JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

Jharkhand Board Class 12 Political Science एक दल के प्रभुत्व का दौर InText Questions and Answers

पृष्ठ 27

प्रश्न 1.
हमारे लोकतन्त्र में ही ऐसी कौन-सी खूबी है? आखिर देर-सवेर हर देश ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपना ही लिया है न?
उत्तर:
भारत में राष्ट्रवाद की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए दुनिया के अन्य राष्ट्रों (जो उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए) ने भी देर-सवेर लोकतान्त्रिक ढाँचे को अपनाया। लेकिन हमारे लोकतन्त्र की खूबी यह थी कि हमारे स्वतन्त्रता संग्राम की गहरी प्रतिबद्धता लोकतन्त्र के साथ थी। हमारे नेता लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। भारत में सन् 1951-52 के आम चुनाव लोकतंत्र के लिए परीक्षा की घड़ी थी। इस समय तक लोकतंत्र केवल धनी देशों में ही कायम था। लेकिन भारतीय जनता ने विश्व के इतिहास में लोकतन्त्र के सबसे बड़े प्रयोग को जन्म दिया। इससे यह सिद्ध हो गया कि विश्व में कहीं भी लोकतन्त्र पर अमल किया जा सकता है।

पृष्ठ 31

प्रश्न 2.
क्या आप पृष्ठ 31 में दिए गए मानचित्र में उन जगहों को पहचान सकते हैं जहाँ काँग्रेस बहुत मजबूत थी? किन प्रान्तों में दूसरी पार्टियों को ज्यादातर सीटें मिलीं?
उत्तर:

  1. मानचित्र के अनुसार 1952 से 1967 के दौरान काँग्रेस शासित राज्य थे- पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, असम, मणिपुर, त्रिपुरा, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, मैसूर, पाण्डिचेरी, मद्रास आदि।
  2. जिन राज्यों में अन्य दलों को अधिकांश सीटें प्राप्त हुईं, वे थे – केरल में केरल डेमोक्रेटिक लेफ्ट फ्रंट (1957- 1959) तथा जम्मू और कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस पार्टी।

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पृष्ठ 36

प्रश्न 3.
पहले हमने एक ही पार्टी के भीतर गठबंधन देखा और अब पार्टियों के बीच गठबन्धन होता देख रहे हैं। क्या इसका मतलब यह हुआ कि गठबन्धन सरकार 1952 से ही चल रही है?
उत्तर:
भारत में ‘पार्टी में गठबन्धन’ और ‘पार्टियों का गठबन्धन’ का सिलसिला 1952 से ही चला आ रहा है लेकिन इस गठबन्धन के स्वरूप एवं प्रकृति में व्यापक अन्तर है। आजादी के समय एक पार्टी अर्थात् कांग्रेस के अन्दर गठबन्धन था। कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर प्रकार की विचारधाराओं के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल आ जुटते थे और राजनीतिक कार्यों में भाग लेते थे। कांग्रेस पार्टी ने इन विभिन्न वर्गों, समुदायों एवं विचारधारा के लोगों में आम सहमति बनाये रखी। लेकिन 1967 के पश्चात् अनेक राजनीतिक दलों का विकास हुआ और गठबन्धन की राजनीति शुरू हुई जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थन के आधार पर सरकारों का गठन किया जाने लगा। लेकिन यह गठबन्धन निजी स्वार्थी व शर्तों पर आधारित होने के कारण परस्पर सहमति बनाए नहीं रख पा रहे हैं।

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प्रश्न 1.
सही विकल्प को चुनकर खाली जगह को भरें:
(क) 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ-साथ ……………………. के लिए भी चुनाव कराए गए थे ( भारत के राष्ट्रपति पद / राज्य विधानसभा / राज्य सभा / प्रधानमंत्री )
उत्तर:
राज्य विधानसभा

(ख) ……………………… “लोकसभा के पहले आम चुनाव में 16 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी / भारतीय जनता पार्टी)
उत्तर:
भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

(ग) ………………………. स्वतन्त्र पार्टी का एक निर्देशक सिद्धान्त था। बैठाएँ (कामगार तबके का हित/ रियासतों का बचाव / राज्य के नियन्त्रण से मुक्त अर्थव्यवस्था / संघ के भीतर राज्यों की स्वायत्तता )
उत्तर:
राज्य के नियन्त्रण से मुक्त अर्थव्यवस्था।

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प्रश्न 2.
यहाँ दो सूचियाँ दी गई हैं। पहले में नेताओं के नाम दर्ज हैं और दूसरे में दलों के। दोनों सूचियों में मेल

(क) एस. ए. डांगे (i) भारतीय जनसंघ
(ख) श्यामा प्रसाद मुखर्जी (ii) स्वतन्त्र पार्टी
(ग) मीनू मसानी (iii) प्रजा सोशलिस्ट पार्टी
(घ) अशोक मेहता (iv) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

उत्तर:

(क) एस. ए. डांगे (iv) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(ख) श्यामा प्रसाद मुखर्जी (i) भारतीय जनसंघ
(ग) मीनू मसानी (ii) स्वतन्त्र पार्टी
(घ) अशोक मेहता (iii) प्रजा सोशलिस्ट पार्टी

प्रश्न 3.
एकल पार्टी के प्रभुत्व के बारे में यहाँ चार बयान लिखे गए हैं। प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ-
(क) विकल्प के रूप में किसी मजबूत राजनीतिक दल का अभाव एकल पार्टी प्रभुत्व का कारण था।
(ख) जनमत की कमजोरी के कारण एक पार्टी का प्रभुत्व कायम हुआ।
(ग) एकल पार्टी प्रभुत्व का सम्बन्ध राष्ट्र के औपनिवेशिक अतीत से है।
(घ) एकल पार्टी – प्रभुत्व से देश में लोकतान्त्रिक आदर्शों के अभाव की झलक मिलती है।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत।

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प्रश्न 4.
अगर पहले आम चुनाव के बाद भारतीय जनसंघ अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी होती तो किन मामलों में इस सरकार ने अलग नीति अपनाई होती ? इन दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों के बीच तीन अंतरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
यदि पहले आम चुनावों के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या जनसंघ की सरकार बनती तो विदेश नीति के मामलों में इस सरकार से अलग नीति अपनायी गयी होती। दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों में तीन प्रमुख अन्तर निम्नलिखित होते:

भारतीय जनसंघ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(1) जनसंघ संभवतः असंलग्नता की विदेश नीति को न अपनाकर अमरीकी गुट के साथ मिलकर चलती। (1) कम्युनिस्ट पार्टी असंलग्नता की नीति को अपनाते हुए सोवियत गुट के साथ मिलकर विदेश नीति का संचालन करती।
(2) जनसंघ अंग्रेजी भाषा को हटाकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने में महती भूमिका निभाती। (2) कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रभाषा के संदर्भ में कांग्रेस की नीति का ही समर्थन करती।
(3) जनसंघ कश्मीर में 370 का प्रयोग नहीं करती। इस तरह कश्मीर को भारत में अन्य राज्यों की तरह विलय करती। (3) कम्युनिस्ट पार्टी इस प्रकार का कोई प्रयास नहीं करती।

प्रश्न 5.
कांग्रेस किन अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी ? कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थितियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
आजादी के पूर्व से ही कांग्रेस ने परस्पर विरोधी हितों के कई समूहों को एक साथ जोड़ने का कार्य किया और आजादी के समय तक कांग्रेस एक सतरंगे सामाजिक गठबंधन की शक्ल अख्तियार कर चुकी थी। यथा

  1. इसमें विभिन्न वर्ग, जाति, भाषा तथा अन्य हितों से जुड़े हुए व्यक्ति इस गठबन्धन से जुड़ चुके थे।
  2. कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी । क्योंकि इसने अपने अंदर क्रान्तिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर विचारधारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया।
  3. सन् 1924 से 1942 तक भारतीय साम्यवादी दल कांग्रेस के एक गुट के रूप में रहकर ही कार्य करता था।
  4. कांग्रेस एक ऐसा मंच था जिस पर अनेक हित समूह, दबाव समूह और राजनीतिक दल आ जुटते थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे। स्वतंत्रता से पहले अनेक संगठन और राजनीतिक दलों को कांग्रेस में रहने की अनुमति थी।
  5. कांग्रेस ने सोशलिस्ट पार्टी, जिसका अलग संविधान व संगठन था, को भी कांग्रेस के एक गुट के रूप में बनाए रखा। इस प्रकार कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी।

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प्रश्न 6.
क्या एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ?
उत्तर:
यह कथन सत्य है, क्योंकि एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतान्त्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ। क्योंकि

  1. इस कारण कोई भी अन्य विचारधारात्मक गठबन्धन या पार्टी उभर कर सामने नहीं आ पाई।
  2. मतदाताओं के पास भी कांग्रेस को समर्थन देने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं था।
  3. दल प्रभुत्व की प्रणाली में राजनीतिक तानाशाही को भी बल मिला और लोकतान्त्रिक मूल्यों का ह्रास भी हुआ। बार-बार अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग हुआ और देश ने 1975 से 1977 तक

आपातकाल की स्थिति को जिया जिसमें नागरिकों के मूल अधिकारों का निलम्बन हुआ, संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग हुआ तथा जनता को अनेक अत्याचारों का सामना करना पड़ा।
अथवा
एकल पार्टी प्रभुत्व- – प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र का अच्छा प्रभाव हुआ। यथा

  1. इसने भारतीय लोकतंत्र तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
  2. तत्कालीन भारत में लोकतंत्र और संसदीय शासन अपनी शैशवावस्था में था। यदि इस समय एकल पार्टी प्रभुत्व न होता तो सत्ता के लिए प्रतिस्पर्द्धा होती इससे जनता का विश्वास लोकतंत्र से उठ जाता।.
  3. तत्कालीन मतदाता राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं था तथा मात्र 15% लोग ही शिक्षित थे। मतदाताओं में कांग्रेस के प्रति विश्वास था। इसी विश्वास ने यहाँ लोकतंत्र को सुदृढ़ किया।
  4. प्रभुत्व प्राप्त स्थिति होने पर भी विपक्षी दलों को सरकार की आलोचना का अधिकार था। इससे जनता राजनीतिक रूप से जागरूक होती रही।

प्रश्न 7.
समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के तीन अंतर बताएँ। इसी तरह भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी के बीच के तीन अंतरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
समाजवादी दल समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टी में अन्तर

समाजवादी दल कम्युनिस्ट पार्टी
(1) समाजवादी दल लोकतान्त्रिक विचार-धारा में विश्वास करते हैं। (1) कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के अधि-नायकवादी लोकतन्त्र में विश्वास करती है।
(2) समाजवादी दल पूँजीपतियों को और पूँजी को पूर्णतया अनावश्यक और समाज-विरोधी नहीं मानते। (2) कम्युनिस्ट पार्टी निजी पूँजी और पूँजी-पतियों को पूर्णतया अनावश्यक और राजद्रोही मानती है।
(3) समाजवादी दल मजदूरों और किसानों के पक्षधर तो हैं लेकिन वे सामाजिक नियन्त्रण, लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक उपायों के पक्षधर हैं। (3) कम्युनिस्ट पार्टी हर हाल में पूँजीपतियों के बजाय मजदूरों, जमींदारों की बजाय किसानों के हितों की की पक्षधर है चाहे वह हिंसात्मक तरीकों या सरकार के जबरदस्ती उत्पादन के साधनों और भूमि का राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर क्यों न हो।

भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी में अन्तर

भारतीय जनसंघ स्वतन्त्र पार्टी
(1) जनसंघ एक देश, एक संस्कृति तथा एक राष्ट्र के पक्ष में थी। (1) स्वतन्त्र पार्टी इस प्रकार के विचार के पक्ष में नहीं थी।
(2) जनसंघ भारत और पाकिस्तान को मिलाकर अखण्ड भारत बनाने के पक्ष में थी। (2) स्वतन्त्र पार्टी इस प्रकार के. अखण्ड भारत को व्यावहारिक नहीं मानती थी।
(3) जनसंघ आण्विक हथियार बनाने के पक्ष में थी। (3) स्वतन्त्र पार्टी आण्विक हथियारों की अपेक्षा विकास पर पर अधिक जोर दे रही थी।


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प्रश्न 8.
भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय तक एक पार्टी का प्रभुत्व रहा। बताएं कि मैक्सिको में स्थापित एक पार्टी का प्रभुत्व कैसे भारत के एक पार्टी के प्रभुत्व से अलग था?
उत्तर:
भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय में एक ही दल का प्रभुत्व था। परन्तु दोनों देशों में एक दल के प्रभुत्व के स्वरूप में मौलिक अन्तर था

  1. भारत में कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व मुख्यतः 1977 तक अर्थात् 27 वर्ष तक रहा जबकि मैक्सिको में आर.पी.आई का प्रभुत्व 60 वर्ष तक रहा। हुआ।
  2. मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं
  3. भारत में एक पार्टी (कांग्रेस) के प्रभुत्व के साथ-साथ शुरू से ही अनेक पार्टियाँ चुनाव में राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय स्तर पर विद्यमान थीं जबकि मैक्सिको में ऐसा नहीं हुआ। वहाँ एक दल की तानाशाही थी तथा लोगों को अपने विचार रखने का अधिकार नहीं था।
  4. भारत में प्रजातांत्रिक संस्कृति व प्रजातांत्रिक प्रणाली के अन्तर्गत कांग्रेस का प्रभुत्व रहा जबकि मैक्सिको में शासक दल की तानाशाही के कारण इसका प्रभुत्व रहा।

प्रश्न 9.
भारत का एक राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और उसमें निम्नलिखित को चिह्नित कीजिए-
(क) ऐसे दो राज्य जहाँ 1952-67 के दौरान कांग्रेस सत्ता में नहीं थी।
(ख) ऐसे दो राज्य जहाँ इस पूरी अवधि में कांग्रेस सत्ता में रही।
उत्तर:
(क) (i) जम्मू और कश्मीर (ii) केरल
(ख) (i) पंजाब (ii) उत्तर प्रदेश।
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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- कांग्रेस के संगठनकर्ता पटेल कांग्रेस को दूसरे राजनीतिक समूह से निसंग रखकर उसे एक सर्वांगसम तथा अनुशासित राजनीतिक पार्टी बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस सबको समेटकर चलने वाला स्वभाव छोड़े और अनुशासित कॉडर से युक्त एक सुगुंफित पार्टी के रूप में उभरे। ‘यथार्थवादी’ होने के कारण पटेल व्यापकता की जगह अनुशासन को ज्यादा तरजीह देते थे।

अगर ” आंदोलन को चलाते चले जाने के बारे में गाँधी के ख्याल हद से ज्यादा रोमानी थे तो कांग्रेस को किसी एक विचारधारा पर चलने वाली अनुशासित तथा धुरंधर राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलने की पटेल की धारणा भी उसी तरह कांग्रेस की उस समन्वयवादी भूमिका को पकड़ पाने में चूक गई जिसे कांग्रेस को आने वाले दशकों में निभाना था। – रजनी कोठारी
(क) लेखक क्यों सोच रहा है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए? (ख) शुरुआती सालों में कांग्रेस द्वारा निभाई गई समन्वयवादी भूमिका के कुछ उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
(क) लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासन पार्टी नहीं होना चाहिए, क्योंकि एक अनुशासित पार्टी में किसी विवादित विषय पर स्वस्थ विचार-विमर्श सम्भव नहीं हो पाता, जो कि देश एवं लोकतन्त्र के लिए अच्छा होता है। लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस पार्टी में सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं एवं विचारधाराओं के नेता शामिल हैं, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा हक है तभी देश का वास्तविक लोकतन्त्र उभर कर सामने आयेगा इसलिए लेखक कहता है कि कांग्रेस पार्टी को सर्वांगसम एवं अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए ।

(ख) कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कई विषयों में समन्वयकारी भूमिका निभाई, इसने देश के नागरिकों एवं ब्रिटिश सरकार के मध्य एक कड़ी का कार्य किया। कांग्रेस ने अपने अंदर क्रान्तिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर धारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। इसी प्रकार कांग्रेस समाज के प्रत्येक वर्ग कृषक, मजदूर, व्यापारी, वकील, उद्योगपति, सभी को साथ लेकर चली इसे सिख, मुस्लिम जैसे अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों, ब्राह्मण, राजपूत व पिछड़ा वर्ग सभी का समर्थन प्राप्त हुआ।

 एक दल के प्रभुत्व का दौर JAC Class 12 Political Science Notes

→ लोकतन्त्र स्थापित करने की चुनौती:
भारत में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के साथ ही एक और गम्भीर चुनौती लोकतन्त्र की स्थापना करना थी। भारतीय नेताओं ने लोकतन्त्र की स्थापना हेतु विभिन्न धार्मिक एवं राजनीतिक समूहों में पारस्परिक एकता की भावना को विकसित करने का प्रयास किया। इसके साथ ही राजनीतिक गतिविधियों का उद्देश्य जनहित में फैसला करना निर्धारित किया गया। भारत के विस्तृत आकार को देखते हुए निष्पक्ष चुनावों की व्यवस्था करना भी एक गम्भीर चुनौती थी। चुनाव कराने के लिए चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन जरूरी था। फिर मतदाता सूची अर्थात् मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की सूची बनाना भी आवश्यक था। इन दोनों कार्यों में बहुत सारा समय लगा। इस समय देश में 17 करोड़ मतदाता थे। इन्हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिए 489 सांसद चुनने थे।

इन मतदाताओं में केवल 15 प्रतिशत ही साक्षर थे। चुनाव आयोग को मतदान की एक विशेष पद्धति के बारे में सोचना पड़ा तथा चुनाव कराने के लिए 3 लाख से ज्यादा अधिकारियों और चुनाव कर्मियों को प्रशिक्षित किया। अधिकांश अप्रशिक्षित जनता को मतदान के विषय में जानकारी देना एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी। अन्ततः 1952 में आम चुनाव हुए। कुल मतदाताओं के आधे से अधिक ने मतदान में अपना वोट डाला। चुनाव निष्पक्ष हुए। ये चुनाव पूरी दुनिया में लोकतन्त्र के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए।

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→ पहले तीन चुनावों में कांग्रेस का प्रभुत्व-
→ पहले आम चुनावों में कांग्रेस को आश्चर्यचकित सफलता प्राप्त हुई। कांग्रेस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत प्राप्त थी, यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में था। इस पार्टी के लोकप्रिय नेता पण्डित जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई नेता थे। प्रथम आम चुनावों में कांग्रेस को 489 में से . 364 स्थानों पर विजय प्राप्त हुई।

→ दूसरे आम चुनावों (1957) में भी कांग्रेस ने अपनी स्थिति को बरकरार रखते हुए 371 स्थानों पर सफलता प्राप्त की। दूसरे राजनीतिक दल लोकसभा में विपक्षी पार्टी का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाए।

→ तीसरे आम चुनावों (1962) में भी कांग्रेस ने 2/3 बहुमत प्राप्त करके 361 स्थानों पर विजय प्राप्त की। केन्द्र और अधिकतर राज्यों में एक बार फिर एक – दलीय प्रभुत्व की व्यवस्था स्थापित हो गई। दूसरे राजनीतिक दल लोकसभा में बौने साबित हुए। किसी राजनीतिक दल को लोकसभा में विपक्षी दल की स्थिति प्राप्त नहीं हुई। कांग्रेस के प्रभुत्व की प्रकृति – भारत में कांग्रेस पार्टी की असाधारण सफलता की जड़ें स्वाधीनता संग्राम की विरासत में हैं। कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आंदोलन के वारिस के रूप में देखा गया। आजादी के आंदोलन में अग्रणी रहे उनके नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस पहले से ही एक सुसंगठित पार्टी थी। बाक़ी दल कांग्रेस के सामने बौने साबित हो रहे थे। 1952 से 1967 तक भारत कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के दौर से गुजरा। भारत का एक पार्टी प्रभुत्व दूसरे

→ देशों के एक पार्टी प्रभुत्व से भिन्न था क्योंकि:

  • अन्य देशों में एक पार्टी प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ जबकि भारत में एक पार्टी प्रभुत्व लोकतान्त्रिक स्थितियों में कायम हुआ।
  • अन्य देशों में एक पार्टी प्रभुत्व संविधान में एक पार्टी को ही शासन की अनुमति देने या कानूनी व सैन्य उपायों के चलते कायम हुआ जबकि भारत में एक पार्टी प्रभुत्व विभिन्न पार्टियों के बीच मुक्त और निष्पक्ष चुनाव के तहत हुआ।

→ केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार:
1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक गठबंधन सरकार बनी। यहाँ विधान सभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को बहुमत नहीं मिला। विधानसभा चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी को कुल 126 में से 60 सीटें हासिल हुईं। विश्व में यह पहला अवसर था जब एक कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए बनी। चुनाव प्रणाली – भारत की चुनाव प्रणाली में ‘सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत’ के तरीके को अपनाया गया। यह प्रणाली कांग्रेस पार्टी के पक्ष में सिद्ध हुई।

→ कांग्रेस एक सामाजिक और विचारधारात्मक गठबंधन के रूप में:

  • कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ था। इस समय यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का एक हित – समूह भर थी लेकिन 20वीं सदी में इसने जन-आंदोलन का रूप ले लिया। इस कारण से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका दबदबा कायम हुआ। आजादी के समय तक कांग्रेस एक सतरंगे सामाजिक गठबंधन की शक्ल ग्रहण कर चुकी थी।
  • कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, क्रान्तिकारी वामपंथी और हर· धारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह, हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे।
  • अपने गठबन्धनी स्वभाव के कारण कांग्रेस विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी। कांग्रेस के विभिन्न गुटों में कुछ विचारधारात्मक सरोकारों की वजह से तथा अन्य गुटों के पीछे व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा तथा प्रतिस्पर्द्धा की भावना भी थी। कांग्रेस की अधिकतर प्रांतीय इकाइयाँ भी विभिन्न गुटों से मिलकर बनी थीं। गुटों की मौजूदगी की यह प्रणाली शासक दल के भीतर सन्तुलन साधने के एक औजार की तरह काम करती थी।
  • चुनावी प्रतिस्पर्द्धा के पहले दशक में कांग्रेस ने शासक दल की भूमिका निभाई और विपक्ष की भी । इसी कारण भारतीय राजनीति के इस काल खण्ड को ‘कांग्रेस प्रणाली’ कहा जाता है।

→ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया:
→ 1920 के दशक के शुरुआती सालों में भारत के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी समूह (कम्युनिस्ट – ग्रुप) उभरे। ये रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित थे और देश की समस्याओं के समाधान के लिए साम्यवाद की राह अपनाने की तरफदारी कर रहे थे। 1935 से साम्यवादियों ने मुख्यतया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दायरे में रहकर काम किया। कांग्रेस से साम्यवादी 1941 के दिसम्बर से अलग हुए।

→ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं में ए. के. गोपालन, एस. ए. डांगे, ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद, पी. सी. जोशी, अजय घोष और पी. सुंदरैया के नाम प्रमुख हैं। चीन और सोवियत संघ के बीच विचारधारात्मक अन्तर आने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 1964 में एक बड़ी टूट का शिकार हुई। सोवियत संघ की विचारधारा को ठीक मानने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में रहे जबकि इसके विरोध में राय रखने वालों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सी. पी.आई. (एम.) नाम से अलग दल बनाया। ये दोनों दल आज तक कायम हैं।

→ भारतीय जनसंघ:
भारतीय जनसंघ का गठन 1951 में हुआ था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष थे। इस दल की जड़ें आजादी से पहले सक्रिय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) और हिन्दू महासभा में खोजी जा सकती हैं। जनसंघ अपनी विचारधारा और कार्यक्रमों की दृष्टि से बाकी दलों से भिन्न है। जनसंघ ने एक देश, एक संस्कृति, एक राष्ट्र के विचार पर जोर दिया।

→ विपक्षी पार्टियों का उद्भव:

  • पहले तीन आम चुनावों में विपक्षी पार्टियों का अस्तित्व नगण्य था। कई पार्टियाँ 1952 के आम चुनावों से पहले बन चुकी थीं। इनमें से कुछ ने साठ और सत्तर के दशक में देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • 1950 के दशक में इन सभी विपक्षी दलों को लोकसभा अथवा विधानसभा में कहने भर को प्रतिनिधित्व मिल पाया।
  • प्रारम्भिक वर्षों में काँग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच पारस्परिक सम्मान का गहरा भाव था।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ

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पृष्ठ 8

प्रश्न 1.
अच्छा! तो मुझे अब पता चला कि पहले जिसे पूर्वी बंगाल कहा जाता था वही आज का बांग्लादेश है तो क्या यही कारण है कि हमारे वाले बंगाल को पश्चिमी बंगाल कहा जाता है?
उत्तर;
देश के विभाजन से पूर्व बंगाल प्रान्त को दो भागों में विभाजित किया गया जिसका एक भाग पूर्वी बंगाल जो 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। 1971 में जिया उर रहमान के नेतृत्व में यह स्वतन्त्र बांग्लादेश बन गया तथा बंगाल का दूसरा भाग जो भारत में आ गया उसे पश्चिमी बंगाल के नाम से जाना जाता है।

पृष्ठ 15

प्रश्न 2.
क्या जर्मनी की तरह हम लोग भारत और पाकिस्तान के बँटवारे को समाप्त नहीं कर सकते ? मैं तो अमृतसर में नाश्ता और लाहौर में लंच करना चाहता हूँ।
उत्तर:
जर्मनी की तरह भारत एवं पाकिस्तान के बँटवारे को समाप्त करना सम्भव नहीं है क्योंकि जर्मनी के विभाजन व भारत के विभाजन की परिस्थितियों में व्यापक अन्तर है। जर्मनी के विभाजन का मूल कारण विचारधारा और आर्थिक कारण थे जबकि भारत के विभाजन में पाकिस्तान की धार्मिक कट्टरपंथिता की भावना विशेष स्थान रखती है

प्रश्न 3.
क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम एक-दूसरे को स्वतन्त्र राष्ट्र मानकर रहना और सम्मान करना सीख जाएँ?
उत्तर:
राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों में सुधार हेतु यह आवश्यक है कि वे एक-दूसरे को स्वतन्त्र राष्ट्र मानकर रहें तथा अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा का सम्मान करें। प्रायः यह देखा गया है कि भारत और पाकिस्तान के मध्य तनाव का मुख्य कारण दोनों देशों का एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना का न होना तथा पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ करना व आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना है। पाकिस्तान भारत विरोधी नीति को त्यागे तभी दोनों देशों के मध्य सम्मान का भाव पैदा हो सकता है।

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पृष्ठ 18

प्रश्न 4.
मैं सोचता हूँ कि आखिर उन सैकड़ों राजा-रानी राजकुमार और राजकुमारियों का क्या हुआ होगा? आखिर आम नागरिक बनने के बाद उनका जीवन कैसा रहा होगा?
उत्तर:
भारत में देशी रियासतों के एकीकरण के पश्चात् इन रियासतों के राजा, महाराजाओं के जीवन बसर के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष सहायता देने का प्रावधान किया गया जिसमें इनको प्रतिवर्ष विशेष सहायता राशि ‘प्रिवीपर्स’ के रूप में देने की व्यवस्था की गई। यह व्यवस्था 1970 तक रही। इसके पश्चात् ये व्यक्ति आम नागरिक की भाँति जीवन बसर कर रहे हैं। इनको भी संविधान द्वारा वही अधिकार प्रदान किये गये हैं जो एक आम नागरिक को प्राप्त हैं। आम नागरिक बनने के बाद वैभव-विलासितापूर्ण जीवन को छोड़कर उन्हें सामान्य जीवन अपनाने में अत्यन्त कष्ट का अनुभव हुआ होगा तथा अपना राजपाट छिनने का दुःख भी हुआ होगा।

पृष्ठ 20

प्रश्न 5.
पाठ्यपुस्तक में पृष्ठ 20 पर दिये मानचित्र को ध्यान से देखते हुए निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-
1. स्वतन्त्र राज्य बनने से पहले निम्नलिखित राज्य किन मूल राज्यों के अंग थे?
(क) गुजरात
(ग) मेघालय
(ख) हरियाणा
(घ) छत्तीसगढ़।
उत्तर:
(क) गुजरात मूलतः मुम्बई राज्य (महाराष्ट्र) का अंग था।
(ख) हरियाणा पंजाब राज्य का अंग था।
(ग) मेघालय असम राज्य का अंग था।
(घ) छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश राज्य का अंग था।

2. देश के विभाजन से प्रभावित दो राज्यों के नाम बताएँ।
उत्तर:
पंजाब, बंगाल, देश के विभाजन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले दो राज्य थे।

3. दो ऐसे राज्यों के नाम बताएँ जो पहले संघ – शासित राज्य थे
उत्तर:
(अ) गोवा (ब) अरुणाचल प्रदेश।

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पृष्ठ 23

प्रश्न 6.
संयुक्त राज्य अमेरिका की जनसंख्या अपने देश के मुकाबले एक-चौथाई है लेकिन वहाँ 50 राज्य हैं। भारत में 100 से भी ज्यादा राज्य क्यों नहीं हो सकते?
उत्तर:
राज्यों की संख्या में वृद्धि का आधार केवल जनसंख्या नहीं हो सकता। राज्यों की संख्या के निर्धारण में अनेक तत्त्वों का ध्यान रखना पड़ता है जिनमें जनसंख्या के साथ-साथ देश का क्षेत्रफल, आर्थिक संसाधन, उस क्षेत्र के लोगों की भाषा, देश की सभ्यता एवं संस्कृति, लोगों का जीवन व शैक्षणिक स्तर आदि तत्त्व प्रमुख हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का क्षेत्रफल भारत की तुलना में बहुत अधिक है तथा वह एक विकसित देश है और संसाधनों की तुलना में भी वह भारत से समृद्ध है। इस आधार पर संयुक्त राज्य में राज्यों की संख्या 50 है। भारत के क्षेत्रफल का कम होना, उसका विकासशील देश होना तथा संसाधनों की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका से कम समृद्ध होना आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनके कारण भारत में 100 से भी अधिक राज्य नहीं बनाए जा सकते।

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प्रश्न 1.
भारत-विभाजन के बारे में निम्नलिखित कौन-सा कथन गलत है?
(क) भारत विभाजन ‘द्वि राष्ट्र सिद्धान्त’ का परिणाम था।
(ख) धर्म के आधार पर दो प्रांतों – पंजाब और बंगाल का बँटवारा हुआ।
(ग) पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में संगति नहीं थी।
(घ) विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।
उत्तर:
(घ) विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित सिद्धान्तों के साथ उचित उदाहरणों का मेल करें

(क) धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 1. पाकिस्तान और बांग्लादेश
(ख) विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 2. भारत और पाकिस्तान
(ग) भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन 3. झारखण्ड और छत्तीसगढ़
(घ) किसी देश के भीतर प्रशासनिक और राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन 4. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड

उत्तर:

(क) धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 2. भारत और पाकिस्तान
(ख) विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 1. पाकिस्तान और बांग्लादेश
(ग) भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन 4. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड
(घ) किसी देश के भीतर प्रशासनिक और राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन 3. झारखण्ड और छत्तीसगढ़

प्रश्न 3.
भारत का कोई समकालीन राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों ) और नीचे लिखी रियासतों के स्थान चिह्नित कीजिए-
(क) जूनागढ़
(ख) मणिपुर
(ग) मैसूर
(घ) ग्वालियर।
उत्तर:
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प्रश्न 4.
नीचे दो तरह की राय लिखी गई हैं: विस्मय : रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतन्त्र का विस्तार हुआ। इन्द्रप्रीत : यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। इसमें बलप्रयोग भी हुआ था जबकि लोकतन्त्र में आम सहमति से काम लिया जाता है। देशी रियासतों के विलय और ऊपर के मशविरे के आलोक में इस घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है?
उत्तर:
1. विस्मय की राय के सम्बन्ध में विचार:
देशी रियासतों के विलय से पूर्व अधिकांश रियासतों में शासन अलोकतान्त्रिक रीति से चलाया जाता था और रजवाड़ों के शासक अपनी प्रजा को लोकतान्त्रिक अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे। इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से यहाँ समान रूप से चुनावी प्रक्रिया क्रियान्वित हुई। अतः विस्मय का यह विचार सही है कि भारतीय संघ में मिलाने से यहाँ जनता तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ।

2. इन्द्रप्रीत की राय के सम्बन्ध में विचार:
565 देशी रियासतों में केवल चार-पाँच को छोड़कर सभी स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल हुईं। लेकिन दो रियासतों (हैदराबाद एवं जूनागढ़) को भारत में मिलाने के लिए बल प्रयोग किया गया, क्योंकि इनकी भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की थी कि इससे भारत की एकता एवं अखण्डता को हमेशा खतरा बना रहता था। दूसरे, बल प्रयोग इन रियासतों की जनता के विरुद्ध नहीं, बल्कि शासन ( शासक वर्ग) के विरुद्ध किया गया क्योंकि इन दोनों राज्यों की 80 से 90 प्रतिशत जनसंख्या भारत में विलय चाह रही थी और जब से ये रियासतें भारत में सम्मिलित हो गईं, तब से इन रियासतों के लोगों को भी सभी लोकतान्त्रिक अधिकार दे दिए गए।

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प्रश्न 5.
नीचे 1947 के अगस्त के कुछ बयान दिए गए हैं जो अपनी प्रकृति में अत्यंत भिन्न हैं: आज आपने अपने सर पर काँटों का ताज पहना है। सत्ता का आसन एक बुरी चीज है। इस आसन पर आपको बड़ा सचेत रहना होगा …………………… आपको और ज्यादा विनम्र और धैर्यवान बनना होगा …………………… अब लगातार आपकी परीक्षा ली जाएगी। – मोहनदास करमचंद गाँधी

………………… भारत आजादी की जिंदगी के लिए जागेगा …………………. हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाएँगे …………………… आज दुर्भाग्य के एक दौर का खात्मा होगा और हिंदुस्तान अपने को फिर से पा लेगा ……………………… आज हम जो जश्न मना रहे हैं वह एक कदम भर है, संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं…………………….. – जवाहरलाल नेहरू
इन दो बयानों से राष्ट्र-निर्माण का जो एजेंडा ध्वनित होता है उसे लिखिए। आपको कौन-सा एजेंडा जँच रहा है और क्यों ?
उत्तर:
गाँधीजी ने देश की जनता से कहा है कि देश में स्वतंत्रता के बाद स्थापित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक दलों में सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष होगा। ऐसी स्थिति में नागरिकों को अधिक विनम्र और धैर्यवान रहते हुए चुनावों में निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर देश हित को प्राथमिकता देनी होगी। जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिये गये बयान में कहा गया है कि स्वतन्त्र भारत में राजनीतिक स्वतन्त्रता, समानता तथा एक हद तक न्याय की स्थापना हुई है; उपनिवेशवाद समाप्त हो गया है; लेकिन इससे आगे अब आने वाली समस्याओं को दूर कर गरीब से गरीब भारतीयों के लिए नये अवसरों के द्वार खोलना है। राष्ट्र को आत्मनिर्भर तथा स्वाभिमानी बनाना है।

उपर्युक्त दोनों कथनों में महात्मा गाँधी का कथन अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह भविष्य में लोकतांत्रिक शासन के समक्ष आने वाली समस्याओं के प्रति नागरिकों को आगाह करता है कि राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के मोह, विभिन्न प्रकार के लोभ-लालच, भ्रष्टाचार, धर्म, जाति, वंश, लिंग के आधार पर जनता में फूट डाल सकते हैं तथा हिंसा हो सकती है । ऐसी परिस्थितियों में जनता को विनम्र और धैर्यवान रहते हुए देशहित में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करना चाहिए।

प्रश्न 6.
भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने किन तर्कों का इस्तेमाल किया? क्या आपको लगता है कि ये केवल भावनात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी हैं?
उत्तर:

  1. नेहरूजी के अनुसार भारत ऐतिहासिक और स्वाभाविक रूप में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। वे धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहते थे। उनका विचार था कि राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होना चाहिए, न ही उसे किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहित करना चाहिए और न ही उसका विरोध करना चाहिए। राज्य को सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करना चाहिए और सभी धर्मों को उनके क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता देनी चाहिए।
  2. नेहरूजी ने सदा इस बात पर बल दिया कि भारत की एकता और अखण्डता तभी चिरस्थायी रह सकती है जबकि अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार, धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता तथा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का वातावरण प्राप्त हो।
  3. नेहरू ने अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिमों के सम्बन्ध में यह तर्क दिया था कि भारत में मुस्लिमों की संख्या इतनी अधिक है कि चाहे तो भी वे दूसरे देशों में नहीं जा सकते। अतः उन्होंने मुस्लिमों के साथ समानता का व्यवहार करने पर बल दिया, तभी भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलायेगा। निष्कर्ष रूप में, यह कहा जा सकता है कि भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए प्रस्तुत किये गये नेहरूजी के तर्क केवल भावनात्मक व नैतिक ही नहीं बल्कि युक्तिपरक भी हैं।

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प्रश्न 7.
आजादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो मुख्य अन्तर क्या थे?
उत्तर:
आजादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो मुख्य अन्तर निम्नलिखित थीं।

  1. पूर्वी क्षेत्रों में भाषायी समस्या अधिक थी जबकि पश्चिमी क्षेत्र में धार्मिक एवं जातिवादी समस्याएँ अधिक
  2. पूर्वी क्षेत्र में सांस्कृतिक एवं आर्थिक सन्तुलन की समस्या थी, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में विकास की चुनौती

प्रश्न 8.
राज्य पुनर्गठन आयोग का काम क्या था? इसकी प्रमुख सिफारिश क्या थी?
उत्तर:
1953 में स्थापित राज्य पुनर्गठन आयोग का मुख्य कार्य राज्यों के सीमांकन के विषय में कार्यवाही करना था। इस आयोग की सिफारिशों में राज्यों की सीमाओं के निर्धारण हेतु उस राज्य में बोली जाने वाली भाषा को प्रमुख आधार बनाया गया। इस आयोग की प्रमुख सिफारिश यह थी कि भारत की एकता व सुरक्षा, भाषायी और सांस्कृतिक सजातीयता तथा वित्तीय और प्रशासनिक विषयों पर उचित ध्यान रखते हुए राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया जाये।

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि राष्ट्र एक व्यापक अर्थ में ‘कल्पित समुदाय’ होता है और सर्वसामान्य विश्वास, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षा और कल्पनाओं से एकसूत्र में बँधा होता है। उन विशेषताओं की पहचान करें जिनके आधार पर भारत एक राष्ट्र है।
उत्तर:
भारत की एक राष्ट्र के रूप में विशेषताएँ: भारत की एक राष्ट्र के रूप में प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. मातृभूमि के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम:
मातृभूमि से प्रेम प्रत्येक व्यक्ति का स्वाभाविक लक्षण एवं विशेषता माना जाता है। भारत में जन्म लेने वाले व्यक्ति अपनी मातृभूमि से प्यार करते हैं तथा अपने आपको भारतीय राष्ट्रीयता का अंग मानते हैं।

2. भौगोलिक एकता: भौगोलिक एकता भी राष्ट्रवाद की भावना को विकसित करती है। भारत सीमाओं की दृष्टि से कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा गुजरात से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक एक स्वतन्त्र भौगोलिक इकाई से घिरा है।

3. सांस्कृतिक एकरूपता:
भारतीय संस्कृति इस देश को एक राष्ट्र बनाती है। यह विभिन्नता में एकता लिए हुए है। इस संस्कृति की अपनी पहचान है। वैवाहिक बंधन, जाति प्रथाएँ, साम्प्रदायिक सद्भाव, सहनशीलता, त्याग, , पारस्परिक प्रेम, ग्रामीण जीवन का आकर्षक वातावरण इस राष्ट्र की एकता को बनाने में अधिक सहायक रहा है।

4. सामान्य इतिहास:
भारत का एक अपना राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक इतिहास रहा है। इस इतिहास का अध्ययन सभी करते हैं।

5. सामान्य हित:
भारत राष्ट्र के लिए सामान्य हित भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत एक संविधान, धर्मनिरपेक्षता, इकहरी नागरिकता, सरकारी का संघीय ढाँचा, मौलिक अधिकारों व कर्त्तव्यों की व्यवस्था लागू की गई है।

6. संचार के साधनों की विशिष्ट भूमिका:
भारत एक राष्ट्र है। इसकी भावना को सुदृढ़ करने के लिए साहित्यकार, लेखक, फिल्म निर्माता-निर्देशक, जनसंचार माध्यम, इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, यातायात के साधन, दूरभाष तथा मोबाइल टेलीफोन आदि भी भारत को एक राष्ट्र बनाने में योगदान दे रहे हैं।

7. जन इच्छा:
भारतीय राष्ट्र में एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व लोगों में राष्ट्रवादी बनने की इच्छा भी है।

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प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़िए और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
राष्ट्र-निर्माण के इतिहास के लिहाज से सिर्फ सोवियत संघ में हुए प्रयोगों की तुलना भारत से की जा सकती है। सोवियत संघ में भी विभिन्न और परस्पर अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषाई समुदाय और सामाजिक वर्गों के बीच एकता का भाव कायम करना पड़ा। जिस पैमाने पर यह काम हुआ, चाहे भौगोलिक पैमाने के लिहाज से देखें या जनसंख्यागत वैविध्य के लिहाज से, वह अपने आप में बहुत व्यापक कहा जाएगा। दोनों ही जगह राज्य को जिस कच्ची सामग्री से राष्ट्र-निर्माण की शुरुआत करनी थी वह समान रूप से दुष्कर थी। लोग धर्म के आधार पर बँटे हुए और कर्ज तथा बीमारी से दबे हुए थे। – रामचंद्र गुहा

(क) यहाँ लेखक ने भारत और सोवियत संघ के बीच जिन समानताओं का उल्लेख किया है, सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के लिए भारत से एक उदाहरण दीजिए।

(ख) लेखक ने यहाँ भारत और सोवियत संघ में चली राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच की असमानता का उल्लेख नहीं किया है। क्या आप दो असमानताएँ बता सकते हैं?

(ग) अगर पीछे मुड़कर देखें तो आप क्या पाते हैं? राष्ट्र-निर्माण के इन दो प्रयोगों में किसने बेहतर काम किया और क्यों?
उत्तर:
(क) सोवियत संघ के समान ही भारत में भी अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषायी समुदाय और सामाजिक वर्गों में एकता का भाव पाया जाता है। यथा – भारत में अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग धर्म और समुदाय के लोग रहते हैं, उनकी भाषा और वेश भूषा, संस्कृति भी भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सभी प्रान्तों के लोग एक-दूसरे के धर्म, भाषा तथा संस्कृति का सम्मान करते हैं।

(ख) (i) सोवियत संघ ने राष्ट्र निर्माण के लिए आत्म-निर्भरता का सहारा लिया था जबकि भारत ने कई तरह से बाहरी मदद से राष्ट्र निर्माण के कार्य को पूरा किया।
(ii) सोवियत संघ में साम्यवादी आधार पर राष्ट्र निर्माण हुआ जबकि भारत में लोकतान्त्रिक समाजवादी आधार पर राष्ट्र निर्माण हुआ।

(ग) यदि पीछे मुड़कर देखें तो हम पायेंगे कि भारत के लिए राष्ट्र निर्माण के प्रयोग बेहतर रहे, क्योंकि 1991 में सोवियत संघ के विघटन ने उसके राष्ट्र निर्माण के प्रयोगों पर प्रश्नचिह्न लगा दिया।

राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ JAC Class 12 Political Science Notes

→ नए राष्ट्र की चुनौतियाँ: भारत सन् 1947 में आजाद हुआ लेकिन स्वतन्त्रता के साथ ही भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जहाँ एक ओर स्वतन्त्रता के साथ भारत का विभाजन हुआ वहीं दूसरी ओर हिंसा और विस्थापन की त्रासदी की मार भी झेलनी पड़ी।
→ तीन चुनौतियाँ: स्वतन्त्र भारत के समक्ष तत्कालीन समय में तीन चुनौतियाँ प्रमुख थीं-

  • विविधता में एकता की स्थापना: भारत अपने आकार और विविधता में किसी भी महादेश से कम नहीं था । यहाँ अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे विभिन्न धर्मों को मानने वाले थे । इन सभी में एकता स्थापित करना तत्कालीन समय की महान चुनौती थी।
  • लोकतन्त्र को कायम रखना: लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना करने के साथ ही संविधान के अनुकूल लोकतान्त्रिक व्यवहार एवं बरताव की व्यवस्था करना तत्कालीन समय की आवश्यकता थी।
  • सभी वर्गों का समान विकास-तीसरी चुनौती सम्पूर्ण समाज का भलां व विकास करने की थी। इस संदर्भ में संविधान में इस बात का उल्लेख किया गया कि सामाजिक रूप से वंचित वर्गों तथा धार्मिक-सांस्कृतिक अल्पसंख्यक समुदायों को सुरक्षा दी जाए।

→ विभाजन: विस्थापन और पुनर्वास – 14-15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश भारत दो राष्ट्रों ‘भारत’ और ‘पाकिस्तान’ में विभाजित हुआ । विभाजन में मुस्लिम लीग की ‘द्विराष्ट्र सिद्धान्त’ की नीति की भी भूमिका रही। इस सिद्धान्त के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ नाम की दो कौमों का देश था । इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की माँग की और अन्ततः भारत का विभाजन हुआ।

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→ विभाजन की प्रक्रिया:
इस प्रक्रिया में धार्मिक बहुसंख्या को विभाजन का आधार बनाया गया। इसके मायने यह थे कि जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे और शेष हिस्सा भारत कहलायेगा। विभाजन की इस प्रक्रिया में भी अनेक समस्याएँ थीं। ‘ब्रिटिश इण्डिया’ में ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमान बहुसंख्या में थे। एक इलाका पश्चिम में था तो दूसरा इलाका पूर्व में था। इस आधार पर पाकिस्तान दो इलाकों में विभाजित हुआ-पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान दूसरे, मुस्लिम बहुल हर इलाका, पाकिस्तान में जाने को राजी नहीं था। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के नेता खान अब्दुल गफ्फार खाँ द्विराष्ट्र सिद्धान्त के खिलाफ थे।

उनकी आवाज को अनदेखा करके पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। तीसरे, ब्रिटिश इण्डिया के मुस्लिम बहुल प्रान्त पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक और गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। फलतः दोनों प्रान्तों का बंटवारा किया गया। यह बंटवारा विभाजन की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुआ। चौथे, सीमा के दोनों तरफ अल्पसंख्यक थे। जैसे ही यह निश्चित हुआ कि देश का बंटवारा होने वाला है, वैसे ही दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे।

→ विभाजन के परिणाम: सन् 1947 में भारत विभाजन से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुईं जिनमें प्रमुख थीं-

  • विभाजन के कारण दोनों सम्प्रदायों के मध्य अचानक साम्प्रदायिक दंगे हुए। मानव इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा। लाहौर, अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर साम्प्रदायिक अखाड़े में तब्दील हो गए।
  • बँटवारे के कारण शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हुई। लाखों लोग घर से बेघर हो गये तथा लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत आये जिनके पुनर्वास की समस्या का सामना करना पड़ा।
  • परिसम्पत्तियों के बँटवारे को लेकर भी दोनों देशों के मध्य अनेक मतभेद उत्पन्न हुए।
  • विभाजन के साथ ही दोनों देशों के मध्य सीमा निर्धारण को लेकर अनेक विवाद उत्पन्न हुए। कश्मीर समस्या इसी का परिणाम मानी जाती है।
  • एक समस्या यह उत्पन्न हुई कि भारत अपने मुसलमान नागरिकों तथा दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ क्या बरताव करे ? भारतीय नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष राज्य के आदर्श को अपनाकर इसका निराकरण किया।
  • रजवाड़ों का विलय – भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप विरासत के रूप में जो दूसरी बड़ी समस्या मिली, वह थी, देशी रियासतों का स्वतन्त्र भारत में विलय करना।

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले भारत दो भागों में बँटा हुआ था – ब्रिटिश भारत और देशी राज्य। ब्रिटिश भारत का शासन तत्कालीन भारत सरकार के अधीन था, जबकि देशी राज्यों का शासन देशी राजाओं के हाथों में था। रजवाड़ों अथवा रियासतों की संख्या 565 थी। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के मार्ग में देशी रियासतें सदैव बाधा बनी रहीं। स्वतन्त्रता के पश्चात् भी ये रियासतें एकीकरण के मार्ग में सिरदर्द बनी रहीं।

→ विलय की समस्याएँ: आजादी के तुरन्त पहले अँग्रेजी प्रशासन ने घोषणा की कि रजवाड़े ब्रिटिश राज की समाप्ति के पश्चात् अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हो जायें तथा यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया। यह अपने आप में गम्भीर समस्या थी। इससे अखंड भारत के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा।

→ सरकार का नजरिया: यद्यपि देशी रियासतों की भारत में विलय की समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी परन्तु सरदार पटेल ने इस समस्या को बड़े ही सुनियोजित ढंग से सुलझाया।
देशी रजवाड़ों के विलय के सम्बन्ध में तीन बातें अधिक महत्त्वपूर्ण थीं-

  1. पहली बात यह थी कि अधिकतर रजवाड़ों के लोग भारतीय संघ में शामिल होना चाहते थे।
  2. दूसरा, भारत सरकार का रुख लचीला था । वह कुछ इलाकों को स्वायत्तता देने के लिए तैयार थी। जैसा जम्मू-कश्मीर में हुआ।
  3. तीसरी बात, विभाजन की पृष्ठभूमि में विभिन्न इलाकों के सीमांकन के सवाल पर खींचतान जोर पकड़ रही थी और ऐसे में देश की क्षेत्रीय अखण्डता – एकता का सवाल सबसे ज्यादा अहम हो उठा था।

शांतिपूर्ण बातचीत के द्वारा लगभग सभी रजवाड़ों जिनकी सीमाएँ आजाद हिन्दुस्तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्त, 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गईं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय अन्य की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ। सितम्बर, 1948 में हैदराबाद के निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। मणिपुर के महाराजा बोधचन्द्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये और जून, 1948 में चुनावों के फलस्वरूप वहाँ संवैधानिक राजतंत्र कायम हुआ।

→ राज्यों का पुनर्गठन: बँटवारे और देशी रियासतों के बाद राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में राज्यों के पुनर्गठन की समस्या भी महत्त्वपूर्ण थी। राष्ट्र के समक्ष प्रांतों की सीमाओं को इस तरह तय करने की चुनौती थी कि देश की भाषायी और सांस्कृतिक बहुलता की झलक भी मिले, साथ ही राष्ट्रीय एकता भी खण्डित न हो राज्यों का पुनर्गठन करने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इस आयोग का कार्य राज्यों के सीमांकन के मामले में गौर करना था। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ।

इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केन्द्र शासित प्रदेश बनाये गये। इस अधिनियम में राज्यों के पुनर्गठन का आधार भाषा को बनाया गया। भाषा के आधार पर राज्यों का संगठन करने से भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हुईं। कई राज्यों के लोग इस भाषागत पुनर्गठन से सन्तुष्ट नहीं थे, क्योंकि कई राज्यों में रहने से लोग, अपनी भाषा के आधार पर अलग राज्यों की स्थापना चाहते थे। इसी कारण देश के कई भागों में लोगों द्वारा गम्भीर आन्दोलन आरम्भ कर दिए गए और भारत सरकार को विवश होकर नए राज्य स्थापित करने पड़े।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 वैश्वीकरण

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 वैश्वीकरण Textbook Exercise Questions and Answers

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 वैश्वीकरण

Jharkhand Board Class 12 Political Science वैश्वीकरण InText Questions and Answers

पृष्ठ 136

प्रश्न 1.
बहुत से नेपाली मजदूर काम करने के लिए भारत आते हैं। क्या यह वैश्वीकरण है?
उत्तर:
हाँ, श्रम का प्रवाह भी वैश्वीकरण का एक भाग है। एक देश के लोग दूसरे देश में जाकर मजदूरी करें । यह स्थिति भी विश्व के समस्त देशों को एक विश्व गांव में बदलती है।

पृष्ठ 137

प्रश्न 2.
भारत में बिकने वाली चीन की बनी बहुत-सी चीजें तस्करी की होती हैं। क्या वैश्वीकरण के चलते तस्करी होती है?
उत्तर:
वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि हुई है। अब वैश्वीकरण के कारण आयात-प्रतिबंध कम हो गये हैं; इससे तस्करी में कमी हुई है। वैश्वीकरण के चलते तस्करी का प्रमुख कारण आयात पर प्रतिबंध तो समाप्त हो गया है, लेकिन तस्करी के अन्य कारण, जैसे-विक्रय पर लगने वाला कर, आय कर आदि अन्य करों की चोरी आदि कारण तो विद्यमान रहेंगे ही।

पृष्ठ 138

प्रश्न 3.
क्या साम्राज्यवाद का ही नया नाम वैश्वीकरण नहीं है? हमें नये नाम की जरूरत क्यों है?
उत्तर:
वैश्वीकरण साम्राज्यवाद नहीं है। साम्राज्यवाद में राजनीतिक प्रभाव मुख्य रहता है। इसमें एक शक्तिशाली देश दूसरे देशों पर अधिकार करके उनके संसाधनों का अपने हित में शोषण करता है। यह एक जबरन चलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम हैं। इसमें विचारों, पूँजी, वस्तुओं और व्यापार तथा बेहतर आजीविका का प्रवाह पूरी दुनिया में तीव्र हो जाता है। इन प्रवाहों की निरन्तरता से विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है। अतः स्पष्ट है कि वैश्वीकरण साम्राज्यवाद से भिन्न तथा बहुआयामी प्रक्रिया है, इसलिए हमें इसके लिए नये नाम की आवश्यकता पड़ी है।

पृष्ठ 142

प्रश्न 4.
आप या आपका परिवार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जिन उत्पादों को इस्तेमाल करता है, उसकी एक सूची तैयार करें।
उत्तर:
मैं या मेरा परिवार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनेक उत्पादों का इस्तेमाल करता है, जैसे कॉलगेट टूथपेस्ट, घड़ियाँ, पेफे, लिवाइस आदि के बने परिधान, कार, माइक्रोवेव, फ्रिज, टी.वी., वाशिंग मशीन, फर्नीचर, मैकडोनाल्ड के भोजन, साबुन, बालपैन, रोशनी के बल्ब, शैम्पू, दवाइयाँ आदि। [ नोट – विद्यार्थी इस सूची को और विस्तार दे सकते हैं ।]

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 वैश्वीकरण

प्रश्न 5.
जब हम सामाजिक सुरक्षा कवच की बात करते हैं तो इसका सीधा-सादा मतलब होता है कि कुछ लोग तो वैश्वीकरण के चलते बदहाल होंगे ही। तभी तो सामाजिक सुरक्षा कवच की बात की जाती है। है न?
उत्तर:
सामाजिक न्याय के पक्षधर इस बात पर जोर देते हैं कि ‘सामाजिक सुरक्षा कवच’ तैयार किया जाना चाहिए ताकि जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। इसका आशय यह है कि आर्थिक वैश्वीकरण से जनसंख्या के एक बड़े छोटे तबके को लाभ होगा जबकि नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे क्योंकि वैश्वीकरण के चलते सरकारें सामाजिक न्याय सम्बन्धी अपनी जिम्मेदारियों से अपने हाथ खींचती हैं। इससे अल्पविकसित और विकासशील देशों के गरीब लोग एकदम बदहाल हो जायेंगे। इससे स्पष्ट होता है कि वैश्वीकरण के चलते गरीब देशों के गरीब लोग बदहाल हो जायेंगे। इसीलिए उनके लिए सामाजिक सुरक्षा कवच की बात की जाती है।

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प्रश्न 6.
हम पश्चिमी संस्कृति से क्यों डरते हैं? क्या हमें अपनी संस्कृति पर विश्वास नहीं है?
उत्तर:
हम पश्चिमी संस्कृति से डरते हैं, क्योंकि वैश्वीकरण का एक पक्ष सांस्कृतिक समरूपता है जिसमें विश्व – संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। इससे पूरे विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है जो समूची मानवता के लिए खतरनाक है। हमें अपनी संस्कृति पर पूर्ण विश्वास है; लेकिन हमारे ऊपर पाश्चात्य संस्कृति को जबरन लादा न जाये।

प्रश्न 7.
अपनी भाषा की सभी जानी-पहचानी बोलियों की सूची बनाएँ। अपने दादा की पीढ़ी के लोगों से इस बारे में सलाह लीजिए। कितने लोग आज इन बोलियों को बोलते हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी यह स्वयं करें।

Jharkhand Board Class 12 Political Science वैश्वीकरण Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण सिर्फ आर्थिक परिघटना है।
(ख) वैश्वीकरण की शुरुआत 1991 में हुई।
(ग) वैश्वीकरण और पश्चिमीकरण समान हैं।
(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।
उत्तर;
(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण के प्रभाव के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।
(ख) सभी देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव समान रहा है।
(ग) वैश्वीकरण का असर सिर्फ राजनीतिक दायरे तक सीमित है।
(घ) वैश्वीकरण से अनिवार्यतया सांस्कृतिक समरूपता आती है।
उत्तर:
(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।

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प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के कारणों के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।
(ख) जनता का एक खास समुदाय वैश्वीकरण का कारण है।
(ग) वैश्वीकरण का जन्म संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ।
(घ) वैश्वीकरण का एकमात्र कारण आर्थिक धरातल पर पारस्परिक निर्भरता है।
उत्तर:
(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण का संबंध सिर्फ वस्तुओं की आवाजाही से है।
ख) वैश्वीकरण में मूल्यों का संघर्ष नहीं होता।
(ग) वैश्वीकरण के अंग के रूप में सेवाओं का महत्त्व गौण है।
(घ) वैश्वीकरण का संबंध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण का संबंध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन गलत है?
(क) वैश्वीकरण के समर्थकों का तर्क है कि इससे आर्थिक समृद्धि बढ़ेगी।
(ख) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे आर्थिक असमानता और ज्यादा बढ़ेगी।
(ग) वैश्वीकरण के पैरोकारों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।
(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।

प्रश्न 6.
विश्वव्यापी ‘पारस्परिक जुड़ाव ‘ क्या है? इसके कौन-कौन से घटक हैं?
उत्तर:
विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव का अर्थ है।विचार, वस्तुओं तथा घटनाओं का दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचना। इससे विश्व के विभिन्न भाग परस्पर एक-दूसरे के नजदीक आ गये हैं। इसके प्रमुख घटक अग्र हैं।

  • विश्व के एक हिस्से के विचारों एवं धारणाओं का दूसरे हिस्से में पहुँचना।
  • निवेश के रूप में पूँजी का विश्व के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना।
  • वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका बढ़ता हुआ व्यापार।
  • बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही का बढ़ना । विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव ऐसे प्रवाहों की निरन्तरता से पैदा हुआ है और कायम है।

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प्रश्न 7.
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का क्या योगदान है?
उत्तर:
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का प्रमुख योगदान इस प्रकार रहा है।

  1. टेलीग्राफ, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रांति ला दी है। इस प्रौद्योगिकी का प्रभाव हमारे सोचने के तरीके और सामूहिक जीवन की गतिविधियों पर उसी तरह पड़ रहा है जिस तरह मुद्रण की तकनीकी का प्रभाव राष्ट्रवाद की भावनाओं पर पड़ा था।
  2. विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में तरक्की के कारण संभव हुई उदाहरण के लिये, आज इण्टरनेट की सुविधा के चलते ई-कॉमर्स, ई-बैंकिंग, ई-लर्निंग जैसी तकनीकें अस्तित्व में आ गई हैं जिनके द्वारा विश्व के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में व्यापार किया जा सकता है, खोजे जा सकते हैं तथा

प्रश्न 8.
वैश्वीकरण के संदर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
उत्तर:
वैश्वीकरण के संदर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का विवेचन अग्र बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।

  1. वैश्वीकरण के युग में प्रत्येक विकासशील देश को इस प्रकार की विदेश एवं आर्थिक नीति का निर्माण करना पड़ता है जिससे कि दूसरे देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाये जा सकें। पूँजी निवेश के कारण विकासशील देशों ने भी अपने बाजार विश्व के लिये खोल दिये हैं ।
  2. विकासशील देशों में विश्व संगठनों के प्रभाव में राज्यों द्वारा बनाई जाने वाली निजीकरण की नीतियाँ, कर्मचारियों की छँटनी, सरकारी अनुदानों में कमी तथा कृषि से सम्बन्धित नीतियों पर वैश्वीकरण का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
  3. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप राज्य ने अपने को पहले के कई ऐसे लोककल्याणकारी कार्यों से खींच लिया है।
  4. विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय निगमों के कारण सरकारों की अपने दम पर फैसला करने की क्षमता में कमी आई है।
  5. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ मायनों में राज्य की ताकत का इजाफा भी हुआ है। आज राज्यों के पास अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बल पर राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनायें जुटा सकते हैं।

आलोचना – विकासशील देशों में आज भी निर्धनता, निम्न जीवन स्तर, अशिक्षा, बेरोज़गारी, कुपोषण विद्यमान है। इसलिए राज्य द्वारा सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्य करने की महती आवश्यकता है। लेकिन वैश्वीकरण के चलते राज्य ने इन कार्यों से अपना हाथ खींच लिया है। इसीलिए अनेक संगठनों व विचारकों द्वारा वैश्वीकरण की आलोचना की जा रही है।

प्रश्न 9.
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ क्या हुई हैं? इस संदर्भ में वैश्वीकरण ने भारत पर कैसे प्रभाव डाला है?
उत्तर:
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियों का विवेचन निम्न बिंदुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. व्यापार में वृद्धि तथा खुलापन – वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में आयात प्रतिबंधों के कम होने से वस्तुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है।
  2. सेवाओं का विस्तार तथा प्रवाह – वैश्वीकरण के चलते अब सेवाओं का प्रवाह अबाध हो उठा है। इंटरनेट और कंप्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है।
  3. राज्यों द्वारा आर्थिक जिम्मेदारियों से हाथ खींचना – आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी सामाजिक सुरक्षा तथा जन कल्याण की जिम्मेदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं और इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिंतित हैं।
  4. विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण- कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण कहा है।
  5. आर्थिक वैश्वीकरण के लाभकारी परिणाम – आर्थिक वैश्वीकरण से व्यापार में वृद्धि हुई है, देश को प्रगति का अवसर मिला है तथा खुशहाली बढ़ी है तथा लोगों में जुड़ाव बढ़ रहा है।

वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव – वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तहत भारत पर निम्न प्रमुख प्रभाव पड़े हैं।

  1. वैश्वीकरण के प्रभाव के चलते भारत में व्यापार व विदेशी पूँजी निवेश के क्षेत्र में उदारवादी व निजीकरण की नीतियों को लागू किया गया । विदेशी पूँजी हेतु प्रतिबन्धों में ढील दी गई तथा अर्थव्यवस्था के नियमन व नियन्त्रणं में सरकार की क्षमता में कमी आई है।
  2. इसके तहत सकल घरेलू उत्पाद दर, विकास दर में तीव्र वृद्धि हुई है।
  3. विश्व के देश भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखने लगे हैं। अतः यहाँ विदेशी निवेश बढ़ा है।
  4. रोजगार हेतु श्रम का प्रवाह बढ़ा है तथा पाश्चात्य संस्कृति का तीव्र प्रसार हुआ है।

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प्रश्न 10.
क्या आप इस तर्क से सहमत हैं कि वैश्वीकरण से सांस्कृतिक विभिन्नता बढ़ रही है?
उत्तर:
वैश्वीकरण में सांस्कृतिक विभिन्नता और सांस्कृतिक समरूपता दोनों ही प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। यथा- सांस्कृतिक समरूपता में वृद्धि – वैश्वीकरण के कारण पश्चिमी यूरोप के देश तथा अमेरिका अपनी तकनीकी और आर्थिक शक्ति के बल पर सम्पूर्ण विश्व पर अपनी संस्कृति लादने का प्रयास कर रहे हैं। इससे पश्चिमी संस्कृति के तत्व अब विश्वव्यापी होते जा रहे हैं। इससे कई परम्परागत संस्कृतियों को खतरा उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार यहां संजीव पास बुक्स सांस्कृतिक समरूपता से अभिप्राय केवल पश्चिमी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से है, नकि किसी नयी विश्व संस्कृति के उदय से सांस्कृतिक विभिन्नता में वृद्धि – वैश्वीकरण के द्वारा सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी बढ़ रही हैं तथा नयी मिश्रित संस्कृतियों का उदय हो रहा है। उदाहरण के लिए अमेरिका की नीली जीन्स, हथकरघे के देशी कुर्ते के साथ पहनी जा रही है। यह कुर्ता विदेशों में भी निर्यात किया जा रहा है। इस प्रकार वैश्वीकरण के कारण हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग व विशिष्ट होती जा रही है। रहा है?

प्रश्न 11.
वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया है और भारत कैसे वैश्वीकरण को प्रभावित कर
उत्तर:
वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव : वैश्वीकरण ने भारत को अत्यधिक प्रभावित किया है। यथा-

  1. वैश्वीकरण के अन्तर्गत भारत ने निजीकरण व उदारीकरण की नीतियों को अपनाया; बहुत-सी आर्थिक गतिविधियाँ राज्य द्वारा निजी क्षेत्र को सौंप दी गईं। विदेशी पूँजी निवेश हेतु भी प्रतिबन्धों को उदार बनाया गया। परिणामतः भारत में विदेशी वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ी। औद्योगिक प्रतियोगिता के तहत बाजार में उपलब्ध वस्तुओं के विकल्पों व गुणवत्ता में वृद्धि हुई।
  2. वैश्वीकरण के कारण भारत की सकल घरेलू उत्पाद दर में तेजी से वृद्धि हुई है।
  3. वैश्वीकरण के कारण भारत की विकास दर 4.3% से बढ़कर 7 और 8% के आसपास बनी रही है।
  4. विश्व के अधिकांश विकसित देश वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रभावस्वरूप भारत को एक बड़ी मण्डी के रूप में देखने लगे हैं। इससे विदेशी निवेश बढ़ा है।
  5. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप भारतीय लोगों ने आजीविका के लिए विदेशों में बसना शुरू कर दिया है।
  6. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप यूरोप और अमेरिका की पश्चिमी संस्कृति बड़ी तेजी से भारत में फैल
  7. वैश्वीकरण के कारण विश्व बाजार में विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के मध्य आत्मर्निर्भरता और प्रतियोगिता बढ़ गई है।

वैश्वीकरण पर भारत का प्रभाव: भारत ने भी वैश्वीकरण को कुछ हद तक प्रभावित किया है। यथा-

  1. भारत से अब अधिक लोग विदेशों में जाकर अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों का प्रसार कर रहे हैं।
  2. भारत में उपलब्ध सस्ते श्रम ने विश्व के देशों को इस ओर आकर्षित किया है।
  3. भारत ने कम्प्यूटर तथा तकनीकी के क्षेत्र में बड़ी तेज़ी से उन्नति कर विश्व में अपना प्रभुत्व जमाया है।

वैश्वीकरण JAC Class 12 Political Science Notes

→ वैश्वीकरण की अवधारणा:
एक अवधारणा के रूप में वैश्वीकरण की बुनियादी बात है। प्रवाह प्रवाह कई तरह के हो सकते हैं, जैसे- विश्व के एक हिस्से के विचारों का दूसरे हिस्सों में पहुँचना; पूँजी का एक से ज्यादा जगहों पर जाना; वस्तुओं का कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार तथा आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही। यहाँ सबसे जरूरी बात है।’ विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव ‘ जो ऐसे प्रवाहों की निरन्तरता से पैदा हुआ है और कायम भी है। अतः वैश्वीकरण विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की आवाजाही से जुड़ी परिघटना है। वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम हैं। वैश्वीकरण के कारक – वैश्वीकरण के लिए अनेक कारक जिम्मेदार हैं। यथा-

  • प्रौद्योगिकी: वैश्वीकरण के लिए प्रमुख जिम्मेदार कारक प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति है। टेलीग्राफ, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रांति कर दिखाई है। प्रौद्योगिकी की तरक्की के कारण ही विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी हुई है।
  • लोगों की सोच में ‘विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव का बढ़ना: विश्व के विभिन्न भागों के लोग अब समझ रहे हैं कि वे आपस में जुड़े हुए हैं। आज हम इस बात को लेकर सजग हैं कि विश्व के एक हिस्से में घटने वाली घटना का प्रभाव विश्व के दूसरे हिस्से में भी पड़ेगा।

वैश्वीकरण के परिणाम – वैश्वीकरण के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़े हैं। यथा

  • वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभाव-
    • वैश्वीकरण के कारण राज्य की क्षमता में कमी आती है। पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की धारणा अब पुरानी पड़ गई है और इसकी जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले ली है। लोककल्याणकारी राज्य की जगह अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है। पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगम अपने पैर पसार चुके हैं।
    • कुछ मायनों में वैश्वीकरण के फलस्वरूप राज्य की ताकत में वृद्धि हुई है। अब राज्य अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के बल पर अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं और इसके आधार पर राज्य ज्यादा कारगर ढंग से कार्य कर सकते हैं।
    • राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को वैश्वीकरण से कोई चुनौती नहीं मिली है।
  • आर्थिक प्रभाव- वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभाव को आर्थिक वैश्वीकरण भी कहा जाता है। आर्थिक वैश्वीकरण में दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तेज हो जाता है। कुछ आर्थिक प्रवाह स्वेच्छा से होते हैं जबकि कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और ताकतवर देशों द्वारा जबरन लादे जाते हैं। ये प्रवाह कई किस्म के हो सकते हैं, जैसे वस्तुओं, पूँजी, जनता अथवा विचारों का प्रवाह। यथा—
    • वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि हुई है।
    • वस्तुओं के आयात-निर्यात तथा पूँजी की आवाजाही पर राज्यों के प्रतिबंध कम हुए हैं।
    • धनी देश के निवेशकर्ता अब अपना धन अपने देश की जगह कहीं और निवेश कर सकते हैं, विशेषकर विकासशील देशों में, जहाँ उन्हें अपेक्षाकृत अधिक लाभ होगा।
    • वैश्वीकरण के चलते अब विचारों का प्रवाह अबाध हो गया है।
    • इंटरनेट और कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार हुआ है।

→ वैश्वीकरण के कारण दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सरकारों ने एक-सी आर्थिक नीतियों को अपनाया है, लेकिन विश्व के विभिन्न भागों में इसके परिणाम अलग-अलग हुए हैं। इसलिए वैश्वीकरण के अनेक सकारात्मक तथा नकारात्मक परिणाम हुए हैं। आर्थिक वैश्वीकरण के दुष्परिणाम या विरोध में तर्क-आर्थिक वैश्वीकरण के प्रमुख नकारात्मक परिणाम ये हैं।

  • आर्थिक वैश्वीकरण के कारण पूरे विश्व का जनमत बड़ी गहराई में बंट गया है।
  • आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें कुछ जिम्मेदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं और इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले चिंतित हैं क्योंकि इसके कारण नौकरी और जनकल्याण के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जायेंगे।
  • आर्थिक वैश्वीकरण के कारण गरीब देश आर्थिक रूप से बर्बादी की कगार पर पहुँच जायेंगे।
  • कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण कहा है।

→ आर्थिक वैश्वीकरण के समर्थन में तर्क-

  1. आर्थिक वैश्वीकरण से समृद्धि बढ़ती है।
  2. खुलेपन के कारण ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या की खुशहाली बढ़ती है।
  3. इससे व्यापार में वृद्धि होती है। इससे सम्पूर्ण विश्व को लाभ मिलता है।
    मध्यम मार्ग – वैश्वीकरण के मध्यमार्गी समर्थकों का कहना है कि वैश्वीकरण ने चुनौतियाँ पेश की हैं और सजग होकर पूरी बुद्धिमानी से इसका सामना किया जाना चाहिए क्योंकि पारस्परिक निर्भरता तेजी से बढ़ रही है और वैश्विक स्तर पर लोगों का जुड़ाव बढ़ रहा है।
  4. सांस्कृतिक प्रभाव – वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव को निम्न प्रकार समझा जा सकता है।

→ (अ) नकारात्मक प्रभाव:
वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता लाता है। लेकिन इस सांस्कृतिक समरूपता में विश्व-संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव के अन्तर्गत राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम ताकतवर समाजों पर अपना प्रभाव छोड़ती है और संसार वैसा ही दीखता है जैसा ताकतवर संस्कृति इसे बनाना चाहती है। इससे पूरे विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है और यह समूची मानवता के लिए खतरनाक है। इससे स्पष्ट होता है कि वैश्वीकरण की सांस्कृतिक प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचायेगी।.

→ (ब) सकारात्मक प्रभाव: वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव का सकारात्मक पक्ष यह है कि

  • कभी – कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसंद-नापसंद का दायरा बढ़ता है।
  • कभी – कभी इनसे परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़े बिना संस्कृति का परिष्कार भी होता है।

→ (स) दो-तरफा प्रभाव:
वैश्वीकरण का सांस्कृतिक प्रभाव दो-तरफा है। इसका एक प्रभाव जहाँ सांस्कृतिक समरूपता है तो दूसरा प्रभाव ‘सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण’ है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 वैश्वीकरण

→ भारत और वैश्वीकरण
पूँजी, वस्तु, विचार और लोगों की आवाजाही का भारतीय इतिहास कई सदियों का है। यथा

  • औपनिवेशिक दौर में भारत आधारभूत वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यातक तथा निर्मित माल का आयातक देश था।
  • स्वतंत्रता के बाद भारत ने ‘संरक्षणवाद’ की नीति अपनाते हुए स्वयं उत्पादक चीजों के बनाने पर बल दिया इससे कुछ क्षेत्रों में तरक्की हुई लेकिन स्वास्थ्य, आवास और प्राथमिक शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जा सका। भारत की आर्थिक वृद्धि दर भी धीमी रही।
  • 1991 के बाद भारत ने आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर हासिल करने की इच्छा से आर्थिक सुधार अपनाये, आयात पर प्रतिबंध हटाये तथा व्यापार एवं विदेशी निवेश को अनुमति दी। इससे आर्थिक वृद्धि दर बढ़ी है लेकिन आर्थिक विकास का लाभ गरीब तबकों को अभी नहीं मिल पाया है।

→ वैश्वीकरण का प्रतिरोध
वैश्वीकरण के विरोध में आलोचकों द्वारा अग्र तर्क दिये जाते हैं।

  • वामपंथी राजनीतिक रुझान रखने वालों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण की प्रक्रिया धनिकों को और ज्यादा धनी और गरीबों को और ज्यादा गरीब बनाती है। इसमें राज्य कमजोर होता है और गरीबों के हितों की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है।
  • वैश्वीकरण के दक्षिणपंथी आलोचकों का प्रतिरोध इस प्रकार है
    • इससे राज्य कमजोर हो रहा है।
    • इससे परम्परागत संस्कृति को हानि होगी ।
    • कुछ क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता और संरक्षणवाद का होना आवश्यक है।
  • वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन भी जारी हैं जो वैश्वीकरण की धारणा के विरोधी नहीं बल्कि वैश्वीकरण के किसी खास कार्यक्रम के विरोधी हैं जिसे वे साम्राज्यवाद का एक रूप मानते हैं। विरोधियों का तर्क है कि आर्थिक रूप से ताकतवर देशों ने व्यापार के जो अनुचित तौर-तरीके अपनाये हैं, वे दूर हों। उदीयमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में विकासशील देशों के हितों को समुचित महत्त्व नहीं दिया गया है।
  • एक विश्वव्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ वैश्वीकरण के विरोध में गठित किया गया है। इसमें मानवाधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा तथा महिला कार्यकर्ताएँ हैं।

→ भारत और वैश्वीकरण का प्रतिरोध
भारत में वैश्वीकरण का विरोध कई क्षेत्रों से हो रहा है। ये विभिन्न पक्ष हैं – वामपंथी राजनीतिक दल, इण्डियन सोशल फोरम, औद्योगिक श्रमिक और किसान संगठन पेटेन्ट कराने के कुछ प्रयासों का यहाँ कड़ा विरोध किया गया है। यहाँ दक्षिणपंथी खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों का विरोध कर रहा है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन Textbook Exercise Questions and Answers

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

Jharkhand Board Class 12 Political Science पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन InText Questions and Answers

पृष्ठ 118

प्रश्न 1.
जंगल के सवाल पर राजनीति, पानी के सवाल पर राजनीति और वायुमण्डल के मसले पर राजनीति! फिर किस बात में राजनीति नहीं है।
उत्तर:
वर्तमान में विश्व की स्थिति कुछ ऐसी बन गई है, जहाँ प्रत्येक बात में राजनीति होने लगी है। इससे ऐसा लगता है कि अब कोई विषय ऐसा नहीं बचा है जिस पर राजनीति हावी नहीं हो।

पृष्ठ 119

प्रश्न 2.
पर दिए गए चित्र में अँगुलियों को चिमनी और विश्व को एक लाईटर के रूप में दिखाया गया है। ऐसा क्यों?
उत्तर:
दिए गए चित्रों में अँगुलियाँ उद्योगों से चिमनी से निकलने वाले प्रदूषण को दर्शाती हैं और लाइटर प्राकृतिक संसाधनों के जलने और घटने का प्रतिनिधित्व करता है।

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पृष्ठ 120

प्रश्न 3.
क्या पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिये में अन्तर है?
उत्तर:
हाँ, पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिये में अन्तर है। धनी देशों की मुख्य चिंता ओजोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर है जबकि गरीब देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज्यादा चिंतित हैं। धनी देश पर्यावरण के मुद्दे पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस रूप में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो, जबकि निर्धन देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को हानि अधिकांशतः विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुँची है। यदि धनी देशों ने पर्यावरण को अधिक हानि पहुँचायी है तो उन्हें इस हानि की भरपाई करने की जिम्मेदारी भी अधिक उठानी चाहिए। साथ ही निर्धन देशों पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाए जाने हैं।

पृष्ठ 122

प्रश्न 4.
क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करें। किन बड़े देशों ने इस पर दस्तखत नहीं किये और क्यों?
उत्तर:
क्योटो प्रोटोकॉल – जलवायु परिवर्तन के संबंध में विभिन्न देशों के सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 11 दिसम्बर, 1997 तक हुआ। इस सम्मेलन में 150 देशों ने हिस्सा लिया और जलवायु परिवर्तन को कम करने की वचनबद्धता को रेखांकित किया। इस प्रोटोकॉल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सुनिश्चित, ठोस और समयबद्ध उपाय करने पर बल दिया गया। 11 दिसम्बर, 1997 को क्योटो प्रोटोकॉल (न्यायाचार) को विकसित और विकासशील दोनों प्रकार के देशों द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इस न्यायाचार (प्रोटोकॉल) के प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं-

  1. इसमें विकसित देशों को अपने सभी छः ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर को 2008 से 2012 तक 1990 के स्तर से औसतन 5.2% कम करने को कहा गया।
  2. यूरोपीय संघ को सन् 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर में 8%, अमेरिका को 7%, जापान तथा कनाडा को 6% की कमी करनी होगी, जबकि रूस को अपना वर्तमान उत्सर्जन स्तर 1990 के स्तर पर बनाए रखना होगा।
  3. इस अवधि में आस्ट्रेलिया को अपने उत्सर्जन स्तर को 8 प्रतिशत तक बढ़ाने की छूट दी गई।
  4. विकासशील देशों को निर्धारित लक्ष्य के उत्सर्जन स्तर में कमी करने की अनुमति दी गई।
  5. इस प्रोटोकॉल में उत्सर्जन के दायित्वों की पूर्ति के लिए विकासशील देश विकास में स्वैच्छिक भागीदारी में शामिल होंगे। इस हेतु विकासशील देशों में पूँजी निवेश करने के लिए विकसित देशों को ऋण की सुविधा उपलब्ध होगी।

पृष्ठ 124

प्रश्न 5.
लोग कहते हैं कि लातिनी अमरीका में एक नदी बेच दी गई। साझी संपदा कैसे बेची जा सकती है?
उत्तर:
साझी संपदा का अर्थ होता है–ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समूह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होते हैं और समान उत्तरदायित्व निभाने होते हैं। लेकिन वर्तमान में निजीकरण, आबादी की वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी संपदा का आकार घट रहा है। गरीबों को उसकी उपलब्धता कम हो रही है। संभवत: लातिनी अमरीका में इन्हीं किन्हीं कारणों से नदी पर किसी मनुष्य समुदाय या राज्य ने उस पर अधिकार कर लिया हो और वह साझी संपदा न रहने दी गई हो। ऐसी स्थिति में उसे उसके स्वामित्व वाले समूह किसी अन्य को बेच दिया हो। इस प्रकार साझी संपदा को निजी सम्पदा में परिवर्तित कर उसे बेचा जा रहा है।

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पृष्ठ 125

प्रश्न 6.
मैं समझ गया! पहले उन लोगों ने धरती को बर्बाद किया और अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। क्या यही है हमारा पक्ष ?
उत्तर:
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन से संबंधित बुनियादी नियमाचार के अन्तर्गत चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे–ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है। उसका कहना है कि भारत पर इस तरह की बाध्यता आयद करना अनुचित है क्योंकि 2030 तक उसकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर मात्र 1.6 ही होगी, जो आधे से भी कम होगी। बावजूद विश्व के ( सन् 2000 ) औसत ( 3.8 टन प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा।

भारत या विकासशील देशों के उक्त तर्कों को देखते यह आलोचनात्मक टिप्पणी की गई है कि पहले उन लोगों ने अर्थात् विकसित देशों ने धरती को बर्बाद किया, इसलिए उन पर उत्सर्जन कम करने की बाध्यता को लागू करना न्यायसंगत है और विकासशील देशों में कार्बन की दर कम है इसलिए इन देशों पर बाध्यता नहीं लागू की जाये। इसका यह अर्थ निकाला गया है कि अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। लेकिन भारत या विकासशील देशों का अपने पक्ष रखने का यह आशय नहीं है, बल्कि आशय यह है कि विकासशील देशों में अभी कार्बन उत्सर्जन दर बहुत कम है तथा 2030 तक यह मात्र 1.6 टन प्रति व्यक्ति ही होगी, इसलिए इन देशों को अभी इस नियमाचार की बाध्यता से छूट दी जाये ताकि वे अपना आर्थिक और सामाजिक विकास कर सकें। साथ ही ये देश स्वेच्छा से कार्बन की उत्सर्जन दर को कम करने का प्रयास करते रहेंगे।

पृष्ठ 127

प्रश्न 7.
क्या आप पर्यावरणविदों के प्रयास से सहमत हैं? पर्यावरणविदों को यहाँ जिस रूप में चित्रित किया गया है क्या आपको वह सही लगता है? (चित्र के लिए देखिए पाठ्यपुस्तक पृष्ठ संख्या 127 )
उत्तर:
चित्र में दूर से पर्यावरणविदों को अपने किसी उपकरण वृक्ष को जांचते हुए या पानी देते हुए दिखाया गया है। एक व्यक्ति के पीछे पाँच प्राणी खड़े हैं। वे वृक्ष की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। पेड़ पर एक खम्भा है जिस पर विद्युत की तारें दिखाई देती हैं। शायद वे पेड़ को सूखा समझकर इसे काटे जाने की सिफारिश करना चाहते हैं। वे विशेषज्ञ होते हुए पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों को नहीं देख रहे हैं। वे पर्यावरण के संरक्षण में स्थानीय लोगों के ज्ञान, अनुभव एवं सहयोग की भी बात करते हुए नहीं दिखाई दे रहे हैं। अतः यह चित्र पर्यावरणविदों को जिस रूप में चित्रित कर रहा है, वह सही नहीं लगता।

पृष्ठ 131

प्रश्न 8.
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून किस तरह पानी की कमी को चित्रित करता है? (कार्टून के लिए देखिए पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ संख्या 131 )
उत्तर:
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून विश्व में पीने योग्य जल की कमी को चित्रित करता है। विश्व के कुछ भागों में पीने योग्य साफ पानी की कमी हो रही है तथा विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इस जीवनदायी संसाधन की कमी के कारण हिंसक संघर्ष हो सकते हैं । कार्टूनिस्ट ने इसी को इंगित करते हुए विश्व में जमीन की तुलना में पानी की मात्रा को कम दिखाया है क्योंकि समुद्रों का पानी पीने योग्य नहीं है, इसलिए उसे इस जल की मात्रा में शामिल नहीं किया गया है।

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पृष्ठ 132

प्रश्न 9.
आदिवासी जनता और उनके आंदोलनों के बारे में कुछ ज्यादा बातें क्यों नहीं सुनायी पड़तीं ? क्या मीडिया का उनसे कोई मनमुटाव है?
उत्तर:
आदिवासी जनता और उनके आंदोलनों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय तक उपेक्षित रहे हैं। इसका प्रमुख कारण मीडिया के लोगों तक इनके सम्पर्क का अभाव रहा है। 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के आदिवासियों के नेताओं के बीच सम्पर्क बढ़ा है। इससे उनके साझे अनुभवों और सरकारों को शक्ल मिली है तथा 1975 में इन लोगों की एक वैश्विक संस्था ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल’ का गठन हुआ तथा इनसे सम्बन्धित अन्य स्वयंसेवी संगठनों का गठन हुआ है।

अब इनके मुद्दों तथा आंदोलनों की बातें भी मीडिया में उठने लगी हैं। अतः स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी लोगों की संस्थाओं के न होने के कारण मीडिया में इनकी बातें अधिक नहीं सुनाई पड़ती हैं। जैसे-जैसे आदिवासी समुदाय अपने संगठनों को अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करता जायेगा, उन संगठनों के माध्यम से उनके मुद्दे और आंदोलनं भी मीडिया में मुखरित होंगे।

Jharkhand Board Class 12 Political Science पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का क्या कारण है? निम्नलिखित में सबसे बेहतर विकल्प चुनें।
(क) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिंतित हैं।
(ख) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जरूरी है।
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित कथनों में प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगायें ये कथन पृथ्वी सम्मेलन के बारे में हैं।-
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में हुआ।
(ग) वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया ।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) सही,
(घ) सही।

प्रश्न 3.
‘विश्व की साझी विरासत’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-से कथन सही हैं?
(क) धरती का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष को ‘विश्व की साझी विरासत’ माना जाता है।
(ख) ‘विश्व की साझी विरासत’ किसी राज्य के संप्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते।
(ग) ‘विश्व की साझी विरासत’ के प्रबंधन के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच मतभेद हैं
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश ‘विश्व की साझी विरासत’ को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिंतित हैं।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) सही,
(घ) गलत।

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प्रश्न 4.
रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुये?
उत्तर:
रियो सम्मेलन के परिणाम – सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित ‘रियो’ या ‘पृथ्वी’ सम्मेलन हुआ इस सम्मेलन के निम्न प्रमुख परिणाम हुए-

  1. वैश्विक राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को इस सम्मेलन में एक ठोस रूप मिला।
  2. इसमें जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियम – आचार निर्धारित हुए।
  3. इसमें ‘एजेंडा-21’ के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाये गये।
  4. इसमें ‘टिकाऊ विकास’ की धारणा को विकास रणनीति के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ।
  5. रियो सम्मेलन में पर्यावरण सुरक्षा की साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त को मान लिया गया। इसका तात्पर्य है कि पर्यावरण के विश्वव्यापी क्षय में विभिन्न देशों का योगदान अलग-अलग है जिसे देखते हुए इन राष्ट्रों की पर्यावरण रक्षा के प्रति साझी, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी होगी।

प्रश्न 5.
‘विश्व की साझी विरासत’ का क्या अर्थ है? इसका दोहन और प्रदूषण कैसे होता है?
उत्तर:
विश्व की साझी विरासत से आशय: विश्व की साझी विरासत’ का अर्थ है कि ऐसी सम्पदा जिस पर किसी एक व्यक्ति, समुदाय या देश का अधिकार न हो, बल्कि विश्व के सम्पूर्ण समुदाय का उस पर हक हो। विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभु क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। उन्हें विश्व की साझी विरासत कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं।

विश्व की साझी विरासत का दोहन:
विश्व की साझी विरासत का दोहन औद्योगीकरण, यातायात, बढ़ते वैश्विक व्यापार के रूप में किया जा रहा है।

विश्व की साझी विरासत में प्रदूषण – विश्व की साझी विरासत को गैर-जिम्मेदाराना ढंग से उपयोग करने के रूप प्रदूषित किया जा रहा है । यथा-

  1. अंटार्कटिका क्षेत्र के कुछ हिस्से तेल के रिसाव के दबाव में अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं
  2. समुद्री सतह में मछली और समुद्री जीवों के अतिशय दोहन, समुद्री तटों पर औद्योगिक प्रदूषण, भारी मात्रा में प्रदूषित जल को समुद्र में डालना तथा अत्यधिक मशीनीकरण के कारण समुद्रीय पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है।
  3. औद्योगीकरण, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, यातायात के साधनों के बढ़ने से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।

प्रश्न 6.
साझ परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों’ से क्या अभिप्राय है? हम इस विचार को कैसे लागू कर सकते हैं?
उत्तर;
साझी तथा अलग-अलग जिम्मेदारियों से आशय – विश्व पर्यावरण की रक्षा के सम्बन्ध में साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी से आशय यह है कि धरती के पर्यावरण की रक्षा के लिए सभी राष्ट्र आपस में सहयोग करेंगे। लेकिन पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राष्ट्रों का योगदान अलग-अलग है। इसे देखते हुए इसकी रक्षा में विभिन्न राष्ट्रों की अलग-अलग जिम्मेदारियाँ हैं। इसमें विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक है। ‘साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ’ के सिद्धान्त को लागू करना – साझी समझ तथा अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त को निम्न प्रकार से लागू किया जा सकता है।

  1. सभी देश विश्वबंधुत्व की भावना से आपस में सहयोग करें।
  2. विकसित देशों के समाजों का वैश्विक पर्यावरण पर दबाव ज्यादा है और इनके पास विपुल प्रौद्योगिकीय तथा वित्तीय साधन हैं। इसे देखते हुए ये देश टिकाऊ विकास के प्रयास में अपनी विशिष्ट जिम्मेदारी निभायें।
  3. सभी देश अपनी क्षमतानुसार पर्यावरण की सुरक्षा में अपनी जिम्मेदारी निभायें।
  4. विकासशील देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है, इसलिए इन पर क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं को लादा न जाए।
  5. विकासशील देश स्वेच्छा से इस ओर अपनी जिम्मेदारी उठाते जाएँ।

प्रश्न 7.
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार क्यों बन गए हैं?
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों से वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार बन गये हैं-

  1. खाद्य उत्पादन में कमी आना – दुनिया में जहाँ जनसंख्या बढ़ रही है, वहाँ कृषि योग्य भूमि में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। दूसरे, जलराशि की कमी तथा जलीय प्रदूषण, चरागाहों की समाप्ति, भूमि की उर्वरता की कमी के कारण खाद्यान्न उत्पादन जनसंख्या के अनुपात में कम हो रहा है।
  2. स्वच्छ जल की उपलब्धता में कमी आना – विकासशील देशों की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता और यहाँ इस वजह से 30 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार हो रहे हैं।
  3. जैव-विविधता की हानि होना-वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, लोग विस्थापित हो रहे हैं तथा जैव- विविधता की हानि जारी है।
  4. ओजोन गैस की मात्रा में क्षय होना- धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
  5. समुद्रतटीय क्षेत्रों में प्रदूषण का बढ़ना- पूरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इससे समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ रही है।

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प्रश्न 8.
पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न देश सुलह और सहकार की नीति अपनाएँ पर्यावरण के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच जारी वार्ताओं की रोशनी में इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
1980 के दशक से तेजी से बढ़ते वैश्विक पर्यावरणीय प्रदूषण के गंभीर खतरों को देखते हुए विश्व के अधिकांश देशों ने पृथ्वी को बचाने के लिए परस्पर सुलह और सहकार नीति अपनाने के लिए परस्पर बातचीत की। यद्यपि पृथ्वी को बचाने के लिए उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों ने अपनी वचनबद्धता दिखाई, लेकिन इनके बीच जो वार्ताएँ हुईं उनमें पर्यावरण के सवाल पर निम्न सहमतियाँ तथा असहमतियाँ उभरी हैं-

  1. रियो सम्मेलन में ‘ एजेंडा – 21’ के रूप में टिकाऊ विकास के तरीके पर दोनों में सहमति बनी, लेकिन यह समस्या बनी रही कि इस पर अमल कैसे किया जाएगा।
  2. ‘वैश्विक सम्पदा’ की सुरक्षा के प्रश्न पर सहयोग करने की दृष्टि से अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार 1987 तथा अंटार्कटिका न्यायाचार 1991 हुए, लेकिन इनमें किसी सर्वसम्मत पर्यावरणीय एजेण्डा पर सहमति नहीं बन पायीं।
  3. क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 में दोनों गोलार्द्ध के बीच मतभेद और बढ़ गये । जहाँ विकासशील देशों का कहना है कि विकसित देशों की भूमिका इस सम्बन्ध में अधिक होनी चाहिए क्योंकि प्रदूषण उनके द्वारा अधिक किया जा रहा है, वहीं विकसित देश समान जिम्मेदारी पर बल दे रहे हैं।
  4. इसके बाद हुए सम्मेलनों में भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तुरंत कटौती की आवश्यकता पर तो सहमति बनी, पर यह समयबद्ध नहीं हो पायी।

प्रश्न 9.
विभिन्न देशों के सामने सबसे गंभीर चुनौती वैश्विक पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँचाये बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह कैसे हो सकता है? कुछ उदाहरणों के साथ समझायें।
उत्तर:
वर्तमान परिस्थितियों में विभिन्न देशों के सामने सबसे गंभीर चुनौती पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँच ये बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह निम्न प्रकार से संभव हो सकता है-

  1. विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर में निरन्तर कमी लाने की एक समयबद्ध तथा बाध्यतामूलक न्यायाचार का पालन करें।
  2. विकासशील देशों में आर्थिक विकास जारी रह सके और पर्यावरण प्रदूषण न बढ़े इसके लिए विकसित देशों को स्वच्छ विकास यांत्रिकी परियोजनाओं को चलाने के लिए पूँजी निवेश करना चाहिए तथा विकासशील देशों को इसके लिए ऋण सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए ।
  3. सभी देश ऊर्जा का और अधिक कुशलता के साथ प्रयोग करें तथा ऊर्जा के असमाप्य संसाधनों, जैसे – सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा का विकास करें।
  4. पानी को दूषित करने वाले लोगों व उद्योगों पर जुर्माना लगायें।
  5. उद्योगों से सुरक्षापूर्ण व सफाई युक्त उत्पादन की विधियों को अपनायें।
  6. कूड़े-कचरे के प्रबंध के लिए राष्ट्रीय योजना तैयार करें तथा कूड़े-कचरे की खपत के प्रारूपों को बदलें।
  7. पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकें तथा वृक्षारोपण को एक राष्ट्रीय अभियान बनाएँ।
  8. वर्षा के पानी को संरक्षित करें।

पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन JAC Class 12 Political Science Notes

→ वैश्विक राजनीति में पर्यावरण की चिंता-
(1) विश्व में कृषि योग्य भूमि में उर्वरता की कमी होने, चरागाहों के चारे खत्म होने, मत्स्य-भंडारों के घटने तथा जलाशयों में प्रदूषण बढ़ने से खाद्य उत्पादन में कमी आ रही है।
(2) प्रदूषित पेयजल व स्वच्छता की सुविधा की कमी के कारण विकासशील देशों में 30 लाख से भी अधिक बच्चे प्रतिवर्ष मौत के शिकार हो रहे हैं।
(3) वनों की अंधाधुंध कटाई से जैव-विविधता में कमी आ रही है।
(4) वायुमंडल में ओजोन गैस की परत में छेद होने से पारिस्थितिकीय तंत्र और मानव स्वास्थ्य पर खतरा मंडरा रहा है।
(5) समुद्र तटों पर बढ़ते प्रदूषण से समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ रही है।

→ पर्यावरण के ये मामले निम्न अर्थों में वैश्विक राजनीति के हिस्से हैं-

  • इन मसलों में अधिकांश ऐसे हैं कि किसी एक देश की सरकार इनका पूरा समाधान अकेले दम पर नहीं कर सकती।
  • पर्यावरण को नुकसान कौन पहुँचाता है? इस पर रोक लगाने की जिम्मेदारी किसकी है? ऐसे सवालों के जवाब इस बात से निर्धारित होते हैं कि कौन देश कितना ताकतवर है?
  • संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) सहित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराये, इस विषय के अध्ययन को बढ़ावा दिया ताकि पर्यावरण की समस्याओं पर कारगर प्रयासों की शुरुआत हो।

→ पृथ्वी सम्मेलन (1992 ) – 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो डी जनेरियो में हुआ जिसे पृथ्वी सम्मेलन के नाम से जाना जाता है।

  • इस सम्मेलन में यह बात खुलकर सामने आई कि विश्व के धनी और विकसित देश तथा गरीब और विकासशील देश पर्यावरण के अलग-अलग एजेंडों के पैरोकार हैं।
  • रियो सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियम-आचार निर्धारित हुए।
  • इसमें इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक विकास का तरीका ऐसा होना चाहिए कि इससे पर्यावरण को हानि न पहुँचे। इसमें एजेंडा – 21 के तहत विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाये गये।

→ विश्व की साझी संपदा की सुरक्षा-
विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभु क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इन्हें वैश्विक साझी संपदा या ‘मानवता की साझी विरासत’ कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं। वैश्विक सम्पदा की सुरक्षा की दिशा में यद्यपि कुछ महत्त्वपूर्ण समझौते, जैसे—अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकाल 1987) और अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991), हो चुके हैं; तथापि अनेक बिन्दुओं पर देशों में मतभेद हैं। किसी सर्व – सामान्य पर्यावरणीय एजेंडे पर सहमति नहीं बन पायी है। बाहरी अंतरिक्ष क्षेत्र के प्रबंधन पर भी उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के बीच मौजूद असमानता का असर पड़ा है। धरती के वायुमण्डल और समुद्री सतह के समान यहाँ भी महत्त्वपूर्ण मसला प्रौद्योगिकी और औद्योगिक विकास का है।

पर्यावरण के सम्बन्ध में दक्षिणी और उत्तरी गोलार्द्ध के देशों के
दृष्टिकोणों में अन्तर

→ पर्यावरण को लेकर उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के दृष्टिकोणों में अन्तर निम्न हैं:

  • उत्तर के विकसित देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो, दक्षिण के विकासशील देशों का कहना है कि विकसित देशों ने पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुँचाया है, उन्हें इस नुकसान की भरपाई की ज्यादा जिम्मेदारी उठानी चाहिए।
  • विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, इसलिए उन पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं।

→ साझी तथा अलग-अलग जिम्मेदारियाँ:
1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन में विकासशील देशों के उक्त तर्क को मान लिया गया और इसे ‘साझी तथा अलग-अलग जिम्मेदारियों का सिद्धान्त’ कहा गया। जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के नियमाचार (1992) में भी इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए संधि की गई है तथा 1997 के क्योटो प्रोटोकाल की बाध्यताओं से विकासशील देशों को मुक्त रखा गया है।

→ साझी संपदा:
साझी संपदा के पीछे मूल तर्क यह है कि ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख- रखाव के संदर्भ में समूह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होंगे और समान उत्तरदायित्व निभाने होंगे। लेकिन निजीकरण, गहनतर खेती, जनसंख्या वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी संपदा का आकार घट रहा है, उसकी गुणवत्ता और गरीबों को उसकी उपलब्धता कम हो रही है।

→ पर्यावरण के मसले में भारत का पक्ष:
भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकाल (1997) पर हस्ताक्षर किये और इसका अनुमोदन किया। भारत, चीन और अन्य विकासशील देशों को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी गई है क्योंकि औद्योगीकरण के दौर में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में इनका कुछ खास योगदान नहीं है। लेकिन क्योटो प्रोटोकाल के आलोचकों ने कहा भारत-चीन आदि देशों को जल्दी ही क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं को मानना चाहिये। भारत ने इस सम्बन्ध में अपने पक्ष को निम्न प्रकार रखा है।

  • 2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक में भारत ने बताया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है। इनके उत्सर्जन दर में कमी करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विकसित देशों की है।
  • भारत पर्यावरण से जुड़े अन्तर्राष्ट्रीय मसलों में ज्यादातर ऐतिहासिक उत्तरदायित्व का तर्क रखता है कि ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज्यादातर विकसित देशों की है।
  • तेजी से औद्योगिक होते देश, जैसे चीन व भारत आदि देशों को नियमाचार की बाध्यताओं को पालन करते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना चाहिए। भारत का कहना है कि यह बात इस नियमाचार की मूल भावना के विरुद्ध है। भारत में 2030 तक कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विश्व के औसत के आधे से भी कम होगा।
  • भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये पर्यावरण से संबंधित वैश्विक प्रयासों में शिरकत कर रही है।
  • विकासशील देशों को रियायती शर्तों पर नये और अतिरिक्त वित्तीय संसाधन तथा प्रौद्योगिकी मुहैया कराने की दिशा में कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है।
  • भारत चाहता है कि दक्षेस के देश पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों पर समान राय बनाएँ।

