JAC Class 12 History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

Jharkhand Board Class 12 History भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 144

प्रश्न 1.
क्या आपको लगता है कि तोंदराडिप्पोडि जाति- व्यवस्था के विरोधी थे?
उत्तर:
हाँ, मुझे लगता है कि तोंदराडिप्पोडि जाति- व्यवस्था के विरोधी थे तोंदराडिप्पोडि नामक ब्राह्मण अलवार का कहना था कि यदि चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण भी भगवान विष्णु की सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते तो वे भगवान विष्णु को प्रिय नहीं हैं। दूसरी ओर भगवान विष्णु उन दासों को अधिक पसन्द करते हैं, जो भगवान के चरणों से प्रेम रखते हैं, चाहे वे वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत नहीं आते।

पृष्ठ संख्या 144

प्रश्न 2.
क्या ब्राह्मणों के प्रति तोंदराडिप्पोडी और अप्यार के विचारों में समानता है अथवा नहीं?
उत्तर:
स्रोत में प्रस्तुत उद्धरण को पढ़कर लगता कि तोंदराडिप्पोडी और नयनार संत अप्पार के विचारों में पर्याप्त समानता है। अप्पार का उद्धरण भी शास्त्रों को उद्धृत करने वाले ब्राह्मणों की धूर्तता की ओर लक्ष्य करते हुए उन्हें शिव के प्रति निष्ठा और समर्पण तथा उन्हें अपना एकमात्र आश्रयदाता मानकर नतमस्तक होने के लिए प्रेरित करता है।

पृष्ठ संख्या 145

प्रश्न 3.
उन उपायों की सूची बनाइये जिन उपायों से कराइक्काल अम्मइयार अपने आपको प्रस्तुत करती है किस भाँति ये उपाय स्त्री सौन्दर्य की पारम्परिक अवधारणा से भिन्न हैं?
उत्तर:

  • फूली हुई गाड़ियाँ
  • बाहर निकली हुई आँखें
  • सफेद दाँत
  • अन्दर धंसा हुआ पेट
  • लाल केश
  • आगे की ओर निकले दाँत
  • टखनों तक फैली हुई लम्बी पिंडली की नली।

ये उपाय निम्न प्रकार से स्वी सौन्दर्य की पारम्परिक अवधारणा से भिन्न है –

  • काजल लगी हुई मछली जैसी आंखें
  • सफेद दाँत तथा होठों पर लगी हुई लाली
  • काले व गहरे केश
  • मुँह में सही स्थिति में सुन्दर दाँत
  • लम्बी तथा सुन्दर पिंडली तथा पाँवों में पायजेब

पृष्ठ संख्या 146 चर्चा कीजिए

प्रश्न 4.
आपको क्यों लगता है कि शासक भक्तों से अपने सम्बन्ध को दर्शाने के लिए उत्सुक थे?
उत्तर:
वेल्लाल कृषक नयनार और अलवार सन्तों को सम्मानित करते थे। इसलिए शासक भी इन सन्तों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करते थे। उदाहरण के लिए चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन पाने का दावा किया और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए सुन्दर और विशाल मन्दिरों का निर्माण करवाया जिनमें पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ सुसज्जित थीं। इन सम्राटों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायना इन मन्दिरों में प्रचलित किया। 945 ई. के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि चोल सम्राट परांतक प्रथम ने सन्त कवि अप्पार संबंदर और सुंदरार की धातु प्रतिमाएँ एक शिवमन्दिर में स्थापित करवाई।

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पृष्ठ संख्या 147

प्रश्न 5.
अनुष्ठानों के प्रति वासवन्ना के रवैये की व्याख्या कीजिए वे किस तरह श्रोता को अपनी बात समझाने का प्रयत्न करते हैं?
उत्तर:
बासवन्ना, लोगों द्वारा किये जा रहे आडम्बर, कर्मकाण्ड तथा मूर्ति पूजा पर कटाक्ष करते हैं। उनका कहना है कि पत्थर से बने सर्प को दूध पिलाते हैं जो पी नहीं लगते सकता और वहीं दूसरी तरफ जीवित सर्प को देखते ही मारने हैं। इसी प्रकार पत्थर की मूर्तियों को भोग लगाते हैं परन्तु भूखे-प्यासे भगवान के सेवकों को भगाने का प्रयास करते हैं।

पृष्ठ संख्या 149

प्रश्न 6.
वे लोग कौन थे जिनकी तरफ से अकबर को अपने फरमान की बेअदबी का अंदेशा था?
उत्तर:
बादशाह अकबर को खम्बायत गुजरात में गिरजाघर के निर्माण में यह हुक्मनामा इसलिए जारी करना पड़ा कि बादशाह को ऐसा अंदेशा था कि सम्भवतः अन्य धर्मों के लोग गिरजाघर के निर्माण का विरोध करें। उस काल में ईसाई धर्म के लोगों की संख्या भी कम थी। अकबर अपनी उदारवादी नीति के कारण अल्पसंख्यक लोगों के संरक्षण हेतु प्रतिबद्ध था।

पृष्ठ संख्या 150

प्रश्न 7.
जोगी द्वारा वंदनीय देवता की पहचान कीजिए जोगी के प्रति बादशाह के रवैये का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
औरंगजेब द्वारा जोगी को लिखे पत्र द्वारा जात होता है कि जोगी शैव धर्म का उपासक है और जोगी के आराध्य देवता भगवान शिव हैं। बादशाह जोगी का बहुत सम्मान करता है और जोगी की हर तरह से मदद करता है। बादशाह के पत्र से औरंगजेब का जोगी के प्रति श्रद्धाभाव प्रकट होता है।

