JAC Class 12 History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Jharkhand Board Class 12 History बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज InText Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 56

प्रश्न 1.
इस मन्त्र के संदर्भ में, विवाह का वधू और वर के लिए क्या अभिप्राय है? इसकी चर्चा कीजिये । क्या ये अभिप्राय समान हैं या फिर इनमें भिन्नताएँ हैं?
उत्तर:
विवाह का वधू और वर के लिए अभिप्राय उत्तम पुत्रों की प्राप्ति है। दोनों का उद्देश्य एक-दूसरे का साथ निभाते हुए तथा प्रेमपूर्वक रहते हुए उत्तम पुत्र प्राप्त करना है। अतः इन दोनों के अभिप्राय समान हैं।

पृष्ठ संख्या 57

प्रश्न 2.
उद्धरण पढ़िये और उन सारे मूल तत्त्वों की सूची तैयार कीजिये जिनका राजा बनने के लिए प्रस्ताव किया गया है। एक विशेष कुल में जन्म लेना कितना महत्त्वपूर्ण था? इनमें से कौन-सा मूल तत्त्व सही लगता है ? क्या ऐसा कोई तत्त्व है जो आपको अनुचित लगता है?
उत्तर:
(1) राजा बनने के लिए निम्नलिखित मूल तत्त्व आवश्यक थे-

  • राजा का उत्तराधिकारी होना
  • शारीरिक अंगों का अभाव या नेत्रहीन न होना
  • भाइयों में ज्येष्ठ होना
  • वयस्क होना
  • योग्य एवं सदाचारी होना।

(2) एक विशेष कुल में जन्म लेना बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता था क्योंकि इससे व्यक्ति सिंहासन प्राप्ति के लिए अपना दावा प्रस्तुत कर सकता था।
(3) ‘योग्य और सदाचारी होना’ नामक मूल तत्त्व सही लगता है।
(4) अयोग्य और अल्पवयस्क होने पर भी सिंहासन प्राप्त करने की आकांक्षा रखना अनुचित तत्त्व लगता है।

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पृष्ठ संख्या 58

प्रश्न 3.
इनमें से प्रत्येक विवाह पद्धति के विषय में चर्चा कीजिए कि विवाह का निर्णय किसके द्वारा लिया गया था –
(क) वधू
(ख) वर
(ग) वधू का पिता
(घ) वर का पिता
(ङ) अन्य लोग।
उत्तर:
(क) छठी विवाह पद्धति में वधू और वर द्वारा निर्णय लिया गया था।
(ख) पाँचवीं विवाह पद्धति में वर द्वारा निर्णय लिया गया था।
(ग) पहली और चौथी विवाह पद्धतियों में वर के पिता द्वारा निर्णय लिया गया।
(घ) पाँचवीं विवाह पद्धति में वधु के वर पिता द्वारा निर्णय लिया गया।

पृष्ठ संख्या 59

प्रश्न 4.
यहाँ कितने गोतमी – पुत्त तथा कितने वसिथि (वैकल्पिक वर्तनी वसथि ) पुत्र हैं?
उत्तर:
यहाँ तीन गोतमी – पुत्त तथा एक वसिथि-पुत्र हैं।

पृष्ठ संख्या 60

प्रश्न 5.
क्या यह उद्धरण आपको आरम्भिक भारतीय समाज में माँ को किस दृष्टि से देखा जाता था, इसका जायजा देता है?
उत्तर:
इस उद्धरण से हमें इसका जायजा मिलता है कि आरम्भिक भारतीय समाज में माँ को आदर की दृष्टि से देखा जाता था। इस युग में स्त्रियाँ विदुषी, दूरदर्शी होती थीं तथा राजनीतिक कार्यों में भी भाग लेती थीं वे विवेकपूर्ण होती थीं तथा उनका ज्ञान विस्तृत होता था। वे संकटपूर्ण परिस्थितियों में अपने पुत्रों को उचित सलाह देती थीं। परन्तु अहंकारी और सत्तालोलुप लोग अपनी माता की उचित सलाह को भी ठुकरा दिया करते थे। गान्धारी ने अपने पुत्र दुर्योधन को युद्ध न करने की सलाह दी परन्तु उसने अपनी माता की सलाह का पालन नहीं किया।

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पृष्ठ संख्या 60 चर्चा कीजिये

प्रश्न 6.
आजकल बच्चों का नामकरण किस भाँति होता है? क्या ये नाम इस अंश में वर्णित नामों से मिलते- जुलते हैं अथवा भिन्न हैं?
उत्तर:
आजकल अभिभावक ज्योतिषियों की सलाह से अपने बच्चों का नाम रखते हैं। ज्योतिषी प्राय: बच्चों का नामकरण जन्म की राशि के आधार पर निर्धारित अक्षरों के आधार पर करते हैं। सातवाहन राजाओं के नाम उनके मातृ नाम के आधार पर रखे जाते थे परन्तु आजकल इस अंश में वर्णित नाम आधुनिक नामों से भिन्न हैं। पृष्ठ संख्या 61

प्रश्न 7.
आपको क्या लगता है कि ब्राह्मण इस सूक्त को बहुधा क्यों उद्धृत करते थे?
उत्तर:
ब्राह्मणों की मान्यता थी कि वर्ण व्यवस्था में उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उनकी यह भी मान्यता थी कि वर्ण व्यवस्था एक दैवीय व्यवस्था है अतः इसे प्रमाणित करने के लिए वे ऋग्वेद के पुरुषसूक्त मन्त्र को बहुधा उद्धत करते थे।

पृष्ठ संख्या 62

प्रश्न 8.
इस कहानी के द्वारा निषादों को कौनसा सन्देश दिया जा रहा था? क्षत्रियों को इससे क्या सन्देश मिला होगा? क्या आपको लगता है कि एक ब्राह्मण के रूप में द्रोण धर्मसूत्र का अनुसरण कर रहे थे जब वे धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे?
उत्तर:
इस कहानी द्वारा निषादों को दो विरोधाभासी सन्देश दिये जा रहे थे। पहला सन्देश धनुर्विद्या के पात्र नहीं हैं, इस पर केवल यह था कि वह क्षत्रियों का ही अधिकार है। दूसरा सन्देश यह प्राप्त होता है कि श्रद्धा लगन और निष्ठा से सतत् अभ्यास के द्वारा कोई भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। वे किसी से कमतर नहीं हैं। क्षत्रियों को इससे यह सन्देश प्राप्त होता है कि धनुर्विद्या पर मात्र उनका ही एकाधिकार नहीं है। धर्मसूत्रों में शूद्रों को विद्या अध्ययन की आज्ञा नहीं थी, इसलिए धर्मसूत्रों के अनुसार द्रोण का यह कार्य उचित था परन्तु गुरुदक्षिणा के रूप में एकलव्य से अंगूठा माँगना न्यायसंगत नहीं था।

पृष्ठ संख्या 64

प्रश्न 9.
क्या आपको लगता है कि रेशम के बुनकर उस जीविका का पालन कर रहे थे जो उनके लिए शास्त्रों ने तय की थी?
उत्तर:
प्राचीन भारत में जो जातियाँ एक ही जीविका अथवा व्यवस्था से जुड़ी थीं उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था। मंदसौर (मध्यप्रदेश) से मिले एक अभिलेख में रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का उल्लेख मिलता है जो मूलतः लाट (गुजरात) प्रदेश के निवासी थे और वहाँ से मन्दसौर चले गए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि रेशम के बुनकर उस जीविका का पालन नहीं कर रहे थे जो उनके लिए शास्त्रों ने निर्धारित की थी। कुछ बुनकर संगीत प्रेमी थे तथा कुछ लेखक थे। कुछ बुनकर धार्मिक व्याख्यानों में संलग्न थे तथा कुछ धार्मिक अनुष्ठान करते थे। कुछ बुनकर वीर योद्धा थे।

