JAC Class 10 Hindi Solutions Sparsh Chapter 1 कबीर की साखी

Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Sparsh Chapter 1 कबीर की साखी Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 10 Hindi Solutions Sparsh Chapter 1 कबीर की साखी

JAC Class 10 Hindi कबीर की साखी Textbook Questions and Answers

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(निबंधात्मक प्रश्न)

प्रश्न 1.
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त
अथवा
कबीर ने कैसी वाणी बोलने की सलाह दी है ?
उत्तर :
कबीरदास कहते हैं कि मनुष्य को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिए। मीठी वाणी बोलने से उसे सुनने वाला सुख का अनुभव करता है, क्योंकि मीठी वाणी जब हमारे कानों तक पहुँचती है तो उसका प्रभाव हमारे हृदय पर होता है। इसके विपरीत किसी के द्वारा कहे गए कड़वे वचन तीर की भाँति हृदय में चुभने वाले होते हैं। जब हम मीठे वचनों का प्रयोग करते हैं, तो हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है। अहंकार के नष्ट होने पर हमें शीतलता प्राप्त होती है। इस प्रकार मीठी वाणी बोलने से न केवल दूसरों को हम सुख प्रदान करते हैं, अपितु स्वयं भी शीतलता को अनुभव करते हैं।

प्रश्न 2.
दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कबीरदास के अनुसार जिस प्रकार दीपक के जलने पर अंधकार अपने आप दूर हो जाता है, उसी प्रकार हृदय में ज्ञानरूपी दीपक के जलने कबीरदास के अना पर अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो जाता है। जब तक मनुष्य में अज्ञान रहता है, तब तक उसमें अहंकार और अन्य दुर्गुण होते हैं। वह अपने ही हृदय में निवास करने वाले ईश्वर को पहचान नहीं पाता। अज्ञानी मनुष्य अपने आप में डूबा रहता है। लेकिन जैसे ही उसके हृदय में ज्ञानरूपी दीपक जलता है, उसका हृदय प्रकाशित हो उठता है। ज्ञानरूपी दीपक के जलते ही मनुष्य का अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान के दीपक के जलने पर मनुष्य ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है।

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प्रश्न 3.
ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
उत्तर :
कबीरदास का मानना है कि निर्गुण ब्रह्म कण-कण में समाया हुआ है, किंतु अपनी अज्ञानता के कारण हम उसे नहीं देख पाते। जिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी नाभि में ही विद्यमान होता है लेकिन वह उसे जंगल में इधर-उधर ढूँढ़ता है; उसी प्रकार मनुष्य भी अपने हृदय में छिपे ईश्वर को अपनी अज्ञानता के कारण पहचान नहीं पाता। वह ईश्वर को धर्म के अन्य साधनों जैसे मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारा आदि में व्यर्थ ढूँढ़ता है। कबीरदास का मत है कि कण-कण में छिपे परमात्मा को देखने के लिए ज्ञान का होना अति आवश्यक है।

प्रश्न 4.
संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं ? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कबीरदास के अनुसार जो व्यक्ति केवल सांसारिक सुखों में डूबा रहता है और जिसके जीवन का उद्देश्य केवल खाना, पीना और सोना है, वही व्यक्ति सुखी है। इसके विपरीत जो व्यक्ति संसार की नश्वरता को देखकर ईश्वर प्राप्ति के लिए रोता है, वह दखी है। यहाँ ‘सोना’ शब्द सांसारिक सुखों में डूबे रहने का प्रतीक है तथा ‘जागना’ ज्ञान प्राप्त होने का प्रतीक है। इन शब्दों का प्रयोग कवि ने यह बताने के लिए किया है कि मूर्ख व्यक्ति अपना जीवन यूँ ही निश्चित रहकर नष्ट कर देता है। दूसरी ओर ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि संसार नश्वर है। वह ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है और दुखी रहता है। वह चाहता है कि मनुष्य भौतिक सुखों को त्यागकर ईश्वर-प्राप्ति की ओर अग्रसर हो।