पृष्ठ संख्या 156

प्रश्न 8.
जहाँआरा कौनसी चेष्टाओं का जिक्र करती हैं जो शेख के प्रति उसकी भक्ति को दर्शाते हैं। दरगाह की खासियत को वह किस तरह दर्शाती है?
उत्तर:
वे चेष्टाएँ जो जहाँआरा, शेख मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रति श्रद्धा दर्शाती हैं, इस प्रकार हैं-मार्ग में कम-से- कम दो बार नमाज पढ़ना (प्रत्येक पड़ाव पर), रात को बाघ के चमड़े पर न सोना दरगाह की दिशा की ओर पैर न करना, दरगाह की तरफ अपनी पीठ न करना आदि। जहाँआरा दरगाह की विशिष्टताओं का इस प्रकार वर्णन करती है- दरगाह का वातावरण चिराग तथा इत्र से खुशनुमा है, दरगाह पाक और मुकद्दस भी दरगाह के अन्दर पवित्र आत्मिक आनन्द की अनुभूति हुई और जहाँआरा ने दरगाह की चौखट पर अपना सिर रखा।

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पृष्ठ संख्या 157

प्रश्न 9.
इस गाने (स्रोत 8 चरखानामा) के विचार और अभिव्यक्ति के तरीके जहाँआरा की जियारत (स्त्रोत 7) में वर्णित विचारों और अभिव्यक्ति के तरीकों से कैसे समान और भिन्न है?
उत्तर:
इस गाने के विचार और अभिव्यक्ति के तरीके जहाँआरा की जियारत में वर्णित विचारों और अभिव्यक्ति के तरीकों से इस प्रकार भिन्न हैं कि जहाँआरा ने जियारत यानी अपनी भक्ति और इबादत के लिए बाह्य पूजा; जैसाकि शारीरिक कष्ट उठाकर नंगे पाँव जाना, कठिन नियमों का पालन करना आदि का सहारा लिया है। यहाँ पर आत्मपूजा पर बल दिया गया है, अपने अन्दर बैठे परमात्मा की हर श्वास में पूजा करनी है कहीं बाहर नहीं जाना है। समानता इस बात की है कि दोनों पद्धतियों के भाव में कोई फर्क नहीं है। भाव तो परम सत्ता की इबादत का ही है। पृष्ठ संख्या 159 चर्चा कीजिए

प्रश्न 10.
धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में टकराव के सम्भावित स्रोत क्या-क्या हैं?
उत्तर:
धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में टकराव के सम्भावित स्रोत निम्नलिखित हैं-
(1) अपनी सत्ता का दावा करने के लिए दोनों ही कुछ आचारों पर बल देते थे, जैसे झुककर प्रणाम और कदम चूमना।
(2) कभी-कभी सूफी शेखों को आडम्बरपूर्ण पदवी से सम्बोधित किया जाता था। उदाहरण के लिए शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी उन्हें सुल्तान-उल-मशेख (अर्थात् शेखों में सुल्तान) कहकर सम्बोधित करते थे। इसे शासक वर्ग के लोग अपने अहं के विरुद्ध मानते थे।
(3) कभी-कभी धार्मिक नेता शाही भेंट अस्वीकार कर देते थे।

पृष्ठ संख्या 159

प्रश्न 11.
सूफियों और राज्य के बीच सम्बन्ध का कौनसा पहलू इस कहानी से स्पष्ट होता है? यह किस्सा हमें शेख और उनके अनुयायियों के बीच सम्पर्क के तरीकों के बारे में क्या बताता है?
उत्तर:
सूफियों और राज्य के बीच सम्बन्ध का निम्नांकित पहलू इस कहानी से स्पष्ट होता है—शासक वर्ग सूफियों और सन्तों का सम्मान करता था, सूफियों और सन्तों की कृपा प्राप्त करने हेतु शासक वर्ग, सूफियों को आर्थिक तथा अन्य प्रकार की भेंट दिया करता था। सूफी लोग किसी से भेंट का आग्रह नहीं करते थे और न ही संग्रह करते थे सूफी संतों की लोकप्रियता बहुत थी, इसलिए शासक वर्ग भी इनके आशीर्वाद का आकांक्षी रहता था। यह कहानी सूफियों की निस्पृह भावना को भी उजागर करती है, वे निर्लिप्त भाव से रहते थे। वे चीज जैसेकि भूमि आदि, वे अनावश्यक समझते थे, उसे अस्वीकार कर देते थे।

पृष्ठ संख्या 160

प्रश्न 12.
विभिन्न समुदायों के ईश्वर के बीच पार्थक्य के विरुद्ध कबीर किस तरह की दलील पेश करते हैं?
उत्तर:
कबीर के अनुसार संसार का स्वामी एक ही है जो ईश्वर है। लोग ईश्वर को अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि, हजरत आदि नामों से पुकारते हैं कबीर के अनुसार ईश्वर के नाम के बारे में विभिन्नताएं तो केवल शब्दों में हैं जो हमारे द्वारा ही बनाए गए हैं। कबीर कहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही भुलाने में हैं। इनमें से कोई भी एक ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। वे अपना सम्पूर्ण जीवन सत्य से दूर विवादों में ही नष्ट कर देते हैं। पृष्ठ संख्या 164 चर्चा कीजिए

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प्रश्न 13.
आपको क्यों लगता है कि कबीर, गुरुनानक देव और मीराबाई इक्कीसवीं सदी में भी महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
कबीर, गुरुनानक देव तथा मीराबाई ने सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों, आडम्बरों एवं अन्धविश्वासों का विरोध किया था। इक्कीसवीं शताब्दी में भी सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में धार्मिक आडम्बर, कर्मकाण्ड और अन्धविश्वास प्रचलित हैं। अतः कबीर, गुरुनानक देव तथा मीराबाई इक्कीसवीं शताब्दी में भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी शिक्षाएँ आज भी मानव जाति के लिए उपयोगी हैं।