पृष्ठ संख्या 65

प्रश्न 10.
इस सारांश में उन व्यवहारों को निर्दिष्ट कीजिये जो अब्राह्मणीय प्रतीत होते हैं।
उत्तर:
हिडिम्बा द्वारा भेष बदलकर सुन्दर स्वी के रूप में भीम से विवाह का प्रस्ताव करना, भीम द्वारा राक्षस की बहिन हिडिम्बा के साथ सशर्त विवाह करना तथा हिडिम्बा और उसके पुत्र द्वारा पाण्डवों को छोड़कर वन में जाना अब्राह्मणीय प्रतीत होते हैं।

पृष्ठ संख्या 67

प्रश्न 11.
इस कथा में उन तत्त्वों की ओर इंगित कीजिए जिनसे यह ज्ञात हो कि वह मातंग के नजरिए से लिखे गये थे।
उत्तर:
इस कथा में मातंग के नजरिए से लिखे गए तत्त्व निम्नलिखित हैं –
(1) मातंग का लगातार 7 दिन दिथ्थ के घर के आगे उपवास करना।
(2) मातंग का संसार त्यागने का निर्णय और अलौकिक शक्ति पाकर बनारस लौटना।
(3) मातंग का माण्डव्य को उत्तर जिन्हें अपने जन्म पर गर्व है पर अज्ञानी हैं; वे भेंट के पात्र नहीं हैं। इसके विपरीत जो लोग दोषमुक्त हैं, वे भेंट योग्य हैं।
(4) मातंग का दिथ्य से कहना कि वह उनके भिक्षा- पात्र में बचे हुए भोजन का अंश माण्डव्य तथा ब्राह्मणों को दे दे।

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पृष्ठ संख्या 67 : चर्चा कीजिये

प्रश्न 12.
इस प्रकरण में कौनसे स्रोत हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि लोग ब्राह्मणों द्वारा बताई गई जीविका का अनुसरण करते थे? कौनसे स्त्रोत हैं जिनसे अलग सम्भावनाओं की जानकारी होती है?
उत्तर:
निम्नलिखित स्रोतों से ज्ञात होता है कि लोग ब्राह्मणों द्वारा बताई गई जीविका का अनुसरण करते थे –
(1) उच्च वर्णों के लोगों द्वारा चाण्डालों के दर्शन न करना। चाण्डालों का नगर से बाहर रहना।
(2) दिथ्थ मांगलिक नामक व्यापारी की पुत्री को मातंग नामक चाण्डाल को सौंपना और मातंग द्वारा दिव मांगलिक से विवाह करना।
(3) दिव्य के पुत्र माण्डव्यकुमार द्वारा वेदों का अध्ययन करना और ब्राह्मणों को भोजन कराना।
(4) माण्डव्यकुमार द्वारा मातंग नामक पतित व्यक्ति को भोजन न देना। परन्तु मातंग द्वारा दिय से यह कहना कि वह उसके भिक्षापात्र में बने हुए भोजन का कुछ अंश माण्डव्य तथा ब्राह्मणों को दे दे, यह अलग सम्भावना की जानकारी देता है।

पृष्ठ संख्या 68

प्रश्न 13.
क्या आपको ऐसा लगता है कि यह प्रकरण इस बात की ओर इंगित करता है कि पत्नियों को पतियों की निजी सम्पत्ति माना जाए?
उत्तर:
द्रौपदी के प्रश्न के उत्तर में जो दो मत प्रकट किए गए उनका कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका। धृतराष्ट्र द्वारा सभी पाण्डवों तथा द्रौपदी को उनकी निजी स्वतन्त्रता पुनः लौटा देने से यह प्रकट होता है के समान पत्नियों को पति की निजी सम्पत्ति कि वस्तु मानना अनुचित है।

पृष्ठ संख्या 69

प्रश्न 14.
स्त्री और पुरुष किस प्रकार धन प्राप्त कर सकते थे? इसकी तुलना कीजिए व अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(1) पुरुषों द्वारा धन प्राप्त करना – मनुस्मृति के अनुसार पुरुष निम्नलिखित सात तरीकों से धन प्राप्त कर सकते थे-

  • विरासत
  • खोज
  • खरीद
  • विजय प्राप्त करके
  • निवेश
  • कार्य द्वारा तथा
  • सज्जनों द्वारा दी गई भेंट को स्वीकार करके।

(2) स्त्रियों द्वारा धन प्राप्त करना मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियाँ निम्नलिखित छ तरीकों से धन प्राप्त कर सकती थीं-

  • वैवाहिक अग्नि के सामने मिली भेंट
  • वधू गमन के समय मिली भेंट
  • स्नेह के प्रतीक के रूप में मिली भेंट
  • भ्राता, माता और पिता द्वारा दिए गए उपहार
  • परवर्ती काल में मिली भेंट
  • वह सब कुछ जो ‘अनुरागी’ पति से उसे प्राप्त हो।

तुलना – मनुस्मृति के अनुसार पुरुष और स्त्री दोनों को ही धन अर्जित करने का अधिकार था। पुरुष सात तरीकों से धन अर्जित कर सकते हैं तथा स्वियों छ: तरीकों से धन प्राप्त कर सकती हैं।

अन्तर:
(1) पुरुषों को विरासत में पैतृक सम्पत्ति मिलती थी, परन्तु स्त्रियों को पिता की सम्पत्ति विरासत में नहीं मिलती थी
(2) पुरुष युद्ध में विजय प्राप्त करके शत्रु की सम्पत्ति पर अधिकार कर सकते थे। वे खोज करके, किसी चीज को खरीदकर (तथा कुछ समय बाद बेचकर) धन निवेश कर धन कमा सकते थे परन्तु स्त्रियाँ विजय प्राप्त करके, खोज तथा क्रय-विक्रय से धन नहीं कमाती थीं दूसरी ओर स्त्रियाँ वैवाहिक अग्नि के सामने मिली भेंट, वधू गमन के समय मिली भेंट, स्नेह के प्रतीक के रूप में मिली भेंट, भाई तथा माता- पिता के द्वारा दिए गए उपहार, परवर्ती काल में मिली भेंट तथा अनुरागी पति से मिली भेंट आदि के द्वारा धन अर्जित कर सकती थीं।

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पृष्ठ संख्या 71

प्रश्न 16.
मूर्तिकार ने सरदार व उसके अनुयायी के बीच अन्तर को कैसे दर्शाया है? (चित्र के लिए देखिए पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ 71)
उत्तर:
(1) सरदार अनुयायी के सिर पर अपना हाथ रखे हुए है। इससे ज्ञात होता है कि वह अपने अनुयायी का आश्रयदाता है।
(2) सरदार का शरीर बलिष्ठ है तथा उसका कद लम्बा है परन्तु अनुयायी का शरीर कमजोर है तथा उसका कद छोटा है। इससे प्रतीत होता है कि समाज में सरदार का प्रभाव और उसकी प्रतिष्ठा अनुयायी से
अधिक है।
(3) सरदार आभूषण पहने हुए है। वह एक वस्व धारण किए हुए है जो कमर से लेकर घुटनों तक है। परन्तु अनुयायी आभूषण रहित है और वह एक लंगोट जैसा मामूली वस्त्र पहने हुए है। इससे सरदार की सम्पन्नता तथा अनुयायी की निर्धनता प्रकट होती है। पृष्ठ संख्या 71

