JAC Class 12 History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Jharkhand Board JAC Class 12 History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Important Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. कौरव और पांडव किस वंश से सम्बन्धित थे –
(अ) पांचाल
(ब) हर्यंक
(स) लिच्छवि
(द) कुरु
उत्तर:
(द) कुरु

2. वर्तमान महाभारत में श्लोक हैं –
(अ) दस हजार से अधिक
(ब) एक लाख से अधिक
(स) दो लाख से अधिक
(द) पचास हजार से अधिक
उत्तर:
(ब) एक लाख से अधिक

3. ‘धर्म सूत्र’ और ‘धर्मशास्त्र’ विवाह के कितने प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं-
(अ) चार
(स) आठ
(ब) दो
(द) सात
उत्तर:
(स) आठ

4. पितृवंशिकता में पिता का महत्त्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया था –
(अ) कन्या को शिक्षा दिलाना
(ब) कन्यादान
(द) पुत्र का विवाह
(स) पुत्र की देखभाल
उत्तर:
(ब) कन्यादान

5. किस उपनिषद् में कई लोगों को उनके मातृनामों से निर्दिष्ट किया गया था?
(अ) बृहदारण्यक
(स) कठ
(ख) प्रश्न
(द) छान्दोग्य
उत्तर:
(अ) बृहदारण्यक

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6. किन शासकों को उनके मातृनाम से चिह्नित किया जाता था?
(अ) कुषाण
(स) मौर्य
(ब) शुंग
(द) सातवाहन
उत्तर:
(द) सातवाहन

7. किस सातवाहन शासक ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बताया था?
(अ) शातकर्णी प्रथम
(ब) गौतमीपुत्र शातकर्णी
(स) वसिष्ठीपुत्र शातकर्णी
(द) पुलुमावि शातकर्णी
उत्तर:
(ब) गौतमीपुत्र शातकर्णी

8. एकलव्य किस वर्ग से जुड़ा हुआ था ?
(अ) कृषक
(ब) पशुपालक
(स) व्यवसायी वर्ग
(द) निषाद वर्ग
उत्तर:
(द) निषाद वर्ग

9. महाभारत की मूल भाषा है-
(अ) प्राकृत
(ब) पालि
(स) तमिल
(द) संस्कृत
उत्तर:
(द) संस्कृत

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10. प्रसिद्ध इतिहासकार वी.एस. सुकथांकर एक प्रसिद्ध विद्वान् थे-
(अ) संस्कृत के
(ब) मराठी के
(स) हिन्दी के
(द) अंग्रेजी के
उत्तर:
(अ) संस्कृत के

11. महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण से सम्बन्धित एक अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी परियोजना किस वर्ष आरम्भ हुई?
(अ) 1905 ई. में
(ब) 1911 ई. में
(द) 1942 ई. में
(स) 1919 ई. में
उत्तर:
(स) 1919 ई. में

12. महाभारत एक है-
(अ) खण्डकाव्य
(स) उपन्यास
(ब) महाकाव्य
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ब) महाकाव्य

13. धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य था –
(अ) वेदों की शिक्षा देना
(ब) व्यापार करना
(स) न्याय करना
(द) सेवा करना
उत्तर:
(अ) वेदों की शिक्षा देना

14. महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का कार्य किसके नेतृत्व में प्रारम्भ किया गया था?
(अ) रोमिला थापर
(ब) वी.एस. सुकथांकर
(स) उमा चक्रवर्ती
(द) आर.एस. शर्मा
उत्तर:
(ब) वी.एस. सुकथांकर

15. महाभारत के रचयिता किसे माना जाता है?
(अ) विशाखदत्त
(ब) बाणभट्ट
(स) कालिदास
(द) वेदव्यास
उत्तर:
(द) वेदव्यास

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रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।

1. कुंती ओ निषादी नामक लघु कथा की रचना…….ने की है।
2. …………… महाभारत का उपदेशात्मक अंश है।
3. संस्कृत ग्रन्थों में, …………. शब्द का प्रयोग परिवार के लिए और ………….. का बाँधयों के बड़े समूह के लिए होता है।
4. छठी शताब्दी ई.पू. से राजवंश …………… प्रणाली का अनुसरण करते थे।
5. जहाँ वंश परम्परा माँ से जुड़ी होती है वहाँ ………… शब्द का इस्तेमाल होता है।
6. गोत्र से बाहर विवाह करने को …………… कहते है।
7. ……………. में चाण्डालों के कर्त्तव्यों की सूची मिलती है।
8. मनुस्मृति के अनुसार पुरुषों के लिए धन अर्जित करने के …………… तरीके हैं।
उत्तर:
1. महाश्वेता देवी
2. भगवद्गीता
3. कुल, जाति
4. पितृवंशिकता
5. मातृवंशिकता
6. बहिर्विवाह
7. मनुस्मृति
8. सात

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
किस राजवंश के राजाओं को उनके मातृ नाम से चिन्हित किया जाता था?
उत्तर:
सातवाहन राजवंश।

प्रश्न 2.
किस राजवंश में राजाओं के नाम से पूर्व माताओं का नाम लिखा जाता था।
उत्तर:
सातवाहन राजवंश।

प्रश्न 3.
महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का कार्य कब व किसके नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ?
उत्तर:
(1) 1919 ई. में
(2) बी. एस. सुकथांकर के नेतृत्व में

प्रश्न 4.
बहिर्विवाह पद्धति किसे कहते हैं? यह अन्तर्विवाह पद्धति से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
गोत्र से बाहर विवाह करने को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं। परन्तु अन्तर्विवाह समूह ( गोत्र, कुल, जाति) के बीच होते हैं।

प्रश्न 5.
किस राज्य में राजाओं के नाम के पूर्व माताओं का नाम लिखा जाता था ?
उत्तर:
सातवाहन राज्य में करना।

प्रश्न 6.
धर्मशास्त्रों के अनुसार क्षत्रियों के किन्हीं दो आदर्श कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  • युद्ध करना
  • लोगों को सुरक्षा प्रदान

प्रश्न 7.
‘कुल’ और ‘जात’ में क्या भिन्नता है?
उत्तर:
कुल परिवार को तथा जात बांधवों के बड़े समूह को कहते हैं।

प्रश्न 8.
महाश्वेता देवी ने किस लघु कथा की रचना
उत्तर:
कुंती ओ निषादी।

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प्रश्न 9.
पितृवेशिकता का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
वह वंश परम्परा जो पिता के पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र से चलती है।

प्रश्न 10.
कुल और जाति में क्या अन्तर है?
उत्तर:
संस्कृत ग्रन्थों में कुल शब्द का प्रयोग परिवार के लिए तथा जाति का प्रयोग बांधवों के बड़े समूह के लिए होता है।

प्रश्न 11.
‘अन्तर्विवाह’ किसे कहते हैं ?
उत्तर:
अन्तर्विवाह समूह (गोत्र, कुल या जाति) के बीच होते हैं।

प्रश्न 12.
वंश से क्या आशय है?
उत्तर:
पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज सम्मिलित रूप में एक ही वंश के माने जाते हैं।

प्रश्न 13.
महाभारत का युद्ध किन दो दलों के मध्य और क्यों हुआ था?
उत्तर:
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य सत्ता पर नियन्त्रण स्थापित करने हेतु हुआ था।

प्रश्न 14.
ब्राह्मणों के अनुसार वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एक दैवीय व्यवस्था है। इसे सिद्ध करने के लिए वे किस मन्त्र को ‘उद्धृत करते थे?
उत्तर:
ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ मन्त्र को।

प्रश्न 15.
चाण्डाल कौन थे?
उत्तर:
चाण्डाल शवों की अन्त्येष्टि करते थे, मृत-पशुओं को उठाते थे।

प्रश्न 16.
‘मनुस्मृति’ के अनुसार चाण्डाल के दो कर्तव्य बताइये।
उत्तर:

  • गाँव के बाहर रहना
  • मरे हुए लोगों के वस्त्र पहनना।

प्रश्न 17.
महाभारत किस भाषा में रचित है?
उत्तर:
संस्कृत भाषा में।

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प्रश्न 18.
कौरवों और पाण्डवों का सम्बन्ध किस वंश से था?
उत्तर:
कौरवों और पाण्डवों का सम्बन्ध कुरुवंश से

प्रश्न 19.
इतिहास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
इतिहास का अर्थ है ऐसा ही था।

प्रश्न 20.
चार वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख किस वैदिक ग्रन्थ में मिलता है?
उत्तर:
ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ में।

प्रश्न 21.
गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या की शिक्षा देने से क्यों इनकार कर दिया था?
उत्तर:
क्योंकि एकलव्य निषाद (शिकारी समुदाय)

प्रश्न 22.
आरम्भिक संस्कृत परम्परा में महाभारत को किस श्रेणी में रखा गया है?
उत्तर:
इतिहास की श्रेणी में

प्रश्न 23.
किस सातवाहन शासक ने अपने को ‘अनूठा ब्राह्मण’ तथा क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बतलाया था?
उत्तर:
गौतमीपुत्र शातकर्णी।

प्रश्न 24.
दो राजवंशों के नाम लिखिए जिनके राजा ब्राह्मण थे।
उत्तर:
शुंग और कण्व वंश के राजा ब्राह्मण थे।

प्रश्न 25.
भीम ने किस राक्षस कन्या से विवाह किया
उत्तर:
हिडिम्बा से

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प्रश्न 26.
धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक ग्रन्थ किस भाषा में लिखा गया है?
उत्तर:
धर्मसूत्र व धर्मशास्य नामक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखा गया है।

प्रश्न 27.
अधिकतर राजवंश पितृवेशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे या मातृवंशिकता प्रणाली का ?
उत्तर:
पितृवंशिकता प्रणाली का।

प्रश्न 28.
धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के सिंहासन पर क्यों आसीन नहीं हुए?
उत्तर:
क्योंकि यह नेत्रहीन थे।

प्रश्न 29.
महाभारत के अनुसार किस माता ने अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को युद्ध न करने की सलाह दी थी?
उत्तर:
गान्धारी ने।

प्रश्न 30.
सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नाम किन गोत्रों से उद्भूत थे?
उत्तर:
गौतम तथा वशिष्ठ गोत्रों से।

प्रश्न 31.
हस्तिनापुर नामक गाँव में उत्खनन कार्य किसके नेतृत्व में किया गया और कब?
उत्तर:
(1) बी.बी. लाल के नेतृत्व में
(2) 1951

प्रश्न 32.
‘सूत’ कौन थे?
उत्तर:
महाभारत की मूलकथा के रचयिता भाट सारथी ‘सूत’ कहलाते थे।

प्रश्न 33.
महाभारत की विषय-वस्तु को किन दो मुख्य भागों में बाँटा गया है?
उत्तर:
(1) आख्यान तथा
(2) उपदेशात्मक।

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प्रश्न 34.
किस क्षेत्र में दानशील व्यक्ति का सम्मान किया जाता था तथा कृपण व्यक्ति को घृणा का पात्र समझा जाता था?
उत्तर:
प्राचीन तमिलकम में।

प्रश्न 35.
उन दो चीनी यात्रियों के नाम लिखिए जिन्होंने लिखा है कि चाण्डालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था।
उत्तर:

  • फा-शिक्षन
  • श्वैन-त्सांग।

प्रश्न 36.
मनुस्मृति के अनुसार समाज का कौनसा वर्ग पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकता था?
उत्तर:
स्त्री वर्ग।

प्रश्न 37.
प्रारम्भ में महाभारत में कितने श्लोक थे?
उत्तर:
लगभग 10,000

प्रश्न 38.
वर्तमान में महाभारत में कितने श्लोक हैं ?
उत्तर:
लगभग एक लाख श्लोक।

प्रश्न 39.
ब्राह्मणीय व्यवस्था में जाति व्यवस्था किस पर आधारित थी?
उत्तर:
जन्म पर।

प्रश्न 40.
किस शक शासक ने सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार करवाया था ?
उत्तर:
रुद्रदामन

प्रश्न 41.
लोगों को गोशों में वर्गीकृत करने की ब्राह्मणीय पद्धति कब प्रचलन में आई ?
उत्तर:
लगभग 1000 ई. पूर्व के बाद से।

प्रश्न 42.
मनुस्मृति के आधार पर पुरुषों के लिए सम्पत्ति अर्जन के कोई चार तरीके बताइये।
उत्तर:

  • विरासत
  • खोज
  • खरीद
  • विजित करके।

प्रश्न 43.
महाभारतकालीन स्वियों की विभिन्न समस्याएँ लिखिए।
उत्तर:

  • पैतृक संसाधनों में स्थियों की हिस्सेदारी न होना
  • बहुपति प्रथा का प्रचलन
  • जुएँ में स्वियों को दाँव पर लगाना।

प्रश्न 44.
वर्ग शब्द से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
वर्ग शब्द एक विशिष्ट सामाजिक श्रेणी का प्रतीक है।

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प्रश्न 45.
बहुपत्नी प्रथा एवं बहुपति प्रथा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
बहुपत्नी प्रथा एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होने की परिपाटी है, बहुपति प्रथा एक स्वी होने की पद्धति है।

प्रश्न 46.
‘धर्मसूत्र’ एवं ‘धर्मशास्त्र’ ग्रन्थों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत जो आचार संहिताएं तैयार कीं, वे धर्मसूत्र’ एवं ‘धर्मशास्त्र’ कहलाते हैं।

प्रश्न 47.
मनुस्मृति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनुस्मृति प्राचीन भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि- ग्रन्थ है। यह धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 48.
धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में विवाह के कितने प्रकारों को स्वीकृति दी गई है? इनमें कौन से विवाह ‘उत्तम’ तथा कौनसे विवाह ‘निन्दित’ माने गए हैं?
उत्तर:

  • विवाह के आठ प्रकारों को स्वीकृति दी गई है।
  • पहले चार विवाह ‘उत्तम’ तथा शेष को ‘निन्दित’ माना गया है।

प्रश्न 49.
बहिर्विवाह पद्धति की कोई दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:

  • अपने गोत्र से बाहर विवाह करने को बहिर्विवाह कहते हैं।
  • इसमें ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम आयु की कन्याओं और स्वियों का जीवन सावधानी से नियन्त्रित किया जाता था।

प्रश्न 50.
गोत्रों का प्रचलन किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था। उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे।

प्रश्न 51.
गोत्र प्रणाली के दो नियमों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
गोत्रों के दो महत्त्वपूर्ण नियमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • विवाह के पश्चात् स्वियों को पति के गोत्र का माना जाता था।
  • एक ही गोत्र के सदस्यों में विवाह वर्जित था।

प्रश्न 52.
‘वर्ण’ और ‘जाति’ के कोई दो अन्तर बताइये।
उत्तर:

  • वर्ण मात्र चार थे, परन्तु जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी।
  • वर्ण व्यवस्था में अन्तर्विवाह आवश्यक नहीं है, परन्तु जाति व्यवस्था में अन्तर्विवाह अनिवार्य होता है।

प्रश्न 53.
सातवाहन शासकों का देश के किन भागों पर शासन था ?
उत्तर:
सातवाहन शासकों का पश्चिमी भारत तथा दक्यान के कुछ भागों पर शासन था।

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प्रश्न 54.
सातवाहनों में अन्तर्विवाह पद्धति प्रचलित थी। इसका उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
कुछ सातवाहन रानियाँ एक ही गोत्र से थीं। यह उदाहरण सातवाहनों में अन्तर्विवाह पद्धति को दर्शाता है।

प्रश्न 55.
कुछ रानियों ने सातवाहन राजाओं से विवाह करने के बाद भी अपने पिता के गोत्र नाम को ही कायम रखा था। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे, जो उनके पिता के गोत्र थे।

प्रश्न 56.
सातवाहन काल में माताएँ क्यों महत्त्वपूर्ण थीं?
उत्तर:
सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम ( माता के नाम से उद्भूत) से चिह्नित किया जाता था।

प्रश्न 57.
ब्राह्मणीय सामाजिक व्यवस्था में पहला दर्जा तथा सबसे निम्न दर्जा किसे प्राप्त था ?
उत्तर:
इस सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों को पहला दर्जा तथा शूद्रों को सबसे निम्न दर्जा प्राप्त था।

प्रश्न 58.
ऋग्वेद के पुरुष सूक्त’ के अनुसार चार वर्णों की उत्पत्ति कैसे हुई ?
उत्तर:
ब्राह्मण की उत्पत्ति परमात्मा के मुख से क्षत्रिय की भुजाओं से वैश्य की जंघा से शूद्र की पैरों से हुई।

प्रश्न 59.
‘स्त्री धन’ को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
विवाह के समय मिले उपहारों पर स्वियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे ‘स्वी धन’ कहा जाता था।

प्रश्न 60.
मनुस्मृति के अनुसार पुरुषों के लिए धन अर्जित करने के कौनसे तरीके हैं?
उत्तर:

  • विरासत
  • खोज
  • खरीद
  • विजित करके
  • निवेश
  • कार्य द्वारा तथा
  • सज्जनों द्वारा दी गई भेंट को स्वीकार करके।

प्रश्न 61.
ब्राह्मणीय ग्रन्थों के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार के कौनसे आधार थे?
उत्तर:
ब्राह्मणीय ग्रन्थों के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार के दो आधार थे –

  • लिंग का आधार
  • वर्ण का आधार।

प्रश्न 62.
महाकाव्य काल में सबसे धनी व्यक्ति किन वर्णों के लोग होते थे?
उत्तर:
महाकाव्य काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय सबसे धनी व्यक्ति होते थे।

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प्रश्न 63.
तमिलकम के सरदारों की दानशीलता का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
तमिलकम के सरदार अपनी प्रशंसा गाने वाले चारणों एवं कवियों के आश्रयदाता थे। वे उन्हें उदारतापूर्वक दान दिया करते थे।

प्रश्न 64.
महाभारत को व्यापक स्तर पर लोगों द्वारा क्यों समझा जाता था ?
उत्तर:
क्योंकि महाभारत में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों की संस्कृत से कहीं अधिक सरल है।

प्रश्न 65.
महाभारत की विषयवस्तु को किन दो मुख्य शीर्षकों में रखा जाता है?
उत्तर:

  • आख्यान – इसमें कहानियों का संग्रह है।
  • उपदेशात्मक – इसमें सामाजिक आचार-विचार के मानदंडों का चित्रण है।

प्रश्न 66.
‘भगवद्गीता’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
‘भगवद्गीता’ महाभारत का सबसे महत्त्वपूर्ण उपदेशात्मक अंश है। इसमें कुरुक्षेत्र के युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं।

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प्रश्न 67.
सातवाहन शासकों की शासनावधि क्या थी?
उत्तर:
सातवाहन शासकों ने लगभग दूसरी शताब्दी ई. पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसवी तक शासन किया।

प्रश्न 68.
मनुस्मृति का संकलन (रचना) कब किया गया?
उत्तर:
मनुस्मृति का संकलन (रचना) लगभग 200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी के बीच हुआ।

प्रश्न 69.
पितृवंशिकता के आदर्श को किसने सुदृढ़ किया?
उत्तर:
महाभारत ने पितृवंशिकता के आदर्श को सुदृद किया।

प्रश्न 70.
अधिकांश राजवंश किस प्रणाली का अनुसरण करते थे?
उत्तर:
अधिकांश राजवंश पितृवशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे।

प्रश्न 71.
सातवाहन काल में माताएँ क्यों महत्वपूर्ण थीं?
उत्तर:
सातवाहन काल में राजाओं को उनके मातृनाम से जाना जाता था।

प्रश्न 72.
‘आदर्श जीविका’ से सम्बन्धित नियमों का उल्लेख किन ग्रन्थों में मिलता है?
उत्तर:
धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वर्णों के लिए ‘आदर्श जीविका’ से सम्बन्धित नियमों का उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 73.
ब्राह्मणों द्वारा ‘आदर्श जीविका’ से सम्बन्धित नियमों का पालन करवाने के लिए अपनाई गई दो नीतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को एक दैवीय व्यवस्था बतलाया।
  • वे शासकों को इन नियमों का अनुसरण करने का उपदेश देते थे।

प्रश्न 74.
अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य को कौनसा प्रण याद दिलाया ?
उत्तर:
द्रोणाचार्य ने अर्जुन को वचन दिया था कि वह उनके सभी शिष्यों में अद्वितीय तीरन्दाज बनेगा।

प्रश्न 75.
किस तथ्य से यह ज्ञात होता है कि शक्तिशाली मलेच्छ राजा भी संस्कृतीय परिपाटी से परिचित थे?
उत्तर:
प्रसिद्ध शक राजा रुद्रदामन ने सुदर्शन झील का पुनरुद्धार करवाया था।

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प्रश्न 76.
ब्राह्मणों द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्था में पहला दर्जा एवं सबसे निम्न दर्जा किसे प्राप्त था ?
उत्तर:
पहला दर्जा ब्राह्मणों को तथा निम्न दर्जा शूद्रों को प्राप्त था।

प्रश्न 77.
किस अभिलेख में रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का उल्लेख मिलता है? यह अभिलेख कब का है ?
उत्तर:

  • मन्दसौर (मध्यप्रदेश) से प्राप्त अभिलेख में।
  • यह अभिलेख लगभग पाँचवीं शताब्दी ईसवी का है।

प्रश्न 78.
ब्राह्मणीय व्यवस्था के अन्तर्गत किन नये समुदायों का जाति में वर्गीकरण कर दिया गया ?
उत्तर:
ब्राह्मणीय व्यवस्था के अन्तर्गत निषाद (शिकारी समुदाय) तथा सुवर्णकार जैसे व्यावसायिक वर्ग का जातियों में वर्गीकरण कर दिया गया।

प्रश्न 79.
मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियों के लिए धन अर्जित करने के कोई दो तरीके बताइए।
उत्तर:

  • स्नेह के प्रतीक के रूप में।
  • माता-पिता द्वारा दिए गए उपहार के रूप में।

प्रश्न 80.
महाकाव्य काल में सबसे धनी व्यक्ति किस वर्ग के लोग होते थे?
उत्तर:
ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के लोग सबसे धनी होते थे।

प्रश्न 81.
महाभारत में दुर्योधन के माता-पिता का क्या नाम था?
उत्तर:
धृतराष्ट्र तथा गान्धारी।

प्रश्न 82.
मज्झिमनिकाय किस भाषा में लिखा गया है?
उत्तर:
मज्झिमनिकाय पालि भाषा में लिखा गया बौद्ध ग्रन्थ है।

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प्रश्न 83.
बौद्ध भिक्षु फा शिएन चीन से भारत कब आया था?
उत्तर:
लगभग पाँचवीं शताब्दी ईसवी

प्रश्न 84.
चीनी तीर्थयात्री श्वेन त्सांग भारत कब आया
उत्तर:
लगभग सातवीं शताब्दी ईसवी।

लघुत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
600 ई. पूर्व से 600 ई. तक के मध्य आर्थिक और राजनीतिक जीवन में हुए परिवर्तनों के समकालीन समाज पर क्या प्रभाव हुए?
उत्तर:
600 ई. पूर्व से 600 ई. तक के मध्य आर्थिक और राजनीतिक जीवन में हुए परिवर्तनों के समकालीन समाज पर निम्नलिखित प्रभाव हुए-

  • वन क्षेत्रों में कृषि का विस्तार हुआ, जिससे वहाँ रहने वाले लोगों की जीवन शैली में परिवर्तन हुआ।
  • शिल्प-विशेषज्ञों के एक विशिष्ट सामाजिक समूह का उदय हुआ।
  • सम्पत्ति के असंगत वितरण से सामाजिक विषमताओं में वृद्धि हुई।

प्रश्न 2.
आरम्भिक समाज में प्रचलित आचार- व्यवहार और रिवाजों का इतिहास लिखने के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
(1) प्रत्येक ग्रन्थ किसी समुदाय विशेष के दृष्टिकोण से लिखा जाता था अतः यह याद रखना आवश्यक. था कि ये ग्रन्थ किसने लिखे इन ग्रन्थों में क्या लिखा गया, किनके लिए इन ग्रन्थों की रचना हुई।
(2) यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि इन ग्रन्थों की रचना में किस भाषा का प्रयोग हुआ तथा इनका प्रचार- प्रसार किस प्रकार हुआ। इन ग्रन्थों का सावधानीपूर्वक प्रयोग करने से आचार व्यवहार और रिवाजों का इतिहास लिखा जा सकता है।

प्रश्न 3.
परिवार के बारे में आप क्या जानते हैं? क्या सभी परिवार एक जैसे होते हैं?
उत्तर:
संस्कृत ग्रन्थों में ‘कुल’ शब्द का प्रयोग परिवार के लिए होता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज इकट्ठे रूप में एक ही वंश के माने जाते हैं परन्तु सभी परिवार एक जैसे नहीं होते। पारिवारिक जनों की गिनती, एक-दूसरे से उनका रिश्ता और उनके क्रियाकलापों में भी भिन्नता होती है। कई बार एक ही परिवार के लोग भोजन और अन्य संसाधनों का आपस में
करते हैं। एक साथ रहते और काम मिल बाँट कर प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 4.
परिवार पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होता है जिन्हें हम सम्बन्धी कहते हैं। तकनीकी भाषा में हम सम्बन्धियों को जातिसमूह कह सकते हैं। पारिवारिक रिश्ते ‘नैसर्गिक’ और ‘रक्त सम्बद्ध’ माने जाते हैं। कुछ समाजों में भाई-बहिन (चचेरे मौसेरे से रक्त का रिश्ता माना जाता है परन्तु अन्य समाज ऐसा नहीं मानते।

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प्रश्न 5.
नये नगरों के उद्भव से आई सामाजिक जटिलता की चुनौती का किस प्रकार समाधान किया हैं?
उत्तर:
नये नगरों में रहने वाले लोग एक-दूसरे से विचार-विमर्श करने लगे और आरम्भिक विश्वासों तथा व्यवहारों पर प्रश्न चिह्न लगाने लगे। इस चुनौती के उत्तर में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचारसंहिताएं तैयार कीं। ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों को इनका अनुसरण करना पड़ता था। लगभग 500 ई. पूर्व से इन मानदण्डों का संकलन धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में किया गया। इनमें मनुस्मृति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी।

प्रश्न 6.
धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों के ब्राह्मण लेखकों का मानना था कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक है और उनके बनाए नियमों का सब लोगों के द्वारा पालन होना चाहिए। क्या यह सम्भव था?
उत्तर:
यह सम्भव नहीं था क्योंकि उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता तथा संचार की बाधाओं के कारण से ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक नहीं हो सकता था। धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों ने विवाह की आठ प्रणालियों को स्वीकृति दी है। इनमें से पहले चार विवाह उत्तम तथा शेष विवाह निंदित माने गए। सम्भव है कि ये विवाह प्रणालियाँ उन लोगों में प्रचलित थीं, जो ब्राह्मणीय नियमों को अस्वीकार करते थे।

प्रश्न 7.
पितृवंशिकता के आदर्श को स्पष्ट कीजिए। महाभारत ने इस आदर्श को कैसे सुदृढ़ किया?
उत्तर:
पितृवशकता का अर्थ है वह वंश परम्परा जो फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है। महाभारत पिता के पुत्र, में बान्धवों के दो दलों – कौरवों तथा पांडवों के बीच भूमि और सत्ता को लेकर हुए युद्ध का वर्णन है, जिसमें पांडव विजयी हुए। इसके बाद पितृवंशिक उत्तराधिकार की उद्घोषणा की गई। महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने पितृवंशिकता के आदर्श को और सुदृढ़ किया।

प्रश्न 8.
पितृवंशिकता प्रणाली में पाई जाने वाली विभिन्नता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
लगभग छठी शताब्दी ई. पूर्व से अधिकतर राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे, परन्तु इस प्रथा में निम्नलिखित भिन्नताएँ थीं-

  • कभी-कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था।
  • कभी-कभी बन्धु बान्धव सिंहासन पर अपना अधिकार जमा लेते थे।
  • कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्विर्ण जैसे प्रभावती गुप्त सिंहासन पर अधिकार कर लेती थीं।

प्रश्न 9.
ब्राह्मणीय पद्धति में लोगों को गोत्रों में किस प्रकार वर्गीकृत किया गया? क्या इन नियमों का सामान्यतः अनुसरण होता था?
उत्तर:
लगभग 1000 ई. पूर्व के बाद से प्रचलन में आई एक ब्राह्मणीय पद्धति ने लोगों को विशेष रूप से ब्राह्मणों को गोत्रों में वर्गीकृत किया। प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था। उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे। गोत्रों के दो नियम महत्त्वपूर्ण थे –

  • विवाह के पश्चात् स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था तथा
  • एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह सम्बन्ध नहीं रख सकते थे।

प्रश्न 10.
क्या ब्राह्मणीय पद्धति के गोत्र सम्बन्धी नियमों का सम्पूर्ण भारत में पालन किया जाता था?
उत्तर:
इन नियमों का सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में पालन नहीं होता था कुछ सातवाहन राजाओं की एक से अधिक पलियाँ थीं। सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से लिए गए थे जो उनके पिता के गोत्र थे। इससे ज्ञात होता है कि विवाह के बाद भी अपने पति कुल के गोत्र को ग्रहण करने की अपेक्षा, उन्होंने पिता का गोत्र नाम ही बनाए रखा। यह ब्राह्मणीय व्यवस्था के विपरीत था। कुछ सातवाहन रानियाँ एक ही गोत्र से थीं यह बात बहिर्विवाह पद्धति के विरुद्ध थी।

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प्रश्न 11.
अन्तर्विवाह, बहिर्विवाह, बहुपत्नी प्रथा तथा बहुपति प्रथा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • अन्तर्विवाह अन्तर्विवाह में वैवाहिक सम्बन्ध समूह के बीच ही होते हैं यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है।
  • बहिर्विवाह अहिर्विवाह गोत्र से बाहर विवाह करने को कहते हैं।
  • बहुपत्नी प्रथा बहुपत्नी प्रथा एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होने की सामाजिक परिपाटी है।
  • बहुपति प्रथा बहुपति प्रथा एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्धति है।

प्रश्न 12.
विभिन्न वर्णों के लिए धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में वर्णित आदर्श जीविका लिखिए। क्या वह जीविका आज भी विद्यमान है?
अथवा
सूत्रों तथा धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए ‘आदर्श जीविका’ से जुड़े कई नियम मिलते हैं? विवेचना कीजिए।
उत्तर:

  • ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना, दान देना तथा दान लेना था।
  • क्षत्रियों का कार्य युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करवाना तथा दान-दक्षिणा देना था।
  • वैश्यों का कार्य कृषि, गोपालन तथा व्यापार का कार्य करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना तथा दान-दक्षिणा देना था।
  • शूद्रों का कार्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। यह जीविका आज विद्यमान नहीं है।

प्रश्न 13.
ब्राह्मणों ने धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में वर्णित आदर्श जीविका सम्बन्धी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए क्या उपाय किये?
उत्तर:
ब्राह्मणों ने इस व्यवस्था को लागू करने के लिए निम्नलिखित नीतियाँ अपनाई –

  • ब्राह्मणों ने लोगों को बताया कि वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एक दैवीय व्यवस्था है।
  • वे शासकों को यह उपदेश देते थे कि वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में पालन करें।
  • उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाया कि उनको प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है।

प्रश्न 14.
महाभारत में गान्धारी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध न करने की क्या सलाह दी थी? क्या दुर्योधन ने अपनी माता की सलाह मानी थी?
उत्तर:
गान्धारी ने दुर्योधन को युद्ध न करने की सलाह देते हुए कहा कि युद्ध में कुछ भी शुभ नहीं होता, न धर्म और अर्थ की प्राप्ति होती है और न ही प्रसन्नता की यह भी आवश्यक नहीं कि युद्ध के अन्त में तुम्हें सफलता मिले। अतः मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि तुम बुद्ध करने का विचार त्याग दो। परन्तु दुर्योधन ने अपनी माता गान्धारी की सलाह नहीं मानी।

प्रश्न 15.
ब्राह्मणों द्वारा वर्ण व्यवस्था को दैवीय व्यवस्था क्यों बताया गया ?
उत्तर:
ब्राह्मणों की मान्यता थी कि वर्ण-व्यवस्था में उन्हें पहला दर्जा प्राप्त है। अतः समाज में अपनी सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने के लिए उन्होंने वर्ण व्यवस्था को एक दैवीय व्यवस्था बताया। इसे प्रमाणित करने के लिए वे ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ मन्त्र को उद्धृत करते हैं। पुरुषसूक्त के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य जंघाओं से तथा शूद्र चरणों से उत्पन्न हुए।

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प्रश्न 16.
क्या सभी राजवंशों की उत्पत्ति क्षत्रिय वर्ण से ही हुई थी?
उत्तर:
शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजा हो सकते थे परन्तु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। यद्यपि बौद्ध ग्रन्थ मौर्य सम्राटों को क्षत्रिय बताते हैं, परन्तु ब्राह्मणीय शास्त्र उन्हें ‘निम्न’ कुल का मानते हैं मौचों के उत्तराधिकारी शुंग और कण्व ब्राह्मण थे सातवाहन वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक गौतमीपुत्र ‘शातकर्णी ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और क्षत्रियों के दर्प को कुचलने वाला बताया है।

प्रश्न 17.
“जाति प्रथा के भीतर आत्मसात् होना एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया थी।” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सातवाहन वंश के शासक स्वयं को ब्राह्मण वर्ग का बताते थे, जबकि ब्राह्मणीय शास्त्र के अनुसार राजा को क्षत्रिय होना चाहिए। यद्यपि सातवाहन चतुर्वर्णी व्यवस्था की मर्यादा को बनाए रखना चाहते थे, परन्तु साथ ही वे उन लोगों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित करते थे जो इस वर्ण व्यवस्था से ही बाहर थे। इस प्रकार वे अन्तर्विवाह प्रणाली का पालन करते थे, न कि बहिर्विवाह प्रणाली का जो ब्राह्मणीय ग्रन्थों में प्रस्तावित है।

प्रश्न 18.
ब्राह्मणीय व्यवस्था में जाति पर आधारित सामाजिक वर्गीकरण किस प्रकार किया गया?
उत्तर:
ब्राह्मणीय सिद्धान्त में वर्ण की भाँति जाति भी जन्म पर आधारित थी। परन्तु वर्ण जहाँ केवल चार थे, वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी। वास्तव में जिन नये समुदायों का जैसे निषादों, स्वर्णकारों आदि को चार वर्णों वाली ब्राह्मणीय व्यवस्था में शामिल करना सम्भव नहीं था, उनका जाति में वर्गीकरण कर दिया गया। कुछ जातियाँ एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से सम्बन्धित थीं। उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था।

प्रश्न 19.
मन्दसौर के अभिलेख से जटिल सामाजिक प्रक्रियाओं की जानकारी मिलती है। स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
मन्दसौर के अभिलेख से ज्ञात होता है कि रेशम के बुनकरों की एक अलग श्रेणी थी। इस अभिलेख से तत्कालीन जटिल सामाजिक प्रक्रियाओं पर प्रकाश पड़ता है। इस अभिलेख से यह भी पता चलता है कि श्रेणी के सदस्य एक व्यवसाय के अतिरिक्त और कई चीजों में भी सहभागी होते थे। सामूहिक रूप से उन्होंने अपने शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य मन्दिर के निर्माण में खर्च किया।