पृष्ठ संख्या 164

प्रश्न 14.
यह उद्धरण राणा के प्रति मीरा बाई के रुख के बारे में क्या बताता है?
उत्तर:
यह उद्धरण मीरा की भगवान कृष्ण के प्रति आसक्ति एवं अनुराग की पराकाष्ठा का द्योतक है, साथ ही साथ मीरा इस गीत के द्वारा सांसारिक जीवन के प्रति अपने वैराग्य भाव का भी वर्णन करती है। उनके अनुसार गोविन्द के गुण गाने के अतिरिक्त उन्हें अन्य कोई अभिलाषा नहीं है।

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निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 100-150 शब्दों में दीजिए-

प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि सम्प्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों के अनुसार यहाँ कम-से-कम दो प्रक्रियाएँ कार्यरत थीं-
(1) प्रथम प्रक्रिया-प्रथम प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचरारा के प्रचार की थी। इसका प्रसार पौराणिक ग्रन्थों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ ये ग्रन्थ सरल संस्कृत छन्दों में थे, जिन्हें वैदिक विद्या से विहीन स्विय और शूद्र भी पढ़ सकते थे।
(2) द्वितीय प्रक्रिया द्वितीय प्रक्रिया थी स्त्रिय शूद्रों व अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मण द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना।

समाजशास्त्रियों का मत – कुछ समाजशास्त्रियों की यह मान्यता है कि सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में अनेक धार्मिक विचारधाराएँ तथा पद्धतियाँ ‘महान’ संस्कृत पौराणिक परिपाटी तथा ‘लघु’ परम्परा के बीच हुए निरन्तर संवाद का परिणाम हैं। इस प्रक्रिया का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण पुरी (उड़ीसा) में मिलता है, जहाँ बारहवीं शताब्दी तक आते-आते मुख्य देवता को जगन्नाथ के रूप में प्रस्तुत किया गया और उन्हें विष्णु का एक स्वरूप माना गया। समन्वय के ऐसे उदाहरण देवी सम्प्रदायों में भी मिलते हैं। स्थानीय देवियों को पौराणिक परम्परा के भीतर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में मान्यता दी गई थी। कभी वह लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी बनीं और कभी शिव की पत्नी पार्वती के रूप में सामने आई।

प्रश्न 2.
किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है?
उत्तर:
उपमहाद्वीप में अनेक मुस्लिम शासकों ने अनेक मस्जिदें बनवाई। इन मस्जिदों की स्थापत्य कला में स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक धर्म का जटिल मिश्रण दिखाई देता है। इन मस्जिदों के कुछ स्थापत्य सम्बन्धी तत्त्व सार्वभौमिक थे-जैसे इमारत का मक्का की ओर अनुस्थापन जो मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिनवार ( व्यासपीठ) की स्थापना से चिन्हित होता था।

दूसरी ओर स्थापत्य सम्बन्धी कुछ जैसे छत और निर्माण की सामग्री उदाहरण के लिए केरल में तेरहवीं शताब्दी में निर्मित एक मस्जिद जिसकी छत मन्दिर के शिखर से मिलती-जुलती है। दूसरी ओर जिला मैमनसिंग (बांग्लादेश) में ईटों की बनी अतिया मस्जिद की छत गुम्बददार है जो केरल में निर्मित मस्जिद की छत से भिन्न है। इसी प्रकार श्रीनगर की झेलम नदी के किनारे बनी शाह हमदान मस्जिद के स्थापत्य सम्बन्धी तत्त्व उपर्युक्त दोनों मस्जिदों के स्थापत्य सम्बन्धी तत्त्वों से अलग हैं। यह मस्जिद कश्मीरी लकड़ी की स्थापत्यकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

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प्रश्न 3.
बे-शरिया और बा- शरिया सूफी परम्परा के बीच एकरूपता और अन्तर दोनों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मुस्लिम कानूनों के संग्रह को शरिया कहते हैं। यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है। यह कानून मुस्लिम समुदाय को निर्देशित करता है। हदीस का तात्पर्य है पैगम्बर मोहम्मद साहब से जुड़ी परम्पराएँ। इन परम्पराओं में मोहम्मद साहब की स्मृति से जुड़े हुए शब्द और उनके क्रियाकलापों का समावेश है कुछ रहस्यवादियों ने सूफी सिद्धान्तों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आन्दोलनों की नींव रखी।

खानकाह का तिरस्कार करके ये रहस्यवादी, फकीर का जीवन बिताते थे निर्धनता तथा ब्रह्मचर्य को उन्होंने गौरव प्रदान किया। इन्हें मदारी, कलंदर, मलंग हैदरी आदि नामों से जाना जाता था। शरिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें शरिया कहा जाता था। दूसरी ओर का पालन करने वाले सूफी वा शरिया कहलाते थे। यहाँ रोचक तथ्य यह है कि वे शरिया तथा बा- शरिया दोनों ही इस्लाम से सम्बन्ध रखते थे। इन सूफी परम्पराओं के बीच एकरूपता भी थी। बे शरिया तथा बा-शरिया दोनों परम्पराओं के सूफी इस्लाम से सम्बन्धित थे दोनों ही इस्लाम के मूल सिद्धान्तों में विश्वास करते थे।

प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नवनार और वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
(1) अलवार और नयनार तमिलनाडु के भक्ति संत थे। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि अलवार और नयनार सन्तों ने जातिप्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता का विरोध किया। कुछ सीमा तक यह बात सत्य प्रतीत होती है कि क्योंकि भक्ति संत विविध समुदायों में से थे जैसे ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान आदि कुछ भक्तिसंत तो ‘अस्पृश्य’ मानी जाने वाली जातियों से सम्बन्धित थे। उन्होंने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। इन्होंने सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में घूम-घूम कर अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया, जिन्हें अधिकाधिक लोग समझ सकते थे और उन्हें अपने जीवन में ग्रहण कर सकते थे।