प्रश्न 5.
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है ?
अथवा
कबीर के विचार से निंदक को निकट रखने के क्या-क्या लाभ हैं?
उत्तर :
कबीर का मानना है कि अपने स्वभाव को निर्मल रखने का सबसे अच्छा उपाय निंदा करने वाले को अपने साथ रखना है। निंदा करने वाले को घर में अपने आस-पास रखना चाहिए। ऐसा करने से हमारा स्वभाव अपने आप ही निर्मल हो जाएगा, क्योंकि निंदा करने वाला व्यक्ति हमारे गलत कार्यों की निंदा करेगा तो हम अपने आप को सुधारने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार निंदा करने वाले व्यक्ति के पास रहने पर हम धीरे-धीरे अपने स्वभाव को बिलकुल निर्मल कर लेंगे। इस तरह उसके द्वारा बताए गए अपने अवगुणों को दूर करके हम अपने स्वभाव को निर्मल बनाने में सफल हो सकते हैं।

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प्रश्न 6.
‘एकै आषिर पीव का, पढे स पंडित होइ’-इस पंक्ति के दवारा कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर :
इस पंक्ति के द्वारा कवि स्पष्ट करना चाहता है कि जो व्यक्ति अपने प्रिय परमात्मा के प्रेम का अक्षर पढ़ लेता है, वही ज्ञानवान है। कुछ लोग बड़े-बड़े धर्मग्रंथों को पढ़कर अपने आपको विद्वान और ज्ञानवान सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। कबीर का मत है कि वेदों, पुराणों और उपनिषदों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं होता। इनको पढ़ना व्यर्थ है। इसके विपरीत जो ईश्वर-प्रेम के मार्ग को अपनाकर उसमें डूब जाता है, वही वास्तविक विद्वान और ज्ञानवान है।

प्रश्न 7.
कबीर की उद्धत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं इन्होंने पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया है, किंतु अधिकांश साखियों में प्राय: बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। इन साखियों में कबीरदास ने सामान्य भाषा में भी लोक व्यवहार की शिक्षा दी है। जैसे –

ऐसी बाँणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होई॥

कबीर की भाषा में कहीं-कहीं बौद्धिकता के भी दर्शन होते हैं। यह बौद्धिकता प्राय: उपदेशात्मक साखियों में अधिक है। दोहा छंद में लिखी गई इन साखियों में मुक्तक शैली का प्रयोग है तथा गीति-तत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। भाषा पर कबीर के अधिकार को देखते हुए ही डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है।

(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए –
(लघु उत्तरीय प्रश्न)

प्रश्न 1.
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
उत्तर :
कबीरदास का कहना है कि जब विरहरूपी सर्प शरीर में बैठ जाता है, तो विरही व्यक्ति सदा तड़पता है। उस पर किसी प्रकार के मंत्र का कोई प्रभाव नहीं होता। जब आत्मा अपने प्रिय परमात्मा की विरह में तड़पती है, तो वह केवल अपने प्रिय परमात्मा के दर्शन पाकर होती है। विरहरूपी सर्प आत्मा को तब तक तड़पाता है, जब तक परमात्मा के दर्शन नहीं हो जाते।

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प्रश्न 2.
कस्तूरी कुंडलि बसैं, मृग ढूँढ़े बन माँहि।
उत्तर :
कवि यहाँ यह स्पष्ट करना चाहता है कि हिरण की अपनी नाभि में ही कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ होता है। जब हिरण को उसकी सुगंध आती है तो वह उसे इधर-उधर खोजता है, किंतु वह उसे ढूँढ़ नहीं पाता। इसी प्रकार ईश्वर भी मनुष्य के हृदय में विद्यमान है, किंतु मनुष्य अज्ञानतावश उसे पहचान नहीं पाता। वह ईश्वर को अन्य स्थानों पर खोज रहा है, जोकि व्यर्थ है।

प्रश्न 3.
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
उत्तर :
यहाँ कबीरदास के कहने का भाव है कि जब तक मनुष्य में ‘मैं’ अर्थात अहंकार की भावना होती है, तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य जैसे ही अपने भीतर से अहंकार की भावना को नष्ट कर देता है, ईश्वर को सहजता से पा लेता है। ईश्वर को पाने के लिए अहंकार को त्यागना आवश्यक है।