प्रश्न 20.
मनुस्मृति में उल्लिखित विवाह के आठ प्रकारों में से किन्हीं चार प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुस्मृति में उल्लिखित विवाह के चार प्रकार –

  • इसमें पिता द्वारा कन्या का दान वेदज्ञ वर को दिया जाता था।
  • इसके अन्तर्गत पिता वर का सम्मान कर उसे कन्या का दान करता था।
  • इसके अन्तर्गत वर कन्या के बान्धवों को यथेष्ट धन प्रदान करता था।
  • इस पद्धति में लड़का तथा लड़की काम से उत्पन्न हुई अपनी इच्छा से प्रेम विवाह कर लेते थे।

प्रश्न 21.
ब्राह्मणीय व्यवस्था में चार वर्णों के अतिरिक्त अन्य समुदायों की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
ब्राह्मण ग्रन्थों ने जिस ब्राह्मणीय व्यवस्था को स्थापित किया था उसका सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में पालन नहीं किया जाता था। उस महाद्वीप में पाई जाने वाली विविधताओं के कारण यहाँ सदा से ऐसे समुदाय रहे हैं जिन पर ब्राह्मणीय व्यवस्था का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। निषाद वर्ग इसी का उदाहरण हैं। ब्राह्मणीय व्यवस्था में यायावर पशुपालकों के समुदाय को भी सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि उन्हें स्थायी कृषकों के समुदाय में आसानी से समाहित नहीं किया जा सकता था।

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प्रश्न 22.
ब्राह्मणीय व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ वर्गों को ‘अस्पृश्य’ किन आधारों पर माना जाता था?
उत्तर:
ब्राह्मण समाज के कुछ वर्गों को ‘अस्पृश्य’ मानते थे। उनके अनुसार अनुष्ठानों के सम्पादन से जुड़े कुछ कार्य पवित्र थे। अपने को पवित्र मानने वाले लोग ‘अस्पृश्यों’ से भोजन स्वीकार नहीं करते थे कुछ कार्य ऐसे भी थे जिन्हें ‘दूषित’ माना जाता था जैसे शवों की अन्त्येष्टि करने का कार्य शवों की अन्त्येष्टि तथा मृत पशुओं को छूने वाले रा लोगों को चाण्डाल कहा जाता था। उच्च वर्ण के लोग इन  चाण्डालों का स्पर्श अथवा देखना भी अपवित्रकारी मानते इन् थे।

प्रश्न 23.
चाण्डालों के कर्त्तव्यों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
मनुस्मृति में चाण्डालों के कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है। चाण्डालों को गाँव से बाहर रहना पड़ता था। वे के फेंके हुए बर्तनों का प्रयोग करते थे। मृतक लोगों के अस्व तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गाँवों और नगरों में ना भ्रमण नहीं कर सकते थे। उन्हें कुछ मृतकों की अन्त्येष्टि क करनी पड़ती थी तथा वधिक के रूप में भी कार्य करना पड़ता था। फाहियान के अनुसार उन्हें सड़कों पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी, जिससे अन्य लोग उनके दर्शन न कर सकें।

प्रश्न 24.
प्राचीनकाल में सम्पत्ति पर स्त्री और पुरुष के भिन्न अधिकारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
‘मनुस्मृति’ के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के बाद पैतृक सम्पत्ति का सभी पुत्रों में समान रूप से बंटवारा किया जाना चाहिए, परन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था स्विय इस पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं। परन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का स्वामित्व माना जाता था। इसे ‘स्वीधन’ अर्थात् ‘स्वी का धन’ कहा जाता था। इस सम्पत्ति को उनकी सन्तान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थीं और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था।

प्रश्न 25.
‘मनुस्मृति’ के अनुसार पुरुषों और स्त्रियों के धन अर्जित करने के तरीकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:’
‘मनुस्मृति’ के अनुसार पुरुष सात तरीकों से धन अर्जित कर सकते हैं –

  1. विरासत
  2. खोज
  3. खरीद
  4. विजय प्राप्त करके
  5. निवेश
  6. कार्य द्वारा तथा
  7. सज्जनों द्वारा दी

गई भेंट को स्वीकार करके स्त्रियाँ 6 तरीकों से धन अर्जित कर सकती हैं –

  1. वैवाहिक अग्नि के सामने मिली भेंट
  2. वधू गमन के साथ मिली भेंट
  3. स्नेह के प्रतीक के रूप में मिली भेंट
  4. भ्राता, माता तथा पिता द्वारा दिए गए उपहार
  5. परवर्ती काल में मिली भेंट
  6. पति से प्राप्त भेंट।

प्रश्न 26.
“ब्राह्मणीय ग्रन्थों के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार का एक आधार वर्ण भी था।” विवेचना कीजिए।
उत्तर:
ब्राह्मणीय ग्रन्थों के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार का एक आधार वर्ण भी था शूद्रों के लिए एकमात्र ‘जीविका’ तीनों उच्चवर्णों की सेवा थी परन्तु इसमें उनकी इच्छा शामिल नहीं थी। दूसरी ओर तीनों उच्चवणों के पुरुषों के लिए विभिन्न जीविकाओं की सम्भावनाएँ रहती थीं। यदि इन नियमों को वास्तव में कार्यान्वित किया जाता, तो ब्राह्मण और क्षत्रिय सबसे अधिक धनी व्यक्ति होते यह बात कुछ अंशों तक सामाजिक व्यवस्था से मेल खाती थी।

प्रश्न 27.
बौद्धों द्वारा ब्राह्मणों द्वारा स्थापित वर्ण- व्यवस्था की आलोचनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कुछ परम्पराओं में इस वर्ण व्यवस्था की आलोचना की जा रही थी। लगभग छठी शताब्दी ई. पूर्व में बौद्ध ग्रन्थों में ब्राह्मणों द्वारा स्थापित वर्ण व्यवस्था की आलोचनाएँ प्रस्तुत की गई। यद्यपि बौद्धों ने इस बात को स्वीकार किया कि समाज में विषमता विद्यमान थी, परन्तु यह भेद प्राकृतिक और स्थायी नहीं थे। उन्होंने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को मानने से इनकार कर दिया। इस प्रकार बौद्ध लोग जन्म पर आधारित वर्णीय व्यवस्था को स्वीकृति प्रदान नहीं करते।

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प्रश्न 28.
“प्राचीन तमिलकम में दानशील व्यक्ति का सम्मान किया जाता था। कृपण व्यक्ति घृणा का पात्र होता था।’ विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन तमिलकम में दानशील व्यक्ति का समाज में सम्मान किया जाता था तथा कृपण व्यक्ति घृणा का पात्र होता था। इस क्षेत्र में 2000 वर्ष पहले अनेक सरदारियाँ थीं ये सरदार अपनी प्रशंसा में गाने वाले चारणों और कवियों के आश्रयदाता होते थे। तमिल भाषा के संगम साहित्य से पता चलता है कि यद्यपि धनी और निर्धन के बीच विषमताएँ थीं, फिर भी धनी लोगों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी धन-सम्पत्ति का मिल बांट कर उपयोग करेंगे।

प्रश्न 29.
समाज में फैली हुई सामाजिक विषमताओं के संदर्भ में बौद्धों द्वारा प्रस्तुत की गई अवधारणा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
‘सुत्तपिटक’ नामक बौद्ध ग्रन्थ में एक मिथक का वर्णन है जो यह बताता है कि प्रारम्भ में सभी जीव शान्तिपूर्वक रहते थे और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते थे, जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती थी। परन्तु कालान्तर में लोग अधिकाधिक लालची और प्रतिहिंसक हो गए। इस स्थिति में उन्होंने समाज का नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति को सौंपने का निर्णय लिया जो जिसकी प्रताड़ना की जानी चाहिए उसे प्रताड़ित कर सके और जिसे निष्कासित किया जाना चाहिए, उसे निष्कासित कर सके।

प्रश्न 30.
साहित्यकार किसी ग्रन्थ का विश्लेषण करते समय किन पहलुओं पर विचार करते हैं?
अथवा
साहित्यिक स्रोतों का प्रयोग करते समय इतिहासकार को किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर:

  1. ग्रन्थों की भाषा क्या है? क्या यह आम लोगों की भाषा थी जैसे पालि, प्राकृत, तमिल अथवा पुरोहितों और किसी विशिष्ट वर्ग की भाषा थी जैसे संस्कृत।
  2. क्या ये ग्रन्थ ‘मन्त्र’ थे जो अनुष्ठानकर्त्ताओं द्वारा पढ़े जाते थे अथवा ‘कथाग्रन्थ’ थे जिन्हें लोग पढ़ और सुन सकते थे?’
  3. ग्रन्थों के लेखकों के बारे में जानकारी प्राप्त करना जिनके दृष्टिकोण और विचारों के आधार पर ग्रन्थ लिखे गए थे।
  4. श्रोताओं की अभिरुचि का ध्यान रखना।

प्रश्न 31.
महाभारत की भाषा का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
महाभारत की भाषा- यद्यपि महाभारत की रचना अनेक भाषाओं में की गई है, परन्तु इसकी मूल भाषा संस्कृत है। परन्तु महाभारत में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों की संस्कृत से कहीं अधिक सरल है अतः यह सम्भव है कि महाभारत को व्यापक स्तर पर समझा जाता था।

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प्रश्न 32.
महाभारत की विषय-वस्तु का विवेचन कीजिये।
उत्तर:
इतिहासकार महाभारत की विषय वस्तु को दो मुख्य शीर्षकों के अन्तर्गत रखते हैं –
(1) आख्यान तथा
(2) उपदेशात्मक।

‘आख्यान’ में कहानियों का संग्रह है जबकि उपदेशात्मक भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदण्डों का वर्णन है। परन्तु उपदेशात्मक अंशों में भी कहानियाँ होती हैं और प्रायः आख्यानों में समाज के लिए उपदेश निहित रहता है। वास्तव में महाभारत एक भाग में नाटकीय कथानक था जिसमें उपदेशात्मक अंश बाद में जोड़े
गए।

प्रश्न 33.
भगवद्गीता पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भगवद्गीता महाभारत का सबसे महत्वपूर्ण उपदेशात्मक अंश है, जहाँ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं। इस ग्रन्थ में 18 अध्याय हैं। भगवद्गीता में ज्ञान, भक्ति एवं कर्म का समन्वय स्थापित किया गया है। अन्त में श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर अर्जुन अपने बान्धवों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार हो गया। इस युद्ध में पाण्डवों की विजय हुई।

प्रश्न 34.
“महाभारत एक गतिशील ग्रन्थ है।” ‘व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
शताब्दियों से इस महाकाव्य के अनेक पाठान्तर अनेक भाषाओं में लिखे गए अनेक कहानियाँ जिनका उद्भव एक क्षेत्र विशेष में हुआ और जिनका विशेष लोगों में प्रसार हुआ, वे सब इस महाकाव्य में सम्मिलित कर ली गई। इस महाकाव्य के मुख्य कथानक की अनेक पुनर्व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई। महाभारत के विभिन्न प्रसंगों को मूर्तियों तथा चित्रों में भी दर्शाया गया। इस महाकाव्य ने नाटकों एवं नृत्य कलाओं के लिए भी विषय-वस्तु प्रदान की।

प्रश्न 35.
स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्त्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर:
पूर्व वैदिक समाज के विशिष्ट परिवारों के विषय में इतिहासकारों को सुगमता के साथ सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं। इतिहासकार परिवार तथा बन्धुता सम्बन्धी विचारों का विश्लेषण करते हैं, यहाँ उनका अध्ययन इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इससे वैदिककालीन लोगों की विचारधारा का ज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ महाभारत की कथा महत्त्वपूर्ण है। जिसमें बान्धवों के दो दलों, कौरव तथा पाण्डवों के मध्य भूमि तथा सत्ता को लेकर संघर्ष होता है।

दोनों एक ही कुरु वंश से सम्बन्धित थे। इनमें भीषण बुद्ध के उपरान्त पाण्डव विजयी होते हैं। इसके उपरान्त पितृवंशिक उत्तराधिकारी को उद्घोषित किया गया। लगभग छठी शताब्दी ई.पू. में अधिकांश राजवंश पितृवंशीय व्यवस्था का अनुगमन करते थे। यद्यपि इस प्रणाली में कभी-कभी भिन्नता भी देखने को मिलती है। पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता है। कभी बन्धु बान्धव सिंहासन पर अपना बलात् अधिकार जमा लेते थे।

प्रश्न 36.
ब्राह्मणों द्वारा लोगों को गोत्रों में वर्गीकृत करने की पद्धति कैसे प्रारम्भ हुई, इसे किस प्रकार लागू किया गया, क्या सातवाहन राजा इसके अपवाद हैं?
उत्तर:
ब्राह्मणों द्वारा लोगों को गोत्रों में वर्गीकृत करने की पद्धति लगभग 1000 ई. पू. के पश्चात् प्रारम्भ हुई। ब्राह्मणों ने लोगों का वर्गीकरण वैदिक ऋषियों के नाम पर आधारित गोत्रों के आधार पर करना प्रारम्भ कर दिया। एक ही गोत्र से सम्बन्धित सभी लोगों को उस ऋषि का वंशज समझा जाता था। गोत्र के सम्बन्ध में दो मुख्य नियम प्रचलित थे –

  • स्वियों को विवाह के पश्चात् अपने पिता का गोत्र त्यागकर अपने पति का गोत्र अपनाना पड़ता था।
  • सगोत्रीय, अर्थात् एक ही गोत्र में विवाह वर्जित था, एक गोत्र के सभी सदस्य रक्त सम्बन्धी समझे जाते थे।

सातवाहन राजाओं की रानियाँ अपने नाम के आगे अपने पिता का गोत्र लिखती थी जैसे कि गौतम और वशिष्ठ कई बार रक्त सम्बन्धियों में भी विवाह हो जाते थे। दक्षिण भारत में कहीं कहीं यह प्रथा आज भी पाई जाती है।

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प्रश्न 37.
चारों वर्णों से परे वर्णहीन ब्राह्मणीय व्यवस्था से अलग समुदायों की स्थिति पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप की विशालता तथा विविधता और सामाजिक जटिलताओं के कारण कुछ ऐसे समुदाय भी अस्तित्व में थे, जिनका ब्राह्मणों द्वारा निश्चित किये गये वर्णों में कोई स्थान नहीं था। ऐसे समुदाय के लोगों को वर्णहीन कहा जाता था। इन वर्णहीन समुदायों पर ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित सामाजिक नियमों का कोई प्रभाव नहीं था। संस्कृत साहित्य में जब ऐसे समुदायों का उल्लेख होता था तो इन्हें असभ्य, बेढंगे और पशु समान कहा जाता था। जंगलों में रहने वाली एक जाति निषाद की गणना इसी वर्ग में होती थी।

शिकार करना, कन्दमूल, फल – फूल एकत्र करना आदि वनों पर आधारित उत्पाद इनके जीवन निर्वाह के साधन थे। वह समाज से पूर्ण रूप से बहिष्कृत नहीं थे। समाज के अन्य वर्गों के साथ उनका संवाद होता था। उनके बीच- विचारों और मतों का आदान-प्रदान होता था महाभारत की कई कथाओं में इसका उल्लेख है।

प्रश्न 38.
प्राचीनकाल में सम्पत्ति के स्वामित्व की दृष्टि से महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
प्राचीनकाल में स्त्री और पुरुषों के मध्य सामाजिक स्थिति की भिन्नता संसाधनों पर उनके नियन्त्रण की भिन्नता के कारण ही व्यापक हुई स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्राचीनकाल में सम्पत्ति के स्वामित्व विशेषकर पैतृक सम्पत्ति के सन्दर्भ में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। मनुस्मृति के अनुसार पैतृक सम्पत्ति का माता- पिता की मृत्यु के पश्चात् सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए, लेकिन ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी होता है। स्त्रियाँ पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकतीं। किन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्वियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे स्त्रीधन की संज्ञा दी जाती थी।

इस सम्पत्ति को उनकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था किन्तु मनुस्मृति स्त्रियों को पति की आज्ञा के विरुद्ध पारिवारिक सम्पत्ति अथवा स्वयं अपने बहुमूल्य धन के गुप्त संचय के विरुद्ध भी चेतावनी देती है। अधिकतर साक्ष्य भी इंगित करते हैं कि उच्च वर्ग की महिलाएँ संसाधनों पर अपनी पहुंच रखती थीं फिर भी भूमि और धन पर पुरुषों का ही नियन्त्रण था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वी और पुरुष के मध्य सामाजिक स्थिति की भिन्नता उनके नियन्त्रण की भिन्नता के कारण ही व्यापक हुई।

प्रश्न 39.
12वीं से 17वीं शताब्दी ई.पू. के मिलने वाले घरों के बारे में डॉ. बी.बी. लाल के किन्हीं एक अवलोकन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1951-52 में पुरातत्त्ववेत्ता बी. बी. लाल ने मेरठ जिले (उ.प्र.) के हस्तिनापुर नामक एक गाँव में उत्खनन किया। सम्भवतः यह महाभारत में उल्लेखित पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर थी। बी. बी. लाल को यहाँ आबादी के पाँच स्तरों के साक्ष्य मिले थे जिनमें से दूसरा और तीसरा स्तर हमारे विश्लेषण के लिए महत्त्वपूर्ण है। दूसरे स्तर (लगभग बारहवीं से सातवीं शताब्दी ई.पू.) पर मिलने वाले घरों के बारे में लाल कहते हैं: “जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ वहाँ से आवास गृहों की कोई निश्चित परियोजना नहीं मिलती किन्तु मिट्टी की बनी दीवारें और कच्ची मिट्टी की ईटें अवश्य मिलती हैं। सरकण्डे की छाप वाले मिट्टी के पलस्तर की खोज इस बात की ओर इशारा करती है कि कुछ घरों की दीवारें सरकण्डों की बनी थीं जिन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया जाता था।”

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प्रश्न 40.
बी. बी. लाल को उत्खनन से महाभारत काल के किस पुरास्थल के साक्ष्य मिले हैं? ये साक्ष्य कितने स्तरों तक प्राप्त हुए हैं?
उत्तर:

  1. पुरातत्त्ववेत्ता बी. बी. लाल ने 1951-52 में उत्तर प्रदेश के जिले मेरठ के हस्तिनापुर नामक एक गाँव में उत्खनन किया।
  2. गंगा नदी के ऊपरी दोआब वाले क्षेत्र में इस पुरास्थल का होना जहाँ कुरू राज्य था, इस ओर इंगित करता है। यह पुरास्थल कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर हो सकती थी जिसका उल्लेख महाभारत में आता है।
  3. बी. बी. लाल को यहाँ की आबादी के पाँच स्तरों के साक्ष्य मिले हैं जिनमें दूसरा और तीसरा स्तर हमारे विश्लेषण के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  4. दूसरे स्तर पर मिलने वाले घरों के बारे में लाल कहते हैं कि जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ वहाँ से आवासीय गृह की कोई निश्चित परियोजना नहीं मिलती है।
  5. तीसरे स्तर पर लगभग छठी से तीसरी शताब्दी ई.पू. के साक्ष्य मिले हैं। लाल के अनुसार तृतीय काल के घर कच्ची और कुछ पक्की ईंटों के बने हुए थे।

प्रश्न 41.
मंदसौर के अभिलेख से पाँचवीं शताब्दी ई. के रेशम के बुनकरों की स्थिति के विषय में क्या पता चलता है?
उत्तर:
(1) लगभग पाँचवीं शताब्दी ई. का अभिलेख मध्य प्रदेश के मंदसौर क्षेत्र से प्राप्त हुआ है। इसमें रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन मिलता है जो मूलत: लाट (गुजरात) प्रदेश के निवासी थे।

(2) बाद में वे मंदसौर चले गये थे, जिसे उस समय दशपुर के नाम से जाना जाता था। यह कठिन यात्रा उन्होंने अपने बच्चों और बाँधयों के साथ सम्पन्न की।

(3) इन बुनकरों ने वहाँ के राजा की महानता के बारे में सुना था अतः वे उसके राज्य में बसना चाहते थे।

(4) यह अभिलेख जटिल सामाजिक प्रक्रियाओं की झलक देता है ये श्रेणियों के स्वरूप के विषय में अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है। हालांकि श्रेणी की सदस्यता शिल्प में विशेषज्ञता पर निर्भर थी। कुछ सदस्य अन्य जीविका भी अपना लेते थे।

(5) इस अभिलेख से यह भी पता चलता है कि सदस्य एक व्यवसाय के अतिरिक्त और चीजों में भी सहभागी थे। सामूहिक रूप से उन्होंने शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य देवता के सम्मान में मन्दिर बनवाने पर खर्च किया।

प्रश्न 42.
मनुस्मृति के अनुसार चाण्डालों की क्या विशेषताएँ और कार्य थे? कुछ चीनी यात्रियों ने उनके बारे में क्या लिखा है?
उत्तर:
मनुस्मृति के अनुसार चाण्डालों को गाँव के बाहर रहना पड़ता था। वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे। सम्बन्धियों से विहीन मृतकों की उन्हें अन्त्येष्टि करनी पड़ती थी तथा अधिक के रूप में भी कार्य करना होता था। चीन से आए बौद्ध भिक्षु फा शिएन का कहना है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी जिससे अन्य जन उन्हें देखने के दोष से बच जाएँ एक और चीनी तीर्थयात्री हवन-त्सांग के अनुसार अधिक और सफाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था।

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प्रश्न 43.
1919 में संस्कृत विद्वान् वी.एस. शुकथांकर के नेतृत्व में किस महत्त्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का जिम्मा उठाया। आरम्भ में देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पाण्डुलिपियों को एकत्रित किया गया। परियोजना पर काम करने वाले विद्वानों ने सभी पाण्डुलिपियों में पाए जाने वाले श्लोकों की तुलना करने का एक तरीका ढूँढ़ा। अंततः उन्होंने उन श्लोकों का चयन किया जो लगभग सभी पाण्डुलिपियों में पाए गए थे और उनका प्रकाशन 13,000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रन्थ खण्डों में किया। इस परियोजना को पूरा करने में सैंतालीस वर्ष लगे।

प्रश्न 44.
महाभारत ग्रन्थ के समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने की प्रक्रिया में कौनसी दो विशेष बातें उभर कर आई ?
उत्तर:
महाभारत ग्रन्थ के समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने की प्रक्रिया में निम्न दो बातें उभर कर आई –
(1) संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी। यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि समूचे उपमहाद्वीप में उत्तर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु तक सभी पाण्डुलिपियों में यह समानता देखने में आई।

(2) कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभर कर सामने आए। इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की पादटिप्पणियों और परिशिष्टों के रूप में किया गया। 13,000 पृष्ठों में से आधे से भी अधिक इन प्रभेदों का ब्यौरा देते हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण को तैयार करने की परियोजना का वर्णन कीजिए।
अथवा
बीसवीं शताब्दी में किये गए महाभारत के संकलन के विभिन्न सोपानों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण –
(1) बी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में एक परियोजना का आरम्भ – 1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में एक अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी परियोजना का आरम्भ हुआ। अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्कार तैयार करने का निश्चय किया।

(2) श्लोकों का चयन – परियोजना पर काम करने वाले विद्वानों ने उन श्लोकों का चयन किया जो लगभग सभी पांडुलिपियों में पाए गए थे। उन्होंने उनका प्रकाशन 13,000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रन्थ-खंडों में किया। इस परियोजना को पूरा करने में सैंतालीस वर्ष लगे।

(3) दो तथ्यों का उभर कर आना –
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में दो तथ्य विशेष रूप से उभर कर सामने आए –

(i) संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता – पहला, संस्कृत के कई पाठों में अनेक अंशों में समानता थी। यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में उत्तर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु तक सभी पांडुलिपियों में यह समानता दिखाई दी।

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(ii) क्षेत्रीय प्रभेदों का उभरकर सामने आना- दूसरा तथ्य यह था कि कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभरकर सामने आएं इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की पाद टिप्पणियों और परिशिष्टों के रूप में किया गया।

(4) प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी इन सभी प्रक्रियाओं के बारे में हमारी जानकारी मुख्यतः उन ग्रन्थों पर आधारित है जो संस्कृत में ब्राह्मणों द्वारा उन्हीं के लिए लिखे गए। उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी में इतिहासकारों ने पहली बार सामाजिक इतिहास के मुद्दों का अध्ययन करते हुए इन ग्रन्थों को ऊपरी तौर पर समझा।

उनका विश्वास था कि इन ग्रन्थों में जो कुछ भी लिखा गया है, वास्तव में उसी प्रकार से उसे व्यवहार में लाया जाता होगा। कालान्तर में विद्वानों ने पालि, प्राकृत और तमिल ग्रन्थों के माध्यम से अन्य परम्पराओं का अध्ययन किया। इन अध्ययनों से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदर्शमूलक संस्कृत ग्रन्थ सामान्यतः आधिकारिक माने जाते थे। परन्तु इन आदर्शों पर प्रश्न भी उठाए जाते थे और कभी-कभी इनकी अवहेलना भी की जाती थी।

प्रश्न 2.
मनुस्मृति से पहली, चौथी, पाँचवीं तथा छठी विवाह पद्धति के उद्धरण को प्रस्तुत कीजिये।
उत्तर:
विवाह पद्धतियों के उद्धरण प्राचीन भारत में विवाह की आठ प्रकार की पद्धतियाँ प्रचलित थीं। धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों ने विवाह की आठ प्रकार की पद्धतियों को मान्यता प्रदान की है। मनुस्मृति से पहली, चौथी, पाँचव तथा छठी विवाह पद्धति के उद्धरण प्रस्तुत हैं –
(1) विवाह की पहली पद्धति इस विवाह पद्धति के अन्तर्गत कन्या का दान बहुमूल्य वस्त्रों तथा अलंकारों से विभूषित कर उसे वेदश वर को दान दिया जाए जिसे पिता ने स्वयं आमन्त्रित किया हो।

(2) विवाह की चौथी पद्धति इस विवाह पद्धति के अन्तर्गत वर की विधिपूर्वक पूजा करके कन्या का दान किया जाता था पिता वर-वधू युगल को यह कह कर सम्बोधित करता है कि “तुम साथ मिलकर अपने दायित्वों का पालन करो। गृहस्थ जीवन में दोनों मिलकर जीवनपर्यन्त धर्माचरण करो।” इसके बाद वह वर का सम्मान कर उसे
कन्या का दान करता था।

(3) विवाह की पाँचवीं पद्धति वर को वधू की प्राप्ति तब होती है, जब वह अपनी क्षमता व इच्छानुसार उसके बांधों को और स्वयं वधू को यथेष्ट धन प्रदान करता है। मनु के अनुसार इस विवाह में बान्धवों (कन्या के पिता, चाचा आदि) को कन्या के लिए यथेष्ट धन देकर स्वेच्छा से कन्या स्वीकार की जाती है।

(4) विवाह की छठी पद्धति इस पद्धति में लड़का तथा लड़की काम से उत्पन्न हुई इच्छा से प्रेम विवाह कर लेते थे। इसे गान्धर्व विवाह भी कहा जाता है। मनु ने कन्या और वर के इच्छानुसार कामुकतावश संयुक्त होने को ‘गान्धर्व विवाह’ की संज्ञा दी है। यह प्रथा प्रेम विवाह या प्रणय विवाह का सूचक है जो हिन्दू समाज में अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान है।

प्रश्न 3.
क्या प्राचीन काल के भारत में केवल क्षत्रीय शासक ही शासन कर सकते थे? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
प्राचीन भारत में क्षत्रियों एवं अक्षत्रियों द्वारा शासन करना धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय वर्ग के लोग ही शासन कर सकते थे। वैदिककाल के प्रायः सभी शासक क्षत्रिय वर्ग से सम्बन्धित थे परन्तु सभी शासक क्षत्रिय नहीं होते थे। प्राचीन काल में अनेक अक्षत्रिय राजाओं ने भी शासन किया।
(1) मौर्य वंश मौर्यों की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि बौद्ध ग्रन्थों में मौर्यों को क्षत्रिय बताया गया है, परन्तु ब्राह्मणीय शास्त्र मौर्यो को ‘निम्न’ कुल का मानते हैं।

(2) शुंग और कण्व वंश मौर्य वंश के बाद शुंग तथा कण्व वंश के राजाओं ने शासन किया। शुंग वंश तथा कण्व वंश के राजा ब्राह्मण थे। वास्तव में योग्य, शक्तिशाली तथा साधन-सम्पन्न व्यक्ति राजनीतिक सत्ता का उपयोग कर सकता था। राजत्व क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर शायद ही निर्भर करता था। दूसरे शब्दों में यह आवश्यक नहीं था कि केवल क्षत्रिय कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति ही गद्दी पर बैठ सकता था।

(3) शक वंश ब्राह्मण मध्य एशिया से आने वाले शकों को म्लेच्छ, बर्बर अथवा विदेशी मानते थे परन्तु कुछ शक राजा भी भारतीय रीति-रिवाज और परिपाटियों का अनुसरण करते थे। संस्कृत में लिखे हुए ‘जूनागढ़ अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि लगभग दूसरी शताब्दी ईसवी में शक- शासक रुद्रदामन ने सुदर्शन झील की मरम्मत करवाई थी जिससे लोगों को बड़ी राहत मिली थी। इससे पता चलता है कि शक्तिशाली म्लेच्छ भी भारतीय राजाओं की भाँति प्रजावत्सल थे और संस्कृतीय परिपाटी से परिचित थे।

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(4) सातवाहन वंश अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन वंश के शासक ब्राह्मण थे। सातवाहन वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक गौतमी पुत्र शातकर्णी ने स्वयं को ‘अनूठा ब्राह्मण’ एवं ‘क्षत्रियों के दर्प को चकनाचूर करने वाला’ बताया था। उनकी वर्ण व्यवस्था में पूर्ण आस्था थी। इसलिए उन्होंने चार वर्णों की व्यवस्था की मर्यादा को बनाये रखने का प्रयास किया।

प्रश्न 4.
ब्राह्मण किन लोगों को वर्णव्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे? क्या आप इस मत से सहमत हैं कि उन्होंने समाज के कुछ वर्गों को ‘अस्पृश्य’ घोषित कर सामाजिक विषमता को और तीव्र कर दिया?
उत्तर:
ब्राह्मणों द्वारा अस्पृश्य लोगों को वर्ण- व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानना
(1) समाज के कुछ वर्गों को अस्पृश्य घोषित करना – ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे। उन्होंने समाज के कुछ वर्गों को ‘अस्पृश्य’ घोषित कर दिया और इस प्रकार सामाजिक विषमता को और अधिक तीव्र कर दिया।

(2) ‘अस्पृश्य’ घोषित करने के आधार ब्राह्मणों की यह मान्यता थी कि कुछ कर्म, विशेष रूप से अनुष्ठानों के सम्पादन से जुड़े हुए कर्म, पुनीत और पवित्र थे अतः अपने को पवित्र मानने वाले लोग अस्पृश्यों से भोजन स्वीकार नहीं करते थे। इसके विपरीत कुछ कार्य ऐसे थे, जिन्हें विशेष रूप से ‘दूषित’ माना जाता था। शव की अन्त्येष्टि करने वालों और मृत पशुओं को छूने वालों को चाण्डाल कहा जाता था उन्हें वर्ण व्यवस्था वाले समाज में सबसे निम्न कोटि में रखा जाता था। वे लोग, जो स्वयं को सामाजिक क्रम में सबसे ऊपर मानते थे, इन चाण्डालों का स्पर्श, यहाँ तक कि उन्हें देखना भी अपवित्रकारी मानते थे।

(3) चाण्डालों के कर्तव्य ‘मनुस्मृति’ के अनुसार चाण्डालों के निम्नलिखित कार्य थे –

  • चाण्डालों को गाँवों से बाहर रहना होता था।
  • वे फेंके हुए बर्तनों का प्रयोग करते थे तथा मृतक लोगों के वस्त्र और लोहे के आभूषण पहनते थे।
  • रात्रि में वे गाँव और नगरों में घूम नहीं सकते थे।
  • उन्हें सम्बन्धियों से विहीन मृतकों की अन्त्येष्टि करनी पड़ती थी।
  • उन्हें जल्लाद के रूप में भी कार्य करना पड़ता

(4) चीनी यात्रियों द्वारा चाण्डालों का वर्णन करना पाँचवीं शताब्दी ई. में फा-शिएन ने लिखा है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते समय करताल बजाकर अपने चाण्डाल होने की सूचना देने पड़ती थी जिससे अन्य लोग उन्हें देखने के दोष से बच जाएँ इसी प्रकार लगभग सातवीं शताब्दी ई. में आने वाले चीनी यात्री श्वैन-त्सांग ने लिखा है कि जल्लाद और सफाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था। इस प्रकार समाज में अस्पृश्यों की स्थिति शोचनीय थी। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे।

प्रश्न 5.
प्राचीनकाल में सम्पत्ति पर स्त्री और पुरुष के अधिकारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
(1) द्यूत क्रीड़ा में युधिष्ठिर का हारना- कौरवों और पाण्डवों के बीच लम्बे समय से चली आ रही प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप दुर्योधन ने युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा के लिए आमन्त्रित किया। युधिष्ठिर अपने प्रतिद्वन्द्वी द्वारा धोखा दिए जाने के कारण इस द्यूत क्रीड़ा में सोना, हाथी, रथ, दास, सेना, कोष, राज्य तथा अपनी प्रजा की सम्पत्ति, अनुजों और फिर स्वयं को भी दाँव पर लगा कर गंवा बैठा। इसके बाद उन्होंने पांडवों की सहपत्नी द्रौपदी को भी दाँव पर लगाया और उसे भी हार गए। इससे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल मैं पुरुष लोग अपनी पत्नियों को निजी सम्पति मानते थे।

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(2) प्राचीन काल में सम्पत्ति पर स्त्री और पुरुष के भिन्न अधिकार- मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् पैतृक सम्पत्ति का सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए। परन्तु इसमें ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रियाँ इस पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की मांग नहीं कर सकती थीं।

(3) स्त्रीधन यद्यपि पैतृक संसाधन में स्त्रियाँ हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं, परन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्वियों का स्वामित्व माना जाता था। इसे ‘स्त्रीधन’ अर्थात् ‘स्वी का धन’ कहा जाता था। इस सम्पत्ति को उनकी सन्तान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थीं और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था किन्तु मनुस्मृति’ स्त्रियों को पति की अनुमति के बिना पारिवारिक सम्पत्ति अथवा स्वयं अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को गुप्त रूप से एकत्रित करने से रोकती है।

(4) सामान्यतः भूमि, पशु और धन पर पुरुषों का नियन्त्रण होना- चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक कुल में हुआ था। वह एक धनाढ्य महिला थी। उसने दंगुन गाँव को एक ब्राह्मण आचार्य चनालस्वामी को दान किया था परन्तु अधिकांश साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि यद्यपि उच्चवर्ग की महिलाएँ संसाधनों पर अपनी पैठ रखती थीं, फिर भी प्रायः भूमि, पशु और धन पर पुरुषों का ही नियन्त्रण था। दूसरे शब्दों में, स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक स्थिति की भिन्नता संसाधनों पर उनके नियन्त्रण की भिन्नता के कारण से अधिक प्रबल हुई।