उनके उपदेश और शिक्षाएँ भी सरल और व्यावहारिक थीं जिन्हें जनसाधारण की भाषाओं में व्यक्त करना उपयोगी था। यदि वे किसी एक विशिष्ट भाषा को अपने विचार व्यक्त करने के लिए माध्यम बनाते तो उन्हें अपने उद्देश्यों में सफलता मिलना बहुत कठिन था, इसलिए जन साधारण तक पहुँचने के लिए भक्ति तथा सूफी चिन्तकों ने जन साधारण को भाषाओं का ही सहारा लिया।

इस तथ्य की पुष्टि के लिए निम्नलिखित उदाहरणों से होती है –
उदाहरण –
(1) नमनार और अलवार सन्तों ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार तमिल भाषा में किया। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपनी शिक्षाओं का प्रचार करते थे।
(2) कबीर के भजन अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलते हैं। उनकी भाषा खिचड़ी है जिसमें पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूर्वी ब्रजभाषा आदि अनेक भाषाओं का मेल है।
(3) गुरु नानक ने अपने विचार पंजाबी भाषा में ‘शब्द’ के माध्यम से लोगों के सामने रखे उनके पदों और भजनों में उर्दू-फारसी के तत्कालीन प्रचलित शब्दों का प्रयोग मिलता है। सम्भवतः इसका कारण यह था कि उनका जन्म स्थान और प्रचारक्षेत्र पंजाब था, जहाँ उन शब्दों का जन साधारण में प्रचलन हो चुका था।
(4) मीरा ने भी अपने विचार बोलचाल की भाषा राजस्थानी में व्यक्त किये। इस पर ब्रज भाषा, गुजराती और खड़ी बोली का भी रंग चढ़ा हुआ है।
(5) सूफी सन्तों ने जन साधारण की भाषा खड़ी बोली में अपने विचार व्यक्त किये। सूफी सन्त बाबा फरीद ने क्षेत्रीय भाषा में काव्य रचना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं में भी अपने विचार लोगों के सामने रखे।

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प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक एवं धार्मिक विचार इस अध्याय में प्रयुक्त स्रोतों के अध्ययन से उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों का वर्णन इस प्रकार है –
(1) स्रोत 1 (चतुर्वेदी और अस्पृश्य) चतुर्वेदी ब्राह्मण चारों वेदों के ज्ञाता थे परन्तु वे भगवान विष्णु की सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते थे। इसलिए भगवान विष्णु उन दासों को अधिक पसन्द करते हैं जो उनके चरणों से प्रेम रखते हैं, चाहे दास वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं थे। इस स्रोत से प्रकट होता है कि तमिलनाडु के अलवार सन्त जाति व्यवस्था के विरोधी थे।

(2) स्रोत 4 (अनुष्ठान और यथार्थं संसार) – इस स्रोत में बताया गया है कि ब्राह्मण सर्प की पत्थर की मूर्ति पर दूध चढ़ाते हैं, परन्तु असली साँप को देखते ही वे उसे मारने पर कटिबद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मण देवता के भूखे सेवक को भोजन देने से इन्कार कर देते हैं, जबकि यह भोजन परोसने पर खा सकता है। इसके विपरीत, वे भगवान की प्रतिमा को भोजन परोसते हैं, जबकि वह भोजन नहीं खा सकती है। इस स्रोत में अनुष्ठानों की निरर्थकता पर प्रकाश डाला गया है।

(3) स्रोत 5 (खम्बात का गिरजाघर)- जब मुगल- सम्राट अकबर को ज्ञात हुआ कि ईसाई धर्म के पादरी गुजरात के खम्बात शहर में उपासना के लिए एक गिरजाघर का निर्माण करना चाहते थे, तो अकबर की ओर से एक शाही फरमान जारी किया गया कि खम्बात के महानुभाव किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करें और ईसाइयों को गिरजाघर का निर्माण करने दें। इससे मुगल सम्राट अकबर की उदारता, धर्म-सहिष्णुता और सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना के बारे में जानकारी मिलती है।

(4) स्रोत 6 (जोगी के प्रति श्रद्धा)- इस स्रोत के अध्ययन से पता चलता है कि मुगल सम्राट औरंगजेब ने गुरु आनन्दनाथ नामक एक जोगी के प्रति अत्यधिक सम्मान प्रकट किया और उसने जोगी को पोशाक के लिए वस्व तथा पच्चीस रुपये भेंट के रूप में भेजे। उसने जोगी को यह भी लिखा कि वह किसी भी प्रकार की सहायता के लिए उन्हें लिख सकते थे इस स्रोत से औरंगजेब की दानशीलता तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता तथा सम्मान की भावना का बोध होता है।

(5) स्त्रोत 10 (एक ईश्वर )-इस खोत से कबीर की शिक्षाओं के बारे में जानकारी मिलती है। इसमें कबीर ने बताया है कि संसार का एक ही स्वामी है। ईश्वर को अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि तथा हजरत आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। विभिन्नताएँ तो केवल शब्दों में ही जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं। कबीर कहते हैं दोनों ही भुलावे में हैं। वे पूरा जीवन विवादों में ही बिता देते हैं। इस स्रोत से पता चलता है कि कबीर एकेश्वरवादी धे तथा बहुदेववाद के विरुद्ध थे। उन्होंने धार्मिक आडम्बरों की भी कटु आलोचना की है और एक ईश्वर की उपासना पर ही बल दिया है।

भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ JAC Class 12 History Notes

→ साहित्य और मूर्तिकला में देवी-देवताओं का दृष्टिगत होना लगभग आठवीं से अठारहवीं सदी तक के काल की सम्भवत: सबसे प्रभावी विशिष्टता यह है कि साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही अनेक प्रकार के देवी- देवता अधिकाधिक दृष्टिगत होते हैं। इससे पता चलता है कि विष्णु, शिव और देवी की आराधना की परिपाटी न केवल चलती रही, बल्कि और अधिक विस्तृत हुई।

→ पूजा प्रणालियों का समन्वय इतिहासकारों के अनुसार यहाँ कम से कम दो प्रक्रियाएँ कार्यरत थीं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार की थी। इसी काल की एक अन्य प्रक्रिया थी जिसमें स्वियों शूद्रों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों ने स्वीकृति प्रदान की थी और उसे एक नवीन रूप प्रदान किया
था।

→ तान्त्रिक पूजा पद्धति-अधिकांशतः देवी की आराधना पद्धति को तान्त्रिक नाम से जाना जाता है। तान्त्रिक पूजा पद्धति उपमहाद्वीप के कई भागों में प्रचलित थी। इसके अन्तर्गत स्वी और पुरुष दोनों ही शामिल हो सकते थे। इस पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया, विशेष रूप से उपमहाद्वीप के पूर्वी उत्तरी और दक्षिणी भागों में कभी-कभी पूजा परम्पराओं में संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती थी। वैदिक परिपाटी के अनुयायी उन सभी आचारों की निन्दा करते थे, जो ईश्वर की उपासना के लिए मन्त्रों के उच्चारण के साथ यहाँ के सम्पादन से अलग थे। इसके विपरीत वे लोग थे, जो तान्त्रिक आराधना के उपासक थे और वैदिक सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

→ भक्ति परम्परा आठवीं से अठारहवीं सदी के काल से पूर्व लगभग एक हजार वर्ष प्राचीन भक्तिपूर्ण उपासना की परम्परा रही है। इस समय भक्ति प्रदर्शन में मन्दिरों में इष्टदेव की आराधना से लेकर उपासकों के प्रेमभाव में तल्लीन हो जाना दिखाई पड़ता है। भक्ति रचनाओं का उच्चारण अथवा गाया जाना इस उपासना पद्धति के अंश थे।

→ उपासना की कविताएँ प्रारम्भिक भक्ति परम्परा कई बार संत कवि ऐसे नेता के रूप में उभरे जिनके आस-पास भक्तजनों का एक पूरा समुदाय रहता था। इन परम्पराओं ने स्वियों तथा निम्न वर्गों को भी स्वीकृति प्रदान की विविधता भक्ति परम्परा की एक अन्य विशेषता भी धर्म के इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो मुख्य वर्गों में बाँटते हैं –

  • सगुण (विशेषण सहित ) तथा
  • निर्गुण (विशेषण विहीन) प्रथम वर्ग में शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की आराधना आती है।

इनकी मूर्त रूप में अवधारणा हुई। निर्गुण भक्ति परम्परा में अमूर्त, निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी।

→ तमिलनाडु के अलवार और नवनार संत-प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन लगभग छठी शताब्दी में अलवारों एवं नयनारों के नेतृत्व में हुआ अलवार विष्णु के उपासक थे, जबकि नयनार शिव की उपासना करते थे। अपनी यात्राओं के दौरान अलवार और नयनार संतों ने कुछ पवित्र स्थलों को अपने इष्ट का निवास स्थल घोषित किया। बाद में इन्हीं स्थलों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थ स्थल माने गए।

→ जाति के प्रति दृष्टिकोण-कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलवार और नयनार सन्तों ने जातिप्रथा व ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरोध में आवाज उठाई अलवार और नवनार संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताकर इस परम्परा को सम्मानित किया गया। अलवार सन्तों के एक मुख्य काव्य संकलन ‘नलविरादिव्य प्रबन्धम्’ का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था।

→ स्त्री भक्त इस परम्परा की सबसे बड़ी विशिष्टता इसमें स्विर्षो की उपस्थिति थी। अंडाल नामक अलवार स्वी के भक्तिगीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे और आज भी गाए जाते हैं। करइक्काल अम्मदवार एक शिवभक्त महिला श्री जिसने घोर तपस्या का मार्ग अपनाया।

→ राज्य के साथ सम्बन्ध-तमिल भक्ति रचनाओं में बौद्ध और जैन धर्म के प्रति विरोध की भावना व्यक्त की गई है। नयनार सन्तों की रचनाओं में यह विरोध विशेष रूप से दिखाई देता है। इसका कारण यह था कि परस्पर- विरोधी धार्मिक समुदायों में राजकीय अनुदान को लेकर प्रतिस्पद्धां थी। शक्तिशाली चोल सम्राटों ने ब्राह्मणीय तथा भक्ति परम्परा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मन्दिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिया। चिदम्बरम, तंजावुर तथा गंगैकोंडचोलपुरम के विशाल शिव मन्दिर चोल सम्राटों की सहायता से ही बनाए गए थे चोल सम्राटों ने अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए सुन्दर मन्दिर बनवाये जिनमें पत्थर तथा धातु से बनी मूर्तियाँ सुसज्जित थीं।

→ कर्नाटक की वीर शैव परम्परा-बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना ( 1106-1168) नामक एक ब्राह्मण ने किया। बासवन्ना के अनुयायी वीरशैव (शिव के बीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए। लिंगायत शिव की आराधना लिंग के रूप में करते हैं। इनका विश्वास है कि मृत्योपरान्त भक्त शिव में लीन हो जायेंगे तथा इस संसार में पुनः नहीं लौटेंगे। ये लोग श्राद्ध संस्कार का पालन नहीं करते तथा अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं। लिंगायतों ने जाति की अवधारणा तथा कुछ समुदायों के दूषित होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया। उन्होंने वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया।