प्रश्न 17.
चारण ने सरदार को दानी बताने के लिए किस तरह के दाँव-पेच अपनाये? धन अर्जित करने के लिए सरदार को क्या करना होता था जिससे वह उसका कुछ अंश चारण को दे सके ?
उत्तर:
चारण ने अपने सरदार को दानी बताते हुए कहा कि उसके पास प्रतिदिन दूसरों पर खर्चा करने के लिए धन नहीं है। परन्तु वह इतना ओछा भी नहीं कि वह धन न होने का बहाना करके दान देने से मना कर दे। वह दानप्रिय है। वह चारणों को भी अपने सरदार के पास चलने को प्रेरित करता है। चारण ने कहा कि यदि हम सरदार से प्रार्थना करेंगे और अपनी भूख से क्षीण हुई पसलियाँ उसे दिखायेंगे, तो वह हमारी प्रार्थना अवश्य सुनेगा। सरदार को धन अर्जित करने के लिए एक लम्बा भाला बनवाना होता था जिससे वह युद्ध करता था तथा विजय प्राप्त करके विपुल धन प्राप्त करता था। इस धन में वह उसका कुछ अंश चारण को देता था।

पृष्ठ संख्या 76

प्रश्न 18.
क्या आपको लगता है कि लाल की खोज और महाकाव्य में वर्णित हस्तिनापुर में समानता है?
उत्तर:
हमें लगता है कि लाल की खोज और महाभारत नामक महाकाव्य में वर्णित हस्तिनापुर में समानता है। गंगा के ऊपरी दोआब वाले क्षेत्र में हस्तिनापुर का होना, जहाँ कुरु राज्य भी स्थित था, इसकी ओर इंगित करता है कि यह पुरास्थल कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर ही थी। जिसका उल्लेख महाभारत नामक महाकाव्य ‘के आदिपर्वन’ में किया गया है।

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पृष्ठ संख्या 76

प्रश्न 19.
आपको क्यों लगता है कि लेखक (लेखकों) ने एक ही प्रकरण के लिए तीन स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए?
उत्तर:
द्रौपदी के बहुपति विवाह के लिए तीन स्पष्टीकरण-महाभारत के लेखक (लेखकों) ने द्रौपदी के बहुपति विवाह के लिए निम्नलिखित तीन स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए हैं –
(1) जब पांडव प्रतियोगिता जीतकर द्रौपदी को लेकर अपनी माता कुंती के पास पहुँचे तो कुंती ने बिना देखे ही उन्हें लाई गई वस्तु को आपस में बांट लेने का आदेश दिया। जब कुंती ने द्रौपदी को देखा, तो उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई, किन्तु उनकी आज्ञा की अवहेलना नहीं की जा सकती थी। बहुत सोच-विचार के बाद युधिष्ठिर ने यह निर्णय लिया कि द्रौपदी उन पाँचों पाण्डवों की पत्नी होगी।

(2) दूसरे स्पष्टीकरण में ऋषि व्यास ने राजा द्रुपद को बताया कि पांडव वास्तव में इन्द्र के अवतार हैं और इन्द्र की पत्नी ने द्रौपदी के रूप में जन्म लिया है। इसलिए नियति ने ही द्रौपदी के पाँच पति निर्धारित कर दिए थे।

(3) तीसरे स्पष्टीकरण में ऋषि व्यास ने राजा द्रुपद को यह बताया कि एक बार एक युवती ने पति पाने के लिए शिव की उपासना की और अत्यधिक उत्साह में आकर पाँच बार पति प्राप्ति का वर मांग लिया। इसी स्त्री ने द्रौपदी के रूप में जन्म लिया तथा शिव ने उसकी प्रार्थना को पूरा किया है।

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निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 100-150 शब्दों में दीजिए-
प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्त्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर:
विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता का महत्त्वपूर्ण होना विशिष्ट परिवार में शासक, उसका परिवार तथा धनी लोगों के परिवार सम्मिलित हैं। पितृवांशिकता का अर्थ है वह वंश परम्परा जो पिता के पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है। प्राचीन काल में विशिष्ट परिवारों में पितृर्वेशिकता महत्त्वपूर्ण रही थी।

इसके निम्नलिखित कारण थे –
(1) पितृवंश को आगे बढ़ाना-धर्मसूत्रों के अनुसार पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्त्वपूर्ण होते हैं, पुत्रियाँ नहीं इसलिए विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता महत्त्वपूर्ण रही होगी। विशिष्ट परिवारों में उत्तम पुत्रों की प्राप्ति की कामना की जाती थी। यह वार्ता ऋग्वेद के एक मन्त्र से भी स्पष्ट हो जाती है।

(2) उत्तराधिकार से सम्बन्धित विवाद के निपटारे के लिए पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के पश्चात् उनके संसाधनों पर अधिकार स्थापित कर सकते थे। अतः शासक की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र सिंहासन पर अधिकार कर सकता था।

परन्तु इस पद्धति में विभिन्नता थी –

  • परिवार में पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था।
  • कभी-कभी बन्धु-बांधव गद्दी पर अपना अधिकार जमा लेते थे।
  • कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में जैसे उत्तराधिकारी के अल्प वयस्क होने पर स्त्रियाँ जैसे प्रभावती गुप्त सिंहासन प्राप्त कर लेती थीं।

प्रश्न 2.
क्या आरम्भिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
आरम्भिक राज्यों में शासकों का क्षत्रिय होना- धर्म सूत्रों एवं धर्म शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय वर्ग के लोग ही शासक हो सकते थे परन्तु सभी शासक क्षत्रिय नहीं होते थे अनेक महत्त्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी –
(1) मौर्य वंश मौर्यो की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में तीव्र मतभेद है। बाद के बौद्ध ग्रन्थों में यह कहा गया है। कि मौर्य क्षत्रिय थे, परन्तु ब्राह्मणीय शास्त्र मौयों को ‘निम्नकुल’ का मानते हैं।

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(2) शुंग और कण्व वंश- शुंग और कण्व, जो मौर्यो के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण थे वास्तव में राजनीतिक सत्ता का उपभोग हर वह व्यक्ति कर सकता था, जो समर्थन और संसाधन जुटा सके। यह आवश्यक नहीं था कि क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने वाले व्यक्ति को ही सिंहासन प्राप्त होता था।

(3) शकशक शासक मध्य एशिया से भारत आए थे। ब्राह्मण उन्हें मलेच्छ, बर्बर अथवा विदेशी मानते थे। परन्तु ‘जूनागढ़ अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि शक- शासक रुद्रदामन (लगभग दूसरी शताब्दी ईसवी) ने सुदर्शन झील की मरम्मत करवाई थी। इससे यह जानकारी मिलती है कि शक्तिशाली मलेच्छ भी संस्कृतीच परिपाटी से परिचित
थे।

(4) सातवाहन- सातवाहन वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमीपुत्त सिरी सातकनि ने स्वयं को ‘अनूठा ब्राह्मण’ एवं ‘क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला ‘ बताया था।

प्रश्न 3.
द्रोण, हिडिंबा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए व उनके अन्तर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(1) द्रोण की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना द्रोण एक ब्राह्मण थे, जो कुरु वंश के राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा देते थे। एक बार एकलव्य नामक वनवासी निषाद द्रोण के पास धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आया। अपने धर्म का पालन करते हुए द्रोण ने एकलव्य को अपना शिष्य नहीं बनाया क्योंकि वह एक निषाद था एकलव्य द्रोण की प्रतिमा को अपना गुरु मानकर धनुर्विद्या की साधना करके धनुर्विद्या में पारंगत बन गया। परन्तु अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को दिए गए वचन को निभाने के लिए द्रोण द्वारा एकलव्य से गुरु दक्षिणा में दायें हाथ का अंगूठा मांगना धर्म के विपरीत था।