→ पर्यावरण आंदोलन:
पर्यावरण की चुनौतियों के मद्देनजर कुछ महत्त्वपूर्ण पहल पर्यावरण के प्रति सचेत कार्यकर्ताओं ने की है। इन | कार्यकर्ताओं में कुछ तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी स्थानीय स्तर पर सक्रिय हैं।

  • वनों की कटाई के विरुद्ध आंदोलन – दक्षिणी देशों के वन – आंदोलनों पर बहुत दबाव है । इसके बावजूद तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में वनों की कटाई खतरनाक गति से जारी है।
  • खनिज उद्योग के विरुद्ध आन्दोलन – खनिज उद्योग रसायनों का भरपूर उपयोग करता है, भूमि और जल मार्गों को प्रदूषित करता है तथा स्थानीय वनस्पतियों का विनाशं करता है। इसके कारण जन समुदायों को विस्थापित होना पड़ता है। विश्व के विभिन्न भागों में खनिज उद्योग के प्रति आंदोलन चले हैं। इसका एक उदाहरण फिलीपीन्स में आस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्रीय कम्पनी ‘वेस्टर्न माइनिंग कॉरपोरेशन’ के खिलाफ चला आंदोलन है।
  • बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन – कुछ आंदोलन बड़े बांधों के खिलाफ चल रहे हैं जिन्होंने नदियों को बचाने के आंदोलन का रूप ले लिया है। भारत में नर्मदा आंदोलन सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है।

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→ संसाधनों की भू-राजनीति:
यूरोपीय ताकतों के विश्वव्यापी प्रसार का एक मुख्य साधन और मकसद संसाधन रहे हैं। संसाधनों को लेकर राज्यों के बीच तनातनी हुई है। संसाधनों से जुड़ी भू-राजनीति को पश्चिमी दुनिया ने ज्यादातर व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा शक्ति के संदर्भ में सोचा। इस सोच के मूल में था संसाधनों की मौजूदगी तथा समुद्री नौवहन में दक्षता।
→ इमारती लकड़ी का महत्त्व और भू-राजनीति: समुद्री नौवहन के लिए आवश्यक इमारती लकड़ियों की आपूर्ति 17वीं सदी के बाद में यूरोपीय शक्तियों की प्राथमिकताओं में रही।

→ तेल की विश्व राजनीति: शीत युद्ध के दौरान विकसित देशों ने तेल और इमारती लकड़ी, खनिज आदि संसाधनों की सतत आपूर्ति के लिए कई तरह के कदम उठाये, जैसे–संसाधन दोहन के इलाकों तथा समुद्री परिवहन मार्गों के इर्द-गिर्द सेना की तैनाती, महत्त्वपूर्ण संसाधनों का भंडारण, संसाधनों के उत्पादक देशों में मनपसंद सरकारों की बहाली तथा बहुराष्ट्रीय निगमों और अपने हित साधक अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को समर्थन देना आदि। इसके पीछे सोच यह थी कि संसाधनों तक पहुँच अबाध रूप से रहे क्योंकि सोवियत संघ इसे खतरे में डाल सकता था। दूसरी चिंता यह थी कि खाड़ी के देशों में मौजूद तेल तथा एशिया के देशों में मौजूद खनिज पर विकसित देशों का नियंत्रण बना रहे।

वैश्विक रणनीति में तेल प्रमुख संसाधन बना हुआ है। 20वीं सदी में विश्व की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर रही है। तेल के साथ विपुल संपदा जुड़ी हुई है। इसीलिए इस पर कब्जा जमाने के लिए राजनीतिक संघर्ष छिड़ता है। पश्चिम एशिया, विशेषकर खाड़ी क्षेत्र, विश्व के कुल तेल – उत्पादन का 30 प्रतिशत मुहैया कराता है। सऊदी अरब के पास विश्व के कुल तेल भंडार का एक चौथाई हिस्सा मौजूद है। सऊदी अरब विश्व में सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। इराकका स्थान दूसरा है।

→ स्वच्छ जल के लिए संघर्ष: विश्व – राजनीति के लिए पानी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। विश्व के कुछ भागों में साफ पानी की कमी हो रही है तथा विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इसलिए 21वीं सदी में इस जीवनदायनी संसाधन को लेकर हिंसक संघर्ष होने की संभावना है। देशों के बीच स्वच्छ जल- संसाधनों को हथियाने या उनकी सुरक्षा करने के लिए झड़पें हुई हैं। बहुत से देशों के बीच नदियों का साझा है और उनके बीच सैन्य संघर्ष होते रहते हैं। तुर्की, सीरिया और इराक के बीच फरात नदी पर बांध के निर्माण को लेकर एक- दूसरे से ठनी हुई है।

→ मूलवासी और उनके अधिकार:
मूलवासी ऐसे लोगों के वंशज हैं जो किसी मौजूदा देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे हैं। लेकिन किसी दूसरी संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आए और इन लोगों को अधीन बना लिया। ये मूलवासी आज भी अपनी परम्परा, सांस्कृतिक रिवाज और अपने खास सामाजिक-आर्थिक ढर्रे पर जीवन-यापन करना ही पसंद करते हैं। भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में लगभग 30 करोड़ मूलवासी विद्यमान हैं। दूसरे सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, एजेंडा और अधिकारों की आवाज उठाते हैं यथा

  • विश्व राजनीति में इनकी आवाज विश्व: बिरादरी में बराबरी का दर्जा पाने के लिए उठी है। इन्हें आदिवासी कहा जाता है। सरकारों से इनकी मांग है कि इन्हें मूलवासी कौम के रूप में स्वतंत्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए। ये अपने मूल वास स्थान पर अपने अधिकार की दावेदारी प्रस्तुत करते हैं।
  • भारत में इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में जाना जाता है। ये कुल जनसंख्या का 8% हैं। ये अपने जीवन-यापन के लिए खेती पर निर्भर हैं। आजादी के बाद चली विकास की परियोजनाओं में इन लोगों को बड़ी संख्या में विस्थापित होना पड़ा है।
  • 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ में ‘मूल वासी लोगों की विश्व परिषद्’ का गठन हुआ। इसके अतिरिक्त आदिवासियों के सरकारों से संबद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संगठनों को भी यह दर्जा दिया गया है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 7 समकालीन विश्व में सरक्षा

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 7 समकालीन विश्व में सरक्षा Textbook Exercise Questions and Answers

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Jharkhand Board Class 12 Political Science समकालीन विश्व में सरक्षा InText Questions and Answers

पृष्ठ 100

प्रश्न 1.
मेरी सुरक्षा के बारे में किसने फैसला लिया? कुछ नेताओं और विशेषज्ञों ने? क्या मैं अपनी सुरक्षा का फैसला नहीं कर सकती?
उत्तर:
यद्यपि व्यक्ति स्वयं अपनी सुरक्षा का फैसला कर सकता है, लेकिन यदि यह फैसला नेताओं और विशेषज्ञों द्वारा किया गया है तो हम उनके अनुभव और अनुसंधान का लाभ उठाते हुए उचित निर्णय ले सकते हैं।

प्रश्न 2.
आपने ‘शांति सेना’ के बारे में सुना होगा। क्या आपको लगता है कि ‘शांति सेना’ का होना स्वयं में एक विरोधाभासी बात है? (पृष्ठ 100 पर दिये कार्टून के आधार पर इस कथन पर टिप्पणी करें।)
उत्तर:
भारत द्वारा श्रीलंका में भेजी गई शांति सेना के बारे में हमने समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में पढ़ा है। इस कार्टून के द्वारा यह दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि जो सैनिक शक्ति का प्रतीक है, जिसकी कमर पर बन्दूक और युद्ध सामग्री है, वह कबूतर पर सवार है कबूतर को शांतिदूत माना जाता है लेकिन शक्ति के बल पर शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती और यदि इसे शक्ति के बल पर स्थापित कर भी दिया गया तो वह शांति अस्थायी होगी तथा कुछ समय गुजरने के बाद वह एक नवीन संघर्ष, तनाव तथा हिंसात्मक घटनाओं को जन्म देगी।

पृष्ठ 102

प्रश्न 3.
पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ संख्या 102 पर दिये गये कार्टून का अध्ययन कीजिये इसके नीचे दिये गये दोनों प्रश्नों के उत्तर दीजिये।
(क) जब कोई नया देश परमाणु शक्ति सम्पन्न होने की दावेदारी करता है तो बड़ी ताकतें क्या रवैया अख्तियार करती हैं?
(ख) हमारे पास यह कहने के क्या आधार हैं कि परमाणविक हथियारों से लैस कुछ देशों पर तो विश्वास किया जा सकता है, परन्तु कुछ पर नहीं?
उत्तर:
(क) जब कोई नया देश परमाणु शक्ति सम्पन्न होने की दावेदारी करता है तो बड़ी ताकतें उसके प्रति शत्रुता एवं दोषारोपण का रवैया अख्तियार करती हैं। यथा- प्रथमतः वे यह कहती हैं कि इससे विश्व शान्ति एवं सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ गया है। दूसरे, वे यह आरोप लगाती हैं कि एक नये देश के पास परमाणु शक्ति होगी तो उसके पड़ोसी भी अपनी सुरक्षा की चिन्ता की आड़ में परमाणु परीक्षण करने लगेंगे। इससे विनाशकारी शस्त्रों की बेलगाम दौड़ शुरू हो जायेगी।

तीसरे, ये बड़ी शक्तियाँ उसकी आर्थिक नाकेबंदी, व्यापारिक संबंध तोड़ने, निवेश बंद करने, परमाणु निर्माण में काम आने वाले कच्चे माल की आपूर्ति रोकने आदि के लिए कदम उठा देती हैं। चौथे, ये शक्तियाँ उस पर परमाणु विस्तार विरोधी संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डालती हैं। पांचवें, ये बड़ी शक्तियाँ उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सत्ता को पलटने का प्रयास करती हैं।

(ख) हमारे पास यह कहने के कई आधार हैं कि परमाण्विक हथियारों से लैस कुछ देशों पर तो विश्वास किया जा सकता हैं, परन्तु कुछ पर नहीं। यथा-

  1. जो देश परमाणु शक्ति सम्पन्न बिरादरी के पुराने सदस्य हैं, वे कहते हैं कि यदि बड़ी शक्तियों के पास परमाणु हथियार हैं तो उनमें ‘अपरोध’ का पारस्परिक भय होगा जिसके कारण वे इन हथियारों का प्रथम प्रयोग नहीं करेंगे।
  2. परमाणु बिरादरी के देश परमाणुशील होने की दावेदारी करने वाले देशों पर यह दोष लगाते हैं कि वे आतंकवादियों की गतिविधियाँ रोक नहीं सकते। यदि कोई गलत व्यक्ति या सेनाध्यक्ष राष्ट्राध्यक्ष बन गया तो उसके काल में परमाणु हथियार किसी गलत व्यक्ति के हाथों में जा सकते हैं जो अपने पागलपन से पूरी मानव जाति को खतरे में डाल सकता है।

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पृष्ठ 106

प्रश्न 4.
पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ संख्या 106 पर दिये गये कार्टून का अध्ययन करें। इसके नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर लिखें।
(क) अमरीका में सुरक्षा पर तो भारी-भरकम खर्च होता है जबकि शांति से जुड़े मामलों पर बहुत ही कम खर्च किया जाता है। यह कार्टून इस स्थिति पर क्या टिप्पणी करता है?
(ख) क्या हमारे देश में हालात इससे कुछ अलग हैं?
उत्तर;
(क) अमरीका विश्व का सर्वाधिक धनी देश है। वह अपनी आर्थिक शक्ति का प्रयोग सुरक्षा पैदल सेना, नौ-सेना, वायु-सेना, अस्त्र-शस्त्र, युद्ध – सामग्री, परमाणु शक्ति विस्तार, युद्ध सम्बन्धी प्रयोगशालाओं में प्रयोग व अनुसंधान पर तो भारी मात्रा में खर्च करता है, लेकिन शांति विभाग पर धन व्यय करने को धन की बर्बादी मानता है। अमेरिकी सन्दर्भ में यह उचित ही प्रतीत होता है क्योंकि वहाँ नागरिक समस्यायें कम हैं और देश की जनता आत्मनिर्भर है।

(ख) हमारे देश (भारत) में अमेरिका की तुलना में स्थिति भिन्न है। भारत एक विकासशील देश है। यहाँ गरीबी बहुत है, बेरोजगारी बढ़ रही है। इसलिए अमरीका की तुलना में भारत में सुरक्षा पर बहुत कम प्रतिशत व्यय होता है । यहाँ की सरकार आदिवासियों, पिछड़ी जातियों, वृद्धों, महिलाओं, वंचितों, किसानों, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगिक विकास आदि के लिए अपेक्षाकृत अधिक प्रयत्नशील है। इसके बावजूद भारत को बहुत-सी धनराशि सुरक्षा पर भी खर्च करनी पड़ रही है।

पृष्ठ 108

प्रश्न 5.
मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात हो तो हम हमेशा बाहर क्यों देखते हैं? क्या हमारे अपने देश में इसके उदाहरण नहीं मिलते?
उत्तर:
1990 के दशक में रवांडा में जनसंहार, कुवैत पर इराक का हमला, पूर्वी तिमोर में इंडोनेशियाई सेना के रक्तपात इत्यादि घटनाओं पर तो हमने मानवाधिकारों के उल्लंघन की दुहाई दे डाली, लेकिन अपने देश में घटित हुए मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों पर हमने चुप्पी साध ली। इसका प्रमुख कारण मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह दूसरों की बुराई को तलाशने में आनंद की अनुभूति करती है, जबकि अपनी गलत बात को छुपाती है या वह इसे दूसरों के समक्ष सही बताने की कोशिश करती है। हमारे देश में भी मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले देखे जा सकते हैं जो समय-समय पर समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं।

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प्रश्न 1.
निम्नलिखित पदों को उनके अर्थ से मिलाएँ-

(1) विश्वास बहाली के उपाय (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स CBMs) (क) कुछ खास हथियारों के इस्तेमाल से परहेज।
(2) अस्त्र नियंत्रण (ख) राष्ट्रों के बीच सुरक्षा – मामलों पर सूचनाओं के आदान-प्रदान की नियमित प्रक्रिया।
(3) गठबंधन (ग) सैन्य हमले की स्थिति से निबटने अथवा उसके अपरोध के लिये कुछ राष्ट्रों का आपस में मेल करना।
(4) निरस्त्रीकरण (घ) हथियारों के निर्माण अथवा उनको हासिल करने पर अंकुश।

उत्तर:

(1) विश्वास बहाली के उपाय (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स CBMs) (ख) राष्ट्रों के बीच सुरक्षा – मामलों पर सूचनाओं के आदान-प्रदान की नियमित प्रक्रिया।
(2) अस्त्र नियंत्रण (घ) हथियारों के निर्माण अथवा उनको हासिल करने पर अंकुश।
(3) गठबंधन (ग) सैन्य हमले की स्थिति से निबटने अथवा उसके अपरोध के लिये कुछ राष्ट्रों का आपस में मेल करना।
(4) निरस्त्रीकरण (क) कुछ खास हथियारों के इस्तेमाल से परहेज।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किसको आप सुरक्षा का परंपरागत सरोकार / सुरक्षा का अपारंपरिक सरोकार / खतरे की स्थिति नहीं का दर्जा देंगे-
(क) चिकेनगुनिया / डेंगू बुखार का प्रसार
(ख) पड़ोसी देश से कामगारों की आमद
(ग) पड़ोसी राज्य से कामगारों की आमद
(घ) अपने इलाके को राष्ट्र बनाने की माँग करने वाले समूह का उदय
(ङ) अपने इलाके को अधिक स्वायत्तता दिये जाने की माँग करने वाले समूह का उदय (च) देश की सशस्त्र सेना को आलोचनात्मक नजर से देखने वाला अखबार।
उत्तर:
(क) सुरक्षा का अपारम्परिक सरोकार
(ख) सुरक्षा का पारम्परिक सरोकार
(ग) खतरे की स्थिति नहीं
(घ) सुरक्षा का पारम्परिक सरोकार
(ङ) ख़तरे की स्थिति नहीं
(च) खतरे की स्थिति नहीं।

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प्रश्न 3.
परम्परागत और अपारंपरिक सुरक्षा में क्या अंतर है? गठबंधनों का निर्माण करना और उनको बनाये रखना इनमें से किस कोटि में आता है?
उत्तर:
परम्परागत और अपारम्परिक सुरक्षा में निम्नलिखित अन्तर हैं

पारंपरिक सुरक्षा की धारणा अपारंपरिक सुरक्षा की धारणा
1. पारंपरिक धारणा का संबंध बाहरी तथा आंतरिक रूप से मुख्यतः राष्ट्र की सुरक्षा से है। 1. सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा में राष्ट्र की सुरक्षा के साथ-साथ मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले अन्य व्यापक खतरों और आशंकाओं को भी शामिल किया जाता है।
2. सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में सैन्य खतरे को किसी देश के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक समझा जाता है। इसमें भू-क्षेत्रों, संस्थाओं और राज्यों की सुरक्षा प्रमुख होती है। 2. सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा में सैन्य खतरों के साथसाथ मानवता की सुरक्षा तथा वैश्विक सुरक्षा पर भी बल दिया जाता है।
3. इसमें बाहरी सुरक्षा के खतरे का स्रोत कोई दूसरा देश (मुल्क) होता है। 3. इसमें सुरक्षा के खतरे का स्रोत विदेशी राष्ट्र के साथसाथ कोई अन्य भी हो सकता है।
4. परम्परागत सुरक्षा में एक देश की सेना व नागरिकों को दूसरे देश की सेना से खतरा होता है। 4. अपारम्परिक सुरक्षा में देश के नागरिकों को विदेशी सेना के साथ-साथ अपने देश की सरकारों से भी बचाना आवश्यक होता है।
5. पारम्परिक सुरक्षा का सरोकार बाहरी खतरे या आक्रमण से निपटने के लिए युद्ध की स्थिति में आत्मसमर्पण, अपरोध या आक्रमणकारी को युद्ध में हराने के विकल्पों को अपनाने से है। 5. अपारंपरिक सुरक्षा का सरोकार सुरक्षा के कई नये स्रोत हैं, जैसे—आतंकवाद, भयंकर महामारियों और मानव अधिकारों पर चिंताजनक प्रहारों से जनता की क्षा करना।

गठबंधन का निर्माण और सुरक्षा कोटि- सैनिक गठबन्धनों का निर्माण करना तथा उन्हें बनाए रखना पारम्परिक सुरक्षा की कोटि में आता है। यह सैन्य सुरक्षा का एक साधन है।

प्रश्न 4.
तीसरी दुनिया के देशों और विकसित देशों की जनता के सामने मौजूद खतरों में क्या अंतर है?
उत्तर:
तीसरी दुनिया के देशों और विकसित देशों की जनता के सामने मौजूद खतरों में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित

  1. जहाँ विकसित देशों के लोगों को केवल बाहरी खतरे की आशंका रहती है, किंतु तीसरी दुनिया के देशों को आंतरिक व बाहरी दोनों प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ता है।
  2. तीसरी दुनिया के लोगों को पर्यावरण असंतुलन के कारण विकसित देशों की जनता के मुकाबले अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  3. आतंकवाद की घटनाएँ तीसरी दुनिया के देशों में अपेक्षाकृत अधिक हुई हैं।
  4. तीसरी दुनिया के देशों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में मानवीय सुरक्षा को अधिक खतरा
  5. तीसरी दुनिया के देशों के लोगों को निर्धनता और कुपोषण का शिकार होना पड़ रहा है जबकि विकसित देशों के लोगों के समक्ष ये समस्याएँ नगण्य हैं।
  6. शरणार्थियों या आप्रवासियों की समस्या की चुनौती भी तीसरी दुनिया के देशों में अधिक है।
  7. एच. आई. वी., एड्स, बर्ड फ्लू और सार्स जैसी महामारियों की दृष्टि से भी तीसरी दुनिया के लोगों की स्थिति विकसित देशों के लोगों की तुलना में अत्यन्त दयनीय है।
  8. प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से भी तीसरी दुनिया के लोगों की जनहानि विकसित देशों के लोगों की तुलना में बहुत अधिक हो रही है।

प्रश्न 5.
आतंकवाद सुरक्षा के लिये परम्परागत खतरे की श्रेणी में आता है या अपरम्परागत?
उत्तर:
आतंकवाद, सुरक्षा के लिए अपरम्परागत खतरे की श्रेणी में आता है। चूँकि यह नई छिपी हुई चुनौती है। इसका सामना परम्परागत सैन्य तरीके से नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि वर्तमान में आतंकवादी घटनाओं से निपटने के लिए विश्व के राष्ट्र वैश्विक स्तर पर आपसी सहयोग का प्रयास कर रहे हैं।

प्रश्न 6.
सुरक्षा के परम्परागत दृष्टिकोण के हिसाब से बताएँ कि अगर किसी राष्ट्र पर खतरा मंडरा रहा हो तो उसके सामने क्या विकल्प होते हैं?
उत्तर:
सुरक्षा के परम्परागत दृष्टिकोण के हिसाब से किसी राष्ट्र पर खतरा मंडरा रहा हो तो उसके सामने तीन विकल्प होते हैं- आये।

  1. आत्मसमर्पण करना तथा दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किये मान लेना।
  2. युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहम कर हमला करने से बाज
  3.  युद्ध ठन जाये तो अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके और पीछे हट जाये अथवा हमलावर को पराजित कर देना।

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प्रश्न 7.
‘शक्ति संतुलन’ क्या है? कोई देश इसे कैसे कायम करता है?
उत्तर:
शक्ति संतुलन का अर्थ:
शक्ति संतुलन का अर्थ है कि किसी भी देश को इतना सबल नहीं बनने दिया जाये कि वह दूसरों की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाये शक्ति संतुलन के अन्तर्गत विभिन्न राष्ट्र अपने आपसी शक्ति सम्बन्धों को बिना किसी बड़ी शक्ति के हस्तक्षेप के स्वतन्त्रतापूर्वक संचालित करते हैं।

शक्ति संतुलन को बनाये रखने वाले साधन: शक्ति संतुलन को बनाये रखने वाले साधन निम्नलिखित हैं-

  1. मुआवजा या क्षतिपूर्ति: साधारणतया इसका अर्थ उस देश की भूमि को बाँटने से लिया जाता है जो शक्ति संतुलन के लिये खतरा होती है।
  2. हस्तक्षेप तथा अहस्तक्षेप: हस्तक्षेप राज्य या राज्यों के आंतरिक मामलों में तानाशाही दखलंदाजी होती है तथा उसमें अहस्तक्षेप, किसी विशिष्ट परिस्थिति में जानबूझकर कार्यवाही न करना ये दोनों शक्ति संतुलन को बनाये रखने के साधन हैं।
  3. गठबंधन बनाना: शक्ति संतुलन का एक अन्य तरीका सैन्य गठबंधन बनाना है। कोई देश दूसरे देश या देशों के साथ सैन्य गठबंधन कर अपनी शक्ति को बढ़ा लेते हैं। इससे क्षेत्र विशेष में शक्ति सन्तुलन बना रहता है।
  4. शस्त्रीकरण तथा निःशस्त्रीकरण – आज सभी राष्ट्र अपने शक्ति सम्बन्धों को बनाये रखने के लिये साधन के रूप में सैनिक शस्त्रीकरण को बड़ा महत्त्व देते हैं। वर्तमान में यह विश्व शांति तथा सुरक्षा अर्थात् संतुलन के लिये सबसे बड़ा और गम्भीर खतरा बन चुका है। इसके परिणामस्वरूप आज शस्त्रीकरण को छोड़कर निःशस्त्रीकरण पर बल दिया जाने लगा है।

प्रश्न 8.
सैन्य गठबन्धन के क्या उद्देश्य होते हैं? किसी ऐसे सैन्य गठबन्धन का नाम बताएँ जो अभी मौजूद है। इस गठबन्धन के उद्देश्य भी बताएँ।
उत्तर:
सैन्य गठबन्धन का उद्देश्य – सैन्य गठबंधन का उद्देश्य विरोधी देश के सैन्य हमले को रोकना अथवा उससे अपनी रक्षा करना होता है। सैन्य गठबन्धन में कई देश शामिल होते हैं। सैन्य गठबंधन बनाकर एक विशेष क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। सामान्यतः सैन्य गठबन्धन संधि पर आधारित होते हैं जिसमें इस बात का लिखित में उल्लेख होता है कि एक राष्ट्र पर आक्रमण अन्य सदस्य राष्ट्रों पर भी आक्रमण समझा जायेगा।

विद्यमान सैन्य गठबंधन – नाटो – वर्तमान समय में ‘नाटो’ (North Atlantic Treaty Organization) अर्थात् उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) नाम का सैन्य गठबंधन कायम है। नाटो के मुख्य उद्देश्य निम्न हैं।

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में सभी अमेरिकी और पश्चिमी यूरोपीय देशों की सामूहिक सैन्य सुरक्षा को बनाये रखना।
  2. नाटो के एक सदस्य पर आक्रमण सभी पर आक्रमण समझा जाएगा और सभी मिलकर सैन्य प्रतिरोध करेंगे।
  3. पश्चिमी देशों के सैन्य वैचारिक, सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व को बनाये रखना।
  4. सदस्यों में आर्थिक सहयोग को बढ़ाना तथा उसके विवादों का शांतिपूर्ण समाधान करना।

प्रश्न 9.
पर्यावरण के तेजी से हो रहे नुकसान से देशों की सुरक्षा को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण देते हुए अपने तर्कों की पुष्टि करें।
उत्तर:
विश्व स्तर पर पर्यावरण तेजी से खराब हो रहा है। पर्यावरण खराब होने से निस्संदेह मानव जाति को खतरा उत्पन्न हो गया है। वैश्विक पर्यावरण के नुकसान से देशों की सुरक्षा को निम्न खतरे पैदा हो रहे हैं।

  1. ग्लोबल वार्मिंग से हिमखण्ड पिघलने लगे हैं, जिसके कारण मालद्वीप तथा बांग्लादेश जैसे देश तथा भारत के मुम्बई जैसे शहरों के पानी में डूबने की आशंका पैदा हो गई है।
  2. पर्यावरण खराब होने से तथा धरती के ऊपर वायुमण्डल में ओजोन गैस की कमी होने से वातावरण में कई तरह की बीमारियाँ फैल गई हैं, जिसके कारण व्यक्तियों के स्वास्थ्य में गिरावट आ रही है।
  3. कृषि योग्य भूमि, जलस्रोत तथा वायुमण्डल के प्रदूषण से खाद्य उत्पादन में तथा यह मानव स्वास्थ्य के लिए घातक है। विकासशील देशों में स्वच्छ जल की उपलब्धता में कमी आई है। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण के तेजी से हो रहे नुकसान से देशों की सुरक्षा को गंभीर खतरा पैदा हो गया है।

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प्रश्न 10.
देशों के सामने फिलहाल जो खतरे मौजूद हैं उनमें परमाण्विक हथियार का सुरक्षा अथवा अपरोध के लिये बड़ा सीमित उपयोग रह गया है। इस कथन का विस्तार करें।
उत्तर:
विश्व में जिन देशों ने परमाणु हथियार प्राप्त कर रखे हैं, उनका यह तर्क है कि उन्होंने शत्रु देश के आक्रमण से बचने तथा शक्ति संतुलन कायम रखने के लिये इनका निर्माण किया है, परन्तु वर्तमान समय में इन हथियारों के होते हुये भी एक देश की सुरक्षा की पूर्ण गारंटी नहीं दी जा सकती। उदाहरण के लिये आतंकवाद तथा पर्यावरण के खराब होने से वातावरण में जो बीमारियाँ फैल रही हैं, उन पर परमाणु हथियारों के उपयोग का कोई औचित्य नहीं है। इसीलिये यह कहा जाता है कि वर्तमान समय में जो ख़तरे उत्पन्न हुये हैं, उनमें परमाण्विक हथियार का सुरक्षा अथवा अपरोध के लिये बड़ा सीमित उपयोग रह गया है।

प्रश्न 11.
भारतीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुये किस किस्म की सुरक्षा को वरीयता दी जानी चाहिये- पारंपरिक या अपारंपरिक ? अपने तर्क की पुष्टि में आप कौन-से उदाहरण देंगे?
उत्तर:
भारतीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुये भारत को पारम्परिक एवं अपारम्परिक दोनों प्रकार की सुरक्षा को वरीयता देनी चाहिये। क्योंकि भारत सैनिक दृष्टि से भी सुरक्षित नहीं है एवं अपारम्परिक ढंग से भी सुरक्षित नहीं है। भारत के दो पड़ौसी देशों पाकिस्तान और चीन के पास परमाणु हथियार हैं तथा उन्होंने भारत पर आक्रमण भी किया है। चीन की सैन्य क्षमता भारत से अधिक है। इसके साथ ही भारत के कई क्षेत्रों, जैसे- कश्मीर, नागालैंड, असम आदि में अलगाववादी हिंसक गुट तथा कुछ क्षेत्रों में नक्सलवादी समूह सक्रिय हैं।

अतः भारत को पारम्परिक सुरक्षा को वरीयता देना आवश्यक है। इसके साथ-साथ अपारम्परिक सुरक्षा की दृष्टि से भारत में कई समस्याएँ हैं, जिसके कारण भारत को अपारम्परिक सुरक्षा को भी वरीयता देनी चाहिये । उदाहरण के लिए भारत में आतंकवाद का निरन्तर विस्तार हो रहा है; एड्स जैसी महामारी बढ़ रही है; मानवाधिकारों का उल्लंधन हो रहा है; धार्मिक और जातीय संघर्ष की स्थिति बनी रहती है तथा निर्धनता जनित समस्याएँ बढ़ रही हैं। इसलिए भारत को पारम्परिक और अपारम्परिक दोनों ही सुरक्षा साधनों पर ध्यान देना चाहिए।

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प्रश्न 12.
पाठ्यपुस्तक में पृष्ठ संख्या 116 में दिए गए कार्टून को समझें। कार्टून में युद्ध और आतंकवाद का जो संबंध दिखाया गया है उसके पक्ष या विपक्ष में एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
इस कार्टून में यह बताया गया है कि आजकल युद्ध और आतंकवाद में गहरा सम्बन्ध है। पिछले कुछ वर्षों में जो युद्ध लड़े गये हैं, उनका प्रमुख कारण आतंकवाद ही था। उदाहरण के लिए 2001 में आतंकवाद के कारण ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में युद्ध लड़ा। दिसम्बर, 2001 में आतंकवाद के कारण ही भारत और पाकिस्तान में युद्ध की स्थिति बन गयी थी। युद्ध और आतंकवाद के गहरे सम्बन्ध को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है। युद्ध की जड़ में एक अहम कारण आतंकवाद है जो मानव सुरक्षा के लिए एक नया सरोकार बनाए हुए है। युद्ध के पक्षधर देश यह मानते हैं कि आतंकवाद को कुचलने के लिए सभी राष्ट्र एक हो जाएँ और वे तब तक युद्ध का मोर्चा खोले रहें जब तक आतंकवाद समाप्त नहीं हो जाता।

समकालीन विश्व में सरक्षा JAC Class 12 Political Science Notes

→ सुरक्षा क्या है?
सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है खतरे से आजादी। सुरक्षा का सम्बन्ध बड़े गंभीर खतरों से है; ऐसे खतरे जिनको रोकने के उपाय न किये गये तो हमारे केन्द्रीय मूल्यों को अपूरणीय क्षति पहुँचेगी। फिर भी विभिन्न कालों तथा समाजों में सुरक्षा की धारणाओं में अन्तर रहा है। अतः सुरक्षा एक विवादग्रस्त धारणा है। सुरक्षा की विभिन्न धारणाओं को मोटे रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। ये वर्ग हैं।
(अ) सुरक्षा की पारंपरिक धारणा और
(ब) सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा। यथा

(अ) सुरक्षा की पारंपरिक धारणा – इसके दो रूप हैं।
(क) बाह्य सुरक्षा
(ख) आंतरिक सुरक्षा। यथा

(क) बाहरी सुरक्षा: बाहरी सुरक्षा की पारंपरिक धारणा से आशय राष्ट्रीय सुरक्षा की धारणा से है। इसमें सैन्य खतरे को किसी देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक माना जाता है। इस खतरे का स्रोत कोई दूसरा देश होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता जैसे किसी देश के केन्द्रीय मूल्यों के लिए खतरा पैदा करता है। सैन्य कार्यवाही से जन-धन की भी अपार हानि होती है। बाह्य सुरक्षा की पारंपरिक नीतियाँ निम्नलिखित हैं।

→  आत्मसमर्पण: आत्मसमर्पण करना तथा दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना।

→  अपरोध तथा सुरक्षा नीति: सुरक्षा नीति का सम्बन्ध समर्पण करने से ही नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध युद्ध की आशंका को रोकने से भी है, जिसे ‘अपरोध’ कहते हैं। युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहम कर हमला करने से रुक जाये।

→  रक्षा: युद्ध ठन जाये तो अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके या पीछे हट जाए अथवा हमलावर को पराजित कर देना। इस प्रकार युद्ध को सीमित रखने अथवा उसको समाप्त करने का सम्बन्ध अपनी रक्षा करने से है।

→  शक्ति सन्तुलन: परम्परागत सुरक्षा नीति का एक अन्य रूप शक्ति सन्तुलन है। प्रत्येक देश की सरकार दूसरे देश से अपने शक्ति – सन्तुलन को लेकर बहुत संवेदनशील रहती है। प्रत्येक देश दूसरे देशों से शक्ति सन्तुलन का पलड़ा अपने पक्ष में बैठाने के लिए जी-तोड़ कोशिश करता है। शक्ति सन्तुलन बनाये रखने की यह कवायद ज्यादातर अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने की होती है, लेकिन आर्थिक और प्रौद्योगिकी की ताकत भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सैन्य शक्ति का यही आधार है।

→  गठबंधन बनाना: पारंपरिक सुरक्षा नीति का चौथा तत्त्व है। गठबंधन बनाना गठबंधन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं। अधिकांश गठबंधनों को लिखित संधि से एक औपचारिक रूप मिलता है। गठबंधन राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं और राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबंधन भी बदल जाते हैं। बाह्य – सुरक्षा की परम्परागत धारणा में किसी देश की सुरक्षा को ज्यादातर खतरा उसकी सीमा के बाहर से होता है। विश्व राजनीति में हर देश को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं उठानी होती है।

(ख) आन्तरिक सुरक्षा:
सुरक्षा की परम्परागत धारणा का दूसरा रूप आन्तरिक सुरक्षा का है। दूसरे विश्व युद्ध के से सुरक्षा के इस पहलू पर ज्यादा जोर नहीं दिया गया था क्योंकि दुनिया के अधिकांश ताकतवर देश अपनी अंदरूनी सुरक्षा के प्रति कमोबेश आश्वस्त थे। शीत युद्ध के दौर में दोनों गुटों के आमने-सामने होने से इन राष्ट्रों में बाह्य सुरक्षा का ही भय था या अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता देने की समस्या थी। लेकिन 1940-50 के दशकों में एशिया और अफ्रीका के नये स्वतंत्र हुए देशों के समक्ष दोनों प्रकार की सुरक्षा की चुनौतियाँ थीं

  • एक तो इन्हें अपने पड़ौसी देशों से सैन्य हमले की आशंका थी।
  • दूसरे, इन्हें आंतरिक सैन्य संघर्ष की भी चिन्ता करनी थी।

इसलिए इन देशों को सीमा पार के पड़ौसी देशों से खतरा था, तो भीतर से भी खतरे की आशंका थी। इन दोनों में मुख्य समस्या अलगाववादी आंदोलनों की थी, जो गृह-युद्धों का रूप ले रहे थे। इस प्रकार पड़ौसी देशों से युद्ध और आंतरिक संघर्ष नव स्वतंत्र देशों के सामने सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती थे।

→  सुरक्षा के पारंपरिक तरीके-
सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का प्रयोग यथासंभव सीमित होना चाहिए अर्थात् युद्ध स्वयं अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए तथा युद्ध के साधनों का भी सीमित प्रयोग करना चाहिए संघर्ष विमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति तथा आत्मसमर्पण करने वाले शत्रु पर बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही बल प्रयोग तभी किया जायें जब शेष सभी उपाय विफल हो गये हों। सुरक्षा के पारंपरिक तरीके इस संभावना पर आधारित हैं कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हैं।

→  सुरक्षा के ये तरीके निम्नलिखित हैं।

  • निरस्त्रीकरण: इसका आशय यह है कि सभी राज्य कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आएँ। 1972 की जैविक हथियार संधि, 1992 की रासायनिक हथियार संधि इसी का उदाहरण हैं। लेकिन महाशक्तियाँ परमाणविक हथियार का विकल्प नहीं छोड़ना चाहती थीं इसलिए दोनों ने अस्त्र – नियंत्रण का सहारा लिया।
  • अस्त्र नियंत्रण: इसके अन्तर्गत हथियारों को विकसित करने अथवा उनको हासिल करने के सम्बन्ध में कुछ कायदे-कानूनों का पालन करना पड़ता है। अमरीका और सोवियत संघ ने अस्त्र – नियंत्रण की कई संधियों पर हस्ताक्षर किये हैं। इनमें
    • एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) 1972,
    • साल्ट-2 (SALT-II),
    • स्टार्ट (START) प्रमुख हैं। परमाणु अप्रसार संधि (NPT) 1968 भी एक अर्थ में अस्त्र – नियंत्रण संधि ही है।
  • विश्वास बहाली के उपाय; विश्वास बहाली की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि प्रतिद्वन्द्वी देश किसी गलतफहमी या गफलत में पड़कर जंग के लिए आमादा न हो जाएँ। इस हेतु सैन्य टकराव और प्रतिद्वन्द्विता वाले देश को सूचनाओं और विचारों के नियमित आदान-प्रदान करना, एक हद तक अपनी सैन्य योजनाओं के बारे में बताना तथा अपने सैन्य बलों के बारे में सूचनाएँ देकर परस्पर विश्वास बहाली का प्रयास करते हैं।

JAC Class 12 Political Science Chapter 7 समकालीन विश्व में सरक्षा

(ब) सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा- सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा सिर्फ सैन्य खतरों से संबद्ध नहीं है। इसमें मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले व्यापक खतरों और आशंकाओं को शामिल किया जाता है। इसमें राज्य के साथ- साथ व्यक्तियों, समुदायों तथा समूची मानवता की सुरक्षा को आवश्यक बताया गया है। इसी कारण सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा को ‘मानवता की सुरक्षा’ अथवा ‘विश्व- सुरक्षा’ कहा जाता है।

1. मानवता की सुरक्षा:
मानवता की सुरक्षा का विचार राज्य की सुरक्षा से व्यापक है। इसका प्राथमिक लक्ष्य व्यक्तियों की संरक्षा है। मानवता की सुरक्षा का संकीर्ण अर्थ लेने वाले पैरोकारों का जोर व्यक्तियों को हिंसक खतरों यानी खून खराबे से बचाने पर होता है। मानवता की सुरक्षा के व्यापक अर्थ में युद्ध, जन-संहार और आतंकवाद आदि हिंसक खतरों के साथ-साथ अकाल, महामारी और आपदाएँ भी शामिल हैं। मानवता की सुरक्षा के व्यापकतम अर्थ में आर्थिक सुरक्षा और मानवीय गरिमा की सुरक्षा को भी शामिल किया जाता है। इसमें जोर ‘अभाव से मुक्ति’ और ‘भय से मुक्ति’ पर जोर दिया जाता है।

2. विश्व सुरक्षा: वैश्विक ताम वृद्धि, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, एड्स तथा बर्ड फ्लू जैसी समस्याओं व महामारियों के मद्देनजरु 1990 के दशक में विश्व – सुरक्षा की धारणा उभरी। चूंकि इन समस्याओं की प्रकृति वैश्विक है, इसलिए इनके समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग अति आवश्यक है।

→  खतरे के नये स्त्रोत
सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के दोनों पक्ष:

  • मानवता की सुरक्षा और
  • विश्व सुरक्षा सुरक्षा के संबंध में खतरों की बदलती प्रकृति पर बल देते हैं। ये खतरे हैं-
    • आतंकवाद
    • मानवाधिकारों का उल्लंघन,
    • निर्धनता,
    • असमानता,
    • शरणार्थी समस्या,
    • एड्स, बर्ड फ्लू और सार्स जैसी महामारियाँ,
    • एबोला वायरस, हैण्टावायरस और हैपेटाइटिस, टीबी, मलेरिया, डेंगू बुखार तथा हैजा जैसी पुरानी महामारियाँ।

सुरक्षा का मुद्दा: किसी मुद्दे को सुरक्षा का मुद्दा कहलाने के लिए एक सर्वस्वीकृत न्यूनतम मानक पर खरा उतरना आवश्यक है। जैसे- अगर किसी मुद्दे से राज्य या जनसमूह के अस्तित्व को खतरा हो रहा हो तो उसे सुरक्षा का मामला कहा जा सकता है, चाहे इस खतरे की प्रकृति कुछ भी हो।

→  सहयोगमूलक सुरक्षा
सुरक्षा पर मंडराते अनेक अपारंपरिक खतरों से निपटने के लिए आपसी सहयोग की आवश्यकता है।

  • विभिन्न देशों के बीच सहयोग: यह सहयोग द्विपक्षीय, क्षेत्रीय, महादेशीय या वैश्विक स्तर का हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि खतरे की प्रकृति क्या है ?
  • संस्थागत सहयोग: सहयोगात्मक सुरक्षा में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाएँ, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, स्वयंसेवी संगठन, व्यावसायिक संगठन, निगम तथा जानी-मानी हस्तियाँ शामिल हो सकती हैं।
  • बल प्रयोग: सहयोगमूलक सुरक्षा में अन्तिम उपाय के रूप में बल-प्रयोग किया जा सकता है; लेकिन यह बल प्रयोग सामूहिक स्वीकृति से तथा सामूहिक रूप में होना चाहिए।

→  भारत की सुरक्षा रणनीतियाँ
भारत को पारंपरिक (सैन्य) और अपारंपरिक खतरों का सामना करना पड़ा है। ये खतरे सीमा के अन्दर से भी हैं। और बाहर से भी। भारत की सुरक्षा नीति के चार प्रमुख घटक हैं। यथा-

  • सैन्य क्षमता को मजबूत करना: भारत-पाक युद्ध, भारत-चीन युद्ध तथा दोनों देशों के साथ चलते सीमा विवाद तथा भारत के चारों तरफ परमाणु हथियारों से लैस देशों के होने के कारण भारत ने
  • अपनी सैन्य क्षमता को मजबूत करने के लिए 1974 तथा फिर 1998 में परमाणु परीक्षण करने के फैसले किये।
  • अन्तर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मजबूत करना: भारत ने अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मजबूत करने की नीति अपनायी । एशियाई एकता, उपनिवेशीकरण का विरोध, निरस्त्रीकरण, संयुक्त राष्ट्र संघ में विश्वास, गुट निरपेक्षता, परमाणु अप्रसार की भेदभाव भरी संधियों का विरोध करना, क्योटो प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर आदि ऐसे ही कार्य हैं।
  • देश की आंतरिक सुरक्षा: समस्याओं से निपटना – भारत की तीसरी सुरक्षा रणनीति देश की आंतरिक सुरक्षा – समस्याओं से निपटने की तैयारी से संबंधित है। नागालैंड, मिजोरम, पंजाब तथा कश्मीर के उग्रवादी समूहों से निपटना, राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को अपनाना आदि बातें इसके अन्तर्गत आती हैं।
  • आर्थिक विकास की रणनीति: भारत ने गरीबी और अभाव से निजात दिलाने के लिए आर्थिक विकास की रणनीति भी अपनायी है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 अंतर्राष्ट्रीय संगठन

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 अंतर्राष्ट्रीय संगठन Textbook Exercise Questions and Answers

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 अंतर्राष्ट्रीय संगठन

Jharkhand Board Class 12 Political Science अंतर्राष्ट्रीय संगठन InText Questions and Answers

पृष्ठ 82

प्रश्न 1.
यही बात तो वे संसद के बारे में कहते हैं? क्या हमें बतकही की ऐसी चौपालें वास्तव में चाहिए?
उत्तर:
हाँ, हमें बतकही की ऐसी चौपालें वास्तव में चाहिए क्योंकि इनमें हुए वाद-विवाद के पश्चात् समस्याओं के समाधान सरलता से तलाश लिये जा सकते हैं।

पृष्ठ 83

प्रश्न 2.
ऐसे मुद्दों और समस्याओं की एक सूची बनाएँ जिन्हें सुलझाना किसी एक देश के लिए संभव नहीं है और जिनके लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की जरूरत है।
उत्तर:
ऐसे मुद्दे व समस्याओं की सूची, जिन्हें सुलझाना किसी एक देश के लिए संभव नहीं है तथा जिनके लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की जरूरत है, इस प्रकार है।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्ण समाधान।
  2. प्राकृतिक आपदाएँ-भूकम्प, बाढ़, सुनामी आदि।
  3. महामारियाँ।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद।
  5. विश्वव्यापी ताप वृद्धि को रोकना।
  6. युद्धों को रोकना।
  7. विभिन्न देशों के मध्य नदी जल बंटवारा।

पृष्ठ 93

प्रश्न 3.
क्या हम पांच बड़े दादाओं की दादागिरी खत्म करना चाहते हैं या उनमें शामिल होकर एक और दादा बनना चाहते हैं?
उत्तर:
भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनना चाहता है ताकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में अपनी बात को रख सके और अन्य स्थायी सदस्यों की दादागिरी को रोक सके क्योंकि यदि भारत के पास सुरक्षा परिषद् में पांच स्थायी राष्ट्रों की तरह वीटो शक्ति होगी तो वह उसका प्रयोग करके दादागिरी को रोक सकेगा। इस प्रकार भारत सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनकर सुरक्षा परिषद् के निर्णयों को न्यायसंगत दिशा की ओर मोड़ना चाहेगा। वह उन देशों की समस्याओं को मुखरित करेगा जो दादागिरी के असहनीय व्यवहार से पीड़ित हैं।

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पृष्ठ 94

प्रश्न 4.
अगर संयुक्त राष्ट्र संघ किसी को न्यूयार्क बुलाए और अमरीका उसे वीजा न दे तो क्या होगा?
उत्तर:
अगर संयुक्त राष्ट्र संघ किसी को न्यूयार्क बुलाए और अमरीका उसे वीजा न दे तो वह संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं आ सकेगा क्योंकि न्यूयार्क संयुक्त राज्य अमेरिका का एक प्रान्त है और न्यूयार्क के लिए वीजा देने या न देने का निर्णय करना अमेरिका के क्षेत्राधिकार में आता है।

पृष्ठ 95

प्रश्न 5.
आसियान क्षेत्रीय मंच के सदस्यों के नाम पता करें।
उत्तर:
आसियान क्षेत्रीय सुरक्षा मंच की स्थापना 1993 में हुई। 10 आसियान देशों इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर, थाइलैंड, ब्रुनेई दारुस्सलाम, वियतनाम, लाओ, म्यांमार, कंबोडिया के अतिरिक्त इस क्षेत्रीय मंच के अन्य सदस्य देश हैं। अमरीका, चीन, जापान, कनाडा, यूरोपीय यूनियन, पापुआ न्यूगिनी, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और भारत।

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प्रश्न 1.
निषेधाधिकार ( वीटो ) के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। इनमें प्रत्येक के आगे सही या गलत चिह्न लगाएँ।
(क) सुरक्षा परिषद् के सिर्फ स्थायी सदस्यों को ‘वीटो’ का अधिकार है।
(ख) यह एक तरह की नकारात्मक शक्ति है।
(ग) सुरक्षा परिषद् के फैसलों से असंतुष्ट होने पर महासचिव ‘वीटो’ का प्रयोग करता है।
(घ) एक ‘वीटो’ से भी सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव नामंजूर हो सकता है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही।

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के कामकाज के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। इनमें से प्रत्येक के सामने सही या गलत का चिह्न लगाएँ-
(क) सुरक्षा और शांति से जुड़े सभी मसलों का निपटारा सुरक्षा परिषद् में होता है।
(ख) मानवतावादी नीतियों का क्रियान्वयन विश्वभर में फैली मुख्य शाखाओं तथा एजेंसियों के मार्फत होता है।
(ग) सुरक्षा के किसी मसले पर पाँचों स्थायी सदस्य देशों का सहमत होना उसके बारे में लिए गए फैसले के क्रियान्वयन के लिए जरूरी है।
(घ) संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के सभी सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ के बाकी प्रमुख अंगों और विशेष एजेंसियों के स्वतः सदस्य हो जाते हैं।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) सही,
(घ) गलत।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के प्रस्ताव को ज्यादा वजनदार बनाता है?
(क) परमाणु क्षमता
(ख) भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के जन्म से ही उसका सदस्य है।
(ग) भारत एशिया में है
(घ) भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और स्थिर राजनीतिक व्यवस्था।
उत्तर:
(घ) भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और स्थिर राजनीतिक व्यवस्था।

प्रश्न 4.
परमाणु प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण उपयोग और उसकी सुरक्षा से संबद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसी का नाम है-
(क) संयुक्त राष्ट्रसंघ निरस्त्रीकरण समिति
(ख) अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी
(ग) संयुक्त राष्ट्रसंघ अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा समिति
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ख) अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी

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प्रश्न 5.
विश्व व्यापार संगठन निम्नलिखित में से किस संगठन का उत्तराधिकारी है?
(क) जेनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ
(ख) जेनरल एरेंजमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ
(ग) विश्व स्वास्थ्य संगठन
(घ) संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम
उत्तर:
(क) जेनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ

प्रश्न 6.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें:
(क) संयुक्त राष्ट्रसंघ का मुख्य उद्देश्य …………….. है।
(ख) संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे जाना-पहचाना पद ……………. का है।
(ग) संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा – परिषद् में ……….. स्थायी और ……….. अस्थायी सदस्य हैं।
(घ) ………….. “संयुक्त राष्ट्रसंघ के वर्तमान महासचिव हैं।
(ङ) मानवाधिकारों की रक्षा में सक्रिय दो स्वयंसेवी संगठन …………..”और …………… हैं।
उत्तर:
(क) विश्व में शांति व सुरक्षा बनाए रखना,
(ख) महासचिव,
(ग) पांच और दस
(घ) एंटोनियो गुटेरेस
(ङ) एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच।

प्रश्न 7.
संयुक्त राष्ट्रसंघ की मुख्य शाखाओं और एजेंसियों का सुमेल उनके काम से करें-

1. आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् (क) वैश्विक वित्त व्यवस्था की देखरेख।
2. अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ख) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का संरक्षण।
3. अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी (ग) सदस्य देशों के आर्थिक और सामाजिक कल्याण की चिंता।
4. सुरक्षा परिषद् (घ) परमाणु प्रौद्योगिकी का शांतिपूर्ण उपयोग और सुरक्षा।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी उच्चायोग (ङ) सदस्य देशों के बीच मौजूद विवादों का निपटारा।
6. विश्व व्यापार संगठन (च) आपातकाल में आश्रय तथा चिकित्सीय सहायता मुहैया कराना।
7. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (छ) वैश्विक मामलों पर बहस-मुबाहिसा।
8. आम सभा (ज) संयुक्त राष्ट्र संघ के मामलों का समायोजन और प्रशासन।
9. विश्व स्वास्थ्य संगठन (झ) सबके लिए स्वास्थ्य।
10. सचिवालय (ञ) सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार की राह आसान बनाना।

उत्तर:

1. आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् (ग) सदस्य देशों के आर्थिक और सामाजिक कल्याण की चिंता।
2. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (ङ) सदस्य देशों के बीच मौजूद विवादों का निपटारा।
3. अन्तर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी (घ) परमाणु प्रौद्योगिकी का शांतिपूर्ण उपयोग और सुरक्षा।
4. सुरक्षा परिषद् (ख) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का संरक्षण।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी उच्चायोग (च) आपातकाल में आश्रय तथा चिकित्सीय सहायता मुहैया कराना।
6. विश्व व्यापार संगठन (ञ) सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार की राह आसान बनाना ।
7. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (क) वैश्विक वित्त व्यवस्था की देखरेख।
8. आम सभा (छ) वैश्विक मामलों पर बहस – मुबाहिसा।
9. विश्व स्वास्थ्य संगठन (झ) सबके लिए स्वास्थ्य।
10. सचिवालय (ज) संयुक्त राष्ट्र संघ के मामलों का समायोजन और

प्रश्न 8.
सुरक्षा परिषद् के कार्य क्या हैं?
उत्तर;
सुरक्षा परिषद् के कार्य – सुरक्षा परिषद् निम्न कार्य करती है-

  1. सुरक्षा परिषद् विचार-विमर्श, बातचीत, पूछताछ, मध्यस्थता, जाँच-पड़ताल, मेल-मिलाप के माध्यम से शांति और सुरक्षा की स्थापना का प्रयास करती है।
  2. पंच निर्णय, न्यायिक समझौता, क्षेत्रीय व्यवस्थाओं या अन्य शांतिमय उपायों का प्रयोग करती है।
  3. प्रवर्तन साधनों का प्रयोग, जिनके अन्तर्गत परिषद् संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की शांति और सुरक्षा के लिये खतरा उत्पन्न करने या शांति भंग करने या आक्रमणकारी राज्य के विरुद्ध पूर्ण या आंशिक आर्थिक सम्बन्धी, रेल, समुद्री वायु, डाक-तार, रेडियो संचारण के अन्य साधनों और कूटनीतिक सम्बन्धों के विच्छेद के प्रयोग के लिये कर सकती है।
  4. सुरक्षा परिषद् अंतिम उपाय के रूप में वायु, जल और थल सेनाओं द्वारा भी सैनिक कार्यवाही कर सकती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य सुरक्षा परिषद् की मांग पर सशस्त्र सेनाएँ तथा अन्य प्रकार की सहायता देने के लिये वचनबद्ध हैं। सुरक्षा परिषद् ने प्रवर्तन साधनों के बजाय शांति साधनों का ही प्रयोग किया है।
  5. सुरक्षा परिषद् अपने आन्तरिक मामलों का स्वयं निर्णय करती है।
  6. सुरक्षा परिषद् नये राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्रदान करना, महासचिव का चयन, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति आदि कार्य महासभा से मिलकर करती है।

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प्रश्न 9.
भारत के नागरिक के रूप में सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के पक्ष का समर्थन आप कैसे करेंगे? अपने प्रस्ताव का औचित्य सिद्ध करें।
उत्तर:
हम भारत के नागरिक के रूप में सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन निम्नलिखित आधारों पर करते हैं।

  1. भारत विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है।
  2. भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है।
  3. संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति बहाल करने के प्रयासों में भारत लंबे समय से ठोस भूमिका निभाता आ रहा है।
  4. भारत तेजी से अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा है।
  5. भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है और यह कभी भी अपने भुगतान से चूका नहीं है।
  6. भारत इस बात से आगाह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता का एक प्रतीकात्मक महत्त्व भी है।
  7. भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के झण्डे के नीचे कई देशों में शांति स्थापना के लिये अपनी सेनाएँ भेजी हैं।
  8. भारतीय संस्कृति सदैव ही अहिंसा, शांति, सहयोग की समर्थक रही है।

प्रश्न 10.
संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे को बदलने के लिये सुझाये गये उपायों के क्रियान्वयन में आ रही कठिनाइयों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
उत्तर:
प्रमुख सुझाव- संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे को बदलने के लिए निम्नलिखित प्रमुख सुझाव दिये गये है।

  1. सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों में वृद्धि की जाए।
  2. सभी निर्णय महासभा में बहुमत से होने चाहिए। सभी सदस्यों को एक मत देने का अधिकार होना चाहिए और व्यक्तिगत रूप में गुप्त मतदान के रूप में इसका प्रयोग होना चाहिए।
  3. सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यों को दिया गया वीटो का अधिकार समाप्त होना चाहिए।
  4. बदले हुए विश्व वातावरण में भारत, जापान, जर्मनी, कनाडा, ब्राजील एवं दक्षिणी अफ्रीका को सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता प्रदान करनी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे को बदलने के लिये सुझाये गये उपर्युक्त उपायों के क्रियान्वयन में अनेक कठिनाइयाँ आ रही हैं। यथा-

  1. संयुक्त राष्ट्रसंघ के साधारण सभा के सदस्यों की संख्या में हुई वृद्धि के आधार पर सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या में वृद्धि किये जाने के सुझाव पर यह समस्या आ रही है कि इनमें किन सदस्यों को शामिल किया जाये? जनसंख्या, आर्थिक स्थिति, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रभाव आदि में से किस आधार पर देशों को शामिल किया जाये।
  2. स्थायी सदस्यों की वीटो पॉवर समाप्त कर दी जायेगी तो वे देश संयुक्त राष्ट्र संघ में उतनी रुचि नहीं लेंगे यह भी अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से उचित नहीं है।

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प्रश्न 11.
हालांकि संयुक्त राष्ट्रसंघ युद्ध और इससे उत्पन्न विपदा को रोकने में नाकामयाब रहा है लेकिन विभिन्न देश अभी भी इसे बनाये रखना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ को एक अपरिहार्य संगठन मानने के क्या कारण हैं? संयुक्त राष्ट्रसंघ एक अपरिहार्य संगठन है
उत्तर:
यद्यपि संयुक्त राष्ट्रसंघ युद्ध और इससे उत्पन्न विपदा को रोकने में नाकामयाब रहा है तथापि वर्तमान में यह एक अपरिहार्य संगठन है, क्योंकि

  1. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्ण समाधान – संयुक्त राष्ट्रसंघ विभिन्न देशों के बीच विवाद पैदा करने वाली घटनाओं को शांतिपूर्वक समाधान की दिशा में पहल करने वाला महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है।
  2. प्राकृतिक आपदा, महामारी आदि से निपटने के लिए – प्राकृतिक आपदा, महामारी, आतंकवाद आदि से निपटने के लिए देशों के पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता होती है और संयुक्त राष्ट्रसंघ इसके लिए सर्वश्रेष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है।
  3. विश्वव्यापी ताप वृद्धि के दुष्प्रभावों के समाधान में सहायक – विश्वव्यापी ताप वृद्धि के दुष्प्रभावों का समाधान संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ही कर सकता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ इस सम्बन्ध में सभी देशों के लिए एक आधार तैयार करने में सहायता करता है।
  4. युद्धों की रोकथाम में सहायक – आज विश्व को युद्ध की विभीषिका से बचाने में संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक अहम भूमिका है।
  5. सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य – झगड़ों और सामाजिक-आर्थिक विकास के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से 193 राष्ट्रों को एक साथ किया जा सकता है।
  6. अन्य कारण
    • विश्व के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसा मंच है जहाँ अमरीकी रवैये और नीतियों पर अंकुश लगाया जा सकता है।
    • विश्व के समाजों की बढ़ती पारस्परिक निर्भरता संयुक्त राष्ट्रसंघ की अपरिहार्यता को सिद्ध करती है।

प्रश्न 12.
संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार का अर्थ है सुरक्षा परिषद् के ढाँचे में बदलाव इस कथन का सत्यापन
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार का अर्थ है। सुरक्षा परिषद् के ढाँचे में बदलाव अर्थात् सुरक्षा परिषद् में ही अधिकांश सुधारों की बात की जाती है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्य अंगों जैसे महासभा में सभी सदस्य राज्यों को समान अधिकार प्राप्त है, परन्तु सुरक्षा परिषद् में सभी राज्यों को समान अधिकार प्राप्त नहीं है। इसमें पाँच स्थायी सदस्यों को सर्वाधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं। इन पांचों को ही किसी प्रस्ताव पर वीटो शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार है। इस प्रकार समस्त निर्णय इन पांचों सदस्यों द्वारा ही लिये जाते हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार की अधिकांश मांगें सुरक्षा परिषद में सुधार से संबंधित हैं।

  1. सुरक्षा परिषद् में स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाये तथा इसमें एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका के देशों का समुचित प्रतिनिधित्व हो।
  2. पांच सदस्यों को दिया गया वीटो पावर खत्म किया जाये।
  3. निषेधाधिकार लोकतंत्र की धारणा से मेल नहीं खाता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार का मुख्य बिन्दु सुरक्षा परिषद् में सुधार से ही संबंधित है।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन JAC Class 12 Political Science Notes

→ हमें अन्तर्राष्ट्रीय संगठन क्यों चाहिए?

  • अन्तर्राष्ट्रीय संगठन देशों की समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान में सदस्य देशों की सहायता करते हैं- अन्तर्राष्ट्रीय संगठन कोई शक्तिशाली राज्य नहीं होता जिसकी अपने सदस्यों पर धौंस चलती हो। इसका निर्माण विभिन्न राज्य ही करते हैं और यह उनके मामलों के लिए जवाबदेह होता है। जब राज्यों में इस बात की सहमति होती है कि कोई अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनना चाहिए, तभी ऐसे संगठन कायम होते हैं। एक बार इनका निर्माण हो जाने के बाद ये सदस्य देशों की समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान में सहायता करते हैं।
  • एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन सहयोग करने के उपाय और सूचनाएँ जुटाने में मदद कर सकता।
  • एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन नियमों और नौकरशाही की एक रूपरेखा दे सकता है ताकि सदस्यों को यह विश्वास हो कि आने वाली लागत में सबकी समुचित साझेदारी होगी, लाभ का बँटवारा न्यायोचित होगा और कोई सदस्य उस समझौते में शामिल हो जाता है तो वह इस समझौते के नियम और शर्तों का पालन करेगा।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ आज की दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय संगठन माना जाता है। इस संगठन को विश्व भर के अधिकांश लोग एक अनिवार्य संगठन मानते हैं। यह संगठन उनकी नजर में शांति और प्रगति के प्रति | मानवता की आशा का प्रतीक है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना-
→ अगस्त, 1941: अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट और ब्रितानी प्रधानमंत्री चर्चिल द्वारा अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर किए गए।

→ जनवरी, 1942: धुरी शक्तियों के खिलाफ लड़ रहे 26 मित्र – राष्ट्र अटलांटिक चार्टरे समर्थन में वाशिंग्टन में मिले और दिसंबर, 1943 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा पर हस्ताक्षर हुए।

→ फरवरी,1945: तीन बड़े नेताओं ( रूजवेल्ट, चर्चिल और स्टालिन) ने याल्टा सम्मेलन में प्रस्तावित अंतर्राष्ट्रीय संगठन के बारे में संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक सम्मेलन करने का निर्णय किया।

→ अप्रैल-मई, 1945: सेन फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्रसंघ का अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के मामले पर केंद्रित दो महीने लंबा सम्मेलन संपन्न।

→ 26 जून, 1945: संयुक्त राष्ट्रसंघ चार्टर पर 50 देशों के हस्ताक्षर। पोलैंड ने 15 अक्टूबर को हस्ताक्षर किए। इस तरह संयुक्त राष्ट्रसंघ में 51 मूल संस्थापक सदस्य हैं।

→ 24 अक्टूबर, 1945: संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना 24 अक्टूबर संयुक्त राष्ट्रसंघ दिवस।

→ 30 अक्टूबर 1945 – भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल।

JAC Class 12 Political Science Chapter 6 अंतर्राष्ट्रीय संगठन

→ संयुक्त राष्ट्रसंघ का विकास-

  • प्रथम विश्वयुद्ध ने दुनिया को इस बात का आभास करवाया कि एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय संगठन होना चाहिए जो झगड़ों का निपटारा कर सके। इसके परिणामस्वरूप ‘लीग ऑफ नेशंस’ का जन्म हुआ। किन्तु यह संगठन दूसरा विश्वयुद्ध (1939-45) रोकने में असफल रहा। इसलिए 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होते ही संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई। 51 देशों द्वारा इसके घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गए।
  • संयुक्त राष्ट्रसंघ के उद्देश्य :
    • अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों को रोकना और राष्ट्रों के बीच सहयोग की राह दिखाना।
    • अंतर्राष्ट्रीय युद्ध होने की स्थिति में यह संगठन शत्रुता के दायरे को सीमित करने का काम करता है।
    • पूरे विश्व में सामाजिक-आर्थिक विकास की संभावनाओं को बढाने हेतु विभिन्न देशों को एक साथ लाना।
  • 2011 तक संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों की संख्या 193 थी।
  • इसकी सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी सदस्य हैंअमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन।
  • संयुक्त राष्ट्रसंघ की कई शाखाएँ और एजेंसियाँ हैं। जिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम, संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार आयोग, संयुक्त राष्ट्रसंघ बाल कोष और संयुक्त राष्ट्रसंघ शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन शामिल हैं।

→ शीत युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार: संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने दो तरह के बुनियादी सुधारों का मसला है। संगठन की बनावट और प्रक्रियाओं में सुधार – इस सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि

→ सुरक्षा परिषद् में स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ायी जाये, विशेषकर एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के ज्यादा देशों को इसमें सदस्यता दी जाये।

→ अमरीका और पश्चिमी देश इसके बजट से जुड़ी प्रक्रियाओं और इसके प्रशासन में सुधार चाहते हैं। सुरक्षा परिषद् में सदस्यों की संख्या बढ़ाने तथा नये सदस्यों को चुने जाने के लिए स्थायी और अस्थायी सदस्यता के लिए निम्नलिखित मानदण्ड सुझाये गये हैं

  • वह देश बड़ी आर्थिक ताकत हो,
  • वह बड़ी सैन्य ताकत हो,
  • संयुक्त राष्ट्र के बजट में अधिक योगदान हो,
  • जनसंख्या की दृष्टि से बड़ा राष्ट्र हो,
  • लोकतंत्र तथा मानवाधिकारों का सम्मान करता हो तथा
  • अपने भूगोल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति की दृष्टि से विश्व की विविधता का प्रतिनिधित्व करता हो।

इन कसौटियों में भी अनेक किन्तु परन्तु हैं। सदस्यता की प्रकृति को बदलने का भी मुद्दा उठाया गया है कि पाँच स्थायी सदस्यों को दिया गया ‘वीटो ‘ समाप्त होना चाहिए या नहीं? इस सम्बन्ध में भी कोई एक राय नहीं बन पायी है।

→ न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों की समीक्षा सम्बन्धी सुधार – इस सम्बन्ध में कुछ देश चाहते हैं कि यह संगठन शांति एवं सुरक्षा से जुड़े मिशनों में ज्यादा प्रभावकारी भूमिका निभाये, जबकि कुछ देश चाहते हैं कि यह संगठन अपने को विकास तथा मानवीय भलाई के कामों तक सीमित रखे। सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र की 60वीं सालगिरह के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ को अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए निम्न कदम उठाने का फैसला किया गया-

  • शांति संस्थापक आयोग का गठन।
  • यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को अत्याचारों से बचाने में असफल हो जाए तो विश्व बिरादरी इसका उत्तरदायित्व ले।
  • मानवाधिकार परिषद् की स्थापना।
  • सहस्राब्दि विकास लक्ष्य को प्राप्त करने पर सहमति।
  • हर रूप – रीति के आतंकवाद की निंदा।
    एक लोकतंत्र कोष का गठन।
  • ट्रस्टीशिप काउंसिल को समाप्त करने पर सहमति। लेकिन ये मुद्दे भी संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए अनेक किन्तु परन्तुओं से भरे हुए हैं।

JAC Class 12 Political Science Chapter 6 अंतर्राष्ट्रीय संगठन

संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार और भारत
→ (अ) भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढांचे में बदलाव के मसले को कई आधारों पर समर्थन दिया है-

  • विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की मजबूती और दृढ़ता आवश्यक है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ को विभिन्न देशों के बीच सहयोग बढ़ाने और विकास को बढ़ावा देने में ज्यादा बड़ी ‘भूमिका निभानी चाहिए।
  • सुरक्षा परिषद् में सदस्यों की संख्या बढ़ाने से सुरक्षा परिषद् ज्यादा प्रतिनिधिमूलक होगी और उसे विश्व- बिरादरी का ज्यादा समर्थन मिलेगा। इसलिए सुरक्षा परिषद् के स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार के सदस्यों की संख्या बढ़ायी जानी चाहिए।

→ (ब) भारत की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के पक्ष में तर्क:

  • भारत विश्व में सबसे बड़ी जनसंख्या वाला दूसरा देश है।
  • भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।
  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की लगभग सभी पहलकदमियों में भाग लिया है
  • भारत तेजी से अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा है।
  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है।
  • भारत सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के प्रतीकात्मक महत्त्व को समझता है।

→ (स) भारत की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता की दावेदारी के विपक्ष में तर्क- कुछ देश वीटोधारी स्थायी सदस्य के रूप में भारत की सदस्यता के विरोध में ये तर्क देते हैं-

  • भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न देश है तथा पाक – भारत तनावों के कारण वह स्थायी सदस्य के रूप में सफल नहीं रहेगा।
  • भारत के साथ ही ब्राजील, जर्मनी, जापान और दक्षिण अफ्रीका को भी शामिल करना पड़ेगा, जिसका ये देश विरोध करते हैं।
  • सुरक्षा परिषद् में प्रतिनिधित्व की दृष्टि से दक्षिण अमरीका महाद्वीप तथा अफ्रीका महाद्वीप की पहली दावेदारी होनी चाहिए।

→ एक ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ:
एक ध्रुवीय विश्व में क्या संयुक्त राष्ट्र संघ ढांचे और प्रक्रियाओं में सुधार के बाद अमरीका की मनमानी को रोकने में सफल होगा। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अमरीका की मनमानी पर आसानी से अंकुश नहीं लगा सकेगा क्योंकि-

  • विश्व की एकमात्र महाशक्ति रह जाने के कारण अमरीका अपनी सैन्य और आर्थिक शक्ति के बल पर वह संयुक्त राष्ट्र संघ की अनदेखी कर सकता है।
  • अमरीका संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में सबसे ज्यादा योगदान करता है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ अमरीकी भू-क्षेत्र में स्थित है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के कई नौकरशाह इसके नागरिक हैं।
  • उसके पास निषेधाधिकार की शक्ति है।
  • वीटो ताकत के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के चयन में भी अमरीका की चलती है।
  • अमरीका अपनी सैन्य तथा आर्थिक शक्ति के बल पर विश्व में फूट डालने की क्षमता रखता है।

इन कारणों से संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर अमरीका का खासा प्रभाव है जिसके कारण यह संगठन उसकी मनमानी को नहीं रोक सकता।

→ एकध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता:
यद्यपि एकध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्र संघ अमरीका पर नियंत्रण नहीं लगा सकता तथापि निम्न संदर्भ में उसकी अभी भी प्रासंगिकता विद्यमान है-

  • संयुक्त राष्ट्र संघ अमरीका और शेष विश्व के बीच विभिन्न मुद्दों पर बातचीत कायम कर सकता है।
  • झगड़ों और सामाजिक-आर्थिक विकास के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ के जरिये 193 देशों को एक साथ किया जा सकता है।
  • शेष विश्व संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच के माध्यम से अमरीकी रवैये और नीतियों पर कुछ न कुछ अंकुश लगा सकता है।
  • आज विभिन्न समाजों और मुद्दों के बीच आपसी तार जुड़ते जा रहे हैं। आने वाले दिनों में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जायेगी। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ का महत्त्व भी निरन्तर बढ़ेगा।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर Textbook Exercise Questions and Answers

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

Jharkhand Board Class 12 Political Science शीतयुद्ध का दौर InText Questions and Answers

पृष्ठ 5

प्रश्न 1.
प्रत्येक प्रतिस्पर्धी गुट से कम से कम तीन देशों की पहचान करें।
उत्तर:

  • सोवियत संघ गुट के तीन सदस्य देश थे:
    1. पोलैंड
    2. पूर्वी जर्मनी और
    3. रोमानिया।
  • अमेरिकी गुट के तीन सदस्य देश थे
    1. पश्चिमी जर्मनी
    2. ब्रिटेन और
    3. फ्रांस

प्रश्न 2.
अध्याय चार में दिये गये यूरोपीय संघ के मानचित्र को देखें और उन चार देशों के नाम लिखें जो पहले ‘वारसा संधि’ के सदस्य थे और अब यूरोपीय संघ के सदस्य हैं।
उत्तर:
(1) रोमानिया
(2) बुल्गारिया
(3) हंगरी
(4) पोलैण्ड।

प्रश्न 3.
इस मानचित्र की तुलना यूरोपीय संघ के मानचित्र तथा विश्व के मानचित्र से करें इस तुलना के बाद क्या आप तीन ऐसे देशों की पहचान कर सकते हैं जो शीतयुद्ध के बाद अस्तित्व में आए।
उत्तर:
(1) उक्रेन
(2) कजाकिस्तान
(3) किरगिस्तान तथा
(4) बेलारूस। (कोई तीन)

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

पृष्ठ 6

प्रश्न 4.
निम्नलिखित तालिका में तीन-तीन देशों के नाम उनके गुटों को ध्यान में रखकर लिखें- पूँजीवादी गुट, साम्यवादी गुट और गुटनिरपेक्ष आंदोलन।
गुट, साम्यवार्दी गुट और गुटनिरपेक्ष आंदोलन।
उत्तर:

  • पूँजीवादी गुट:
    1. संयुक्त राज्य अमरीका
    2. ब्रिटेन
    3. फ्रांस
  • साम्यवादी गुट
    1. सोवियत संघ
    2. पोलैण्ड
    3. हंगरी
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन:
    1. भारत
    2. मिस्न
    3. घाना।

पृष्ठ 7

प्रश्न 5.
उत्तरी और दक्षिणी कोरिया अभी तक क्यों विभाजित हैं जबकि शीत युद्ध के दौर के बाकी विभाजन मिट गये हैं? क्या कोरिया के लोग चाहते हैं कि विभाजन बना रहे?
उत्तर;
उत्तरी और दक्षिणी कोरिया अभी तक विभाजित हैं क्योंकि इसके पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के हित निहित हैं । इसलिए यहाँ के शासक वर्ग कोरिया के एकीकरण की ओर कदम नहीं बढ़ा पाये हैं। यद्यपि कोरिया के लोग विभाजन नहीं चाहते।

पृष्ठ 12

प्रश्न 6.
पाँच ऐसे देशों के नाम बताएँ जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुए।
उत्तर:
(1) भारत
(2) पाकिस्तान
(3) घाना
(4) इंडोनेशिया
(5) मिस्र।

Jharkhand Board Class 12 Political Science शीतयुद्ध का दौर TextBook Questions and Answers

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) यह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और उनके साथी देशों के बीच की एक प्रतिस्पर्धा थी।
(ख) यह महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
(ग) शीत युद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
(घ) अमरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
उत्तर:
(घ) अमरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा कथन गुट निरपेक्ष आन्दोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डालता?
संजीव पास बुक्स
(क) उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों को स्वतंत्र नीति अपनाने में समर्थ बनाना।
(ख) किसी भी सैन्य संगठन में शामिल होने से इंकार करना।
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
(घ) वैश्विक आर्थिक असमानता की समाप्ति पर ध्यान केन्द्रित करना।
उत्तर:
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।

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प्रश्न 3.
नीचे महाशक्तियों द्वारा बनाए सैन्य संगठनों की विशेषता बताने वाले कुछ कथन दिए गए हैं। प्रत्येक कथन के सामने सही या गलत का चिह्न लगाएँ।
(क) गठबंधन के सदस्य देशों को अपने भू-क्षेत्र में महाशक्तियों के सैन्य अड्डे के लिए स्थान देना जरूरी था।
(ख) सदस्य देशों को विचारधारा और रणनीति दोनों स्तरों पर महाशक्ति का समर्थन करना था।
(ग) जब कोई राष्ट्र किसी एक सदस्य देश पर आक्रमण करता था तो इसे सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाता था।
(घ) महाशक्तियाँ सभी सदस्य देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने में मदद करती थीं।
उत्तर:
(क) सही (ख) सही (ग) सही (घ) गलत

प्रश्न 4.
नीचे कुछ देशों की एक सूची दी गई है। प्रत्येक के सामने लिखें कि वह शीत युद्ध के दौरान किस गुट से जुड़ा था?
(क) पोलैंड
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) नाइजीरिया
(ङ) उत्तरी कोरिया
(च) श्रीलंका।
उत्तर:
(क) पोलैंड: साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)
(ख) फ्रांस : पूँजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(ग) जापान : पूँजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(घ) नाइजीरिया : गुटनिरपेक्ष आंदोलन
(ङ) उत्तरी कोरिया : साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)
(च) श्रीलंका : गुटनिरपेक्ष आंदोलन

प्रश्न 5.
शीत युद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण – ये दोनों ही प्रक्रियायें पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के क्या कारण थे?
उत्तर:
शीत ‘युद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण ये दोनों ही प्रक्रियायें पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के प्रारंभ होने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे:

  • हथियारों की होड़ की प्रक्रिया के कारण:
    1. शीत युद्ध के दौरान दोनों ही गठबंधनों के बीच प्रतिद्वन्द्विता समाप्त नहीं हुई थी। इसी कारण एक-दूसरे के प्रति शंका की हालत में दोनों गुटों ने भरपूर हथियार जमा किये और लगातार युद्ध के लिए तैयारी करते रहे।
    2. हथियारों के बड़े जखीरे को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जरूरी माना जा रहा था।
  • हथियारों पर नियंत्रण की प्रक्रिया पैदा होने के कारण:
    1. दोनों गुट यह अनुभव करते थे कि यदि दोनों गुटों में आमने-सामने युद्ध होता है, तो दोनों ही गुटों की ‘अत्यधिक हानि होगी और दोनों में से कोई भी विजेता बनकर नहीं उभर पायेगा, क्योंकि दोनों ही गुटों के पास परमाणु हथियार थे।
    2. दोनों देश लगातार यह समझ रहे थे कि संयम के बावजूद युद्ध हो सकता है जिसका परिणाम भयानक होगा। इस कारण समय रहते अमरीका और सोवियत संघ ने कुछेक परमाणविक और अन्य हथियारों को सीमित या समाप्त करने के लिए आपस में सहयोग करने का फैसला किया।

प्रश्न 6.
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन क्यों रखती थीं? तीन कारण बताइये
उत्तर:
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ निम्न कारणों से सैन्य गठबंधन रखती थीं-

  1. महत्त्वपूर्ण संसाधन तथा भू-क्षेत्र हासिल करना – महाशक्तियाँ महत्त्वपूर्ण संसाधनों, जैसे तेल और खनिज आदि पर अपने नियंत्रण बनाने तथा इन देशों के भू-क्षेत्रों से अपने हथियार और सेना का संचालन करने की दृष्टि से छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन रखती थीं।
  2. सैनिक ठिकाने – महाशक्तियाँ इन देशों में अपने सैनिक अड्डे बनाकर दुश्मन के देश की जासूसी करती थीं।
  3. आर्थिक मदद – छोटे देश सैन्य गठबंधन के अन्तर्गत आने वाले सैनिकों को अपने खर्चे पर अपने देश में रखते थे, जिससे महाशक्तियों पर आर्थिक दबाव कम पड़ता था।

प्रश्न 7.
कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण दें।
उत्तर:
हम इस कथन से सहमत नहीं हैं कि शीत युद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। इसका कारण यह है कि शीत युद्ध के दौरान दोनों ही गुटों में विचारधारा का अत्यधिक प्रभाव था। पूँजीवादी विचारधारा के लगभग सभी देश अमेरिका के गुट में शामिल थे, जबकि साम्यवादी विचारधारा वाले सभी देश सोवियत संघ के गुट में शामिल थे। विपरीत विचारधाराओं वाले देशों में निरन्तर आशंका, संदेह और भय व्याप्त था। जब 1991 में सोवियत संघ के विघटन से एक विचारधारा का भी पतन हो गया और इसके साथ ही शीत युद्ध भी समाप्त हो गया।

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प्रश्न 8.
शीत युद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?
उत्तर:
शीत युद्ध के दौरान भारत की विदेश नीति-शीत युद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति गुटनिरपेक्षता की नीति रही। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं-

  1. इसके तहत भारत ने स्वयं को सजग और सचेत रूप से महाशक्तियों की खेमेबन्दी से अलग रखा। लेकिन उसने अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप भी किया।
  2. भारत ने दोनों गुटों के बीच विद्यमान मतभेदों को दूर करने की कोशिश की तथा मतभेदों को पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।
  3. भारत के राजनयिकों और नेताओं का उपयोग अक्सर शीत युद्ध के दौर के प्रतिद्वन्द्वियों के बीच संवाद कायम करने और मध्यस्थता करने के लिए हुआ।
  4. शीत युद्ध काल में भारत ने उपनिवेशों के चंगुल से मुक्त हुए नवस्वतंत्र देशों को महाशक्तियों के खेमें में जाने. का पुरजोर विरोध किया ।
  5. भारत ने उन क्षेत्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाए रखा जो अमरीका या सोवियत संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे।

गुटनिरपेक्षता की नीति और भारतीय हित: हाँ, गुटनिरपेक्षता की नीति ने कम से कम दो तरह से भारत का प्रत्यक्ष रूप से हित साधन किया-

  1. इस नीति के कारण भारत ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय फैसले ले सका जिससे उसका हित सधता होता हो।
  2. भारत हमेशा इस स्थिति में रहा कि एक महाशक्ति उसके खिलाफ जाए तो वह दूसरी महाशक्ति के करीब आने की कोशिश करे।

प्रश्न 9.
गुट निरपेक्ष आंदोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीत युद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुँचाई?
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन तीसरी दुनिया के देशों के लिए प्रस्तुत तीसरा विकल्प गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के नवस्वतंत्र देशों को एक तीसरा विकल्प दिया। यह विकल्प -दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने का । यह पृथकतावाद नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रियता से युक्त आन्दोलन है।

शीत युद्ध काल में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अपने सदस्य देशों के विकास में भूमिका-

  1. गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।
  2. इसी समझ से नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। अंकटाड में 1972 में संयुक्त राष्ट्र के व्यापार और विकास से संबंधित सम्मेलन में प्रस्तुत वैश्विक रिपोर्ट में इन बातों पर बल दिया गया

(क) अल्प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं।
(ख) अल्प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी, वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्यापार लाभदायक होगा।
(ग) पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी।
(घ) अल्प विकसित देशों की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों में भूमिका बढ़ेगी।
इसके परिणामस्वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन आर्थिक दबाव समूह बन गया। इससे स्पष्ट होता है कि जब शीत युद्ध अपने शिखर पर था तब गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।.

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 10.
“गुटनिरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है।” आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
वर्तमान में गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता:
गुटनिरपेक्षता की नीति शीत युद्ध के संदर्भ में पनपी थी। 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में शीत युद्ध का अन्त और सोवियत संघ का विघटन हुआ इसके साथ ही एक अन्तर्राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता और प्रभावकारिता में थोड़ी कमी आई। लेकिन गुट निरपेक्ष आंदोलन अप्रासंगिक नहीं हुआ है। इसकी प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है। यथा

  1. गुटनिरपेक्षता इस बात की पहचान पर टिकी है कि उपनिवेश की स्थिति से आजाद हुए देशों के बीच ऐतिहासिक जुड़ाव है और यदि ये देश साथ आ जायें तो एक सशक्त ताकत बन सकते हैं।
  2. कोई भी देश अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपना सकता है।
  3. यह आंदोलन मौजूदा असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व – व्यवस्था बनाने और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को लोकतंत्रधर्मी बनाने के संकल्प पर टिका है।
  4. नवोदित राष्ट्रों का आर्थिक और राजनैतिक विकास भी परस्पर सहयोग पर निर्भर है।
  5. वर्तमान महाशक्ति अमरीका के प्रभाव से मुक्त रहने के लिए भी निर्गुट राष्ट्रों का आपसी सहयोग और भी अधिक आवश्यक है।
  6. यह नीति आज भी गुटनिरपेक्ष देशों की सुरक्षा, सम्मान और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

शीतयुद्ध का दौर JAC Class 12 Political Science Notes

→ क्यूबा का मिसाइल संकट:
क्यूबा अमरीकी तट से लगा हुआ द्विपीय देश है। सोवियत संघ के नेता ने क्यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे’ में परिवर्तित करने हेतु 1962 में वहां परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं। इस बात की भनक अमरीकी राष्ट्रपति को लगी तब उन्होंने और उनके सलाहकारों ने दोनों देशों के बीच शांति बनाए रखने का प्रयास किया। लेकिन अमरीका इस बात को लेकर भी दृढ़ था कि रूस क्यूबा से मिसाइल और परमाणु हथियार हटा ले । ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरम बिन्दु था। शीत युद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबन्धन अथवा शक्ति सन्तुलन का मामला भर नहीं था, बल्कि इसके साथ-साथ उदारवादी – पूँजीवादी लोकतान्त्रिक विचारधारा और साम्यवाद व समाजवाद की विचारधारा के बीच एक वास्तविक संघर्ष भी जारी था।

→ शीत युद्ध क्या है?
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद वैश्विक राजनीति के मंच पर दो महाशक्तियों का उदय हुआ। ये थीं- संयुक्त राज्य अमेरिका व समाजवादी सोवियत गणराज्य इन दोनों महाशक्तियों ने विश्व के देशों को पूँजीवादी और साम्यवादी विचारधाराओं में विभाजित कर दिया। इनके पास इतनी क्षमता थी कि विश्व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें। दोनों का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दूसरे के मुकाबले खड़ा होना शीत युद्ध का कारण बना। दोनों ही पक्षों के पास एक-दूसरे के मुकाबले और परस्पर नुकसान पहुँचाने की इतनी क्षमता थी कि कोई भी पक्ष युद्ध का खतरा नहीं उठाना चाहता था । इस तरह, महाशक्तियों के बीच की गहन प्रतिद्वन्द्विता रक्तरंजित युद्ध का रूप नहीं ले सकी। पारस्परिक ‘अपरोधं’ की स्थिति ने युद्ध तो नहीं होने दिया, लेकिन यह स्थिति पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को नहीं रोक सकी। इस प्रतिद्वन्द्विता की तासीर ठंडी रही। इसलिए इसे शीत युद्ध कहा जाता है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

→ दो – ध्रुवीय विश्व का प्रारम्भ:
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दोनों महाशक्तियों के बीच जारी शीत युद्ध के कारण दुनिया दो गुटों के बीच स्पष्ट रूप से बंट गयी थी । यह विभाजन पहले यूरोप में हुआ। पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका का पक्ष लिया तो पूर्वी यूरोप सोवियत संघ के खेमे में शामिल हो गया। ये खेमे पश्चिमी और पूर्वी गठबंधन कहलाये । पश्चिमी गठबंधन ने 1949 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की स्थापना की तो पूर्वी गठबंधन ने 1955 में ‘वारसा पैक्ट’ की स्थापना की। पश्चिमी गठबंधन ने ‘सीटो’ और ‘सेन्टो’ संगठन बनाए तो सोवियत संघ और साम्यवादी चीन ने उत्तरी वियतनाम, उत्तरी कोरिया और इराक के साथ अपने सम्बन्ध मजबूत किये। लेकिन गठबंधनों में परस्पर दरार पड़ने और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विकास के कारण समूचा विश्व दो गुटों में विभाजित नहीं हो सका।

→ शीत युद्ध के दायरे:
शीत युद्ध के दायरे से हमारा आशय ऐसे क्षेत्रों से होता है जहाँ विरोधी खेमों में बँटे देशों के बीच संकट के अवसर आये, युद्ध हुए या इनके होने की संभावना बनी, लेकिन बातें एक हद से ज्यादा नहीं बढ़ीं। दोनों महाशक्तियाँ कोरिया (1950-53), बर्लिन (1958 – 62), कांगो (1960), क्यूबा (1962) तथा कई अन्य जगहों पर सीधे-सीधे मुठभेड़ की स्थिति में आयीं; वियतनाम और अफगानिस्तान में व्यापक जन-हानि हुई, लेकिन विश्व परमाणु संजीव पास बुक्स युद्ध से बचा रहा। युद्धों को टालने में महाशक्तियों के संयम, गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, शस्त्रीकरण और अस्त्र नियंत्रण संधियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

शीत युद्ध का घटनाक्रम-
→ 1947: साम्यवाद को रोकने के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन का सिद्धान्त।

→ 1947-52: मार्शल योजना – पश्चिमी यूरोप के पुनः निर्माण में अमरीकी सहायता।

→ 1948-49: सोवियत संघ द्वारा बर्लिन की घेराबंदी।

→ 1950-53: कोरियाई युद्ध।

→ 1954: वियतनामियों के हाथों दायन बीयन फू में फ्रांस की हार, जेनेवा समझौते पर हस्ताक्षर, सिएटो का गठन 17वीं समानांतर रेखा द्वारा वियतनाम का विभाजन।

→ 1954-75: वियतनाम में अमरीकी हस्तक्षेप।

→ 1955: बगदाद (सेन्टो) समझौता तथा वारसा संधि।

→ 1956: हंगरी में सोवियत संघ का हस्तक्षेप|

→ 1961: क्यूबा में अमेरिका द्वारा प्रायोजित ‘बे ऑफ पिग्स’ आक्रमणं। बर्लिन की दीवार खड़ी की गई तथा गुटनिरपेक्ष सम्मेलन का बेलग्रेड में आयोजन।

→ 1962: क्यूबा का मिसाइल संकट।

→ 1965: डोमिनिकन रिपब्लिक में अमरीकी हस्तक्षेप।

→ 1968: चेकोस्लोवाकिया में सोवियत हस्तक्षेप।

→ 1972: अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन का चीन दौरा।

→ 1978-89: कंबोडिया में वियतनाम का हस्तक्षेप।

→ 1985: गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने; सुधार की प्रक्रिया प्रारंभ।

→ 1989: बर्लिन की दीवार गिरी।

→ 1990: जर्मनी का एकीकरण।

→ 1991: सोवियत संघ का विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

→ दो – ध्रुवीयता को चुनौती- गुटनिरपेक्षता:
शीत युद्ध के दौरान विश्व दो प्रतिद्वन्द्वी गुटों में बंट रहा था। इसी संदर्भ में गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के नव-स्वतंत्र देशों को इन गुटों से अलग रहने का तीसरा विकल्प दिया। गुट निरपेक्ष आंदोलन के पाँच संस्थापक नेता थे- भारत के नेहरू, यूगोस्लाविया के टीटो, मिस्र के नासिर, इंडोनेशिया के सुकर्णों और घाना के एनक्रूमा 1961 के बेलग्रेड गुटनिरपेक्ष आंदोलन के पहले सम्मेलन में जहाँ 25 सदस्य देश शामिल हुए, वहीं 2019 में अजरबेजान में हुए 18वें सम्मेलन में 120 सदस्य देश शामिल हुए। गुटनिरपेक्ष आंदोलन महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होने का आंदोलन है। यह न तो पृथकतावाद है और न तटस्थतावाद।

→ नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी। इन देशों का स्वतंत्रता की दृष्टि से भी आर्थिक विकास जरूरी था। इसी समझ से नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ 1970 के दशक के मध्य में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के लिए आर्थिक दबाव समूह की भूमिका निभायी लेकिन 1980 के दशक में इसके प्रयास ढीले पड़ गये। भारत और शीत युद्ध – गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई।

  • अपने को दोनों महाशक्तियों के खेमे से अलग रखा
  • नव – स्वतंत्र देशों को महाशक्तियों के खेमे में जाने से रोका।

भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति सकारात्मक थी; उसने प्रतिद्वंद्वियों के बीच संवाद कायम करने तथा मध्यस्थता के प्रयास किये; दोनों खेमों से अलग अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों, जैसे राष्ट्रकुल, को सक्रिय रखा। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता – गुटनिरपेक्षता के कारण भारत अपने राष्ट्रीय हित साधने में सफल रहा। लेकिन आलोचकों ने भारत की इस नीति को सिद्धान्तविहीन तथा अस्थिर कहा वर्तमान में यह आन्दोलन मौजूदा असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था बनाने तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को लोकतंत्रधर्मी बनाने के संकल्प पर टिका हुआ है।

 

JAC Class 12 History Solutions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 10 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

Jharkhand Board Class 12 History विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 290

प्रश्न 1.
इन दोनों रिपोर्टों तथा उस दौरान दिल्ली के हालात के बारे में इस अध्याय में दिए गए विवरणों को पढ़ें याद रखें कि अखबारों में छपी खबरें अक्सर पत्रकार के पूर्वाग्रह या सोच से प्रभावित होती हैं। इस आधार पर बताएँ कि दिल्ली उर्दू अखबार लोगों की गतिविधियों को किस नजर से देखता था?
उत्तर:
दोनों रिपोर्टों को पढ़ने से हमें पता चलता है कि उस समय दिल्ली शहर का सामान्य जनजीवन अस्त- व्यस्त हो गया था। आम लोगों को सब्जियाँ भी नहीं मिल पा रही थीं। गरीब कुलीन लोगों को स्वयं घड़ों में पानी भरकर लाना पड़ता था। निर्धन एवं मध्यम वर्ग के लोगों को भी कष्टों का सामना करना पड़ रहा था। शहर में गन्दगी और बीमारियाँ फैली हुई थीं। हमारे विचर से दिल्ली उर्दू अखवार ने दिल्ली की तत्कालीन स्थिति का सटीक वर्णन किया है, इसमें पत्रकार की पूर्वाग्रहता नहीं दिखाई पड़ती है।

पृष्ठ संख्या 291

प्रश्न 2.
विद्रोही अपनी योजनाओं को किस तरह एक-दूसरे तक पहुँचाते थे, इस बारे में इस बातचीत से क्या पता चलता है? तहसीलदार ने सिस्टन को सम्भावित विद्रोही क्यों मान लिया था?
उत्तर:
विद्रोही अपनी योजनाओं को आपसी संवाद के द्वारा एक दूसरे तक पहुँचाते थे। यह हमें सिस्टन और तहसीलदार के वार्तालाप से पता चलता है विद्रोह के समय बहुत से सरकारी कर्मचारी भी विद्रोहियों से मिले हुए थे। सिस्टन के देशी पहनावे तथा बैठने के ढंग के आधार पर बिजनौर के तहसीलदार ने उसे सम्भावित विद्रोही मानकर वार्तालाप किया था, क्योंकि वह अवध में नियुक्त था।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

पृष्ठ संख्या 295 चर्चा कीजिए

प्रश्न 3.
इस भाग को एक बार और पढ़िए तथा विद्रोह के दौरान नेता कैसे उभरते थे, इस बारे में समानताओं और भिन्नताओं की व्याख्या कीजिए किन्हीं दो नेताओं के बारे में बताइए कि आम लोग उनकी तरफ क्यों आकर्षित हो जाते थे।
उत्तर:
नेता जनसामान्य का समर्थन पाकर उभरते थे।
(i) रानी लक्ष्मीबाई यह झाँसी की रानी थी। लोग उसके प्रति अंग्रेजों द्वारा अन्याय तथा रानी की वीरता के कारण आकर्षित हुए।
(ii) बहादुरशाह द्वितीय- यह अन्तिम मुगल शासक था मुगलों के प्रति सामान्य जनता में अभी भी श्रद्धा का भाव था।

पृष्ठ संख्या 297

प्रश्न 4.
इस पूरे भाग को पढ़ें और चर्चा करें कि लोग वाजिद अली शाह की विदाई पर इतने दुःखी क्यों थे?
उत्तर:
वाजिद अली शाह अवध (लखनऊ) के लोकप्रिय नवाब थे। उनको गद्दी से हटाने पर तमाम लोग अभिजात, किसान और जन सामान्य सभी लोग रो रहे थे। वे अपने प्रिय नवाब के अपमान से दुःखी थे। इसके अतिरिक्त जो उन पर आश्रित थे, वे बेरोजगार हो गये; उन लोगों की रोजी-रोटी चली गई थी। इन्हीं कारणों से लखनऊ की जनता उनके वियोग से दुःखी थी और सब रो चिल्ला रहे थे कि “हाय! जान-ए-आलम देस से विद्य लेकर परदेस चले गए हैं।”

पृष्ठ संख्या 299

प्रश्न 5.
इस अंश से आपको ताल्लुकदारों के रवैये के बारे में क्या पता चल रहा है? ‘यहाँ के लोगों’ से हनवन्तसिंह का क्या आशय था? उन्होंने लोगों के गुस्से की क्या वजह बताई ?
उत्तर:
इस अंश से हमें ताल्लुकदारों की शरणागत- वत्सलता और देश-प्रेम दोनों भावनाओं का पता चलता है। संकट में शरणागत की रक्षा करना भारतीय संस्कृति का आदर्श रहा है, जिसका राजा हनवन्तसिंह ने पालन किया। दूसरी ओर, देश-प्रेम की खातिर वे अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए बुद्ध करने जाते हैं। ‘यहाँ के लोगों’ से हनवन्तसिंह का आशय भारत के विद्रोही ताल्लुकदारों, किसानों, सैनिकों से था। उन्होंने लोगों के गुस्से की वजह बतायी अंग्रेजी शासन द्वारा भारत के लोगों का शोषण करना तथा ताल्लुकदारों की जमीनें छीनना

JAC Class 12 History Solutions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

पृष्ठ संख्या 301-302

प्रश्न 6.
इस घोषणा में ब्रिटिश शासन के खिलाफ कौनसे मुद्दे उठाए गए हैं? प्रत्येक तबके के बारे में दिए गए भाग को ध्यान से पढ़िए घोषणा की भाषा पर ध्यान दीजिए और देखिए कि उसमें कौनसी भावनाओं पर जोर दिया जा रहा है?
उत्तर:
यह घोषणा 25 अगस्त, 1857 को मुगल सम्राट द्वारा जारी की गई थी। इस घोषणा में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए हैं –

  • जमींदारों को अपमानित एवं बर्बाद करना
  • व्यापारियों को मुनाफे से वंचित करना एवं उन्हें अपमानित करना
  • भारतीय सरकारी कर्मचारियों को उच्च पदों से वंचित करना
  • कारीगरों में व्याप्त बेरोजगारी और गरीबी
  • पण्डितों और फकीरों का सम्मान न करना।

इस घोषणा में जमींदारों, व्यापारियों, सरकारी कर्मचारियों, कारीगरों तथा पण्डित-फकीरों, मौलवियों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ इस पवित्र युद्ध में भाग लेने हेतु | प्रोत्साहित किया गया था, क्योंकि ये सभी वर्ग ब्रिटिश शासन की निरंकुशता और उत्पीड़न से त्रस्त थे। इसमें इस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया, जो सम्बन्धित लोगों के दिलोदिमाग पर असर करे इस घोषणा की भाषा हिन्दी-उर्दू मिश्रित है, जिसे हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।

पृष्ठ संख्या 303

प्रश्न 7.
इस अर्जी में सैनिक विद्रोह के जो कारण बताए गए हैं, उनकी तुलना ताल्लुकदार द्वारा बताए गए कारणों (स्रोत-4) के साथ कीजिए।
उत्तर:
इस अर्जी में बताया गया है कि ताल्लुकदारों तथा सैनिकों दोनों में अंग्रेजों का साथ देने में समानता है तथा जब दोनों को ही उत्पीड़ित किया गया तो दोनों ने ही अंग्रेजी शासन के प्रति बगावत कर दी। इसे हम निम्न तालिका के माध्यम से समझ सकते हैं-

ताल्लुकचार
1. ताल्लुकदारों द्वारा अंग्रेजों की रक्षा की गई।
2. ताल्लुकदारों की जागीरें छीन लेने तथा उनकी -सेवाओं को भंग कर देने के कारण उन्होंने अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु युद्ध किया।
3. ताल्लुकदारों द्वारा अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए प्रयास करना।

सैनिक
1. सैनिकों और उनके पुरखों द्वारा शासन स्थापित करने में अंग्रेजों की मदद करना।
2. चर्बी लगे कारतूसों के कारण रक्षा हेतु युद्ध करना। धर्म की
3. आस्था और धर्म की रक्षा के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध दो वर्ष तक युद्ध करना।

पृष्ठ संख्या 304 चर्चा कीजिए

प्रश्न 8.
आपकी राय में विद्रोहियों के नजरिए को पुनः निर्मित करने में इतिहासकारों के सामने कौनसी मुख्य समस्याएँ आती हैं?
उत्तर:
विद्रोहियों के नजरिए को पुनः निर्मित करने में इतिहासकारों के सामने निम्न समस्याएँ आती हैं-
(1) उचित तथा सटीक स्रोतों का अभाव
(2) भाषा की समस्या
(3) उपलब्ध स्रोतों में विभिन्न विद्वानों की पृथक्

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पृष्ठ संख्या 305

प्रश्न 9.
इस विवरण के अनुसार गाँव वालों से निपटने में अंग्रेजों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा?
उत्तर:
इस विवरण के अनुसार गाँव के लोगों से निपटने में अंग्रेजों के सामने निम्नलिखित मुश्किलें आई –

  • अवध के गाँव के लोगों ने अपनी संचार व्यवस्था मजबूत कर रखी थी। उन्हें अंग्रेजों के आने की खबर तुरन्त मिल जाती थी।
  • वे स्थान छोड़कर तितर-बितर हो जाते थे, जिससे अंग्रेज उन्हें पकड़ नहीं पाते थे।
  • गाँव वाले पल में एकजुट हो जाते थे तथा पल में बिखर जाते थे।
  • गाँव वाले बहुत बड़ी संख्या में थे तथा उनके पास बन्दूकें भी थीं।