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→ उत्तरी भारत में धार्मिक उफान उत्तरी भारत में अनेक राजपूत राज्यों का उद्भव हुआ। इन सभी राज्यों में ब्राह्मणों का महत्त्वपूर्ण स्थान था और वे ऐहिक और आनुष्ठानिक दोनों ही कार्य करते थे। इसी समय नाथ, जोगी तथा सिद्ध नामक धार्मिक नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ। अनेक नवीन धार्मिक नेताओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी और अपने विचार आम लोगों की भाषा में व्यक्त किए। तेरहवीं सदी में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई। सल्तनत की स्थापना से राजपूत राज्यों का और उनसे जुड़े ब्राह्मणों का पराभव हुआ। इन परिवर्तनों का प्रभाव संस्कृति और धर्म पर भी पड़ा।

→ शासकों और शासितों के धार्मिक विश्वास बहुत से क्षेत्रों में इस्लाम शासकों का स्वीकृत धर्म था। सैद्धान्तिक रूप से मुसलमान शासकों को उलमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था। उलमा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे शासन में शरिया का पालन करवाएँगे। परन्तु उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी क्योंकि बड़ी जनसंख्या इस्लाम धर्म को मानने वाली नहीं थी। इस संदर्भ में जिम्मी अर्थात् संरक्षित श्रेणी का प्रादुर्भाव हुआ। जिम्मी वे लोग थे जो उद्घाटित धर्म ग्रन्थ को मानने वाले थे।

ये लोग जजिया नामक कर चुका कर मुसलमान शासकों द्वारा संरक्षण दिए जाने के अधिकारी हो जाते थे। हिन्दू भी इनमें सम्मिलित कर लिए गए। वास्तव में शासक शासितों की ओर काफी लचीली नीति अपनाते थे। उदाहरण के लिए बहुत से शासकों ने भूमि अनुदान व कर की छूट हिन्दू, जैन, पारसी, ईसाई और यहूदी धर्म संस्थाओं को दी तथा गैर मुसलमान धार्मिक नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त किया।

→ लोक प्रचलन में इस्लाम इस्लाम धर्म के पाँच प्रमुख सिद्धान्त हैं –

  • अल्लाह एकमात्र ईश्वर है, पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत हैं
  • दिन में पाँच बार नमाज पढ़ी जानी चाहिए।
  • खैरात (जात) बॉटनी चाहिए।
  • रमजान के महीने में रोजा रखना चाहिए
  • हज के लिए मक्का जाना चाहिए।

→ मस्जिदों के स्थापत्य सम्बन्धी सार्वभौमिक तत्त्व-मस्जिदों के कुछ स्थापत्य सम्बन्धी तत्त्व सार्वभौमिक थे जैसे इमारत का मक्का की ओर अनुस्थापन जो मेहराब और मिनबार की स्थापना से लक्षित होता था बहुत से तत्त्व ऐसे थे जिनमें भिन्नता देखने में आती है जैसे छत और निर्माण का सामान।

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→ समुदायों के नाम- लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म स्थान के आधार पर किया जाता था जैसे तुर्की मुसलमानों को तुरुष्क तथा तजाकिस्तान से आए लोगों को ताजिक और फारस से आए लोगों को पारसीक नाम से सम्बोधित किया गया। प्रवासी समुदायों के लिए ‘म्लेच्छ’ शब्द का प्रयोग किया जाता था इससे ज्ञात होता है कि वे वर्ण नियमों का पालन नहीं करते थे तथा ऐसी भाषाएँ बोलते थे जो संस्कृत से नहीं उपजी थीं।

→ सूफी मत का विकास खिलाफत की बढ़ती विषयशक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद और वैराग्य की ओर शुकाव बढ़ा जिन्हें सूफी कहा जाता था। इन लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा ‘की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद साहब को इंसान-ए- कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने का उपदेश दिया।

→ खानकाह और सिलसिला संस्थागत दृष्टि से सूफी अपने को एक संगठित समुदाय खानकाह के इर्द- गिर्द स्थापित करते थे। खानकाह का नियन्त्रण शेख, पीर अथवा मुशींद के हाथ में था। बारहवीं शताब्दी के आस-पास इस्लामी जगत् में सूफी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है जंजीर जो शेख और मुरीद के बीच एक निरन्तर रिश्ते का प्रतीक है जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद से जुड़ी है पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस प्रकार पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, विशेषकर उनकी बरसी के अवसर पर परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को ‘उर्स’ कहा जाता था।

→ खानकाह के बाहर कुछ रहस्यवादी खानकाह का तिरस्कार करके फकीर का जीवन विताते थे। ये गरीबी में रहते थे तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। ये कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी आदि नामों से जाने जाते थे। 19. उपमहाद्वीप में चिश्ती सिलसिला बारहवीं सदी के अन्त में भारत आने वाले सूफी समुदायों में चिश्ती सबसे अधिक प्रभावशाली थे। खानकाह सामाजिक जीवन का केन्द्र बिन्दु था शेख निजामुद्दीन औलिया का खानकाह दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गियासपुर में था जहाँ सहवासी और अतिथि रहते थे और उपासना करते थे।

यहाँ एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना मांगी खैर) पर चलती थी। यहाँ विभिन्न वर्गों के लोग आते थे। कुछ अन्य मिलने वालों में अमीर हसन सिजजी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। शेख निजामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया।