(2) हिडिंबा की कथा में धर्म के मानदंडों की तुलना – हिडिंबा एक नरभक्षी राक्षस की बहन थी। नरभक्षी राक्षस ने हिडिंबा को पांडवों को पकड़ कर लाने के लिए भेजा। हिडिंबा ने पांडवों को पकड़कर लाने का प्रयास नहीं किया और अपने धर्म का पालन नहीं किया। उसने कुंती से कहा कि उसने भीम को अपने पति के रूप में चुना है। अन्त में हिडिंबा का भीम से विवाह कर दिया गया। इस प्रकार कुन्ती तथा युधिष्ठिर सशर्त विवाह के लिए तैयार हो गये और उन्होंने क्षत्रियोचित उदारता का परिचय दिया। परन्तु हिडिम्बा ने भीम से विवाह करके राक्षस कुल की मर्यादा को आघात पहुँचाया।

(3) मातंग की कथा में धर्म के मानदंडों की तुलना- एक बार बोधिसत्व ने एक चाण्डाल के पुत्र के रूप में जन्म लिया, जिसका नाम मातंग था मातंग ने एक व्यापारी की पुत्री दिध्य से विवाह कर लिया। यह ब्राह्मणीय व्यवस्था के धर्म के विपरीत था। उनके यहाँ एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम माण्डव्यकुमार था।

एक दिन मातंग अपने पुत्र माण्डव्यकुमार के द्वार पर आए और भोजन माँगा तो माण्डव्य ने एक पतित व्यक्ति होने के कारण मातंग को भोजन देने से इनकार कर दिया। माण्डव्य का यह आचरण उसकी संकीर्णता का परिचायक था। जब मातंग ने माण्डव्य को अपने जन्म पर गर्व न करने और विवेकपूर्ण व्यवहार करने का उपदेश दिया, तो माण्डव्य ने मातंग को अपने घर से बाहर निकलवा दिया। उसने अब्राह्मणों के प्रति अपनी घृणा और क्रूरता दिखाकर धर्म के विपरीत आचरण किया।

प्रश्न 4.
किन मायनों में सामाजिक अनुबन्ध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी, जो पुरुष सूक्त पर आधारित था?
उत्तर:
सामाजिक अनुबन्ध की बौद्ध अवधारणा- बौद्ध जन्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे। ‘सुत्तपिटक’ नामक बौद्ध ग्रन्थ में लिखा है कि प्रारम्भ में मानव शान्तिपूर्ण रहते थे। कालान्तर में मनुष्य अधिकाधिक लालची, प्रतिहिंसक और कपटी हो गए तब उन्होंने यह अनुभव किया कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का चयन करना चाहिए जो न्यायप्रिय हो, अपराधी को दण्डित करे तथा निष्कासित किये जाने वाले व्यक्ति को राज्य से निष्कासित करे। इस प्रकार बौद्ध अवधारणा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को दैवीय व्यवस्था नहीं मानती थी। बौद्धों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया। बौद्ध व्यवस्था में समाज के सभी वर्गों का समान आदर था।

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पुरुष सूक्त पर आधारित ब्राह्मणीय दृष्टिकोण- ब्राह्मणों के अनुसार वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति एक दैवीय व्यवस्था थी। ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ मन्त्र के अनुसार समाज में चार वर्णों की उत्पत्ति आदि मानव पुरुष से हुई थी। उसके मुख से ब्राह्मण की भुजाओं से क्षत्रिय की जंघा से वैश्य की तथा पैर से शूद्र (हरिजन) की उत्पत्ति हुई थी।

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन तथा वेदों को शिक्षा देना था। क्षत्रियों का कार्य शासन और युद्ध करना, वैश्यों का कार्य कृषि, पशुपालन और व्यापार करना था। शूद्रों (हरिजनों) का कार्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। इस प्रकार ब्राह्मणीय दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार जन्म था। यहाँ वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म था।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर दूत संजय को संबोधित कर रहे संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हूँ… मैं कृपाचार्य के चरण स्पर्श करता हूँ…. (और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा ( धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएँ देता हूँ.. मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं का अभिनंदन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र और पौत्र हैं… सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता और माता के सदृश हैं. मैं उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती हैं जो हमारी पत्नियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, “मैं आशा करता हूँ कि वे सुरक्षित हैं.. मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों की माताएँ हैं, अभिनंदन कीजिएगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा… सुंदर, सुगंधित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा दासियों और उनकी संतानों तथा वृद्ध, विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा…. इस सूची को बनाने के आधारों की पहचान कीजिए- उम्र, लिंग, भेद व बंधुत्व के संदर्भ में क्या कोई अन्य आधार भी हैं? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर क्यों रखा गया है?
उत्तर:
इस सूची को बनाने में उम्र, लिंग भेद व बन्धुत्व के अतिरिक्त कुछ अन्य आधार भी हैं, जैसे गुरुजनों, योद्धाओं, माताओं के प्रति सम्मान आदि उक्त आधारों पर इस सूची का निम्न प्रकार से निर्माण किया जा सकता है –

  • सबसे पहले ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित को अभिवादन प्रस्तुत किया गया है।
  • इसके बाद गुरु द्रोण और कृपाचार्य के प्रति सम्मान प्रकट किया गया है।
  • युधिष्ठिर ने कुरु वंश के प्रधान और उम्र में सबसे बड़े भीष्म पितामह के प्रति भी सम्मान प्रकट किया है इससे ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों के बाद क्षत्रियों का स्थान था।
  • युधिष्ठिर ने वृद्ध राजा धृतराष्ट्र को भी अपना अभिवादन प्रस्तुत किया।
  • उन्होंने दुर्योधन, उसके अनुजों तथा युवा कुरु योद्धाओं का भी अभिनन्दन किया। इससे ज्ञात होता है कि उत्तराधिकारी के रूप में युवराज का प्रमुख स्थान था।
  • उन्होंने अपने माता-पिता के समान महामति विदुर का भी अभिनंदन किया।
  • इसके बाद उन्होंने वृद्धा स्त्रियों के प्रति सम्मान प्रकट किया, पत्नियों के प्रति सुरक्षित होने की कामना की और कुलवधुओं का अभिनन्दन किया। उन्होंने पुत्रियों के प्रति अपना स्नेह प्रकट किया।
  • सबसे अन्त में उन्होंने सुन्दर, सुगन्धित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीं और दासियों तथा उनकी सन्तानों का भी अभिवादन किया।
  • विकलांगों तथा असहायों को भी नमस्कार किया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिए। (लगभग 500 शब्दों में।)

प्रश्न 6.
भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मौरिस विंटरविट्ज ने महाभारत के बारे में लिखा था कि ‘चूँकि महाभारत सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है… बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं…( वह भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है।” चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत
महाभारत महाकाव्य सांस्कृतिक एवं साहित्यिक दोनों दृष्टियों से अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। यह सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है। महाभारत वस्तुतः वर्तमाना में धार्मिक एवं लौकिक भारतीय ज्ञान का विश्वकोश है। इसमें तत्कालीन धर्म, समाज, जीवन मूल्यों, वर्णाश्रम व्यवस्था तथा आदर्शों का सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। साहित्यिक परम्परा में महाभारत के रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं। इसकी रचना लगभग 500 ई. पूर्व से एक हजार वर्ष तक होती रही।
(1) महाभारत की भाषा महाभारत का मूल पाठ संस्कृत भाषा में है। परन्तु महाभारत में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों की संस्कृत से कहीं अधिक सरल है।
(2) विषयवस्तु इतिहासकार महाभारत की विषयवस्तु को दो मुख्य शीर्षकों के अन्तर्गत रखते हैं –
(1) आख्यान तथा
(2) उपदेशात्मक आख्यान में कहानियों का संग्रह है तथा उपदेशात्मक भाग में सामाजिक आचार- विचार के मानदंडों का चित्रण है। अधिकतर इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि महाभारत वस्तुतः एक भाग नाटकीय कथानक था, जिसमें उपदेशात्मक अंश बाद में जोड़े गए।