प्रश्न 6.
बी. बी. लाल के नेतृत्व में हस्तिनापुर में किए गए उत्खनन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बी.बी. लाल के नेतृत्व में हस्तिनापुर में उत्खनन कार्य महाभारत में अन्य प्रमुख महाकाव्यों की भाँति युद्धों, वनों राजमहलों और बस्तियों का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण है। 1951-52 ई. में प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता बी. बी. लाल ने मेरठ जिले (उत्तरप्रदेश) के हस्तिनापुर नामक एक गाँव में उत्खनन किया। यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह गाँव महाभारत में वर्णित हस्तिनापुर ही था। फिर भी नामों की समानता केवल एक संयोग हो सकता है, परन्तु गंगा के ऊपरी दोआब वाले क्षेत्र में इस पुरास्थल का होना जहाँ कुरु राज्य भी था, इस ओर संकेत करता है कि शायद यह पुरास्थल कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर ही था, जिसका उल्लेख महाभारत में आता है।

(1) आबादी के पाँच स्तरों के साक्ष्य-बी. बी. लाल को उत्खनन के दौरान यहाँ आबादी के पाँच स्तरों के साक्ष्य मिले थे जिनमें से दूसरा और तीसरा स्तर हमारे विश्लेषण के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

(2) दूसरे स्तर के साक्ष्य दूसरे स्तर (लगभग बारहवीं से सातवीं शताब्दी ई. पूर्व) पर मिलने वाले घरों के सम्बन्ध में बी.बी. लाल लिखते हैं कि “जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ, वहाँ से आवास गृहों की कोई निश्चित परियोजना नहीं मिलती परन्तु मिट्टी की बनी दीवार और कच्ची मिट्टी की ईंटें अवश्य मिलती हैं। सरकंडे की छाप वाले मिट्टी के पलस्तर की खोज इस बात की ओर संकेत करती है कि कुछ घरों की दीवारें सरकंडों की बनी धीं जिन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया जाता था।”

(3) तीसरे स्तर के साक्ष्य तीसरे स्तर (लगभग छठी से तीसरी शताब्दी ई. पूर्व) के घरों के बारे में बी.बी. लाल लिखते हैं कि “तृतीय काल के घर कच्ची और कुछ पक्की ईंटों के बने हुए थे। इनमें शोषकघट और ईंटों के नाले गंदे पानी के निकास के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। वलय कूपों का प्रयोग, कुओं और मल की निकासी वाले गत दोनों ही रूपों में किया जाता था।

” महाभारत के आदिपर्वन में हस्तिनापुर के चित्रण से लाल द्वारा खोजे गए हस्तिनापुर के चित्रण से भिन्नता- महाभारत के आदिपर्वन में हस्तिनापुर का जो चित्रण किया गया है वह बी. बी. लाल के द्वारा खोजे गए हस्तिनापुर के चित्रण से बिल्कुल भिन्न है ऐसा प्रतीत होता है कि हस्तिनापुर नगर का यह चित्रण महाभारत के मुख्य कथानक में बाद में सम्भवतः ई. पूर्व छठी शताब्दी के बाद जोड़ा गया प्रतीत होता है, जब इस क्षेत्र में नगरों का विकास हुआ यह भी सम्भव है कि यह मात्र कवियों की कल्पना की उड़ान थी जिसकी पुष्टि किसी भी अन्य साक्ष्य से नहीं होती।

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प्रश्न 7.
“महाभारत की सबसे चुनौतीपूर्ण उपकथा द्रौपदी से पांडवों के विवाह की है।” स्पष्ट कीजिए तथा द्रौपदी के विवाह के बारे में विभिन्न इतिहासकारों के मतों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
द्रौपदी से पांडवों के विवाह की उपकथा का चुनौतीपूर्ण होना महाभारत की सबसे चुनौतीपूर्ण उपकथा द्रौपदी से पांडवों के विवाह की है। यह बहुपति विवाह का उदाहरण है जो महाभारत की कथा का अभिन्न अंग है। द्रौपदी से पांडवों के विवाह के बारे में विभिन्न इतिहासकारों ने निम्नलिखित मत प्रकट किए हैं –

(1) बहुपति विवाह की प्रथा का शासकों के विशिष्ट वर्ग में विद्यमान होना वर्तमान इतिहासकारों ने यह मत प्रकट किया है कि महाभारत के लेखक (लेखकों) द्वारा बहुपति विवाह सम्बन्ध का वर्णन इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि सम्भवतः यह प्रथा शासकों के विशिष्ट वर्ग में किसी काल में विद्यमान थी किन्तु साथ ही इस प्रकरण के विभिन्न स्पष्टीकरण इस बात को भी व्यक्त करते हैं कि समय के साथ बहुपति प्रथा उन ब्राह्मणों में अमान्य हो गई, जिन्होंने कई शताब्दियों के दौरान इस ग्रन्थ का पुनर्निर्माण किया।

(2) बहुपति प्रथा का हिमालय क्षेत्र में प्रचलित होना- कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यद्यपि ब्राह्मणों की दृष्टि में बहुपति प्रथा अमान्य और अवांछित थी, फिर भी यह प्रथा हिमालय क्षेत्र में प्रचलित थी और आज भी प्रचलित है। यह भी तर्क दिया जाता है कि युद्ध के समय स्त्रियों की कमी के कारण बहुपति प्रथा को अपनाया गया था। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि बहुपति प्रथा को संकट की स्थिति में अपनाया गया था।

(3) सृजनात्मक साहित्य की अपनी कथा सम्बन्धी आवश्यकताएँ होना आरम्भिक स्रोतों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि बहुपति प्रथा न तो एकमात्र विवाह पद्धति थी और न ही यह सबसे अधिक प्रचलित थी। फिर भी महाभारत के लेखक (लेखकों) ने इस प्रथा को ग्रन्थ के प्रमुख पात्रों के साथ अभिन्न रूप से जोड़ कर क्यों देखा ? इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि सृजनात्मक साहित्य की अपनी कथा सम्बन्धी आवश्यकताएँ होती हैं जो सदैव समाज में विद्यमान वास्तविकताओं को उजागर नहीं करतीं।

प्रश्न 8.
महाभारत की मुख्य कथावस्तु के लिए बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी द्वारा खोजे गए विकल्पों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
महाभारत की मुख्य कथावस्तु के लिए महाश्वेता देवी द्वारा खोजे गए विकल्प प्रसिद्ध बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने महाभारत की मुख्य कथावस्तु के लिए अन्य विकल्पों की खोज की है और उन प्रश्नों की ओर ध्यान खींचा है जिन पर संस्कृत पाठ चुप है।

(1) दुर्योधन द्वारा पांडवों को छल से ‘लाक्षागृह’ मैं जलाकर मार देना- संस्कृत पाठ में दुर्योधन द्वारा पांडवों को छल से लाक्षागृह में जलाकर मार देने का उल्लेख आता है किन्तु पहले से मिली चेतावनी के कारण पांडव उस गृह में सुरंग खोदकर भाग निकलते हैं उस समय कुंती एक भोज का आयोजन करती है जिसमें ब्राह्मण आमन्त्रित होते हैं। किन्तु एक निषादी भी अपने पाँच पुत्रों के साथ उसमें आती है। भोजन करके वे गहरी नींद में सो जाते हैं और पांडवों द्वारा लगाई गई आग में वे उसी लाक्षागृह में जल कर मर जाते हैं। जब उस निषादी और उसके पुत्रों के जले हुए शव मिलते हैं तो कि पांडवों की मृत्यु हो गई है।

(2) महाश्वेता देवी की लघु कथा ‘कुंती ओ निषादी’ महाश्वेता देवी ने अपनी लघुकथा, जिसका शीर्षक ‘कुंती ओ निषादी’ है, के कथानक का प्रारम्भ वहीं से किया है, जहाँ महाभारत के इस प्रसंग का अंत होता है। उन्होंने अपनी कहानी की रचना एक वन्य प्रदेश में की है जहाँ महाभारत के युद्ध के बाद कुंती रहने लगती है। कुंती अपने अतीत के बारे में विचार करती है। वह पृथ्वी से बातें करते हुए अपनी त्रुटियों को स्वीकार करती है। प्रतिदिन वह निषादों को देखती है, जो जंगल में लकड़ी, शहद, कंदमूल आदि इकट्ठा करने आते हैं। एक निषादी प्रायः कुंती को पृथ्वी से बातें करते हुए सुनती है।

(3) निषादी द्वारा कुंती से लाक्षागृह की घटना के बारे में प्रश्न करना एक दिन आग लगने के कारण जानवर जंगल छोड़कर भाग रहे थे। कुंती ने देखा कि नियादी उन्हें घूर घूर कर देख रही थी जब निषादी ने कुंती से पूछा कि क्या उन्हें लाक्षागृह की याद है तो कुंती झेंप गई। उन्हें याद था कि उन्होंने वृद्धा निषादी तथा उसके पाँच पुत्रों को इतनी शराब पिलाई थी कि वे सब बेसुध हो गए थे जबकि वह स्वयं अपने पुत्रों के साथ बचकर लाक्षागृह से निकल गई थी।

जब कुंती ने उससे पूछा कि क्या तुम वही निषादी हो? तो उसने उत्तर दिया कि मरी हुई निषादी उसकी सास थी। साथ ही उसने यह भी कहा कि अपने अतीत पर विचार करते समय तुम्हें एक बार भी उन छ निर्दोष लोगों की याद नहीं आई जिन्हें मौत के मुंह में जाना पड़ा था, क्योंकि तुम तो अपने और अपने पुत्रों के प्राण बचाना लोग यह अनुमान लगा लेते हैं। चाहती थीं। आग की लपटें निकट आने के कारण निषादी तो अपने प्राण बचाकर निकल गई, परन्तु कुंती जहाँ खड़ी थी, वहीं रह गई।

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प्रश्न 9.
महाभारतकालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(1) महाभारतकालीन सामाजिक स्थिति- महाभारत काल में वर्ण व्यवस्था सुदृढ़ हो चुकी थी। समाज चार प्रमुख वर्णों में विभाजित था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चारों वर्णों में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। इस युग में पुत्री की अपेक्षा पुत्र का अधिक महत्त्व था। इस युग में सजातीय विवाहों का अधिक प्रचलन था, परन्तु अन्तर्जातीय विवाहों का भी उल्लेख मिलता है बहुपति प्रथा भी प्रचलित थी। द्रौपदी का विवाह पाँच पांडवों से हुआ था। स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी। कुल मिलाकर स्वियों की स्थिति सन्तोषजनक थी।

(2) आर्थिक स्थिति इस युग के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन कृषि था। गेहूं, जौ, चावल, चना दाल, तिल आदि की खेती की जाती थी। राज्य की ओर से सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। पशुपालन भी आजीविका का एक अन्य मुख्य साधन था। इस युग में अनेक उद्योग-धन्धे विकसित थे। स्वर्णकार, लुहार, कुम्हार, बढ़ई, जुलाहे, रंगरेज, चर्मकार, रथकार आदि अनेक शिल्पकार थे। वस्त्र उद्योग काफी उन्नत अवस्था में था। इस युग में वाणिज्य तथा व्यापार भी उन्नत अवस्था में था ।

(3) धार्मिक स्थिति इस युग में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, पार्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी। इस युग में अवतारवाद की अवधारणा प्रचलित थी। विष्णु के अवतार के रूप में राम, श्रीकृष्ण आदि की उपासना की जाती थी यज्ञों का महत्त्व भी बना हुआ था। परन्तु पशुबलि धीरे-धीरे लुप्त हो रही थी।

(4) राजनीतिक स्थिति राज का पद बड़ा प्रतिष्ठित माना जाता था उसे अग्नि, सूर्य, यम, कुबेर आदि विभिन्न रूपों में प्रतिष्ठित किया गया है। लोक कल्याण और धर्मानुसार शासन करना उसके प्रमुख कर्त्तव्य थे। राजा का पद वंशानुगत था परन्तु शारीरिक दोष होने पर बड़े पुत्र को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित किया जा सकता था। नेत्रहीन होने के कारण धृतराष्ट्र को गद्दी से वंचित रहना पड़ा था। राजा को सहयोग और सलाह देने के लिए मन्त्रिपरिषद् का गठन किया गया था। राजा के अन्य पदाधिकारियों में युवराज, सेनापति, द्वारपाल, दुर्गपाल आदि प्रमुख थे। सेना के चार प्रमुख अंग थे –

  • पैदल
  • अश्वारोही
  • गजारोही
  • रथारोही

महाभारत में कुछ गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है। गणराज्यों ने अपनी सुरक्षा के लिए अपना संघ बना रखा था।

प्रश्न 10.
ब्राह्मणों ने धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों की रचना क्यों की? इसमें चार वर्गों के लिए जीविका- सम्बन्धी कौनसे नियम निर्धारित किए गए थे?
उत्तर:
(i) धर्मसूत्र में वेद विद्या के सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। इसमें उच्च विचारों और भावों का समावेश है। धर्मसूत्र में सामाजिक नियमों का वर्णन मिलता है। धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति सबसे प्राचीन है। इसमें प्राचीन विचारों के हिन्दुओं के जीवन के सभी पहलुओं के विषय में लिखा गया है। वर्तमान में भारतीय न्याय व्यवस्था में हिन्दुओं से सम्बन्धी कानून मनुस्मृति पर काफी हद तक आधारित हैं।

(ii) धर्मशास्त्रों और धर्मसूत्रों में एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख किया गया था। ब्राह्मणों का यह मानना था कि यह व्यवस्था जिसमें ब्राह्मणों को पहला स्थान प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है। शूद्रों और अस्पृश्यों को सबसे निचले स्तर पर रखा जाता था।

(iii) धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए आदर्श ‘जीविका’ से जुड़े कई नियम मिलते हैं। ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यह करना और करवाना था तथा उनका काम दान देना और लेना था।

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(iv) क्षत्रियों का कर्म युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना था। अन्तिम तीन कार्य वैश्यों के लिए भी थे साथ ही उनसे कृषि, गौ पालन और व्यापार का कर्म भी अपेक्षित था शूद्रों के लिए मात्र एक ही जीविका थी – तीनों ‘उच्च’ वर्णों की सेवा करना।

(v) इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने दो-तीन नीतियाँ अपनाई। पहली नीति में यह बताया गया हैं कि वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति देवीय व्यवस्था है। दूसरा, वे शासकों को यह उपदेश देते थे कि वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करें। तीसरे, उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है। किन्तु ऐसा करना आसान बात नहीं थी। अतः इन मानदण्डों को बहुधा महाभारत जैसे अनेक ग्रन्थों में वर्णित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था।

प्रश्न 11.
ब्राह्मणीय वर्ण व्यवस्था में अस्पृश्य वर्ग की क्या स्थिति थी? मनुस्मृति में वर्णित चाण्डालों के कर्त्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर:

  1. वर्ण-व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली में ब्राह्मणों ने कुछ लोगों को अस्पृश्य घोषित किया था। ब्राह्मणों का मानना था कि कुछ कर्म, जिसमें विशेष रूप से ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न अनुष्ठान थे पुनीत और पवित्र होते थे। इन पवित्र कार्यों को करने वाले पवित्र लोग अस्पृश्यों से भोजन स्वीकार नहीं करते थे।
  2. पवित्रता के इस पहलू के ठीक विपरीत कुछ कार्य ऐसे थे जिन्हें खासतौर से ‘दृषित’ माना जाता था। शवों की अन्त्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चाण्डाल कहा जाता था। उन्हें वर्ण व्यवस्था वाले समाज में सबसे निम्न कोटि में रखा जाता था।
  3. ब्राह्मण स्वयं को सामाजिक क्रम में सबसे ऊपर मानते थे, वे चाण्डालों का स्पर्श, यहाँ तक कि उन्हें देखना भी, अपवित्रकारी मानते थे।
  4. मनुस्मृति में चाण्डालों के ‘कर्तव्यों’ की सूची मिलती है। उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था। वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे।
  5. सम्बन्धियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी तथा वधिक के रूप में भी कार्य करना होता था।
  6. लगभग पांचवीं शताब्दी ईसवी में चीन से आए बौद्ध भिक्षु फा शिएन का कहना है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी जिससे अन्य जन उन्हें देखने के दोष से बच जाएँ।
  7. लगभग सातवीं शताब्दी ईस्वी में भारत आए चीनी तीर्थयात्री श्वैन-त्सांग का कहना है कि वधिक और सफाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था।

प्रश्न 12.
ऋग्वैदिक काल में सामाजिक जीवन, पारिवारिक जीवन, विवाह, मनोरंजन के साधन आदि की क्या विशेषताएँ थीं? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ऋग्वैदिक काल में भारतीय आर्यों ने विभिन्न क्षेत्रों में पर्याप्त उन्नति की वे एक सभ्य और सुसंस्कृत जीवन पद्धति का विकास कर चुके थे और दूसरी ओर संसार की अन्य जातियाँ अपनी आदिम अवस्था में ही विद्यमान थीं।

इस काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं –

(1) सामाजिक जीवन ऋग्वैदिककालीन आर्यों का जीवन पूर्णत: विकसित था, किन्तु ये लोग बहुत सादा जीवन व्यतीत करते थे। सम्पूर्ण समाज चार भागों में विभाजित था। ये वर्ण कहलाते थे। ब्राह्मण धर्म-दर्शन और विचारों के अधिष्ठाता थे विद्या का पठन-पाठन इनका मुख्य कार्य था क्षत्रिय लोगों पर समाज की रक्षा का भार था। वैश्य कृषि का कार्य करते थे तथा व्यापार व कला-कौशल में दक्षता प्राप्त करके समाज की समृद्धि की चिन्ता करते थे। शूद्रों का कार्य अन्य वर्णों की सेवा करना था। ये चारों वर्ण कर्मप्रधान थे एक ही परिवार में विभिन्न वर्गों के लोग रहते थे एक वर्ण से दूसरे में परिवर्तन सम्भव था। इन वर्णों में पारस्परिक विवाह सम्पन्न होते थे।

(2) पारिवारिक जीवन परिवार पितृप्रधान हुआ करते थे। इस काल में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित थी। पिता परिवार का मुखिया होता था। वह परिवार के सदस्यों में कार्य विभाजन करता था। पत्नी का स्थान भी महत्वपूर्ण होता था।

(3) विवाह वैदिक सभ्यता में विवाह एक धार्मिक संस्कार था। साधारणतः एक पत्नी की प्रथा प्रचलित थी। हालांकि कुलीन परिवारों में बहुपत्नी व बहुपति प्रथा के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। निकट सम्बन्धियों में विवाह नहीं होते थे। कन्याओं को स्वयंवर विवाह की अनुमति थी। साधारण परिवार की कन्याएँ भी स्वयंवर द्वारा स्वयं पति चुनती थीं।

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(4) वेश-भूषा तथा प्रसाधन-महाकाव्यकालीन लोग साधारण पोशाक ही धारण करते थे शरीर के ऊपरी भाग पर पहनने वाले वस्त्र को ऊर्ध्ववस्व तथा शरीर के निचले भाग पर धारण किए वस्त्र को अधोवस्य कहते थे। आभूषण स्वी और पुरुष दोनों ही पहनते थे। आभूषण सोने और चाँदी के होते थे जिनमें नग व मोती जड़े होते थे।

(5) मनोरंजन के साधन महाकाव्यकाल में मनोरंजन के प्रमुख साधन शिकार, नृत्य, संगीत, मल्लयुद्ध और गदायुद्ध आदि थे। जुआ भी खेला जाता था।

प्रश्न 13.
जाति प्रथा का विकास कैसा हुआ? सामाजिक विषमताओं के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्राचीनकाल से ही भारत में किसी न किसी रूप में जाति प्रथा प्रचलित रही है। प्रारम्भ में वर्णों के आधार पर कुल चार जातियाँ थीं— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

जाति प्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं परन्तु निम्न दो मत तर्कसंगत हैं –
(1) धर्मसूत्रों और धर्म-ग्रन्थों के आधार पर ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार, जैसेकि पुरुषसूक्त में वर्णन है कि जाति जन्म पर आधारित है, यह एक दैवीय व्यवस्था है। ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।

(2) श्रम विभाजन के आधार पर आधुनिक इतिहासकारों का मत है कि जाति प्रथा का आरम्भ श्रम- विभाजन के कारण हुआ। शक्तिशाली तथा सामर्थ्यवान लोगों को देश की रक्षा का भार सौंपा गया; अतः योद्धाओं की एक विशेष जाति क्षत्रिय की उत्पत्ति हुई। आनुष्ठानिक धार्मिक कार्य और वेदाध्ययन करने वाले लोगों को ब्राह्मण कहा गया। व्यापारिक कार्यों तथा कृषि और पशुपालन जैसे कार्यों को करने वालों को वैश्य का दर्जा दिया गया। जो लोग इन सब कार्यों को करने का सामर्थ्य नहीं रखते थे उन्हें तीनों जातियों की सेवा का कार्य दिया गया और वे शूद्र कहलाए।

जाति प्रथा का सामाजिक विषमताओं में योगदान- आरम्भिक चरणों में जाति प्रथा इतनी कठोर नहीं थी क्योंकि यह जातीय भेद व्यवसायों पर आधारित था परन्तु बाद में जन्म आधारित मान्यता मिल जाने पर जाति प्रथा कठोर होती चली गई और इसके द्वारा समाज में बहुत-सी विषमताएँ उत्पन्न हुई –

  1. समाज में छुआछूत की भावना फैली। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों वर्ण शूद्रों को स्वयं से हीन समझने लगे, यहाँ तक कि कुछ लोगों को ‘अस्पृश्य’ घोषित कर दिया गया।
  2. ब्राह्मण अपने-आपको तथा क्षत्रिय स्वयं को सभी जातियों से उच्च समझते थे, इस कारण समाज में विद्वेष की भावना सम्पन्न हुई।
  3. शिक्षा का अधिकार केवल ब्राह्मणों के पास ही था, सैनिक शिक्षा क्षत्रियों तक ही सीमित रही।
  4. विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड, सामाजिक कुरीतियाँ समाज में प्रचलित हो गयीं।
  5. लोगों की राष्ट्रीय भावना में कमी आई एवं लोग अपने जातिगत स्वार्थी को पूरा करने में लग गये। इन सब कारणों से समाज की एकजुटता में कमी आई जिसका लाभ विदेशी शासकों ने उठाया।

प्रश्न 14.
महाभारत काल में लैंगिक असमानता के आधार पर सम्पत्ति के अधिकारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
महाभारत काल में स्वी की स्थिति तथा लैंगिक असमानता के कारण स्त्रियों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त युक्त नहीं थे। सम्पत्ति के अधिकारों की क्रमबद्ध व्याख्या निम्न है –

(1) वस्तु की भाँति पत्नी को निजी सम्पत्ति मानना इसका उदाहरण द्यूतक्रीड़ा के प्रकरण में मिलता है पाण्डव अपनी सारी सम्पत्ति कौरवों के साथ घृत- क्रीड़ा में चौसर के खेल में हार गए। अन्त में पाण्डवों ने अपनी साझी पत्नी द्रौपदी को भी निजी सम्पत्ति मानकर दाँव पर लगा दिया और उसे भी हार गए। स्त्री को सम्पत्ति मात्र समझने के कई उदाहरण धर्मशास्त्रों और धर्मसूत्रों में प्राप्त होते हैं।

(2) मनुस्मृति के अनुसार सम्पत्ति का बँटवारा- मनुस्मृति में सम्पत्ति के बँटवारे के सम्बन्ध में वर्णित है कि माता-पिता की सम्पत्ति में उनकी मृत्यु के पश्चात् पुत्रों का समान अधिकार होता है इसलिए पैतृक सम्पत्ति का सभी पुत्रों में समान बँटवारा करना चाहिए। माता-पिता की सम्पत्ति में पुत्रियों का कोई अधिकार नहीं था।

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(3) स्त्री धन स्वियों हेतु धन की व्यवस्था स्वी धन के रूप में की गई थी। स्वी को विवाह के समय जो उपहार उसे परिवार और कुटुम्बजनों से प्राप्त होते थे; उन पर उनका अधिकार होता था उस पर पति का अधिकार भी नहीं होता था।

(4) सम्पत्ति अर्जन के पुरुषों के अधिकार – मनुस्मृति के अनुसार पुरुषों के लिये धन अर्जन के सात तरीके हैं; जैसे— विरासत, खोज, खरीद, विजित करके, निवेश, काम द्वारा तथा सज्जनों से प्राप्त भेंट

(5) उच्च वर्ग की महिलाओं की विशेष स्थिति- उच्च वर्ग की महिलाओं की स्थिति बेहतर थी। उच्च वर्ग की महिलाएँ संसाधनों पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभुत्व रखती थीं। दक्षिण भारत में महिलाओं की स्थिति रस सम्बन्ध में और भी अच्छी थी। वाकाटक वंश की रानी चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त अत्यन्त प्रभावशाली महिला थी; उनके सम्पत्ति के अधिकारों के स्वामित्व का प्रमाण इस बात से मिलता है कि उन्होंने अपने अधिकार से एक ब्राह्मण को भूमिदान किया था।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

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Jharkhand Board Class 12 Political Science भारतीय राजनीति : नए बदलाव InText Questions and Answers

पृष्ठ 174

प्रश्न 1
‘अगर हर सरकार एक-सी नीति पर अमल करे तो मुझे नहीं लगता कि इससे राजनीति में कोई बदलाव आयेगा।’
उत्तर:
यदि सभी सरकारें या उनसे सम्बद्ध राजनीतिक दल एक ही प्रकार की नीतियाँ अपनाएं तो इससे राजनीतिक व्यवस्था स्थिर व जड़ हो जायेगी। लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इस प्रकार की नीति लागू होना सम्भव नहीं है क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनमत सर्वोपरि होता है और जनसामान्य के हित अलग-अलग होते हैं और यह हित समय और परिस्थितियों के अनुसार निरन्तर परिवर्तित भी होते रहते हैं, इसलिए प्रत्येक सरकार को जन इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करना पड़ता है।

ऐसी स्थिति में सभी सरकारें एक जैसी नीति का अनुसरण नहीं कर सकतीं। इसके अतिरिक्त भारत जैसे बहुदलीय व्यवस्था वाले देश में तो इस प्रकार की नीति लागू करना बिल्कुल भी सम्भव नहीं है क्योंकि भारत में प्रत्येक दल की विचारधारा व कार्यक्रमों में व्यापक अन्तर है और ये राजनीतिक दल सत्ता में आने पर अलग-अलग ढंग से निर्णय लेते हैं।

पृष्ठ 180

प्रश्न 2.
चलो मान लिया कि भारत जैसे देश में लोकतान्त्रिक राजनीति का तकाजा ही गठबन्धन बनाना है। लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि हमारे देश में हमेशा से गठबन्धन बनते चले आ रहे हैं। अथवा, राष्ट्रीय स्तर के दल एक बार फिर से अपना बुलंद मुकाम हासिल करके दिखाएंगे।
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में गठबन्धन का दौर हमेशा से चला आ रहा है । यह बात कुछ हद तक सहीं है, लेकिन इन गठबन्धनों के स्वरूप में व्यापक अन्तर है। पहले जहाँ एक ही पार्टी के भीतर गठबन्धन होता था अब पार्टियों के बीच गठबन्धन होता है। जहाँ तक राष्ट्रीय दलों के प्रभुत्व का सवाल है, वर्तमान दलीय व्यवस्था के बदलते दौर में अपना बुलंद मुकाम पाना बहुत कठिन है। क्योंकि वर्तमान में भारतीय दलीय व्यवस्था का स्वरूप बहुदलीय हो गया है जिसमें राष्ट्रीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के महत्त्व को भी नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि भारत में नब्बे के दशक से गठबन्धन सरकारों का सिलसिला चला आ रहा है।

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प्रश्न 3.
मुझे इसकी चिन्ता नहीं है कि सरकार किसी एक पार्टी की है या गठबन्धन की। मसला तो यह है कि कोई सरकार काम कौनसे कर रही है? क्या गठबन्धन सरकार में ज्यादा समझौते करने पड़ते हैं? क्या गठबन्धन सरकार साहसी और कल्पनाशील नीतियाँ नहीं अपना सकती?
उत्तर:
सरकारों का स्वरूप चाहे कैसा भी हो। चाहे वह गठबन्धन सरकार हो या एक ही दल की सरकार हो लेकिन सरकार जनता की कसौटियों पर खरी उतरे वही सफल सरकार है। गठबन्धन सरकारों में विभिन्न दल आपसी समझौतों या शर्तों के आधार पर सरकार का गठन करते हैं। इन दलों के सभी के अपने-अपने हित एवं स्वार्थ होते हैं जिन्हें पूरा करने हेतु निरन्तर प्रयास करते रहते हैं।

जहाँ आपसी हितों में रुकावट या टकराव आता है वहीं दल अलग हो जाते हैं और सरकारें गिर जाती हैं। इस प्रकार गठबन्धन सरकारों में स्थिरता बहुत कम पायी जाती है। इस प्रकार की सरकारों में स्वतन्त्र निर्णय लेना सम्भव नहीं है। इस प्रकार गठबन्धन सरकार साहसी और कल्पनाशील नीतियाँ नहीं अपना सकती।

पृष्ठ 183

प्रश्न 4.
क्या इससे पिछड़े और दलित समुदायों के सभी नेताओं को लाभ होगा या इन समूहों के भीतर मौजूद कुछ ताकतवर जातियाँ और परिवार ही सारे फायदे अपनी मुट्ठी में कर लेंगे?
उत्तर:
इससे पिछड़े और दलित समुदायों के सभी नेताओं का लाभ तो शायद ही हो अपितु हमने यह देखा है कि ऐसे संगठनों में मौजूद कुछ नेता अत्यधिक ताकतवर और रसूखवाले हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
असल मुद्दा नेताओं का नहीं, जनता का है! क्या इस बदलाव से सचमुच के वंचितों के लिए बेहतर नीतियाँ बनेंगी और उन पर कारगर तरीके से अमल होगा या फिर यह सारा कुछ एक राजनीतिक खेल मात्र बनकर रह जाएगा?
उत्तर:
हम इस बात को पूरी तरह नकार नहीं सकते कि ऐसे बदलावों से वंचितों के लिए कोई बेहतर नीतियाँ नहीं बनीं और उन पर कारगर तरीके से अमल होगा। परंतु कई बार नेताओं ने ऐसे नीतियों का फायदा जरूरतमंदों तक पूरा-पूरा नहीं पहुँचने दिया।

पृष्ठ 188

प्रश्न 6.
क्या हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि जो लोग ऐसे जनसंहार की योजनाएँ बनाएँ, अमल करें और उसे समर्थन दें। वे कानून के हाथों से बच न पाएँ? ऐसे लोगों को कम-से-कम राजनीतिक रूप से तो सबक सिखाया ही जा सकता है।
उत्तर:
भारत में धर्म, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर अनेक बार साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन साम्प्रदायिक दंगों के पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न राजनीतिक दलों का हाथ रहा है। ये दल अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु दुष्प्रचार करते हैं जिससे जनसामान्य इनके बहकावे में आकर गलत कदम उठाते हैं। भारत में 1984 के सिख दंगे हों, अयोध्या की घटना हो या 2002 में गुजरात का गोधरा काण्ड, इन सभी घटनाओं के पीछे राजनीतिक दलों की स्वार्थपूर्ण नीति रही है।

इन घटनाओं को रोकने के लिए आवश्यक है कि ऐसे राजनीतिक दल व उनके नेतृत्वकर्ता जिनका आपराधिक रिकार्ड रहा है या साम्प्रदायिक दंगों में लिप्त रहे हैं उन पर चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने पर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए। जो लोग नरसंहार की योजना बनाएँ या उस पर अमल करें उन्हें कानून द्वारा सख्त सजा दी जानी चाहिए।

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प्रश्न 1.
उन्नी – मुन्नी ने अखबार की कुछ कतरनों को बिखेर दिया है। आप इन्हें कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करें।
(क) मंडल आयोग की सिफारिशें और आरक्षण विरोधी हंगामा
(ख) जनता दल का गठन
(ग) बाबरी मस्जिद का विध्वंस
(घ) इन्दिरा गांधी की हत्या
(ङ) राजग सरकार का गठन
(च) संप्रग सरकार का गठन
(छ) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम
उत्तर:
(क) इन्दिरा गांधी की हत्या (1984)
(ख) जनता दल का गठन (1988)
(ग) मण्डल आयोग की सिफारिश और आरक्षण विरोधी हंगामा (1990)
(घ) बाबरी मस्जिद का विध्वंस (1992)
(ङ) राजग सरकार का गठन (1999)
(च) गोधरा दुर्घटना और उसके परिणाम (2002)
(छ) संप्रग सरकार का गठन (2004)।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित में मेल करें-

(क) सर्वानुमति की राजनीति (i) शाहबानो मामला
(ख) जाति आधारित दल (ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय (iii) गठबन्धन सरकार
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत (iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति

उत्तर:

(क) सर्वानुमति की राजनीति (iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति
(ख) जाति आधारित दल (ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय (i) शाहबानो मामला
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत (iii) गठबन्धन सरकार

प्रश्न 3.
1989 के बाद की अवधि में भारतीय के आपसी जुड़ाव के क्या रूप सामने आये हैं?
उत्तर:
1989 के बाद भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे – 1989 के बाद भारतीय राजनीति में कई बदलाव आये जिनमें कांग्रेस का कमजोर होना, मण्डल आयोग की सिफारिशें एवं आन्दोलन, आर्थिक सुधारों को लागू करना, राजीव गांधी की हत्या तथा अयोध्या मामला प्रमुख हैं । इन स्थितियों में भारतीय राजनीति में जो मुद्दे प्रमुख रूप से उभरे उनसे राजनीतिक दलों का आपसी जुड़ाव निम्न रूप में सामने आया-

  1. कांग्रेस ने स्थिर सरकार का मुद्दा उठाकर कहा कि देश में स्थिर सरकार कांग्रेस ही दे सकती है।
  2. भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा उठाकर हिन्दू मतों को अपने पक्ष में कर अपने जनाधार को ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक करने का प्रयास किया।
  3. लोकदल व जनता दल ने मंडल आयोग की सिफारिशों का मुद्दा उठाकर पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लामबंद करने का प्रयास किया ।

प्रश्न 4.
“गठबन्धन की राजनीति के इस दौर में राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठजोड़ नहीं करते हैं।” इस कथन के पक्ष या विपक्ष में आप कौन-कौनसे तर्क देंगे?
उत्तर:
पक्ष में तर्क- वर्तमान युग में गठबन्धन की राजनीति का दौर चल रहा है। इस दौर में राजनीतिक दल विचारधारा को आधार बनाकर गठजोड़ नहीं कर रहे बल्कि अपने निजी राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए गठजोड़ करते हैं। इस बात के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं

  1. 1977 में जे. पी. नारायण के आह्वान पर जो जनता दल बना था उसमें कांग्रेस के विरोधी प्रायः सी. पी. आई. को छोड़कर अधिकांश विपक्षी दल शामिल थे। इन सभी दलों को हम एक ही विचारधारा वाले दल नहीं कह सकते।
  2. जनता दल की सरकार गिरने के बाद केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा बना जिसमें एक ओर जनता पार्टी के वी. पी. सिंह तो दूसरी ओर उन्हें समर्थन देने वाले सी. पी. एम. वामपंथी और भाजपा जैसे तथाकथित हिन्दुत्व समर्थक गांधीवादी राष्ट्रवादी दल भी थे।
  3. कांग्रेस की सरकार, 1991 से 1996 तक नरसिंह राव के नेतृत्व में अल्पमत होते हुए भी इसलिए चलती रही क्योंकि उसे अनेक ऐसे दलों का समर्थन प्राप्त था जिससे तथाकथित साम्प्रदायिक शक्तियाँ सत्ता में न आ सकें।
  4. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी जनतांत्रिक गठबन्धन ( एन. डी.ए) की सरकार को अकालियों, तृणमूल कांग्रेस, बीजू पटनायक कांग्रेस, समता दल, जनता पार्टी तथा अनेक क्षेत्रीय दलों ने भी सहयोग और समर्थन दिया।