→ चिश्ती उपासना जियारत और कव्वाली सूफी सन्तों की दरगाह पर की गई जियारत सम्पूर्ण इस्लामी जगत् में प्रचलित है। इनमें सबसे अधिक पूजनीय दरगाह ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की है, जिन्हें ‘गरीब नवाज कहा जाता है। अजमेर में स्थित यह दरगाह शेख की सदाचारिता और धर्मनिष्ठा तथा उनके आध्यात्मिक वारिसों की महानता आदि के कारण लोकप्रिय थी। सोलहवीं सदी तक अजमेर की यह दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी।

अकबर ने 14 बार इस दरगाह की यात्रा की प्रत्येक यात्रा पर वह दान भेंट दिया करता था। 1568 में अकबर ने तीर्थयात्रियों के लिए खाना पकाने के लिए एक विशाल देग दरगाह को भेंट की। नाच और संगीत भी जियारत के भाग थे, विशेष रूप से कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान, जिससे परमानन्द की भावना को जागृत किया जा सके। सूफी सन्त क्रि (ईश्वर का नाम-जप) या फिर समा अर्थात् आध्यात्मिक संगीत की महफिल के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास खते थे।

→ भाषा और सम्पर्क चिश्तियों ने स्थानीय भाषा को अपनाया। दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग हिन्दवी में बातचीत करते थे बाबा फरीद ने क्षेत्रीय भाषा में काव्य रचना की। बीजापुर कर्नाटक में दक्खनी (उर्दू का रूप) में चिश्ती सन्तों ने छोटी कविताएँ लिखीं।

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→ सूफी और राज्य सुल्तानों ने खानकाहों को करमुक्त (इनाम) भूमि अनुदान में दी और दान सम्बन्धी न्यास स्थापित किये चिश्ती धन और सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे किन्तु इनको संजोने के बजाय भोजन, कपड़े, रहने की व्यवस्था, अनुष्ठानों आदि पर पूरी तरह खर्च कर देते थे। शासक न केवल सूफी सन्तों से सम्पर्क रखना चाहते थे, अपितु उनका समर्थन पाने के भी इच्छुक थे जब तुकों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की तो उलमा द्वारा शरिया लागू किए जाने की मांग की गई जिसे सुल्तानों ने ठुकरा दिया। ऐसे समय सुल्तानों ने सूफी सन्तों का सहारा लिया। सुल्तानों और सूफियों के बीच तनाव के उदाहरण भी मिलते हैं।

→ नवीन भक्ति पंथ-कबीर की ‘बानी’ तीन विशिष्ट परिपाटियों में संकलित है। ‘कवीर बीसक’ कबीरपंथियों द्वारा वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित है। ‘कबीर ग्रन्थावली’ का सम्बन्ध राजस्थान के दादुपधियों से है। कबीर के कई पद ‘ आदि ग्रन्थ साहिब’ में भी संकलित हैं। कबीर की रचनाएँ अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती हैं। उनकी कुछ रचनाएँ ‘उलटबांसी’ कहलाती हैं जो इस प्रकार लिखी गई हैं कि उनके दैनिक अर्थ को उलट दिया गया।

इन उलटबाँसी रचनाओं का तात्पर्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की कठिनाई दर्शाता है ‘कबीर वानी’ की एक प्रमुख विशिष्टता यह भी है कि उन्होंने परम सत्य का वर्णन करने के लिए अनेक परिपाटियों का सहारा लिया है। वैष्णव परम्परा की जीवनियों में कबीर को जन्म से हिन्दू कबीरदास बताया गया है किन्तु उनका पालन गरीब मुसलमान परिवार में हुआ, जो जुलाहे थे और कुछ समय पहले ही इस्लाम धर्म के अनुयायी बने थे। इन जीवनियों में रामानन्द को कबीर का गुरु बताया गया है। परन्तु इतिहासकारों का यह मानना है कि कबीर और रामानन्द का समकालीन होना कठिन प्रतीत होता है।

→ बाबा गुरुनानक बाबा गुरुनानक का जन्म 1469 ई. में एक हिन्दू व्यापारी परिवार में हुआ। उनका जन्म स्थान पंजाब का ननकाना गाँव था जो रावी नदी के पास था उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था, परन्तु वह अपना अधिक समय सूफी और भक्त संतों के बीच व्यतीत करते थे। उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने यज्ञ, आनुष्ठानिक स्थान, मूर्तिपूजा, कठोर तप आदि बाहरी आडम्बरों का विरोध किया।

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उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमानों के धर्मग्रन्थों को भी नकार दिया। उन्होंने रब (ईश्वर) की उपासना के लिए एक सरल उपाय बताया और वह था उनका निरन्तर स्मरण व नाम का जाप उन्होंने अपने विचार पंजाबी भाषा में ‘शब्द’ के माध्यम से सामने रखे। उन्होंने अपने | अनुयायियों को एक समुदाय में संगठित किया। उन्होंने अपने अनुवायी अंगद को अपने बाद गुरुपद पर आसीन किया। इस परिपाटी का पालन 200 वर्षों तक होता रहा।

→ गुरबानी पाँचवें गुरु अर्जुनदेवजी ने बाबा गुरुनानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद रविदास तथा कबीर की बानी को ‘आदि ग्रंथ साहिब’ में संकलित किया। इनको ‘गुरबानी’ कहा जाता है। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में दसवें गुरु गोविन्द सिंहजी ने नवें गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया और इस ग्रन्थ को ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ कहा गया।

→ खालसा पंथ गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके पाँच प्रतीकों का वर्णन किया –