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(3) महाभारत का ऐतिहासिक महत्त्व – आरम्भिक संस्कृत परम्परा में महाभारत को ‘इतिहास’ की श्रेणी में रखा गया है। महाभारत की मुख्य कथा दो परिवारों के बीच हुए युद्ध का चित्रण है। महाभारत में बान्धवों के दो दलों कौरवों तथा पांडवों के बीच भूमि और सत्ता को लेकर हुए बुद्ध का वर्णन किया गया है। दोनों ही दल कुरु वंश से सम्बन्धित थे। इस युद्ध में पांडवों की विजय हुई महाभारत में तत्कालीन धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अवस्थाओं का वर्णन है।

(4) महाभारत का साहित्यिक महत्त्व इस ग्रन्थ में वीर रस की प्रधानता है परन्तु कहीं-कहीं शृंगार रस और शान्त रस भी मिलते हैं। इस ग्रन्थ में उपमा आदि अलंकारों का तथा अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है।

(5) महाभारत – भारतीय ज्ञान का विश्वकोश- महाभारत धार्मिक एवं लौकिक भारतीय ज्ञान का विश्वकोश है ‘आदि पर्व’ में महाभारत को केवल इतिहास ही नहीं, बल्कि धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा मोक्षशास्त्र भी कहा गया है।

(6) महाभारत का नीतिबोध महाभारत में जगह- जगह नीति का उपदेश है। भीष्म का राजनीति तथा धर्म के विभिन्न पक्षों पर शान्ति पर्व में लम्बा प्रवचन है। नीतिकारों में विदुर का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(7) महाभारत में वर्णित समाज-महाकाव्यकाल में वर्ण-व्यवस्था सुदृढ़ हो चुकी थी। समाज चार प्रमुख वर्णों में विभाजित था –
(1) ब्राह्मण
(2) क्षत्रिय
(3) वैश्य तथा
(4) शुद्र चारों वर्णों में ब्राह्मण वर्ण को सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। फिर भी महाभारत में शील और सदाचार को सामाजिक व्यवस्था का आधार माना गया था। महाभारत के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र व्यक्ति कर्म से होता है, न कि जन्म से महाभारतकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति अधिक उच्च नहीं थी वे प्रायः पुरुषों पर निर्भर थीं। बहुपति विवाह तथा बहुपत्नी विवाह प्रचलित थे। स्वयंवर प्रथा भी प्रचलित थी शूद्रों की स्थिति शोचनीय थी। उन्हें अन्य वर्णों के कर्मों को अपनाने, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था।

(8) दार्शनिक महत्त्व-गीता का दर्शन भी महाभारत का एक अंग है। इसमें ज्ञान, भक्ति और कर्म का सुन्दर समन्वय स्थापित किया गया है। गीता में कर्मयोग, ज्ञान- योग तथा भक्ति योग तीनों को ही मोक्ष का साधन माना गया है। इस दृष्टि से गीता का दृष्टिकोण समन्वयात्मक है। फिर भी गीता में भक्ति मार्ग की श्रेष्ठता पर अधिक बल दिया गया है।

(9) महाभारत में आदर्श – विदुर एक उच्च कोटि का विद्वान एवं नीतिशास्त्र तथा धर्मशास्त्र का ज्ञाता था। वह धृतराष्ट्र को सलाह देते हुए कहता है कि राजा होते हुए उन्हें अपने पुत्र की महत्त्वाकांक्षाओं को अपने निर्णयों में आड़े नहीं आने देना चाहिए। भीष्म धर्म और न्याय के प्रतीक होते हुए भी अपनी प्रतिज्ञा के कारण हस्तिनापुर के राजसिंहासन से बंधे हुए हैं। युधिष्ठिर अनेक कष्ट सहन हुए भी धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हैं। महाभारत में द्रौपदी एक आदर्श नारी के रूप में चित्रित की गई है।
करते

(10) महाभारत का सामाजिक मूल्य- महाभारत की सामाजिक व्यवस्था में कर्म को अधिक महत्त्व दिया गया है। उसके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र व्यक्ति कर्म से होता है, न कि जन्म से द्रोणाचार्य और परशुराम जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय कर्म में रत थे क समाज में जन्मजात वर्ण का भी महत्त्व था। परन्तु गुण कर्म अ के आदेश से लोगों को कर्म करने की स्वतन्त्रता मिलने लगी।

(11) धार्मिक जीवन महाभारत काल में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, पार्वती, दुर्गा, लक्ष्मी आदि देवी- देवताओं की उपासना की जाती थी। इस युग में अवतारवाद का सिद्धान्त लोकप्रिय होने लगा था। राम, कृष्ण आदि को विष्णु का अवतार मानकर उनकी उपासना की जाती थी। इस युग में यज्ञों का महत्व बना हुआ था इस युग में कर्मवाद तथा पुनर्जन्मवाद के सिद्धान्त भी लोकप्रिय थे। उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि मौरिस विन्टरनिट्ज का यह कथन सही प्रतीत होता है कि “महाभारत सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।”

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प्रश्न 7.
क्या यह सम्भव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? चर्चा कीजिए।
अथवा
महाभारत के लेखक एवं तिथियों पर संक्षिप्त टिप्पणी
लिखिए।
अथवा
महाभारत का लेखनकाल तथा रचयिता अत्यन्त विवादित रहे हैं। विवेचना कीजिये।
अथवा
क्या यह सम्भव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
महाभारत का रचयिता
यह सम्भव प्रतीत नहीं होता कि महाभारत का एक ही रचयिता था महाभारत की रचना 500 ई. पूर्व से लेकर एक हजार वर्ष तक होती रही। इसमें वर्णित कुछ कथाएँ तो महाकाव्य काल से पहले भी प्रचलित थीं। अतः महाभारत को एक ही व्यक्ति की रचना कहना तर्कसंगत नहीं है। वर्तमान में महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक हैं, जो विभिन्न प्रारूपों एवं कालों में लिखे गये हैं।
विभिन्न लेखक- महाभारत के रचयिताओं के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत प्रकट किए गए हैं –

(1) मूल कथा के रचयिता सम्भवतः महाभारत की मूलकथा के रचयिता भाट सारथी थे, जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था ये क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्धक्षेत्र में जाते थे और उनकी विजयों एवं उपलब्धियों के बारे में कविताओं की रचना करते थे। इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप में हुआ

(2) ब्राह्मणों द्वारा रचना करना पाँचवीं शताब्दी ई. पूर्व से ब्राह्मणों ने इस कथा परम्परा पर अपना अधिकार कर लिया और इसे लिखा यह वह काल था जब कुरु और पांचाल, जिनके इर्द-गिर्द महाभारत की कथा घूमती है, मात्र सरदारी से राजतन्त्र के रूप में विकसित हो रहे थे। यह सम्भव है कि नये राजा अपने इतिहास को अधिक नियमित रूप से लिखना चाहते थे। यह भी सम्भव है कि नये राज्यों की स्थापना के समय होने वाली उथल-पुथल के कारण पुराने सामाजिक मूल्यों के स्थान पर नवीन मानदंडों की स्थापना हुई। इन मानदंडों का इसके कुछ भागों में वर्णन मिलता है।

(3) लगभग 200 ई. पूर्व से 200 ईसवी के बीच महाभारत के रचनाकाल का चरण लगभग 200 ई. पूर्व से 200 ईसवी के बीच महाभारत के रचना काल का एक और चरण आरम्भ हुआ। इस काल में विष्णु देवता की उपासना जोर पकड़ रही थी तथा महाभारत के महत्त्वपूर्ण नायक श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार बताया जा रहा था।