पृष्ठ संख्या 311

प्रश्न 10.
तस्वीर से क्या सोच निकलती है? शेर और चीते की तस्वीरों के माध्यम से क्या कहने का प्रयास किया गया है? औरत और बच्चे की तस्वीर क्या दर्शाती है?
उत्तर:
इस तस्वीर से ब्रिटिश शासन द्वारा विद्रोहियों से बदला लेने की सोच का पता लगता है। शेर ब्रिटिश बंगाल टाइगर भारतीय विद्रोही शासन का प्रतीक है और का प्रतीक है। इस चित्र के माध्यम से अंग्रेजों को भारतीयों पर आक्रमण करते हुए और उनका दमन करते गया है। स्त्री तथा बच्चे चीते के नीचे दबे -हैं, जो यह बताते हैं कि स्त्री और बच्चे अत्याचारों के शिकार हुए थे।

Jharkhand Board Class 12 History विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान  Text Book Questions and Answers

उत्तर दीजिए ( लगभग 100 से 150 शब्दों में ) –

प्रश्न 1.
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व सँभालने के लिए पुराने शासकों से क्या आग्रह किया?
उत्तर:
1857 के विद्रोह में अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए विद्रोहियों के पास न कोई सर्वमान्य नेता था और न ही कोई संगठन था। 1857 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह में नेतृत्व तथा संगठन की अति आवश्यकता थी। इसलिए विद्रोहियों ने ऐसे लोगों का नेतृत्व प्राप्त किया, जो अंग्रेजों से पहले नेताओं की भूमिका निभाते थे और जनता में बहुत लोकप्रिय थे।

1. दिल्ली में विद्रोहियों ने बड़े हो चुके मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर से अपना नेतृत्व करने की दरख्वास्त की, जिसे बहादुरशाह ने ना-नुकर के बाद मजबूरी में स्वीकार किया। परन्तु बहादुरशाह ने नाममात्र के लिए ही विद्रोहियों का नेता बनना स्वीकार किया था।

2. कानपुर में विद्रोहियों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब से नेतृत्व करने का आग्रह किया। विद्रोहियों के दबाव में नाना साहिब ने नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया।

3. झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई को आम जनता के दबाव के कारण बगावत की बागडोर सम्भालनी पड़ी।

4. बिहार में आरा के स्थानीय जमींदार कुँवरसिंह ने विद्रोह की बागडोर सम्भाली।

5. अवध (लखनऊ) में लोगों ने पदच्युत नवाव वाजिद अली शाह के युवा बेटे बिरजिस कद्र को अपना नेता घोषित किया।

6. कुछ स्थानों पर स्थानीय नेताओं ने भी विद्रोहियों का नेतृत्व किया।

प्रश्न 2.
उन साक्ष्यों के बारे में चर्चा कीजिए जिनसे पता चलता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और संगठित ढंग से काम कर रहे थे।
उत्तर:
विद्रोही योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे थे। कुछ स्थानों पर शाम के समय तोप का गोला दागा गया तो कहीं बिगुल बजाकर विद्रोह का संकेत दिया गया। हिन्दुओं और मुसलमानों को एकजुट होने और अंग्रेजों का सफाया करने के लिए हिन्दी, उर्दू तथा फारसी में अपीलें जारी की गई। विभिन्न छावनियों के सिपाहियों के बीच अच्छा संचार बना हुआ था। विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टेन हियसें की सुरक्षा का दायित्व भारतीय सैनिकों पर था जहाँ कैप्टेन हिवर्से तैनात था, वहीं 41वीं नेटिव इन्फेन्ट्री भी तैनात थी।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

इन्फेन्ट्री का कहना था कि चूंकि वे अपने समस्त गोरे अफसरों को समाप्त कर चुके हैं, इसलिए अवध मिलिट्टी को या तो हियर्स का वध कर देना चाहिए या उसे बन्दी बनाकर 41वीं नेटिव इन्फेन्ट्री को सौंप देना चाहिए। जब मिलिट्री पुलिस ने इन दोनों बातों को अस्वीकार कर दिया, तो इस मामले के समाधान के लिए हर रेजीमेन्ट के देशी अफसरों की एक पंचायत बुलाए जाने का निश्चय किया गया। ये पंचायतें रात को कानपुर सिपाही लाइन में जुटती थीं इसका अर्थ यह है कि सामूहिक रूप से निर्णय होते थे।

प्रश्न 3.
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद तक भूमिका थी?
अथवा
1857 के विद्रोह को भड़काने में धार्मिक अवस्थाओं की भूमिका पर टिप्पणी कीजिये।
उत्तर:
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।
(1) चर्बी वाले कारतूस – सैनिकों को एनफील्ड राइफलें चलाने के लिए दी गयीं, जिनके कारतूसों में चिकनाई लगी होती थी और चलाने से पहले उन्हें दाँतों द्वारा काटना पड़ता था। इस चिकनाई के बारे में कहा गया कि वह गाय और सुअर की चर्बी थी। इस बात से हिन्दू और मुसलमान दोनों सैनिकों ने स्वयं को अंग्रेजों द्वारा धर्मभ्रष्ट करने का षड्यन्त्र समझा और कारतूसों को चलाने से मना कर दिया।

(2) आटे में हड्डियों का चूरा मिला होना बाजार में जो आटा बिक रहा था, उसके बारे में भी यह कहा गया कि इसमें गाय और सुअर की हडियों को पीसकर मिलाया गया है, जो अंग्रेजों द्वारा धर्मभ्रष्ट करने की साजिश थी। शहरों और छावनियों में सिपाहियों और आम लोगों लॉ लागू कर दिया गया। अपितु फौजी अफसरों तथा आम अंग्रेजों को भी ऐसे हिन्दुस्तानियों पर मुकदमा चलाने तथा उनको दण्ड देने का अधिकार दे दिया गया। मार्शल लॉ के अन्तर्गत कानून और मुकदमों की सामान्य प्रक्रिया रद्द कर दी गई थी तथा यह स्पष्ट कर दिया गया था कि विद्रोह की केवल एक ही सजा है— मृत्यु दण्ड

(3) वहशत फैलाना जनता में दहशत फैलाने के लिए विद्रोहियों को सरेआम फाँसी पर लटकाया गया और तोपों के मुँह से बांधकर उड़ा दिया गया।

(4) आम अंग्रेजों को सजा का अधिकार देना- फौजी अफसरों के अतिरिक्त आम अंग्रेजों को भी विद्रोहियों को सजा देने का अधिकार दे दिया गया। विद्रोह की एक ही सजा भी सजा-ए-मौत।

(5) सैन्य शक्ति का प्रयोग 1857 के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने अत्यन्त ही बर्बरतापूर्ण सैनिक कार्य किए। अंग्रेज अधिकारियों ने दिल्ली में बहादुरशाह के उत्तराधिकारियों का बेरहमी से सर कलम कर दिया जबकि बनारस तथा इलाहाबाद में कर्नल नील ने अत्यधिक बर्बरतापूर्ण विद्रोह का दमन किया। अंग्रेजों ने सैन्य शक्ति का प्रयोग करते हुए दिल्ली और अवध पर अधिकार कर लिया।

(6) जागीरें जब्त करना विद्रोही जागीरदारों तथा ताल्लुकदारों की जागीरें जब्त कर ली गई तथा अपने समर्थक जमींदारों को उनकी जागीरें लौटाने का आश्वासन दिया। स्वामिभक्त जमींदारों को पुरस्कार दिए गए। निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में) –

प्रश्न 6.
अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? किसान, ताल्लुकदार और जमींदार उसमें क्यों शामिल हुए?
उत्तर:
अवध का विलय – 1856 में अंग्रेजों ने अवध का अधिग्रहण कर लिया और वहाँ के नवाब वाजिद अली शाह पर कुशासन एवं अलोकप्रियता का आरोप लगाकर उन्हें गद्दी से हटाकर कलकत्ता भेज दिया। अवध में विद्रोह की व्यापकता – अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये जाने से अवध की जनता में आक्रोश व्याप्त था अवध का नाय जनता में अत्यधिक लोकप्रिय था और लोग उन्हें दिल से चाहते थे नवाब को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी समाप्त हो गई।

इसके अतिरिक कई संगीतकारों, कवियों, नर्तकों, कारीगरों, सरकारी कर्मचारियों आदि की रोजी-रोटी भी जाती रही। 1857 के विद्रोह में तमाम भावनाएँ और मुद्दे, परम्पराएं और निष्ठाएँ अभिव्यक्त हो रही थीं। इसलिए बाकी स्थानों के मुकाबले अवध में यह विद्रोह एक विदेशी शासन के खिलाफ लोक-प्रतिरोध की अभिव्यक्ति बन गया था। यही कारण है कि अवध का विद्रोह भारत में सबसे अधिक लम्बे समय तक चला तथा इसका रूप बहुत ही व्यापक था इसमें राजकुमार, ताल्लुकदार, किसान, जमींदार तथा सैनिक सभी वर्ग शामिल थे।

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(1) ताल्लुकदारों का विद्रोह-अवध में ताल्लुकदार बहुत ताकतवर थे तथा नवाब के द्वारा भी उन्हें व्यापक अधिकार प्राप्त थे अंग्रेजों ने नवाब को पदच्युत करने के साथ ताल्लुकदारों को भी बेदखल करना शुरू कर दिया था। उनकी सेनाएँ भंग कर दी थीं, किले ध्वंस कर दिये थे तथा उनकी जमीनों को छीन लिया था।

अंग्रेज ताल्लुकदारों को विचौलिया मानते थे कि उन्होंने बल और धोखाधड़ी के जरिए अपना प्रभुत्व स्थापित कर रखा था इसलिए अंग्रेजों ने अधिग्रहण के बाद 1856 में एकमुस्त बन्दोबस्त के नाम से ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था लागू कर ताल्लुकदारों को जमीनों से बेदखल करना शुरू कर दिया था। इस प्रकार इस व्यवस्था ने ताल्लुकदारों की हैसियत और सत्ता को चोट पहुँचाई थी और ताल्लुकदारों की सत्ता नष्ट होने के कारण उन्होंने विद्रोह किया।

(2) जमींदारों का विद्रोह – जमींदारों की दशा भी दयनीय थी। राजस्व कर बहुत अधिक था तथा निर्धारित लगान की राशि न चुकाने पर उनकी जागीरें नीलाम कर दी जाती थीं। रैयत द्वारा शिकायत करने पर उन पर मुकदमा चलाया जाता था तथा उन्हें गिरफ्तार करके कारावास में डाल दिया जाता था। इससे जमींदारों की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचा और वे भी 1857 के विद्रोह में सम्मिलित हो गए।

(3) किसानों का विद्रोह-अवध में ताल्लुकदारों की सत्ता समाप्त करने के लिए भू-राजस्व की एकमुश्त व्यवस्था लागू की गई। इसके बारे में अंग्रेजों की सोच भी कि इससे किसान को मालिकाना हक मिल जायेगा तथा कम्पनी के भू-राजस्व में भी बढ़ोतरी हो जायेगी। कम्पनी के राजस्व में तो इजाफा हुआ, लेकिन किसान की हालत पहले से भी ज्यादा खराब हो गई।

अंग्रेजों के राज में किसान मनमाने राजस्व आकलन तथा गैर लचीली राजस्व व्यवस्था के कारण बुरी तरह से पिसने लगे थे। किसान सोचने लगा कि बुरे वक्त में जहाँ ताल्लुकदार उसकी मदद करते थे, अब अंग्रेजों के राज में यह नहीं हो पायेगा। अब इस बात की कोई गारण्टी नहीं थी कि कठिन समय में अथवा फसल खराब हो जाने पर सरकार राजस्व की माँग में कोई कमी करेगी या वसूली को कुछ समय के लिए स्थगित कर देगी। फलतः बढ़ते राजस्व और गरीबी के कारण किसानों ने 1857 के विद्रोह में सक्रिय भाग लिया।

प्रश्न 7.
विद्रोही क्या चाहते थे? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में कितना फर्क था?
अथवा
1857 में विद्रोहियों की घोषणाओं का परीक्षण कीजिये। विद्रोही भारत में अंग्रेजी राज से सम्बन्धित प्रत्येक चीज का परित्याग क्यों करते थे? व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
1857 के विद्रोह के बारे में हमारे पास विद्रोहियों के कुछ इश्तहार व घोषणाएँ और नेताओं के पत्र हैं, जिनसे उनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल पाती है। उनके आधार पर हम यह ज्ञात कर सकते हैं कि विद्रोही क्या चाहते थे? यथा –

(1) विद्रोही सामाजिक एकता को स्थापित कर जनविद्रोह चाहते थे 1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी की गई घोषणाओं में, जाति और धर्म का भेद किए बिना, समाज के सभी वर्गों का आह्वान किया जाता था। इस विद्रोह को एक ऐसे युद्ध के रूप में पेश किया जा रहा था, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों का नफा- नुकसान बराबर था इश्तहारों में अंग्रेजों से पहले के हिन्दू- मुस्लिम अतीत की ओर संकेत किया जाता था और मुगल साम्राज्य के तहत विभिन्न समुदायों के सहअस्तित्व का गौरवगान किया जाता था।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

(2) ब्रिटिश शासन की नीतियों की कटु आलोचना- इन घोषणाओं में ब्रिटिश राज से सम्बन्धित हर चीज को पूरी तरह खारिज किया जा रहा था। देशी रियासतों पर कब्जे और समझौतों का उल्लंघन करने के लिए अंग्रेजों की निन्दा की जाती थी विद्रोही नेताओं का कहना था कि अंग्रेजों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था, विदेशी व्यापार आदि ब्रिटिश शासन के हर पहलू पर निशाना साधा जाता था। विद्रोही अपनी स्थापित और सुन्दर जीवनशैली को दुबारा बहाल करना चाहते थे। वे चाहते थे कि सभी लोग मिलकर अपने रोजगार, धर्म, इज्जत और अस्मिता के लिए लड़ें।

(3) उत्पीड़न के प्रतीकों के खिलाफ बहुत सारे स्थानों पर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह उन तमाम ताकतों के विरुद्ध हमले की शक्ल ले लेता था जो अंग्रेजों के समर्थक या जनता के उत्पीड़क समझे जाते थे। इन शक्तियाँ में शहर के सम्भ्रान्त लोग, सूदखोर आदि शामिल थे। स्पष्ट है कि विद्रोही तमाम उत्पीड़कों के खिलाफ थे और ऊँच- नीच के भेद-भावों को खत्म करना चाहते थे।

(4) ब्रिटिश पूर्व दुनिया की पुनर्स्थापना – विद्रोही नेता 18वीं सदी की पूर्व ब्रिटिश दुनिया को पुनर्स्थापित करना चाहते थे। इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया। आजमगढ़ घोषणा तथा विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में गुणात्मक अन्तर की नगण्यता- 25 अगस्त, 1857 को मुगल सम्राट बहादुरशाह के द्वारा जारी की गई आजमगढ़ घोषणा में विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि का अन्तर देखने को मिलता है।

यथा –

  • जमींदार वर्ग-जमींदार वर्ग राजस्व कर में कमी, अपने हितों की रक्षा और सम्मानपूर्ण व्यवहार की आकांक्षा रखता था।
  • व्यापारी वर्ग-व्यापारी वर्ग बहुमूल्य वस्तुओं के व्यापार पर अंग्रेजों के एकाधिकार की समाप्ति, अनुचित करों की समाप्ति और सम्मानपूर्ण व्यवहार की इच्छा रखता था।
  • सरकारी कर्मचारी – सरकारी कर्मचारी उच्च प्रशासनिक एवं सैनिक पदों पर नियुक्ति चाहते थे। वे चाहते थे कि उन्हें अच्छे वेतन दिए जाएँ।
  • कारीगरों के बारे में कारीगर चाहते थे कि घरेलू उद्योग-धन्धों को नष्ट न किया जाए तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाए।
  • धर्मरक्षकों के बारे में पण्डित और फकीर चाहते थे कि ईसाई धर्म प्रचारक हिन्दु धर्म एवं इस्लाम धर्म का उपहास न करें और इन धर्मों का सम्मान करें।
  • सिपाहियों की सोच सैनिक चाहते थे कि उनकी आस्था एवं धर्म पर कुठाराघात न किया जाए। यदि एक हिन्दू या मुसलमान का धर्म ही नष्ट हो गया, तो दुनियाँ में कुछ नहीं बचेगा।

इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समाज के सभी वर्गों का यह मानना था कि अंग्रेज उत्पीड़क थे व उनके धर्म को नष्ट करना चाहते थे अतः उनको देश से बाहर निकाल देना चाहिए। सभी वर्गों की सोच में कोई विशेष अन्तर देखने को नहीं मिलता है।

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से क्या पता चलता है? इतिहासकार इन चित्रों का किस तरह विश्लेषण करते हैं?
उत्तर:
अंग्रेजों और भारतीयों द्वारा तैयार की गई तस्वीरें सैनिक विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण रिकार्ड रही हैं। इन चित्रों के द्वारा हमें 1857 के विद्रोह की घटनाओं की जानकारी मिलती है।

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1. रक्षकों का अभिनन्दन – अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कुछ चित्रों में अंग्रेजों की रक्षा करने वाले तथा विद्रोह को कुचलने वाले अंग्रेज नायकों की प्रशंसा की गई है। 1859 में विद्रोह के 2 साल बाद टॉमस जोन्स बार्कर के द्वारा बनाया गया चित्र ‘द रिलीफ आफ लखनऊ इसी प्रकार का चित्र है। बार्कर की इस पेन्टिंग में अंग्रेजों को विजय का जश्न मनाते हुए दिखाया गया है। अगले यह चित्र विद्रोहियों द्वारा लखनऊ रेजीडेन्सी के घेरे जाने से सम्बन्धित है। इसके भाग में शव और घायल इस घेरेबंदी के दौरान हुई मारकाट की गवाही देते हैं। मध्य भाग में घोड़ों की विजयी तस्वीरें हैं। इन चित्रों के द्वारा अंग्रेज जनता का अपनी सरकार में विश्वास पैदा होता था।

2. अंग्रेज औरतें तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा भारत में अंग्रेज औरतों और बच्चों के साथ हुई हिंसा की घटनाओं को पढ़कर ब्रिटेन की जनता प्रतिशोध और पाठ सिखाने की माँग करने लगती थी। वहाँ के चित्रकारों ने सदमे और पीड़ा को चिरात्मक अभिव्यक्तियों के द्वारा प्रकट किया। ऐसा ही एक चित्र जोजफ नोएल पेटन ने विद्रोह के दो साल बाद ‘इन मेमोरियम’ बनाया। इसमें विद्रोहियों को हिंसक तथा बर्बर बताया गया है।

3. बहादुर औरतें – चित्र संख्या 11.12 पृष्ठ 310 में कानपुर में मिस व्हीलर को विद्रोहियों से स्वयं की रक्षा करते हुए दिखाया गया है जिसमें वह अकेले ही विद्रोहियों को पिस्तौल से मारकर अपने सम्मान की रक्षा करती है। यहाँ पर अंग्रेज महिला को वीरता की मूर्ति के रूप में दिखाया गया है। चित्र में जमीन पर पड़ी हुई किताब बाइबल है।

4. प्रतिशोध और सबक ऐसे कई चित्र ब्रिटिश प्रेस ने प्रकाशित किए जो निर्मम दमन और हिंसक प्रतिशोध की जरूरत पर जोर दे रहे थे। ‘जस्टिस’ (‘न्याय’) नामक चित्र में हमें ऐसी ही झलक दिखाई देती है, जिसमें एक अंग्रेज औरत हाथ में तलवार और ढाल लिए हुए विद्रोहियों को अपने पैरों से कुचल रही है, उसके चेहरे पर भयानक गुस्सा और प्रतिशोध की तड़प दिखाई पड़ती है। दूसरी और, इसमें भारतीय औरतों और बच्चों की भीड़ डर से काँप रही है। चित्र ‘बंगाल टाइगर से ब्रिटिश शेर का प्रतिशोध’ में अंग्रेजों के भारतीयों पर दमनात्मक कार्य की झलक मिलती है।

5. दहशत का प्रदर्शन – जनता को भयभीत करने के लिए तथा विद्रोही सैनिकों को सबक सिखाने हेतु उन्हें खुले मैदान में तोपों से उड़ाते हुए तथा फाँसी देते हुए चित्रित किया गया है।

6. उदारवादी दृष्टिकोण की आलोचना करना – एक चित्र में लार्ड कैनिंग को ब्रिटिश पत्रिका पंच के एक उदार बुजुर्ग के रूप में दर्शाया गया है। इस चित्र में ब्रिटिश चित्रकार के द्वारा केनिंग के दया भाव की आलोचना की गई है।

7. राष्ट्रवादी दृश्य भारतीय चित्रकारों द्वारा विद्रोह के नेताओं के जो चित्र बनाए गए हैं, उनमें ब्रिटिश शासन के अन्याय को दृढ़ता के साथ प्रदर्शित किया गया है।

8. इतिहासकारों का विश्लेषण – इन चित्रों के माध्यम से उस समय की भावनाओं का पता चलता है। ब्रिटेन में छप रहे चित्रों से उत्तेजित वहाँ की जनता विद्रोहियों को भयानक बर्बरता से कुचलने की आवाज उठा रही थी। दूसरी तरफ, भारतीय राष्ट्रवादी चित्र हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को निर्धारित करने में मदद कर रहे थे।

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प्रश्न 9.
एक चित्र और एक लिखित पाठ को चुनकर किन्हीं दो स्त्रोतों की पड़ताल कीजिए और इस बारे में चर्चा कीजिए कि उनसे विजेताओं और पराजितों के दृष्टिकोण के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
किन्हीं दो स्रोतों की पड़ताल के लिए हम पृष्ठ संख्या 308 पर चित्र संख्या 11.10 पर बने चित्र द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ (लखनऊ की राहत को ले रहे हैं, जिसको चित्रकार टॉमस जोन्स बार्कर ने 1859 में बनाया था। इस चित्र में बार्कर ने ब्रिटिश कमाण्डर कैम्पबेल के आगमन के समय का चित्रण किया है। चित्र के मध्य में कैम्पबेल, ऑट्रम और हेवलॉक तीन नायकों को विजय का जश्न मनाते दिखाया गया है। नायकों के पीछे की ओर टूटी-फूटी लखनऊ रेजीडेंसी को दिखाया गया है।

अगले भाग में पड़े शव और घायल इस पेरेबन्दी के दौरान हुई मारकाट को दिखाते हैं। चित्र के मध्य भाग में खड़े थोड़े इस तथ्य को प्रदर्शित करते हैं कि अब ब्रिटिश सत्ता और नियन्त्रण पुनः बहाल हो गया है। इन चित्रों से अंग्रेज जनता में अपनी सरकार के प्रति विश्वास पैदा होता था। इन चित्रों के द्वारा उन्हें लगता था कि अब संकट का समय जा चुका है और वे जीत चुके हैं।

इसी तरह के चित्रों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने अपनी दृढ़ता और अपराजयता को प्रदर्शित किया तथा अपनी जनता में विश्वास जगाया। विद्रोह की छवि ब्रिटिश और भारतीय जनता दोनों ने विद्रोह को अपनी-अपनी नजर से देखा। विजेताओं की दृष्टि विद्रोहियों ने विद्रोह करके ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी, जिसे कुचलना शासन का फर्ज बनता था और शासन ने पुनः शान्ति स्थापित करने की जो भी कार्यवाही की, वह उचित है। भारतीयों की दृष्टि इस चित्र के द्वारा विद्रोहियों ने यह दर्शाया कि वे ब्रिटिश सरकार के अत्याचारपूर्ण शासन का अन्त करने के लिए कटिबद्ध थे। उन्होंने अपने सीमित साधनों के बल पर भी शक्तिशाली अंग्रेजों को पराजित कर लखनऊ रेजीडेन्सी पर अधिकार कर लिया। इससे विद्रोहियों के पराक्रमपूर्ण कार्यों, देश-प्रेम, त्याग और बलिदान की भावना प्रकट होती है इसने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया।

विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान JAC Class 12 History Notes

→ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में दोपहर बाद पैदल सेना ने विद्रोह कर दिया। उसके बाद घुड़सवार सेना ने बगावत की। 11 मई को घुड़सवार सेना ने दिल्ली पहुँचकर मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर से विद्रोह का नेतृत्व करने की गुजारिश की, जिसे बादशाह ने और कोई विकल्प न पाकर स्वीकार कर लिया। इस प्रकार विद्रोह ने मुगल बादशाह के नाम के साथ वैधता हासिल कर ली।

→ विद्रोह का ढर्रा – हर छावनी में विद्रोह का घटनाक्रम एक समान ही था। जैसे-जैसे खबर फैलती गई, सिपाही विद्रोह करते गये।

I सैन्य विद्रोह की शुरुआत सिपाहियों ने किसी न किसी विशेष संकेत के साथ अपनी कार्रवाई शुरू की। कहीं बिगुल बजाया गया और कहीं तोप का गोला छोड़ा गया। सबसे पहले शस्त्रागारों को लूटा गया और सरकारी खजानों पर कब्जा किया गया; सरकारी दफ्तर, जेल, टेलीग्राफ दफ्तर, रिकार्ड रूम और बंगलों पर हमला किया गया। विद्रोह में आम लोगों के भी शामिल हो जाने से बड़े शहरों में साहूकारों तथा अमीरों पर भी हमले हुए क्योंकि आम जनता उन्हें अंग्रेजी शासन का वफादार और पिट्टू मानती थी।

II संचार के माध्यम अलग-अलग जगह पर विद्रोह के ढर्रे में समानता की वजह आंशिक रूप से उसकी योजना और समन्वय में निहित थी। यथा –

  • एक छावनी से दूसरी छावनी में सिपाहियों के बीच अच्छा संचार बना हुआ था।
  • विद्रोहों में एक योजना और समन्वय था।
  • रात में सिपाहियों की पंचायतें जुड़ती थीं और उनमें सामूहिक रूप से फैसले लिये जाते थे।
  • सिपाही अपने विद्रोह के कर्ता-धर्ता स्वयं ही थे जब वे एकत्र होते थे, तो अपने भविष्य के बारे में फैसले लेते थे।

III. नेता और अनुयायी-अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए नेता और संगठन का होना अतिआवश्यक था।

  • विद्रोहियों ने कई बार ऐसे लोगों की शरण ली, जो अंग्रेजों से पहले नेताओं की भूमिका निभाते थे। जैसे- दिल्ली में मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर, कानपुर में नाना साहिब, झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई, बिहार में जमींदार कुँवरसिंह, लखनऊ में नवाब के बेटे बिरजिस कद्र को अपना नेता घोषित किया। इन लोगों ने दबाव में अन्य विकल्प न होने पर नेतृत्व स्वीकार किया।
  • आम जनता द्वारा भी नेतृत्व किया गया। जैसे – बहुत सारे धार्मिक नेता तथा स्वयं भू पैगम्बर- प्रचारक भी ब्रिटिश राज्य को खत्म करने की अलख जगा रहे थे।
  • कई स्थानीय नेताओं, जैसे – उत्तरप्रदेश के बड़ौत परगने में शाहमल ने तथा छोटा नागपुर में आदिवासी कोल जाति का नेतृत्व गोनू नामक व्यक्ति ने किया।

IV. अफवाहें और भविष्यवाणियाँ – विद्रोह के समय में तरह-तरह की अफवाहों और भविष्यवाणियों ने जनता को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उठ खड़े होने को उकसाया। जैसे –
(क) कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगे होने की बात से सिपाहियों को भड़काना।
(ख) बाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिला होना।
(ग) इस भविष्यवाणी ने भी लोगों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया कि प्लासी के युद्ध के 100 साल पूरे होते ही 23 जून, 1857 को अंग्रेजी राज खत्म हो जायेगा।
(घ) गाँव-गाँव में चपातियाँ बाँटी गई। रात में एक आदमी गाँव के चौकीदार को एक चपाती देकर पाँच और चपातियाँ बनाकर अगले गाँवों में पहुँचाने का निर्देश दे जाता था। लोग इसे किसी आने वाली उथल-पुथल का संकेत मान रहे थे।
V. लोगों द्वारा अफवाहों में विश्वास- अफवाहें तभी फैलती हैं, जब उनमें लोगों के दिमाग और मन के अन्दर छिपे हुए डर की आवाज सुनाई देती है।

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1857 की अफवाहों के विश्वास के पीछे 1820 के दशक से अंग्रेजों द्वारा किए गए अनेक कार्य थे यथा –

  • सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करना एवं विधवा विवाह को कानूनी जामा पहनाना।
  • अंग्रेजी माध्यम के स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलना।
  • शासकीय कमजोरी और दत्तकता को अवैध घोषित करके अंग्रेजों द्वारा अवध, झाँसी, सतारा तथा अन्य रियासतों को कब्जे में लेना तथा अंग्रेजी ढंग की शासन व्यवस्था लागू करना।
  • सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाजों में दखल देना।
  • नई भू-राजस्व व्यवस्था लागू करना।
  • ईसाई प्रचारकों द्वारा हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के विरुद्ध अनर्गल प्रचार करना। इन कार्यों व नीतियों से लोगों में यह भय व्याप्त हो गया कि अंग्रेज भारत में ईसाई धर्म फैलाना चाह रहे हैं। इसलिए उन्होंने अफवाहों तथा भविष्यवाणियों को ज्यादा महत्त्व दिया।

→ अवध में विद्रोह सन् 1801 से अवध में सहायक संधि थोपी गई, जिसके कारण नवाब की शक्ति कमजोर होती गई। ताल्लुकदार और विद्रोही मुखिया नवाब के नियंत्रण में नहीं रहे। 1850 के दशक की शुरुआत तक भारत के अधिकांश हिस्सों पर अंग्रेजों को जीत हासिल हो गई थी। मराठा भूमि, दोआय, पंजाब, बंगाल सब अंग्रेजों के कब्जे में थे। 1856 में अवध को भी औपचारिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य का अंग घोषित कर दिया।

I “देह से जान जा चुकी थी डलहौजी द्वारा अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर कुशासन और अलोकप्रियता का आरोप लगाकर उन्हें गद्दी से हटाकर कलकता भेज दिया गया। लेकिन बजिद अली शाह अलोकप्रिय नहीं थे बल्कि लोकप्रिय थे इसीलिए जब नवाब को लखनऊ से कानपुर ले जाया जा रहा था, तो बहुत सारे लोग उनके पीछे विलाप करते हुए कानपुर तक गये प्रथमतः, नवाब के निष्कासन से दुःख और अपमान का एहसास हुआ। दूसरे, नवाब के हटाये जाने से दरबार और उसकी संस्कृति खत्म हो गयी। तीसरे, संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोजी-रोटी चली गई।

II फिरंगी राज का आना तथा एक दुनिया की समाप्ति अवध में विभिन्न प्रकार की पीड़ाओं से राजकुमार, ताल्लुकदार, किसान एवं सिपाही एक-दूसरे से जुड़ गये थे वे सभी फिरंगी राज के आगमन को विभिन्न अर्थों में एक दुनिया की समाप्ति के रूप में देखने लगे थे अंग्रेजी सत्ता की स्थापना से सभी के सामने संकट पैदा हो गया था। यथा –

  • ताल्लुकदारों की शक्ति को नष्ट करने के लिए उन्हें जमीन से बेदखल किया गया। उनकी सेना व किले नष्ट कर दिए गए।
  • किसानों पर कर का बोझ बहुत ज्यादा लाद दिया गया।
  • दस्तकारों और कारीगरों के सामने जीवनयापन का संकट पैदा हो गया क्योंकि अंग्रेजी माल के आने से उनकी रोजी-रोटी छिन गई।
  • ताल्लुकदारों की सत्ता छिनने से एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई।
  • सिपाहियों को कम वेतन मिलता था तथा समय पर छुट्टियाँ भी नहीं मिलती थीं। इन कारणों से सिपाही भी असन्तुष्ट थे विद्रोह से पूर्व सैनिकों और गोरे अफसरों के बीच मैत्रीपूर्ण व्यवहार था लेकिन 1840 के दशक में यह व्यवहार बदलने लगा। अफसर सैनिकों के साथ बदसलूकी करने लगे थे। दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी थीं।
  • उत्तर भारत में सिपाहियों और ग्रामीणों के बीच गहरे सम्बन्ध थे। इन सम्बन्धों से जन-विद्रोह के रूप-रंग पर गहरा असर पड़ा।

3. विद्रोही क्या चाहते थे?
विद्रोहियों के कुछ इश्तहारों व घोषणाओं से हमें विद्रोहियों के बारे में जो थोड़ी जानकारी ही प्राप्त हो पाती है, वह इस प्रकार है-
(i) एकता की कल्पना – 1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी की गई घोषणाओं में जाति या धर्म का भेद किए बिना आम आदमी का आह्वान किया जाता था। बहादुरशाह जफर के नाम से जारी घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई देते हुए आम जनता को विद्रोह में शामिल होने के लिए आह्वान किया गया। 25 अगस्त, 1857 को जारी की गई आजमगढ़ घोषणा इसका उदाहरण है।

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(ii) उत्पीड़न के प्रतीकों के खिलाफ विद्रोहियों द्वारा की गई घोषणाओं में उन सब चीजों की खिलाफत की जा रही थी, जो ब्रिटिश राज से सम्बन्धित थीं। विद्रोही नेताओं का मानना था कि अंग्रेजों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वे एकत्र होकर अपने रोजगार, धर्म, इज्जत और अस्मिता के लिए लड़ें। यह ‘व्यापक सार्वजनिक भलाई’ की लड़ाई होगी। बहुत जगहों पर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह उन तमाम ताकतों के खिलाफ हमले का रूप धारण कर लेता था, जिन्हें अंग्रेजों का हिमायती या जनता का उत्पीड़क माना जाता था। गाँवों में सूदखोरों के बहीखाते जला दिए गए, उनके घरों में तोड़-फोड़ की गई। इससे स्पष्ट होता है कि विद्रोही तमाम उत्पीड़कों के खिलाफ थे और ऊँच-नीच के परम्परागत सोपानों को खत्म करना चाहते थे।

(iii) वैकल्पिक सत्ता की तलाश- ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के बाद दिल्ली, लखनऊ और कानपुर में विद्रोहियों द्वारा एक प्रकार की सत्ता और शासन संरचना को स्थापित करने का प्रयास किया गया। उनकी इन कोशिशों से हमें ज्ञात होता है कि वे 18वीं शताब्दी से पूर्व की सत्ता स्थापित करना चाहते थे विद्रोही अठारहवीं सदी के मुगल जगत् से ही प्रेरणा ले रहे थे। यह जगत् उन तमाम चीजों का प्रतीक बन गया, जो उनसे छिन चुकी थीं। विद्रोहियों द्वारा स्थापित शासन संरचना का प्राथमिक उद्देश्य युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करना था लेकिन अधिकांश मामलों में ये अंग्रेजों का मुकाबला करने में असफल सिद्ध हुई अंग्रेजों के खिलाफ अवध में विद्रोह सबसे अधिक समय तक चला।

→ दमन-अंग्रेजों को इस विद्रोह को दबाने में बहुत ताकत का प्रयोग करना पड़ा। यथा –

  • मई-जून, 1857 में कई कानून पारित किए गए, जिनके आधार पर सम्पूर्ण उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू किया गया। फौजी अफसरों के अलावा आम अंग्रेजों को भी हिन्दुस्तानियों को सजा देने का हक दे दिया गया। कानून और मुकदमे की साधारण प्रक्रिया बन्द कर दी गई और यह स्पष्ट कर दिया गया कि विद्रोह की केवल एक ही सजा हो सकती है – सजा-ए-मौत।
  • नये कानूनों और ब्रिटेन से मँगाई गई नयी सैनिक टुकड़ियों की मदद से विद्रोह को कुचलने का काम शुरू किया गया।
  • अंग्रेजों ने सैनिक ताकत के प्रयोग के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के भू-स्वामियों की ताकत को कुचलने के लिए कूटनीति अपनाई। उन्होंने बड़े जमींदारों को आश्वासन दिया कि अंग्रेजों का साथ देने पर उन्हें उनकी जागीरें लौटा दी जायेंगी। अंग्रेजों के प्रति बफादारी दिखाने वालों को पुरस्कृत किया गया तथा विद्रोह करने वाले जमींदारों से उनकी जमीनें छीन ली गई।

→ विद्रोह की छवियाँ – ब्रिटिश अखबारों और पत्रिकाओं में इस विद्रोह की जो कहानियाँ छपी हैं, उनमें सैनिक विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा को बड़े लोमहर्षक शब्दों में छापा जाता था ये कहानियाँ ब्रिटेन की जनता की भावनाओं को भड़काती थीं तथा प्रतिशोध और सबक सिखाने की माँगों को हवा देती थीं। समस्त उपलब्ध तथ्यों के आधार पर विद्रोहियों की निम्नलिखित छवियाँ उभरती हैं –

(i) रक्षकों का अभिनन्दन- अंग्रेजों ने विद्रोह के जो चित्र बनाए हैं, वे दो प्रकार के हैं – कुछ में अंग्रेजों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज नायकों का गुणगान किया गया है। कुछ चित्रों में यह दिखाया गया है कि अब ब्रिटिश सत्ता और नियंत्रण बहाल हो चुका है। इनसे यह लगता है कि विद्रोह खत्म हो चुका हैं और अंग्रेज जीत चुके हैं।

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(ii) अंग्रेज औरतें तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा – भारत में औरतों और बच्चों के साथ हुई हिंसा की कहानियों को पढ़कर ब्रिटेन की जनता प्रतिशोध और सबक सिखाने की मांग करने लगी। कलाकारों ने सदमे और पीड़ा की अपनी विशत्मक अभिव्यक्तियों के द्वारा इन भावनाओं को रूप दिया। इन चित्रों में भी विद्रोहियों को हिंसक और बर्बर बताया गया है और ब्रिटिश टुकड़ियों को रक्षक के तौर पर बढ़ते हुए तथा अंग्रेज औरतों को विद्रोहियों के हमले से बचाव करने वाली वीरता की मूर्ति के रूप में दिखाया गया है।

(iii) प्रतिशोध और सबक – जैसे-जैसे ब्रिटेन में गुस्से और शोक का माहौल बनता गया, वैसे-वैसे लोगों में प्रतिशोध और सबक सिखाने की मांग जोर पकड़ने लगी। ब्रिटिश प्रेस में असंख्य दूसरी तस्वीरें और कार्टून थे, जो निर्मम दमन और हिंसक प्रतिशोध की जरूरत पर जोर दे रहे थे।

(iv) दहशत का प्रदर्शन – प्रतिशोध और सबक सिखाने के लिए विद्रोहियों को खुले में फांसी पर लटकाया गया तथा तोपों के मुहाने पर बाँध कर उड़ाया गया, जिससे लोगों में दहशत फैले। इन सजाओं की तस्वीरें आम पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा दूर-दूर तक पहुँचाई गई, जिससे ब्रिटिश शासन की अपराजेयता में लोगों का विश्वास पैदा हो सके।

(v) दया के लिए कोई जगह नहीं-गवर्नर जनरल लॉर्ड केलिंग द्वारा नरमी के सुझाव पर उसका मजाक उड़ाया गया। ब्रिटिश पत्रिका ‘पन्च’ में उसका कार्टून छापा गया, जिसमें केनिंग को एक भव्य बुजुर्ग के रूप में दिखाया गया है, जो एक विद्रोही सैनिक के सिर पर हाथ रखे है।

(vi) राष्ट्रवादी दृश्य कल्पना – बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी आन्दोलन को इस 1857 के घटनाक्रम से काफी प्रेरणा मिली। इसको प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में याद किया जाता है, जिसमें देश के हर तबके के लोगों ने साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी इतिहास लेखन की भांति कला और साहित्य ने भी 1857 की याद को जीवित रखा। विद्रोह के नायक-नायिकाओं पर कविताएँ लिखी गई। उन्हें वीर योद्धा के रूप में चित्रित किया गया। सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता ‘खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’ आज भी हममें जोश भर देती है। इसके अतिरिक्त भारतीय राष्ट्रवादी चित्रों ने हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को साकार रूप दिया।

काल-रेखा
1801 अवध में वेलेजली द्वारा सहायक संधि लागू की गई।
1856 नवाब वाजिद् अली शाह को गद्दी से हटाया गया, अवध का अधिग्रहण।
1856-57 अंग्रेजों द्वारा अवध में एकमुश्त लगान बन्दोबस्त लागू।
1857,10 मई मेरठ में सैनिक विद्रोह।
1857 दिल्ली रक्षक सेना में विद्रोह : बहादुरशाह सांकेतिक नेतृत्व स्वीकार करते हैं।
11-12 मई अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी, एटा में सिपाही विद्रोह। लखनक में विद्रोह।
20-27 मई सैनिक विद्रोह एक व्यापक जनविद्रोह में बदल जाता है।
30 मई चिनहट के युद्ध में अंग्रेजों की हार होती है।
मई-जून हेवलॉक और ऑट्रम के नेतृत्व में अंग्रेजों की टुकड़ियाँ लखनऊ रेजीडेन्सी में दाखिल होती हैं।
30 जून युद्ध में रानी झाँसी की मृत्यु।
25 सितम्बर युद्ध में शाहमल की मृत्यु।
1858 अवध में वेलेजली द्वारा सहायक संधि लागू की गई।
जून नवाब वाजिद् अली शाह को गद्दी से हटाया गया, अवध का अधिग्रहण।
जुलाई अंग्रेजों द्वारा अवध में एकमुश्त लगान बन्दोबस्त लागू।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

Jharkhand Board Class 12 History उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 262

प्रश्न 1.
यह बताइये कि जोतदार जमींदारों की सत्ता का किस प्रकार प्रतिरोध किया करते थे?
उत्तर:
जोतदार बड़ी-बड़ी जमीनें जोतते थे। वे अपना राजस्व भी पूरा जमा नहीं करते थे और राजस्व को बकाया रखते थे। यदि जमींदार गाँव की लगान को बढ़ाने के लिए प्रयत्न करते थे, तो वे उनका घोर प्रतिरोध करते थे। वे जमींदारी अधिकारियों को अपने कर्त्तव्यों का पालन करने से रोकते थे।

वे जमींदार को राजस्व के भुगतान में जान- बूझकर देरी करा देते थे जमींदार के कारिंदों द्वारा डराये – धमकाए जाने पर वे फौजदारी थाने ( पुलिस थाने में जमींदार के कारिंदों के खिलाफ शिकायत करते थे कि उन्होंने उनका अपमान किया है। इस प्रकार राजस्व का बकाया बढ़ता जाता था तथा जोतदार छोटे-छोटे रैयत को राजस्व न देने के लिए भड़काते रहते थे। इस तरह जोतदार जमींदार की सत्ता का प्रतिरोध किया करते थे।

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प्रश्न 2.
चित्र संख्या 10.5 ( पाठ्यपुस्तक की) के साथ दिये गये पाठ को सावधानीपूर्वक पढ़िये और तीर के निशानों के साथ-साथ उपयुक्त स्थलों पर ये शब्द भरिए लगान, राजस्व, ब्याज, उधार (ऋण), उपज।
उत्तर:
JAC Class 12 History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात सरकारी अभिलेखों का अध्ययन - 1

पृष्ठ संख्या 265

प्रश्न 3.
जिस लहजे में साक्ष्य ( पाठ्यपुस्तक का स्रोत- 2 ) अभिलिखित किया गया है, उससे आप रिपोर्ट में वर्णित तथ्यों के प्रति रिपोर्ट लिखने वाले के रुख के बारे में क्या सोचते हैं? आँकड़ों के जरिए रिपोर्ट में क्या दर्शाने की कोशिश की गई है? क्या इन दो वर्षों के आँकड़ों से आपके विचार से, किसी भी समस्या के बारे में दीर्घकालीन निष्कर्ष निकालना सम्भव होगा?
उत्तर:
(1) पाँचवीं रिपोर्ट में वर्णित तथ्यों के प्रति रिपोर्ट लिखने वाले के रुख के बारे में पता चलता है कि जमींदारों की लापरवाही के कारण राजस्व समय पर वसूल नहीं किया जाता था जिसके परिणामस्वरूप बहुत-सी जमीनें नीलाम करनी पड़ती थीं।
(2) आँकड़ों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया है कि नीलामी में राजस्व की राशि कम प्राप्त होती थी।
(3) दो वर्षों के आँकड़ों के आधार पर किसी भी समस्या के बारे में दीर्घकालीन निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

पृष्ठ संख्या 265 चर्चा कीजिए

प्रश्न 4.
आपने जमींदारों के हाल के बारे में अभी जो कुछ पड़ा है उसकी तुलना अध्याय-8 में दिए गए विवरण से कीजिए।
उत्तर:
यहाँ जमींदारों में अत्यधिक भिन्नता है। इस अध्याय में वर्णित जमींदार औपनिवेशिक प्रवृत्ति के हैं जबकि अध्याय- 8 में वर्णित जमींदार प्रजातान्त्रिक प्रवृत्ति के थे।

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पृष्ठ संख्या 267

प्रश्न 5.
पृष्ठ 267 पर दिए गए चित्र को देखिए और यह पता लगाइए कि होजेज ने राजमहल की पहाड़ियों को किसलिए रमणीय माना था ?
उत्तर:
विलियम होजेज द्वारा यह चित्र 1782 में तैयार किया गया। होजेज स्वच्छंदतावादी चित्रकार था । उसके विचार से प्रकृति की पूजा करनी चाहिए। उसे सपाट और समतल भूखण्डों की तुलना में विविधतापूर्ण, ऊँची- नीची ऊबड़-खाबड़ जमीन में सुन्दरता के दर्शन हुए. इसलिए होजेज ने इन दृश्यों को मनमोहक और रमणीय माना था। यहाँ कलाकार ने स्वयं को प्रकृति के अत्यधिक निकट पाया।

पृष्ठ संख्या 268

प्रश्न 6.
चित्र 10.8 और 10.9 को देखिए। इन चित्रों द्वारा जनजातीय मनुष्य और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों को किस प्रकार दर्शाया गया है; वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुस्तक में दिखाए गए दोनों चित्रों को देखने से यह प्रतीत होता है कि जनजातियों का जीवन जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था। वे इमली के पेड़ों के बीच बनी अपनी झोंपड़ियों में रहते थे और आम के पेड़ों की छाँह में आराम करते थे। उनका पूरा जीवन ही जंगल से प्राप्त होने वाले पदार्थों पर आधारित था। वे पूरे प्रदेश को अपनी निजी भूमि मानते थे यह जंगल की भूमि उनकी पहचान तथा जीवन का आधार थी। इस प्रकार जनजातीय लोगों तथा प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित था।

पृष्ठ संख्या 270

प्रश्न 7.
पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ संख्या 270 के चित्र संख्या 10.10 की तुलना पृष्ठ संख्या 272 के चित्र संख्या 10.12 से कीजिए।
उत्तर:
पृष्ठ संख्या 270 के चित्र संख्या 10.10 में दिखाए गए गाँव के दृश्य में गाँव शान्तिपूर्ण, नीरव और रमणीय दिखाई पड़ता है और प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यह बाहरी संसार के प्रभाव से मुक्त है। जबकि चित्र संख्या 10.12 यह प्रदर्शित करता है कि संथाल लोग शान्तिप्रिय होने के साथ-साथ अपनी अस्मिता को बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने को भी तैयार रहते थे। इस चित्र में संथालों को अंग्रेजी सैनिकों से युद्ध करते हुए दिखाया गया है। यह चित्र अंग्रेजों के अत्याचारपूर्ण एवं बर्बरतापूर्ण कार्यों को दर्शाता है।

पृष्ठ संख्या 273

प्रश्न 8.
कल्पना कीजिए कि आप ‘इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज’ के पाठक हैं। पाठ्यपुस्तक के चित्र संख्या 10.12, 10.13 और 10.14 में चित्रित दृश्यों के प्रति आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? इन चित्रों से आपके मन में संथालों की क्या क्या छवि बनती है?
उत्तर:
(1) चित्र 10.12 में संथालों को ब्रिटिश सैनिकों से युद्ध करते हुए दिखाया गया है। इसमें अनेक संथाल घायल अवस्था में हैं तथा कुछ मरे हुए दिखाई देते हैं। यह चित्र ब्रिटिश सैनिकों के अत्याचारपूर्ण एवं बर्बरतापूर्ण कार्यों को उजागर करता है।

(2) चित्र 10.13 में संथालों के गाँव जलते हुए दिखाए गए हैं। इसमें संथालों को अपने आवश्यक सामान के साथ गाँवों से पलायन करते हुए दिखाया गया है। इस चित्र के माध्यम से ब्रिटिश सरकार अपनी शक्ति और मिध्याभिमान को प्रदर्शित करना चाहती थी।

(3) चित्र 10.14 में संचालों को बन्दी बनाकर जेल ले जाते हुए दिखाया गया है। संथाल जंजीरों से बंधे हुए और अंग्रेज सिपाही उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं।

(4) यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने संथालों को अनेक सुविधाएँ प्रदान की थीं, परन्तु संथालों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने के लिए विद्रोह कर दिया। इस स्थिति में ब्रिटिश सरकार द्वारा संथालों के विद्रोह को कुचलने के लिए की गई सैनिक कार्यवाही उचित प्रतीत होती है।

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पृष्ठ संख्या 275 चर्चा कीजिए

प्रश्न 9.
बुकानन का वर्णन विकास के सम्बन्ध में उसके विचारों के बारे में क्या बतलाता है? उद्धरणों से उदाहरण देते हुए अपनी दलील पेश कीजिए। यदि आप एक पहाड़िया बनवासी होते तो उसके इन विचारों के प्रति आपकी प्रतिक्रिया क्या होती ?
उत्तर:
बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का रोचक वर्णन किया है। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक कर्मचारी था। उसने वाणिज्यिक दृष्टि से मूल्यवान पत्थरों तथा खनिजों को खोजने का प्रयास किया। उसने लौह खनिज और अवरक, ग्रेनाइट तथा साल्टमीटर से सम्बन्धित सभी स्थानों का पता लगाया। उसने राजमहल की पहाड़ियों में उगाई जाने वाली धान की फसलों का भी वर्णन किया है परन्तु उसके अनुसार इस क्षेत्र में प्रगति की तथा विस्तृत और उन्नत खेती की कमी थी।

उसने सुझाव देते हुए लिखा है कि यहाँ टसर और लाख के लिए बड़े-बड़े बागान लगाए जा सकते थे परन्तु प्रगति के सम्बन्ध में बुकानन पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित था। इसलिए वह पहाड़िया वनवासियों की जीवन-शैली का आलोचक था। उसकी मान्यता थी कि वनों को कृषि भूमि में बदलना ही होगा। यदि मैं एक पहाड़िया बनवासी होता तो बुकानन के विचारों के प्रति मेरी प्रतिक्रिया विपरीत होती।