  • बिना कटे केश
  • कृपाण
  • कच्छा
  • कंघा
  • लोहे का कड़ा।

→ मीराबाई, भक्तिमय राजकुमारी मीराबाई संभवतः भक्ति परम्परा की सबसे सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। मीरा का विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया। उनके पति की मृत्यु के बाद उन पर भारी अत्याचार किये गए उनके ससुराल वालों ने उन्हें विष देने का प्रयत्न किया किन्तु वह राजभवन से निकलकर एक घुमक्कड़ गायिका बन गई। वह भगवान कृष्ण की अनन्य उपासिका थीं। कुछ परम्पराओं के अनुसार मीरा के गुरु रैदास थे। इससे ज्ञात होता है कि मोरा ने जातिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया। ऐसा माना जाता है कि अपने पति के राजमहल के ऐश्वर्य को त्याग कर उन्होंने विधवा के सफेद वस्त्र अथवा संन्यासिनी के जोगिया वस्व धारण किये।

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→ शंकर देव-पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम के शंकर देव वैष्णव धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में उभरे। उनके उपदेशों को ‘भगवती धर्म’ कहकर सम्बोधित किया जाता है क्योंकि वे भगवद्‌गीता और भागवत पुराण पर आधारित थे शंकर देव ने भक्ति के लिए नाम कीर्तन और श्रद्धावान भक्तों के सत्संग में ईश्वर के नाम पर बल दिया। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार के लिए सत्र या मठ तथा नामपर जैसे प्रार्थना गृह की स्थापना को बढ़ावा दिया। उनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में ‘कीर्तनपोष’ भी है।

→ सूफी परम्परा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए विभिन्न स्रोत-
उच्चारण –
(1) अली विन उस्मान हुजवरी ने ‘कश्फ-उल-महजुब’ नामक पुस्तक लिखी जो सूफी विचारों और आचारों पर प्रबन्ध पुस्तिका है। इससे यह जानकारी मिलती है कि उपमहाद्वीप के बाहर की परम्पराओं ने भारत में सूफी चिन्तन को किस प्रकार प्रभावित किया।

(2) मुलफुजात (सूफी सन्तों की बातचीत) – मुलफुतात’ पर एक आरम्भिक ग्रन्थ ‘फवाइद-अल-फुआद’ है यह शेख निजामुद्दीन औलिया की बातचीत पर आधारित एक संग्रह है जिसका संकलन प्रसिद्ध फारसी कवि अमीर हसन सिजजी देहलवी ने किया।

(3) मक्तुबात लिखे हुए पत्रों का संकलन ) ये वे पत्र थे जो सूफी सन्तों द्वारा अपने अनुयायियों और सहयोगियों को लिखे गए। इन पत्रों से धार्मिक सत्य के बारे में शेख के अनुभवों का वर्णन मिलता है जिसे वह अन्य लोगों के साथ बांटना चाहते थे।

(4) तजकिरा ( सूफी सन्तों की जीवनियों का स्मरण ) भारत में लिखा पहला ‘सूफी तजकिरा’ ‘मीर खुर्द किरमानी’ का ‘सियार-उल-औलिया है। यह तजकिरा मुख्यतः चिश्ती संतों के बारे में था सबसे प्रसिद्ध तजकिरा अब्दुल हक मुहाद्दिस देहलवी का ‘अखबार-उल-अखबार है।

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किरा के लेखकों का मुख्य उद्देश्य अपने सिलसिले की प्रधानता स्थापित करना और साथ ही अपनी आध्यात्मिक वंशावली की महिमा का वर्णन करना था। तजकिरे के बहुत से वर्णन अद्भुत और अविश्वसनीय हैं, किन्तु फिर भी वे इतिहासकारों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं और सूफी परम्परा के स्वरूप को समझने में सहायक सिद्ध होते हैं। इतिहासकार धार्मिक परम्परा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अनेक स्रोतों का उपयोग करते हैं जैसे मूर्तिकला, स्थापत्य, धर्मगुरुओं से जुड़ी कहानियाँ, काव्य रचनाएँ आदि।

काल-रेखा
भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ मुख्य धार्मिक शिक्षक

लगभग 500-800 ईस्वी तमिलनाडु में अप्पार, संबंदर, सुन्दरमूर्ति
लगभग 800-900 ईस्वी तमिलनाडु में नम्मलवर, मणिक्वचक्कार, अंडाल, तोंदराडिप्पोडी
लगभग 1000-1100 ईस्वी पंजाब में अल हुजविरी, दातागंज बवश; तमिलनाडु में रामानुजाचार्य
लगभग 1100-1200 ईस्वी कर्नाटक में बसवन्ना
लगभग 1200-1300 ईस्वी महाराष्ट्र में ज्ञानदेव मुक्ता बाई; राजस्थान में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती; पंजाब में बहाउद्दीन जकारिया और फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर; दिल्ली में कुतुबुद्दीन बरिखियार काकी
लगभग 1300-1400 ईस्वी कश्मीर में लालदेद; सिन्ध में लाल शाहबाज कलन्दर; दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया; उत्तरप्रदेश में रामानन्द; महाराष्ट्र में चोखमेला; बिहार में शराफुद्दीन याह्या मनेरी
लगभग 1400- 1500 ईस्वी उत्तरप्रदेश में कबीर, रैदास, सूरदास; पंजाब में बाबा गुरु नानक; गुजरात में बल्लभाचार्य; ग्वालियर में अब्दुल्ला सत्तारी; गुजरात में मुहम्मद शाह आलम; गुलबर्गा में मीर सैयद, मोहम्मद गेसू दराज़; असम में शंकर देव; महाराष्ट्र में तुकाराम
लगभग 1500-1600 ईस्वी बंगाल में श्री चैतन्य; राजस्थान में मीराबाई; उत्तरप्रदेश में शेख अब्दुल कुहस गंगोही, मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास
लगभग 1600-1700 ईस्वी हरियाणा में शेख अहमद सरहिन्दी; पंजाब में मियाँ मीर।

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