विपक्ष में तर्क- उपर्युक्त कथन के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

  1. गठबन्धन की राजनीति के नए दौर में भी वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ नहीं मिलाया, वे उसे अब भी राजनीतिक दृष्टि से अस्पर्शीय पार्टी मानते हैं।
  2. समाजवादी पार्टी, वामपंथी मोर्चा, डी. पी. के. जैसे क्षेत्रीय दल किसी भी उस प्रत्याशी को खुला समर्थन नहीं देना चाहते जो एन. डी. ए. अथवा भाजपा का प्रत्याशी हो।
  3. कांग्रेस पार्टी ने अधिकांश मोर्चों पर बीजेपी विरोधी और बीजेपी ने कांग्रेस विरोधी रुख अपनाया है

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प्रश्न 5.
आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी। इस दौर में इस पार्टी के विकास क्रम का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी का विकास-क्रम – आपातकाल के पश्चात् भाजपा की विकास यात्रा को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

  1. जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद जनता पार्टी के भारतीय जनसंघ घटक ने वर्ष 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।
  2. वर्ष 1984 के चुनावों में भाजपा को लोकसभा में केवल दो सीटें प्राप्त हुईं।
  3. सन् 1989 के चुनावों में भाजपा ने चुनाव में राम मंदिर बनवाने के नारे को उछाला। फलतः इस चुनाव में भाजपा को आशा से अधिक सफलता मिली। भाजपा ने वी. पी. सिंह को बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोर्चा सरकार का गठन करने में सहयोग दिया।
  4. 1991 के चुनाव में भी राम मंदिर निर्माण का नारा भाजपा के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध हुआ।
  5. 1996 के चुनावों में यह लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी।
  6. सन् 1998 के चुनावों में इसने कुछ क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर सरकार बनाई तथा 1999 के चुनावों में भाजपानीत गठबंधन ने फिर सत्ता प्राप्त की। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के काल में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने।
  7. सन् 2004 में तथा 2009 के चुनावों में भाजपा को पुनः अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी । फिर भी कांग्रेस के बाद आज यह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है।
  8. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ तथा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाई।

प्रश्न 6.
कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद देश की राजनीति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
देश की राजनीति से यद्यपि कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त हो गया है परन्तु अभी कांग्रेस का असर कायम है, क्योंकि अब भी भारतीय राजनीति कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूम रही है तथा सभी राजनीतिक दल अपनी नीतियाँ एवं योजनाएँ कांग्रेस को ध्यान में रखकर बनाते हैं। अभी भी कांग्रेस पार्टी दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है। 2004 के 14वें लोकसभा के चुनावों में इसने अन्य दलों के सहयोग से केन्द्र सरकार बनाई।

इसके साथ-साथ जुलाई, 2007 में हुए राष्ट्रपति के चुनाव में भी इस दल की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वर्ष 2009 के आम चुनावों में पहले से काफी अधिक सीटों पर जीत प्राप्त कर गठबंधन की सरकार बनाई । 2014 के लोकसभा चुनावों में यद्यपि उसे 44 ही सीटें प्राप्त हुईं तथापि उसके मत प्रतिशत में बहुत अधिक अन्तर नहीं आया है। अतः कहा जा सकता है कि कमजोर होने के बावजूद भी कांग्रेस का असर भारतीय राजनीति पर कायम है।

प्रश्न 7.
अनेक लोग सोचते हैं कि सफल लोकतन्त्र के लिए दो दलीय व्यवस्था जरूरी है। पिछले बीस सालों के भारतीय अनुभवों को आधार बनाकर एक लेख लिखिए और इसमें बताइए कि भारत की मौजूदा बहुदलीय व्यवस्था के क्या फायदे हैं?
उत्तर:
कुछ लोगों का मानना है कि सफल लोकतन्त्र के लिए दो दलीय व्यवस्था जरूरी है। इनका मानना है कि द्विदलीय व्यवस्था में साधारण बहुमत के दोष समाप्त हो जाते हैं, सरकार स्थायी होती है, भ्रष्टाचार कम फैलता है, निर्णय शीघ्रता से लिये जा सकते हैं। भारत में बहुदलीय प्रणाली भारत में बहुदलीय प्रणाली है।

कई विद्वानों का मत है कि भारत में बहुदलीय प्रणाली उचित ढंग से कार्य नहीं कर पा रही है तथा यह भारतीय लोकतन्त्र के लिए बाधा उत्पन्न कर रही है अतः भारत को द्वि-दलीय पद्धति अपनानी चाहिए परन्तु पिछले बीस सालों के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बहुदलीय प्रणाली से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को अग्रलिखित फायदे हुए हैं-

  1. विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व: बहुदलीय प्रणाली के कारण भारतीय राजनीति में सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
  2. मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता: अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपने वोट का प्रयोग करने के लिए अधिक विकल्प प्राप्त होते हैं।
  3. राष्ट्र दो गुटों में नहीं बँटता:  बहुदलीय प्रणाली होने के कारण भारत कभी भी दो विरोधी गुटों में विभाजित नहीं हुआ।
  4. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती: बहुदलीय प्रणाली के कारण भारत में मन्त्रिमण्डल तानाशाह नहीं बन सकता।
  5. अनेक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व:  बहुदलीय प्रणाली में व्यवस्थापिका में देश की अनेक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व हो सकता है

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव

प्रश्न 8.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दें-
भारत की दलगत राजनीति ने कई चुनौतियों का सामना किया है। कांग्रेस प्रणाली ने अपना खात्मा ही नहीं किया बल्कि कांग्रेस के जमावड़े के बिखर जाने से आत्म-प्रतिनिधित्व की नयी प्रवृत्ति का भी जोर बढ़ा। इससे दलगत व्यवस्था और विभिन्न हितों की समाई करने की इसकी क्षमता पर भी सवाल उठे राजव्यवस्था के सामने एक महत्त्वपूर्ण काम एक ऐसी दलगत व्यवस्था खड़ी करने अथवा राजनीतिक दलों को गढ़ने की है, जो कारगर तरीके से विभिन्न हितों को मुखर और एकजुट करें – जोया हसन
(क) इस अध्याय को पढ़ने के बाद क्या आप दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं?
(ख) विभिन्न हितों का समाहार और उनसे एकजुटता का होना क्यों जरूरी है?
(ग) इस अध्याय में आपने अयोध्या विवाद के बारे में पढ़ा। इस विवाद ने भारत के राजनीतिक दलों
की समाहार की क्षमता के आगे क्या चुनौती पेश की?
उत्तर:
(क) इस अध्याय में दलगत व्यवस्था की निम्नलिखित चुनौतियाँ उभर कर सामने आती हैं-

  1. गठबन्धन की राजनीति को चलाना।
  2. क्षेत्रीय दलों का उभरना तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार का बढ़ना।
  3. पिछड़े वर्गों की राजनीति का उभरना।
  4. अयोध्या विवाद का उभरना।
  5. गैर सैद्धान्तिक राजनीतिक समझौते का होना।
  6. साम्प्रदायिक दंगे होना।

(ख) विभिन्न हितों का समाहार और उनमें एकजुटता का होना जरूरी है, क्योंकि तभी भारत अपनी एकता और अखण्डता को बनाए रखकर विकास कर सकता है।

(ग) अयोध्या विवाद ने भारत में राजनीतिक दलों के सामने साम्प्रदायिकता की चुनौती पेश की तथा भारत में साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक दलों की राजनीति बढ़ गई।

भारतीय राजनीति : नए बदलाव JAC Class 12 Political Science Notes

→ 1990 का दशक:
1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तथा 1984 के लोकसभा चुनावों में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद सहानुभूतिस्वरूप भारतीय जनता ने कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से विजयी बनाया। 1980 के दशक के आखिर के सालों में देश में पाँच ऐसे बदलाव आये जिनका देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।

  • 1990 के दशक में एक महत्त्वपूर्ण घटना 1989 के चुनावों में कांग्रेस की हार है। 1989 में ही ‘कांग्रेस प्रणाली’ की समाप्ति हो गई।
  • दूसरा बड़ा बदलाव राष्ट्रीय राजनीति में मण्डल मुद्दे का उदय था। 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की नई सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इन सिफारिशों के अन्तर्गत प्रावधान किया गया कि केन्द्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया जाएगा।
  • विभिन्न सरकारों ने इस दौर में जो आर्थिक नीतियाँ अपनाईं वह बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। इसे ढांचागत समायोजन कार्यक्रम अथवा नये आर्थिक प्रकार के नाम से जाना जाता है।
  • इन्हीं घटनाओं के सिलसिले में एक और घटना अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचे (बाबरी मस्ज़िद के रूप में प्रसिद्ध) के विध्वंस के सम्बन्ध में है। यह घटना 1992 में दिसम्बर महीने में घटी। इस घटना ने देश की राजनीति में कई परिवर्तनों को जन्म दिया।
  • मई, 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। 1991 के चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आयी। राजीव गांधी के बाद नरसिम्हा राव ने कांग्रेस पार्टी की बागडोर सम्भाली।

→ गठबन्धन का युग:
1989 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार हुई। कांग्रेस की हार के बावजूद भी यह सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन बहुमत न मिलने के कारण उसने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। राष्ट्रीय मोर्चा को (यह मोर्चा जनता दल और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बनाया) परस्पर विरुद्ध दो राजनीतिक समूहों भाजपा और वाममोर्चा ने बाहर से समर्थन दिया।

→ काँग्रेस का पतन:
काँग्रेस की हार के साथ भारत की दलीय व्यवस्था से उसका दबदबा खत्म हो गया। 1960 के दशक के अंतिम सालों में काँग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती मिली थी, लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभुत्व फिर से कायम किया। 90 के दशक में काँग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली। इस दौर में काँग्रेस के दबदबे के खात्मे के साथ बहुदलीय शासन प्रणाली का युग शुरू हुआ। 1989 के. बाद से लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी पार्टी को 2014 तक पूर्ण बहुमत नहीं मिला।

→ गठबन्धन की राजनीति:
1989 के बाद लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस प्रकार केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति प्रारम्भ हुई। इसके साथ ही नब्बे का दशक ताकतवर पार्टियों और आन्दोलनों के उभार का साक्षी रहा। इन पार्टियों और आन्दोलनों ने दलित तथा पिछड़ा वर्ग (अन्य पिछड़ा वर्ग या ओ.बी.सी.) की नुमाइंदगी की। इन दलों में से अनेक ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं की दमदार दावेदारी की। 1996 में बनी संयुक्त मोर्चा सरकार में इन पार्टियों ने अहम भूमिका निभाई।

→ भाजपा का उभार:
1991 तथा 1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का निमन्त्रण मिला लेकिन अधिकांश दल भाजपा की नीतियों एवं कार्यक्रमों के खिलाफ थे । इस तरह भाजपा लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर पायी। आखिरकार भाजपा एक गठबन्धन (राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आई और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रही। फिर 1999 में इस गठबन्धन ने दोबारा सत्ता हासिल की। 1999 की वाजपेयी सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया। अन्य पिछड़ा वर्ग का राजनीतिक उदय – ‘ अन्य पिछड़ा वर्ग’ में शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय की गणना की जाती है।

→ मंडल का लागू होना:
1980 के दशक में अन्य पिछड़ा वर्गों के बीच लोकप्रिय ऐसे ही राजनीतिक समूहों को जनता दल ने एकजुट किया। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति को सुगठित रूप देने में मदद मिली।

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→ राजनीतिक परिणाम:
1980 के दशक में दलित जातियों के राजनीतिक संगठनों का भी उभार हुआ। 1978 में बामसेफ (बेकवर्ड एवं माइनॉरिटी क्लासेज एम्पलाइज फाउंडेशन) का गठन हुआ। इस संगठन ने बहुजन यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक सत्ता की जबरदस्त तरफदारी की। कांशीराम के नेतृत्व वाली बसपा ने अपने संगठन की बुनियाद व्यवहार में बामसेफ की नीतियों पर केन्द्रित की। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतन्त्र – इस दौर में आया एक दूरगामी बदलाव धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति का उदय है।

इसने धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र के बारे में बहसों को सरगर्म किया। शुरू-शुरू में भाजपा ने जनसंघ की अपेक्षा कहीं ज्यादा बड़ा राजनीतिक मंच अपनाया इसने गाँधीवादी समाजवाद को अपनी विचारधारा के रूप में स्वीकार किया। लेकिन भाजपा को 1980 और 1984 के चुनावों में खास सफलता नहीं मिली। 1986 के बाद इस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिन्दू राष्ट्रवाद के तत्त्वों पर जोर देना शुरू किया। भाजपा ने हिन्दुत्व की राजनीति का रास्ता चुना और हिन्दुओं को लामबन्द करने की नीति अपनाई।

→ अयोध्या विवाद का निर्णय:
फैजाबाद जिला न्यायालय द्वारा फरवरी, 1986 में अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया गया। इस अदालत ने यह फैसला दिया कि रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खोला जाना चाहिए ताकि हिन्दू यहाँ पूजा-पाठ कर सकें क्योंकि वे इस जगह को पवित्र मानते हैं। विध्वंस और उसके बाद- राम मंदिर निर्माण का समर्थन करने वाले संगठनों ने दिसम्बर, 1992 में कारसेवा का आयोजन किया। इसके अन्तर्गत रामभक्तों का आह्वान किया गया कि वे राम मन्दिर के निर्माण में श्रमदान करें। लाखों श्रद्धालु अयोध्या की ओर चल पड़े। पूरे देश में माहौल तनावपूर्ण हो गया।

अयोध्या में तनाव अपने चरम पर था। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह विवादित स्थल की सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। लेकिन 6 दिसम्बर, 1992 को देश के विभिन्न भागों से लोग आ जुटे और इन लोगों ने विवादित ढाँचे को गिरा दिया। विवादित ढाँचे के विध्वंस की खबर से देश के कई भागों में हिन्दू और मुसलमानों के बीच झड़प हुई। जनवरी, 1993 में एक बार फिर मुम्बई में हिंसा भड़की और अगले दो हफ्तों तक जारी रही।

→ गुजरात के दंगे:
2002 के फरवरी मार्च में गुजरात में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंसा का यह तांडव लगभग एक महीने तक चला। 2004 के लोकसभा चुनाव-2004 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने भी गठबन्धन बनाकर चुनावों में भाग लिया राजग की हार हुई और संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबन्धन का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी ने किया। संप्रग को वाम मोर्चा तथा कुछ अन्य दलों का समर्थन मिला। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस पार्टी का पुनरुत्थान भी हुआ। बढ़ती सहमति – संप्रग सरकार में आपसी सहमति के प्रमुख बिन्दु निम्न हैं।

  • नई आर्थिक नीति की सहमति
  • पिछड़ी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक दावे की स्वीकृति।
  • देश के शासन में प्रांतीय दलों की भूमिका की स्वीकृति।
  • विचारधारात्मक पक्ष की जगह कार्यसिद्धि पर जोर और विचारधारा सहमति के बिना राजनीतिक गठजोड़ 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस गठबन्धन को बहुमत मिला

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

Jharkhand Board Class 12 Political Science जन आंदोलनों का उदय InText Questions and Answers

पृष्ठ 129

प्रश्न 1.
है तो यह बड़ी शानदार बात! लेकिन कोई मुझे बताए कि हम जो यहाँ राजनीति का इतिहास पढ़ रहे हैं, उससे यह बात कैसे जुड़ती है?
उत्तर:
सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों में जन आंदोलनों की शानदार उपलब्धि रही है । चिपको आंदोलन के अन्तर्गत उत्तराखण्ड के एक गाँव के स्त्री एवं पुरुषों ने पर्यावरण की सुरक्षा और जंगलों की कटाई का विरोध करने के लिए एक अनूठा प्रयास किया, जिसमें इन लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँहों में भर लिया ताकि उनको काटने से बचाया जा सके। इस आन्दोलन को व्यापक सफलता प्राप्त हुई। जन-आंदोलन, कभी राजनीतिक तो कभी सामाजिक आंदोलन का रूप ले सकते हैं और अक्सर यह दोनों ही रूपों में नजर आते हैं। स्वतन्त्रता के तीन दशक बाद लोगों का धैर्य टूटा और जनता की बेचैनी जन-आन्दोलनों में उमड़ी। यहाँ हम राजनीति का इतिहास पढ़ रहे हैं परन्तु वह कुशल राजनीति की असफलता के उमड़े जन-आन्दोलन के उभार की अभिव्यक्ति है।

पृष्ठ 130

प्रश्न 2.
गैर-राजनीतिक संगठन ? मैं यह बात कुछ समझा नहीं! आखिर, पार्टी के बिना राजनीति कैसे की जा सकती है?
उत्तर:
सामान्यतः गैर-राजनीतिक संगठन ऐसे संगठन हैं जो दलगत राजनीति से दूर स्थानीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों से जुड़े हुए होते हैं तथा सक्रिय राजनीति में भाग लेने की अपेक्षा एक दबाव समूह की तरह कार्य करते हैं। औपनिवेशिक दौर में अनेक स्वतंत्र सामाजिक आंदोलनों का जन्म हुआ, जैसे— जाति प्रथा विरोधी आंदोलन, किसान सभा आंदोलन और मजदूर संगठनों के आंदोलन। मुंबई, कोलकाता और कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों में मजदूर संगठनों के आंदोलनों का मुख्य जोर आर्थिक अन्याय और असमानता के मसले पर रहा। ये सभी गैर-राजनैतिक संगठन थे और इन्होंने अपनी माँगें मनवाने के लिए आंदोलनों का सहारा लिया। इन गैर-राजनैतिक संगठनों का राजनीतिक दलों से नजदीकी सम्बन्ध रहा।

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पृष्ठ 132

प्रश्न 3.
क्या दलितों की स्थिति इसके बाद से ज्यादा बदल गई है? दलितों पर अत्याचार की घटनाओं के बारे में मैं रोजाना सुनती हूँ। क्या यह आंदोलन असफल रहा? या, यह पूरे समाज की असफलता है?
उत्तर:
दलितों की स्थिति में सुधार हेतु 1972 में शिक्षित दलित युवा वर्ग ने महाराष्ट्र में एक आन्दोलन चलाया, जिसे दलित पैंथर्स आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने हेतु अनेक प्रयास किये गये। इस आन्दोलन का उद्देश्य जाति प्रथा को समाप्त करना तथा गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन तैयार करना था। लेकिन इस आन्दोलन को अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पायी।

छुआछूत प्रथा को कानूनन समाप्त किये जाने के बावजूद भी अछूत जातियों के साथ नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बरताव कई रूपों में जारी रहा। दलितों की बस्तियाँ मुख्य गाँव से अब भी दूर हैं, दलित महिलाओं के साथ यौन-अत्याचार होते हैं। जातिगत प्रतिष्ठा की छोटी-मोटी बात को लेकर दलितों पर सामूहिक जुल्म ढाये जाते हैं। इस सबके बावजूद यह आन्दोलन पूरी तरह से असफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि धीरे-धीरे दलितों को उनके हक मिलने लगे हैं।

पृष्ठ 135

प्रश्न 4.
मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जो कहे कि मैं किसान बनना चाहता हूँ। क्या हमें अपने देश में किसानों की जरूरत नहीं है?
उत्तर:
यद्यपि भारत एक कृषि प्रधान देश है और भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा कृषि पर आधारित है, लेकिन संसाधनों के अभाव व वर्षा आधारित कृषि होने के कारण किसानों को इस कार्य में पर्याप्त लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसके अतिरिक्तं जनाधिक्य व कृषिगत क्षेत्र की सीमितता के कारण इस क्षेत्र में छिपी हुई बेरोजगारी जैसी समस्या आम बात हो गई है। इसलिए आम नागरिक को इस क्षेत्र में उज्ज्वल भविष्य नजर नहीं आ रहा है। इसलिए लोग कृषिगत कार्यों की अपेक्षा अन्य कार्यों में अधिक रुचि लेने लगे हैं। लेकिन हमें अपने देश में किसानों की अत्यन्त आवश्यकता है। यदि किसान खेती का काम करना बन्द कर देंगे, तो अन्न कहाँ से आयेगा? कृषि – आधारित उद्योग नष्ट हो जायेंगे और देश की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जायेगी अतः देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कृषक वर्ग की अत्यन्त आवश्यकता है। हाँ, कृषि सम्बन्धी समस्याओं को हल करने के लिए सरकार को प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 5.
हमें इस तरह की अच्छी-अच्छी कहानियाँ तो सुनाई जाती हैं लेकिन हमें कभी यह नहीं बताया जाता कि इन कहानियों का अंत कैसा रहा। क्या यह आंदोलन शराबबंदी में सफल हो पाया? या पुरुषों ने एक समय के बाद फिर पीना शुरू कर दिया?
उत्तर:
इन कहानियों का अंत तो बहुत ही रोचक होता है। लेकिन हकीकत में इन कहानियों का अंत इतना रोचक नहीं होता। ऐसे आंदोलनों का असर पर कुछ समय के लिए ही होता है बाद में फिर पुरुष शराब पीना शुरू कर देते हैं

पृष्ठ 142

प्रश्न 6.
क्या आंदोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जा सकता है? आंदोलनों के दौरान नए प्रयोग किए जाते हैं और सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।
उत्तर:
जन-आन्दोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जन-आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की खामियों को दूर करना रहता है। समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को सार्थक दिशा देकर इन आन्दोलनों ने एक तरह से लोकतन्त्र की रक्षा की है। जन-आन्दोलनों में शरीक अनेक व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों में सक्रिय रूप से जुड़े। ऐसे जुड़ाव से दलगत राजनीति में विभिन्न सामाजिक तबकों की बेहतर नुमाइंदगी सुनिश्चित हुई। इस प्रकार जन-आन्दोलनों के दौरान किये जाने वाले सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।

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प्रश्न 1.
चिपको आंदोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन-सा कथन गलत हैं-
(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आंदोलन था।
(ख) इस आंदोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।
(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आंदोलन था।
(घ) इस आंदोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होना चाहिए । उत्तर- (ग) गलत।

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प्रश्न 2.
नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरूरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखें-
(क) सामाजिक आंदोलन भारत के लोकतंत्र को हानि पहुँचा रहे हैं।
(ख) सामाजिक आंदोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।
(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ।
उत्तर:
(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ख) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।
(ग) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।

प्रश्न 3.
उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में ( अब उत्तराखण्ड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आन्दोलन का जन्म हुआ? इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
चिपको आंदोलन के कारण-चिपको आंदोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

  1. चिपको आन्दोलन की शुरुआत उस समय हुई जब वन विभाग ने खेती-बाड़ी के लिए औजार बनाने के लिए गाँव वालों को ‘Ashtree’ काटने की अनुमति नहीं दी तथा खेल सामग्री बनाने वाली एक व्यावसायिक कम्पनी को यह पेड़ काटने की अनुमति प्रदान कर दी। इससे गाँव वालों में रोष उत्पन्न हुआ तथा कटाई के विरोध में यह आन्दोलन उठ खड़ा हुआ।
  2. गाँव वालों ने माँग रखी कि वन की कटाई का ठेका किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक साधनों पर उपयुक्त नियंत्रण होना चाहिए।
  3. चिपको आंदोलन का एक अन्य कारण पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना था। गांव वासी चाहते थे कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन को हानि पहुँचाये बिना विकास किया जाये।
  4. इस क्षेत्र में वनों की कटाई के दौरान ठेकेदार यहाँ के पुरुषों को शराब आपूर्ति का व्यवसाय भी करते थे अतः स्त्रियों ने शराबखोरी की लत के विरोध में भी आवाज बुलन्द की।

प्रभाव – इस आन्दोलन के निम्न प्रमुख प्रभाव हुए-

  1. सरकार ने 15 वर्ष के लिए हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी।
  2. इस आन्दोलन ने अन्य आन्दोलनों को प्रभावित तथा प्रेरित किया।
  3. इस आन्दोलन के प्रभावस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक जागरूकता के आन्दोलन चलाए गए।

प्रश्न 4.
भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?
उत्तर:
1990 के दशक में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने भारतीय किसानों की दुर्दशा सुधारने हेतु अनेक मुद्दों पर बल दिया, जिनमें प्रमुख निम्न हैं-

  1. इसने बिजली की दरों में बढ़ोतरी का विरोध किया तथा उचित दर पर गारण्टीशुदा बिजली आपूर्ति करने पर बल दिया।
  2. इसने नगदी फसलों के सरकारी खरीद मूल्यों में बढ़ोतरी की माँग की।
  3. इसने कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियों को हटाने पर बल दिया।
  4. किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की माँग की।
  5. किसानों के बकाया कर्ज को माफ किया जाये।

सफलताएँ – भारतीय किसान यूनियन को निम्न सफलताएँ प्राप्त हुईं-

  1. बीकेयू (BKU) जैसी माँगें देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठायीं I
  2. 1990 के दशक में बीकेयू ने अपनी संख्या बल के आधार पर एक दबाव समूह की तरह कार्य किया तथा अन्य किसान संगठनों के साथ मिलकर अपनी मांगें मनवाने में सफलता पाई।

प्रश्न 5.
आन्ध्रप्रदेश में चले शराब-विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान कुछ गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?
उत्तर:
आन्ध्रप्रदेश में चले शराब-विरोधी या ताड़ी विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान निम्नलिखित गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा-

  1. शराब पीने से पुरुषों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कमजोर होता है।
  2. शराब पीने से व्यक्ति की कार्यक्षमता प्रभावित होती है जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
  3. शराबखोरी से ग्रामीणों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है।
  4. शराबखोरी से कामचोरी की आदत बढ़ती है।
  5. शराब माफिया के सक्रिय होने से गांवों में अपराधों को बढ़ावा मिलता है तथा अपराध और राजनीति के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध बनता है।
  6. शराबखोरी से परिवार की महिलाओं से मारपीट एवं तनाव को बढ़ावा मिलता है।
  7. शराब विरोधी आंदोलन ने महिलाओं के मुद्दों दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़क, लैंगिक असमानता आदि  के प्रति समाज में जागरूकता उत्पन्न की।

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प्रश्न 6.
क्या आप शराब-विरोधी आंदोलन को महिला आंदोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।
उत्तर:
शराब-विरोधी आंदोलन को महिला आंदोलन का दर्जा दिया जा सकता है। क्योंकि शराब – 1 ब- विरोधी आंदोलन में महिलाओं ने अपने आस-पड़ौस में मदिरा या ताड़ी की बिक्री पर पाबन्दी लगाने की माँग की। यह महिलाओं का स्वतः स्फूर्त आन्दोलन था। यह आन्दोलन महिलाओं ने शराब माफिया तथा सरकार दोनों के खिलाफ चलाया। शराबखोरी से सर्वाधिक परेशानी महिलाओं को होती है। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है, परिवार में तनाव व मारपीट का वातावरण बनता है। तनाव के चलते पुरुष शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाते इन्हीं कारणों से शराब विरोधी आंदोलनों का प्रारंभ प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता रहा है। अत: शराब-विरोधी ‘नों को महिला आंदोलन भी कहा जा सकता है।

प्रश्न 7.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध क्यों किया?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध निम्नलिखित कारणों से किया

  1. बाँध निर्माण से प्राकृतिक नदियों व पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।
  2. जिस क्षेत्र में बाँध बनाये जाते हैं वहाँ रह रहे गरीबों के घर-बार, उनकी खेती योग्य भूमि, वर्षों से चले आ रहे कुटीर -धन्धों पर भी बुरा असर पड़ता है।
  3. प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मामला उठाया जा रहा था।
  4. परियोजना पर किये जाने वाले व्यय में हेरा-फेरी के दोषों को उजागर करना भी परियोजना विरोधी स्वयंसेवकों का उद्देश्य था।
  5. आन्दोलनकर्ता प्रभावित लोगों को आजीविका और उनकी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को बचाना चाहते थे। वे जल, जंगल और जमीन पर प्रभावित लोगों का नियन्त्रण या इन्हें उचित मुआवजा और उनका पुनर्वास चाहते थे।

प्रश्न 8.
क्या आंदोलन और विरोध की कार्यवाहियों से देश का लोकतन्त्र मजबूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
शांतिपूर्ण आन्दोलनों एवं विरोध की कार्यवाहियों से लोकतन्त्र मजबूत होता है। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

  1. चिपको आंदोलन अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीके से चलाया गया। यह एक व्यापक जन आंदोलन था। इससे पेड़ों की कटाई, वनों का उजड़ना रुका। पशु-पक्षियों और जनता को जल, जंगल, जमीन और स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण मिला। सरकार लोकतान्त्रिक मांगों के समक्ष झुकी।
  2. वामपंथियों द्वारा चलाये गये किसान और मजदूर आंदोलनों द्वारा जन-साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी और सरकार को सर्वहारा वर्ग की उचित माँगों के लिए जगाने में सफलता मिली।
  3. दलित पैंथर्स नेताओं द्वारा चलाए गए आंदोलनों ने आदिवासी, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में चेतना पैदा की। समाज में समानता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनैतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।
  4. ताड़ी – विरोधी आंदोलन ने नशाबंदी और मद्य-निषेध के विरोध का वातावरण तैयार किया। महिलाओं से जुड़ी अनेक समस्याएँ, जैसे यौन उत्पीड़न, घरेलू समस्या, दहेज प्रथा और महिलाओं को विधायिका में दिये जाने वाले आरक्षण के मामले उठे। महिलाओं में राजनैतिक चेतना बढ़ी।

प्रश्न 9.
दलित- पैंथर्स ने कौन-कौन-से मुद्दे उठाये?
उत्तर:
दलित पैंथर्स – दलित पैंथर्स बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों में दलित शिक्षित युवा वर्ग का आन्दोलन था। इसमें ज्यादातर शहर की झुग्गी बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित पैंथर्स ने दलित समुदाय से सम्बन्धित सामाजिक असमानता, जातिगत आधार पर भेदभाव, दलित महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, दलितों का सामाजिक एवं आर्थिक उत्पीड़न तथा दलितों के लिए आरक्षण जैसे मुद्दे उठाये।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें-
लगभग सभी नए सामाजिक आंदोलन नयी समस्याओं जैसे – पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपने आप में समाजव्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आंदोलन अतीत की क्रांतिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आंदोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है सामाजिक आंदोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीजों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आंदोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो पाता है।

ये आंदोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। ‘इस’ या ‘उस’ के विरोध ( पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद – विरोधी, ‘विकास’- विरोधी, आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों- ऐसी बात नहीं। – रजनी कोठारी

(क) नए सामाजिक आंदोलन और क्रांतिकारी विचारधाराओं में क्या अंतर है?
(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आंदोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?
(ग) यदि सामाजिक आंदोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें ‘बिखरा’ हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज्यादा केंद्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।
उत्तर:
(क) सामाजिक आन्दोलन समाज से जुड़े हुए मामलों अथवा समस्याओं को उठाते हैं; जैसे जाति भेदभाव, रंग भेदभाव, लिंग भेदभाव के विरोध में चलाये जाने वाले सामाजिक आन्दोलन। इसी प्रकार ताड़ी- विरोधी आन्दोलन, सभी को शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता के लिए चलाये जाने वाले आन्दोलन आदि जबकि क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग तुरन्त सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बदलाव लाना चाहते हैं। वे’ लक्ष्यों को ज्यादा महत्त्व देते हैं, तरीकों को नहीं।

(ख) सामाजिक आन्दोलन बिखरे हुए हैं तथा इनमें एकजुटता का अभाव पाया जाता है। सामाजिक आन्दोलनों के पास सामाजिक बदलाव के लिए कोई ढांचागत योजना नहीं है।

(ग) सामाजिक आन्दोलनों द्वारा उठाए गए विशिष्ट मुद्दों के कारण यह कहा जा सकता है कि ये आन्दोलन अपने मुद्दों पर अधिक केन्द्रित हैं।

जन आंदोलनों का उदय JAC Class 12 Political Science Notes

→ सामान्यतः
वे आन्दोलन जो दलगत राजनीति से दूर तथा जन सामान्य के हित में चलाये जाते हैं उन्हें जन- आन्दोलन कहा जाता है। भारतीय राजनीति में इस प्रकार के आन्दोलनों की विशेष भूमिका रही है।

→ चिपको आन्दोलन:
इस आन्दोलन की शुरुआत उत्तराखण्ड के दो-तीन गाँवों से हुई। 1973 में उत्तराखण्ड सरकार ने स्थानीय लोगों को कृषिगत औजार बनाने के लिए वन की कटाई करने से इनकार कर दिया, लेकिन एक खेल कम्पनी को पेड़ों की कटाई की अनुमति प्रदान कर दी। इससे स्थानीय लोगों में रोष की भावना उत्पन्न हुई और उन्होंने वनों की कटाई रोकने के लिए विशेष अभियान चलाया। इन लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँहों में भर लिया ताकि इनको काटने से बचाया जा सके। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरण आन्दोलन के रूप में परिणत हुआ और ‘चिपको आन्दोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

→ आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण पक्ष:
(i) ग्रामवासियों ने माँग की कि जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्तियों को नहीं दिया जाना चाहिए और स्थानीय लोगों का जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियन्त्रण होना चाहिए।
(ii) लोग चाहते थे कि सरकार लघु उद्योगों के लिए कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए और उस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन को नुकसान पहुँचाए बगैर यहाँ का विकास सुनिश्चित करे। आंदोलन ने भूमिहीन वन कर्मचारियों का आर्थिक मुद्दा भी उठाया और न्यूनतम मजदूरी की गारण्टी की माँग की।

→ आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका:
चिपको आन्दोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। यह आन्दोलन का एकदम नया पहलू था। इलाके में सक्रिय जंगल कटाई के ठेकेदार यहाँ के पुरुषों को शराब की आपूर्ति का व्यवसाय भी करते थे। महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी लगातार आवाज उठायी। इससे आन्दोलन का दायरा विस्तृत हुआ और उसमें कुछ और सामाजिक मसले आ जुड़े।

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→ दल – आधारित आन्दोलन:
जन-आन्दोलन कभी-कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं और अक्सर ये आन्दोलन दोनों ही रूपों में नजर आते हैं, जैसे- भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन। यह मुख्य रूप से राजनीतिक आंदोलन था, लेकिन हम जानते हैं कि औपनिवेशिक दौर में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मंथन चला, जिससे अनेक स्वतन्त्र सामाजिक आन्दोलनों का जन्म हुआ, जैसे- जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन, नारी कल्याण आन्दोलन, नारी मुक्ति आन्दोलन, धर्म सुधार आन्दोलन, शिक्षा प्रसार आन्दोलन कहे जा सकते हैं। अनेक आन्दोलन 19वीं और 20वीं शताब्दी में सर्वहारा वर्गों के हितों के लिए चलाए गए। जैसे किसान सभा आन्दोलन और मजदूर संगठन आन्दोलन।