प्रश्न 4.
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
उत्तर :
कबीरदास का मत है कि धार्मिक ग्रंथ आदि पढ़ने से कोई व्यक्ति विद्वान अथवा बुद्धिमान नहीं बनता। जो व्यक्ति ईश्वर-प्रेम को जान लेता है, वही सच्चा विद्वान है। धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर स्वयं को विद्वान और ज्ञानी कहने वाले अनेक लोग मिट जाते हैं, किंतु ईश्वर-प्रेम के एक अक्षर को समझने वाला व्यक्ति अमर हो जाता है।

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भाषा अध्ययन –

प्रश्न :
पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप उदाहरण के अनुसार लिखिए –
उदाहरणः जिवै – जीना
औरन, माँहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, आँगणि, साबण, मुवा, पीव, जालौं, तास।
उत्तर :

  • औरन – दूसरे को/अन्य को
  • माँहि – में
  • देख्या – देखा
  • भुवंगम – भुजंग/साँप
  • नेड़ा – निकट/समीप
  • आँगणि – आँगन
  • साबण – साबुन
  • मुवा – मरा
  • पीव – पिया, प्रिय, प्रियतम
  • तास – उस
  • जालौं – जलाऊँ

योग्यता विस्तार –

प्रश्न 1.
‘साधु में निंदा सहन करने से विनयशीलता आती है’ तथा ‘व्यक्ति को मीठी व कल्याणकारी वाणी बोलनी चाहिए’-इन विषयों पर कक्षा में परिचर्चा आयोजित कीजिए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 2.
कस्तूरी के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर :
कस्तूरी एक सुगंधित पदार्थ होता है, जो ‘कस्तूरी’ नामक मृग की नाभि में होता है। भारत में यह मृग हिमालय के वन्य क्षेत्र में पाया जाता है। वर्तमान समय में अनेक लोग कस्तूरी के लिए इस मृग का शिकार कर रहे हैं, जिससे उनकी संख्या तेजी से कम हो रही है। यही कारण है कि कस्तूरी मृग को दुर्लभ और संरक्षित प्रजाति घोषित किया गया है।

परियोजना कार्य –

प्रश्न 1.
मीठी वाणी/बोली संबंधी व ईश्वर प्रेम संबंधी दोहों का संकलन कर चार्ट पर लिखकर भित्ति पत्रिका पर लगाइए।
उत्तर :
विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 2.
कबीर की साखियों को याद कीजिए और कक्षा में अंत्याक्षरी में उनका प्रयोग कीजिए।
उत्तर :
विद्यार्थी स्वयं करें।

JAC Class 10 Hindi कबीर की साखी Important Questions and Answers

लघु उत्तरीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
‘साखी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
‘साखी’ शब्द साक्षी शब्द से बिगड़कर बना है, जिसका अर्थ है-‘गवाही’। कबीर ने जिन बातों को अपने अनुभव से जाना और सत्य पाया, उन्हें ‘साक्षी’ या साखी रूप में लिखा है। साखियाँ अनुभूत सत्य की प्रतीक हैं और कबीर उस सच्चाई के गवाह हैं।

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प्रश्न 2.
ईश्वर के प्रति भक्ति कब दृढ़ हो जाती है?
उत्तर :
कबीरदास का मत है कि जब ईश्वर की विरह में जलने वाला व्यक्ति ऐसे ही दूसरे व्यक्ति से मिलता है, तो ईश्वर के प्रति भक्ति और दृढ़ हो जाती है। ईश्वर के प्रेम में घायल व्यक्ति जब ईश्वर के प्रेम में तड़पने वाले अपने ही समान अन्य व्यक्ति से मिलता है, तो उनमें विचारों का आदान-प्रदान होता है। दोनों अपने अनुभवों को बताते हैं और इस प्रकार दोनों के हृदयों में ईश्वर के प्रति भक्ति-भाव और अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। इससे ईश्वर के प्रति भक्ति को दृढ़ता मिलती है।

प्रश्न 3.
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौ तास का, जे चलै हमारे साथि।
प्रस्तुत साखी के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कबीर ने क्रांतिकारी स्वर में क्या कहा?
उत्तर :
संत कबीर ने जनमानस में चेतना लाने के लिए क्रांतिकारी स्वरों में कहा कि उन्होंने विषय-वासनाओं से युक्त अपने शरीर को जलाकर नष्ट कर दिया है। अब उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। इस सच्चे ज्ञान की मशाल को लेकर वे निकल पड़े हैं। जिसे भी उनके साथ चलना है, वह उनके साथ आ जाए। कबीर उनके सभी विकारों को समाप्त कर देंगे।