पृष्ठ संख्या 276

प्रश्न 10.
लेखक द्वारा प्रयुक्त भाषा या शब्दावली से अक्सर उसके पूर्वाग्रहों का पता चल जाता है। स्रोत 7 को सावधानीपूर्वक पढ़िए और उन शब्दों को छाँटिए जिनसे लेखक के पूर्वाग्रहों का पता चलता है। चर्चा कीजिये कि उस इलाके का रैयत उसी स्थिति का किन शब्दों में वर्णन करता होगा?
उत्तर:
‘नेटिव ओपीनियन’ नामक समाचार पत्र में लेखक द्वारा प्रयुक्त निम्नलिखित शब्दों से उसके पूर्वाग्रहों का पता चलता है –
(1) जासूस (गुप्तचर ) – लेखक ने रैयत को जासूस कहा है जो गाँवों की सीमाओं पर यह देखने के लिए जासूसी करते हैं कि क्या कोई सरकारी अधिकारी आ रहा है।
(2) अपराधी लेखक ने निर्दोष रैयत को अपराधी बताया है जो अपराधियों को समय रहते उनके आने की सूचना दे देते हैं।
(3) हमला करना – लेखक के अनुसार वनवासी ऋणदाताओं पर हमला करके ऋणपत्र तथा दस्तावेज छीन लेते थे।
इस प्रकार लेखक ने रैयत का वर्णन जासूसों अपराधियों एवं हमलावरों के रूप में किया है जिससे लेखक के पूर्वाग्रहों का पता चलता है। परन्तु उस इलाके का रैयत इन शब्दों का कभी प्रयोग नहीं करता और वनवासियों को निरपराधी, शान्तिप्रिय और मानवीय व्यक्ति के रूप में वर्णित करता है।

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पृष्ठ संख्या 280

प्रश्न 11.
पाठ्यपुस्तक के चित्र 10.17 के तीन भाग हैं, जिनमें कपास ढोने के विभिन्न साधन दर्शाए गए सड़क हैं। चित्र में कपास के बोझ से दबे जा रहे बैलों, पर पड़े शिलाखण्डों और नौका पर लदी गाँठों के विशाल ढेर को देखिए। कलाकार इन तस्वीरों के माध्यम से क्या दर्शाना चाहता है?
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक के चित्र संख्या 10.17 के द्वारा कलाकार यह बताना चाहता है कि रेलमार्ग प्रारम्भ होने से पहले कपास ढोने के लिए परिवहन के जितने साधन उपलब्ध थे, उनका पूरी तरह उपयोग किया जा रहा था तथा उन सभी साधनों अर्थात् सड़क मार्ग तथा नदी मार्ग द्वारा अधिक से अधिक कपास ढोकर संग्रहण केन्द्र तक पहुँचायी जाती थी।
इस प्रकार संग्रहित की गई कपास का निर्यात पूर्ण रूप से ब्रिटेन को होता था।

पृष्ठ संख्या 282

प्रश्न 12.
रेवत अपनी अर्जी में क्या शिकायत कर रहा है? ऋणदाता द्वारा किसान से ले जाई जाने वाली फसल उसके खाते में क्यों नहीं चढ़ाई जाती? किसानों को कोई रसीद क्यों नहीं दी जाती? यदि आप ऋणदाता होते तो इन व्यवहारों के लिए क्या-क्या कारण देते?
उत्तर:
(1) रैयत अपनी अर्जी में कलेक्टर अहमदनगर को शिकायत कर रहा है कि साहूकार उन पर अत्याचार कर रहे हैं। उन्हें कपड़ा और अनाज देकर कड़ी शर्तों पर बंधपत्र लिखवाया जाता है तथा नकद मूल्य की अपेक्षा उन्हें सामान 25 से 50 प्रतिशत अधिक मूल्य पर दिया जाता है। किसानों के खेत की उपज ले जाते समय साहूकार आश्वासन देता है कि उपज की कीमत उसके खाते में चढ़ा दी जायेगी, लेकिन वे ऐसा नहीं करते तथा उन्हें कोई रसीद भी नहीं देते हैं।

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(2) ऋणदाता बेईमान प्रवृत्ति के थे तथा किसानों का अधिक से अधिक शोषण करना चाहते थे इसलिए वे किसान की उपज की कीमत उसके खाते में नहीं चढ़ाते थे और न ही किसान को कोई रसीद देते थे। किसान की उपज की कीमत उसके खाते में इस कारण नहीं चढ़ाता होगा कि उसका अधिक समय तक शोषण किया जा सके। इसीलिए उसे रसीद भी नहीं दी जाती होगी।

(3) यदि हम ऋणदाता होते तो यही कहते कि हम रैयत को सही कीमत पर सामान आदि देते हैं, उसे रसीद भी देते हैं, जब हम अपना उधार वापस मांगते हैं तो किसान आनाकानी करता है और हमारी झूठी शिकायत करता है।

पृष्ठ संख्या 283

प्रश्न 13.
उन सभी वचनबद्धताओं की सूची बनाइए जो किसान इस (स्रोत 8 ) दस्तावेज में दे रहा है। ऐसा कोई दस्तावेज हमें किसान और ऋणदाता के बीच के सम्बन्धों के बारे में क्या बताता है? इससे किसान और बैलों (जो पहले उसी के थे) के बीच के सम्बन्धों में क्या अन्तर आएगा?
उत्तर:
वचनबद्धताओं की सूची जो किसान द्वारा दी गई –

  • मैंने अपनी लोहे के धुरों वाली 2 गाड़ियाँ साज-सामान एवं चार बैलों सहित आपको कर्जा चुकाने के रूप में बेची हैं।
  • मैंने इस दस्तावेज के तहत उन्हीं दो गाड़ियों और चार बैलों को आपसे किराये (भाड़े पर लिया है।
  • मैं हर माह आपको चार रुपये प्रतिमाह की दर से किराया दूँगा तथा आपसे आपकी लिखावट में रसीद प्राप्त करूंगा।
  • रसीद न मिलने पर मैं यह दलील नहीं दूंगा कि किराया नहीं चुकाया गया है।

यह दस्तावेज हमें यह बताता है कि ऋणदाता किसानों का पूर्ण रूप से शोषण कर रहे थे। अब किसान अपने बैलों तथा गाड़ियों का मालिक नहीं रह गया था। किसान तथा बैलों के बीच के सम्बन्धों में यह अन्तर आयेगा कि पहले किसान स्वयं बैलों का मालिक था तथा बैलों और उसके बीच आत्मीय सम्बन्ध थे अब बैल उसके नहीं थे बल्कि साहूकार के हो गए थे। इस कारण वह बैलों से अधिक से अधिक काम लेना चाहेगा जिससे उसका किराया वसूल हो सके।

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उत्तर दीजिए ( लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
अथवा
ग्रामीण बंगाल में जोतदारों के उत्कर्ष का वर्णन कीजिये।
अथवा
अठारहवीं शताब्दी के अन्त में ‘जोतदारों’ की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में जहाँ जमींदार संकट से जूझ रहे थे, वहीं धनी किसानों का एक वर्ग जोतदार के रूप में ताकतवर बनकर उभर रहा था। बुकानन के एक विवरण में हमें दिनाजपुर के ऐसे ही जोतदारों का वर्णन मिलता है। इन जोतदारों ने बड़े रकवों पर अपना कब्जा कर रखा था तथा बटाई पर खेती करवाते थे बटाईदार अपने हल-बैल लाकर खेती करते थे तथा जोतदार को फसल की आधी पैदावार देते थे।

जमींदारों की तुलना में जोतदार अधिक ताकतवर हो गये थे। वे गाँवों में रहते थे तथा किसानों पर उनका सीधा नियंत्रण था। जमींदारों द्वारा लगान बढ़ाये जाने पर वे उनका घोर प्रतिरोध करते थे तथा लगान वसूलने में बाधा डालते थे जो रैवत उनके सीधे नियन्त्रण में थे, उनको अपने पक्ष में एकजुट रखते थे तथा राजस्व के भुगतान में जान-बूझकर देरी करा देते थे। राजस्व अदा न करने पर जब जमींदारी नीलाम होती थी तो अक्सर जोतदार ही इन्हें खरीद लेते थे उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक ताकतवर थे। कुछ जगहों पर जोतदारों को ‘हवलदार’ कहते थे तथा कहीं पर ये ‘गाँटीदार’ या ‘मंडल’ कहलाते थे जोतदारों के उदय से जमींदारों के अधिकारों का कमजोर पड़ना लाजिमी था।

प्रश्न 2.
जमींदार लोग अपनी जमींदारियों पर किस प्रकार नियन्त्रण बनाए रखते थे?
अथवा
अगर आप एक जमींदार होते, तो अपनी जमींदारी पर किस प्रकार नियन्त्रण बनाए रखते?
उत्तर:
अपनी जमींदारियों पर नियन्त्रण बनाए रखने के लिए जमींदार लोग कई प्रकार के हथकण्डे अपनाते थे, जो इस प्रकार
(1) फर्जी बिक्री द्वारा – जब राजस्व जमा न कराने पर जमींदारी को कम्पनी द्वारा नीलाम किया जाता था तो जमींदार के एजेन्ट ऊँची बोली लगाकर सम्पत्ति खरीद लेते तथा खरीद राशि अदा न करने पर उसकी दुबारा बोली लगाई जाती थी, फिर जमींदार के एजेन्ट ही बोली लगाते तथा खरीद राशि अदा नहीं करते। यह प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती। अन्त में वह सम्पदा नौची कीमत पर पूर्व जमींदार को बेच दी जाती।

(2) सम्पत्ति स्त्रियों के नाम करना – कम्पनी ने यह नियम बनाया था कि स्त्रियों के नाम की सम्पत्ति को उनसे छीना नहीं जायेगा इसलिए बर्दवान के राजा ने अपनी जमींदारी बचाने के लिए अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माँ को दे दिया।

(3) बाहरी व्यक्ति को अधिकार न करने देना- यदि कभी कोई बाहरी व्यक्ति जमींदारी को खरीद लेता था तो पुराने जमींदार के ‘लठियाल’ उसको मार-पीट कर भगा देते थे और उसे जमींदारी पर अधिकार नहीं करने देते थे।

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(4) रैयत का लगाव – रैयत भी पूर्व जमींदार को अपना अन्नदाता मानती थी तथा स्वयं को उसकी प्रजा । वे बाहरी व्यक्ति का प्रतिरोध करते थे और जमींदारी की नीलामी को अपना अपमान महसूस करते थे।

प्रश्न 3.
पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शाई ?
उत्तर:
पहाड़िया लोग बाहरी लोगों से आशंकित रहते थे। वे बाहरी लोगों का अपने इलाके में प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। जब बुकानन राजमहल की पहाड़ियों में गया तो उसने पाया कि पहाड़िया लोग उससे बात करने को भी तैयार नहीं थे तथा कई स्थानों पर तो पहाड़िया लोग अपने गाँव छोड़कर ही भाग जाते थे। बुकानन जहाँ कहीं भी गया, उसने पहाड़िया लोगों का अपने प्रति व्यवहार शत्रुतापूर्ण ही पाया। पहाड़िया लोग बराबर उन मैदानों पर आक्रमण करते रहते धे जहाँ किसान एक स्थान पर बसकर कृषि कार्य करते थे। पहाड़िया लोगों द्वारा ये आक्रमण अधिकतर अपने आपको विशेष रूप से अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किये जाते थे।

इसके साथ ही ये हमले मैदानों में बसे हुए समुदाय पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने का एक माध्यम भी थे। मैदानी भागों में रहने वाले जमींदारों को प्रायः पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से खिराज देकर शान्ति खरीदनी पड़ती थी। इसी प्रकार व्यापारी लोग भी इन पहाड़ी व्यक्तियों द्वारा नियन्त्रित मार्गों का प्रयोग करने के लिए उन्हें कुछ पथकर दिया करते थे। पहाड़िया लोगों की मान्यता धी कि गोरे लोग उनसे उनके जंगल और जमीनें छीन कर उनकी जीवन शैली और जीवित रहने के साधनों को नष्ट कर देना चाहते थे। अतः वे बाहरी लोगों के प्रति आशकित रहते थे।

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प्रश्न 4.
संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?
उत्तर:
संथाल लोग बंगाल के जमींदारों के यहाँ भाड़े पर काम करने आते थे। कम्पनी के अधिकारियों ने उन्हें राजमहल की पहाड़ियों में बसने का निमन्त्रण दिया। संचाल उस क्षेत्र में बसकर जंगलों को साफ करके स्थायी खेती करने लगे। उनकी बस्तियों और जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी। 1832 तक जमीन के काफी बड़े भाग को ‘दामिन-इ-कोह’ के नाम से सीमांकित करके इसे संभाल – भूमि घोषित कर दिया गया। शीघ्र ही संथालों का भ्रम टूट गया। उन्हें यह महसूस होने लगा कि जिस भूमि पर वे खेती कर रहे हैं, वह उनके हाथ से निकलती जा रही है।

इसके प्रमुख कारण थे –

  • सरकार ने संथालों की भूमि पर भारी कर लगा दिया था।
  • साहूकार बहुत ऊँची दर पर ब्याज लगा रहे थे और ऋण न चुकाने पर उनकी कृषि भूमि पर कब्जा कर रहे थे तथा
  • जमींदार लोग उनके इलाके पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे।

1850 के दशक तक संथाल लोग यह अनुभव करने लगे थे कि अपने लिए एक आदर्श संसार का निर्माण करने के लिए, जहाँ उनका अपना शासन हो, जमींदारों, साहूकारों तथा औपनिवेशिक राज के विरुद्ध विद्रोह करने का समय आ गया है। अन्त में 1855-56 में संथालों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।

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प्रश्न 5.
बक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?
उत्तर:
दक्कन के रैयत (किसान) ऋणदाताओं के प्रति निम्न कारणों से क्रुद्ध थे –

  • ऋणदाताओं ने रैयत को ऋण देने से इनकार कर दिया था
  • रैयत समुदाय इस बात से अधिक नाराज था कि ऋणदाता संवेदनहीन हो गए हैं तथा उनकी दयनीय स्थिति पर वे कोई तरस नहीं खा रहे हैं।
  • प्रायः न चुकाई गई शेष राशि पर सम्पूर्ण ब्याज को मूलधन के रूप में नये बंधपत्रों में सम्मिलित कर लिया जाता था और उस पर नये सिरे से ब्याज लगने लगता था।
  • ऋणदाता बन्धपत्रों में जाली आंकड़े भर लेते थे वे किसानों की फसल को नीची कीमतों पर खरीदते थे तथा अन्त में वे किसानों की धन-सम्पत्ति पर ही अधिकार कर लेते थे।
  • रैयत से ऋण के पेटे भारी ब्याज लगाया जाता था।
  • ऋण चुकता होने पर भी उन्हें रसीद नहीं दी जाती थी।
  • ऋणदाताओं ने गाँव की पारम्परिक प्रथाओं का उल्लंघन करना शुरू कर दिया तथा मूलधन से अधिक ब्याज लेना शुरू कर दिया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में) –

प्रश्न 6.
इस्तमरारी बन्दोबस्त के बाद बहुत-सी जमींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गई?
अथवा
स्थायी भूमि प्रबन्ध के पश्चात् बहुत-सी जमींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गई?
उत्तर:
इस्तमरारी बन्दोबस्त 1793 ई. में बंगाल के गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस ने बंगाल में इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू किया। इस व्यवस्था के अनुसार जमींदार को एक निश्चित राजस्व की राशि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को देनी होती थी। जो जमींदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाते थे, उनकी जमींदारियाँ नीलाम कर दी जाती थीं। अतः इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू होने के बाद 75% से अधिक “जमींदारियाँ नौलाम की गई क्योंकि जमींदार समय पर राजस्व की राशि जमा कराने में असफल रहे थे।

जमींदारी के नीलाम होने के कारण जमींदारों द्वारा राजस्व जमा न कराने तथा उनकी जमींदारी नीलाम होने के पीछे कई कारण थे –
(1) ऊँचा राजस्व निर्धारण – राजस्व की प्रारम्भिक माँग बहुत ऊँची थी, ऐसा इसलिए किया गया कि आगे चलकर आय में वृद्धि हो जाने पर भी राजस्य नहीं बढ़ाया जा सकता था। इस हानि को पूरा करने के लिए दरें ऊँची रखी गर्यो इसके लिए यह दलील दी गई कि जैसे ही कृषि का उत्पादन बढ़ेगा, वैसे ही धीरे-धीरे जमींदारों का बोझ कम होता जायेगा।

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(2) उपज की नीची कीमतें राजस्व की यह ऊँची माँग 1790 के दशक में रखी गई जब कृषि की उपज की कीमतें नीची थीं। ऐसे में कृषकों के लिए राजस्व चुकाना बहुत मुश्किल था जब जमींदार किसानों से ही लगान वसूल नहीं कर सकता था तो वह आगे कम्पनी को अपनी निर्धारित राजस्व राशि कैसे अदा कर सकता था।

(3) असमान दरे – राजस्व की दरें असमान थीं, फसल अच्छी हो या खराब, राजस्व समय पर जमा कराना आवश्यक था। यदि राजस्व निश्चित दिन के सूर्यास्त तक जमा नहीं कराया जाता तो जमींदारी को नीलाम किया जा सकता था।

(4) जमींदार की शक्ति सीमित होना इस्तमरारी बन्दोबस्त ने प्रारम्भ में जमींदार की शक्ति को रैयत से राजस्व एकत्र करने तथा अपनी जमींदारी का प्रबन्ध करने तक ही सीमित कर दिया। राजस्व एकत्र करने के लिए जमींदार का एक अधिकारी, जिसे अमला कहते थे, गाँव में आता था।

लेकिन राजस्व संग्रहण एक गम्भीर समस्या थी कभी-कभी खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसानों को देय राशि का भुगतान करना कठिन हो जाता था कभी-कभी रैयत जान-बूझकर भी भुगतान में देरी कर देते थे, क्योंकि जमींदार उन पर अपनी ताकत का प्रयोग नहीं कर सकता था। जमींदार उन बाकीदारों पर मुकदमा तो चला सकता था मगर न्यायिक प्रक्रिया बहुत लम्बी चलती थी 1798 में अकेले बर्दवान जिले में ही राजस्व भुगतान के बकाया से सम्बन्धित 30,000 से अधिक बद लम्बित थे।

(5) जोतदारों का उदव इसी बीच जोतदारों (धनी किसानों) के वर्ग का उदय हुआ यह वर्ग गाँवों में रहता था और रैयत पर अपना नियन्त्रण रखता था। यह वर्ग जान- बूझकर रैयत को राजस्व का भुगतान न करने के लिए प्रोत्साहित करता था, क्योंकि जब समय पर राजस्व जमा नहीं होता तो जमींदारी नीलाम की जाती थी और यह जोतदार ही उस जमींदारी को खरीद लेते थे।

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प्रश्न 7.
पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस प्रकार भिन्न थी?
उत्तर:
पहाड़िया लोगों की आजीविका और संथालों की आजीविका में भिन्नता बंगाल में राजमहल की पहाड़ियों के आसपास रहने वाले पहाड़िया लोगों और संचालों की आजीविका के प्रमुख अन्तर को अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है –

(1) पहाड़ियों की आजीविका जंगलों पर आधारित थी, जबकि संथालों की आजीविका कृषि पर आधारित थी पहाड़िया लोगों का जीवन पूरी तरह से जंगल पर निर्भर था। वे जंगल की उपज से अपना जीवन निर्वाह करते थे। कुछ पहाड़िया लोग शिकार करके अपना जीवनयापन करते थे वे जंगलों से खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठा करते थे तथा बेचने के लिए रेशम के कोया और राल तथा काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करते थे वे इमली के पेड़ की पनी छाँव में अपनी झोंपड़ी बनाते थे तथा आम की छाँव में बैठकर आराम करते थे। दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार से प्रोत्साहित होकर संथालों ने अपना खानाबदोश जीवन छोड़कर जब राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में बसना शुरू किया तो उन्होंने वहाँ जंगलों को साफ कर स्थायी कृषि करना प्रारम्भ कर दिया और कृषि उत्पाद ही संथालों की आजीविका के आधार थे।

(2) पहाड़िया झूम कृषि करते थे और संथाल स्थायी कृषि पहाड़िया लोग जंगलों को जलाकर जमीन को साफ करके ‘झूम’ खेती करते थे। वे कुदाल 1 के द्वारा जमीन को थोड़ा खुरचकर विभिन्न प्रकार की दालें तथा ज्वार बाजरा पैदा कर उन्हें अपने खाने के काम में लेते धे एक स्थान पर कुछ वर्षों तक खेती करने के बाद वे उस जमीन को परती छोड़कर अन्य स्थान पर चले जाते थे जिससे जमीन की खोई उर्वरता पुनः प्राप्त हो सके। दूसरी तरफ संथाल जंगलों को साफ कर स्थायी कृषि करते थे। यही कारण है कि ‘दामिन-ई-कोह’ नामक राजमहल की पहाड़ियों के तलहटी क्षेत्र में कुछ ही वर्षों में संचालों के गाँवों और उनकी जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई। वे हल से जमीन को जोतकर कृषि करते थे।

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(3) पहाड़िया परती भूमि को चरागाह के रूप में उपयोग लेते थे, संथालों ने उन्हें खेतों में बदल दिया – परती जमीन पर उगी हुई घास आदि पहाड़िया लोगों के पशुओं के लिए चरागाह का कार्य करती थी, जबकि संथालों ने पहाड़ियों के चरागाहों को धान के खेत के रूप में बदल दिया तथा वे वाणिज्यिक खेती भी करते थे तथा साहूकारों से लेन-देन भी करते थे।

(4) कृषि उत्पादों में अन्तर पहाड़िया लोग झूम खेती कर ज्वार, बाजरा तथा दालें उपजते थे, जबकि संथाल लोग कपास, धान, तम्बाकू, सरसों तथा अन्य व्यापारिक फसलें उगाते थे।

(5) खानाबदोश व स्थायी जीवन सम्बन्धी अन्तर- पहाड़िया लोग खानाबदोश जीवन जीते थे। इसके अतिरिक्त ये मैदानी इलाकों के किसानों के पशुओं व अनाज को लूटकर ले जाते थे वे मैदानी जमींदारों से कुछ खिराज लेते थे और उसके बदले में उनके क्षेत्र में आक्रमण नहीं करते थे, लेकिन ये राय अस्थायी आधार होते थे। दूसरी तरफ संथाल ‘दामिन-इ-कोह’ क्षेत्र में स्थायी रूप से असकर, गाँवों में रहते थे तथा स्थायी कृषि करते थे। वे व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेन-देन करने लगे थे।

(6) कृषि के साधनों में अन्तर पहाड़िया लोग शूम कृषि के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे, इसलिए यदि कुदाल को पहाड़िया जीवन का प्रतीक माना जाए तो हल को संथालों की शक्ति का प्रतीक मानना पड़ेगा; क्योंकि संथाल लोग स्थायी कृषि के लिए हल का प्रयोग करते थे।

प्रश्न 8.
अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:
अमेरिकी गृहयुद्ध का भारत में रैयत समुदाय पर प्रभाव अमेरिका में गृहयुद्ध शुरू होने से पूर्व ब्रिटेन में जितना कपास का आयात होता था, उसका 75% अमेरिका से आता था। इस प्रकार ब्रिटेन पूरी तरह अमेरिकी कपास पर निर्भर था। इंग्लैण्ड के सूती वस्त्रों के निर्माता इस बात से परेशान थे कि यदि अमेरिका से आयात बन्द हो गया तो हमारे व्यापार का क्या होगा।

से अमेरिकी गृहयुद्ध से भारत में कपास में तेजी उत्पादन में वृद्धि और रैयत समुदाय को राहत – 1861 ई. में अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ने से भारत में रैयत समुदाय पर अग्रलिखित प्रभाव पड़े –

(i) अमेरिकी गृहयुद्ध से वहाँ कपास उत्पादन व निर्यात में कमी 1861 में अमेरिका में गृहयुद्ध शुरू हो जाने से वहाँ कपास का उत्पादन कम हो गया तथा कपास के आयात में भारी कमी आ गई। 1861 में जहाँ 20 लाख गाँठें ब्रिटेन में आयात की गई थीं, वहाँ 1862 में सिर्फ पचपन हजार गाँठों का ही आयात हो पाया।

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(ii) अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण ब्रिटेन में वहाँ से कपास न आने पर भारत में कपास उत्पादन को प्रोत्साहन ब्रिटेन द्वारा भारत से कपास आयात करने का प्रावधान किया गया। इसके लिए ब्रिटेन की सरकार ने यम्बई सरकार को अधिक कपास उपजाने के लिए प्रोत्साहित किया। बम्बई के कपास निर्यातकों ने कपास की आपूर्ति का आकलन करने के लिए कपास उत्पादक जिलों का दौरा कर किसानों को कपास उगाने हेतु प्रोत्साहित किया।

(iii) किसानों को ऋणदाताओं द्वारा अग्रिम राशि देना ऋणदाताओं ने किसानों को अधिक कपास उगाने हेतु अग्रिम ऋण देना शुरू कर दिया क्योंकि कपास की कीमतों में इजाफा हो रहा था। दक्कन में इसका काफी प्रभाव पड़ा तथा किसानों को कपास उगाई जाने वाले प्रति एकड़ के लिए 100 रुपये अग्रिम राशि दी गई। साहूकार लम्बी अवधि के लिए देने को तैयार थे, क्योंकि जब बाजार में तेजी आती है तो कर्ज आसानी से उपलब्ध हो जाता है।

(iv) अमेरिकी गृहयुद्ध काल में भारत में कपास उत्पादन में वृद्धि – जब तक अमेरिका में गृहयुद्ध चलता रहा, दक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया। 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाले एकड़ों की संख्या दो गुनी हो गई 1862 में यह स्थिति आई कि ब्रिटेन में जितना कपास आयात होता था, उसका 90% भाग अकेले भारत से जाता था

(v) कपास में आई तेजी से धनी किसानों को लाभ अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण आई कपास की तेजी से सभी किसानों को लाभ नहीं हुआ, जो धनी किसान थे उन्हें ही लाभ मिला। अधिकांश किसान कर्ज के बोझ से और अधिक दब गये।

(vi) अमेरिकी गृहयुद्ध के समाप्त होने पर भारत से कपास निर्यात में कमी आना तथा रैयत समुदाय की कठिनाइयों में वृद्धि – 1865 में अमेरिका का गृहयुद्ध समाप्त हो गया और वहाँ कपास का उत्पादन फिर से होने लगा और ब्रिटेन के भारतीय कपास के निर्यात में निरन्तर गिरावट आती गई। साहूकारों ने कपास की गिरती कीमत को देखते हुए किसानों को ऋण देने से मना कर दिया तथा अपने उधार की वसूली पर जोर देने लगे। एक तरफ ऋण मिलना बन्द हो गया, दूसरी ओर राजस्व की माँग बढ़ा दी गई रैयत के लिए राजस्व जमा कराना मुश्किल हो गया। इसके फलस्वरूप रैयत की कठिनाइयाँ बढ़ती चली गई।

प्रश्न 9.
किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के बारे में क्या समस्याएँ आती हैं?
उत्तर:
सरकारी स्रोतों के उपयोग की समस्याएँ किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग सम्बन्धी प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं –
(1) सरकारी रिपोर्टों का एकपक्षीय होना किसानों के इतिहास लेखन में सरकारी स्रोतों का उपयोग बहुत ही छानबीन करके करना चाहिए क्योंकि सरकारी रिपोर्ट ज्यादातर एकपक्षीय ही पाई गई हैं। इसलिए अन्य उपलब्ध स्रोतों से उनकी तुलना करके ही सही तथ्यों तक पहुंचा जा सकता है।

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(2) सरकारी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति – सरकारी स्त्रोतों में वर्णित विवरण सरकार के दृष्टिकोण को ही प्रस्तुत करते हैं।

(3) दूसरे पक्ष को दोषी ठहराना – औपनिवेशिक सरकार ने कभी भी अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं किया। उनकी जांच रिपोटों में दूसरे पक्ष को ही दोषी ठहराया गया। उदाहरण के लिए, जब दक्कन में किसानों ने बढ़े हुए राजस्व के विरुद्ध विद्रोह किया तो सरकार ने दंगे का कारण बड़े हुए राजस्व की दर को न मानकर साहूकारों और ऋणदाताओं को विद्रोह के लिए उत्तरदायी ठहराया।

(4) अपनी दमनकारी नीति को न्यायोचित बताना – पहाड़िया लोगों का उन्मूलन करने के लिए जो क्रूरतापूर्ण नीति अपनाई गई, उसके पीछे ब्रिटिश सरकार ने अपने तथ्यों में पहाड़ियों को बर्बर, असभ्य और जंगली घोषित करके उनके दमन को उचित बताया जबकि पहाड़िया आदिवासी थे और बाहरी जगत से अपना सम्पर्क कम से कम रखना चाहते थे।

(5) संथालों के विरुद्ध की गई कार्यवाही को उचित बताना संथालों का विद्रोह भी इसी तथ्य को इंगित करता है। पहले पहाड़ियों का उन्मूलन करने तथा कृषि का विस्तार करने हेतु ब्रिटिश सरकार ने उन्हें छूट देकर बसने हेतु प्रोत्साहित किया। जब उनकी प्रगति होने संगी तो उनके ऊपर भारी कर लगाने शुरू किये संथालों द्वारा इस अन्याय के विरुद्ध किये गये विद्रोह को सरकार ने नृशंसता से कुचला और अपने कृत्य को उचित बताते हुए इंग्लैण्ड के अखबारों में खबरें तथा चित्र प्रकाशित करवाये।

(6) सरकारी सरोकार को व्यक्त करना – दक्कन दंगा आयोग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट भी सरकारी सरोकार को ही प्रतिबिम्बित करती है। दक्कन दंगा आयोग से विशेष रूप से यह पता लगाने को कहा गया था कि क्या सरकारी राजस्व की माँग का स्तर विद्रोह का कारण था सम्पूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद आयोग ने सूचित किया कि सरकारी माँग किसानों के गुस्से की वजह नहीं थी। इसमें सारा दोष साहूकारों और ऋणदाताओं का ही था। इन बातों से यह स्पष्ट होता है कि औपनिवेशिक सरकार यह मानने को कदापि तैयार नहीं थी कि जनता में असंतोष या क्रोध कभी सरकारी कार्यवाही के कारण उत्पन्न हुआ था।

इस तरह सरकारी रिपोर्टों के आधार पर किसानों का सही इतिहास नहीं लिखा जा सकता। सरकारी रिपोर्ट इतिहास लेखन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, लेकिन उनका प्रयोग करते समय उन्हें सावधानीपूर्वक काम में लेना चाहिए। समाचार-पत्रों, गैर-सरकारी स्रोतों, वैधिक अभिलेखों और यथासम्भव मौखिक साक्ष्यों के साथ उनका भली प्रकार मिलान करके उनकी विश्वसनीयता की जाँच कर फिर उनका उपयोग करना चाहिए।

उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन JAC Class 12 History Notes

→ बंगाल और वहाँ के जमींदार – ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की शुरुआत सबसे पहले बंगाल में हुई। वहाँ ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित करने तथा भूमि सम्बन्धी अधिकारों की नयी व्यवस्था तथा नयी राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयत्न किए गए।

→ इस्तमरारी बन्दोबस्त के तहत बर्दवान में की गई नीलामी की एक घटना – 1793 में बंगाल में इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसमें ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थी। जमींदार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कम्पनी को नियमित रूप से यह राशि अदा करेगा जो जमींदार समय पर राजस्व अदा नहीं करते थे, उनकी जमींदारियाँ नीलाम कर दी जाती थीं। ऐसी ही एक नीलामी की घटना 1797 में बर्दवान में हुई ।

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→ अदा न किए गए राजस्व की समस्या – इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू होने के बाद लगभग 75% से अधिक जमींदारियाँ नीलाम की गई। ब्रिटिश अधिकारियों का मानना था कि इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू होने से सारी समस्याएँ। हल हो जायेंगी। लेकिन उनकी सोच बेकार हो गई। कारण यह रहा कि बंगाल में बार बार अकाल पड़े, पैदावार कम होती गई। जमींदारों द्वारा समय पर राजस्व जमा नहीं कराया गया जिससे उनकी जमींदारियाँ नीलाम की जाने
लगीं।

→ राजस्व राशि के भुगतान में जमींदारों द्वारा चूक करना-ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों का मानना था कि राजस्व माँग निर्धारित होने से जमींदार स्वयं को सुरक्षित समझकर अपनी सम्पदाओं का विकास करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका इस्तमरारी बन्दोबस्त लागू होने के बाद कुछ दशकों में जमींदारों द्वारा राजस्व जमा करने में कोताही की जाने लगी और राजस्व की बकाया रकमें बढ़ती गई इस कोताही के कई कारण थे –

  • कम्पनी द्वारा राजस्व की माँग को ऊंचे स्तर पर रखा गया।
  • यह ऊँची माँग 1790 के दशक में लागू की गई उस समय उपज की कीमतें नीची थीं, जिससे किसानों के लिए जमींदार को लगान चुकाना मुश्किल था ।
  • राजस्व की दर असमान थी फसल चाहे अच्छी हो या खराब, राजस्व का भुगतान एक निश्चित समय पर ही करना आवश्यक था।
  • जमींदार की शक्ति को सीमित कर दिया गया। उसका कार्य केवल राजस्व वसूलना तथा जमींदारी का प्रबन्ध करना रह गया।

→ जोतदारों का उदय – गाँवों में जोतदारों के एक नये वर्ग का उदय हो गया। यह धनी किसानों से बना था। ये धनी किसान गाँवों में ही रहते थे तथा गरीब किसानों पर अपना नियंत्रण रखते थे ये जमींदार द्वारा लगान बढ़ाने का प्रतिरोध करते थे तथा जमींदारी अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करने से रोकते थे उत्तरी बंगाल में जोतदारों की ताकत बहुत बढ़ गई थी जमींदार की सम्पदा नीलाम होने पर कई बार जोतदार ही उसे खरीद लेते थे।

→ जमींदारों की ओर से प्रतिरोध – ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों की सत्ता समाप्त नहीं हुई थी, वे अपनी भू-सम्पदा बचाने के लिए कई हथकण्डे अपनाते थे –

  • फर्जी बिक्री द्वारा जमींदार के एजेन्ट ही नीलामी में भाग लेकर उसे खरीद लेते थे।
  • स्वियों के नाम सम्पत्ति कर दी जाती थी क्योंकि कम्पनी ने ऐसा नियम बनाया था कि स्वियों की सम्पदा को छीना नहीं जायेगा।
  • बाहरी व्यक्ति द्वारा जमींदारी खरीद लेने पर उसे मारपीट कर भगा दिया जाता था।
  • किसान पुराने जमींदार को अपना अन्नदाता मानते थे और जमींदारी की नीलामी को खुद का अपमान मानते थे जिससे जमींदार आसानी से विस्थापित नहीं किए जा सकते थे।
  • 19वीं सदी के प्रारम्भ में कीमतों में मंदी की स्थिति समाप्त होने से जमींदारों ने अपनी सत्ता को पुनः सुदृढ़ बना लिया था। लेकिन 1930 की मंदी में पुनः जमींदार कमजोर हो गये और जोतदार शक्तिशाली हो गए।

→ पाँचवीं रिपोर्ट- सन् 1813 में ब्रिटिश संसद में कई रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, उन्हीं में से एक रिपोर्ट जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत प्रशासन के बारे में थी, ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ कहलाती है। यह रिपोर्ट कम्पनी के कुशासन, अव्यवस्थित प्रशासन, कम्पनी के अधिकारियों के लोभ-लालच और भ्रष्टाचार की घटनाओं को दर्शाती थी।

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18वीं सदी के अन्तिम दशकों में ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी को बाध्य किया था कि वह भारत के प्रशासन के बारे में नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट भेजे। कम्पनी के कामकाज की जाँच के लिए कई समितियाँ नियुक्त की गई। पाँचवीं रिपोर्ट एक ऐसी ही रिपोर्ट है जो एक प्रवर समिति द्वारा तैयार की गई थी और जो भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गम्भीर वाद-विवाद का आधार बनी। इसमें परम्परागत जमींदारी सत्ता के पतन का अतिरंजित वर्णन है।

II. कुदाल और हल – 19वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में राजमहल की पहाड़ियों में पहाड़िया और संचालों के बीच संघर्ष हुआ पहाड़िया कुदाल से झूम खेती करते थे और संथाल हल जोतकर स्थायी खेती कुदाल और हल इसी के प्रतीक हैं।

(1) राजमहल की पहाड़ियों में पहाड़िया लोगों की स्थिति – उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों में बुकानन द्वारा इस क्षेत्र का दौरा किया गया। उसके वर्णन के अनुसार, यहाँ के निवासी पहाड़िया कहलाते थे जो बाहरी व्यक्तियों के प्रति आशंकित रहते थे ये जंगल की भूमि को साफ कर शूम खेती करते थे और कुदाल से जमीन को खुरच अपने खाने लायक अनाज व दालें पैदा कर लेते थे। जंगल से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। वे इसे अपनी निजी भूमि मानते थे। यह जमीन व जंगल उनकी पहचान थी। वे बाहरी लोगों के प्रवेश का विरोध करते थे तथा कई बार मैदानों में आकर लूटपाट भी कर लेते थे अंग्रेज इन पहाड़ियों को असभ्य और बर्बर मानकर इनका उन्मूलन करना चाहते थे।

(2) संथाल अगुआ बाशिंदे-सन् 1800 ई. के लगभग संथालों का राजमहल की पहाड़ियों में आगमन हुआ। इससे पूर्व वे बंगाल में भाड़े के मजदूर के रूप में काम करने आते थे अंग्रेजों ने इन्हें राजमहल की पहाड़ियों में बसने के लिए तैयार कर लिया। 1832 में जमीन के काफी बड़े भू-भाग को ‘दामिन-इ-कोह’ के रूप में सीमांकित करके उसे संथाल भूमि घोषित कर दिया गया। दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद संथालों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। संथालों और पहाड़िया लोगों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें संथाल विजयी रहे।

उन्होंने पहाड़िया लोगों को पहाड़ियों के भीतर की ओर चले जाने के लिए मजबूर कर दिया और उन्हें ऊपरी पहाड़ियों के चट्टानी और अधिक बंजर इलाकों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित कर दिया गया। इससे उनके रहन-सहन पर बुरा प्रभाव पड़ा और वे आगे चलकर गरीब हो गये। संथालों ने स्थायी कृषि शुरू की, लेकिन सरकार संथालों की जमीन पर भारी कर लगाने लगी; साहूकार लोग ऊँची ब्याज पर ऋण दे रहे थे और कर्ज अदा न किए जाने पर उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे थे। तीसरे, जमींदार लोग उनके इलाके पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे। फलतः 1850 तक संथालों ने ब्रिटिश राज्य के प्रति विद्रोह करने का मानस बनाया। 1855-56 के संथाल विद्रोह के बाद संथाल परगने का निर्माण किया गया।

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III. देहात में विद्रोह (बम्बई दक्कन ) उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भारत के विभिन्न प्रान्तों में किसानों द्वारा साहूकारों तथा अनाज के व्यापारियों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किए गए। ऐसा ही एक विद्रोह 1875 में दक्कन में हुआ।

(1) बहीखाते जलाना-2 मई, 1875 को पूना जिले के सूपा गाँव में किसानों ने साहूकारों पर हमला कर ऋणबन्धों तथा बहीखातों को जला दिया। साहूकारों के परों में आग लगा दी। पुणे से यह विद्रोह अहमदनगर तक फैल गया तथा 6500 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इसकी चपेट में आ गया। विद्रोह दबाने में कई महीने लगे।

(2) नई राजस्व प्रणाली – इस्तमरारी बन्दोबस्त बंगाल से बाहर बहुत कम लागू किया गया। 1810 में खेती की कीमतों तथा उपज के मूल्यों में वृद्धि हुई लेकिन कम्पनी का राजस्व नहीं बढ़ा क्योंकि इस्तमरारी बन्दोबस्त के कारण कम्पनी राजस्व नहीं बढ़ा सकती थी इसलिए कम्पनी ने राजस्व बढ़ाने के नये तरीके ढूँढ़े। जो राजस्व प्रणाली बम्बई में लागू की गई, वह रैयतवाड़ी कहलायी क्योंकि इसे कम्पनी और रैयत (किसान) के मध्य तय किया गया। यह प्रणाली 30 वर्ष के लिए लागू की गई 30 वर्ष बाद इसमें परिवर्तन हो सकता था।

(3) राजस्व की माँग और किसान का कर्ज – बम्बई दक्कन में पहला राजस्व बन्दोबस्त 1820 के दशक में किया गया। राजस्व अधिक होने के कारण किसान गाँव छोड़कर भाग गये। राजस्व कठोरता से वसूला गया, जुर्माने ठोके गये। 1832 ई. के पश्चात् कीमतों में आई तीव्र गिरावट, अकाल आदि के कारण किसानों की स्थिति और दयनीय हो गई किसानों को साहूकारों से ऋण लेकर अपने दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती थी। उन्हें हल-बैल और बीज के लिए साहूकारों से ऋण लेना पड़ा, लेकिन राजस्व की बकाया राशियाँ आसमान छू रही थीं। 1840 के दशक में कम्पनी के अधिकारियों को भी इसका बोध हुआ तो उन्होंने राजस्व सम्बन्धी माँग को कुछ हल्का किया।

(4) कपास में तेजी – 1860 के दशक से पूर्व ब्रिटेन में कच्चे माल के रूप में आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन-चौथाई भाग अमेरिका से आता था। 1857 में ब्रिटेन में कपास आपूर्ति संघ की स्थापना हुई, 1859 में मैनचेस्टर कॉटन कम्पनी बनाई गई 1861 में अमेरिका में गृह युद्ध छिड़ने के कारण कपास के आयात में भारी गिरावट आई। बम्बई के कपास के सौदागरों द्वारा शहरी साहूकारों को अधिक से अधिक अग्रिम राशियाँ दी गई ताकि वे भी ग्रामीण ऋणदाताओं को अधिकाधिक मात्रा में ऋण दे सकें। सौदागरों द्वारा 1862 तक ब्रिटेन के आयात की कपास का 900% भारत से जाता था लेकिन इसका लाभ कुछ धनी किसानों को ही हुआ, शेष किसान कर्ज के बोझ से दब गये।

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(5) ऋण नहीं मिलना अमेरिका में गृह युद्ध समाप्त होने पर कपास का उत्पादन पुनः होने पर ब्रिटेन को भारत से निर्यात कम हो गया। साहूकारों ने किसानों को ऋण देना बन्द कर दिया। एक ओर ऋण का सोत सूख गया, दूसरी ओर राजस्व की दर 50 से 100% बढ़ गई जिसे चुकाना किसानों के वंश के बाहर हो गया।

(6) अन्याय का अनुभव- किसानों ने यह अनुभव किया कि ऋणदाता उनके साथ अन्याय कर रहा है। वह संवेदनहीन होकर देहात की प्रथाओं का उल्लंघन कर रहा है। ब्याज की दरें कई गुना बढ़ा दी गई 100 रु. के मूलधन पर 2000 रु. व्याज वसूला गया। ऋण चुकता होने पर भी रसीद नहीं दी जाती थी। बन्धपत्रों में जाली आँकड़े भरे जाते थे बिना दस्तावेजों के किसान को ऋण नहीं मिलता था।

IV. दक्कन दंगा आयोग – दक्कन में दंगा शुरू होने पर बम्बई सरकार ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। भारत सरकार द्वारा दबाव डालने पर बम्बई सरकार ने एक आयोग की स्थापना की। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि दंगे के लिए साहूकार एवं ऋणदाता ही उत्तरदायी थे सरकारी राजस्व की बढ़ोतरी दंगा फैलने का कारण नहीं थी औपनिवेशिक सरकार कभी यह मानने को तैयार नहीं थी कि जनता में असंतोष सरकारी कार्यवाही के कारण उत्पन्न हुआ। रिपोर्टों की विश्वसनीयता ये सरकारी रिपोर्ट थीं इस प्रकार की रिपोर्टों का अध्ययन सावधानी के साथ करना चाहिए तथा अन्य स्रोतों से इनका मिलान करके ही उनकी विश्वसनीयता पर विश्वास करना चाहिए।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Exercise Questions and Answers.

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Jharkhand Board Class 12 History संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 413

प्रश्न 1.
उद्देश्य प्रस्ताव में ‘लोकतांत्रिक’ शब्द का इस्तेमाल न करने के लिए जवाहर लाल नेहरू ने क्या कारण बताया था?
उत्तर:
उद्देश्य प्रस्ताव में ‘लोकतांत्रिक’ शब्द के इस्तेमाल न करने के पीछे नेहरूजी ने जो कारण बताया वह इस प्रकार है— नेहरूजी ने कहा कि कोई गणराज्य लोकतांत्रिक न हो ऐसा नहीं हो सकता, हमारा पूरा इतिहास इस बात का साक्षी है कि हम लोकतांत्रिक संस्थानों के ही पक्षधर हैं। हमारा लक्ष्य लोकतंत्र ही है। यद्यपि इस प्रस्ताव में हमने लोकतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है क्योंकि हमें लगा कि यह तो स्वाभाविक ही है कि ‘गणराज्य’ शब्द में लोकतांत्रिक शब्द पहले ही निहित होता है। इसलिए हम अनावश्यक और अनुपयोगी शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहते थे। हमने इस प्रस्ताव में लोकतंत्र की अंतर्वस्तु प्रस्तुत की है बल्कि लोकतंत्र की ही नहीं आर्थिक लोकतंत्र की अन्तर्वस्तु भी प्रस्तुत की है।

पृष्ठ संख्या 415

प्रश्न 2.
स्रोत दो में वक्ता को ऐसा क्यों लगता है कि संविधान सभा ब्रिटिश बंदूकों के साये में काम कर रही है?
उत्तर:
वक्ता सोमनाथ लाहिड़ी को ऐसा इसलिए लगता था कि संविधान ब्रिटिश योजना के अनुसार बना है और मामूली मतभेद के लिए भी उसे संघीय न्यायालय में अथवा ब्रिटिश प्रधानमंत्री के द्वार पर दस्तक देनी होगी। हमारा भविष्य अभी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। मूल रूप से सत्ता अभी भी अंग्रेजों के हाथ में है और सत्ता का प्रश्न बुनियादी तौर पर अभी तक तय नहीं हुआ है जिसका अर्थ यह निकलता है कि हमारा भविष्य अभी भी पूरी तरह हमारे हाथों में नहीं है।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

पृष्ठ संख्या 416 : चर्चा कीजिए

प्रश्न 3.
जवाहरलाल नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पर अपने भाषण में कौनसे विचार पेश किए?
उत्तर:
जवाहरलाल नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पर निम्न विचार अपने भाषण में पेश किए-

  • भारत एक स्वतन्त्र सम्प्रभु गणराज्य होगा।
  • अल्पसंख्यक, पिछड़ों तथा जनजातियों को सभी अधिकार मिलेंगे।
  • भारतीय संविधान में सिर्फ नकल नहीं होगी।
  • भारतीय संविधान का उद्देश्य यह होगा कि लोकतन्त्र के उदारवादी विचारों तथा आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश किया जायेगा।

पृष्ठ संख्या 418

प्रश्न 4.
स्रोत तीन व चार को पढ़िए पृथक् निर्वाचिकाओं के विरोध में कौन-कौन से तर्क दिए गए हैं?
उत्तर:
स्रोत 3 व 4 में पृथक् निर्वाचिकाओं के विरोध में निम्नलिखित तर्फ दिए गए हैं-

  • सरदार पटेल ने कहा, “क्या आप मुझे एक भी स्वतंत्र देश दिखा सकते हैं जहाँ पृथक् निर्वाचिका हो? अर्थात् स्वतंत्र देश में पृथक् निर्वाचिका की जरूरत नहीं है।”
  • वह सभी के भले के लिए है कि हम अंग्रेजों द्वारा बोए गए शरारत के बीजों को भूलकर इससे बाहर निकलने की सोचें।
  • गोविन्द बल्लभ पंत ने कहा कि मेरा मानना है कि पृथक् निर्वाचिका अल्पसंख्यकों के लिए आत्मघाती सिद्ध होगी और उन्हें भारी नुकसान पहुँचाएगी। वे हमेशा के लिए अलग बने रहेंगे, कभी भी बहुसंख्यक नहीं बन पाएंगे।
  • अगर अल्पसंख्यक पृथक निर्वाचिकाओं से जीत कर आते रहे तो कभी भी प्रभावी योगदान नहीं दे पाएँगे।
  • क्या अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यकों के रूप में ही रहना चाहते हैं या वे भी एक दिन एक महान् राष्ट्र का अभिन्न अंग बनने का सपना देखते हैं?