ये आन्दोलन 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में सामने आये। इन आन्दोलनों ने सामाजिक संघर्षों के कुछ अंदरूनी मुद्दे उठाये। ऐसे कुछ आन्दोलन आजादी के बाद के दौर में चलते रहे। मुंबई, कोलकाता और कानपुर जैसे बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आन्दोलनों का जोर था। बड़ी पार्टियों ने इस तबके के मजदूरों को लामबंद करने के लिए अपने-अपने मजदूर संगठन बनाए। भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रारम्भिक वर्षों में आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में किसान तथा कृषि मजदूरों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में अपना विरोध जारी रखा। भारत के कुछ दल सीधी कार्यवाही अथवा हिंसा में यकीन करने वाले थे जिनमें मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल प्रमुख हैं। इस काल में किसान और मजदूरों के आंदोलनों का मुख्य जोर आर्थिक पिछड़ापन, अन्याय तथा असमानता के मसले पर रहा।

→ राजनीतिक दलों से स्वतंत्र आंदोलन:
70 और 80 के दशक में कई सामाजिक तबकों का राजनीतिक दलों के. आचार-व्यवहार से मोहभंग हुआ। देश ने आजादी के बाद नियोजित विकास का मॉडल अपनाया था। इस मॉडल को अपनाने के पीछे दो लक्ष्य थे- आर्थिक संवृद्धि और आय का समतापूर्ण बँटवारा। राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्वास लोकतांत्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया । ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध को स्वर देने के लिए इन्होंने आवाम को लामबंद करना शुरू किया। मध्यवर्ग के युवा कार्यकर्ताओं ने गाँव के गरीब लोगों के बीच रचनात्मक कार्यक्रम तथा सेवा संगठन चलाए। इन संगठनों के सामाजिक कार्यों की प्रकृति स्वयंसेवी थी इसलिए इन संगठनों को स्वयंसेवी संगठन या स्वयंसेवी क्षेत्र के संगठन कहा गया। इन संगठनों ने स्वयं को दलगत राजनीति से दूर रखा । स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये संगठन न तो चुनाव लड़े और न ही इन्होंने किसी एक राजनीतिक दल को समर्थन दिया । इसी कारण इन संगठनों को ‘स्वतंत्र राजनीतिक संगठन’ कहा जाता है।

→ दलित पैंथर्स आन्दोलन: सातवें दशक के शुरुआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें ज्यादातर शहर की झुग्गी बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की | दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में 1972
में दलित युवाओं का संगठन ‘दलित पैन्थर्स’ बना। इस संगठन में पढ़े-लिखे दलित युवकों को सम्मिलित किया गया।

→ आंदोलन की गतिविधियाँ: महाराष्ट्र के विभिन्न इलाकों में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की मुख्य गतिविधि थी। दलित पैंथर्स तथा इसके सहधर्मी संगठनों द्वारा दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार के मुद्दे पर लगातार विरोध आंदोलन चलाया गया। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने 1989 में एक व्यापक कानून बनाया। इस कानून के तहत दलितों पर अत्याचार करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया। दलित पैंथर्स का विचारधारात्मक एजेंडा जाति प्रथा को समाप्त करना तथा गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन खड़ा करना था।

→ भारतीय किसान यूनियन: भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों का एक संगठन था। यह अस्सी के दशक के किसान आंदोलन के अग्रणी संगठनों में एक था। बीकेयू की विशेषताएँ – बीकेयू की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-

  • इसने सरकार पर अपनी माँगों को मनवाने के लिए रैली, धरना, प्रदर्शन और जेल भरो आन्दोलन का सहारा लिया। इन कार्यवाहियों में पश्चिमी उत्तरप्रदेश और उसके आस-पास के इलाकों के गांवों के हजारों किसानों ने भाग लिया।
  • बीकेयू के अधिकांश सदस्य एक खास समुदाय के थे। इस संगठन ने जातिगत समुदायों को आर्थिक मसले पर एकजुट करने के लिए ‘जाति-पंचायत’ की परम्परागत संस्था का उपयोग किया।
  • बीकेयूं के लिए धनराशि और संसाधन जातिगत संगठनों से जुटाये जाते थे और इन्हीं के सहारे बीकेयू की गतिविधियाँ भी संचालित होती थीं।
  • 1990 के शुरुआती वर्षों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर यह राजनीतिक दलों में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में किसान आंदोलन अस्सी के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक आंदोलन था।
  • किसान आंदोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बीकेयू जैसे संगठनों के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उपजाते। थे।
  • बीकेयू की तरह राज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य उन समुदायों के बीच से बनाए जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति से रसूख था। महाराष्ट्र शेतकारी संगठन और कर्नाटक का रैयत संगठन ऐसे किसान संगठनों के जीवंत उदाहरण हैं।

→ ताड़ी-विरोधी आन्दोलन:
ताड़ी – विरोधी आन्दोलन की शुरुआत आंध्रप्रदेश के नेल्लौर जिले से मानी जाती है । इस आन्दोलन के अन्तर्गत ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ी तथा शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाने की माँग की। यह लड़ाई माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। ताड़ी – विरोधी आंदोलन के कारण दो परस्पर विरोधी गुट दृष्टिगोचर हुए। एक शराब माफिया और दूसरी ओर ताड़ी के कारण पीड़ित परिवार। शराब के ठेकेदार ताड़ी व्यापार पर एकाधिकार बनाये रखने के लिए अपराधों में व्यस्त थे। शराबखोरी से सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को हो रही थी। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। परिवार में तनाव और मारपीट का माहौल बनने लगा।

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→ नारी मुक्ति एवं ताड़ी:
विरोधी आंदोलन – ताड़ी – विरोधी आंदोलन महिला आंदोलन का एक हिस्सा बन गया । इससे घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, कार्यस्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ काम करने वाले महिला समूह आमतौर पर शहरी मध्यवर्गीय महिलाओं के बीच ही सक्रिय थे और यह बात पूरे देश पर लागू होती थी। महिला समूहों के इस सतत कार्य से यह समझदारी विकसित होनी शुरू हुई कि औरतों पर होने वाले अत्याचार और लैंगिक भेदभाव का मामला खास जटिल है। इस तरह के अभियानों ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में व्यापक जागरूकता उत्पन्न की। धीरे-धीरे महिला आंदोलन कानूनी सुधारों से हटकर सामाजिक टकराव के मुद्दों पर भी खुले तौर पर बात करने लगा। नवें दशक तक आते-आते महिला आंदोलन समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करने लगे तथा इसी के परिणामस्वरूप संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अन्तर्गत महिलाओं को स्थानीय निकायों में आरक्षण प्रदान किया गया। इस व्यवस्था को राज्यों की विधानसभाओं तथा संसद में भी लागू करने की मांग की जा रही है।

→ नर्मदा बचाओ आन्दोलन:
आठवें दशक के प्रारम्भ में भारत के मध्य भाग में स्थित नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के तहत मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मझोले तथा 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्ताव रखा गया। गुजरात के सरदार सरोवर और मध्य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे बड़ी बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन चला। इस आंदोलन के संचालनकर्ताओं की मुख्य माँग नर्मदा नदी पर बने इन छोटे एवं मझोले बांधों के निर्माण को रोकना है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन इन बाँधों के निर्माण के साथ-साथ देश में चल रही विकास परियोजनाओं के औचित्य पर भी सवाल उठाता रहा है। सरदार सरोवर बाँध के निर्माण से सम्बन्धित राज्यों के 245 गाँव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे। अतः प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सबसे पहले स्थानीय कार्यकर्त्ताओं ने उठाया।

→ जन आन्दोलन के सबक:
जन आंदोलनों का राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था पर विशेष प्रभाव होता है और इन आंदोलनों से राजनीतिक व्यवस्था के संचालनकर्ताओं को नई सीख मिलती है। जन आंदोलनों के सबक निम्न हैं

  • जन आंदोलनों का इतिहास लोकतान्त्रिक राजनीति को बेहतर ढंग से समझने में मदद प्रदान करता है।
  • समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को एक सार्थक दिशा देकर इन आंदोलनों ने लोकतन्त्र की रक्षा की है तथा भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।
  • सामाजिक आंदोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी दिक्कतों को चुनावी राजनीति के जरिए हल नहीं कर पा रहे थे।
  • इन आंदोलनों के आलोचकों ने यह दलील दी है कि हड़ताल, धरना और रैली जैसी सामूहिक कार्यवाहियों से सरकार के कामकाज पर बुरा असर पड़ता है। इनके अनुसार इस तरह की गतिविधियों से सरकार की निर्णय प्रक्रिया बाधित होती है तथा रोजमर्रा की लोकतान्त्रिक व्यवस्था बाधित होती है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

Jharkhand Board Class 12 Political Science क्षेत्रीय आकांक्षाएँ InText Questions and Answers

पृष्ठ 149

प्रश्न 1.
क्या इसका मतलब यह हुआ कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है? क्या हम यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद अपने आप में खतरनाक नहीं?
उत्तर:
सामान्यतः लोकतान्त्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्र विरोधी नहीं माना जाता। इसके साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी खास क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी करें। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय राजनीति का एक अर्थ यह भी है कि क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाए और उन्हें इसमें भागीदारी भी दी जाए। दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता धार्मिक या भाषायी समुदाय पर आधारित एक संकीर्ण मनोवृत्ति है जो धार्मिक या भाषायी अधिकारों तथा हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखती है इसलिए यह समाज विरोधी तथा राष्ट्रविरोधी मनोवृत्ति है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है।

पृष्ठ 150

प्रश्न 2.
खतरे की बात हमेशा सीमांत के राज्यों के संदर्भ में ही क्यों उठाई जाती है? क्या इस सबके पीछे विदेशी हाथ ही होता है?
उत्तर:
प्रायः यह देखा गया है कि सीमांत प्रदेशों में ही क्षेत्रवाद एवं अलगाववाद की समस्या अधिक पायी जाती है। इसका मुख्य कारण वहाँ की जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं के साथ-साथ विदेशी ताकतों का हाथ होना माना जा सकता है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएँ इसका उदाहरण माना जा सकता है। कश्मीरियों द्वारा अलग से स्वतन्त्र राष्ट्र की और पंजाब द्वारा खालिस्तान की माँग के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ रहा है।

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पृष्ठ 158

प्रश्न 3.
पर यह सारी बात तो सरकार, अधिकारियों, नेताओं और आतंकवादियों के बारे में है। कश्मीरी जनता के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता? लोकतन्त्र में तो जनता की इच्छा को महत्त्व दिया जाना चाहिए। क्यों मैं ठीक कह रही हूँ न?
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों का एक तबका कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बनाना चाहता है; दूसरा कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहता है तथा तीसरा तबका कश्मीर को भारत संघ का ही हिस्सा रहने देना चाहता है, लेकिन अधिक स्वायत्तता चाहता है। जम्मू और लद्दाख के लोग उपेक्षित बरताव तथा पिछड़ेपन से छुटकारा हेतु तबका, अधिक स्वायत्तता चाहते हैं। इस वजह से पूरे राज्य की स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है उतनी ही प्रबल माँग इस राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है।

जम्मू-कश्मीर पर प्रायः अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं विभिन्न राजनीतिज्ञों की प्रशासनिक नीतियों का प्रभाव रहा है लेकिन वहाँ जनमत की इच्छा का सम्मान करते हुए जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छानुसार प्रशासनिक निर्णय लिया जाना चाहिए अर्थात् जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में जनमत संग्रह की नीति का पालन किया जाना चाहिए। जिससे इस क्षेत्र की समस्त समस्याओं का स्थायी समाधान हो सके।

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प्रश्न 1.
निम्नलिखित में मेल करें:

(क) सामाजिक-धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य का निर्माण (i) नगालैंड/मिजोरम
(ख) भाषायी पहचान और केंद्र के साथ तनाव (ii) झारखंड / छत्तीसगढ़
(ग) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण (iii) पंजाब
(घ) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी माँग (iv) तमिलनाडु

उत्तर:

(क) सामाजिक-धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य का निर्माण (iii) पंजाब
(ख) भाषायी पहचान और केंद्र के साथ तनाव (iv) तमिलनाडु
(ग) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण (i) झारखंड / छत्तीसगढ़
(घ) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी माँग (ii) नगालैंड/मिजोरम

प्रश्न 2.
पूर्वोत्तर के लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है। बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन, ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आंदोलन और अलग देश बनाने की माँग करना ऐसी ही कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। पूर्वोत्तर के मानचित्र पर इन तीनों के लिये अलग-अलग रंग भरिये और दिखाइये कि किस राज्य में कौन-सी प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल है?
उत्तर:

  1. बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन – असम
  2. ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन – मेघालय
  3. अलग देश बनाने की माँग – मिजोरम

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ 1

(अलग देश बनाने की माँग नगालैण्ड व मिजोरम ने की थी। कुछ समय पश्चात् मिजोरम स्वायत्त राज्य बनने के लिए तैयार हो गया। मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर को राज्य का दर्जा दे दिया गया है।) अतः मिजोरम की माँग का समाधान हो गया है, लेकिन नगालैण्ड में अलगाववाद की समस्या का पूर्ण हल अभी तक नहीं हो पाया है।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 3.
पंजाब समझौते के मुख्य प्रावधान क्या थे? क्या ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ौसी राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने के कारण बन सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
पंजाब समझौता: जुलाई, 1985 में अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच एक समझौता हुआ जिसे पंजाब – समझौता कहा जाता है। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-

  1. मारे गये निरपराध व्यक्तियों के लिए मुआवजा: एक सितम्बर, 1982 के बाद हुई किसी कार्यवाही या आन्दोलन में मारे गए लोगों को अनुग्रह राशि के भुगतान के साथ सम्पत्ति की क्षति के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
  2. सेना में भर्ती; देश के सभी नागरिकों को सेना में भर्ती का अधिकार होगा और चयन के लिए केवल योग्यता ही आधार रहेगा।
  3. सेना से निकाले हुए व्यक्तियों का पुनर्वास: सेना से निकाले हुए व्यक्तियों और उन्हें लाभकारी रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएंगे।
  4. विशेष सुरक्षा अधिनियम को वापस लेने पर सहमति:  पंजाब में उग्रवाद प्रभावित लोगों को मुआवजा प्रदान करने तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार करने को तैयार हो गई तथा पंजाब से विशेष सुरक्षा अधिनियम को वापस लेने की बात पर भी सहमत हो गई।
  5. सीमा विवाद:  चण्डीगढ़ की राजधानी परियोजना क्षेत्र और सुखना ताला पंजाब को दिए जाएंगे । केन्द्र शासित प्रदेश के अन्य पंजाबी क्षेत्र पंजाब को तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा को दिए जाएंगे।
    ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ौसी राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने का कारण नहीं बन सकते हैं क्योंकि इसमें इन राज्यों के विवादास्पद मुद्दों को नहीं छुआ गया है।

प्रश्न 4.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने का मुख्य कारण यह था कि इस प्रस्ताव में पंजाब सूबे के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग की गई, जो कि परोक्ष रूप से एक अलग सिख राष्ट्र की माँग को बढ़ावा देती है। दूसरे यह प्रस्ताव ‘सिख वर्चस्व’ का ऐलान करता था।

प्रश्न 5.
आपकी राय में कश्मीर में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभर आने के कारण स्पष्ट कीजिए।
अथवा
जम्मू-कश्मीर की अंदरूनी विभिन्नताओं की व्याख्या कीजिए और बताइए कि इन विभिन्नताओं के कारण इस राज्य में किस तरह अनेक क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सिर उठाया है।
उत्तर:
अंदरूनी विभिन्नताएँ:
जम्मू-कश्मीर में अधिकांश रूप में अंदरूनी विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। जम्मू- कश्मीर राज्य में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र – जम्मू कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं। जम्मू पहाड़ी क्षेत्र है, इसमें हिन्दू-मुस्लिम और सिक्ख अर्थात् कई धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं। कश्मीर में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अधिक है और यहाँ पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। जबकि लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, इसमें बौद्ध, मुस्लिम की आबादी है। इतनी विभिन्नताओं के कारण यहाँ पर कई क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सिर उठाया है। यथा

  1. इसमें पहली आकांक्षा कश्मीरी पहचान की है जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है। कश्मीर के निवासी सबसे पहले अपने को कश्मीरी तथा बाद में कुछ और मानते थे
  2. राज्य में उग्रवाद और आतंकवाद को दूर करना भी यहाँ के लोगों की एक मुख्य आकांक्षा है।
  3. स्वायत्तता की बात जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है। यहाँ पूरे राज्य में स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है, उतनी ही प्रबल माँग राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है। जम्मू-कश्मीर में कई राजनीतिक दल हैं, जो जम्मू-कश्मीर के लिए स्वायत्तता की माँग करते रहते हैं। इसमें नेशनल कांफ्रेंस सबसे महत्त्वपूर्ण दल है।
  4. इसके अतिरिक्त कुछ उग्रवादी संगठन भी हैं, जो धर्म के नाम पर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं

प्रश्न 6.
कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष क्या हैं? इनमें से कौनसा पक्ष आपको समुचित जान पड़ता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
कश्मीर की स्वायत्तता का मसला- कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर मुख्य रूप से दो पक्ष सामने आते हैं- प्रथम पक्ष वह है जो धारा 370 को समाप्त करना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इस राज्य को और अधिक स्वायत्तता देना चाहता हैं। यदि इन दोनों पक्षों का उचित ढंग से अध्ययन किया जाए तो प्रथम पक्ष अधिक उचित दिखाई पड़ता है जो धारा 370 को समाप्त करने के पक्ष में है। उनका तर्क है कि इस धारा के कारण यह राज्य भारत के साथ पूरी तरह नहीं मिल पाया है। इसके साथ-साथ जम्मू-कश्मीर को अधिक स्वायत्तता देने से कई प्रकार की राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी पैदा होती हैं।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

प्रश्न 7.
असम आन्दोलन सांस्कृतिक अभिमान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था। व्याख्या कीजिए।
अथवा
ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन (आ सू) द्वारा चलाये गये आंदोलनों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर:
असम आन्दोलन – 1979 से 1985 तक असम में बाहरी लोगों के खिलाफ चला, असम आंदोलन असम के सांस्कृतिक अभियान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था क्योंकि-
1. असमी लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि असम में बांग्लादेश से आए विदेशी लोगों को पहचान कर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जायेगी। यह उन्हें असमी संस्कृति पर ख़तरा दिखाई दे रहा था। अतः 1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन ने जब यह माँग की कि 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए, तो इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन मिला।

2. असम आंदोलन के पीछे आर्थिक मसले भी जुड़े थे। असम में तेल, चाय और कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। दूसरे, भारत के अन्य राज्यों से या किसी अन्य देश से आए लोग यहाँ के रोजगार के अवसरों को हथिया रहे हैं और यहाँ की जनता उनसे वंचित हो रही है।

प्रश्न 8.
हर क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी माँग की तरफ अग्रसर नहीं होता । इस अध्याय से उदाहरण देकर इस तथ्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के कई क्षेत्रों में काफी समय से कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन चल रहे हैं, परन्तु सभी क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी आन्दोलन नहीं होते अर्थात् कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग नहीं होना चाहते बल्कि अपने लिए अलग राज्य की मांग करते हैं, जैसे—झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का आन्दोलन, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा चलाया गया आन्दोलन तथा तेलंगाना प्रजा समिति द्वारा चलाया गया आन्दोलन इत्यादि ऐसे ही आन्दोलन रहे हैं और अपने क्षेत्र के लिए एक पृथक् राज्य के गठन के बाद ये आन्दोलन समाप्त हो गये हैं ।

प्रश्न 9.
भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से ‘विविधता में एकता’ के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से विविधता में एकता के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि देश के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न प्रकार की माँगें उठीं। तमिलनाडु में जहाँ हिन्दी भाषा के विरोध और अंग्रेजी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में बनाए रखने की माँग उठी, तो असम में विदेशियों को असम से बाहर निकालने की माँग उठी, नगालैंड और मिजोरम में अलगाववाद की माँग उठी तो आंध्रप्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व अन्य राज्यों में भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने की माँग उठी।

इसी प्रकार उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड क्षेत्रों में प्रशासनिक सुविधा तथा आदिवासियों के हितों की रक्षा हेतु अलग राज्य बनाने के. आंदोलन हुए। अभी भी विभिन्न क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न प्रकार की माँगें उठ रही हैं जिनका मुख्य आधार क्षेत्रीय पिछड़ापन है । इससे स्पष्ट होता है कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय माँगों से विविधता के दर्शन होते हैं। भारत सरकार ने इन माँगों के निपटारे के लिए लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाते हुए एकता का परिचय दिया है।

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प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें:
हजारिका का एक गीत एकता की विजय पर है; पूर्वोत्तर के सात राज्यों को इस गीत में एक ही माँ की सात बेटियाँ कहा गया है. मेघालय अपने रास्ते गई अरुणाचल भी अलग हुई और मिजोरम असम के द्वार पर दूल्हे की तरह दूसरी बेटी से ब्याह रचाने को खड़ा है इस गीत का अंत असमी लोगों की एकता को बनाए रखने के संकल्प के साथ होता है और इसमें समकालीन असम में मौजूद छोटी-छोटी कौमों को भी अपने साथ एकजुट रखने की बात कही गई है। करबी और मिजिंग भाई-बहन हमारे ही प्रियजन हैं। संजीव बरुआ
(क) लेखक यहाँ किस एकता की बात कर रहा है?
(ख) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य क्यों बनाए गए?
(ग) क्या आपको लगता है कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है? क्यों?
उत्तर:
(क) लेखक यहाँ पर पूर्वोत्तर राज्यों की एकता की बात कर रहा है।

(ख) सभी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए तथा आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य बनाए गए।

(ग) भारत के सभी क्षेत्रों पर एकता की यह बात लागू हो सकती है, क्योंकि भारत के सभी राज्यों में अलग- अलग धर्मों एवं जातियों के लोग रहते हैं तथा देश की एकता एवं अखण्डता के लिए उनमें एकता कायम करना आवश्यक है। दूसरे, भारत के संविधान में क्षेत्रीय विभिन्नताओं और आकांक्षाओं के लिए पर्याप्त व्यवस्था की गई है। तीसरे, देश के नेता तथा सभी राजनीतिक दल एकता के समर्थक हैं।

क्षेत्रीय आकांक्षाएँ JAC Class 12 Political Science Notes

→ क्षेत्र और राष्ट्र:
भारत में 1980 के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में स्वायत्तता की माँगें उठीं। लोगों ने स्वायत्तता की माँगों को लेकर संवैधानिक नियमों का उल्लंघन करते हुए हथियार तक उठाये। भारत सरकार ने इन मांगों को दबाने के लिए जवाबी कार्यवाही की, जिससे अनेक बार राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया अवरुद्ध हुई।

→ भारत सरकार का नजरिया:
राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और भारत के संविधान के बारे में अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि देश में विभिन्न क्षेत्रों और भाषायी समूह को अपनी संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार होगा। भारत ने एकता की भावधारा से बँधे एक ऐसे सामाजिक जीवन के निर्माण का निर्णय लिया जिससे एक समाज को आकार देने वाली तमाम संस्कृतियों की विशिष्टता बनी रहे।

→ तनाव के दायरे:
आजादी के बाद भारत में क्षेत्रीय तनाव के विभिन्न मुद्दे उभरे जिनमें प्रमुख हैं-

  • आजादी के तुरन्त बाद जम्मू-कश्मीर का मामला सामने आया। यह सिर्फ भारत और पाकिस्तान के मध्य संघर्ष का मामला नहीं था। कश्मीर घाटी के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं का सवाल भी इससे जुड़ा हुआ था।
  • ठीक इसी प्रकार पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैण्ड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए जोरदार आंदोलन चले।
  • दक्षिण भारत में द्रविड़ आन्दोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्ट्र की बात उठायी थी।
  • अलगाव के इन आन्दोलनों के अतिरिक्त देश में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की माँग करते हुए जन-आन्दोलन चले। मौजूदा कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात ऐसे ही आन्दोलनों वाले राज्यों में हैं।

→ जम्मू-कश्मीर:
जम्मू-कश्मीर भारत और पाकिस्तान के मध्य एक बड़ा मुद्दा है। 1947 से पहले जम्मू-कश्मीर में राजशाही थी। इसके हिन्दू शासक भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्होंने अपने स्वतन्त्र राज्य के लिए भारत और पाकिस्तान के साथ समझौता करने की कोशिश की। कश्मीर समस्या की प्रमुख जड़ों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

→  राज्य में नेशनल कान्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन-आन्दोलन चला। शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ थे। नेशनल कान्फ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था। इसका कांग्रेस के साथ काफी समय से गठबन्धन था। राष्ट्रीय राजनीति के कई प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला के मित्र थे। इनमें नेहरू भी शामिल थे।

→ अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठ को अपनी तरफ से कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में महाराज भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्य मदद उपलब्ध करवाई और कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए। इस बारे में सहमति जताई गई कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू-कश्मीर की नियति का फैसला जनमत सर्वेक्षण द्वारा होगा। मार्च, 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमन्त्री बने ( राज्य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमन्त्री कहा जाता था )। भारत, जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।

→ बाहरी और आन्तरिक दबाव:
जम्मू-कश्मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्त एवं संघर्षयुक्त रही। इसमें बाहरी एवं आन्तरिक दोनों कारण हैं। कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला कराया। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियन्त्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को आजाद कश्मीर कहा । 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है। आन्तरिक रूप से देखें तो भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर विवाद रहा। कश्मीर को संविधान में धारा 370 के अन्तर्गत विशेष स्थान दिया गया है। धारा 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता दी गई है।

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→ 1948 के बाद की राजनीति:
प्रधानमन्त्री बनने के बाद शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में सुधार हेतु अनेक कदम उठाये। उन्होंने भूमि सुधार व जन-कल्याण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाये लेकिन केन्द्र सरकार से मतभेद होने के कारण उन्हें 1953 में पद से हटा दिया गया। 1953 से लेकर 1974 तक राज्य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। विभाजित हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस कांग्रेस के समर्थन से राज्य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में यह कांग्रेस में मिल गयी। इस तरह राज्य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियन्त्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्दुल्ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही। आखिरकार, 1974 में इन्दिरा गाँधी के साथ शेख अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और वे राज्य के मुख्यमन्त्री बने।

→ विद्रोही तेवर और उसके बाद:
1984 में विधानसभा चुनाव हुए। आधिकारिक नतीजे बता रहे थे कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबन्धन को भारी बहुमत मिला है। फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। बहराल लोग यह मान रहे थे कि चुनावों में धाँधली हुई है और चुनाव परिणाम जनता की पसंद की नुमाइंदगी नहीं कर रहे। 1980 के दशक से ही यहाँ के लोगों में प्रशासनिक अक्षमता को लेकर रोष पनप रहा था। 1989 तक राज्य उग्रवादी आन्दोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आन्दोलन में लोगों को अलग कश्मीर के नाम पर लामबंद किया जा रहा था। 1990 के बाद से इस राज्य के लोगों को उग्रवादियों और सेना की हिंसा भुगतनी पड़ी। 1996 में एक बार फिर इस राज्य में विधानसभा चुनाव हुए। फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्मू-कश्मीर के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग की। जम्मू-कश्मीर में 2002 के चुनाव बड़े निष्पक्ष ढंग से हुए । नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत नहीं मिल पाया। इस चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीपी) और कांग्रेस की गठबन्धन सरकार सत्ता में आई।

→ 2002 और इससे आगे:
गठबंधन के अनुसार मुफ्ती मोहम्मद तीन वर्षों तक सरकार के मुखिया रहे, इसके बाद गुलामनबी आजाद मुखिया बने। 2008 में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और 2008 के नवंबर-दिसंबर में चुनाव करवाया गया। उमर अब्दुल्ला मुखिया बने। 2014 के चुनाव में पीडीपी और बीजेपी का गठबंधन हुआ और मिली-जुली सरकार सत्ता में आई । 2018 में बीजेपी ने अपना सहयोग वापस ले लिया। फलस्वरूप कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया गया। राज्य को पुनर्गठित कर दो केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख बना दिये गये।

→ पंजाब:
1980 के दशक में पंजाब में भी बड़े बदलाव आए। इस प्रान्त की सामाजिक बनावट विभाजन के समय पहली बार बदली थी। 1966 में पंजाबी भाषी प्रान्त का निर्माण हुआ। सिखों की राजनीतिक शाखा के रूप में 1920 के दशक में अकाली दल का गठन हुआ था। अकाली दल ने पंजाबी सूबा के गठन का आन्दोलन चलाया। पंजाबी- भाषी सूबे में सिख बहुसंख्यक हो गये। राजनीतिक संदर्भ-पंजाबी सूबे के पुनर्गठन के बाद अकाली दल ने यहाँ 1967 और इसके बाद 1977 में सरकार बनाई। 1970 के दशक में अकालियों के एक तबके ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की माँग उठायी। 1973 में आनंदपुर साहिब में हुए एक सम्मेलन में क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग उठायी गयी। 1980 में अकाली दल की सरकार बर्खास्त हो गई तो अकाली दल ने पंजाब तथा पड़ौसी राज्यों के बीच पानी के बँटवारे को लेकर आन्दोलन चलाया।

→ हिंसा का चक्र:
जल्दी ही अकाली आन्दोलन का नेतृत्व नरम पंथियों के हाथों से निकल कर चरमपंथियों के हाथों में आ गया और इस आन्दोलन ने सशस्त्र विद्रोह का रूप ले लिया। उग्रवादियों ने अमृतसर स्थित सिखों के तीर्थ स्थल स्वर्णमन्दिर में अपना मुख्यालय बनाया और स्वर्णमन्दिर एक हथियारबंद किले में तब्दील हो गया। 1984 के जून माह में भारत सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया । यह स्वर्णमन्दिर में की गई सैन्य कार्यवाही का कूट नाम था । कुछ और त्रासद घटनाओं ने पंजाब की समस्या को एक जटिल रास्ते पर खड़ा कर दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्टूबर, 1984 के दिन उनके आवास के बाहर उन्हीं के अंगरक्षकों ने हत्या कर दी। श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के कारण दिल्ली में बड़े पैमाने पर सिख विरोधी दंगे हुए जिसमें लगभग 2000 सिख स्त्री-पुरुष एवं बच्चे मारे गये।

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→ शांति की ओर:
984 के चुनावों के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत की शुरुआत की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लोंगोवाल के साथ 1985 की जुलाई में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गाँधी लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा जाता है । यह समझौता पंजाब में अमन कायम करने की क्रिया में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। लेकिन पंजाब में हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केन्द्र सरकार ने पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इससे सामान्य राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया बाधित हुई। 1992 में पंजाब के चुनावों में 24 प्रतिशत मतदाता मत डालने आए। 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति बहाल हुई तथा 1997 में चुनाव में लोगों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। अब पंजाब में पुनः आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन के मुद्दे प्रमुख हो गये हैं।

→ पूर्वोत्तर:
पूर्वोत्तर राज्यों में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ 1980 के दशक में एक निर्णायक मोड़ पर आ गई थीं। क्षेत्र में सात राज्य हैं। इन्हें ‘सात बहनें’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में देश की कुल 4 फीसदी आबादी निवास करती है। लेकिन भारत के कुल क्षेत्रफल में पूर्वोत्तर के हिस्से को देखते हुए यह आबादी दोगुनी कही जाएगी। 22 किलोमीटर लंबी एक पतली सी राहदारी इस इलाके को शेष भारत से जोड़ती है अन्यथा इस क्षेत्र की सीमाएँ चीन, म्यांमार और बांग्लादेश से लगती हैं और यह इलाका भारत के लिए एक तरह से दक्षिण-पूर्वी एशिया का प्रवेश द्वार है।

इस इलाके में 1947 के बाद अनेक परिवर्तन आये हैं। पूर्वोत्तर के पूरे इलाके का बड़े व्यापक स्तर पर राजनीतिक पुनर्गठन हुआ है। नगालैण्ड को 1963 में राज्य बनाया गया। मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा 1972 में राज्य बने जबकि अरुणाचल प्रदेश को 1987 में राज्य का दर्जा दिया गया। 1947 के भारत विभाजन से पूर्वोत्तर के इलाके भारत के शेष भागों से एकदम अलग-थलग पड़ गए और इसका अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव पड़ा। पूर्वोत्तर के राज्यों में राजनीति में तीन मुद्दे हावी हैं

  • स्वायत्तता की माँग,
  • अलगाव के आन्दोलन तथा
  • बाहरी लोगों का विरोध।

→ स्वायत्तता की माँग:
आजादी के वक्त मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़ दें तो यह पूरा इलाका असम कहलाता था। गैर- असमी लोगों को जब लगा कि असम की सरकार उन पर असमी भाषा थोप रही है तो इस इलाके से राजनीतिक स्वायत्तता की माँग उठी। पूरे राज्य में असमी भाषा को लादने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और दंगे हुए। बड़े जनजाति समुदाय के नेता असम से अलग होना चाहते थे। इन लोगों ने ‘ईस्टर्न इंडिया ट्राइबल यूनियन’ का गठन किया जो 1960 में कहीं ज्यादा व्यापक ‘आल पार्टी हिल्स कांफ्रेंस’ में बदल गया। इन नेताओं की माँग थी कि असम से

→ अलग एक जन:
जातीय राज्य बनाया जाए। आखिरकार एक जनजातीय राज्य की जगह असम को काट कर कई जनजातीय राज्य बने। केन्द्र सरकार ने अलग-अलग वक्त पर असम को बाँटकर मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश बनाया। 1972 तक पूर्वोत्तर का पुनर्गठन पूरा हो चुका था लेकिन स्वायत्तता की माँग खत्म नहीं हुई। उदाहरण के लिए, असम के बोडो, करबी और दिमसा जैसे समुदायों ने अपने लिए अलग राज्य की माँग की। अपनी माँग के पीछे उन्होंने जनमत तैयार करने के प्रयास किए, जन-आंदोलन चलाए और विद्रोही कार्यवाहियाँ भी कीं।
संघीय राजव्यवस्था के कुछ और प्रावधानों का उपयोग करके स्वायत्तता की मांग को सन्तुष्ट करने की कोशिश की गई और इन समुदायों को असम में ही रखा गया। करबी और दिमसा समुदायों को जिला परिषद् के अन्तर्गत स्वायत्तता दी गई। बोडो जनजाति को हाल ही में स्वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया है।

→ अलगाववादी आंदोलन:
पूर्वोत्तर राज्यों में स्वायत्तता की माँग के साथ – साथ अलगाववादी ताकतों का भी बोलबाला बढ़ा। अलगाववादी देश से अलग होकर अपने को एक अलग राष्ट्र के रूप में प्रतिस्थापित करना चाहते थे। भारत के पूर्वोत्तर के राज्य असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नगालैण्ड, मिजोरम, त्रिपुरा में इस प्रकार की माँगें उठती रहती हैं।

→ बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन:
पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर अप्रवासी भारतीय आये हैं। इससे एक खास समस्या उत्पन्न हुई है। स्थानीय जनता इन्हें बाहरी समझती है और बाहरी लोगों के खिलाफ उसके मन गुस्सा है। भारत के दूसरे राज्यों अथवा किसी अन्य देश से आये लोगों को यहाँ की जनता रोजगार के अवसरों और राजनीतिक सत्ता के एतबार से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। स्थानीय लोग बाहर से आये लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया है और कभी-कभी इन बातों के कारण हिंसक घटनाएँ भी होती हैं।

