प्रयास किया ।

प्रश्न 4.
“गठबन्धन की राजनीति के इस दौर में राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठजोड़ नहीं करते हैं।” इस कथन के पक्ष या विपक्ष में आप कौन-कौनसे तर्क देंगे?
उत्तर:
पक्ष में तर्क- वर्तमान युग में गठबन्धन की राजनीति का दौर चल रहा है। इस दौर में राजनीतिक दल विचारधारा को आधार बनाकर गठजोड़ नहीं कर रहे बल्कि अपने निजी राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए गठजोड़ करते हैं। इस बात के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं

  1. 1977 में जे. पी. नारायण के आह्वान पर जो जनता दल बना था उसमें कांग्रेस के विरोधी प्रायः सी. पी. आई. को छोड़कर अधिकांश विपक्षी दल शामिल थे। इन सभी दलों को हम एक ही विचारधारा वाले दल नहीं कह सकते।
  2. जनता दल की सरकार गिरने के बाद केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा बना जिसमें एक ओर जनता पार्टी के वी. पी. सिंह तो दूसरी ओर उन्हें समर्थन देने वाले सी. पी. एम. वामपंथी और भाजपा जैसे तथाकथित हिन्दुत्व समर्थक गांधीवादी राष्ट्रवादी दल भी थे।
  3. कांग्रेस की सरकार, 1991 से 1996 तक नरसिंह राव के नेतृत्व में अल्पमत होते हुए भी इसलिए चलती रही क्योंकि उसे अनेक ऐसे दलों का समर्थन प्राप्त था जिससे तथाकथित साम्प्रदायिक शक्तियाँ सत्ता में न आ सकें।
  4. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी जनतांत्रिक गठबन्धन ( एन. डी.ए) की सरकार को अकालियों, तृणमूल कांग्रेस, बीजू पटनायक कांग्रेस, समता दल, जनता पार्टी तथा अनेक क्षेत्रीय दलों ने भी सहयोग और समर्थन दिया।

विपक्ष में तर्क- उपर्युक्त कथन के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

  1. गठबन्धन की राजनीति के नए दौर में भी वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ नहीं मिलाया, वे उसे अब भी राजनीतिक दृष्टि से अस्पर्शीय पार्टी मानते हैं।
  2. समाजवादी पार्टी, वामपंथी मोर्चा, डी. पी. के. जैसे क्षेत्रीय दल किसी भी उस प्रत्याशी को खुला समर्थन नहीं देना चाहते जो एन. डी. ए. अथवा भाजपा का प्रत्याशी हो।
  3. कांग्रेस पार्टी ने अधिकांश मोर्चों पर बीजेपी विरोधी और बीजेपी ने कांग्रेस विरोधी रुख अपनाया है

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प्रश्न 5.
आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी। इस दौर में इस पार्टी के विकास क्रम का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी का विकास-क्रम – आपातकाल के पश्चात् भाजपा की विकास यात्रा को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

  1. जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद जनता पार्टी के भारतीय जनसंघ घटक ने वर्ष 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।
  2. वर्ष 1984 के चुनावों में भाजपा को लोकसभा में केवल दो सीटें प्राप्त हुईं।
  3. सन् 1989 के चुनावों में भाजपा ने चुनाव में राम मंदिर बनवाने के नारे को उछाला। फलतः इस चुनाव में भाजपा को आशा से अधिक सफलता मिली। भाजपा ने वी. पी. सिंह को बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोर्चा सरकार का गठन करने में सहयोग दिया।
  4. 1991 के चुनाव में भी राम मंदिर निर्माण का नारा भाजपा के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध हुआ।
  5. 1996 के चुनावों में यह लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी।
  6. सन् 1998 के चुनावों में इसने कुछ क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर सरकार बनाई तथा 1999 के चुनावों में भाजपानीत गठबंधन ने फिर सत्ता प्राप्त की। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के काल में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने।
  7. सन् 2004 में तथा 2009 के चुनावों में भाजपा को पुनः अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी । फिर भी कांग्रेस के बाद आज यह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है।
  8. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ तथा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाई।