प्रश्न 4.
‘बिरह भुवंगम तन बसै …. जिवै तो बौरा होइ’ दोहे में कबीर ने विरह के विषय में क्या कहा है?
उत्तर :
कबीर ने प्रस्तुत दोहे में विरह की पीड़ा और प्रभाव को व्यक्त किया है। उन्होंने विरह को साँप की संज्ञा देते हुए कहा है कि विरहरूपी साँप शरीररूपी बिल में घुसा बैठा है। विरहाग्नि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। कोई भी मंत्र इस विरहरूपी जहर पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पा रहा। जो व्यक्ति परमात्मा के विरह में तड़पने वाला है, वह उस पीड़ा से जीवित नहीं रह पाता। यदि किसी कारणवश वह जीवित रह भी जाता है, तो भी उसकी स्थिति पागलों के समान हो जाती है।

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प्रश्न 5.
“लिया मुराड़ा हाथि’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर :
‘मुराड़ा’ से कवि का अर्थ ‘ज्ञानरूपी मशाल’ से है। कवि का मानना है कि जिस प्रकार जलती हुई लकड़ी या मशाल से अंधकार का नाश होता है; चारों ओर उजाला एवं रोशनी फैलती है, ठीक उसी प्रकार ज्ञानरूपी मशाल से मनुष्य के मन का अज्ञानरूपी अंधकार दूर होता है।

प्रश्न 6.
कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु किसे त्यागने की बात कही है?
उत्तर :
कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु अहंकार को त्यागने की बात कही है। जब तक मनुष्य के मन में अहंकार होता है, तब तक उसे परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती। परमात्मा उसे ही मिलता है, जिसका हृदय अहंकार रहित होता है।

प्रश्न 7.
कबीर ने जीवित रहते हुए भी किस प्रकार के व्यक्ति को मृतक समान माना है?
उत्तर :
कबीरदास ने प्रभु-भक्ति में लीन उन भक्तों को जीवित रहते हुए भी मृतक माना है, जो सांसारिक सुख-सुविधाओं को त्याग चुके हैं; जो परमात्मा की भक्ति में स्वयं को भुला चुके हैं। जिन्हें भौतिक वस्तुओं से कोई लेना-देना नहीं; जिन्होंने सांसारिक सुखों को पाने की इच्छा को त्याग दिया है।

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प्रश्न 8.
कबीर की भाषा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
कबीरदास की भाषा सधुक्कड़ी अथवा खिचड़ी भाषा है। इनकी भाषा-शैली मुक्त है। इनके पदों में अनेक राग-रागनियों का प्रयोग हुआ है। इन्होंने अपनी भाषा में ब्रज, अवधी, खड़ी बोली, राजस्थानी आदि शब्दों का खूब प्रयोग किया है। इन्हें भाषा डिक्टेटर कवि भी कहा जाता है। अलंकारों तथा प्रतीकों के प्रयोग ने इनकी भाषा को सुंदरता प्रदान की है।

कबीर की साखी Summary in Hindi

कवि-परिचय :

जीवन – कबीर भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उनकी जन्म-तिथि और जन्म-स्थान के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। बहुमत के अनुसार कबीर का जन्म सन 1398 में काशी में हुआ था। उनका पालन-पोषण ‘नीरु-नीमा’ नामक दंपति ने किया। कबीर के गुरु का नाम स्वामी रामानंद था। कुछ लोग शेख तकी को भी कबीर का गुरु मानते हैं। रामानंद के विषय में कबीर ने स्वयं कहा है –

काशी में हम प्रकट भए, रामानंद चेताये।

कबीर का विवाह भी हुआ था। उनकी पत्नी का नाम लोई था। उनके ‘कमाल’ एवं ‘कमाली’ नाम के बेटा-बेटी थे। स्वभाव से वैरागी होने के कारण कबीर साधुओं की संगति में रहने लगे। सन 1518 में काशी के निकट मगहर में उनका निधन हुआ। रचनाएँ-कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वे बहुश्रुत थे। उन्होंने जो कुछ कहा, अपने अनुभव के बल पर कहा। एक स्थान पर उन्होंने शास्त्र-ज्ञाता पंडित को कहा भी है –

मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।

कबीर की वाणी ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित है। इस रचना में कबीर द्वारा रचित साखी, रमैनी एवं सबद संग्रहीत हैं।

काव्यगत विशेषताएँ – कबीर के काव्य की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
1. समन्वय-भावना – कबीर के समय में हिंदू एवं मुस्लिम संप्रदायों में संघर्ष की भावना तीव्र हो चुकी थी। कबीर ने हिंदू-मुस्लिम एकता तथा विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों में समन्वय लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक ऐसे धर्म की नींव रखी, जिस पर मुसलमानों के एकेश्वरवाद, शंकर के अद्वैतवाद, सिद्धों के हठ योग, वैष्णवों की भक्ति एवं सूफ़ियों के पीर-प्रेम का प्रभाव था।

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2. ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना – कबीर ईश्वर के निर्गुण रूप के उपासक थे। उनके अनुसार ईश्वर प्रत्येक हृदय में वास करते हैं, उन्हें मंदिर-मस्जिद में ढूँढ़ना व्यर्थ है। भगवान की भक्ति के लिए आडंबर की अपेक्षा मन की शुद्धता एवं पवित्र आचरण की आवश्यकता है –

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन माँहि।
ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि ॥

3. समाज-सुधार की भावना – कबीर उच्च कोटि के कवि होने के साथ-साथ समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने अपने काव्य के द्वारा धर्म एवं जाति के नाम पर होने वाले अत्याचारों का डटकर विरोध किया। जाति-पाँति की भेद-रेखा खींचने वाले पंडितों एवं मौलवियों की उन्होंने खूब खबर ली –

ऊँचे कुल क्या जनमिया, जो करनी ऊँच न होय।
सवरन कलस सुरइ भरा, साधु निंदै सोय॥

4. गुरु महिमा – कबीर ने सच्चे गुरु को भगवान के समान ही मानकर उनकी वंदना की है। उनके अनुसार गुरु ही ईश्वर तक पहुँचने की राह दिखाता है –

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपण, गोबिंद दियो बताय॥

5. सत्संगति का महत्त्व – सत्संगति का प्रभाव अटल होता है। कबीर ने सत्संग की महिमा में अनेक दोहों एवं शब्दों की रचना की है।

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6. रहस्यवाद – आत्मा एवं परमात्मा के मध्य चलने वाली प्रणय लीला को रहस्यवाद कहते हैं। इस विषय में कबीर ने कहा है
कि आत्मा एवं परमात्मा के मिलने में माया सबसे बड़ी बाधा है। माया का पर्दा हटते ही आत्मा-परमात्मा एक हो जाते हैं।
कबीर ने प्रेम-पक्ष की तीव्रता का भी बड़ा मार्मिक चित्रण किया है।

भाषा-शैली – कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिए उनके काव्य में कला-पक्ष का अधिक निखार नहीं है। दूसरा कारण यह है कि कबीर सुधारक पहले थे और कवि बाद में। फिर भी उनके काव्य में भाषा का सहज सौंदर्य दिखाई देता है। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अथवा खिचड़ी भाषा है। उसमें ब्रज, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी आदि भाषाओं के अनेक शब्दों का मिश्रण एवं अलंकारों ने भी सहयोग दिया है। शैली मुक्तक है। कबीर के पदों में अनेक राग-रागनियों का प्रयोग भी हुआ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कबीर हिंदी साहित्य की महान विभूति हैं। उनकी कविता में क्रांति का स्वर, समाज-सुधार की भावना और एक सच्चे भक्त की पुकार है।

साखियों का सार :

प्रस्तुत साखियाँ कबीरदास द्वारा रचित हैं। इन साखियों में कवि ने विभिन्न विषयों पर अपने विचारों को सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है। कबीरदास के अनुसार हमें ऐसे मधुर वचनों का प्रयोग करना चाहिए, जिससे दूसरों को भी सुख का अनुभव हो। उनका मानना है कि ईश्वर प्रत्येक हृदय में विद्यमान है, किंतु मनुष्य कस्तूरी मृग की तरह उसे इधर-उधर ढूँढ़ता फिरता है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अहंकार को नष्ट करना आवश्यक है और मन को पूर्ण एकाग्र करके ही ईश्वर को पाया जा सकता है।