→ समाहार और राष्ट्रीय अखण्डता:
आजादी के छह दशक बाद भी राष्ट्रीय अखण्डता के कुछ मामलों का समाधान पूरी तरह से नहीं हो पाया। क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लगातार एक न एक रूप से उभरती रहीं। कभी कहीं से अलग राज्य बनाने की माँग उठी तो कहीं आर्थिक विकास का मसला उठा। कहीं-कहीं से अलगाववाद के स्वर उभरे। 1980 के बाद के दौर में भारत की राजनीति इन तनावों के घेरे में रही और समाज के विभिन्न तबके की माँगों में पटरी बैठा पाने की लोकतान्त्रिक राजनीति की क्षमता की परीक्षा हुई।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Jharkhand Board Class 12 Political Science लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट InText Questions and Answers

पृष्ठ 104

प्रश्न 1.
गरीब जनता पर सचमुच भारी मुसीबत आई होगी। आखिर गरीबी हटाओ के वादे का हुआ क्या? उत्तर – श्रीमती गांधी ने 1971 के आम चुनावों में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था लेकिन इस नारे के बावजूद भी 1971-72 के बाद के वर्षों में भी देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में सुधार नहीं हुआ और यह नारा खोखला साबित हुआ। इसी अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई। इससे विभिन्न चीजों की कीमतों में तेजी आई। इस तीव्र मूल्य वृद्धि से लोगों को भारी कठिनाई हुई । बांग्लादेश के संकट से भी भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था। लगभग 80 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गये थे । इसके बाद पाकिस्तान से युद्ध भी करना पड़ा। फलतः गरीबी हटाओ कार्यक्रम के लिए दिये जाने वाले अनुदान में कटौती कर दी गई और यह नारा पूर्णतः असफल साबित हुआ।

पृष्ठ 107

प्रश्न 2.
क्या ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ और ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही’ का मतलब यह है कि न्यायाधीश और सरकारी अधिकारी शासक दल के प्रति निष्ठावान हो?
उत्तर:
प्रतिबद्ध नौकरशाही के अन्तर्गत नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों से बंधी हुई होती है और उस दल के निर्देशन में कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती; बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना किसी प्रश्न उठाए आँखें मूंद कर लागू करना होता है। जहाँ तक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का सवाल है यह ऐसी न्यायपालिका होती है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफादार हो तथा सरकार के निर्देशों के अनुसार चले। इस प्रकार ऐसी व्यवस्था में न्यायपालिका व व्यवस्थापिका की स्वतन्त्रता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है और प्रशासन निरंकुश हो जाता है अर्थात् कानून बनाने एवं फैसला या निर्णय देने की शक्ति केवल एक ही संस्था या दल के पास आ जाती है। इस प्रकार की व्यवस्था प्रायः साम्यवादी देशों में पायी जाती है।

पृष्ठ 108

प्रश्न 3.
यह तो सेना से सरकार के खिलाफ बगावत करने को कहने जैसा जान पड़ता है। क्या यह बात लोकतांत्रिक है?
उत्तर:
नहीं, यह बात लोकतंत्र के खिलाफ है।

पृष्ठ 109

प्रश्न 4.
क्या राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सिफारिश के बगैर आपातकाल की घोषणा करनी चाहिए थी? कितनी अजीब बात है!
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों का उल्लेख किया गया है। भारत में 1975 में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई जिसमें मन्त्रिमण्डल से सलाह करके आपातकालीन स्थिति की घोषणा का प्रावधान है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बिना मंत्रिमण्डल की सलाह के राष्ट्रपति को आपातकाल की घोषणा करने की सलाह दी थी, मन्त्रिमण्डल की बैठक उसके बाद हुई। इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों में चाहें कुछ भी हुआ हो लेकिन वर्तमान में आपातकाल के प्रावधानों में सुधार कर लिया गया है। अंब आंतरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है। इसके लिए भी आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् को राष्ट्रपति को लिखित में देनी होगी।

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पृष्ठ 112

प्रश्न 5.
अरे ! सर्वोच्च न्यायालय ने भी साथ छोड़ दिया! उन दिनों सबको क्या हो गया था?
उत्तर:
आपातकाल के दौरान नागरिकों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये तथा मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गये। लेकिन अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रेल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिकों से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में से एक माना गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए अर्थात् इस काल में सर्वोच्च न्यायालय ने भी जनता का साथ छोड़ दिया था।

पृष्ठ 113

प्रश्न 6.
जिन चंद लोगों ने प्रतिरोध किया, उनकी बात छोड़ दें- बाकियों के बारे में सोचें कि उन्होंने क्या किया ! क्या कर रहे थे बड़े-बड़े अधिकारी, बुद्धिजीवी, सामाजिक-धार्मिक नेता और नागरिक …………..?
उत्तर:
आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए गए थे। जिन्होंने विरोध किया उनको जेल में डाल दिया गया, कई नेताओं और बुद्धिजीवियों को नजरबंद कर दिया गया। सरकार के विरोध में कोई भी स्वर उठाता उसको जेल में यातनाएँ दी जातीं। कुछ नेता जो गिरफ्तारी से बच गए वे भूमिगत होकर सरकार के खिलाफ मुहिम जारी रखी। कुछ ने आपातकाल के विरोध में अपनी पदवी लौटा दी। अधिकारी सरकार के प्रति वफादार बने रहे और ऐसा न करने पर उनका निलंबन कर दिया जाता था।

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प्रश्न 7.
अगर उत्तर और दक्षिण के राज्यों में मतदाताओं ने इतने अलग ढर्रे पर मतदान किया, तो हम कैसे कहें कि 1977 के चुनावों का जनादेश क्या था?
उत्तर:
1977 के चुनावों में आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हारी। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिलीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों . को 330 सीटें प्राप्त हुईं। लेकिन तत्कालीन चुनावी नतीजों पर प्रकाश डालें तो यह एहसास होता है कि कांग्रेस देश में हर जगह चुनाव नहीं हारी थी । महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में उसने कई सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था और दक्षिण भारत के राज्यों में तो उसकी स्थिति काफी मजबूत थी। इसका मुख्य कारण यह था कि दक्षिण के राज्यों में आपातकाल के दौरान ज्यादतियाँ नहीं हुई थीं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि चुनावों का जनादेश आपातकाल की ज्यादतियों व उसके दुरुपयोग के विरुद्ध था।

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प्रश्न 8.
मैं समझ गया! आपातकाल एक तरह से तानाशाही निरोधक टीका था। इसमें दर्द हुआ और बुखार भी आया, लेकिन अन्ततः हमारे लोकतन्त्र के भीतर क्षमता बढ़ी।
उत्तर:
आपातकाल से सबक – आपातकाल के प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं-

  1. आपातकाल का प्रथम सबक तो यही है कि भारत से लोकतन्त्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है।
  2. दूसरे आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब आंतरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में दे।
  3. तीसरे आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा सचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई।

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प्रश्न 1.
बताएँ कि आपातकाल के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत-
(क) आपातकाल की घोषणा 1975 में इंदिरा गाँधी ने की।
(ख) आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निष्क्रिय हो गए।
(ग) बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के मद्देनजर आपातकाल की घोषणा की गई थी।
(घ) आपातकाल के दौरान विपक्ष के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
(ङ) सी. पी. आई. ने आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया।
उत्तर:
(क) गलत,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही,
(ङ) सही।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा आपातकाल की घोषणा के संदर्भ में मेल नहीं खाता है-
(क) ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान
(ख) 1974 की रेल – हड़ताल
(ग) नक्सलवादी आंदोलन
(घ) इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला
(ङ) शाह आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष
उत्तर:
(ग) नक्सलवादी आंदोलन

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में मेल बैठाएँ-

(क) संपूर्ण क्रांति (i) इंदिरा गाँधी
(ख) गरीबी हटाओ (ii) जयप्रकाश नारायण
(ग) छात्र आंदोलन (iii) बिहार आंदोलन
(घ) रेल हड़ताल (iv) जॉर्ज फर्नांडिस

उत्तर:

(क) संपूर्ण क्रांति (ii) जयप्रकाश नारायण
(ख) गरीबी हटाओ (i) इंदिरा गाँधी
(ग) छात्र आंदोलन (iii) बिहार आंदोलन
(घ) रेल हड़ताल (iv) जॉर्ज फर्नांडिस

प्रश्न 4.
किन कारणों से 1980 के मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े?
उत्तर:
1977 के चुनावों में जनता पार्टी को जनता ने स्पष्ट बहुमत प्रदान किया लेकिन जनता पार्टी के नेताओं में प्रधानमंत्री के पद को लेकर मतभेद हो गया। आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ दिनों के लिए ही एकजुट रख सका। जनता पार्टी के पास किसी एक दिशा, नेतृत्व अथवा साझे कार्यक्रम का अभाव था। केवल 18 महीने में ही मोरारजी देसाई ने लोकसभा में अपना बहुमत खो दिया जिसके कारण मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देना पड़ा। मोरारजी देसाई के बाद चरणसिंह कांग्रेस पार्टी के समर्थन से प्रधानमंत्री बने लेकिन चार महीने बाद कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। अतः जनता पार्टी की सरकार में पारस्परिक तालमेल का अभाव, सत्ता की भूख तथा राजनैतिक अस्थिरता के कारण 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाए गए।

प्रश्न 5.
जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग को नियुक्त किया था। इस आयोग की नियुक्ति क्यों की गई थी? इसके क्या निष्कर्ष थे?
उत्तर:
शाह आयोग का गठन ” 25 जून, 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गई कार्यवाही तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं” की जाँच के लिए किया गया था । आयोग ने विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की जांच की और हजारों गवाहों के बयान दर्ज किए। शाह आयोग ने अपनी जाँच के दौरान पाया कि इस अवधि में बहुत सारी ‘अति’ हुई। भारत सरकार ने आयोग द्वारा प्रस्तुत दो अंतरिम रिपोर्टों और तीसरी तथा अंतिम रिपोर्ट की सिफारिशी पर्यवेक्षणों और निष्कर्षों को स्वीकार किया ।

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प्रश्न 6.
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके क्या कारण बताए थे?
उत्तर:
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके निम्नलिखित कारण बताये थे-

  1. सरकार ने कहा कि विपक्षी दलों द्वारा लोकतन्त्र को रोकने की कोशिश की जा रही है तथा सरकार को उचित ढंग से कार्य नहीं करने दिया जा रहा है। आन्दोलनों के कारण हिंसक घटनाएँ हो रही हैं तथा हमारी सेना तथा पुलिस को बगावत के लिए उकसाया जा रहा है। (ii) सरकार ने कहा कि विघटनकारी ताकतों का खुला खेल जारी है और साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर खतरा मँडरा रहा है।
  2. षड्यंत्रकारी शक्तियाँ सरकार के प्रगतिशील कामों में अड़ंगे लगा रही हैं और उसे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती हैं।

प्रश्न 7.
1977 के चुनावों के बाद पहली दफा केन्द्र में विपक्षी दल की सरकार बनी। ऐसा किन कारणों से संभव हुआ?
उत्तर:
1977 के चुनावों के बाद केन्द्र में पहली बार विपक्षी दल की सरकार बनने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार रहे, इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. बड़ी विपक्षी पार्टियों का एकजुट होना: आपातकाल लागू होने से आहत विपक्षी नेताओं ने आपातकाल के बाद हुए चुनाव के पहले एकजुट होकर ‘जनता पार्टी’ नामक एक नया दल बनाया। कांग्रेस विरोधी मतों के बिखराव को रोका।
  2. जगजीवनराम द्वारा त्याग-पत्र देना: चुनाव से पहले जगजीवनराम ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया तथा कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवनराम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी – ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ बनायी तथा बाद में यह पार्टी जनता पार्टी में शामिल हो गई ।
  3. आपातकाल की ज्यादतियाँ: आपातकाल के दौरान जनता पर अनेक ज्यादतियाँ की गईं। जैसे – संजय गाँधी के नेतृत्व में अनिवार्य नसबंदी कार्यक्रम चलाया गया; प्रेस तथा समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई; हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो गई। इन सब कारणों से जनता कांग्रेस से नाराज थी और उसने कांग्रेस के विरोध में मतदान किया।
  4. जनता पार्टी का प्रचार: जनता पार्टी ने 1977 के चुनावों को आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया तथा इस पार्टी ने चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों को मुद्दा बनाया।

प्रश्न 8.
हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ?
1. नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर
2. कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध
3. जनसंचार माध्यमों के कामकाज
4. पुलिस और नौकरशाही की कार्यवाहियाँ ।
उत्तर:

  1. आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया तथा श्रीमती गाँधी द्वारा ‘मीसा कानून’ लागू किया गया जिसके अन्तर्गत किसी भी नागरिक को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में लिया जा सकता था।
  2. आपातकाल में कार्यपालिका एवं न्यायपालिका एक-दूसरे के सहयोगी हो गये, क्योंकि सरकार ने सम्पूर्ण न्यायपालिका को सरकार के प्रति वफादार रहने के लिए कहा तथा आपातकाल के दौरान कुछ हद तक न्यायपालिका सरकार के प्रति वफादार भी रही। इस प्रकार आपातकाल के दौरान न्यायपालिका कार्यपालिका के आदेशों का पालन करने वाली संस्था बन गई थी।
  3. आपातकाल के दौरान जनसंचार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, कोई भी समाचार पत्र सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छाप सकता था तथा जो भी खबर अखबार द्वारा छापी जाती थी उसे
  4. पहले सरकार से स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी।
  5. आपातकाल के दौरान पुलिस और नौकरशाही, सरकार के प्रति वफादार बनी रही, यदि किसी पुलिस अधिकारी या नौकरशाही ने सरकार के आदेशों को मानने से मना किया तो उसे या तो निलम्बित कर दिया गया या गिरफ्तार कर लिया गया। इस काल में पुलिस की ज्यादतियाँ बढ़ गई थीं तथा नौकरशाही अनुशासन के नाम पर तानाशाह हो गयी थी। रिश्वतखोरी बढ़ गयी थी।

प्रश्न 9.
भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का किस तरह असर हुआ? अपने उत्तर की पुष्टि उदाहरणों से करें।
उत्तर:
आपातकाल का भारतीय दलीय व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा क्योंकि अधिकांश विरोधी दलों को किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत नहीं थी। आजादी के समय से लेकर 1975 तक भारत में वैसे भी कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व रहा तथा संगठित विरोधी दल उभर नहीं पाया, वहीं आपातकाल के दौरान विरोधी दलों की स्थिति और भी खराब हुई। आपातकाल के बाद सरकार ने जनवरी, 1977 में चुनाव कराने का फैसला लिया। सभी बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर एक नयी पार्टी – ‘ जनता पार्टी’ का गठन कर चुनाव लड़ा और सफलता पायी और सरकार बनाई। इस प्रकार कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर भारत की राजनैतिक प्रणाली द्वि-दलीय हो जायेगी। लेकिन 18 माह में ही जनता पार्टी का यह कुनबा बिखर गया और पुनः दलीय प्रणाली उसी रूप में आ गई।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें-
1977 के चुनावों के दौरान भारतीय लोकतंत्र, दो- दलीय व्यवस्था के जितना नजदीक आ गया था उतना पहले कभी नहीं आया। बहरहाल अगले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बदल गया। हारने के तुरंत बाद कांग्रेस दो टुकड़ों में बँट गई: “जनता पार्टी में भी बड़ी अफरा-तफरी मची” “डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणव रॉय। – पार्थ चटर्जी
(क) किन वजहों से 1977 में भारत की राजनीति दो- दलीय प्रणाली के समान जान पड़ रही थी?
(ख) 1977 में दो से ज्यादा पार्टियाँ अस्तित्व में थीं। इसके बावजूद लेखकगण इस दौर को दो- दलीय प्रणाली के नजदीक क्यों बता रहे हैं?
(ग) कांग्रेस और जनता पार्टी में किन कारणों से टूट पैदा हुई ?
उत्तर:
(क) 1977 में भारत की राजनीति दो- दलीय प्रणाली इसलिए जान पड़ती थी; क्योंकि उस समय केवल दो ही दल सत्ता के मैदान में थे, जिसमें सत्ताधारी दल कांग्रेस एवं मुख्य विपक्षी दल जनता पार्टी।

(ख) लेखकगण इस दौर को दो- दलीय प्रणाली के नजदीक इसलिए बता रहे हैं; क्योंकि कांग्रेस कई टुकड़ों. में बँट गई और जनता पार्टी में भी फूट हो गई परंतु फिर भी इन दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता संयुक्त नेतृत्व और साझे कार्यक्रम और नीतियों की बात करने लगे। इन दोनों गुटों की नीतियाँ एक जैसी थीं। दोनों में बहुत कम अंतर था । वामपंथी मोर्चे में सी. पी. एम., सी. पी. आई., फारवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी की नीति एवं कार्यक्रमों को इनसे अलग माना जा सकता है।

(ग) 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कारण नेताओं में निराशा पैदा हुई और इस निराशा के कारण फूट पैदा हुई, क्योंकि अधिकांश कांग्रेसी नेता श्रीमती गाँधी के चमत्कारिक नेतृत्व के महापाश से बाहर निकल चुके थे, दूसरी ओर जनता पार्टी में नेतृत्व और विचारधारा को लेकर फूट पैदा हो गई थी। प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारों में आपसी होड़ मच गई।

लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट JAC Class 12 Political Science Notes

→ आपातकाल की पृष्ठभूमि:
1967 के चुनावों के बाद भारतीय राजनीति में व्यापक बदलाव आया। श्रीमती इंदिरा गाँधी एक कद्दावर नेता के रूप में उभरीं और उनकी लोकप्रियता चरम सीमा पर पहुँच गई। इस काल में दलगत प्रतिस्पर्द्धा कहीं ज्यादा तीखी और ध्रुवीकृत हो गई तथा न्यायपालिका और सरकार के सम्बन्धों में तनाव आए। इस काल में कांग्रेस के विपक्ष में जो दल थे उन्हें लग रहा था कि सरकारी प्राधिकार को निजी प्राधिकार मानकर प्रयोग किया जा रहा है और राजनीति हद से ज्यादा व्यक्तिगत होती जा रही है। कांग्रेस की टूट से इंदिरा गांधी और उनके विरोधियों के बीच मतभेद गहरे हो गये थे।

→ आर्थिक संदर्भ:
1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का जो नारा दिया गया वह पूर्णतया खोखला साबित हुआ। बांग्लादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ा। लगभग 80 लाख शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गये। युद्ध के बाद अमरीका ने भारत की सहायता बन्द कर दी। इस अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना वृद्धि हुई जिससे भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वस्तुओं की कीमतों में जबरदस्त इजाफा हुआ।

→ गुजरात और बिहार में आंदोलन: गुजरात और बिहार में कांग्रेसी सरकार थी। इन राज्यों में हुए आन्दोलनों का प्रदेश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।

→ गुजरात में आंदोलन के कारण: 1974 में तेल की कीमतों व आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के विरुद्ध छात्रों ने आन्दोलन किया। इस आन्दोलन में बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भी शामिल हो गईं और इस आन्दोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया। ऐसे में गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। विपक्षी दलों ने राज्य की विधानसभा के लिए दुबारा चुनाव कराने की मांग की। कांग्रेस (ओ) के प्रमुख नेता मोरारजी देसाई ने कहा कि अगर राज्य में नए सिरे से चुनाव नहीं करवाए गए तो मैं भूख हड़ताल पर बैठ जाऊँगा। मोरारजी अपने कांग्रेस के दिनों में इंदिरा गांधी के मुख्य विरोधी रहे थे। विपक्षी दलों द्वारा समर्थित छात्र आंदोलन के गहरे दबाव में 1975 के जून में विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस इस चुनाव में हार गयी।

→ बिहार में आंदोलन के कारण:
1974 के मार्च माह में बिहार में इन्हीं मांगों को लेकर छात्रों द्वारा आन्दोलन छेड़ा गया। आंदोलन के क्रम में उन्होंने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को बुलावा भेजा। जेपी तब सक्रिय राजनीति छोड़ चुके थे और सामाजिक कार्यों में लगे हुए थे। जेपी ने छात्रों का निमंत्रण इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और अपने को सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रखेगा। इस प्रकार छात्र आंदोलन ने एक राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया और उसके भीतर राष्ट्रव्यापी अपील आई। बिहार के इस आन्दोलन में हर क्षेत्र के लोग जुड़ने लगे। जयप्रकाश नारायण ने बिहार की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की माँग की। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में समग्र क्रान्ति का आह्वान किया ताकि उन्हीं के शब्दों में सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना की जा सके।

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→ आन्दोलन का प्रभाव:
बिहार के इस आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना शुरू हुआ। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि यह आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैले। इस आंदोलन के साथ-साथ रेलवे कर्मचारियों ने भी राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया, जिससे देश का सम्पूर्ण कामकाज ठप होने का खतरा उत्पन्न हो गया। विशेषज्ञों एवं विद्वानों का मानना था कि ये आन्दोलन राज्य सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व के खिलाफ चलाए गए। इंदिरा गांधी का मानना था कि ये आन्दोलन उनके प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित थे।

→ न्यायपालिका से संघर्ष:

  • न्यायपालिका के साथ इस दौर में सरकार और शासक दल के गहरे मतभेद पैदा हुए। इस क्रम में तीन संवैधानिक मामले उठे क्या संसद मौलिक अधिकारों में कटौती कर सकती है? सर्वोच्च न्यायालय का जवाब था कि संसद ऐसा नहीं कर सकती।
  • दूसरा यह कि क्या संसद संविधान में संशोधन करके सम्पत्ति के अधिकार में काट-छाँट कर सकती है? इस मसले पर भी सर्वोच्च न्यायालय का यही कहना था कि सरकार संविधान में इस तरह संशोधन नहीं कर सकती कि अधिकारों की कटौती हो जाए।
  • तीसरा, संसद ने यह कहते हुए संविधान में संशोधन किया कि वह नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को प्रभावकारी बनाने के लिए मौलिक अधिकारों में कमी कर सकती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भी निरस्त कर दिया। इससे सरकार और न्यायपालिका के मध्य संघर्ष उत्पन्न हो गया।

1973 में सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी करके न्यायमूर्ति ए. एन. रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह निर्णय राजनीतिक रूप से विवादास्पद बना रहा क्योंकि सरकार ने जिन तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी इस मामले में की थी उन्होंने सरकार के इस कदम के विरुद्ध फैसला दिया।

आपातकाल की घोषणा:
12 जून, 1975 के दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले में उन्होंने लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे के लिए दबाव डाला। इन दलों ने 25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल प्रदर्शन किया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग करते हुए राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की। जयप्रकाश नारायण ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का आह्वान किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें। सरकार ने इन घटनाओं के मद्देनजर जवाब में 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी। श्रीमती गाँधी की सरकार ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की और राष्ट्रपति ने तुरन्त आपातकाल की उद्घोषणा कर दी।

→  परिणाम:

  • सरकार के इस फैसले से विरोध- आंदोलन एक बार रुक गया। हड़तालों पर रोक लगा दी गई अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया।
  • आपातकाल की मुखालफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटीं। पहली लहर में जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से रह गए थे वे ‘भूमिगत’ हो गए और सरकार के खिलाफ मुहिम चलायी। इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया।
  • इंदिरा गांधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वां संशोधन पारित हुआ इस संशोधन के माध्यम से संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन के माध्यम से हुए अनेक बदलावों में एक था- देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 साल करना।

→ आपातकाल के संदर्भ में विवाद;
सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतन्त्र है और इसके अनुकूल विपक्षी दलों को चाहिए कि वे निर्वाचित शासक दल को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने दें। देश में लगातार गैर-संसदीय राजनीति का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे अस्थिरता पैदा होती है। इंदिरा गांधी ने शाह आयोग को चिट्ठी में लिखा कि षड्यंत्रकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़ंगे लगा रही थीं और मुझे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं। आपातकाल के आलोचकों का तर्क था कि आजादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन-आंदोलन का एक सिलसिला रहा है।

जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के नेताओं का विचार था कि लोकतन्त्र में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए। लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली को ठप करके आपातकाल लागू करने जैसे अतिचारी कदम उठाने की जरूरत कतई नहीं थी। दरअसल खतरा देश की एकता और अखंडता को नहीं, बल्कि शासक दल और स्वयं प्रधानमंत्री को था । आलोचक कहते हैं कि देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इंदिरा गांधी ने निजी ताकतों को बचाने के लिए किया ।

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→ आपातकाल के दौरान क्या-क्या हुआ?:
आपातकाल को सही ठहराते हुए सरकार ने कहा कि इसके जरिए वो कानून व्यवस्था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित के कार्यक्रम लागू करना चाहती थी । इस उद्देश्य से सरकार ने एक बीससूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की और इसे लागू करने का अपना दृढ़ संकल्प दोहराया। आपातकाल की घोषणा के बाद, शुरुआती महीनों में मध्यवर्ग इस बात से खुश था कि विरोध- आंदोलन समाप्त हो गया और सरकारी कर्मचारियों पर अनुशासन लागू हुआ। आपातकाल के दौरान कई नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी। प्रेस पर कई तरह की पाबंदी लगाई गई। इसके अलावा कुछ और गंभीर आरोप लगे थे जो किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे, लेकिन सरकारी ताकतों का इन लोगों ने इस्तेमाल किया था। आपातकाल का बुरा असर आम लोगों को भी भुगतना पड़ा। इसके दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातना की घटनाएँ भी सामने आईं। गरीब लोगों को मनमाने तरीके से एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बसाने की घटनाएँ भी हुईं। जनसंख्या नियंत्रण के बहाने लोगों को अनिवार्य रूप से नसबंदी के लिए मजबूर किया गया।

→ आपातकाल से सबक:

  • आपातकाल से एकबारगी भारतीय लोकतन्त्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हुईं। यद्यपि पर्यवेक्षक मानते हैं कि आपातकाल के दौरान भारत लोकतान्त्रिक नहीं रह गया था, लेकिन यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि थोड़े दिनों के अंदर कामकाज फिर से लोकतान्त्रिक ढर्रे पर लौट आया। इस तरह आपातकाल का एक सबक तो यही है कि भारत से लोकतन्त्र विदा कर पाना बहुत कठिन है।
  • आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब ‘अंदरूनी’ आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को लिखित में दे।
  • आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा संचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के बाद की राजनीति – उत्तर भारत में आपातकाल का असर ज्यादा दिखाई दिया। यहाँ विपक्षी दलों ने लोकतन्त्र बचावों के बारे पर चुनाव लड़ा। जनादेश निर्णायक तौर पर आपातकाल के विरुद्ध था। जिन सरकारों को जनता ने लोकतन्त्र विरोधी माना उन्हें मतदान के रूप में उसने भारी दण्ड दिया।

→ लोकसभा चुनाव, 1977:
1977 के चुनावों में आपातकाल का असर व्यापक रूप से दिखाई दिया। इन चुनावों में जनादेश कांग्रेस के विरुद्ध था। कांग्रेस को लोकसभा में मात्र 154 सीटें मिलीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिलीं। खुद जनता पार्टी अकेले 295 सीटों पर जीती और उसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में एक भी सीट न पा सकी।

→ जनता सरकार:
1977 के चुनावों के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन इस पार्टी में तालमेल का अभाव था। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, लेकिन पार्टी के भीतर खींचतान जारी रही। आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ समय तक ही एक रख सका। जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में अपना समर्थन खो दिया। इसके बाद चरण सिंह की सरकार भी केवल 4 माह तक ही चल पायी। 1980 में फिर से लोकसभा चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की।

→ विरासत:

  • 1969 से पहले तक कांग्रेस विविध विचारधाराओं के नेताओं व कार्यकर्ताओं को एक साथ लेकर चलती थी। अपने बदले हुए स्वभाव में कांग्रेस ने स्वयं को विशेष विचारधारा से जोड़ा। उसने अपने को देश की एकमात्र समाजवादी और गरीबों की हिमायती पार्टी बताना शुरू किया।
  • अप्रत्यक्ष रूप से 1977 के बाद पिछड़े वर्गों की भलाई का मुद्दा भारतीय राजनीति पर हावी होना शुरू हुआ। 1977 के चुनाव परिणामों पर पिछड़ी जातियों के कदम पर असर पड़ा, खासकर उत्तर भारत में।
  •  इस दौर में एक और महत्त्वपूर्ण मामला संसदीय लोकतन्त्र में जन- आंदोलन की भूमिका और उसकी सीमा को लेकर उठा स्पष्ट ही इस दौर में संस्था आधारित लोकतन्त्र में तनाव नजर आया। इस तनाव का एक कारण यह भी कहा जा सकता है कि हमारी दलीय प्रणाली जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम साबित नहीं हुई।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 5 कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 5 कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 5 कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना

Jharkhand Board Class 12 Political Science कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना InText Questions and Answers

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प्रश्न 1.
फ्रांस और कनाडा में ऐसी सूरत कायम हो, तो वहाँ कोई भी लोकतंत्र के असफल होने अथवा देश के टूटने की बात नहीं कहता। हम ही आखिर लगातार इतने शक में क्यों पड़े रहते हैं?
उत्तर:
फ्रांस में लोकतंत्र 1792 में स्थापित हुआ जबकि कनाडा एक संवैधानिक राजतंत्र है, जिसमें सम्राट राज्य का प्रमुख होता है। कनाडा एक संवैधानिक राजतंत्र 1867 में बना। भारत 1947 में आजाद हुआ और उसी समय भारत में लोकतंत्र कायम हुआ। भारत में नया नया लोकतंत्र कायम हुआ था इसलिए इतनी विविधताओं वाले देश में लोकतंत्र के असफल होने या देश के टूटने का शक लगातार लगा रहता है।

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प्रश्न 2.
इन्दिरा गाँधी के लिए स्थितियाँ सचमुच कठिन रही होंगी-पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्र में आखिर वे अकेली महिला थीं। ऊँचे पदों पर अपने देश में ज्यादा महिलाएँ क्यों नहीं हैं?
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गाँधी भारत की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री बनीं लेकिन प्रारम्भिक काल में उनको सिण्डीकेट और प्रभावशाली वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा अनेक चुनौतियाँ मिलीं, लेकिन पारिवारिक राजनीतिक विरासत और पर्याप्त राजनीतिक अनुभव के कारण उनको एक सामान्य महिला की अपेक्षा कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन भारत में ज्यादातर महिलाओं के समक्ष अनेक ऐसी चुनौतियाँ एवं समस्याएँ हैं जिनके कारण वे ऊँचे पदों पर नहीं आ पातीं। इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. भारतीय समाज पुरुष-प्रधान है। अधिकांश कानून पुरुषों द्वारा बनाए गए और महिलाओं को समाज में गैर- बराबरी का दर्जा दिया गया।
  2. लड़कों की तुलना में उनके जन्म और पालन-पोषण में नकारात्मक भेद-भाव किया जाता था।
  3. सती-प्रथा, बहुपत्नी विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, कन्या वध या भ्रूण हत्या, विधवा विवाह की मनाही, अशिक्षा आदि ने नारियों को समाज में पछाड़े रखा।
  4. भारत में पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता के कारण वे महिलाओं को सरकारी नौकरियाँ विशेषकर ऊँचे पदों पर नहीं देखना चाहते।
  5. शिक्षा के प्रचार- प्रसार, नारी जागृति तथा नारी सशक्तीकरण के कारण अब धीरे-धीरे देश के उच्च पदों पर महिलाएँ कार्य कर रही हैं, लेकिन अभी भी उनकी संख्या काफी कम है।

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प्रश्न 3.
क्या आज गैर-कांग्रेसवाद प्रासंगिक है? क्या मौजूदा पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के खिलाफ ऐसा ही तरीका अपनाया जा सकता है?
उत्तर:
गैर कांग्रेसवाद के जनक डॉ. राममनोहर लोहिया थे और गैर-कांग्रेसवाद आज भी उतना प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में था। बंगाल में वाममोर्चा के खिलाफ ऐसा तरीका अपनाया जा सकता है क्योंकि बंगाल में वाममोर्चा का एकाधिकार है जिसके कारण समाज में कुछ अलगाववादी तत्त्व सक्रिय हो गए हैं। इन सबको खत्म करने का ये तरीका कारगर हो सकता है।

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प्रश्न 4.
त्रिशंकु विधानसभा और गठबन्धन सरकार की इन बातों में नया क्या है? ऐसी बातें तो हम आए दिन सुनते रहते हैं।
उत्तर:
भारत में 1967 के चुनावों से गठबन्धन की राजनीति सामने आयी। त्रिशंकु विधानसभा और गठबंधन सरकार की घटना उन दिनों नई थी क्योंकि पहली बार चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, इसलिए अनेक गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने एकजुट होकर संयुक्त विधायक दल बनाया और गैर-कांग्रेसी सरकारों को समर्थन दिया। इसी कारण इन सरकारों को संयुक्त विधायक दल की सरकार कहा गया। लेकिन वर्तमान समय में भारतीय दलीय व्यवस्था का स्वरूप बदल गया है। बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण केन्द्र और राज्यों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाता और त्रिशंकु विधान सभा या संसद का निर्माण हो रहा है। इसलिए आज गठबन्धन सरकार या त्रिशंकुं संसद आम बात हो गई है।

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प्रश्न 5.
इसका मतलब यह है कि राज्य स्तर के नेता पहले के समय में भी ‘किंगमेकर’ थे और इसमें कोई नयी बात नहीं है। मैं तो सोचती थी कि ऐसा केवल 1990 के दशक में हुआ।
उत्तर:
पार्टी के ऐसे ताकतवर नेता जिनका पार्टी संगठन पर पूर्ण नियन्त्रण होता है उन्हें ‘किंगमेकर’ कहा जाता है प्रधानमन्त्री हो या मुख्यमन्त्री, इनकी नियुक्ति में इनकी विशेष भूमिका होती है। भारत में राज्य स्तर पर किंगमेकर्स की शुरुआत केवल 1990 के दशक में नहीं बल्कि इससे पहले भी इस प्रकार की स्थिति पायी जाती थी। भारत में पहले कांग्रेसी नेताओं के एक समूह को अनौपचारिक तौर पर सिंडिकेट के नाम से इंगित किया जाता था। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर नियन्त्रण था। मद्रास प्रान्त के कामराज, मुम्बई सिटी के एस.के. पाटिल, मैसूर के एस. निजलिंगप्पा, आन्ध्र प्रदेश के एन. संजीव रेड्डी और पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष इस संगठन में शामिल थे। लाल बहादुर शास्त्री एवं श्रीमती इन्दिरा गाँधी, दोनों ही सिंडिकेट की सहायता से प्रधानमन्त्री पद पर आरूढ़ हुए।