प्रश्न 6.
कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
देश की राजनीति से यद्यपि कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त हो गया है परन्तु अभी कांग्रेस का असर कायम है, क्योंकि अब भी भारतीय राजनीति कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूम रही है तथा सभी राजनीतिक दल अपनी नीतियाँ एवं योजनाएँ कांग्रेस को ध्यान में रखकर बनाते हैं। अभी भी कांग्रेस पार्टी दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है। 2004 के 14वें लोकसभा के चुनावों में इसने अन्य दलों के सहयोग से केन्द्र सरकार बनाई।

इसके साथ-साथ जुलाई, 2007 में हुए राष्ट्रपति के चुनाव में भी इस दल की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वर्ष 2009 के आम चुनावों में पहले से काफी अधिक सीटों पर जीत प्राप्त कर गठबंधन की सरकार बनाई । 2014 के लोकसभा चुनावों में यद्यपि उसे 44 ही सीटें प्राप्त हुईं तथापि उसके मत प्रतिशत में बहुत अधिक अन्तर नहीं आया है। अतः कहा जा सकता है कि कमजोर होने के बावजूद भी कांग्रेस का असर भारतीय राजनीति पर कायम है।

प्रश्न 7.
अनेक लोग सोचते हैं कि सफल लोकतन्त्र के लिए दो दलीय व्यवस्था जरूरी है। पिछले बीस सालों के भारतीय अनुभवों को आधार बनाकर एक लेख लिखिए और इसमें बताइए कि भारत की मौजूदा बहुदलीय व्यवस्था के क्या फायदे हैं?
उत्तर:
कुछ लोगों का मानना है कि सफल लोकतन्त्र के लिए दो दलीय व्यवस्था जरूरी है। इनका मानना है कि द्विदलीय व्यवस्था में साधारण बहुमत के दोष समाप्त हो जाते हैं, सरकार स्थायी होती है, भ्रष्टाचार कम फैलता है, निर्णय शीघ्रता से लिये जा सकते हैं। भारत में बहुदलीय प्रणाली भारत में बहुदलीय प्रणाली है।

कई विद्वानों का मत है कि भारत में बहुदलीय प्रणाली उचित ढंग से कार्य नहीं कर पा रही है तथा यह भारतीय लोकतन्त्र के लिए बाधा उत्पन्न कर रही है अतः भारत को द्वि-दलीय पद्धति अपनानी चाहिए परन्तु पिछले बीस सालों के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बहुदलीय प्रणाली से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को अग्रलिखित फायदे हुए हैं-

  1. विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व: बहुदलीय प्रणाली के कारण भारतीय राजनीति में सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
  2. मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता: अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपने वोट का प्रयोग करने के लिए अधिक विकल्प प्राप्त होते हैं।
  3. राष्ट्र दो गुटों में नहीं बँटता:  बहुदलीय प्रणाली होने के कारण भारत कभी भी दो विरोधी गुटों में विभाजित नहीं हुआ।
  4. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती: बहुदलीय प्रणाली के कारण भारत में मन्त्रिमण्डल तानाशाह नहीं बन सकता।
  5. अनेक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व:  बहुदलीय प्रणाली में व्यवस्थापिका में देश की अनेक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व हो सकता है

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दें-
भारत की दलगत राजनीति ने कई चुनौतियों का सामना किया है। कांग्रेस प्रणाली ने अपना खात्मा ही नहीं किया बल्कि कांग्रेस के जमावड़े के बिखर जाने से आत्म-प्रतिनिधित्व की नयी प्रवृत्ति का भी जोर बढ़ा। इससे दलगत व्यवस्था और विभिन्न हितों की समाई करने की इसकी क्षमता पर भी सवाल उठे राजव्यवस्था के सामने एक महत्त्वपूर्ण काम एक ऐसी दलगत व्यवस्था खड़ी करने अथवा राजनीतिक दलों को गढ़ने की है, जो कारगर तरीके से विभिन्न हितों को मुखर और एकजुट करें – जोया हसन
(क) इस अध्याय को पढ़ने के बाद क्या आप दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं?
(ख) विभिन्न हितों का समाहार और उनसे एकजुटता का होना क्यों जरूरी है?
(ग) इस अध्याय में आपने अयोध्या विवाद के बारे में पढ़ा। इस विवाद ने भारत के राजनीतिक दलों
की समाहार की क्षमता के आगे क्या चुनौती पेश की?
उत्तर:
(क) इस अध्याय में दलगत व्यवस्था की निम्नलिखित चुनौतियाँ उभर कर सामने आती हैं-