(4) कालान्तर में महाभारत में उपदेशात्मक प्रकरणों का जोड़ा जाना- कालान्तर में लगभग 200-400 ईसवी के बीच ‘मनुस्मृति’ से मिलते-जुलते वृहत् उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़े गए। इन प्रकरणों के जोड़े जाने से ‘महाभारत’ का आकार बढ़ता गया। परिणामस्वरूप यह ग्रन्थ जो अपने प्रारम्भिक रूप में सम्भवतः 10,000 श्लोकों से भी कम रहा होगा, बढ़कर एक लाख श्लोकों वाला हो गया। वर्तमान रूप में महाभारत में एक लाख श्लोक हैं। इससे सिद्ध होता है कि एक ही व्यक्ति महाभारत का
रचयिता नहीं हो सकता।

(5) साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाभारत का रचयिता साहित्यिक परम्परा में महाभारत के रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि एक ही व्यक्ति महाभारत का रचयिता नहीं था।

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प्रश्न 8.
आरम्भिक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की विषमताएँ कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
आरम्भिक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की विषमताएँ –
आरम्भिक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की विषमताओं के निम्नलिखित कारण थे –
(1) पितृवैशिक व्यवस्था प्राचीनकाल में पितृवंशिक व्यवस्था प्रचलित थी। पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु ने के पश्चात् उनके संसाधनों पर अधिकार स्थापित कर सकते थे। इसलिए पितृवंशिकता व्यवस्था में पुत्र महत्त्वपूर्ण माने जाते सभी लोग पुत्रों की ही कामना करते थे परन्तु पितृवंशिक व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था।

पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। परिवार के लोग यही प्रयास करते थे कि अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना चाहिए। इस प्रथा को ‘बहिर्विवाह पद्धति’ कहते हैं। इसका अभिप्राय यह था कि प्रतिष्ठित परिवारों की कम आयु की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था ताकि ‘उचित समय’ पर और ‘उचित व्यक्ति’ से उनका विवाह किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्त्वपूर्ण धार्मिक कर्त्तव्य माना गया।

(2) स्त्री का गोत्र- लगभग 1000 ई. पूर्व के बाद से एक ब्राह्मणीय पद्धति प्रचलित हुई, जो लोगों, विशेषकर ब्राह्मणों को गोत्रों में वर्गीकृत करती थी प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे गोत्रों के दो नियम महत्वपूर्ण थे –

  • विवाह के पश्चात् स्वियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था तथा
  • एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह सम्बन्ध नहीं रख सकते थे।

परन्तु इन नियमों का हमेशा पालन नहीं किया जाता। था। कुछ सातवाहन राजाओं की अनेक पत्नियाँ थीं सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नामों के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि उनके नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे जो उनके पिता के गोत्र थे। इससे पता चलता है कि इन रानियों ने विवाह के बाद अपने पति- कुल के गोत्र को ग्रहण करने की अपेक्षा, अपने पिता के गोत्र नाम को ही बनाये रखा। यह भी ज्ञात होता है कि कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थीं।

यह बात बहिर्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध थी यह उदाहरण एक वैकल्पिक प्रथा अन्तर्विवाह पद्धति अर्थात् बन्धुओं में विवाह सम्बन्ध का प्रतीक है। इस विवाह पद्धति का प्रचलन दक्षिण भारत के अनेक समुदायों में आज भी है। बान्धवों जैसे ममेरे, चचेरे इत्यादि भाई बहिन के साथ किए गए विवाह सम्बन्धों से एक सुगठित समुदाय जन्म लेता था। सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम से चिह्नित किया जाता था। इससे यह ज्ञात होता है कि माताएँ महत्त्वपूर्ण थीं। परन्तु इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले यह बात ध्यान में रखनी होगी कि सातवाहन राजाओं में सिंहासन का उत्तराधिकारी प्राय: पितृवंशिक होता था।

(3) सम्पत्ति का अधिकार ‘मनुस्मृति’ के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के बाद पैतृक सम्पत्ति का सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए। परन्तु ज्येष्ठ पुत्र इस सम्पत्ति में विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रियाँ इस पैतृक संसाधन में भागीदारी की माँग नहीं कर सकती थीं। परन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का स्वामित्व माना जाता था। इसे ‘स्वीधन’ (अर्थात् स्वी का धन) कहा जाता था। इस सम्पत्ति को उनकी सन्तान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी।

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इस सम्पत्ति पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था परन्तु ‘मनुस्मृति’ स्त्रियों को पति की अनुमति के बिना पारिवारिक सम्पत्ति अथवा स्वयं अपनी बहुमूल्य सम्पत्ति को गुप्त रूप से संचित करने से मना करती थी। अनेक साक्ष्यों से यह पता चलता है कि यद्यपि उच्च वर्ग की स्त्रियाँ संसाधनों पर अपनी पैठ रखती थीं, फिर भी भूमि, पशु और धन पर प्राय: पुरुषों का ही नियन्त्रण था। दूसरे शब्दों में स्वी और पुरुष के मध्य सामाजिक स्थिति की भिन्नता संसाधनों पर उनके नियन्त्रण की भिन्नता के कारण ही प्रबल हुई थी।

(4) अन्य विषमताएँ –

  • ‘महाभारत’ से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों, गुरुजनों, क्षत्रिय राजाओं और राजकुमारों आदि का अभिवादन करने के बाद अन्त में स्वियों का अभिवादन किया। इससे स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की विषमताओं पर प्रकाश पड़ता है।
  • महाभारत से ज्ञात होता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया और उसे भी हार गए। इससे पता चलता है कि पुरुष पत्नियों को निजी सम्पत्ति मानते थे।
  • मनुस्मृति के अनुसार पुरुषों के लिए धन अर्जित करने के सात साधन हैं, परन्तु स्त्रियों के लिए केवल 6 तरीके ही हैं।
  • महाभारत काल में स्त्रियों की स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। समाज में बहुविवाह, बहुपति प्रथा, दासी प्रथा आदि प्रचलित थीं। इस काल में वेश्यावृत्ति भी प्रचलित थी।

प्रश्न 9.
उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बन्धुत्व और विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर:
बन्धुत्व और विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र पालन नहीं होना धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों के ब्राह्मण लेखकों की यह मान्यता थी कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक है और उनके द्वारा बनाए गए नियमों का सबके द्वारा पालन होना चाहिए। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं था। वास्तविक सामाजिक सम्बन्ध कहीं अधिक जटिल थे। उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता और संचार की बाधाओं के कारण ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक नहीं हो सकता था अतः विद्वानों की मान्यता है कि उस समय बन्धुत्व और विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र पालन नहीं होता था।

(1) पारिवारिक जीवन में भिन्नता हम प्रायः
पारिवारिक जीवन को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं। परन्तु वास्तव में सभी परिवार एक जैसे नहीं होते। पारिवारिक जनों के आपसी सम्बन्धों तथा क्रियाकलापों में भिन्नता होती है। परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं, जिन्हें हम सम्बन्धी कहते हैं। तकनीकी भाषा में हम सम्बन्धियों को ‘जाति समूह’ कह सकते हैं। पारिवारिक रिश्ते प्राकृतिक तथा रक्त से सम्बन्धित माने जाते हैं। परन्तु इन रिश्तों की परिभाषा अलग- अलग ढंग से की जाती है। एक ओर कुछ समाजों में भाई- बहिन (चचेरे, मौसेरे आदि) से रक्त का रिश्ता माना जाता है, परन्तु कुछ समाज ऐसा नहीं मानते। उदाहरणार्थ, बान्धवों के दो दल कौरव और पांडव भूमि और सत्ता को लेकर एक- दूसरे के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़ते हैं। दोनों ही दल कुरुवंश से सम्बन्धित थे। यहाँ बन्धुत्व सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का उल्लंघन किया गया।

पितृवशिक पद्धति में भिन्नता यद्यपि कुछ परिवारों में पितृवंशिकता पद्धति प्रचलित थी, परन्तु इस पद्धति में विभिन्नता थी। कभी-कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी-कभी बन्धु- बान्धव राजगद्दी पर अपना अधिकार स्थापित कर लेते थे। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ जैसे चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त सिंहासन प्राप्त कर लेती थीं।