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प्रश्न 6.
गरीबी हटाओ का नारा तो अब से लगभग चालीस साल पहले दिया गया था। क्या यह नारा महज एक चुनावी छलावा था?
उत्तर:
गरीबी हटाओ का नारा श्रीमती गाँधी ने तत्कालीन समय व परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दिया। उन्होंने विपक्षी गठबन्धन द्वारा दिये गये इन्दिरा हटाओ नारे के विपरीत लोगों के सामने एक सकारात्मक कार्यक्रम रखा और इसे अपने मशहूर नारे ‘गरीबी हटाओ’ के जरिए एक शक्ल प्रदान की। इन्दिरा गाँधी ने सार्वजनिक क्षेत्र की संवृद्धि, ग्रामीण भू-स्वामित्व और शहरी सम्पदा के परिसीमन, आय और अवसरों की असमानता की समाप्ति तथा प्रिवीपर्स की समाप्ति पर अपने चुनाव अभियान में जोर दिया।

गरीबी हटाओ के नारे से श्रीमती गाँधी ने वंचित तबकों खासकर भूमिहीन किसान, दलित और आदिवासियों, अल्पसंख्यक महिलाओं और बेरोजगार नौजवानों के बीच अपने समर्थन का आधार तैयार करने की कोशिश की। लेकिन 1971 के भारत-पाक युद्ध और विश्व स्तर पर पैदा हुए तेल संकट के कारण गरीबी हटाओ का नारा कमजोर पड़ गया। 1971 में इन्दिरा गाँधी द्वारा दिया गया यह नारा महज पाँच साल के अन्दर ही असफल हो गया और 1977 में इन्दिरा गांधी को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार यह नारा महज एक चुनावी छलावा साबित हुआ।

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प्रश्न 7.
यह तो कुछ ऐसा ही है कि कोई मकान की बुनियाद और छत बदल दे फिर भी कहे कि मकान वही है। पुरानी और नयी कांग्रेस में कौनसी चीज समान थी?
उत्तर:
1969 में कांग्रेस के विभाजन तथा कामराज योजना के तहत कांग्रेस पार्टी की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया। श्रीमती इन्दिरा गाँधी और उनके साथ अन्य युवा नेताओं ने कांग्रेस पार्टी को नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। यह पार्टी पूर्णतः अपने सर्वोच्च नेता की लोकप्रियता पर आश्रित थी। पुरानी कांग्रेस की तुलना में इसका सांगठनिक ढाँचा कमजोर था। अब इस पार्टी के भीतर कई गुट नहीं थे। अर्थात् अब यह कांग्रेस विभिन्न मतों और हितों को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी नहीं थी। इस प्रकार इन्दिरा कांग्रेस के बारे में यह कहा जा सकता है कि इसकी बुनियाद और छत बदल दी गई थी, लेकिन नाम वही था। पुरानी और नई कांग्रेस में एक बात समान थी कि दोनों को ही लोकप्रियता में समान स्थान प्राप्त था। पार्टी के सर्वोच्च नेता पर आश्रितता की नीति में भी कोई परिवर्तन नहीं आया तथा कांग्रेस की मूल विचारधारा में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया।

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प्रश्न 1.
1967 के चुनावों के बारे में निम्नलिखित में कौन-कौन से बयान सही हैं:
(क) कांग्रेस लोकसभा के चुनाव में विजयी रही, लेकिन कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव वह हार गई।
(ख) कांग्रेस लोकसभा के चुनाव भी हारी और विधानसभा के भी।
(ग) कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला, लेकिन उसने दूसरी पार्टियों के समर्थन से एक गठबन्धन सरकार बनाई।
(घ) कांग्रेस केन्द्र में सत्तासीन रही और उसका बहुमत भी बढ़ा।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही

प्रश्न 2.
निम्नलिखित का मेल करें:

(क) सिंडिकेट (i) कोई निर्वाचित जन-प्रतिनिधि जिस पार्टी के टिकट से जीता हो, उस पार्टी को छोड़कर अगर दूसरे दल में चला जाए।
(ख) दल-बदल (ii) लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला एक मनभावन मुहावरा।
(ग) नारा (iii) कांग्रेस और इसकी नीतियों के खिलाफ अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियों का एकजुट होना।
(घ) गैर-कांग्रेसवाद (iv) कांग्रेस के भीतर ताकतवर और प्रभावशाली नेताओं का एक समूह।

उत्तर:

(क) सिंडिकेट (iv) कांग्रेस के भीतर ताकतवर और प्रभावशाली नेताओं का एक समूह।
(ख) दल-बदल (i) कोई निर्वाचित जन-प्रतिनिधि जिस पार्टी के टिकट से जीता हो, उस पार्टी को छोड़कर अगर दूसरे दल में चला जाए।
(ग) नारा (ii) लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला एक मनभावन मुहावरा।
(घ) गैर-कांग्रेसवाद (iii) कांग्रेस और इसकी नीतियों के खिलाफ अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियों का एकजुट होना।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित नारे से किन नेताओं का सम्बन्ध है?
(क) जय जवान, जय किसान
(ख) इन्दिरा हटाओ
(ग) गरीबी हटाओ।
उत्तर:
(क) लालबहादुर शास्त्री
(ख) विपक्षी गठबंधन
(ग) श्रीमती इन्दिरा गाँधी।

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प्रश्न 4.
1971 के ‘ग्रैंड अलायंस’ के बारे में कौनसा कथन ठीक है?
(क) इसका गठन गैर- कम्युनिस्ट और गैर-कांग्रेसी दलों ने किया था।
(ख) इसके पास एक स्पष्ट राजनीतिक तथा विचारधारात्मक कार्यक्रम था।
(ग) इसका गठन सभी गैर-कांग्रेसी दलों ने एकजुट होकर किया था।
उत्तर:
(क) इसका गठन गैर- कम्युनिस्ट और गैर-कांग्रेसी दलों ने किया था।

प्रश्न 5.
किसी राजनीतिक दल को अपने अंदरूनी मतभेदों का समाधान किस तरह करना चाहिए? यहाँ कुछ समाधान दिए गए हैं। प्रत्येक पर विचार कीजिए और उसके सामने उसके फायदों और घाटों को लिखिए।
(क) पार्टी के अध्यक्ष द्वारा बताए गए मार्ग पर चलना।
(ख) पार्टी के भीतर बहुमत की राय पर अमल करना।
(ग) हरेक मामले पर गुप्त मतदान कराना।
(घ) पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं से सलाह करना।
उत्तर:
(क) लाभ – पार्टी के अध्यक्ष द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने से पार्टी में एकता और अनुशासन की भावना का विकास होगा। हानि – इससे एक व्यक्ति की तानाशाही या निरंकुशता स्थापित होने का खतरा बढ़ जाता है।

(ख) लाभ – मतभेदों को दूर करने के लिए बहुमत की राय जानने से यह लाभ होगा कि इससे अधिकांश की राय का पता चलेगा तथा पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र बढ़ेगा। हानि – बहुमत की राय मानने से अल्पसंख्यकों की उचित बात की अवहेलना की सम्भावना बनी रहेगी। (ग) लाभ – पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाने से प्रत्येक सदस्य अपनी बात स्वतन्त्रतापूर्वक रख सकेगा। यह पद्धति अधिक लोकतांत्रिक तथा निष्पक्ष है। हानि – गुप्त मतदान में क्रॉस वोटिंग का खतरा बना रहता है।

(घ) लाभ – पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की सलाह का विशेष लाभ होगा, क्योंकि वरिष्ठ नेताओं के पास अनुभव होता है तथा सभी सदस्य उनका आदर करते हैं। हानि – वरिष्ठ एवं अनुभवी व्यक्ति नये विचारों एवं मूल्यों को अपनाने से कतराते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किसे / किन्हें 1967 के चुनावों में कांग्रेस की हार के कारण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए:
(क) कांग्रेस पार्टी में करिश्माई नेता का अभाव।
(ख) कांग्रेस पार्टी के भीतर टूट।
(ग) क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक समूहों की लामबंदी को बढ़ाना।
(घ) गैर-कांग्रेसी दलों के बीच एकजुटता।
(ङ) कांग्रेस पार्टी के अन्दर मतभेद।
उत्तर:
(कं) इसको कांग्रेस की हार के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि कांग्रेस के पास अनेक वरिष्ठ और करिश्माई नेता थे

(ख) यह कांग्रेस पार्टी की हार का सबसे बड़ा कारण था क्योंकि कांग्रेस दो गुटों में बँटती जा रही थी युवा तुर्क और सिंडिकेट युवा तुर्क (चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर. के. सिन्हा) तथा सिंडिकेट (कामराज, एस. के पाटिल, अतुल्य घोष एवं निजलिंगप्पा) के बीच आपसी फूट के कारण कांग्रेस पार्टी को 1967 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा।

(ग) 1967 में पंजाब में अकाली दल, तमिलनाडु में डी. एम. के. जैसे दल अनेक राज्यों में क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक दलों के रूप में उभरे जिससे कांग्रेस प्रभाव व विस्तार क्षेत्र में कमी आयी तथा कई राज्यों में उसे सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

(घ) गैर-कांग्रेसी दलों के बीच पूर्णरूप से एकजुटता नहीं थी लेकिन जिन-जिन प्रान्तों में ऐसा हुआ वहाँ वामपंथियों अथवा गैर-कांग्रेसी दलों को लाभ मिला।
(ङ) कांग्रेस पार्टी के अन्दर मतभेद के कारण बहुत जल्दी ही आन्तरिक फूट कालान्तर में सभी के सामने आ गई और लोग यह मानने लगे कि 1967 के चुनाव में कांग्रेस की हार के कई कारणों में से यह कारण भी एक महत्त्वपूर्ण था।

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प्रश्न 7.
1970 के दशक में इन्दिरा गाँधी की सरकार किन कारणों से लोकप्रिय हुई थी?
उत्तर:
1970 के दशक में श्रीमती गाँधी की लोकप्रियता के कारण – 1970 के दशक में श्रीमती गाँधी की लोकप्रियता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
1. करिश्मावादी नेता:
इन्दिरा गाँधी कांग्रेस पार्टी की करिश्मावादी नेता थीं। वह भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री की पुत्री थीं और उन्होंने स्वयं को गाँधी-नेहरू परिवार का वास्तविक राजनीतिक उत्तराधिकारी बताया। वह देश की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री होने के कारण महिला मतदाताओं में अधिक लोकप्रिय हुईं।

2. प्रगतिशील कार्यक्रमों की घोषणा:
इन्दिरा गाँधी द्वारा 20 सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत करना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना, प्रिवीपर्स को समाप्त करना, श्री वी.वी. गिरि जैसे मजदूर नेता को दल के घोषित प्रत्याशी के विरुद्ध चुनाव जिता कर लाना आदि ने उनकी लोकप्रियता को बढ़ाया ।

3. कुशल एवं साहसिक चुनावी रणनीति:
इंदिरा गाँधी ने एक साधारण से सत्ता संघर्ष को विचारधारात्मक संघर्ष में बदल दिया । उन्होंने अपनी वामपंथी नीतियों की घोषणा कर जनता को यह दर्शाने में सफलता पाई कि कांग्रेस का सिंडीकेट धड़ा इन नीतियों के मार्ग में बाधाएँ डाल रहा है। चुनावों में श्रीमती गाँधी को इसका लाभ मिला।

4. भूमि सुधार कानूनों का क्रियान्वयन:
श्रीमती गाँधी ने भूमि सुधार कानूनों के क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त अभियान चलाया तथा उन्होंने भू-परिसीमन के कुछ और कानून भी बनाए। जिसका प्रभाव चुनाव में उनके पक्ष में गया।

प्रश्न 8.
1960 के दशक की कांग्रेस पार्टी के सन्दर्भ में सिंडिकेट का क्या अर्थ है? सिंडिकेट ने कांग्रेस पार्टी में क्या भूमिका निभाई?
उत्तर:
सिंडिकेट का अर्थ- कांग्रेसी नेताओं के एक समूह को एक अनौपचारिक रूप से सिंडिकेट के नाम से पुकारा जाता था। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर अधिकार एवं नियन्त्रण था। सिंडिकेट के अगुआ के. कामराज थे। इसमें विभिन्न प्रान्तों के ताकतवर नेता जैसे बम्बई सिटी (अब मुम्बई) के एस. के. पाटिल, मैसूर ( अब कर्नाटक) के एस. निजलिंगप्पा, आन्ध्र प्रदेश के एन. संजीव रेड्डी और पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष शामिल थे। भूमिका – इन्दिरा गाँधी के पहले मन्त्रिमण्डल में इस समूह की निर्णायक भूमिका रही।

इसने तब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में भी अहम भूमिका निभायी थी। कांग्रेस का विभाजन होने के बाद सिंडिकेट के नेता कांग्रेसी कांग्रेस (ओ) में ही रहे । चूँकि इन्दिरा गाँधी की कांग्रेस (आर) ही लोकप्रियता की कसौटी पर सफल रही, इसलिए ये ताकतवर नेता 1971 के बाद प्रभावहीन हो गए।

प्रश्न 9.
कांग्रेस पार्टी किन मसलों को लेकर 1969 में टूट की शिकार हुई? कांग्रेस के 1969 के विभाजन के लिए उत्तरदायी किन्हीं पाँच कारकों का परीक्षण कीजिए।
अथवा
1969 में कांग्रेस में विभाजन के क्या कारण थे?
उत्तर:
1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन या टूट के कारण 1969 में कांग्रेस के विभाजन एवं टूट के निम्नलिखित कारण थे:

  1. दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधाराओं के समर्थकों के मध्य कलह: 1967 के चौथे आम चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के कुछ नेता दक्षिणपंथी विचारधारा वालों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहते थे और कुछ वामपंथी विचारधारा वाले दलों के साथ। कांग्रेस के नेताओं की यह कलह उसके विभाजन का मुख्य कारण बनी।
  2. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन को लेकर मतभेद: 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस द्वारा समर्थित उम्मीदवार एन. संजीव रेड्डी को श्रीमती गाँधी व उनके समर्थकों ने मत न देकर एक स्वतन्त्र उम्मीदवार वी. वी. गिरि को समर्थन दिया। जिससे चुनाव में वी.वी. गिरि जीत गये। यह घटना कांग्रेस पार्टी के विभाजन का प्रमुख कारण बनी।
  3. युवा तुर्क एवं सिंडिकेट के बीच कलह: 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन का एक कारण युवा तुर्क (चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर. के. सिन्हा) तथा सिंडिकेट (कामराज, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष एवं निजलिंगप्पा ) के बीच होने वाली कलह भी रही।
  4. वित्त विभाग, मोरारजी देसाई से वापस लेना: श्रीमती गाँधी की मोरारजी देसाई से वित्त विभाग को वापस लेने तथा बैंक राष्ट्रीयकरण के प्रस्ताव को मन्त्रिमण्डल में सर्वसम्मति से पारित कर देने की कार्यवाही ने भी कांग्रेस विभाजन को मुखरित किया।
  5. सिंडीकेट द्वारा श्रीमती गाँधी को पद से हटाने का प्रयास: 1969 में कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार के चुनाव हार जाने के बाद सिंडीकेट ने प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को पद से हटाने का प्रयास किया परन्तु वे इसमें सफल न हो सके। उपर्युक्त घटनाओं के कारण कांग्रेस में आन्तरिक कलह इस कदर बढ़ गया कि नवम्बर, 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अनुच्छेद को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें:
इन्दिरा गाँधी ने कांग्रेस को अत्यन्त केन्द्रीकृत और अलोकतान्त्रिक पार्टी संगठन में तब्दील कर दिया, जबकि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस शुरुआती दशकों में एक संघीय, लोकतान्त्रिक और विचारधाराओं के समाहार का मंच थी। नयी और लोकलुभावन राजनीति ने राजनीतिक विचारधारा को महज चुनावी विमर्श में बदल दिया। कई नारे उछाले गए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि उसी के अनुकूल सरकार की नीतियाँ भी बनानी थीं- 1970 के दशक के शुरुआती सालों में अपनी बड़ी चुनावी जीत के जश्न के बीच कांग्रेस एक राजनीतिक संगठन के तौर पर मर गई।
(क) लेखक के अनुसार नेहरू और इन्दिरा गाँधी द्वारा अपनाई गई रणनीतियों में क्या अन्तर था?
(ख) लेखक ने क्यों कहा है कि सत्तर के दशक में कांग्रेस ‘मर गई’?
(ग) कांग्रेस पार्टी में आए बदलावों का असर दूसरी पार्टियों पर किस तरह पड़ा?
उत्तर:
(क) जवाहर लाल नेहरू की तुलना में उनकी पुत्री और तीसरी प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने कांग्रेस पार्टी को बहुत ज्यादा केन्द्रीकृत और अलोकतान्त्रिक पार्टी संगठन के रूप में बदल दिया। नेहरू के काल में यह पार्टी संघीय लोकतान्त्रिक और विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले कांग्रेसी नेता और यहाँ तक कि विरोधियों को साथ लेकर चलने वाले एक मंच के रूप में कार्य करती थी।

(ख) लेखक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सत्तर के दशक में कांग्रेस की सर्वोच्च नेता श्रीमती इन्दिरा गाँधी एक अधिनायकवादी नेता थीं। उन्होंने मनमाने ढंग से मन्त्रिमण्डल और दल का गठन किया तथा पार्टी में विचार-विमर्श प्रायः मर गया।

(ग) कांग्रेस पार्टी में आए बदलाव के कारण दूसरी पार्टियों में परस्पर एकता बढ़ी। वे जनता पार्टी के रूप में लोगों के सामने आये। 1977 के चुनावों में विरोधी दलों ने कांग्रेस का सफाया कर दिया।

कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना JAC Class 12 Political Science Notes

→ पण्डित नेहरू के शासन काल में देश के सभी भागों में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व बना रहा तथा कोई भी राजनीतिक पार्टी कांग्रेसी वर्चस्व को चुनौती देने में सक्षम नहीं थी। लेकिन नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस नेतृत्व के लिए अनेक चुनौतियाँ उत्पन्न होने लगीं।

→ राजनीतिक उत्तराधिकार की चुनौती:
राजनीतिक उत्तराधिकार की चुनौती मई, 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद उत्पन्न हुई जिसे लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमन्त्री बनने के साथ ही हल कर लिया गया। शास्त्री 1964 1966 तक प्रधानमंत्री रहे। 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर के बाद शास्त्रीजी के निधन के उपरान्त फिर राजनीतिक उत्तराधिकार का मामला उठा। लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इन्दिरा गाँधी को देश की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री और तीसरा प्रधानमन्त्री बनने का अवसर मिला । उन्होंने अपने प्रतियोगी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई को पराजित किया। इन्दिरा गाँधी 1966 से 1977 तक और फिर 1980 से 1984 तक प्रधानमन्त्री पद पर रहीं। 1984 में उनकी हत्या कर दी गई।

→ चौथा आम चुनाव 1967:
भारतीय चुनावी राजनीति के इतिहास में 1967 के वर्ष को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। 1952 के बाद से पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का जो दबदबा कायम था वह 1967 के चुनावों में समाप्त हो गया।

→ चुनावों का सन्दर्भ:
1960 के दशक में अनेक कारणों से देश गम्भीर आर्थिक संकट में था। आर्थिक स्थिति की विकटता के कारण कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई, खाद्यान्न की कमी तथा बढ़ती बेरोजगारी से लोगों की स्थिति बदतर हो गई और लोग सरकार के विरोध में उतर आये। कांग्रेस सरकार इसे भाँप नहीं सकी। मार्क्सवादी समाजवादी दल से अलग हुए मार्क्सवादी-लेनिनवादी गुट ने सशस्त्र कृषक विद्रोह का नेतृत्व किया तथा किसानों को संगठित किया। तीसरे, इस काल में गम्भीर साम्प्रदायिक दंगे भी हुए।

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→ गैर-कांग्रेसवाद:
कांग्रेस विरोधी वोटों को चुनाव में बंटने से रोकने के लिए सभी विरोधी दलों ने एकजुट होकर सभी राज्यों में एक कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाया जिसे राममनोहर लोहिया ने ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का नारा दिया।

चुनाव का जनादेश तथा गठबन्धन सरकारें: व्यापक जन- असन्तोष और राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण के इस माहौल में 1967 के चौथे आम चुनाव हुए। इन चुनावों को कांग्रेस को जैसे-तैसे लोकसभा में तो बहुमत मिल गया लेकिन उसकी सीटों की संख्या में भारी गिरावट आयी। सात राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। 2 अन्य राज्यों में भी दल-बदल के कारण कांग्रेस सरकार नहीं बना सकी। मद्रास में डी.एम. के. ने सरकार बनायी तथा अन्य 8 राज्यों में गठबन्धन की सरकारें बनीं।

→ दल – बदल: 1967 से देश में राजनीति दल-बदल और ‘ आया राम-गया राम’ की राजनीति शुरू हुई, जिसकी वजह से भारतीय लोकतन्त्र को अस्थायी रूप से गहरा आघात लगा। कांग्रेस सिंडिकेट और इंडिकेट या पुरानी कांग्रेस और नई कांग्रेस के नाम से विभाजित हो गयी।

→ कांग्रेस में विभाजन:
1969 में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया, जिसके कई कारण थे, जैसे- दक्षिणपंथी एवं वामपंथी विषय पर कलह, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के विषय में मतभेद, युवा तुर्क एवं सिंडीकेट के बीच कलह तथा मोरारजी से वित्त विभाग वापस लेना इत्यादि।

→ इंदिरा बनाम सिंडिकेट:
इंदिरा गाँधी को असली चुनौती विपक्ष से नहीं अपितु अपनी पार्टी के भीतर से मिली। उन्हें सिंडिकेट से निपटना पड़ा। ‘सिंडिकेट’ कांग्रेस के भीतर ताकतवर और प्रभावशाली नेताओं का एक समूह था। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर नियंत्रण था। इसके अगुवा मद्रास प्रांत के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रह चुके के. कामराज थे। ‘सिंडिकेट’ ने इंदिरा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन नेताओं को उम्मीद थी कि इंदिरा गाँधी उनकी सलाहों पर अमल करेंगी लेकिन इसके विपरीत इंदिरा गाँधी ने सरकार और पार्टी के भीतर खुद का मुकाम बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे और बड़ी सावधानी से उन्होंने सिंडिकेट को हाशिए पर ला खड़ा किया।

इस तरह इंदिरा गाँधी ने दो चुनौतियों का सामना किया। उन्हें ‘सिंडिकेट’ के प्रभाव से स्वतंत्र अपना मुकाम बनाया और 1967 के चुनावों में कांग्रेस ने जो जमीन खोयी थी उसे हासिल किया। 1967 में कांग्रेस कार्यसमिति ने दस सूत्री कार्यक्रम अपनाया। इस कार्यक्रम में बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण, आम बीमा के राष्ट्रीयकरण, शहरी संपदा और आय के परिसीमन, खाद्यान्न का सरकारी वितरण, भूमि सुधार तथा ग्रामीण गरीबों को आवासीय भूखंड देने के प्रावधान शामिल थे।

→ राष्ट्रपति पद का चुनाव, 1969:
सिंडिकेट और इंदिरा गाँधी के बीच की गुटबाजी 1969 में राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय सामने आ गई। तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के कारण राष्ट्रपति का पद खाली था। इंदिरा गाँधी की असहमति के बावजूद सिंडिकेट ने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष को कांग्रेस पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया। इंदिरा गाँधी ने ऐसे समय में तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरि को बढ़ावा दिया कि वे राष्ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरें।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 5 कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना

→ 1971 का चुनाव और कांग्रेस का पुनर्स्थापन:
1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद यद्यपि इन्दिरा गाँधी की सरकार अल्पमत में आ गयी थी, लेकिन वह डी. एम. के. तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से टिकी रही। अब श्रीमती गाँधी की सरकार ने भूमि सुधार कानूनों के क्रियान्वयन, भू-परिसीमन के कानून, बैंक राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवी पर्स की समाप्ति आदि के द्वारा अपना समाजवादी रंग पेश किया तथा 1970 में लोकसभा भंग कर 1971 में चुनाव कराएं। 1971 के चुनावों में श्रीमती इन्दिरा गाँधी को ऐतिहासिक जीत प्राप्त हुई। श्रीमती इन्दिरा गाँधी की जीत के कई कारण थे, जैसे- श्रीमती गाँधी का चमत्कारिक नेतृत्व, समाजवादी नीतियाँ, कांग्रेसी दल पर श्रीमती गाँधी की पकड़, श्रीमती गाँधी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण तथा गरीबी हटाओ का नारा। 1971 के चुनावों में जहाँ श्रीमती गाँधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया, वहीं उनके विरोधियों ने इन्दिरा हटाओ का नारा दिया, जिसे मतदाताओं ने पसन्द नहीं किया तथा श्रीमती गाँधी के पक्ष में मतदान किया।

→ कांग्रेस की पुनर्स्थापना:
1971 के लोकसभा चुनावों के तुरन्त बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में एक बड़ा राजनीतिक और सैन्य संकट उठ खड़ा हुआ। 1971 के चुनावों के बाद पूर्वी पाकिस्तान के मुद्दे को लेकर युद्ध छिड़ गया। इसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना। इन घटनाओं से इन्दिरा गाँधी की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए। विपक्ष के नेताओं तक ने उसके राज्य कौशल की प्रशंसा की। 1972 के राज्य विधानसभा के चुनावों में उनकी पार्टी को व्यापक सफलता मिली। उन्हें गरीबों, वंचितों के रक्षक और एक मजबूत राष्ट्रवादी नेता के रूप में देखा गया। पार्टी के अन्दर अथवा बाहर उसके विरोध की कोई गुंजाइश न बची। कांग्रेस को लोकसभा चुनावों के साथ-साथ राज्य स्तर के चुनावों में भी भारी सफलता प्राप्त हुई।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 4 भारत के विदेश संबंध

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 4 भारत के विदेश संबंध Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 4 भारत के विदेश संबंध

Jharkhand Board Class 12 Political Science भारत के विदेश संबंध InText Questions and Answers

पृष्ठ 66

प्रश्न 1.
चौथे अध्याय में एक बार फिर से जवाहरलाल नेहरू ! क्या वे कोई सुपरमैन थे, या उनकी भूमिका महिमा मंडित कर दी गई है?
उत्तर:
जवाहर लाल नेहरू वास्तव में एक सुपरमैन की भूमिका में ही थे। उन्होंने न केवल भारत के स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी बल्कि स्वतंत्रता के पश्चात् भी उन्होंने राष्ट्रीय एजेण्डा तय करने में निर्णायक भूमिका निभायी। नेहरूजी प्रधानमन्त्री के साथ – साथ विदेश मन्त्री भी थे। उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। नेहरू की विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे-

  1. कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बचाए रखना,
  2. क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना और
  3. तेज रफ्तार से आर्थिक विकास करना। नेहरू इन उद्देश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

इसके अतिरिक्त पण्डित नेहरू द्वारा अपनायी गई राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रीयवाद व पंचशील की अवधारणा आज भी भारतीय विदेश नीति के आधार स्तम्भ माने जाते हैं।

पृष्ठ 68

प्रश्न 2.
हम लोग आज की बनिस्बत जब ज्यादा गरीब, कमजोर और नए थे तो शायद दुनिया में हमारी पहचान कहीं ज्यादा थी। हैं ना विचित्र बात?
उत्तर:
शीत युद्ध के दौरान दुनिया दो खेमों – पूँजीवादी और साम्यवादी – में विभाजित हो गई थी। लेकिन भारत ने अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाये रखने के लिए किसी भी खेमे में सम्मिलित न होने का निर्णय किया और स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी। इसी कारण से भारत की दुनिया में एक विशेष पहचान थी और दुनिया के अल्पविकसित और विकासशील देशों ने भारत की इस नीति का अनुसरण भी किया। लेकिन शीतयुद्ध के अन्त, बदलती विश्व व्यवस्था तथा वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता पर एक प्रश्न चिह्न लग गया है तथा उसका झुकाव भी अमेरिका की ओर किसी- न-किसी रूप में दिखाई दे रहा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज की बनिस्बत हम लोग जब ज्यादा गरीब, कमजोर और नए थे तो शायद दुनिया में हमारी पहचान ज्यादा थी।

पृष्ठ 72

प्रश्न 3.
“मैंने सुना है कि 1962 के युद्ध के बाद जब लता मंगेशकर ने ‘ऐ मेरे वतन के लोगो..’ गाया तो नेहरू भरी सभा में रो पड़े थे। बड़ा अजीब लगता है यह सोचकर कि इतने बड़े लोग भी किसी भावुक लम्हे में रो पड़ते हैं!”
उत्तर:
यह बिल्कुल सत्य है कि जिन लोगों में राष्ट्रवाद व देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई हो और उनके सामने राष्ट्र का गुणगान किया जाए तो ऐसे लोगों का भावुक होना स्वाभाविक है। जहाँ तक पण्डित नेहरू का सवाल है, वे महान राष्ट्रवादी नेता थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त राष्ट्र की सेवा की। इस गीत को सुनकर उनके आँसू इसलिए छलक पड़े क्योंकि इस गीत में देश के उन शहीदों की कुर्बानी की बात कही गयी थी जिन्होंने हँसते-हँसते अपनी जान न्यौछावर कर दी थी। उन्हीं की कुर्बानी ने देश को स्वतंत्रता दिलवायी थी।

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पृष्ठ 74

प्रश्न 4.
“हम ऐसा क्यों कहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ? नेता झगड़े और सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। ज्यादातर आम नागरिकों को इनसे कुछ लेना-देना न था।”
उत्तर:
भारत – पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में सेनाओं ने एक-दूसरी सेनाओं से संघर्ष किया तथा राजनेताओं ने इस संघर्ष की अनुमति दी। परन्तु युद्ध का प्रभाव आम जन-जीवन पर भी पड़ता है क्योंकि युद्ध के पीछे की परिस्थितियाँ आम नागरिकों पर भी प्रभाव डालती हैं। दूसरे, सैनिक भी आम नागरिकों में से ही होते हैं। शहीद सैनिकों के परिवारों को आंसुओं के घूँट पीने पड़ते हैं। जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि युद्ध चाहे नेताओं के वैचारिक स्तर पर हो अथवा सेनाओं के बीच हो, आम जन-जीवन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।

पृष्ठ 76

प्रश्न 5.
इस बात से तो ऐसा जान पड़ता है कि भारत सोवियत खेमे में शामिल हो गया था। क्या सोवियत संघ के साथ इस 20 वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बावजूद हम कह सकते हैं कि भारत गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल कर रहा था?
उत्तर:
1971 में हुई भारत – सोवियत मैत्री सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ, क्योंकि इस सन्धि के पश्चात् भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा। वह वारसा गुट में शामिल नहीं हुआ था। उसने अपनी प्रतिरक्षा के लिए बढ़ रहे खतरे, अमेरिका तथा पाकिस्तान में बढ़ रही घनिष्ठता व सहायता के कारण रूस से 20 वर्षीय संधि की थी। उसने संधि के बावजूद गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल किया। यही कारण है कि जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँचीं तो भारत ने इसकी आलोचना की। इसलिए यह कहना कि सोवियत मैत्री संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल नहीं किया, गलत है।

पृष्ठ 78

प्रश्न 6.
बड़ा घनचक्कर है! क्या यहाँ सारा मामला परमाणु बम बनाने का नहीं है? हम ऐसा सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते?
उत्तर:
भारत ने सन् 1974 में परमाणु परीक्षण किया तो इसे उसने शांतिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत ने मई, 1998 में परमाणु परीक्षण किए तथा यह जताया कि उसके पास सैन्य उद्देश्यों के लिए अणु शक्ति को प्रयोग में लाने की क्षमता है। इस दृष्टि से यह मामला यद्यपि परमाणु बम बनाने का ही था तथापि भारत की परमाणु नीति में सैद्धान्तिक तौर पर यह बात स्वीकार की गई है किं भारत अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार रखेगा लेकिन इन हथियारों का प्रयोग ‘पहले नहीं’ करेगा।

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प्रश्न 1.
इन बयानों के आगे सही या गलत का निशान लगाएँ-
(क) गुनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण भारत, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका, दोनों की सहायता हासिल कर सका।
(ख) अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्ध शुरूआत से ही तनावपूर्ण रहे।
(ग) शीतयुद्ध का असर भारत-पाक सम्बन्धों पर भी पड़ा।
(घ) 1971 की शान्ति और मैत्री की सन्धि संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत की निकटता का परिणाम थी।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित का सही जोड़ा मिलाएँ:

(क) 1950-64 के दौरान भारत की विदेश नीति का लक्ष्य (i) तिब्बत के धार्मिक नेता जो सीमा पार करके भारत चले आए।
(ख) पंचशील (ii) क्षेत्रीय अखण्डता और सम्प्रभुता की रक्षा तथा अर्थिक विकास।
(ग) बांडुंग सम्मेलन (iii) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धान्त।
(घ) दलाई
लामा
(iv) इसकी परिणति गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में हुई।

उत्तर:

(क) 1950-64 के दौरान भारत की विदेश नीति का लक्ष्य (ii) क्षेत्रीय अखण्डता और सम्प्रभुता की रक्षा तथा अर्थिक विकास।
(ख) पंचशील (iii) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धान्त।
(ग) बांडुंग सम्मेलन (iv) इसकी परिणति गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में हुई।
(घ) दलाई लामा (i) तिब्बत के धार्मिक नेता जो सीमा पार करके भारत चले आए।

प्रश्न 3.
नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतन्त्रता का एक अनिवार्य संकेतक क्यों मानते थे? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।
उत्तर:
नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतन्त्रता का एक अनिवार्य संकेत इसलिए मानते थे क्योंकि स्वतन्त्रता किसी भी देश की विदेश नीति के संचालन की प्रथम एवं अनिवार्य शर्त है। स्वतंत्रता से तात्पर्य है। राष्ट्र के पास प्रभुसत्ता का होना तथा प्रभुसत्ता के दो पक्ष हैं।

  1. आंतरिक संप्रभुता और
  2. बाह्य संप्रभुता। इसमें बाह्य संप्रभुता का सम्बन्ध विदेश नीति का स्वतन्त्रतापूर्वक बिना किसी दूसरे राष्ट्र के दबाव के संचालित करना है।

दो कारण और उदाहरण:

  1. जो देश किसी दबाव में आकर अपनी विदेश नीति का निर्धारण करता है तो उसकी स्वतंत्रता निरर्थक होती है तथा एक प्रकार से दूसरे देश के अधीन हो जाता है व उसे अनेक बार अपने राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी करनी पड़ती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए नेहरू ने शीत युद्ध काल में किसी भी गुट में शामिल न होने और असंलग्नता की नीति को अपनाकर दोनों गुटों के दबाव को नहीं माना।
  2. भारत स्वतन्त्र नीति को इसलिए अनिवार्य मानता था ताकि यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद, जातीय भेदभाव, रंग-भेदभाव का मुकाबला डटकर कर सके। भारत ने 1949 में साम्यवादी चीन को मान्यता प्रदान की तथा सुरक्षा परिषद् में उसकी सदस्यता का समर्थन किया और सोवियत संघ ने हंगरी पर जब आक्रमण किया तो उसकी निंदा की।

प्रश्न 4.
“ विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव में होता है।” 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनाई गई विदेश नीति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि करें।
उत्तर:
किसी देश की विदेश नीति पर घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण का असर पड़ता है। विकासशील देशों के पास अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भीतर अपने सरोकारों को पूरा करने के लिए जरूरी संसाधनों का अभाव होता है। ऐसे देशों का जोर इस बात पर होता है कि उनके पड़ोस में अमन-चैन कायम रहे और विकास होता रहे। 1960 के दशक में भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाना भी इसका उदाहरण माना जा सकता है। उदाहरणार्थ – तत्कालीन समय में भारत की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय थी, इसलिए उसने शीत युद्ध के काल में किसी भी गुट का समर्थन नहीं किया और दोनों ही गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करता रहा।