पृष्ठ संख्या 419

प्रश्न 5.
जी. बी. पंत निष्ठावादी नागरिकों के अभिलक्षणों को कैसे परिभाषित करते हैं?
उत्तर:
जी.बी. पंत ने निष्ठावान नागरिकों के निम्नलिखित अभिलक्षण बताए है –

  • व्यक्ति को आत्म-अनुशासन की कला सीखनी चाहिए।
  • लोकतंत्र में व्यक्ति को अपने लिए कम तथा दूसरों के लिए अधिक चिन्ता करनी चाहिए।
  • हमारी सारी निष्ठाएँ केवल राज्य पर केन्द्रित होनी चाहिए।
  • यदि व्यक्ति अपने अपव्यय पर अंकुश लगाने की बजाय दूसरों के हितों की तनिक भी चिन्ता नहीं करता, तो ऐसा लोकतंत्र निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है।

पृष्ठ संख्या 420

प्रश्न 6.
रंगा द्वारा ‘अल्पसंख्यक’ की अवधारणा को किस तरह परिभाषित किया गया है?
उत्तर:

  • एन. जी. रंगा के अनुसार तथाकथित पाकिस्तानी प्रान्तों में रहने वाले हिन्दू, सिख और यहाँ तक मुसलमान भी अल्पसंख्यक नहीं हैं।
  • असली अल्पसंख्यक तो इस देश की गरीब जनता है जो इतनी दबी-कुचली और उत्पीड़ित है जो अभी तक साधारण नागरिक के अधिकारों का लाभ नहीं उठा पा रही है।
  • असली अल्पसंख्यक वे आदिवासी हैं जिनका सदियों से व्यापारियों, जमींदारों और सूदखोरों द्वारा शोषण किया जा रहा है। इन लोगों को मूलभूत शिक्षा तक नहीं मिल पा रही है असली अल्पसंख्यक यही लोग हैं जिन्हें वास्तव में सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

पृष्ठ संख्या 422 चर्चा कीजिए

प्रश्न 7.
आदिवासियों के लिए सुरक्षात्मक उपायों की माँग करते हुए जयपाल सिंह कौन-कौनसे तर्क देते हैं?
उत्तर:
आदिवासियों के लिए सुरक्षात्मक उपायों की माँग करते हुए जयपाल सिंह तर्क देते हैं कि आदिवासी कबीले संख्या के दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं है, परन्तु उन्हें फिर भी संरक्षण की आवश्यकता है क्योंकि उन्हें वहाँ से बेदखल कर दिया गया है जहाँ वे रहते थे। उन्हें उनके जंगल और चरागाहों से दूर कर दिया गया है। इन्हें आदिम और पिछड़ा हुआ मानकर शेष समाज हेय दृष्टि से देखता है।

पृष्ठ संख्या 425

प्रश्न 8.
एक शक्तिशाली केन्द्र सरकार की हिमायत में क्या दलीलें दी जा रही थीं?
उत्तर:
(1) डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि वह एक शक्तिशाली और एकीकृत केन्द्र चाहते हैं। 1935 के गवर्नमेन्ट एक्ट में हमने जो केन्द्र बनाया था, उससे भी अधिक शक्तिशाली केन्द्र चाहते हैं।

(2) देश में हो रही हिंसात्मक घटनाओं पर नियन्त्रण करने के लिए शक्तिशाली केन्द्र होना चाहिए।

(3) बालकृष्ण शर्मा का कहना था कि शक्तिशाली केन्द्र का होना आवश्यक है ताकि वह देशहित में योजनाएँ बना सके, उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटा सके, उचित शासन व्यवस्था स्थापित कर सके और विदेशी आक्रमणों से देश की रक्षा कर सके।

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उत्तर दीजिए ( लगभग 100 से 150 शब्दों में )

प्रश्न 1.
‘उद्देश्य प्रस्ताव’ में किन आदर्शों पर जोर दिया गया था?
उत्तर:
13 दिसम्बर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई तथा फ्रेमवर्क सुझाया जिसके तहत संविधान का कार्य आगे बढ़ाना था। बंधा-

  • इसमें भारत को एक ‘स्वतन्त्र सम्प्रभु गणराज्य’ घोषित किया गया।
  • इसमें समस्त नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता और न्याय का आश्वासन दिया गया।
  • इसमें इस बात पर भी बल दिया गया कि अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों एवं दमित व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रावधान किए जाएंगे।
  • इसी अवसर पर नेहरू ने बोलते हुए कहा कि उनकी दृष्टि अतीत में हुए उन ऐतिहासिक प्रयोगों की ओर जा रही है जिनमें अधिकारों के ऐसे दस्तावेज तैयार किए गए थे।
  • नेहरू ने कहा कि भारतीय संविधान का उद्देश्य होगा-लोकतंत्र के उदारवादी विचारों और आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश करें तथा भारतीय संदर्भ में इनकी रचनात्मक व्याख्या करें।

प्रश्न 2.
विभिन्न समूह’ अल्पसंख्यक’ शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
उत्तर:
सामान्यतः अल्पसंख्यक शब्द से हमारा तात्पर्य राष्ट्र की कुल जनसंख्या में किसी वर्ग अथवा समुदाय के कम अनुपात से है परन्तु अलग-अलग लोगों ने अपने- अपने ढंग से अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित किया है, जो इस प्रकार हैं –

  1. मद्रास के बी. पोकर बहादुर के अनुसार मुसलमान अल्पसंख्यक थे, क्योंकि मुसलमानों की आवश्यकताओं को गैर-मुसलमान अच्छी प्रकार से नहीं समझ सकते, न ही अन्य समुदायों के लोग मुसलमानों का कोई सही प्रतिनिधि चुन सकते हैं।
  2. कुछ लोग दमित वर्ग के लोगों को हिन्दुओं से अलग करके देख रहे थे, और उनके लिए अधिक स्थानों का आरक्षण चाह रहे थे।
  3. एन. जी. रंगा के अनुसार असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे-कुचले लोग थे रंगा आदिवासियों को अल्पसंख्यक मानते थे। उनका शोषण व्यापारियों, जमींदारों तथा सूदखोरों द्वारा किया जा रहा था। जयपालसिंह ने भी आदिवासियों को अल्पसंख्यक बताया।
  4. एन. जी. रंगा के अनुसार अल्पसंख्यक तथाकथित पाकिस्तानी प्रान्तों में रहने वाले हिन्दू, सिख और यहाँ तक मुसलमान भी अल्पसंख्यक नहीं हैं असली अल्पसंख्यक इस देश की जनता है; यह जनता इतनी दमित, उत्पीड़ित और कुचली हुई है कि अभी तक साधारण नागरिक को मिलने वाले लाभ भी नहीं उठा रही है।

प्रश्न 3.
प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
उत्तर:
राज्यों के अधिकारों की सबसे शक्तिशाली हिमायत मद्रास के सदस्य के संतनम ने प्रस्तुत की। उन्होंने प्रान्तों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए –
(1) उन्होंने कहा कि न केवल राज्यों को बल्कि केन्द्र को ताकतवर बनाने के लिए शक्तियों का पुनर्वितरण आवश्यक है। यदि केन्द्र के पास जरूरत से ज्यादा शक्तियाँ होंगी तो वह प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर पाएगा। उसके कुछ दायित्वों को कम करने से और उन्हें राज्यों को सौंप देने से केन्द्र ज्यादा मजबूत हो सकता है।

(2) संतनम का दूसरा तर्क यह था कि शक्तियों का मौजूदा वितरण उन्हें पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर देगा क्योंकि भू-राजस्व के अलावा ज्यादातर कर केन्द्र सरकार के अधिकार में दे दिए गए हैं। यदि पैसा ही नहीं होगा तो राज्यों में विकास परियोजनाएँ कैसे चलेंगी।

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(3) संतनम ने एक और तर्क देते हुए कहा कि अगर पर्याप्त जाँच-पड़ताल किए बिना शक्तियों का प्रस्तावित वितरण लागू कर दिया गया तो हमारा भविष्य अंधकार में पढ़ जाएगा। उन्होंने कहा कि कुछ ही सालों में सारे प्रान्त केन्द्र के विरुद्ध उठ खड़े होंगे। उड़ीसा के एक सदस्य के अनुसार बेहिसाब केन्द्रीकरण के कारण केन्द्र बिखर जाएगा।

प्रश्न 4.
महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिन्दुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?
अथवा
महात्मा गाँधी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा क्यों बनाना चाहते थे? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। इसलिए किसी भी देश में राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने हेतु एक भाषा का होना आवश्यक है। भारत बहुभाषी देश है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों को आश्रय प्राप्त है, इसलिए यहाँ अनेक भाषाएं बोली जाती हैं।

भाषा के सन्दर्भ में गाँधीजी का मानना था –
(1) महात्मा गाँधी का मानना था कि हिन्दुस्तानी भाषा हिन्दी और उर्दू के मेल से बनी है और यह भारतीय जनता के बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी। यह भाषा विविध संस्कृतियों के आदान- प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।

(2) समय बीतने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के स्रोतों से नये-नये शब्द और अर्थ हिन्दुस्तानी भाषा में समाविष्ट होते गए और उसे विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोग समझने लगे।

(3) महात्मा गाँधी ने महसूस किया कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा बन सकती है। यह हिन्दुओं और मुसलमानों को, उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इन सभी कारणों से गाँधीजी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे।

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निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिये (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 5.
वे कौन सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का रूप तय किया?
उत्तर:
संविधान का रूप तय करने वाली ताकतें संविधान का रूप तय करने वाली प्रमुख ऐतिहासिक ताकतें निम्नलिखित –
(1) काँग्रेस पार्टी काँग्रेस पार्टी देश की एक प्रमुख राजनीतिक ताकत थी जिसने देश के संविधान को लोकतांत्रिक गणराज्य, धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में भूमिका अदा की थी। संविधान सभा में लगभग 82 प्रतिशत सदस्य कॉंग्रेस पार्टी के थे। कांग्रेस पार्टी में विभिन्न वैचारिक धाराएँ कार्य कर रही थीं।

कॉंग्रेस के तीन सदस्यों की प्रमुख भूमिका रही। ये सदस्य थे- जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और राजेन्द्र प्रसाद पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ को पेश किया तथा भारत के राष्ट्रीय ध्वज की |रूप-रेखा भी निर्धारित की थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कई रिपोर्टों के प्रारूप लिखने में विशेष सहायता की और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।

(2) दलित वर्ग जो नेता दलितों या हरिजनों के पक्षधर थे उन्होंने संविधान को कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता व न्याय दिलाने वाला, आरक्षण की व्यवस्था करने वाला, छुआछूत को मिटाने वाला स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में काम किया।

(3) वामपंथी विचारधारा-जिन समुदायों या राजनैतिक दलों पर वामपंथी विचारों या समाजवादी विचारों का प्रभाव था, उन्होंने संविधान में समाजवादी ढाँचे के अनुसार सरकार बनाने, भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने और धीरे-धीरे समान काम के लिए समान वेतन, बंधुआ मजदूरी समाप्त करने, जमींदारी उन्मूलन आदि की व्यवस्थाएँ करने के लिए वातावरण या संवैधानिक व्यवस्थाएँ तय करने में योगदान दिया।

(4) आदिवासियों के प्रतिनिधि- आदिवासियों से सम्बन्धित नेताओं ने संविधान सभा में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि आदिवासियों के साथ अनेक वर्षों से ब्रिटिश सरकार, जमींदारों, सूदखोरों और साहूकारों ने सही व्यवहार नहीं किया। आदिवासी नेता पृथक् निर्वाचिका बनाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन विधायिका में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को आवश्यक समझते थे।

(5) लोगों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति पं. नेहरू ने कहा था कि सरकार जनता की इच्छा को अभिव्यक्ति होती है। हमारे पास जनता की शक्ति है। हम उतनी दूर तक ही जायेंगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे। सविधान सभा उन लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन मानी जा रही थी जिन्होंने स्वतन्त्रता के आन्दोलनों में भाग लिया। लोकतन्त्र, समानता तथा न्याय जैसे आदर्श 19वीं शताब्दी से भारत में स्वमाजिक संघर्षो के साथ गहरे तौर पर जुड़ चुके थे। इस प्रकार समाज सुधारकों ने सामाजिक न्याय पर तथा धार्मिक सुधारकों ने धर्मों को न्यायसंगत बनाने पर बल दिया।

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(6) जनमत-संविधान सभा में हुई चर्चाएँ जनमत से भी प्रभावित होती थीं जब संविधान सभा में बहस होती थी तो विभिन्न पक्षों की दलीलें अखबारों में भी छपती थीं और तमाम प्रस्तावों पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी। इस तरह प्रेस में होने वाली इस आलोचना और जवाबी आलोचना से किसी मुद्दे पर बनने वाली सहमति या असहमति पर गहरा असर पड़ता था सामूहिक सहभागिता बनाने के लिए जनता के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे।

प्रश्न 6.
दमित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
दमित समूहों (जातियों) की सुरक्षा के लिए बहुत सारे दावे किये गए जो निम्नानुसार हैं –
(1) पृथक निर्वाचिका की माँग राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दमित या दलित जातियों के लिए पृथक् निर्वाचिका की माँग की थी जिसका गाँधीजी ने यह कहते हुए विरोध किया था कि ऐसा करने से यह समुदाय स्थायी रूप से कट जाएगा।

(2) संरक्षण और बचाव संविधान सभा में मौजूद दमित जातियों के सदस्यों का आग्रह था कि अस्पृश्यों अछूतों की समस्या को केवल संरक्षण और बचाव के द्वारा हल नहीं किया जा सकता। उनकी अपंगता के पीछे जाति विभाजित समाज के सामाजिक कायदे-कानूनों और नैतिक मूल्य-मान्यताओं का हाथ है। समाज ने उनकी सेवाओं और श्रम का इस्तेमाल किया है परन्तु उन्हें सामाजिक तौर पर स्वयं से दूर रखा है, अन्य जातियों के लोग उनके साथ घुलने-मिलने से कतराते हैं, उनके साथ भोजन नहीं करते और उन्हें मन्दिरों में प्रवेश से रोका जाता है।

(3) कष्ट उठाने को तैयार नहीं-मद्रास के सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था, “हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं। हमें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया है, हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी है।” नागप्पा ने दूसरा तर्क दिया कि हरिजन अल्पसंख्यक नहीं है आबादी में उनका हिस्सा 20-25 प्रतिशत है। उनकी पीड़ा का कारण यह है कि उन्हें बाकायदा समाज व राजनीति के हाशिए पर रखा गया है उसका कारण उनकी संख्यात्मक महत्वहीनता नहीं है। उनके पास न तो शिक्षा तक पहुँच थी और न ही शासन में हिस्सेदारी।

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(4) हजारों साल तक दमन-मध्य प्रान्त के सदस्य के. जे. खांडेलकर ने कहा था “हमें हजारों साल तक दबाया गया है। …इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भावशून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति हैं।”

(5) अस्पृश्यता का उन्मूलन – भारत को स्वतंत्रता मिलने तथा देश के विभाजन के बाद डॉ. अम्बेडकर ने दमित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचिका को माँग छोड़ दी थी। उन्होंने संविधान के द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन किए जाने और मन्दिरों के द्वार सभी के लिए खोल दिए जाने व तथाकथित निम्न जाति कहे जाने वालों के लिए विद्याविकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का समर्थन किया। बहुत सारे लोगों का मानना था कि इससे भी समस्त समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा। सामाजिक भेदभाव को केवल संवैधानिक कानून पारित करके समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज की सोच में परिवर्तन लाना होगा। परन्तु लोकतान्त्रिक जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया।

प्रश्न 7.
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केन्द्र सरकार की जरूरत के बीच क्या सम्बन्ध देखा?
उत्तर:
तत्कालीन परिस्थितियाँ और मजबूत केन्द्र की आवश्यकता –
संविधान सभा के कुछ सदस्यों द्वारा तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में ताकतवर केन्द्रीय सरकार की वकालत की गई। उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केन्द्र सरकार की जरूरत के बीच निम्नलिखि सम्बन्ध देखा –

(1) शान्ति स्थापित करने, आम सरोकारों के बी समन्वय स्थापित करने तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देश की आवाज उठाने के लिए मजबूत केन्द्र की आवश्यकत पर बल-जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन परिस्थितियों शक्तिशाली केन्द्र सरकार की आवश्यकता पर बल देते हु संविधान सभा के अध्यक्ष के नाम लिखे पत्र में कहा कि “अब जबकि विभाजन एक हकीकत बन चुका है.. एक दुर्बल केन्द्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी क्योंकि ऐसा केन्द्र शान्ति स्थापित करने में, आम सरोकारों के बीच समन्वय स्थापित करने में औ- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए आवाज उठाने सक्षम नहीं होगा।”

(2) सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता- डॉ. अम्बेडकर अन्य अनेक सदस्यों ने सड़कों पर हो रही जिस हिंसा के कारण देश टुकड़े-टुकड़े हो रहा था, उसका हवाला देते हुए बार-बार यह कहा कि केन्द्र की शक्तियों में भारी इजाफा होना चाहिए ताकि वह सांप्रदायिक हिंसा को रोक सके डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि 1935 के गवर्नमेन्ट एक्ट में हमने जो केन्द्र बनाया था, उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केन्द्र हम चाहते हैं।

(3) योजना बनाने, आर्थिक संसाधनों को जुटाने तथा देश को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता संयुक्त प्रान्त के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने विस्तार से इस बात पर प्रकाश डाला कि एक शक्तिशाली केन्द्र का होना जरुरी है ताकि वह देश के हित में योजना बना सके उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटा सके, एक उचित शासन व्यवस्था स्थापित कर सके और देश को विदेशी आक्रमण से बचा सके।

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(4) प्रान्तीय स्वायत्तता के लिए विभाजन के बाद, राजनैतिक दबाव का कम होना विभाजन से पहले काँग्रेस ने प्रान्तों को काफी स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी कुछ हद तक यह मुस्लिम लीग को इस बात का भरोसा दिलाने की कोशिश थी कि जिन प्रान्तों में लीग की सरकार बनी है, यहाँ दखलंदाजी नहीं की जाएगी। लेकिन विभाजन के बाद अब एक विकेन्द्रीकृत संरचना के लिए पहले जैसे राजनैतिक दबाव नहीं रह गये थे इसलिए राष्ट्रवादियों ने अब शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता पर बल दिया।

(5) उस समय विद्यमान एकल राजनीतिक व्यवस्था- औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपी गई एकल राजनैतिक व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी। उस जमाने में हुई घटनाओं व से केन्द्रीयतावाद को बढ़ावा मिला जिसे अब अफरा-तफरी T पर अंकुश लगाने तथा देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए और भी जरूरी माना जाने लगा।

प्रश्न 8.
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला ?
अथवा
संविधान सभा ने भाषा विवाद को किस प्रकार सुलझाने का प्रयास किया?
अथवा
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को किस प्रकार हल किया? व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
संविधान सभा में भाषा के सुवाल को लेकर कई महीनों तक गरमागरम बहस हुई और कई बार काफी तनाव भी उत्पन्न हुआ। भारत एक बहुभाषी देश है, हर प्रान्त की अपनी-अपनी अलग भाषा है। ऐसे में राष्ट्रभाषा किसे बनाया जाए, यह मुद्दा बहुत ही पेचीदा था।

(1) काँग्रेस व गाँधीजी द्वारा हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का विचार बीसवीं शताब्दी के तीस के दशक तक कांग्रेस पार्टी ने यह मान लिया था कि हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। महात्मा गाँधी का मानना था कि हरेक को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे सभी लोग आसानी से समझ सकें हिन्दी व उर्दू के मेल से बनी हिन्दुस्तानी भारतीय जनता के एक बहुत बड़े हिस्से द्वारा बोली व समझी जाती थी और यह विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी। जैसे-जैसे समय बीता कई प्रकार के स्रोतों से नए- नए शब्द व अर्थ इसमें समाते गए और उसे विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोग समझने लगे। गाँधीजी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के संचार की आदर्श भाषा हो सकती है वह हिन्दू-मुसलमानों तथा उत्तर-दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है।

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(2) हिन्दुस्तानी का परिवर्तित रूप तथा हिन्दी और उर्दू की बढ़ती दूरियाँ उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा था। जैसे-जैसे सांप्रदायिक टकराव गहराते गए हिन्दी व उर्दू के बीच दूरियाँ बढ़ती गई। एक ओर तो हिन्दी से अरबी- फारसी के शब्दों को निकाल कर उसे संस्कृतनिष्ठ बनाने की कोशिश की जा रही थी तो दूसरी तरफ उर्दू लगातार फारसी के निकट होती जा रही थी। परिणाम यह निकला कि भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई। लेकिन हिन्दुस्तानी के साझा चरित्र में गाँधीजी की आस्था कम नहीं हुई।

(3) आर.वी. धुलेकर का हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर देना – संयुक्त प्रान्त के सदस्य आर.वी. धुलेकर का विचार था कि संविधान को लिखने की भाषा भी हिन्दी ही होनी चाहिए। इस पर कई सदस्यों ने एतराज किया कि संविधान सभा के सभी सदस्यों को हिन्दी नहीं आती। इसका धुलेकर ने जवाब दिया कि “इस सदन में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिन्दुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिये।” धुलेकर की टिप्पणी से सभा में हंगामा खड़ा हो गया, नेहरूजी के हस्तक्षेप के बाद शान्त हुआ। लेकिन भाषा का सवाल अगले तीन साल तक बार-बार कार्यवाहियों में बाधा पैदा करता रहा।

(4) भाषा समिति की रिपोर्ट संविधान सभा की भाषा समिति ने हिन्दी के समर्थकों व विरोधियों के बीच पैदा गतिरोध को तोड़ने हेतु एक फार्मूला प्रस्तुत किया। समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी भारत की राजकीय भाषा होगी। परन्तु इस फार्मूले को समिति ने घोषित नहीं किया था। समिति का मानना था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। पहले 15 साल तक सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। प्रत्येक प्रान्त को अपने कामकाज हेतु कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

संविधान सभा की भाषा समिति ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बजाय राजभाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावनाओं को शान्त करने और सर्व स्वीकृत समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। आखिर में कुछ सदस्यों ने जिनमें दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, मद्रास आदि के सदस्य थे, ने कहा कि हिन्दी के लिए जो कुछ भी किया जाए, बड़ी सावधानी से किया जाए तभी इस भाषा का भला हो पायेगा। सभी सदस्यों ने हिन्दी की हिमायत को तो स्वीकार किया लेकिन उसके वर्चस्व को अस्वीकार कर दिया।

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संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत JAC Class 12 History Notes

→ भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया और यह दुनिया का सबसे लंबा संविधान है। भारत के संविधान को दिसम्बर, 1946 से दिसम्बर, 1949 के बीच सूत्रबद्ध किया गया। सविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए, जिनमें 165 दिन बैठकों में गए। सत्रों के बीच-बीच विभिन्न समितियाँ और उपसमितियाँ मसविदे को सुधारने एवं संवारने का काम करती थीं।

→ उथल-पुथल का दौर-संविधान निर्माण के पहले के वर्ष काफी उथल-पुथल वाले थे। यह महान् आशाओं का क्षण भी था और भीषण मोहभंग का भी 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद तो कर दिया गया किन्तु इसके साथ ही इसे विभाजित भी कर दिया गया। लोगों की स्मृति में 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन, सुभाष चन्द्र बोस के स्वतंत्रता के प्रयास, शाही भारतीय नौसेना का विद्रोह अभी भी जीवित थे देश के विभिन्न भागों में मजदूरों व किसानों के आन्दोलन जारी थे।

→ व्यापक हिन्दू-मुस्लिम एकता इन जन आन्दोलनों का एक अहम पहलू था इसके विपरीत काँग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों प्रमुख राजनीतिक दल धार्मिक सौहार्द और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए सुलह- सफाई की कोशिशों में असफल होते जा रहे थे। अगस्त, 1946 में कलकत्ता में शुरू हुई हिंसा उत्तर और पूर्वी भारत में फैल गई थी। इसके साथ ही देश के विभाजन की घोषणा हुई और असंख्य लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे। इससे शरणार्थियों की समस्या खड़ी हो गई थी।

121 नवजात राष्ट्र के सामने इतनी गंभीर एक और समस्या देशी रियासतों को लेकर थी। ब्रिटिश राज के दौरान उपमहाद्वीप का लगभग एक तिहाई भूभाग ऐसे नवाबों और रजवाड़ों के नियन्त्रण में था जो ब्रिटिश ताज की अधीनता स्वीकार कर चुके थे स्वतंत्रता की घोषणा के बाद कुछ महाराजा तो बहुत सारे टुकड़ों में बँटे भारत में स्वतंत्र सत्ता का सपना देख रहे थे इन देशी रियासतों की भारत राज्य में एकीकरण की समस्या सामने थी।

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→ संविधान सभा का गठन –
(क) संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव 1946 के प्रांतीय चुनावों के आधार पर किया गया था। संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय प्रांतों द्वारा भेजे गए सदस्यों के अतिरिक्त रियासतों के प्रतिनिधि भी शामिल थे उन्हें इसलिए शामिल किया गया था क्योंकि ये राज्य एक-एक करके भारतीय संघ में शामिल हो चुके थे मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार किया तथा एक अन्य संविधान बनाकर उसने पाकिस्तान की माँग जारी रखी।

समाजवादी भी शुरुआत में संविधान सभा से परे रहे जिसके कारण उस दौर में संविधान सभा एक ही पार्टी का समूह बनकर रह गई थी और संविधान सभा के 82 प्रतिशत सदस्य काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे। लेकिन सभी कांग्रेस सदस्य एकमत नहीं थे। वे समाजवादी, जमींदारी के पक्षधर तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधाराओं से सम्बन्धित थे इसलिए मुद्दों पर वाद-विवाद, बातचीत तथा समझौते के द्वारा उन्हें हल करते थे।

(ख) संविधान सभा में हुई चर्चाएँ जनमत से भी प्रभावित होती थीं जब संविधान सभा में बहस होती थी तो विभिन्न पक्षों की दलीलें अखबारों में भी छपती थीं और सभी प्रस्तावों पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी। इस तरह प्रेस में होने वाली इस आलोचना और जवाबी आलोचना से किसी मुद्दे पर चलने वाली सहमति या असहमति पर गहरा असर पड़ता था।

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→ संविधान सभा में मुख्य आवाजें संविधान सभा में कुल तीन सी सदस्य थे। इनमें से छह सदस्यों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण दिखाई देती है।

यथा –
(क) नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ तथा तिरंगे झण्डे का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था।
(ख) पटेल ने परदे के पीछे रहकर कई प्रारूपों को लिखने में मदद की थी तथा विरोधी विचारों के बीच सहमति पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
(ग) राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे।
(प) डॉ. बी. आर. अम्बेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे।
(ङ) गुजरात के के.एम. मुंशी और

(च) मद्रास के अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर दोनों ने ही संविधान के प्रारूप पर महत्वपूर्ण सुझाव दिए। (छ) इन छः सदस्यों को दो प्रशासनिक अधिकारी बी. एन. राव और एस. एन. मुखर्जी जटिल प्रस्तावों को स्पष्ट वैधिक भाषा में व्यक्त करने की क्षमता रखते थे। इस कार्य में कुल मिलाकर तीन वर्ष लगे और इस दौरान हुई चर्चाओं के मुद्रित रिकॉर्ड 11 भारी-भरकम खंडों में प्रकाशित हुए।

→ संविधान की दृष्टि –
(1) उद्देश्य प्रस्ताव 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पेश किया। इस प्रस्ताव में भारत के मूल संविधान के आदशों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई। इसमें भारत को ‘स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य घोषित किया गया। नागरिकों को न्याय, समानता व स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया था और यह वचन दिया गया था कि अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों एवं दमित व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रावधान किए जाएँगे। भारतीय संविधान का उद्देश्य यह होगा कि लोकतंत्र के उदारवादी विचारों और आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश किया जाए और भारतीय संदर्भ में इन विचारों की रचनात्मक व्याख्या की जाए।

(ii) लोगों की इच्छा –
(क) संविधान सभा के कम्यूनिस्ट सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी ने यह प्रश्न उठाया कि संविधान सभा अंग्रेजों की बनाई हुई है और वह अंग्रेजों की योजना को साकार करने का काम कर रही हैं। इसके उत्तर में नेहरू ने कहा कि यह सही है कि राष्ट्रवादी नेता एक भित्र प्रकार की संविधान सभा चाहते थे तथा उस सभा के गठन में ब्रिटिश सरकार का काफी हाथ है तथा इसके कामकाज पर कुछ शर्तें भी लगी हुई हैं, लेकिन इसके पास जनता की ताकत है।

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(ख) संविधान सभा उन लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन मानी जा रही थी, जिन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया था। लोकतंत्र, समानता तथा न्याय जैसे आदर्श उन्नीसवीं सदी से भारत में सामाजिक संघर्षो के साथ गहरे तौर पर जुड़ चुके थे।

(ग) जैसे-जैसे प्रतिनिधित्व की मांग बढ़ी, अंग्रेजों को चरणबद्ध ढंग से संवैधानिक सुधार करने पड़े प्रांतीय सरकारों में भारतीयों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कई कानून (1909 1919 और 1935) पारित किए गए, जो प्रतिनिध्यात्मक सरकार के लिए लगातार बढ़ती माँग के जवाब में थे। इन्हें पारित करने की प्रक्रिया में भारतीयों की कोई प्रत्यक्ष हिस्सेदारी नहीं थी, उन्हें औपनिवेशिक सरकार ने ही लागू किया था, लेकिन इस सविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान भारतीय जनता के प्रतिनिधियों द्वारा निर्मित तथा एक स्वतंत्र संप्रभु भारतीय गणराज्य के संविधान की कल्पना थी।

→ अधिकारों का निर्धारण नागरिकों के अधिकार किस तरह निर्धारित किये जाएँ? क्या उत्पीड़ित समूहों को कोई विशेष अधिकार मिलने चाहिए? अल्पसंख्यकों के क्या अधिकार हो ? वास्तव में अल्पसंख्यक किसे कहा जाए? जैसे-जैसे संविधान सभा के पटल पर बहस आगे बढ़ी, यह साफ हो का कोई ऐसा उत्तर मौजूद नहीं है जिस पर पूरी सभा सहमत हो यथा –
गया कि इनमें से किसी भी सवाल

(i) पृथक् निर्वाचिका की समस्या – 27 अगस्त, 1947 को मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने पृथक निर्वाचिका बनाए रखने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया तथा इसके पक्ष में अपनी दलीलें रखीं। लेकिन पृथक निर्वाचिका की हिमायत में दिए गए बयान से राष्ट्रवादी नेता भड़क गए। विभाजन के कारण तो राष्ट्रवादी नेता और भड़कने लगे। उन्हें निरन्तर गृहयुद्ध, दंगों और हिंसा की आशंका दिखाई देती थी। गोविन्द वल्लभ पंत ने ऐलान किया कि पृथक् निर्वाचिका का प्रस्ताव न केवल राष्ट्र के लिए अपितु अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक है।

इन सारी दलीलों के पीछे एक एकीकृत राज्य के निर्माण की चिन्ता काम कर रही थी राजनीतिक एकता और राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रत्येक व्यक्ति को राज्य के नागरिक सांचे में ढालना था तथा हर समूह को राष्ट्र के भीतर समाहित किया जाना था संविधान नागरिकों को अधिकार देगा, समुदायों को सांस्कृतिक इकाइयों के रूप में मान्यता दी जा सकती थी, उन्हें सांस्कृतिक अधिकारों का आश्वासन दिया जा सकता था लेकिन राजनीतिक रूप से सभी समुदायों के सदस्यों को राज्य के सामान्य सदस्य के रूप में काम करना था अन्यथा उनकी निष्ठाएँ विभाजित होतीं। 1949 तक संविधान सभा के अधिकतर सदस्य इस बात पर सहमत हो गये थे कि पृथक् निर्वाचन का प्रस्ताव अल्पसंख्यकों के हितों के खिलाफ जाता है।

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(ii) केवल इस प्रस्ताव से काम चलने वाला नहीं है –

(क) उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए किसान आन्दोलन के नेता और समाजवादी विचारों वाले एन. जी. रंगा ने आह्वान किया कि अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर पर की जानी चाहिए रंगा की नजर में असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे-कुचले लोग थे। उन्होंने इस बात का स्वागत किया कि संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को कानूनी अधिकार दिए जा रहे हैं मगर उन्होंने इसकी सीमाओं को भी चिह्नित किया तथा कहा कि ऐसी परिस्थितियाँ बनाई जाएँ जहाँ संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का जनता प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सके। इसलिए गरीबों को सहारे की जरूरत है।

(ख) रंगा ने आम जनता और संविधान सभा में उसके प्रतिनिधित्व का दावा करने वालों के बीच मौजूद विशाल खाई की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया।

(ग) रंगा ने आदिवासियों को भी ऐसे ही समूहों में गिनाया था। इस समूह के प्रतिनिधियों में जयपाल सिंह जैसे जबरदस्त वक्ता भी शामिल थे।

(घ) जयपाल सिंह ने आदिवासियों की सुरक्षा तथा उन्हें आम आबादी के स्तर पर लाने के लिए जरूरी परिस्थितियाँ रचने की आवश्यकता पर सुन्दर वक्तव्य दिया तथा विधायिका में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था का होना आवश्यक बताया।

(iii) हमें हजारों साल तक दबाया गया है –
संविधान में दलितों के अधिकारों को किस तरह परिभाषित किया जाए? राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान अम्बेडकर ने दलितों के लिए पृथक् निर्वाचिकाओं की मांग की थी जिसका महात्मा गाँधी ने यह कहते हुए विरोध किया था ऐसा करने से यह समुदाय स्थायी रूप से शेष समाज से कट जाएगा। संविधान सभा इस विवाद को कैसे हल कर सकती थी? दलितों को किस तरह की सुरक्षा दी जा सकती थी? इस पर विभिन्न सदस्यों ने अपने-अपने सुझाव दिये अंततः सविधान सभा में यह निर्णय हुआ कि अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए, हिन्दू मन्दिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाये और निचली जातियों को विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाये। लोकतांत्रिक जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया।

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→ राज्य की शक्तियाँ –
(क) संविधान सभा में इस बात पर काफी बहस हुई कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के क्या अधिकार होने चाहिए? जो लोग शक्तिशाली केन्द्र के पक्ष में थे उनमें से एक जवाहरलाल नेहरू भी थे। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि दुर्बल केन्द्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी दुर्बल केन्द्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए आवाज उठाने में सक्षम नहीं होगा।

(ख) भारतीय संविधान के मसविदे में विषयों की तीन सूचियाँ बनाई गई थीं। केन्द्रीय सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची। पहली सूची के विषय केन्द्र सरकार के अधीन होंगे, जबकि दूसरी सूची के विषय केवल राज्य सरकार के अधीन होंगे। तीसरी सूची के विषय केन्द्र व राज्य दोनों की साझा जिम्मेदारी थे परन्तु अन्य संपों की तुलना में बहुत ज्यादा विषयों को केवल केन्द्रीय नियन्त्रण में रखा गया। समवर्ती सूची में भी प्रांतों की इच्छाओं की उपेक्षा करते हुए बहुत ज्यादा विषय रखे गए।

(ग) संविधान में राजकोषीय संघवाद की भी एक जटिल व्यवस्था बनाई गई कुछ करों (जैसे सीमा शुल्क और कम्पनी कर) से होने वाली सारी आय केन्द्र सरकार के पास रखी गई, कुछ अन्य मामलों (जैसे आबकारी शुल्क और आयकर से होने वाली आय केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच वॉट दी गई। कुछ अन्य मामलों से होने वाली आय (जैसे राज्य स्तरीय शुल्क) पूरी तरह राज्यों को सौंप दी गई। राज्य सरकारों को अपने स्तर पर भी कुछ अधिभार और कर वसूलने का अधिकार दिया गया। उदाहरण के लिए वे जमीन और सम्पत्ति कर, बिक्री कर तथा बोतलबंद शराब पर अलग से कर वसूल सकते थे।

(i) केन्द्र बिखर जाएगा – राज्य के अधिकारों की सबसे शक्तिशाली हिमायत मद्रास के सदस्य संतनम ने पेश की। उन्होंने कहा कि न केवल राज्यों को बल्कि केन्द्र को मजबूत बनाने के लिए शक्तियों का पुनर्वितरण जरूरी है। क्योंकि शक्तियों का वर्तमान वितरण उन्हें पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर | देगा, क्योंकि भू-राजस्व के अलावा ज्यादातर कर केन्द्र सरकार के अधिकार में दे दिए गए हैं। यदि पैसा नहीं होगा तो राज्यों में विकास परियोजनाएँ कैसे चलेंगी। प्रान्तों के बहुत सारे सदस्य भी इस तरह की आशंकाओं से परेशान थे।

(ii) “आज हमें एक शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता है – प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की माँग से सभा में तीखी प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। शक्तिशाली केन्द्र की जरूरत को असंख्य अवसरों पर रेखांकित किया जा चुका था। अम्बेडकर ने घोषणा की थी कि वह ‘एक शक्तिशाली और एकीकृत केन्द्र चाहते हैं। 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केन्द्र बनाया था उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केन्द्र चाहते हैं सड़कों पर हो रही जिस हिंसा के कारण देश टुकड़े-टुकड़े हो रहा था उसका सन्दर्भ देते हुए बहुत सारे सदस्यों ने बार-बार यह कहा कि केन्द्र की शक्तियों में बढ़ोतरी होनी चाहिए ताकि वह सांप्रदायिक हिंसा रोक सके।

विभाजन से पहले कांग्रेस ने प्रांतों को काफी स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी। कुछ हद तक यह मुस्लिम लीग को इस बात का भरोसा दिलाने की कोशिश थी कि जिन प्रान्तों में लीग की सरकार बनी है वहाँ दखलंदाजी नहीं की जाएगी। लेकिन विभाजन के बाद विकेन्द्रीकृत संरचना के लिए पहले जैसे दबाव नहीं बचे थे।

औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपी गई एकल व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी उस जमाने में घटी घटनाओं से केन्द्रीयतावाद को और बढ़ावा मिला जिसे अब अफरातफरी पर अंकुश लगाने तथा देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए और भी जरूरी माना जाने लगा। इस प्रकार संविधान में भारतीय संघ के घटक राज्यों के अधिकारों की ओर स्पष्ट झुकाव दिखाई देता है।

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→ राष्ट्र की भाषा – 1930 के दशक तक काँग्रेस ने यह मान लिया था कि हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जये महात्मा गाँधी का मानना था कि हर एक को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें हिन्दी और उर्दू के मेल से बनी हिन्दुस्तानी भारतीय जनता के बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी और यह विविध संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।

लेकिन उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी। जैसे-जैसे सांप्रदायिक टकराव गहरे होते जा रहे थे हिन्दी और उर्दू एक-दूसरे से दूर जा रही थी। एक तरफ तो फारसी और अरबी मूल के सारे शब्दों को हटाकर हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाने की कोशिश की जा रही थी, दूसरी तरफ उर्दू फारसी के नजदीक होती जा रही थी। परिणाम यह हुआ कि भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई। लेकिन हिन्दुस्तानी के साझा चरित्र में महात्मा गाँधी की आस्था कम नहीं हुई।

(क) हिन्दी की हिमायत-संविधान सभा के एक शुरुआती सत्र में संयुक्त प्रांत के काँग्रेसी सदस्य आर. बी. धुलेकर ने इस बात के लिए पुरजोर शब्दों में आवाज उठाई थी कि हिन्दी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए तब से भाषा का प्रश्न अगले तीन साल तक बार-बार कार्रवाइयों में बाधा डालता रहा और सदस्यों को उत्तेजित करता रहा। इस बीच संविधान सभा की भाषा समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिन्दी के समर्थकों और विरोधियों के बीच पैदा हो गए गतिरोध को तोड़ने के लिए एक फार्मूला विकसित किया। समिति ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा घोषित कर दिया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। पहले 15 साल तक सरकारी कामों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। प्रत्येक प्रांत को कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

(ख) वर्चस्व का भय मद्रास की सदस्य श्रीमती जी. दुर्गाबाई ने सदन को बताया कि दक्षिण में हिन्दी का विरोध बहुत ज्यादा है, विरोधियों का यह मानना संभवतः सही है कि हिन्दी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़े खोदने का प्रयास है। इसके बावजूद बहुत सारे अन्य सदस्यों के साथ-साथ उन्होंने भी महात्मा गांधी के आह्नान का पालन किया और दक्षिण में हिन्दी का प्रचार जारी रखा, विरोध का सामना किया, हिन्दी के स्कूल खोले और कक्षाएं चलाई दुर्गाबाई हिन्दुस्तानी को जनता की भाषा स्वीकार कर चुकी थीं।

मगर अब उस भाषा को बदला जा रहा था उर्दू तथा क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को उससे निकालकर उसमें संस्कृतनिष्ठ शब्द भरे जा रहे थे जैसे-जैसे चर्च तीखी होती गई, बहुत सारे सदस्यों ने परस्पर समायोजन व सम्मान की भावना का आह्वान किया। बम्बई के एक सदस्य श्री शंकर राव देव ने कहा कि काँग्रेसी तथा महात्मा गाँधी का अनुवायी होने के नाते वे हिन्दुस्तानी को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर चुके हैं, परन्तु उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “अगर आप (हिन्दी के लिए) दिल से समर्थन चाहते हैं तो आपको ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे मेरे भीतर संदेह पैदा हो और मेरी आशंकाओं को बल मिले।” मद्रास के श्री टी. ए. रामलिंगम चेट्टियार ने इस बात पर जोर दिया कि जो कुछ भी किया जाए, एतिहात के साथ किया जाए। यदि आक्रामक होकर कार्य किया गया तो हिन्दी का कोई भला नहीं हो पाएगा।

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निष्कर्ष –
(1) भारतीय संविधान गहन विवादों और परिचर्चाओं से गुजरते हुए बना। इसके कई प्रावधान लेनदेन के प्रक्रिया की द्वारा बनाए गए थे उन पर सहमति तब बन पाई जब सदस्यों ने दो विरोधी विचारों के बीच जमीन तैयार कर ली।

(2) परन्तु संविधान के एक केन्द्रीय अभिलक्षण पर काफी हद तक सहमति थी। यह सहमति प्रत्येक वयस्क भारतीय को मताधिकार देने पर थी।

(3) हमारे संविधान की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता भी धर्मनिरपेक्षता पर बल संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता का गुणगान तो नहीं किया गया था परन्तु संविधान व समाज को चलाने के लिए भारतीय संदर्भों में उसे मुख्य अभिलक्षणों का जिक्र आदर्श रूप में किया गया था। मूल अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार, समानता का अधिकार इसके प्रमाण हैं।

(4) संविधान सभा के विवादों से हमें यह समझ तो आती है कि सविधान के निर्माण में कैसी-कैसी निरोधी आवाजें उठी थीं और कैसी-कैसी माँगें की गई। ये चर्चाएं हमें उन आदर्शों और सिद्धान्तों के विषय में बताती हैं जिनका वर्णन सविधान निर्माताओं ने किया, परन्तु इन विवादों को समझने में हमें याद रखना चाहिए कि आदर्शों को विशेष संदर्भों के मुताबिक बदला गया। इसके अलावा ऐसा भी हुआ कि सभा के कुछ सदस्यों ने तीन वर्षों में हुई चर्चाओं के साथ-साथ अपने विचार ही बदल डाले। कुछ सदस्यों ने दूसरों के तर्कों के प्रकाश में अपनी समझ बदली और खुले दिलो-दिमाग से काम किया कुछ अन्य सदस्यों आस-पास की घटनाओं को देखते हुए अपने विचार बदल डाले।

काल-रेखा
1945 26 जुलाई दिसम्बर-जनवरी ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आती है। भारत में आम चुनाव।
1946 16 मई कैबिनेट मिशन अपनी संवैधानिक योजना की घोषणा करता है।
16 जून मुस्लिम लीग कैबिनेट मिशन की संवैधानिक योजना पर स्वीकृति देती है।
16 जून कैबिनेट मिशन केन्द्र में अन्तरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव पेश करता है।
2 सितम्बर कांग्रेस अन्तरिम सरकार का गठन करती है, जिसमें नेहरू को उपराष्ट्रपति बनाया जाता है।
13 अक्टूबर मुस्लिम लीग अन्तरिम सरकार में शामिल होने का फैसला लेती है।
3-6 दिसम्बर ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली कुछ भारतीय नेताओं से मिलते हैं। इन वार्ताओं का कोई नतीजा नहीं निकलता है।
9 दिसम्बर संविधान सभा के अधिवेशन शुरू हो जाते हैं।
1947 29 जनवरी मुस्लिम लीग संविधान सभा को भंग करने की माँग करती है।
16 जुलाई अन्तरिम सरकार की अन्तिम बैठक होती है।
11 अगस्त जिन्ना को पाकिस्तान की संविधान सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया जाता है।
14 अगस्त पाकिस्तान को स्वतन्त्रता : कराची में जश्न।
14-15 अगस्त मध्यरात्रि भारत में स्वतन्त्रता का जश्न।
1949 दिसम्बर भारतीय संविधान पर हस्ताक्षर।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Jharkhand Board Class 12 History विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 379

प्रश्न 1.
प्रत्येक स्रोत से आपस में बातचीत करने वाले इन लोगों के रुख के बारे में हमें क्या पता चलता है?
उत्तर:
प्रत्येक खोत से हमें आपस में बातचीत करने वालों से यह पता चलता है कि प्रत्येक का दृष्टिकोण अलग-अलग है-
(1) स्रोत एक के अब्दुल लतीफ एक सहृदय व्यक्ति हैं जो अपने पिता की जान बचाने वाले की मदद करके अपने पिता पर चढ़े हुए कर्ज को चुका रहे हैं पाकिस्तान के नागरिक होते हुए भी वे हिन्दुस्तानी से नफरत नहीं करते।

(2) दूसरे स्रोत के इकबाल अहमद अपनी वतनपरस्ती (देशभक्ति) के कारण हिन्दुस्तानियों की मदद नहीं करते हैं। लेकिन उनके दिल में कहीं इंसानियत छिपी है, जिसके कारण वे शोधार्थी को चाय पिलाते तथा अपनी आपबीती सुनाते हैं। दिल्ली में मिलने वाला सिख उन्हें अपने सगे- सम्बन्धी जैसा लगा । वतन छूट जाने पर भी सिख के मन में लाहौर के
मुसलमानों से लगाव था।

(3) तीसरी घटना वाला व्यक्ति घृणा से भरपूर है। जब उसे पता लगा कि शोधार्थी पाकिस्तानी न होकर भारतीय है, उसके मुख से अनायास घृणा भरे शब्द निकल पड़े” वह भारतीयों को अपना कट्टर दुश्मन मानता है।”

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प्रश्न 2.
ये कहानियाँ लोगों की विभाजन सम्बन्धी विभिन्न स्मृतियों के बारे में हमें क्या बताती हैं?
उत्तर:
ये कहानियाँ विभाजन सम्बन्धी स्मृतियों के बारे में हमें बताती हैं कि कुछ लोग विभाजन के बाद भी आपसी भाईचारे में विश्वास रखने वाले थे तथा कुछ बिल्कुल कट्टर शत्रुवत् व्यवहार करने वाले थे।

प्रश्न 3.
इन लोगों ने खुद को और एक-दूसरे को कैसे पेश किया और पहचाना?
उत्तर:
अब्दुल लतीफ ने शोधार्थी के सामने स्वयं को एक सहृदय एहसानमन्द व्यक्ति की तरह पेश किया। इकबाल अहमद ने स्वयं को डरपोक लेकिन अच्छे इंसान की तरह पेश किया तथा तीसरे व्यक्ति ने अपने को सामान्य भारतीयों के कट्टर शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी बोलचाल से उन्होंने एक-दूसरे को पहचाना।

पृष्ठ संख्या 387

प्रश्न 4.
लीग की माँग क्या थी? क्या वह ऐसे पाकिस्तान की माँग कर रही थी जैसा हम आज देख रहे हैं?
उत्तर:
लीग की माँग थी कि भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में जरूरत के हिसाब से इलाकों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन हिस्सों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं उन्हें एकत्र करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए, जिसमें शामिल इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी। मुस्लिम लीग उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल इलाकों के लिए कुछ स्वायत्तता चाहती थी उस समय लीग आज जैसा पाकिस्तान नहीं चाहती थी जैसा अब है आज का पाकिस्तान एक स्वायत्त राज्य न होकर स्वतंत्र राष्ट्र है।

पृष्ठ संख्या 390

प्रश्न 5.
पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हुए महात्मा गाँधी ने क्या तर्क दिए?
उत्तर:
पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हुए गांधीजी ने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए –

  • हिन्दू और मुसलमान दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं। उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं और एक ही भाषा बोलते हैं।
  • लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग पूरी तरह गैर- इस्लामिक है और मैं इसे पापपूर्ण कार्य मानता हूँ।
  • इस्लाम मानव की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का।
  • जो तत्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं।
  • भले ही वे मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दें परन्तु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते जिसे मैं गलत मानता हूँ।

 पृष्ठ संख्या 391

प्रश्न 6.
भाग 3 को पढ़कर यह जाहिर है कि पाकिस्तान कई कारणों से बना आपके मत में इनमें से कौन से कारण सबसे महत्त्वपूर्ण थे और क्यों ?
उत्तर:

  • अंग्रेजों द्वारा पृथक् चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला।
  • अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति से मुस्लिम लोग को पाकिस्तान के निर्माण के लिए प्रोत्साहन मिला।
  • साम्प्रदायिक दंगों के कारण देश में अशान्ति और अव्यवस्था फैल गई परन्तु अंग्रेजों ने इन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया।

पृष्ठ संख्या 394 चर्चा कीजिए

प्रश्न 7.
भारत छोड़ते समय अंग्रेजों ने शान्ति बनाए रखने के लिए क्या किया? महात्मा गाँधी ने ऐसे दुःखद दिनों में क्या किया?
उत्तर:
(1) अंग्रेजों ने शान्ति स्थापित करने के लिए कुछ नहीं किया अपितु पीड़ितों को कांग्रेसी नेताओं की शरण में जाने को कहा।
(2) महात्मा गाँधी जगह-जगह घूम-घूमकर साम्प्रदायिक सौहार्द की अपील कर रहे थे।

पृष्ठ संख्या 396

प्रश्न 8.
किन विचारों की वजह से विभाजन के दौरान कई निर्दोष महिलाओं की मृत्यु हुई और उन्होंने कष्ट उठाया ? भारतीय और पाकिस्तानी सरकारें क्यों अपनी महिलाओं की अदला-बदली के लिए तैयार हुई ? क्या आपको लगता है कि ऐसा करते समय वे सही थे ?
उत्तर:
(1) दोनों सम्प्रदायों के लोग बदले की भावना से और महिलाओं को अपनी कामवासना का शिकार बनाने के लिए महिलाओं पर हमले कर रहे थे सैकड़ों महिलाओं ने अपनी इज्जत बचाने के लिए कुओं में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। इस कारण कई निर्दोष महिलाओं की मृत्यु हुई और उन्हें कष्ट उठाने पड़े।

(2) दोनों सम्प्रदायों की महिलाओं की स्थिति अत्यधिक शोचनीय हो चुकी थी इसलिए भारतीय तथा पाकिस्तानी सरकारें अपनी महिलाओं की अदला-बदली के लिए तैयार हुई।

(3) कुछ सीमा तक वे सही थे परन्तु उन्हें संवेदनशीलता से काम लेते हुए महिलाओं की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए था।

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उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में )

प्रश्न 1.
1940 के प्रस्ताव के जरिए मुस्लिम लीग ने क्या माँग की?
उत्तर:
23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल इलाकों के लिए सीमित स्वायत्तता की मांग का प्रस्ताव पेश किया। इस अस्पष्ट से प्रस्ताव में कहीं भी विभाजन या पाकिस्तान का उल्लेख नहीं था बल्कि इस प्रस्ताव के लेखक पंजाब के प्रधानमंत्री और यूनियनिस्ट पार्टी के नेता सिकन्दर हयात खान ने 1 मार्च, 1941 को पंजाब असेम्बली को संबोधित करते हुए घोषणा की थी कि वह ऐसे पाकिस्तान की अवधारणा का विरोध करते हैं, जिसमें यहाँ “मुस्लिम राज और बाकी जगह हिन्दू राज होगा। अगर पाकिस्तान का मतलब यह है कि पंजाब में खालिस मुस्लिम राज कायम होने वाला है तो मेरा उससे कोई वास्ता नहीं है।” उन्होंने संघीय इकाइयों के लिए उल्लेखनीय स्वायत्तता के आधार पर एक ढीले-ढाले (संयुक्त) महासंघ के समर्थन में अपने विचारों को फिर दोहराया।