  1. गठबन्धन की राजनीति को चलाना।
  2. क्षेत्रीय दलों का उभरना तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार का बढ़ना।
  3. पिछड़े वर्गों की राजनीति का उभरना।
  4. अयोध्या विवाद का उभरना।
  5. गैर सैद्धान्तिक राजनीतिक समझौते का होना।
  6. साम्प्रदायिक दंगे होना।

(ख) विभिन्न हितों का समाहार और उनमें एकजुटता का होना जरूरी है, क्योंकि तभी भारत अपनी एकता और अखण्डता को बनाए रखकर विकास कर सकता है।

(ग) अयोध्या विवाद ने भारत में राजनीतिक दलों के सामने साम्प्रदायिकता की चुनौती पेश की तथा भारत में साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक दलों की राजनीति बढ़ गई।

भारतीय राजनीति : नए बदलाव JAC Class 12 Political Science Notes

→ 1990 का दशक:
1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तथा 1984 के लोकसभा चुनावों में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद सहानुभूतिस्वरूप भारतीय जनता ने कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से विजयी बनाया। 1980 के दशक के आखिर के सालों में देश में पाँच ऐसे बदलाव आये जिनका देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।

  • 1990 के दशक में एक महत्त्वपूर्ण घटना 1989 के चुनावों में कांग्रेस की हार है। 1989 में ही ‘कांग्रेस प्रणाली’ की समाप्ति हो गई।
  • दूसरा बड़ा बदलाव राष्ट्रीय राजनीति में मण्डल मुद्दे का उदय था। 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की नई सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इन सिफारिशों के अन्तर्गत प्रावधान किया गया कि केन्द्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया जाएगा।
  • विभिन्न सरकारों ने इस दौर में जो आर्थिक नीतियाँ अपनाईं वह बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। इसे ढांचागत समायोजन कार्यक्रम अथवा नये आर्थिक प्रकार के नाम से जाना जाता है।
  • इन्हीं घटनाओं के सिलसिले में एक और घटना अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचे (बाबरी मस्ज़िद के रूप में प्रसिद्ध) के विध्वंस के सम्बन्ध में है। यह घटना 1992 में दिसम्बर महीने में घटी। इस घटना ने देश की राजनीति में कई परिवर्तनों को जन्म दिया।
  • मई, 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। 1991 के चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आयी। राजीव गांधी के बाद नरसिम्हा राव ने कांग्रेस पार्टी की बागडोर सम्भाली।

→ गठबन्धन का युग:
1989 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार हुई। कांग्रेस की हार के बावजूद भी यह सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन बहुमत न मिलने के कारण उसने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। राष्ट्रीय मोर्चा को (यह मोर्चा जनता दल और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बनाया) परस्पर विरुद्ध दो राजनीतिक समूहों भाजपा और वाममोर्चा ने बाहर से समर्थन दिया।

→ काँग्रेस का पतन:
काँग्रेस की हार के साथ भारत की दलीय व्यवस्था से उसका दबदबा खत्म हो गया। 1960 के दशक के अंतिम सालों में काँग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती मिली थी, लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभुत्व फिर से कायम किया। 90 के दशक में काँग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली। इस दौर में काँग्रेस के दबदबे के खात्मे के साथ बहुदलीय शासन प्रणाली का युग शुरू हुआ। 1989 के. बाद से लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी पार्टी को 2014 तक पूर्ण बहुमत नहीं मिला।

→ गठबन्धन की राजनीति:
1989 के बाद लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस प्रकार केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति प्रारम्भ हुई। इसके साथ ही नब्बे का दशक ताकतवर पार्टियों और आन्दोलनों के उभार का साक्षी रहा। इन पार्टियों और आन्दोलनों ने दलित तथा पिछड़ा वर्ग (अन्य पिछड़ा वर्ग या ओ.बी.सी.) की नुमाइंदगी की। इन दलों में से अनेक ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं की दमदार दावेदारी की। 1996 में बनी संयुक्त मोर्चा सरकार में इन पार्टियों ने अहम भूमिका निभाई।