(2) विवाह के नियम:
प्राचीनकाल में पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण होते थे। इस व्यवस्था में पुत्रियों को पुत्रों के समान महत्त्व प्राप्त नहीं था पिता अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपना प्रमुख कर्तव्य समझता था। इस प्रथा को ‘बहिर्विवाह पद्धति’ कहते हैं। इसका अभिप्राय यह था कि उच्च प्रतिष्ठित परिवारों की कम आयु की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बड़ी सावधानीपूर्वक नियमित किया जाता था जिससे ‘उचित समय’ पर तथा ‘उचित व्यक्ति’ से उनका विवाह किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप ‘कन्यादान’ अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्त्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया।

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(3) नगरों के उद्भव से सामाजिक जीवन में जटिलता नए नगरों के उद्भव से सामाजिक जीवन में अधिक जटिलता आ गई। नगरों के निकट और दूर से आकर लोग आपस में मिलते थे और वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते थे। इसके फलस्वरूप नगरों में रहने वाले लोगों में विचारों का आदान-प्रदान होता था। शायद इस कारण से कुछ लोगों के आरम्भिक विश्वासों और व्यवहारों पर सन्देह प्रकट किया और उनका औचित्य जानना चाहा। इस समस्या के समाधान के लिए ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं। लगभग 500 ई. पूर्व से इन मानदण्डों का संकलन ‘धर्मसूत्र’ व ‘धर्मशास्व’ नामक संस्कृत ग्रन्थों में किया गया। इन ग्रन्थों में ‘मनुस्मृति’ सबसे महत्त्वपूर्ण थी जिसका संकलन लगभग 200 ई. पूर्व से 200 ईसवी के बीच हुआ।

(4) शास्त्रों द्वारा विवाह के आठ प्रकारों को मान्यता देना- धर्मसूत्रों तथा धर्मशास्त्रों ने विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति दी है। विवाह के 8 प्रकार थे –

  • ब्रह्म विवाह
  • दैव विवाह
  • आर्ष विवाह
  • प्रजापत्य विवाह
  • आसुर विवाह
  • गन्धर्व विवाह
  • राक्षस विवाह
  • पैशाच विवाह इन आठ विवाहों में से पहले चार विवाह ‘उत्तम’ माने जाते थे तथा शेष चार विवाह निंदित माने गए।

सम्भव है कि ये निन्दित विवाह पद्धतियाँ उन लोगों में प्रचलित थीं जो ब्राह्मणीय नियमों को स्वीकार नहीं करते थे। महाभारत काल में अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित थे। उदाहरणार्थ, क्षत्रिय भीम द्वारा हिडिम्बा नामक राक्षसी के साथ विवाह करना तथा दिथ्य मांगलिक नामक वैश्य कन्या द्वारा मातंग नामक चाण्डाल से विवाह करना आदि। परन्तु ये विवाह विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय विषयों के विपरीत थे।

(5) सातवाहन नरेशों द्वारा गोत्रों के नियमों की अवहेलना ब्राह्मणीय पद्धति के अनुसार गोत्रों के दो नियम महत्त्वपूर्ण थे –
(1) विवाह के बाद स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था तथा
(2) एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह सम्बन्ध नहीं रख सकते थे परन्तु सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों ने विवाह के बाद भी अपने पतिकुल के गोत्र को ग्रहण नहीं किया, जैसा ब्राह्मणीय व्यवस्था में प्रचलित था; उन्होंने अपने पिता का गोत्र नाम ही बनाए रखा। इसके अतिरिक्त कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थीं। यह बात ब्राह्मणीय व्यवस्था की बहिर्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध थी।

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बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज JAC Class 12 History Notes

→ महाभारत उपमहाद्वीप के सबसे समृद्ध ग्रन्थों में से महाभारत एक है। यह एक विशाल महाकाव्य है जो अपने वर्तमान रूप में एक लाख श्लोकों से अधिक है। यह विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का लेखा-जोखा है। इसकी मुख्य कथा दो परिवारों के बीच हुए युद्ध का चित्रण है।

→ महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण- 1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण को तैयार करने की परियोजना शुरू हुई यह परियोजना 47 वर्षों में पूरी हुई। इस प्रक्रिया में दो बातें विशेष रूप से उभर कर आई –
(1) संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी तथा
(2) कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभरकर सामने आए।

→ परिवार परिवार एक बड़े समूह का भाग होते हैं जिन्हें हम सम्बन्धी कहते हैं सम्बन्धियों को ‘जाति समूह’ कहा जा सकता है। पारिवारिक सम्बन्ध ‘नैसर्गिक’ और रक्त से सम्बन्धित माने जाते हैं। संस्कृत ग्रन्थों में ‘कुल’ शब्द का प्रयोग ‘परिवार’ के लिए और ‘जाति’ का ‘बान्धवों’ के समूह के लिए होता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज इकट्ठे रूप में एक ही वंश के माने जाते हैं।

→ पितृवंशिकता – पितृवंशिकता का अर्थ है वह वंश परम्परा जो पिता के पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है पितृवेशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के पश्चात् उनके संसाधनों (राजाओं के संदर्भ में सिंहासन भी) पर अधिकार कर सकते थे। अधिकतर राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। ‘मातृवंशिकता’ शब्द का प्रयोग हम तब करते हैं, जहाँ वंश परम्परा माँ से जुड़ी होती है।

→ विवाह के नियम-पुत्री का अपने गोत्र से बाहर विवाह कर देना ही उचित माना जाता था। इस प्रथा को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं। कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्त्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना जाता था।

→ आचार संहिताएँ- ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं। लगभग 500 ई. पूर्व से इन मानदण्डों का संकलन ‘धर्मसूत्र’ एवं ‘धर्मशास्त्र’ नामक ग्रन्थों में किया गया। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मनुस्मृति श्री जिसका संकलन लगभग 200 ई. पूर्व से 200 ई. के बीच हुआ।

→ विवाह के प्रकार –

  • अन्तर्विवाह अन्तर्विवाह में वैवाहिक सम्बन्ध समूह के बीच ही होते हैं। यह समूह एक गोत्र, कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है।
  • बहिर्विवाह – गोत्र से बाहर विवाह करने को बहिर्विवाह कहते हैं।
  • बहुपत्नी प्रथा यह प्रथा एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होने की सामाजिक परिपाटी है।
  • बहुपति प्रथा यह एक स्वी के अनेक पति होने की पद्धति है।
  • धर्म सूत्र और धर्मशास्य विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं। इनमें से पहले चार ‘उत्तम’ माने जाते थे तथा अन्तिम चार को निंदित माना गया।

→ गोत्रों में वर्गीकृत करना लगभग 1000 ई. पूर्व के बाद से ब्राह्मणों ने लोगों, विशेषकर ब्राह्मणों को गोत्रों में वर्गीकृत करना शुरू किया। प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे।

→ गोत्रों के नियम – गोत्रों के दो नियम महत्त्वपूर्ण थे –
(1) विवाह के पश्चात् स्थियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था।
(2) एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह सम्बन्ध नहीं कर सकते थे परन्तु सातवाहन राजाओं की रानियों के नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे जो उनके पिता के गोत्र थे।

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→ माताओं का महत्त्वपूर्ण होना- सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम से चिह्नित किया जाता था। इससे यह प्रतीत होता है कि माताएँ महत्त्वपूर्ण थीं परन्तु सातवाहन राजाओं में सिंहासन का उत्तराधिकार पितृवंशिक होता था।