प्रश्न 2.
कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता था कि बँटवारा बहुत अचानक हुआ?
उत्तर:
शुरुआत में मुस्लिम नेताओं ने भी एक संप्रभु राज्य के रूप में पाकिस्तान की मांग विशेष गंभीरता से नहीं उठाई थी। आरम्भ में शायद स्वयं जिन्ना भी पाकिस्तान की सोच को सौदेबाजी में एक पैंतरे के तौर पर प्रयोग कर रहे थे जिसका वे सरकार द्वारा काँग्रेस को मिलने वाली रियायतों पर रोक लगाने और मुसलमानों के लिए और रियायतें हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। बँटवारा बहुत अचानक हुआ इसके बारे में खुद मुस्लिम लीग की राय स्पष्ट नहीं थी।

उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए सीमित स्वायत्तता की माँग (1940) तथा विभाजन (1947) होने के बीच बहुत कम समय केवल 7 वर्ष का अन्तर रहा। किसी को मालूम नहीं था कि पाकिस्तान के गठन का क्या मतलब होगा और उससे भविष्य में लोगों की जिन्दगी किस तरह तय होगी। इसी कारण कुछ लोगों को लगता था कि विभाजन बहुत अचानक हुआ।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
विभाजन के बारे में आम लोगों का विचार था कि यह विभाजन पूर्णतया या तो स्थायी नहीं होगा अथवा शान्ति और कानून व्यवस्था बहाल होने पर सभी लोग अपने गाँव, कस्बे, शहर या राज्य में वापस लौट जाएँगे। कुछ लोग इसे मात्र गृह युद्ध ही मान रहे थे कुछ लोग इसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ बता रहे थे। कई लोग इसे ‘महाध्वंस’ (होलोकास्ट) की संज्ञा दे रहे थे। कुछ लोगों के लिए यह विभाजन बहुत दर्दनाक था जिसमें उनके मित्र- सम्बन्धी बिछड़ गए, वे अपने घरों, खेतों, व्यवसाय से वचित हो गए। वास्तव में देखा जाए तो आम लोगों की सोच उनके भोलेपन, अज्ञानता और वास्तविकता से आँखें बन्द करने के समान थी।

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प्रश्न 4.
मुहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हुए महात्मा गाँधी ने क्या तर्क दिये थे?
अथवा
बंटवारे के विरुद्ध गाँधीजी के विचारों की समीक्षा कीजिये।
अथवा
विभाजन के खिलाफ महात्मा गाँधी की दलील क्या थे?
उत्तर:
गाँधीजी विभाजन के कट्टर विरोधी थे। उन्हें यह पक्का विश्वास था कि वे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थापित करने में पुनः सफल हो जाएंगे। देशवासी घृणा और हिंसा का रास्ता छोड़कर पुनः आपसी भाईचारे के साथ रहने लगेंगे। गाँधीजी मानते थे कि सैकड़ों सालों से हिन्दू और मुस्लिम भारत में इकट्ठे रहते आए हैं।

वे एक जैसा भोजन करते हैं, एकसी भाषाएँ बोलते हैं तथा एक ही देश का पानी पीते हैं वे शीघ्र आपसी घृणा भूल कर पहले की तरह आपसी मेलजोल से रहने लग जाएँगे। गांधीजी लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग को गैर-इस्लामिक व पापपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि इस्लाम एकता व भाईचारे का संदेश देता है, एकजुटता को तोड़ने का नहीं। गाँधीजी का कहना था कि चाहे उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएँ. परन्तु लोग मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे वे (गाँधीजी ) गलत मानते थे।

प्रश्न 5.
विभाजन को दक्षिण एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
भारत के विभाजन को दक्षिण एशिया के इतिहास में ऐतिहासिक मोड़ माना जाता है। इस विभाजन में लाखों लोग मारे गए, लाखों को रातोंरात अपना घरबार, देश व सम्पत्ति को छोड़कर एक अजनबी स्थान और अजनबी लोगों के बीच जाने को मजबूर होना पड़ा और वहाँ जाकर वे शरणार्थी बन गए। लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को भारत और पाकिस्तान के बीच रातों-रात खड़ी कर दी गई सरहद के इस या उस पार जाना पड़ा दोनों ही संप्रदायों के नेता विभाजन के इस दुष्परिणाम की कल्पना भी नहीं कर सके कि विभाजन इतना भयंकर और हिंसात्मक होगा।

विभाजन के कारण लाखों लोगों को अपनी रेशा रेशा जिन्दगी दुबारा शुरू करनी पड़ी। विभाजन का सबसे बड़ा शिकार औरतों को होना पड़ा। उन पर बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया या जबरदस्ती दूसरों के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा इन्हीं सब कारणों से इस विभाजन को दक्षिण एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ कहा गया।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में ) –

प्रश्न 6.
आपके अनुसार भारत विभाजन के लिए कौनसी परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं ? उल्लेख कीजिए।
अथवा
ब्रिटिश भारत का बँटवारा क्यों किया गया?
अथवा
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी कारणों का विवरण दीजिये।
अथवा
उन कारणों का वर्णन कीजिये जिनके कारण भारत का विभाजन हुआ।
उत्तर:
ब्रिटिश भारत के विभाजन के उत्तरदायी कारक – ब्रिटिश भारत के बँटवारे के प्रमुख कारण निम्नलिखित –
(1) अँग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ नीति- अंग्रेज ‘फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रहे थे। उन्होंने अपनी नीति को सफल बनाने के लिए सांप्रदायिक ताकतों, साहित्य, लेखों तथा भारतीय मध्यकालीन इतिहास की उन घटनाओं का बार-बार जिक्र किया जिन्होंने सांप्रदायिकता को बढ़ाया।

(2) मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग-23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम- बहुल इलाकों के लिए कुछ स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। यह उसका प्रबल दावा था कि भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली वही एकमात्र पार्टी है लेकिन 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के त्रिस्तरीय महासंघ के प्रस्ताव को जब कॉंग्रेस और लीग दोनों ने ही नहीं माना तो इसके बाद विभाजन लगभग अनिवार्य हो गया और लीग ने पाकिस्तान की माँग को अमली जामा दिये जाने पर बल दिया।

(3) सांप्रदायिकता में तीव्र वृद्धि-मुसलमानों में मस्जिदों के सामने संगीत बजाए जाने, गोरक्षा आन्दोलन तथा शुद्धिकरण (मुसलमान बने हिन्दुओं को पुनः हिन्दू बनाना) आदि कार्यों से तीव्र आक्रोश व्याप्त था। दूसरी ओर मुस्लिम संगठनों द्वारा तबलीग (प्रचार) तथा तंजीम (संगठन) आन्दोलन चलाकर देश में साम्प्रदायिक वातावरण तैयार किया गया। इससे दोनों सम्प्रदायों में तनाव बढ़ गया।

(4) पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था करना- 1909 के मिण्टो मार्ले सुधारों में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई जिसका साम्प्रदायिक राजनीति की प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ा। इससे मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला।

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(5) संयुक्त प्रांत में काँग्रेस द्वारा लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाने से इनकार करना 1937 में सम्पन्न हुए चुनावों के बाद संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती थी, परन्तु कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के इस प्रस्ताव हुई को ठुकरा दिया जिससे मुसलमानों के मन में निराशा उत्पन्न ये मानने लगे कि अगर भारत अविभाजित रहा तो मुसलमानों के हाथ में राजनीतिक सत्ता नहीं आ पायेगी क्योंकि वे अल्पसंख्यक हैं और मुस्लिम हितों को प्रतिनिधित्व एक मुस्लिम पार्टी ही कर सकती है। काँग्रेस हिन्दुओं की पार्टी है इसलिए मुस्लिम लीग ने विभाजन और पाकिस्तान निर्माण पर जोर दिया।

(6) सांप्रदायिक दंगे- सांप्रदायिक दंगे भी विभाजन का कारण बने। दंगे इससे पूर्व भी हुए थे लेकिन विभाजन से ठीक पूर्व हुए दंगों ने देश के सांप्रदायिक सद्भाव को निगल लिया। सम्पत्ति की हानि हुई महिलाओं और बच्चों पर भयंकर अत्याचार किए गए लोगों का यह मानना था कि विभाजन के बाद सांप्रदायिक दंगों की समस्या हल हो जायेगी।

(7) प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस- 16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के निर्माण की माँग पर बल देते हुए ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया। उस दिन कलकत्ता में भीषण दंगा भड़क उठा जो कई दिनों तक चला और उसमें कई हजार लोग मारे गए।

प्रश्न 7.
बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे?
उत्तर:
बँटवारे के समय औरतों के अनुभव-बँटवारे के समय औरतों के अनुभव बहुत खराब रहे।
यथा –
(1) बलात्कार, अगवा करना तथा खरीदा व बेचा जाना कई विद्वानों ने उस हिंसक काल में औरतों के भयानक अनुभवों के बारे में लिखा है उनके साथ बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार खरीदा और बेचा गया। उन्हें अनजान हालात में अजनबियों के साथ एक नई जिन्दगी बसर करने के लिए मजबूर किया गया।

(2) औरतों की बरामदगी औरतों ने जो कुछ भुगता उसके गहरे सदमे के बावजूद बदले हुए हालात में कुछ औरतों ने अपने नए पारिवारिक बंधन विकसित किए। लेकिन भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने इंसानी सम्बन्धों की जटिलता के बारे में कोई संवेदनशील रवैया नहीं अपनाया।

बहुत सारी औरतों को जबरदस्ती घर बिठा ली गई मानते हुए उनके नए परिवारों से छीनकर दोबारा पुराने परिवारों या स्थानों पर भेज दिया गया। औरतों से उनकी मर्जी के बारे में कोई सलाह या मशविरा नहीं किया गया। एक अंदाजे के अनुसार करीब 30,000 औरतों की बरामदगी हुई जिनमें 22,000 मुस्लिम औरतों को भारत से और 8000 हिन्दू व सिख औरतों को पाकिस्तान से निकाला गया। यह मुहिम 1954 तक चलती रही।

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(3) इज्जत की रक्षा हेतु औरतों द्वारा शहादत देना- इस भयंकर समय में जब परिवार के मर्दों को यह लगता कि वे अपनी बीवियों, बहनों और बेटियों को दुश्मनों से नहीं बचा पाएँगे तो वे उनको स्वयं ही मार देते थे। उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक ‘दी अदर साइड ऑफ वायलेंस’ में रावलपिंडी जिले के धुआ गाँव का दर्दनाक किस्सा लिखा है कि तकसीम के समय। विभाजन के समय) सिखों के इस गाँव की 90 औरतों ने दुश्मनों के हाथों पड़ने की बजाय अपनी मर्जी से कुएं में कूद कर जान दे दी थी।

इस गाँव से आए शरणार्थी आज भी दिल्ली के गुरुद्वारे में इस घटना पर कार्यक्रम आयोजित करते हैं तथा उन औरतों की मौत को आत्महत्या न कह उसे शहादत कहते हैं। लेकिन इस कार्यक्रम में उन औरतों को याद नहीं किया जाता जो मरना नहीं चाहती थीं तथा जिन्हें अपनी इच्छा के खिलाफ मौत का रास्ता चुनना पड़ा। उस समय पुरुषों ने औरतों के फैसले को बहादुरी से स्वीकार किया बल्कि कई बार तो उन्होंने औरतों को अपनी जान देने के लिए उकसाया भी हर साल 13 मार्च को शहादत का यह कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।

प्रश्न 8.
बँटवारे के सवाल पर कॉंग्रेस की सोच कैसे बदली?
उत्तर:
बैंटवारे के सवाल पर कांग्रेस की सोच बदलने के पीछे कई कारण रहे जो इस प्रकार हैं –
(1) मुस्लिम लीग का पृथक् पाकिस्तान की माँग पर अड़ जाना-कॉंग्रेस मुस्लिम लीग को उसकी राष्ट्र विभाजन की माँग छोड़ने के लिए बहुत प्रयत्न करने पर भी राजी न कर पाई।

(2) काँग्रेस का राष्ट्र की एकता को बनाए रखने का स्वप्न टूटना – मुस्लिम लीग की मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी वाले क्षेत्रों को पाकिस्तान के लिए माँग पर कुछ काँग्रेसी नेताओं के दिमाग में यह विचार उत्पन्न कर दिया कि शायद कुछ समय बाद गाँधीजी देश की एकता को फिर से स्थापित करने में कामयाब हो जायेंगे लेकिन ऐसा हो नहीं सका, उनकी सोच ख्याली पुलाव बनकर रह गई।

(3) प्रत्यक्ष कार्यवाही के दौरान हिंसक दंगे भड़क उठना- मुस्लिम लीग द्वारा प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस की धमकी के साथ ही कलकत्ता व नोआखाली में हिंसक दंगे भड़काना, हिन्दू महासभा द्वारा हिन्दू राष्ट्र की माँग उठाना तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों द्वारा यह घोषणा करना कि यदि लीग और काँग्रेस किसी नतीजे पर नहीं पहुँचते हैं तो भी वे भारत छोड़कर चले जाएँगे आदि घटनाओं ने भी विभाजन को प्रोत्साहित किया। काँग्रेस जानती थी कि 90 साल बीत जाने पर भी अंग्रेज अपने बच्चों और औरतों के लिए वे खतरे नहीं उठाना चाहते थे जो उन्होंने 1857 के दौरान उठाए थे।

(4) 1946 के चुनावों में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुस्लिम लीग की अपार सफलता- 1946 के चुनाव में जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी थी वहाँ मुस्लिम लीग को मिली अपार सफलता, मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा का बहिष्कार करना, अंतरिम सरकार में लीग का शामिल न होना और जिना द्वारा दोहरे राष्ट्र के सिद्धान्त पर बार- बार जोर देना आदि बातों ने कांग्रेस की मानसिकता को राष्ट्र विभाजन का समर्थक बनाने में सहयोग दिया।

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(5) पंजाब और बंगाल के बंटवारे पर क्षेत्रीय कांग्रेसी नेताओं की सहमति मार्च 1947 में कांग्रेस हाईकमान ने पंजाब को मुस्लिम बहुल तथा हिन्दू/सिख बहुल हिस्सों में बाँटने पर अपनी सहमति दे दी, क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी बंगाल के लिए भी यही सिद्धान्त अपनाया गया। अंकों के खेल में उलझकर पंजाब के बहुत सारे सिख नेता व काँग्रेसी भी इस बात को मान चुके थे कि अब विभाजन अनिवार्य विकृति है जिसे टाला नहीं जा सकता।

उनको लगता था कि वे अविभाजित पंजाब में मुसलमानों से घिर जाएँगे और उन्हें मुस्लिम नेताओं के रहमोकरम पर जीना पड़ेगा। इसलिए वे कमोबेश बँटवारे के फैसले के हक में थे। बंगाल में भी भद्रलोक बंगाली हिन्दुओं का जो तबका सत्ता अपने हाथ में रखना चाहता था, वह ‘मुसलमानों की स्थायी गुलामी’ (उनके एक नेता ने यही शब्द कहे थे) की आशंका से भयभीत था संख्या की दृष्टि से वे कमजोर थे इसलिए उनको लगता था कि प्रांत के विभाजन से ही उनका राजनीतिक प्रभुत्व बना रह सकता है। 1947 में कानून व्यवस्था का नाश हो चुका था। ऐसी परिस्थितियों में कांग्रेस अपनी सोच बदलने के लिए मजबूर हो गई कि शायद बँटवारे के बाद सांप्रदायिक हिंसा खत्म हो जायेगी लेकिन विभाजन के बाद भी 1947-48 तक यह चलती ही रही।

(6) कैबिनेट मिशन के ढीले-ढाले त्रिस्तरीय महासंघ के सुझाव पर कॉंग्रेस और लीग में सहमति न बन पाना- कैबिनेट मिशन के त्रिस्तरीय संघ की योजना को प्रारम्भ में तो सभी प्रमुख दलों ने स्वीकार कर लिया था लेकिन यह समझौता अधिक समय तक नहीं चला क्योंकि सभी पक्षों ने इस योजना के बारे में अलग-अलग व्याख्या की।

प्रश्न 9.
मौखिक इतिहास से विभाजन को हम कैसे समझ सकते हैं ?
अथवा
मौखिक इतिहास के फायदे / नुकसानों की पड़ताल कीजिए। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन के बारे में हमारी समझ को किस तरह विस्तार मिलता है?
उत्तर:
मौखिक इतिहास के फायदे- मौखिक इतिहास के प्रमुख फायदे निम्नलिखित हैं –
(1) इतिहास को बारीकी से समझने में मदद- व्यक्तिगत स्मृतियाँ जो एक तरह की मौखिक स्रोत हैं- की एक विशेषता यह है कि उनमें हमें अनुभवों और स्मृतियों को और बारीकी से समझने का मौका मिलता है। इससे इतिहासकारों को विभाजन के दौरान लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, इस बारे में बहुरंगी और सजीव वृत्तांत लिखने की काबिलियत मिलती है।

(2) उपेक्षित स्त्री-पुरुषों के अनुभवों की पड़ताल करने में सफल मौखिक इतिहास से इतिहासकारों को गरीबों और कमजोरों, औरतों, शरणार्थियों, विधवाओं, व्यापारियों के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से निकालकर अपने विषय के क्षेत्रों को और फैलाने का मौका मिलता है।

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(3) साक्ष्यों की विश्वसनीयता को तौलना संभव कुछ इतिहासकार मौखिक इतिहास की यह कहकर खारिज कर देते हैं कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती और उनसे घटनाओं का जो क्रम उभरता है, वह अक्सर सही नहीं होता। लेकिन भारत के विभाजन के संदर्भ में ऐसी गवाहियों की कोई कमी नहीं है जिनसे पता चलता है कि उनके दरमियान अनगिनत लोगों ने कितनी तरह की और कितनी भीषण कठिनाइयों और तनावों का सामना किया।

(4) प्रासंगिकता – अगर इतिहास में साधारण और कमजोरों के वजूद को जगह देनी है तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि बंटवारे का मौखिक इतिहास केवल सतही मुद्दों से सम्बन्धित नहीं है।

मौखिक इतिहास की सीमाएँ –
इतिहासकारों ने मौखिक इतिहास की अग्रलिखित सीमाएँ या दोष बताए हैं-
(1) सामान्यीकरण करना संभव नहीं-इतिहासकारों का तर्क है कि निजी तजुओं की विशिष्टता के सहारे सामान्यीकरण करना अर्थात् किसी सामान्य नतीजे पर पहुँचना मुश्किल होता है।

(2) अप्रासंगिक – कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि मौखिक विवरण संतही मुद्दों से ताल्लुक रखते हैं और ये छोटे-छोटे अनुभव इतिहास की वृहत्तर प्रक्रियाओं का कारण ढूँढ़ने में अप्रासंगिक होते हैं।

(3) सटीकता का अभाव – कुछ इतिहासकारों ने यह कहा है कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती और उनसे घटनाओं का सही क्रम नहीं उभरता है।

(4) निहायत निजी आपबीती अनुभवों की प्राप्ति कठिन बँटवारे के बारे में मौखिक ब्यौरे स्वयं या आसानी से उपलब्ध नहीं होते। उन्हें साक्षात्कार पद्धति के द्वारा हासिल किया जा सकता है और इसमें सबसे मुश्किल यही होता है कि संभवतः इन अनुभवों से गुजरने वाले निहायत निजी आपबीती के बारे में बात करने को राजी ही न हों।

(5) याददाश्त की समस्या मौखिक इतिहास की एक अन्य बड़ी समस्या याददाश्त सम्बन्धी है। किसी घटना के बारे में कुछ दशक बाद जब बात की जाती है तो लोग क्या याद रखते हैं या भूल जाते हैं, यह आंशिक रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि बीच के वर्षों में उनके अनुभव किस प्रकार के रहे हैं। इस दौरान उनके समुदायों और राष्ट्रों के साथ क्या हुआ है। इस प्रकार मौखिक इतिहासकारों को विभाजन के वास्तविक अनुभवों को निर्मित स्मृतियों के जाल से बाहर निकालने का चुनौतीपूर्ण कार्य भी करना पड़ता है।

मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन की समझ को विस्तार –
(1) आम मर्दों औरतों के अनुभवों की पड़ताल – विभाजन का मौखिक इतिहास ऐसे आम स्त्री-पुरुषों के अनुभवों की पड़ताल करने में कामयाब रहा है जिनके वजूद को अब तक नजरअंदाज कर दिया जाता था।

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(2) स्याह खौफनाक दौर से गुजरे लोगों के अनुभवों की जानकारी – विभाजन का एक समग्र वृत्तांत बुनने के लिए बहुत तरह के स्रोतों का इस्तेमाल करना जरूरी है ताकि हम उसे एक घटना के साथ-साथ एक प्रक्रिया के रूप में भी देख सकें और ऐसे लोगों के अनुभवों को समझ सकें जो उस स्याह खौफनाक दौर से गुजर रहे हैं।

विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव JAC Class 12 History Notes

→ भारत का जो विभाजन दो राष्ट्रों में हुआ उसके कारण लाखों लोग उजड़ गए, शरणार्थी बन कर रह गए। इसलिए 1947 में हमारी आजादी से जुड़ी खुशी विभाजन की हिंसा और बर्बरता से बदरंग पड़ गई थी। ब्रिटिश भारत के दो संप्रभु राज्यों— भारत और पाकिस्तान (जिसके पश्चिमी और पूर्वी दो भाग थे) में बँटवारे से कई परिवर्तन अचानक आए। लाखों मारे गए, कइयों की जिन्दगियाँ पलक झपकते बदल गई, शहर बदला, भारत बदला, एक नए देश का जन्म हुआ और ऐसा जनसंहार, हिंसा और विस्थापन हुआ जिसका इतिहास में पहले से कोई उदाहरण नहीं मिलता है।

→ बँटवारे के कुछ अनुभव यहाँ बँटवारे से सम्बन्धित तीन घटनाएँ दी जा रही हैं जिनका बयान उन दुःखद दिनों से गुजरे लोगों ने 1993 में एक शोधकर्ता के सामने किया था। बयान करने वाले पाकिस्तानी थे और शोधकर्ता भारतीय शोधकर्ता का उद्देश्य यह समझना था कि जो लोग पीढ़ियों से कमोबेश मेल-मिलाप से रहते आए थे, उन्होंने 1947 में एक-दूसरे पर इतना कहर कैसे ढाया।

(अ) “मैं तो सिर्फ अपने अब्बा पर चढ़ा हुआ कर्ज चुका रहा हूँ” – शोधकर्ता 1992 की सर्दियों में पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर के इतिहास विभाग के पुस्तकालय में जाया करता था तो वहाँ पर अब्दुल लतीफ नामक एक सज्जन उसकी बहुत मदद करते थे। एक दिन शोधकर्ता ने उनसे मदद का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि बँटवारे के समय एक हिन्दू बुढ़िया माँ ने मेरे अब्बा की जान बचायी थी। इसलिए आपकी मदद करके मैं “अपने अब्बा पर चढ़ा कर्ज चुका रहा हूँ” सुनकर शोधार्थी की आँखों में आँसू छलक आए।

(ब) “बरसों हो गए, मैं किसी पंजाबी मुसलमान से नहीं मिला शोधकर्ता का दूसरा किस्सा लाहौर के यूथ हॉस्टल के मैनेजर के बारे में है जिसने भारतीय होने के कारण शोधकर्ता को हॉस्टल में कमरा देने से मना कर दिया। लेकिन उसने उसे चाय पिलाई तथा दिल्ली का एक किस्सा सुनाया तो उसने कहा कि पचास के दशक में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में पाकिस्तानी दूतावास में हुई थी। वहाँ एक सरदार से उसने पंजाबी में पहाड़गंज का पता पूछा तो सरदार ने उससे गले मिलते हुए कहा कि “बरसों हो गए मैं किसी पंजाबी मुसलमान से नहीं मिला। मैं मिलने को तरस रहा था। परन्तु यहाँ पंजाबी बोलने वाले मुसलमान मिलते ही नहीं।”

(स) “ना, नहीं! तुम कभी हमारे नहीं हो सकते” यह शोधकर्ता शोध के ही दौरान लाहौर में एक आदमी से मिला जिसने भूल से उसे अप्रवासी पाकिस्तानी समझ लिया था जब शोधकर्ता ने बताया कि वह भारतीय है तो उसके मुँह से निकल पड़ा, “ओह हिन्दुस्तानी में समझा था आप पाकिस्तानी हैं।” शोधकर्ता ने उसे समझाने की पूरी कोशिश की कि हम दोनों दक्षिण एशियाई हैं लेकिन वह अड़ा रहा कि “ना, नहीं तुम कभी हमारे नहीं हो सकते। तुम्हारे लोगों ने 1947 में मेरा पूरा गाँव का गाँव साफ कर दिया था। हम कट्टर दुश्मन हैं और हमेशा रहेंगे।”

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→ ऐतिहासिक मोड़ –
(अ) बँटवारा या महाध्वंस (होलोकॉस्ट) – बँटवारे में कई लाख लोग मारे गए करोड़ों बेघरबार हो गए तथा अजनबी धरती पर शरणार्थी बनकर रह गए। सबसे ज्यादा ज्यादती औरतों के साथ हुई, उनका अपहरण हुआ, बलात्कार किया गया तथा जबरन दूसरे के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा। जानकारों के अनुसार मरने वालों की संख्या 2 से 5 लाख तक रही होगी। ये लोग दुबारा तिनकों से अपनी जिन्दगी खड़ी करने को मजबूर हो गए। जिन्दा बचने वाले ने दूसरे शब्दों में इसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारा-मारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ कहा है। समकालीन प्रेक्षकों और विद्वानों ने कई बार ‘महाध्वंस’ (होलोकॉस्ट) शब्द का उल्लेख किया है। भारत विभाजन | के समय जो ‘नस्ली सफाया हुआ वह सरकारी कारगुजारी नहीं बल्कि धार्मिक समुदायों के स्वयंभू-प्रतिनिधियों की कारगुजारी थी।

(ब) रूढ़ छवियों की ताकत – भारत में पाकिस्तान के प्रति घृणा का दृष्टिकोण और पाकिस्तान में भारत के प्रति घृणा का दृष्टिकोण रखने वाले दोनों ही विभाजन की उपज हैं।

→ विभाजन क्यों और कैसे हुआ? – विभाजन क्यों और कैसे हुआ इसके अनेक कारण बताए गए हैं। यथा- (अ) हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों की निरन्तरता का लम्बा इतिहास – कुछ इतिहासकार भारतीय भी और पाकिस्तानी भी, यह मानते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना की यह समझ कि औपनिवेशिक भारत में हिन्दू और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र थे, मध्यकालीन इतिहास पर भी लागू की जा सकती है। ये इतिहासकार इस बात पर बल देते हैं कि 1947 की घटनाएँ मध्य और आधुनिक युगों में हुए हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों के लम्बे इतिहास से बारीकी से जुड़ी हुई हैं। यद्यपि उनकी यह बात महत्त्वपूर्ण है तथापि इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि लोगों की मानसिकता पर बदलती परिस्थितियों का असर होता है।

(ब) पृथक् चुनाव क्षेत्र की राजनीति – कुछ अन्य विद्वानों का यह मानना है कि देश का बँटवारा एक ऐसी सांप्रदायिक राजनीति का आखिरी बिन्दु था जो बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में मुसलमानों के लिए बनाए गए पृथक् चुनाव क्षेत्रों की सांप्रदायिक राजनीति से प्रारम्भ हुआ था। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि बँटवारा पृथक् चुनाव क्षेत्रों की प्रत्यक्ष देन है।

(स) अन्य कारण 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में सांप्रदायिक अस्मिताएँ कई अन्य कारणों से भी पक्की हुई। 1920-30 के दशकों में कई घटनाओं की वजह से तनाव पैदा हुए। फिर भी ऐसा कहना सही नहीं होगा कि बँटवारा केवल सीधे-सीधे बढ़ते हुए सांप्रदायिक तनावों के कारणों से हुआ। क्योंकि सांप्रदायिक तनावों तथा साम्प्रदायिक राजनीति और विभाजन में गुणात्मक अन्तर है।

सांप्रदायिकता से अभिप्राय साम्प्रदायिकता उस राजनीति को कहा जाता है जो धार्मिक समुदायों के बीच विरोध और झगड़े पैदा करती है ऐसी राजनीति धार्मिक पहचान को बुनियादी और अटल मानती है। यह किसी धार्मिक समुदाय के आंतरिक फर्को को दबाकर उसकी एकता पर बल देती है तथा उसे अन्य समुदाय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करती है। यह किसी चिह्नित ‘गैर’ के खिलाफ घृणा की राजनीति को पोषित करती हैं। अतः सांप्रदायिकता धार्मिक अस्मिता का विशेष तरह का राजनीतिकरण है जो धार्मिक समुदायों में झगड़े पैदा करवाने की कोशिश करता है।

→ 1937 में प्रांतीय चुनाव और कॉंग्रेस मंत्रालय प्रांतीय संसदों के गठन के लिए 1937 में पहली बार चुनाव कराये गये। इन चुनावों में कांग्रेस के परिणाम अच्छे रहे। लेकिन मुस्लिम लीग इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पायी। उसे कुल मुस्लिम मतों का केवल 44 प्रतिशत ही मिल पाया। इन चुनावों के बाद निम्न कारणों से विभाजन के विचार को बढ़ावा मिला –

(अ) मुस्लिम लीग संयुक्त प्रान्त में कॉंग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती थी, लेकिन काँग्रेस को यहाँ पूर्ण बहुमत प्राप्त था। इसलिए उसने मुस्लिम लीग का प्रस्ताव ठुकरा दिया। इससे लीग के सदस्यों में यह बात घर कर गई कि अविभाजित भारत में मुसलमानों के हाथों में राजनीतिक सत्ता नहीं आयेगी क्योंकि वे अल्पसंख्यक हैं।

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(ब) मुसलमानों में यह मान्यता उभरी कि मुस्लिम हितों का प्रतिनिधित्व एक मुस्लिम पार्टी ही कर सकती है।

(स) जिला की यह जिद कि मुस्लिम लीग को ही मुसलमानों की एकमात्र प्रवक्ता पार्टी माना जाये, उस समय बहुत कम लोगों को मंजूर भी फलतः 1930 के दशक में लीग ने मुस्लिम क्षेत्रों में एकमात्र प्रवक्ता बनने की अपने कोशिशें दोहरी कर दीं।

(द) काँग्रेस मंत्रालयों ने संयुक्त प्रान्त में मुस्लिम लीग के प्रस्ताव को ठुकरा कर मुस्लिम जनसम्पर्क कार्यक्रम पर अधिक बल न देकर मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकी थी।

→ पाकिस्तान का प्रस्ताव- पाकिस्तान की स्थापना की माँग धीरे-धीरे ठोस रूप ले रही थी। यथा –
(अ) 23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल इलाकों के लिए कुछ स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया। इस अस्पष्ट सी मांग में कहीं भी विभाजन या पाकिस्तान का जिक्र नहीं था। इस प्रस्ताव के लेखक सिकंदर हयात ने संघीय इकाइयों के लिए इस स्वायत्तता के आधार पर एक ढीले-ढाले संयुक्त महासंघ के समर्थन में अपने विचारों को पुनः 1941 में दोहराया।

(ब) कुछ लोगों का मानना है कि पाकिस्तान गठन की माँग उर्दू कवि मो. इकबाल से शुरू होती है जिन्होंने ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ लिखा था 1930 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने एक ‘उत्तर-पश्चिमी भारतीय मुस्लिम राज्य’ की जरूरत पर जोर दिया। उस भाषण में भी उन्होंने एक नये देश की माँग नहीं उठाई थी बल्कि पश्चिमोत्तर भारत में मुस्लिम बहुल इलाकों को शिथिल भारतीय संघ के भीतर एक स्वायत्त इकाई की स्थापना पर जोर दिया था।

→ विभाजन का अचानक हो जाना – पाकिस्तान के बारे में अपनी माँग पर लीग की राय पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी प्रारम्भ में खुद जिला भी पाकिस्तान की सोच को सौदेबाजी में एक पैंतरे के तौर पर ही इस्तेमाल कर रहे थे, जिसका वे सरकार द्वारा काँग्रेस को मिलने वाली रियायतों पर रोक लगाने और मुसलमानों के लिए रियायतें हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजों को झुकना पड़ा और संभावित सत्ता हस्तान्तरण के बारे में भारतीय पक्षों के साथ वार्ता जारी की।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

→ युद्धोत्तर घटना क्रम –
(अ) केन्द्रीय कार्यकारिणी सभा का विचार जब युद्ध के बाद 1945 में दुबारा बातचीत प्रारम्भ हुई तो अँग्रेज इस बात पर राजी हो गए कि एक केन्द्रीय कार्यकारिणी सभा बनाई जाएगी, जिसके सभी सदस्य भारतीय होंगे सिवाय वायसराय और सशस्त्र सेनाओं के सेनापति के उनकी राय में यह पूर्ण स्वतंत्रता की ओर प्रारम्भिक कदम होगा। सत्ता हस्तान्तरण के बारे में यह चर्चा टूट गई क्योंकि जिला इस बात पर अड़े हुए थे कि कार्यकारिणी सभा के मुस्लिम सदस्यों का चुनाव करने का अधिकार किसी को नहीं है। पंजाब में यूनियनिस्टों का मुसलमानों में दबदबा था और अंग्रेजों के वफादार होने के कारण अँग्रेज उन्हें नाराज नहीं करना चाहते थे।

मुस्लिम लीग के अतिरिक्त और –

(ब) सामान्य चुनाव – 1946 में पुनः प्रांतीय चुनाव हुए। सामान्य सीटों पर कांग्रेस को एकतरफा सफलता मिली 91.3 प्रतिशत गैर मुस्लिम वोट काँग्रेस को मिले मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भी ऐसी सफलता मिली। मध्य प्रान्त में भी लीग को भारी सफलता मिली। इस प्रकार 1946 में जाकर ही मुस्लिम लोग खुद को मुसलमानों की एकमात्र प्रवक्ता होने का दावा करने में सक्षम बनी।

→ विभाजन का एक संभावित विकल्प –

(अ) मार्च, 1946 में ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने लीग की माँग का अध्ययन करने और स्वतंत्र भारत के लिए एक उचित राजनीतिक रूपरेखा सुझाने के लिए तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली भेजा। इसे कैबिनेट मिशन कहा गया। इस मिशन ने तीन महीने तक भारत का दौरा किया और एक ढीले- ढाले त्रिस्तरीय महासंघ का सुझाव दिया। इसमें भारत अविभाजित ही रहने वाला था, जिसकी केन्द्रीय सरकार काफी कमजोर होती और उसके पास केवल विदेश रक्षा और संचार का जिम्मा होता मौजूदा प्रांतीय सभाओं को तीन हिस्सों क, ख, ग में समूहबद्ध किया जाना था।

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(ब) शुरुआत में सभी प्रमुख पार्टियों ने इस योजना को मान लिया था लेकिन वह समझौता अधिक देर तक नहीं चल पाया। सभी पक्षों ने अलग-अलग ढंग से इसकी व्याख्या की थी। कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को काँग्रेस और लीग दोनों ने नहीं माना और यह मिशन अपने उद्देश्य में असफल रहा। इसके बाद विभाजन कमोबेश अपरिहार्य हो गया था काँग्रेस के ज्यादातर नेता इसे अवश्यंभावी परिणाम मान चुके थे लेकिन गाँधीजी व अब्दुल गफ्फार खाँ अन्त तक विभाजन का विरोध करते रहे।

→ विभाजन की ओर कैबिनेट मिशन से अपना समर्थन वापस लेने के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी माँग को अमली जामा पहनाने के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही करने का फैसला लिया। 16 अगस्त, 1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने का ऐलान किया। उसी दिन कलकत्ता में दंगा भड़क उठा, जो कई दिनों तक चला और उसमें कई हजार लोग मारे गए मार्च, 1947 तक उत्तर भारत के बहुत सारे हिस्सों में हिंसा फैल चुकी थी। मार्च, 1947 में काँग्रेस हाईकमान ने पंजाब को मुस्लिम बहुल और हिन्दू सिख बहुल, दो हिस्सों में बाँटने की मंजूरी दे दी। इसे पंजाब के सिख और काँग्रेसी नेताओं ने मान लिया। कॉंग्रेस ने बंगाल के मामले में भी यही सिद्धान्त अपनाने का सुझाव दिया क्योंकि बंगाल में भद्र बंगाली हिन्दुओं का सत्ताधारी तबका मुसलमानों के रहम पर जीना नहीं चाहता था।

→ कानून व्यवस्था का नाश मार्च, 1947 से तकरीबन साल भर तक रक्तपात चलता रहा। इसका एक कारण था कि शासन की संस्थाएँ बिखर चुकी थीं। सांप्रदायिक हिंसा इसलिए अधिक बढ़ रही थी कि पुलिस वाले भी हिन्दू, मुस्लिम और सिख के आधार पर आचरण करने लगे थे। जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा वैसे- वैसे वर्दीधारियों के प्रति लोगों का भरोसा कमजोर पड़ने लगा। बहुत सारे स्थानों पर न केवल पुलिसवालों ने अपने धर्म व लोगों की मदद की बल्कि उन्होंने दूसरे समुदायों पर हमले भी किए।

→ महात्मा गाँधी एक अकेली फौज –

(अ) दंगों की उथल-पुथल में सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने के लिए एक आदमी की बहादुराना कोशिशें आखिरकार रंग लाने लगीं। 77 साल के बुजुर्ग गाँधीजी ने अहिंसा के अपने जीवन पर्यन्त सिद्धान्त को एक बार फिर आजमाया और अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। उन्हें विश्वास था लोगों का हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। वे पूर्वी बंगाल के नोआखाली (वर्तमान बांग्लादेश) से बिहार के गाँवों और कलकत्ता व दिल्ली के दंगों में झुलसी झोपड़पट्टियों की यात्रा पर निकल पड़े। उनकी कोशिश थी कि सांप्रदायिक सद्भावना बनी रहे सभी मिलजुल कर रहें। उन्होंने लोगों को दिलासा दी।

(ब) 28 नवम्बर, 1947 को गुरुनानक जयन्ती के अवसर पर गाँधीजी ने गुरुद्वारा शीशगंज में अपने संबोधन में कहा, “हमारे लिए यह बड़ी शर्म की बात है कि चाँदनी चौक में एक भी मुसलमान दिखाई नहीं देता।” गाँधीजी अपनी हत्या तक दिल्ली में ही रहे पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थी भी गाँधीजी के साथ अनशन में बैठे। उनकी हत्या के बाद दिल्ली के बहुत सारे मुसलमानों ने कहा, “दुनिया सच्चाई की राह पर आ गई थी।”

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→ बँटवारे में औरतों पर अत्याचार – बँटवारे के दौरान औरतों पर बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार खरीदा और बेचा गया। अनजान हालत में अजनबियों के साथ उन्हें अपनी जिन्दगी गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ा। एक अंदाजे के मुताबिक 30 हजार औरतों को बरामद किया गया। कई स्थानों पर परिवार की इज्जत बचाने के लिए स्वयं मर्दों ने ही अपनी बहन-बेटियों और पत्नियों को जान से मार दिया। कई स्थानों पर शत्रुओं से बचने के लिए औरतों ने कुएँ में कूद कर जान दे दी। इस प्रकार औरतें अपनी इज्जत बचाती थीं।

→ क्षेत्रीय विविधताएँ –
(अ) विभाजन का सबसे ज्यादा खूनी और विनाशकारी रूप पंजाब, उत्तर-पश्चिम से लेकर वर्तमान भारतीय पंजाब, हिमाचल और हरियाणा तक में सामने आया।

(अ) उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) के बहुत सारे परिवार पचास व साठ के दशक तक के शुरुआती सालों में भी पाकिस्तान जाकर बसते रहे। लेकिन बहुत सारों ने भारत में ही रहना पसन्द किया पाकिस्तान गए ऐसे लोग जो उर्दू भाषी थे, जिन्हें वहाँ पर मुहाजिर (अप्रवासी) कहा जाता है, वे सिन्ध प्रान्त के कराची और हैदराबाद इलाके में बस गए। धर्म के नाम पर विभाजन हुआ। लेकिन धर्म पूर्वी और पश्चिम पाकिस्तान को जोड़कर नहीं रख पाया। 1971-72 में पूर्वी पाकिस्तान ने स्वयं को पश्चिम से अलग कर नया राज्य बांग्लादेश बनाया।

→ मदद, मानवता, सद्भावना – हिंसा के कचरे और विभाजन की पीड़ा तले, इंसानियत और सौहार्द का एक विशाल इतिहास दबा पड़ा है क्योंकि आम लोग बँटवारे के समय एक-दूसरे की मदद भी कर रहे थे।

→ मौखिक गवाही और इतिहास –
(अ) मौखिक वृत्तांत, संस्मरण, डायरियाँ, पारिवारिक इतिहास और स्वलिखित ब्यौरे इन सबसे तकसीम (बँटवारे के दौरान आम लोगों की कठिनाइयों और मुसीबतों को समझने में मदद मिलती है। लाखों लोग बँटवारे की पीड़ा तथा एक मुश्किल दौर को चुनौती के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह जीवन में अनपेक्षित बदलावों का समय था। 1946-50 के तथा उसके बाद भी जारी रहने वाले इन बदलावों से निपटने के लिए मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक समायोजन की जरूरत थी।

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(ब) व्यक्तिगत स्मृतियों से इतिहासकारों को बँटवारे जैसी घटनाओं के इस बारे में बहुरंगी और सजीव वृत्तांत लिखने की काबिलियत मिलती है मिलना नामुमकिन होता है। दौरान लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, सरकारी दस्तावेजों से ऐसी जानकारी

→ कानून व्यवस्था का नाश मार्च, 1947 से तकरीबन साल भर तक रक्तपात चलता रहा। इसका एक कारण था कि शासन की संस्थाएँ बिखर चुकी थीं सांप्रदायिक हिंसा इसलिए अधिक बढ़ रही थी कि पुलिस वाले भी हिन्दू, मुस्लिम और सिख के आधार पर आचरण करने लगे थे। जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा वैसे- वैसे वर्दीधारियों के प्रति लोगों का भरोसा कमजोर पड़ने लगा। बहुत सारे स्थानों पर न केवल पुलिसवालों ने अपने धर्म व लोगों की मदद की बल्कि उन्होंने दूसरे समुदायों पर हमले भी किए।

→ महात्मा गाँधी एक अकेली फौज –
(अ) दंगों की उथल-पुथल में सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने के लिए एक आदमी की बहादुराना कोशिशें आखिरकार रंग लाने लगीं। 77 साल के बुजुर्ग गाँधीजी ने अहिंसा के अपने जीवन पर्यन्त सिद्धान्त को एक बार फिर आजमाया और अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। उन्हें विश्वास था लोगों का हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। वे पूर्वी बंगाल के नोआखाली (वर्तमान बांग्लादेश) से बिहार के गाँवों और कलकत्ता व दिल्ली के दंगों में झुलसी झोपड़पट्टियों की यात्रा पर निकल पड़े। उनकी कोशिश थी कि सांप्रदायिक सद्भावना बनी रहे सभी मिलजुल कर रहें। उन्होंने लोगों को दिलासा दी।

(ब) 28 नवम्बर, 1947 को गुरुनानक जयन्ती के अवसर पर गाँधीजी ने गुरुद्वारा शीशगंज में अपने संबोधन में कहा, “हमारे लिए यह बड़ी शर्म की बात है कि चाँदनी चौक में एक भी मुसलमान दिखाई नहीं देता।” गाँधीजी अपनी हत्या तक दिल्ली में ही रहे पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थी भी गाँधीजी के साथ अनशन में बैठे। उनकी हत्या के बाद दिल्ली के बहुत सारे मुसलमानों ने कहा, “दुनिया सच्चाई की राह पर आ गई थी।”

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→ बँटवारे में औरतों पर अत्याचार – बँटवारे के दौरान औरतों पर बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार खरीदा और बेचा गया। अनजान हालत में अजनबियों के साथ उन्हें अपनी जिन्दगी गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ा। एक अंदाजे के मुताबिक 30 हजार औरतों को बरामद किया गया। कई स्थानों पर परिवार की इज्जत बचाने के लिए स्वयं मदों ने ही अपनी बहन-बेटियों और पत्नियों को जान से मार दिया। कई स्थानों पर शत्रुओं से बचने के लिए औरतों ने कुएं में कूद कर जान दे दी। इस प्रकार औरतें अपनी इज्जत बचाती थीं।

→ क्षेत्रीय विविधताएँ –
(अ) विभाजन का सबसे ज्यादा खूनी और विनाशकारी रूप पंजाब, उत्तर-पश्चिम से लेकर वर्तमान भारतीय पंजाब, हिमाचल और हरियाणा तक में सामने आया।

(अ) उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) के बहुत सारे परिवार पचास व साठ के दशक तक के शुरुआती सालों में भी पाकिस्तान जाकर बसते रहे लेकिन बहुत सारों ने भारत में ही रहना पसन्द किया। पाकिस्तान गए ऐसे लोग जो उर्दू भाषी थे, जिन्हें वहाँ पर मुहाजिर (अप्रवासी) कहा जाता है, वे सिन्ध प्रान्त के कराची और हैदराबाद इलाके में बस गए। धर्म के नाम पर विभाजन हुआ। लेकिन धर्म पूर्वी और पश्चिम पाकिस्तान को जोड़कर नहीं रख पाया। 1971-72 में पूर्वी पाकिस्तान ने स्वयं को पश्चिम से अलग कर नया राज्य बांग्लादेश बनाया।

→ मदद, मानवता, सद्भावना – हिंसा के कचरे और विभाजन की पीड़ा तले, इंसानियत और सौहार्द का एक विशाल इतिहास दबा पड़ा है। क्योंकि आम लोग बँटवारे के समय एक-दूसरे की मदद भी कर रहे थे।

→ मौखिक गवाही और इतिहास –
(अ) मौखिक वृत्तांत, संस्मरण, डायरियाँ, पारिवारिक इतिहास और स्वलिखित ब्यौरे इन सबसे तकसीम (बँटवारे के दौरान आम लोगों की कठिनाइयों और मुसीबतों को समझने में मदद मिलती है। लाखों लोग बँटवारे की पीड़ा तथा एक मुश्किल दौर को चुनौती के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह जीवन में अनपेक्षित बदलावों का समय था। 1946-50 के तथा उसके बाद भी जारी रहने वाले इन बदलावों से निपटने के लिए मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक समायोजन की जरूरत थी।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

(ब) व्यक्तिगत स्मृतियों से इतिहासकारों को बंटवारे जैसी घटनाओं के दौरान लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, इस बारे में बहुरंगी और सजीव वृत्तांत लिखने की काबिलियत मिलती है सरकारी दस्तावेजों से ऐसी जानकारी मिलना नामुमकिन होता है।

(स) मौखिक इतिहास से इतिहासकारों को गरीबों और कमजोरों, औरतों, शरणार्थियों, विधवाओं एवं पेशावरी व्यापारी आदि के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से निकाल कर अपने विषय के किनारों की तरफ फैलाने का मौका मिलता है। इस प्रकार सम्पन्न और सुज्ञात लोगों की गतिविधियों से आगे जाते हुए विभाजन का मौखिक इतिहास ऐसे मर्दों औरतों के अनुभवों की पड़ताल करने में कामयाब रहा है जिनके वजूद को नजरअंदाज कर दिया जाता था, सहज-स्वाभाविक मान लिया जाता था। यह उल्लेखनीय बात है क्योंकि जो इतिहास हम पढ़ते हैं उसमें आम इंसानों के जीवन और कार्यों को अकसर पहुँच के बाहर या महत्त्वहीन मान लिया जाता है।

(द) अनेक इतिहासकारों को यह शक है कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती और इनसे घटनाओं का जो क्रम उभरता है वह अकसर सही नहीं होता। ऐसे इतिहासकारों की दलील है कि निजी तजुबों की विशिष्टता के सहारे सामान्यीकरण करना, यानी किसी सामान्य नतीजे पर पहुँचना मुश्किल होता है।

(य) भारत के विभाजन और जर्मनी के महाविध्वंस जैसी घटनाओं के संदर्भ में ऐसी गवाहियों की कोई कमी नहीं होगी, जिनसे पता चलता है कि उनके बीच अनगिनत लोगों ने कितनी तरह की और कितनी भीषण कठिनाइयों व तनावों का सामना किया। मिसाल के तौर पर सरकारी रिपोर्टों से हमें भारतीय और पाकिस्तानी सरकारों द्वारा ‘बरामद ‘ की गई औरतों की अदला-बदली और तादाद का पता चल जाता है। लेकिन उन औरतों ने भोगा क्या, उन पर क्या कुछ बीती इसका जवाब तो सिर्फ वे औरतें ही दे सकती हैं।

काल-रेखा
1930 प्रसिद्ध उर्दू कवि मुहम्मद इकबाल एकीकृत ढीले-ढाले भारतीय संघ के भीतर एक ‘उत्तरपश्चिमी भारतीय मुस्लिम राज्य’ की जरूरत का विचार पेश करते हैं।
1933,1935 कैम्ब्रिज में पढ़ने वाले एक पंजाबी मुसलमान युवक चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान या पाक-स्तान नाम पेश किया।
1937-39 ब्रिटिश भारत के 11 में से 7 प्रांतों में काँग्रेस के मंत्रिमंडल सत्ता में आए।
1940 लाहौर में मुस्लिम लीग मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए कुछ हद तक स्वायत्तता की माँग करते हुए प्रस्ताव पेश करती है।
1346 प्रांतों में चननाव सम्पन्न होते हैं। सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में काँग्रेस को और मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को शानदार कामयाबी मिलती है।
मार्च से जून ब्रिटिश कैबिनेट अपना तीन सदस्य मिशन दिल्ली भेजता है।
अगस्त मुस्लिम लीग पाकिस्तान की स्थापना के लिए ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ के पक्ष में फैसला लेती है।
16 अगस्त कलकत्ता में हिन्दू-सिखों और मुसलमानों के बीच हिंसा फूट पड़ती है, कई दिन चलने वाली इस हिंसा में हजारों लोग मारे जाते हैं।
मार्च, 1947 काँग्रेस हाईकमान पंजाब को मुस्लिम-बहुल और हिन्दू/सिख बहुल हिस्सों में बाँटने के पक्ष में फैसला लेता है और बंगाल में भी इसी सिद्धान्त को अपनाने का आह्वान करता है।
मार्च, 1947 के बाद अँग्रेज भारत छोड़कर जाने लगते हैं।
14-15 अगस्त, 1947 पाकिस्तान का गठन होता है; भारत स्वतंत्र होता है। महात्मा गाँधी सांप्रदायिक सौहार्द बहाल करने के लिए बंगाल का दौरा करते हैं।