→ भाजपा का उभार:
1991 तथा 1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का निमन्त्रण मिला लेकिन अधिकांश दल भाजपा की नीतियों एवं कार्यक्रमों के खिलाफ थे । इस तरह भाजपा लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर पायी। आखिरकार भाजपा एक गठबन्धन (राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आई और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रही। फिर 1999 में इस गठबन्धन ने दोबारा सत्ता हासिल की। 1999 की वाजपेयी सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया। अन्य पिछड़ा वर्ग का राजनीतिक उदय – ‘ अन्य पिछड़ा वर्ग’ में शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय की गणना की जाती है।

→ मंडल का लागू होना:
1980 के दशक में अन्य पिछड़ा वर्गों के बीच लोकप्रिय ऐसे ही राजनीतिक समूहों को जनता दल ने एकजुट किया। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति को सुगठित रूप देने में मदद मिली।

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→ राजनीतिक परिणाम:
1980 के दशक में दलित जातियों के राजनीतिक संगठनों का भी उभार हुआ। 1978 में बामसेफ (बेकवर्ड एवं माइनॉरिटी क्लासेज एम्पलाइज फाउंडेशन) का गठन हुआ। इस संगठन ने बहुजन यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक सत्ता की जबरदस्त तरफदारी की। कांशीराम के नेतृत्व वाली बसपा ने अपने संगठन की बुनियाद व्यवहार में बामसेफ की नीतियों पर केन्द्रित की। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतन्त्र – इस दौर में आया एक दूरगामी बदलाव धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति का उदय है।

इसने धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र के बारे में बहसों को सरगर्म किया। शुरू-शुरू में भाजपा ने जनसंघ की अपेक्षा कहीं ज्यादा बड़ा राजनीतिक मंच अपनाया इसने गाँधीवादी समाजवाद को अपनी विचारधारा के रूप में स्वीकार किया। लेकिन भाजपा को 1980 और 1984 के चुनावों में खास सफलता नहीं मिली। 1986 के बाद इस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिन्दू राष्ट्रवाद के तत्त्वों पर जोर देना शुरू किया। भाजपा ने हिन्दुत्व की राजनीति का रास्ता चुना और हिन्दुओं को लामबन्द करने की नीति अपनाई।

→ अयोध्या विवाद का निर्णय:
फैजाबाद जिला न्यायालय द्वारा फरवरी, 1986 में अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया गया। इस अदालत ने यह फैसला दिया कि रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खोला जाना चाहिए ताकि हिन्दू यहाँ पूजा-पाठ कर सकें क्योंकि वे इस जगह को पवित्र मानते हैं। विध्वंस और उसके बाद- राम मंदिर निर्माण का समर्थन करने वाले संगठनों ने दिसम्बर, 1992 में कारसेवा का आयोजन किया। इसके अन्तर्गत रामभक्तों का आह्वान किया गया कि वे राम मन्दिर के निर्माण में श्रमदान करें। लाखों श्रद्धालु अयोध्या की ओर चल पड़े। पूरे देश में माहौल तनावपूर्ण हो गया।

अयोध्या में तनाव अपने चरम पर था। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह विवादित स्थल की सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। लेकिन 6 दिसम्बर, 1992 को देश के विभिन्न भागों से लोग आ जुटे और इन लोगों ने विवादित ढाँचे को गिरा दिया। विवादित ढाँचे के विध्वंस की खबर से देश के कई भागों में हिन्दू और मुसलमानों के बीच झड़प हुई। जनवरी, 1993 में एक बार फिर मुम्बई में हिंसा भड़की और अगले दो हफ्तों तक जारी रही।

→ गुजरात के दंगे:
2002 के फरवरी मार्च में गुजरात में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंसा का यह तांडव लगभग एक महीने तक चला। 2004 के लोकसभा चुनाव-2004 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने भी गठबन्धन बनाकर चुनावों में भाग लिया राजग की हार हुई और संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबन्धन का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी ने किया। संप्रग को वाम मोर्चा तथा कुछ अन्य दलों का समर्थन मिला। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस पार्टी का पुनरुत्थान भी हुआ। बढ़ती सहमति – संप्रग सरकार में आपसी सहमति के प्रमुख बिन्दु निम्न हैं।

  • नई आर्थिक नीति की सहमति
  • पिछड़ी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक दावे की स्वीकृति।
  • देश के शासन में प्रांतीय दलों की भूमिका की स्वीकृति।
  • विचारधारात्मक पक्ष की जगह कार्यसिद्धि पर जोर और विचारधारा सहमति के बिना राजनीतिक गठजोड़ 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस गठबन्धन को बहुमत मिला

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