→ सामाजिक विषमताएँ-धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख किया गया था। इनमें ब्राह्मणों को पहला दर्जा प्राप्त था तथा शूद्रों एवं अस्पृश्यों को सबसे निम्नस्तर पर रखा जाता था। समाज में चार वर्ग अथवा वर्ण थे।

→ वर्गों के लिए उचित जीविका

  • ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना, दान देना और लेना था।
  • क्षत्रियों का काम युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना आदि था। पालन और व्यापार करना था
  • वैश्यों का कार्य कृषि, गौ था।
  • शूद्रों का काम तीनों उच्च वर्णों की सेवा करना

→ राजा किस वर्ण का होना चाहिए? शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजा हो सकते थे। परन्तु अनेक महत्त्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी, शुंग और कण्व वंश के राजा ब्राह्मण थे सातवाहन वंश के राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण बताया था।

→ जाति और सामाजिक गतिशीलता ब्राह्मणीय सिद्धान्त के अनुसार वर्ण की तरह जाति भी जन्म पर आधारित थी। परन्तु वर्ण जहाँ केवल चार थे, वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी। कुछ जातियों को कभी- कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था। मन्दसौर के एक अभिलेख में रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन मिलता है।

→ चार वर्णों के परे कुछ समुदायों पर ब्राह्मणीय विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उदाहरण के लिए निषाद वर्ग इसी का उदाहरण है। एकलव्य भी निषाद वर्ग से जुड़ा हुआ था। यायावर पशुपालकों को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता था। ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे। उन्होंने चाण्डालों को अछूत मानकर समाज में सबसे निम्न कोटि में रखा था। ‘मनुस्मृति’ के अनुसार चाण्डालों को गाँव के बाहर रहना पड़ता था। वे फेंके हुए बर्तनों का प्रयोग करते थे तथा मृतकों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

→ सम्पत्ति पर स्त्री और पुरुष के भिन्न अधिकार- मनुस्मृति के अनुसार पैतृक सम्पत्ति का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बंटवारा किया जाना चाहिए किन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्वियों इस पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं। परन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्वियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे ‘स्त्री धन’ कहा जाता था। इस सम्पति पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था।

→ वर्ण और सम्पत्ति के अधिकार ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार लैंगिक आधार के अतिरिक्त सम्पत्ति पर अधिकार का एक और आधार वर्ण था शूद्रों के लिए एकमात्र ‘जीविका’ अन्य तीन वर्णों की सेवा थी जिसमें हमेशा उनकी इच्छा सम्मिलित नहीं होती थी। परन्तु तीन उच्च वर्णों के पुरुषों के लिए विभिन्न जीविकाओं की सम्भावना रहती थी। राजा, पुरोहित आदि धनी होते थे।

→ वर्ण व्यवस्था का विरोध बौद्धों ने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया।

→ सम्पत्ति में भागीदारी प्राचीन तमिलकम सरदार अपनी प्रशंसा गाने वाले चारणों और कवियों के आश्रयदाता थे। यद्यपि वहाँ भी धनी और निर्धन के बीच विषमताएँ थीं, परन्तु जिन लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी, उनसे यह उपेक्षा की जाती थी कि वे मिल बांटकर सम्पत्ति का उपयोग करेंगे।

→ सामाजिक विषमताओं की व्याख्या बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था राजा द्वारा लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के बदले में लोग राजा को ‘कर’ देते थे। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित एक मिथक से ज्ञात होता है कि आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा हाथ था।

→ साहित्यिक स्रोतों का प्रयोग इतिहासकार और महाभारत इतिहासकार किसी ग्रन्थ का विश्लेषण करते समय अग्रलिखित बातों पर विचार करते हैं-

  • ग्रन्थ किस भाषा में लिखा गया था
  • क्या ये ग्रन्थ मन्त्र थे, जो अनुष्ठानकर्त्ताओं द्वारा पढ़े और उच्चरित किए जाते थे, अथवा ‘कथा ग्रन्थ’ थे जिन्हें लोग पढ़ और सुन सकते थे।
  • इतिहासकार लेखक के बारे में जानने का प्रयास करते हैं।
  • वे ग्रन्थ के रचनाकाल और उसकी रचना भूमि का भी विश्लेषण करते हैं।

→ भाषा और विषयवस्तु महाभारत का यह पाठ संस्कृत में है, परन्तु महाभारत में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों की संस्कृत से कहीं अधिक सरल है। इतिहासकार महाभारत की विषयवस्तु को दो मुख्य शीर्षकों के अन्तर्गत रखते हैं –

  • आख्यान तथा
  • उपदेशात्मक आख्यान में कहानियों का संग्रह है और उपदेशात्मक में. सामाजिक आचार-विचार के मानदंडों का चित्रण है।

अधिकांश इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि महाभारत वस्तुतः एक भाग में नाटकीय कथानक था, जिसमें उपदेशात्मक अंश बाद में जोड़े गए।

→ महाभारत इतिहास की परम्परा में आरम्भिक संस्कृत परम्परा में महाभारत को ‘इतिहास’ की श्रेणी में रखा गया है। इतिहास का अर्थ है ‘ऐसा ही था।’ कुछ इतिहासकारों का मत है कि स्वजनों के बीच हुए युद्ध की स्मृति ही महाभारत का मुख्य कथानक है परन्तु कुछ इतिहासकारों का कहना है कि हमें युद्ध की पुष्टि किसी और साक्ष्य से नहीं होती।

→ महाभारत का लेखक और रचनाकाल-साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाभारत की रचना ऋषि व्यास ने की थी। उन्होंने इस ग्रन्थ को ‘श्रीगणेश’ से लिखवाया था। सम्भवतः मूल कथा के लेखक भाट सारथी थे जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था। पाँचवीं शताब्दी ई. पूर्व से ब्राह्मणों ने इस कथा परम्परा पर अपना अधिकार कर लिया। 200 ई. पूर्व से. 200 ई. के बीच हम इस ग्रन्थ के रचनाकाल का एक और चरण देखते हैं। कालान्तर में 200-400 ई. के बीच मनुस्मृति से मिलते-जुलते हुए कुछ उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़े गए। इस प्रकार अपने प्रारम्भिक रूप में महाभारत में 10,000 श्लोक से भी कम थे, परन्तु कालान्तर में इसमें एक लाख श्लोक हो गए।

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→ हस्तिनापुर का उत्खनन 1951-52 में पुरातत्ववेत्ता बी. बी. लाल के नेतृत्व में मेरठ जिले के हस्तिनापुर नामक एक गाँव में उत्खनन किया गया। कुछ पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि यह पुरास्थल कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर हो सकती थी जिसका उल्लेख महाभारत में आता है।

→ महाभारत की सबसे चुनौतीपूर्ण उपकथा महाभारत की सबसे चुनौतीपूर्ण उपकथा द्रौपदी से पाण्डवों के विवाह की है। यह बहुपति विवाह का उदाहरण है जो महाभारत की कथा का अभिन्न अंग है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि सम्भवतः बहुपति प्रथा शासकों के विशिष्ट वर्ग में किसी काल में विद्यमान थी परन्तु समय के साथ बहुपति प्रथा कुछ ब्राह्मणों की दृष्टि में अमान्य हो गई फिर भी यह प्रथा हिमालय क्षेत्र में प्रचलित थी और आज भी है।

→ एक गतिशील ग्रन्थ-शताब्दियों से महाकाव्य के अनेक पाठान्तर भिन्न-भिन्न भाषाओं में लिखे गए। इसमें अनेक कहानियाँ समाहित कर ली गई। इसके साथ ही इस महाकाव्य की मुख्य कथा की अनेक पुनर्व्याख्याएँ की गई। इसके प्रसंगों को मूर्तिकला और चित्रों में भी दर्शाया गया। इस महाकाव्य ने नाटकों और नृत्य कलाओं के लिए भी विषय-वस्तु प्रदान की।

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