कबीरदास कहते हैं कि सांसारिक लोग विषय – वासनाओं में डूबे रहते हैं, वे खाने-पीने और सोने में सुख अनुभव करते हैं। इसके विपरीत ज्ञानी व्यक्ति जीवन की नश्वरता को देखकर दुखी रहता है। ईश्वर की विरह में तड़पने वाला व्यक्ति अत्यंत कष्टमय जीवन व्यतीत करता है। उनका मानना है कि मनुष्य को अपने आलोचकों को भी अपने आस-पास रखना चाहिए, क्योंकि निंदा करने वाले व्यक्ति के सभी दोषों को दूर कर देते हैं। कवि के अनुसार वेदों, उपनिषदों आदि ग्रंथों को पढ़कर कोई व्यक्ति विद्वान नहीं होता। जो व्यक्ति ईश्वर-प्रेम के मार्ग पर चलता है, वही वास्तविक विद्वान होता है। ईश्वर-प्रेम के प्रकाशित होने पर एक विचित्र-सा प्रकाश फैल जाता है। उसके बाद मनुष्य की वाणी से भी सुगंध आने लगती है। अंत में कबीरदास क्रांतिकारी स्वर में कहते हैं कि ईश्वर-प्रेम के मार्ग पर चलना सरल नहीं है। इस मार्ग में चलने के लिए तो अपना सर्वस्व न्योछावर करना पड़ता है।

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सप्रसंग व्याख्या :

1. ऐसी बॉणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।

शब्दार्थ : बाँणी – वाणी, शब्द, वचन। आपा – अहंकार, घमंड। खोइ – नष्ट होना। तन – शरीर। सीतल – शीतलता, सुख, आनंद।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी महान संत कबीरदास द्वारा रचित है। इस साखी में कवि ने मनुष्य को मधुर वचनों के लाभ बताए हैं।

व्याख्या : कबीर मधुर वचन बोलने के संबंध में कहते हैं कि मनुष्य को ऐसे मीठे वचन बोलने चाहिए, जिससे मन का अहंकार समाप्त हो जाए। मनुष्य के द्वारा बोले गए मीठे वचनों से वह स्वयं तो आनंद का अनुभव करता ही है, उसे सुनने वाला भी सुख प्राप्त करता है। कहने का भाव यह है कि मनुष्य को सदैव मधुर वचन बोलने चाहिए।

2. कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढ़े बन माँहि।
ऐसें घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

शब्दार्थ : कस्तूरी – एक सुंगधित पदार्थ। मृग – हिरण। बन – वन, जंगल। माँहि – में। घटि – हृदय। दुनियाँ – संसार, विश्व।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी महाकवि कबीरदास द्वारा रचित है। इस साखी में उन्होंने बताया है कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। वह प्रत्येक हुदय में निवास करता है।

व्याख्या : कबीरदास कहते हैं कि कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी नाभि में ही विद्यमान होता है, किंतु वह इस तथ्य से अनजान होकर उसे जंगल में इधर-उधर खोजता है। इसी प्रकार ईश्वर भी सभी के हृदय में विद्यमान है, किंतु लोग इस बात को नहीं समझते। वे ईश्वर को दुनिया भर में खोजते हैं।

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3. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।

शब्दार्थ : हरि – परमात्मा, ईश्वर। अँधियारा – अंधेरा। दीपक – दीया। मिटि – समाप्त। देख्या – देखा।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी कवि कबीरदास द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने ईश्वर-प्राप्ति के लिए अहंकार को त्यागने पर बल दिया है।

व्याख्या : कबीर कहते हैं कि जब तक मुझमें अहंकार था, तब तक प्रभु मुझसे दूर थे। अब अहंकार के मिट जाने पर मुझे प्रभु मिल गए हैं। जब मैंने ज्ञानरूपी दीपक को लेकर अपने अंत:करण में देखा, तो मेरे हृदय का अज्ञानरूपी अंधकार पूरी तरह से नष्ट हो गया। भाव यह है कि ईश्वर-प्राप्ति के लिए अहंकार को त्यागना आवश्यक है।

4. सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै॥

शब्दार्थ : सुखिया – सुखी। अरू – और। सोवै – सोना। दुखिया – दुखी। रोवै – रोना।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने सांसारिक और ज्ञानी व्यक्ति के अंतर को स्पष्ट किया है।

व्याख्या : कबीर कहते हैं कि सारा संसार सुखी है। सांसारिक व्यक्ति खाने-पीने और सोने में जीवन व्यतीत कर देता है। वह इसी को सच्चा सुख मानकर इसमें डूबा हुआ है। दूसरी ओर मैं संसार की नश्वरता को समझ चुका हूँ और ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयास कर रहा हूँ। उसके वियोग में रो रहा हूँ और उदास हूँ।

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5. बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

शब्दार्थ : भुवंगम – भुजंग, साँप । तन – शरीर। वियोगी – विरह में तड़पने वाला। जिवै – जीवित। बौरा – पागल।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने ईश्वरीय विरह की पीड़ा और प्रभाव को व्यक्त किया है।

व्याख्या : कबीर कहते हैं कि विरहरूपी साँप शरीररूपी बिल में घुसा बैठा है। कोई भी मंत्र उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल पा रहा। ईश्वर के प्रेम की विरह में तड़पने वाला व्यक्ति विरह की पीड़ा के कारण जीवित नहीं रहता और यदि वह जीवित रह जाता है, तो उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। वह स्वयं में ही डूबा रहता है।

6. निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बंधाइ।
बिन साबण पाणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥

शब्दार्थ : निंदक – निंदा करने वाला। नेड़ा – समीप, निकट। आँगणि – आँगन। कुटी – कुटिया। साबण – साबुन। पाँणी – पानी। निरमल – स्वच्छ। सुभाइ – स्वभाव।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने निंदा करने वाले व्यक्ति की उपयोगिता बताई है।

व्याख्या : कबीरदास कहते हैं कि निंदा करने वाले व्यक्ति का भी महत्व होता है। निंदक व्यक्ति बार-बार हमारे अवगुणों को बताता है और इस प्रकार वह साबुन और पानी के बिना ही हमारे स्वभाव को निर्मल एवं स्वच्छ बना देता है। अत: उसे अपने आस-पास ही रखना चाहिए। यदि संभव हो तो अपने घर के आँगन में ही उसके लिए छप्पर डाल देना चाहिए।

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7. पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ।

शब्दार्थ : पोथी – ग्रंथ, पुस्तक। जग – संसार। पंडित – विद्वान। भया – होना। ऐकै – एक। आषिर – अक्षर। पीव – प्रियतम, ईश्वर। सु – वही।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने बताया है कि जो व्यक्ति ईश्वर-प्रेम के सच्चे रस में डूब जाता है, वही वास्तविक विद्वान है।

व्याख्या : कबीर कहते हैं कि इस संसार में धार्मिक ग्रंथों को पढ़-पढ़कर अनेक सांसारिक लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, किंतु कोई भी सच्चा विद्वान नहीं बन सका। दूसरी ओर जो व्यक्ति प्रेम के अक्षर को पढ़ लेता है अर्थात् प्रेम को स्वयं में समाहित कर लेता है, वही सच्चा विद्वान बन जाता है। ईश्वर- प्रेम में डूबने वाला व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त करने में सफल होता है। धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं होता।

JAC Class 10 Hindi Solutions Sparsh Chapter 1 कबीर की साखी

8. हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

शब्दार्थ : जाल्या – जलाया। आपणाँ – अपना। मुराड़ा – जलती हुई लकड़ी, मशाल। तास का – उसका। साथि – साथ।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी कवि कबीर द्वारा रचित है। इस साखी में उन्होंने समस्त विकारों को त्यागकर ज्ञान-प्राप्ति की बात कही है।

व्याख्या : कबीरदास कहते हैं कि उन्होंने विषय-वासनाओं और अन्य विकारों से युक्त अपने शरीररूपी घर को जलाकर नष्ट कर दिया है। अब उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। अब वे ज्ञानरूपी मशाल को लेकर निकल पड़े हैं और जो उनके साथ चलने के लिए तैयार होगा, वे उसके भी अज्ञान को जलाकर नष्ट कर देंगे।

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