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प्रश्न 5.
अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन बातों को बदलना चाहेंगे? ठीक तरह यह भी बताएँ कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए
उत्तर:

  • भारतीय विदेश नीति में निम्न दो बदलाव लाना चाहूँगा-
    1. मैं वर्तमान एकध्रुवीय विश्व में भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति में बदलाव लाना चाहूँगा क्योंकि वर्तमान वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में गुट निरपेक्षता की नीति अप्रासंगिक हो गयी है।
    2. मैं भारत की विदेश नीति में चीन एवं पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार की नीति अपनाई जा रही है उसमें बदलाव लाना चाहूँगा, क्योंकि इसके वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।
  • इसके अतिरिक्त मैं भारतीय विदेश नीति के निम्नलिखित दो पहलुओं को बरकरार रखना चाहूँगा
    1. सी. टी.बी. टी. के बारे में वर्तमान दृष्टिकोण को और परमाणु नीति की वर्तमान नीति को जारी रखूँगा।
    2. मैं संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता जारी रखते हुए विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से सहयोग जारी रखूँगा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए-
(क) भारत की परमाणु नीति।
(ख) विदेश नीति के मामलों पर सर्व सहमति
उत्तर:
(क) भारत की परमाणु नीति- भारत ने मई, 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण करते हुए अपनी परमाणु नीति को नई दिशा प्रदान की। इसके प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं-

  1. आत्मरक्षार्थ – भारत ने आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का निर्माण किया, ताकि कोई अन्य देश भारत पर परमाणु हमला न कर सक।
  2. प्रथम प्रयोग नहीं – भारत ने परमाणु हथियारों का युद्ध में पहले प्रयोग न करने की घोषणा कर रखी है।
  3. भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना चाहता है तथा विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है।
  4. परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों की भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करना।

(ख) विदेश नीति के मामलों पर सर्व सहमति – विदेश नीति के मामलों पर सर्वसहमति आवश्यक है, क्योंकि यदि एक देश की विदेश नीति के मामलों में सर्वसहमति नहीं होगी, तो वह देश अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर अपना पक्ष प्रभावशाली ढंग से नहीं रख पायेगा। भारत की विदेश नीति के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं जैसे गुटनिरपेक्षता, साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध, दूसरे देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाना तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बढ़ावा देना इत्यादि पर सदैव सर्वसहमति रही है।

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प्रश्न 7.
भारत की विदेश नीति का निर्माण शान्ति और सहयोग के सिद्धान्तों को आधार मानकर हुआ। लेकिन, 1962-1971 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा। क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा आप इसे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे? अपने मंतव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
आजादी के समय भारत ने अपनी विदेश नीति का निर्माण शान्ति और सहयोग के सिद्धान्तों के आधार पर किया। परन्तु 1962 से लेकर 1971 तक भारत को तीन युद्ध लड़ने पड़े तो इसके पीछे कुछ हद तक भारत की विदेश नीति की असफलता भी मानी जाती है तथा अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम भी। यथा-
1. चीन का आक्रमण ( 1962 ):
चीन और भारत के दोस्ताना रिश्ते में गंभीर विवाद तब पैदा हुआ जब 1950 में चीन ने तिब्बत पर अपना अधिकार जमा लिया। क्योंकि इस वजह से भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक रूप से जो मध्यवर्ती राज्य बना चला आ रहा था, वह खत्म हो गया। शुरू में भारत (सरकार) ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया था । भारत की बेचैनी तब बढ़ी जब चीन ने तिब्बत की संस्कृति को दबाना शुरू किया। भारत और चीन के बीच एक सीमा विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। यह विवाद चीन से लगी लंबी सीमा रेखा के पश्चिमी और पूर्वी छोर के बारे में था। चीन ने भारतीय भू-क्षेत्र में पड़ने वाले अक्साई चीन और अरुणाचल प्रदेश के अधिकांश हिस्सों पर अपना दावा किया। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बीच लंबी चर्चा और वार्तालाप के बावजूद इस मतभेद को सुलझाया नहीं जा सका। इसलिए भारत को संघर्ष में शामिल होना पड़ा।

2. पाकिस्तान के साथ युद्ध-कश्मीर मसले को लेकर पाकिस्तान के साथ बँटवारे के तुरंत बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। 1947 में ही कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच छाया-युद्ध छिड़ गया था। 1965 में इस छाया-युद्ध ने गंभीर किस्म के सैन्य संघर्ष का रूप ले लिया। बाद में, भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और संजीव पास बुक्स पाकिस्तान के जनरल अयूब खान के बीच 1966 में ताशकंद – समझौता हुआ। 1965 की लड़ाई ने भारत की कठिन आर्थिक स्थिति को और गंभीर बना दिया था।

3. बांग्लादेश युद्ध, 1971-1970 में पाकिस्तान के सामने एक गहरा अंदरूनी संकट आ खड़ा हुआ। जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी पश्चिमी पाकिस्तान में विजयी रही जबकि मुजीबुर्रहमान की पार्टी ने पूर्वी पाकिस्तान में कामयाबी हासिल की। पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली आबादी ने पश्चिमी पाकिस्तान के भेदभावपूर्ण रवैये के विरोध में मतदान किया था, परंतु यह जनादेश पाकिस्तान के शासक स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।

1971 में पाकिस्तानी सेना ने शेख मुजीब को गिरफ्तार कर लिया और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर जुल्म करना शुरू कर दिया। फलस्वरूप पर्वी पाकिस्तान की जनता ने अपने इलाके को पाकिस्तान से मुक्त कराने के लिए संघर्ष छेड़ दिया। 1971 में भारत को 80 लाख शरणार्थियों का भार पठाना पड़ा। ये शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भागकर आए थे। उपर्युक्त कारणों की वजह से भारत ने बांग्लादेश के ‘मुक्ति संग्राम’ को नैतिक समर्थन और भौतिक सहायता दी।

महीनों राजनयिक तनाव और सैन्य तैनाती के बाद 1971 के दिसंबर में भारत और पाकिस्तान के बीच पूर्ण पैमाने पर युद्ध छिड़ गया। पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों ने पंजाब और राजस्थान पर हमला किया और उसकी सेना ने जम्मू- कश्मीर पर हमला किया। भारत ने अपनी जल, थल और वायु सेना द्वारा इस हमले का जवाब दिया। दस दिनों के भीतर भारतीय सेना ने ढाका को तीन तरफ से घेर लिया और पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा। तत्पश्चात् बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र राष्ट्र के उदय के साथ भारतीय सेना ने अपनी तरफ से एकतरफा युद्ध-विराम घोषित कर दिया। बाद में 3 जुलाई, 1972 को इंदिरा गाँधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौता हुआ। अधिकांश भारतीयों ने इसे गौरव की घड़ी के रूप में देखा और माना कि भारत का सैन्य-पराक्रम प्रबल हुआ है।

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प्रश्न 8.
क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है? 1971 के बांग्लादेश युद्ध के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।
उत्तर:
भारत की विदेश नीति से यह बिल्कुल नहीं झलकता कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। 1971 के बांग्लादेश युद्ध के सन्दर्भ में देखें तो भी ऐसा प्रतीत नहीं होता। बांग्लादेश के निर्माण के लिए स्वयं पाकिस्तान की पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षापूर्ण नीतियाँ, बंगालियों की अपनी भाषा, संस्कृति के प्रति अटूट प्यार व गहरी आस्था को माना जा सकता है। दूसरे, भारत ने कभी भी अपने छोटे-छोटे पड़ौसी देशों को अमेरिका की तरह अपने गुट में सम्मिलित करने का प्रयास नहीं किया बल्कि 1965 तथा 1971 में जीते गये क्षेत्रों को भी वापस कर दिया। इस प्रकार भारत बलपूर्वक किसी देश पर बात मनवाना नहीं चाहता।

प्रश्न 9.
किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर:
किसी भी देश की विदेश नीति के निर्धारण में उस देश के राजनीतिक नेतृत्व की विशेष भूमिका होती है उदाहरण के लिए, पण्डित नेहरू के विचारों से भारत की विदेश नीति पर्याप्त प्रभावित हुई। पण्डित नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व फासिस्टवाद के घोर विरोधी थे और वे समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण मार्ग के समर्थक थे । वह मैत्री, सहयोग व सहअस्तित्व के प्रबल समर्थक थे। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचारों द्वारा भारत की विदेश नीति के ढाँचे को ढाला।

इसी प्रकार श्रीमती इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व व व्यक्तित्व की भी भारत की विदेश नीति पर स्पष्ट छाप दिखाई देती है। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, गरीबी हटाओ का नारा दिया और रूस के साथ दीर्घ अनाक्रमण सन्धि की। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति में देश में परमाणु शक्ति का विकास हुआ। उन्होंने ‘जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान’ का नारा दिया। इस प्रकार देश का राजनीतिक नेतृत्व उस राष्ट्र की विदेश नीति पर प्रभाव डालता है।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए : गुटनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है अपने को किसी भी सैन्य गुट में शामिल नहीं करना… इसका अर्थ होता है चीजों को यथासम्भव सैन्य दृष्टिकोण से न देखना और इसकी कभी जरूरत आन पड़े तब भी किसी सैन्य गुट के नजरिए को अपनाने की जगह स्वतन्त्र रूप से स्थिति पर विचार करना तथा सभी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करना…..
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी क्यों बनाना चाहते थे? – जवाहरलाल नेहरू
(ख) क्या आप मानते हैं कि भारत – सोवियत मैत्री की सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(ग) अगर सैन्य – गुट न होते तो क्या गुटनिरपेक्षता की नीति बेमानी होती?
उत्तर:
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी बनाना चाहते थे क्योंकि वे किसी भी सैनिक गुट में शामिल न होकर एक स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करना चाहते थे।

(ख) भारत – सोवियत मैत्री सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ, क्योंकि इस सन्धि के पश्चात् भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा तथा जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँचीं तो भारत ने इसकी आलोचना की ।

(ग) यदि विश्व में सैनिक गुट नहीं होते तो भी गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता बनी रहती, क्योंकि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना शान्ति एवं विकास के लिए की गई थी तथा शान्ति एवं विकास के लिए चलाया गया कोई भी आन्दोलन कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता।

भारत के विदेश संबंध JAC Class 12 Political Science Notes

→ अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ:
भारत बड़ी विकट और चुनौतीपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में आजाद हुआ था, जैसे महायुद्ध की तबाही, पुनर्निर्माण की समस्या, उपनिवेशवाद की समाप्ति, लोकतन्त्र को कायम करना तथा एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का निर्माण करना आदि की चुनौतियाँ विश्व के समक्ष थीं। इसके अतिरिक्त भारत के समक्ष अनेक विषम घरेलू परिस्थितियाँ भी थीं, जैसे बंटवारे का दबाव, गरीबी तथा अशिक्षा आदि। ऐसे में भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य सभी देशों की सम्प्रभुता का सम्मान करने और शान्ति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सामने रखा।

→ संवैधानिक सिद्धान्त:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के हवाले से कहा गया है कि राज्य को विदेशों से सम्बन्ध बनाये रखने हेतु निम्न निर्देशों का पालन करना अनिवार्य है-

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा में अभिवृद्धि करना।
  • राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखना।
  • संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और संधि – बाध्यताओं के प्रति आदर की भावना रखना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने का प्रयास करना।

→ गुटनिरपेक्षता की नीति:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद दुनिया दो खेमों (सैनिक गुटों) में विभाजित हो गई । एक खेमे का अगुआ संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे का सोवियत संघ। दोनों खेमों के बीच विश्व स्तर पर आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य टकराव जारी रहा। इसी दौर में संयुक्त राष्ट्रसंघ भी अस्तित्व में आया; परमाणु हथियारों का निर्माण शुरू हुआ; चीन में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना हुई । अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया भी इसी दौर में आरंभ हुई थी। नेहरू की भूमिका – पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने भारत के प्रधानमन्त्री व विदेश मन्त्री के रूप में भारत की विदेश नीति की रचना की और इसके क्रियान्वयन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। नेहरू की विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे

  • कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बचाये रखना,
  • क्षेत्रीय अखण्डता को बनाये रखना, और
  • तेज रफ्तार से आर्थिक विकास करना नेहरू इन उद्देश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 4 भारत के विदेश संबंध

→ दोनों खेमों से दूरी:
आजाद भारत की विदेश नीति में शान्तिपूर्ण विश्व का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। इसके लिए भारत ने शीतयुद्ध से उपजे तनाव को कम करने की कोशिश की और संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति अभियानों में अपनी सेना भेजी। भारत शीतयुद्ध के दौरान किसी भी खेमे में शामिल नहीं हुआ।

→ एफ्रो-एशियाई एकता:
भारत के आकार, अवस्थिति और शक्ति सम्भावनाओं को देखते हुए नेहरू ने विश्व के मामलों, विशेषकर एशियाई मामलों में भारत के लिए बड़ी भूमिका निभाने का स्वप्न देखा। नेहरू के दौर में भारत ने एशिया और अफ्रीका के नव- स्वतन्त्र देशों के साथ सम्पर्क बनाए। 1940 और 1950 के दशकों में नेहरू ने बड़े मुखर स्वर में एशियाई एकता की पेशकश की। नेहरू की अगुआई में भारत में मार्च, 1947 में एशियाई सम्बन्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया। भारत ने इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन किया।

भारत अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का प्रबल समर्थक था और उसने पूरी दृढ़ता से नस्लवाद का, खासकर दक्षिण अफ्रीका में हो रहे रंगभेद का विरोध किया । इण्डोनेशिया के शहर बांडुंग में एफ्रो-एशियाई सम्मेलन 1955 में हुआ। इसी सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मेलन 1961 के सितंबर में बेलग्रेड में हुआ।

→ चीन के साथ शान्ति और संघर्ष:
आजाद भारत ने चीन के साथ अपने रिश्तों की शुरूआत बड़े मैत्रीपूर्ण ढंग से की। चीनी क्रान्ति 1949 में हुई थी। इस क्रान्ति के बाद भारत, चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश था। इसके अतिरिक्त शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानी पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख नेता चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 को की। दोनों देशों के बीच मजबूत सम्बन्ध की दिशा में यह एक अगला कदम था। भारत और चीन के नेता एक-दूसरे के देश का दौरा करते थे और उनके स्वागत के लिए भारी भीड़ जुटती थी।

→ चीन का आक्रमण, 1962:
चीन के साथ भारत के दोस्ताना रिश्ते में दो कारणों से खटास आई। चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तिब्बत की संस्कृति को कुचलने की खबर आने पर भारत की बेचैनी भी बढ़ी। तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण माँगी और 1959 में भारत ने उन्हें शरण दे दी। इससे कुछ दिनों पहले भारत और चीन के बीच सीमा विवाद भी उठा था। मुख्य विवाद चीन से लगी लंबी सीमा-रेखा के पश्चिमी और पूर्वी छोर के बारे में था। चीन ने भारतीय भू-क्षेत्र में पड़ने वाले दो इलाकों जम्मू-कश्मीर के लद्दाख वाले हिस्से के अक्साई चीन और अरुणाचल प्रदेश के अधिकांश हिस्सों पर अपना अधिकार जताया। 1957. से 1959 के बीच चीन ने अक्साई चीन इलाके पर कब्जा कर लिया और इस इलाके में उसने रणनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए एक सड़क बनाई।

जिस समय पूरे विश्व का ध्यान दो महाशक्तियों की तनातनी से पैदा इस संकट की तरफ लगा हुआ था, उसी समय चीन ने 1962 के अक्टूबर में दोनों विवादित क्षेत्रों पर बड़ी तेजी तथा व्यापक स्तर पर हमला किया। पहले हमले में चीनी सेना ने अरुणाचल प्रदेश के कुछ महत्त्वपूर्ण इलाकों पर कब्जा कर लिया। दूसरे हमले में लद्दाख से लगे पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना ने चीनी सेना को रोक लिया था परंतु पूर्व में चीनी सेना आगे बढ़ते हुए असम के मैदानी हिस्से तक पहुँच गई। आखिरकार, चीन ने एकतरफा युद्ध विराम घोषित किया और चीन की सेना अपने पुराने जगह पर वापस चली गई। चीन-युद्ध से भारत की छवि को देश और विदेश दोनों ही जगह धक्का लगा। इस युद्ध से भारतीय राष्ट्रीय स्वाभिमान को चोट पहुँची परंतु इसके साथ-साथ राष्ट्र – भावना भी बलवती हुई।

इस संघर्ष का असर विपक्षी दलों पर भी हुआ। चीन के साथ हुए युद्ध ने भारत के नेताओं को पूर्वोत्तर की डाँवाडोल स्थिति के प्रति संचेत किया। यह इलाका अत्यंत पिछड़ी दशा में था और अलग-थलग पड़ गया था। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिहाज से भी यह इलाका चुनौतीपूर्ण था। चीन – युद्ध के तुरंत बाद इस इलाके को नयी तरतीब में ढालने की कोशिशें शुरू की गईं। नागालैंड को प्रांत का दर्जा दिया गया। मणिपुर और त्रिपुरा केन्द्र शासित प्रदेश थे लेकिन उन्हें अपनी विधानसभा के निर्वाचन का अधिकार मिला।

→ पाकिस्तान के साथ युद्ध और शान्ति:
पाकिस्तान की स्थापना सन् 1947 में भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप हुई। आरम्भ से ही भारत तथा पाकिस्तान के आपसी सम्बन्ध तनावपूर्ण रहे। सन् 1947 में कश्मीर मुद्दे को लेकर दोनों देशों की सेनाओं के मध्य छाया- युद्ध हुआ । बहरहाल यह संघर्ष पूर्णव्यापी युद्ध का रूप न ले सका। यह मसला संयुक्त राष्ट्र संघ के हवाले कर दिया गया। सन् 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर फिर आक्रमण किया परन्तु भारत ने इसका मुँहतोड़ जवाब दिया और पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित किया। अन्त में संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से दोनों देशों के बीच ताशकन्द समझौता हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारत ने पाकिस्तान के जीते हुए क्षेत्र वापस लौटा दिए।

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→ बांग्लादेश युद्ध, 1971:
सन् 1971 में बांग्लादेश की समस्या को लेकर भारत तथा पाकिस्तान के बीच पुनः युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में पाकिस्तान पुनः पराजित हुआ और पाकिस्तान का एक बहुत बड़ा भाग उसके हाथ से छिन गया अर्थात् बांग्लादेश नामक एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना हुई।

→ करगिल संघर्ष:
1999 – सन् 1999 में पाकिस्तान ने भारत के नियन्त्रण रेखा के कई ठिकानों जैसे द्रास, मश्कोह, काकसर और बतालिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। भारतीय सेना ने जवाबी कार्यवाही की इससे दोनों देशों के मध्य संघर्ष छिड़ गया। इसे करगिल की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। 26 जुलाई, 1999 तक भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को खदेड़ते हुए पुनः अपने क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । पाकिस्तान के इस आक्रमण की अन्तर्राष्ट्रीय जगत में तीव्र आलोचना की गई। भारत एवं पाकिस्तान के मध्य तनावपूर्ण सम्बन्धों को सुधारने हेतु अनेक प्रयास किये गये जिसमें रेल व बस यात्राएँ शुरू करना, द्विपक्षीय वार्ताएँ की गईं लेकिन अभी तक कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया है।

→ भारत की परमाणु नीति:
भारत मई, 1974 में पहला परमाणु परीक्षण कर परमाणु आयुध सम्पन्न राष्ट्रों की श्रेणी में आया लेकिन इसकी शुरूआत 1940 के दशक के अन्तिम सालों में होमी जहाँगीर भाभा के निर्देशन में हो चुकी थी। भारत शान्तिपूर्ण उद्देश्यों में इस्तेमाल के लिए अणु ऊर्जा का उपयोग करने के पक्ष में है। भारत ने परमाणु अप्रसार के लक्ष्य को ध्यान में रखकर की गई सन्धियों का विरोध किया क्योंकि ये सन्धियाँ उन्हीं देशों पर लागू होती थीं जो परमाणु शक्तिहीन राष्ट्र थे। मई, 1998 में भारत ने परमाणु परीक्षण किए और दुनिया को यह जताया कि उसके पास भी सैन्य उद्देश्यों के लिए अणु-शक्ति के इस्तेमाल की क्षमता है। भारत की परमाणु नीति में सैद्धान्तिक तौर पर यह बात स्वीकार की गई है कि भारत अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार रखेगा लेकिन वह हथियारों का प्रयोग पहले नहीं करेगा। इसके साथ ही भारत वैश्विक स्तर पर लागू और भेदभावहीन परमाणु निःशस्त्रीकरण के प्रति वचनबद्ध है ताकि परमाणु हथियारों से मुक्त विश्व की रचना हो।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति Textbook Exercise Questions and Answers

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति

Jharkhand Board Class 12 Political Science नियोजित विकास की राजनीति InText Questions and Answers

पृष्ठ 49

प्रश्न 1.
क्या आप यह कह रहे हैं कि ‘आधुनिक’ बनने के लिए ‘पश्चिमी’ होना जरूरी नहीं है? क्या यह सम्भव है?
उत्तर:
आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है। प्रायः आधुनिकीकरण का सम्बन्ध पाश्चात्यीकरण से माना जाता है लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि आधुनिक होने का अर्थ मूल्यों एवं विचारों में समस्त परिवर्तन से लगाया जाता है और यह परिवर्तन समाज को आगे की ओर ले जाने वाले होने चाहिए। आधुनिकीकरण में परिवर्तन केवल विवेक पर ही नहीं बल्कि सामाजिक मूल्यों पर भी आधारित होते हैं। इसमें वस्तुतः समाज के मूल्य साध्य और लक्ष्य भी निर्धारित करते हैं कि कौनसा परिवर्तन अच्छा है और कौनसा बुरा है; कौनसा परिवर्तन आगे की ओर ले जाने वाला है और कौनसा अधोगति में पहुँचाने वाला है। जबकि पाश्चात्यीकरण मूल्यमुक्तता पर बल देता है, इसका न कोई क्रम होता है और न कोई दिशा इस प्रकार आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है।

पृष्ठ 58

प्रश्न 2.
अरे! मैं तो भूमि सुधारों को मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक समझता था।
उत्तर:
भूमि सुधार का तात्पर्य मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत अनेक तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है-

  1. जमींदारी एवं जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त करना।
  2. जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ करके कृषिगत कार्य को अधिक सुविधाजनक बनाना।
  3. बेकार एवं बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु व्यवस्था करना।
  4. कृषिगत भू- जोतों की उचित व्यवस्था करना।
  5. सिंचाई के साधनों का विकास करना।
  6. अच्छे खाद व उन्नत बीजों की व्यवस्था करना।
  7. किसानों द्वारा उत्पन्न खाद्यान्नों की उचित कीमत दिलाने का प्रयास करना।
  8. किसानों को समय-समय पर विभिन्न प्रकार के ऋण व विशेष अनुदानों की व्यवस्था करना आदि।

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प्रश्न 1
‘बॉम्बे प्लान’ के बारे में निम्नलिखित में कौनसा बयान सही नहीं है?
(क) यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिंट था।
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
(ग) इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी।
(घ) इसमें नियोजन के विचार का पुरजोर समर्थन किया गया था।
उत्तर:
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।

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प्रश्न 2.
भारत ने शुरूआती दौर में विकास की जो नीति अपनाई उसमें निम्नलिखित में से कौनसा विचार शामिल नहीं था?
(क) नियोजन
(ख) उदारीकरण
(ग) सहकारी खेती
(घ) आत्मनिर्भरता ।
उत्तर:
(ख) उदारीकरण।

प्रश्न 3.
भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का विचार ग्रहण किया गया था:
(क) बॉम्बे प्लान से
(ख) सोवियत खेमे के देशों के अनुभवों से
(ग) समाज के बारे में गाँधीवादी विचार से
(घ) किसान संगठनों की मांगों से

(क) सिर्फ ख और घ
(ग) सिर्फ घ और ग
(ख) सिर्फ क और ख
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित का मेल करें:

(क) चरणसिंह (i) औद्योगीकरण
(ख) पी.सी. महालनोबिस (ii) जोनिंग
(ख) सिर्फ क और ख (iii) किसान
(घ) उपर्युक्त सभी (iv) सहकारी डेयरी

उत्तर:

(क) चरणसिंह (iii) किसान
(ख) पी.सी. महालनोबिस (i) औद्योगीकरण
(ग) बिहार का अकाल (ii) जोनिंग
(घ) वर्गीज कुरियन (iv) सहकारी डेयरी

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प्रश्न 5.
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद क्या थे? क्या इन मतभेदों को सुलझा लिया गया?
उत्तर:
आजादी के समय विकास के सवाल पर मतभेद -आजादी के समय विकास के सवाल पर विभिन्न मतभेद थे। यथा

  1. आर्थिक संवृद्धि के साथ सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन- सी भूमिका निभाये ? इस सवाल पर मतभेद था।
  2. विकास के दो मॉडलों – उदारवादी – पूँजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल में से किस मॉडल को अपनाया जाये ? इस बात पर मतभेद था।
  3. कुछ लोग औद्योगीकरण को उचित रास्ता मानते थे तो कुछ की नजर में कृषि का विकास करना और ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी को दूर करना सर्वाधिक जरूरी था।
  4. कुछ अर्थशास्त्री केन्द्रीय नियोजन के पक्ष में थे जबकि अन्य कुछ विकेन्द्रित नियोजन को विकास के लिए आवश्यक मानते थे।

मतभेदों को सुलझाना – उपर्युक्त में से कुछ मतभेदों को सुलझा लिया गया है परन्तु कुछ को सुलझाना अभी भी शेष है, जैसे

  1. सभी में इस बात पर सहमति बनी कि देश के व्यापार उद्योगों और कृषि को क्रमशः व्यापारियों, उद्योगपतियों और किसानों के भरोसे पूर्णत: नहीं छोड़ा जा सकता है।
  2. लगभग सभी इस बात पर सहमत थे कि विकास का अर्थ आर्थिक संवृद्धि और सामाजिक-आर्थिक न्याय दोनों ही है।
  3. इस बात पर भी सहमति हो गई कि गरीबी मिटाने और सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण के काम की जिम्मेदारी सरकार की होगी।
  4. विकास के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने पर सहमति बनी।

प्रश्न 6.
पहली पंचवर्षीय योजना का किस चीज पर सबसे ज्यादा जोर था ? दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली से किन अर्थों में अलग थी?
उत्तर:
पहली पंचवर्षीय योजना में देश में लोगों को गरीबी के जाल से निकालने का प्रयास किया गया और इस योजना में ज्यादा जोर कृषि क्षेत्र पर दिया गया। इसी योजना के अन्तर्गत बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। भाखड़ा नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आवंटित की गई। इस योजना में भूमि सुधार पर जोर दिया गया और इसे देश के विकास की बुनियादी चीज माना गया।

दोनों में अन्तर:

  1. प्रथम पंचवर्षीय एवं द्वितीय पंचवर्षीय योजना में प्रमुख अन्तर यह था कि जहाँ प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया, वहीं दूसरी योजना में भारी उद्योगों के विकास पर अधिक जोर दिया गया।
  2. पहली पंचवर्षीय योजना का मूलमंत्र था – -धीरज, जबकि दूसरी पंचवर्षीय योजना तेज संरचनात्मक परिवर्तन पर बल देती थी।

प्रश्न 7.
हरित क्रान्ति क्या थी? हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • हरित क्रान्ति का अर्थ – “हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषिगत उत्पादन की तकनीक को सुधारने तथा कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है।” इसके तीन तत्व थे
    1. कृषि का निरन्तर विस्तार
    2. दोहरी फसल लेना
    3. अच्छे बीजों का प्रयोग इस प्रकार हरित क्रांति का अर्थ है – सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर उत्पादन बढ़ाना।
  • हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक परिणाम- हरित क्रांति के निम्न सकारात्मक परिणाम निकले-
    1. हरित क्रान्ति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ ( ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हुई।
    2. हरित क्रांति के कारण कृषि में मँझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों का उभार हुआ।
  • हरित क्रान्ति के नकारात्मक परिणाम – हरित क्रान्ति के दो नकारात्मक परिणाम निम्न हैं-
    1. इस क्रान्ति से गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अंतर बढ़ गया।
    2. इससे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश जैसे इलाके कृषि की दृष्टि से समृद्ध हो गए जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे।

प्रश्न 8.
“नियोजन के शुरुआती दौर में ‘कृषि बनाम उद्योग’ का विवाद रहा।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था। इस विवाद में क्या-क्या तर्क दिए गए थे?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास और कृषि विकास में किस क्षेत्र के विकास पर जोर दिया जाय, का विवाद चला। इस विवाद के सम्बन्ध में विभिन्न तर्क दिये गये। यथा

  1. कृषि क्षेत्र का विकास करने वाले विद्वानों का यह तर्क था कि इससे देश आत्मनिर्भर बनेगा तथा किसानों की दशा में सुधार होगा, जबकि औद्योगिक विकास का समर्थन करने वालों का यह तर्क था कि औद्योगिक विकास से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तथा देश में बुनियादी सुविधाएँ बढ़ेंगी।
  2. अनेक लोगों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुँचेगी।
  3. कई अन्य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिल सकती । कृषि विकास हेतु तो अनेक कानून बनाये जा चुके हैं, लेकिन औद्योगिक विकास की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं हुए हैं।

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प्रश्न 9.
” अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर देकर भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की। अगर शुरूआत से ही निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती तो भारत का विकास कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से होता ।” इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
उपर्युक्त विचार के पक्ष व विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं- पक्ष में तर्क-

  1. भारत ने 1990 के दशक से ही नई आर्थिक नीति अपनायी है। तब से यह तेजी से उदारीकरण और वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। यदि यह नीति प्रारम्भ से ही अपना ली गई होती तो भारत का विकास अधिक बेहतर होता।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी उन्हीं देशों को अधिक ऋण व निवेश के संसाधन प्रदान करती हैं जहाँ निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती है। जिन बड़े कार्यों के लिए सरकार पूँजी जुटाने में असमर्थ होती है उन कार्यों में अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और देशी बड़े-बड़े पूँजीपति लोग पूँजी लगा सकते हैं।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता में भारत तभी ठहर सकता था जब निजी क्षेत्र को छूट दे दी गई होती।

विपक्ष में तर्क- निजी क्षेत्र के विपक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं

  1. भारत में कृषिगत और औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार सरकारी वर्ग की प्रभावशाली नीतियों व कार्यक्रमों से हुआ। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत पिछड़ जाता।
  2. भारत में विकसित देशों की तुलना में जनसंख्या ज्यादा है। यहाँ बेरोजगारी है, गरीबी है। यदि पश्चिमी देशों की होड़ में भारत सरकारी हिस्से को अर्थव्यवस्था में कम कर दिया जाएगा तो बेरोजगारी बढ़ेगी, गरीबी फैलेगी, धन और पूँजी कुछ ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएगी जिससे आर्थिक विषमता और बढ़ जाएगी।
  3. भारत कृषि-प्रधान देश है। वह विकसित देशों के कृषि उत्पादन से मुकाबला नहीं कर सकता। कृषि क्षेत्र में सरकारी सहयोग राशि के बिना कृषि का विकास रुक जायेगा।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें- आजादी के बाद के आरंभिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ पनपीं। एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी कार्यकारिणी ने राज्य के स्वामित्व का समाजवादी सिद्धांत अपनाया, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ- साथ आर्थिक संसाधनों के संकेंद्रण को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का नियंत्रण और नियमन किया। दूसरी तरफ कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार ने निजी निवेश के लिए उदार आर्थिक नीतियाँ अपनाईं और उसके बढ़ावे के लिए विशेष कदम उठाए। इसे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की अकेली कसौटी पर जायज ठहराया गया। – फ्रैंकिन फ्रैंकल
(क) यहाँ लेखक किस अंतर्विरोध की चर्चा कर रहा है? ऐसे अंतर्विरोध के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
(ख) अगर लेखक की बात सही है तो फिर बताएँ कि कांग्रेस इस नीति पर क्यों चल रही थी? क्या इसका संबंध विपक्षी दलों की प्रकृति से था?
(ग) क्या कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व और इसके प्रांतीय नेताओं के बीच भी कोई अंतर्विरोध था?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त अवतरण में लेखक कांग्रेस पार्टी के अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है जो क्रमशः वामपंथी विचारधारा से और दूसरा खेमा दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित था अर्थात् जहाँ कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समाजवादी सिद्धान्तों में विश्वास रखती थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार निजी निवेश को बढ़ावा दे रही थी। इस प्रकार के अन्तर्विरोध से देश में राजनीतिक अस्थिरता फैलने की सम्भावना रहती है।

(ख) कांग्रेस इस नीति पर इसलिए चल रही थी, कि कांग्रेस में सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे तथा सभी लोगों के विचारों को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस पार्टी इस प्रकार का कार्य कर रही थी। इसके साथ-साथ कांग्रेस पार्टी ने इस प्रकार की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि विपक्षी दलों के पास आलोचना का कोई मुद्दा न रहे।

(ग) कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व एवं प्रान्तीय नेताओं में कुछ हद तक अन्तर्विरोध पाया जाता था। जहाँ केन्द्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को महत्त्व देता था, वहीं प्रान्तीय नेता प्रान्तीय एवं स्थानीय मुद्दों को महत्त्व देते थे। परिणामस्वरूप कांग्रेस के प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने आगे चलकर अपने अलग-अलग राजनीतिक दल बनाए, जैसे- चौधरी चरण सिंह ने क्रांति दल या भारतीय लोकदल बनाया तो उड़ीसा में बीजू पटनायक ने उत्कल कांग्रेस का गठन किया।

नियोजित विकास की राजनीति JAC Class 12 Political Science Notes

→ नियोजित विकास का सम्बन्ध उचित रीति से सोच-विचार कर कदम उठाने से है। प्रत्येक क्रिया नियोजित विकास की क्रिया कहलाती है जो विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करने हेतु दूरदर्शिता, विचार-विमर्श तथा उद्देश्यों एवं उनकी प्राप्ति हेतु प्रयुक्त होने वाले साधनों की स्पष्टता पर आधारित हो।

→ राजनीतिक फैसले और विकास-

  • भारत में नियोजित विकास की राजनीति आरम्भ करने से पहले विभिन्न तरह से विचार-विमर्श किये गये तथा तत्कालीन बाजार शक्तियों, लोगों की आकांक्षाओं एवं पर्यावरण पर विकास के पड़ने वाले तथ्यों को ध्यान में रखा गया।
  • अच्छे नियोजन के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु नियोजन के लक्ष्य एवं उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए इसके साथ ही साधनों की व्यवस्था, लचीलापन, समन्वय, व्यावहारिकता, पद- सोपान तथा निरन्तरता जैसे विषयों पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
  • भारत में उड़ीसा राज्य की सरकार ने राज्य में इस्पात की बहुतायत को देखते हुए इन क्षेत्रों में उद्योग विकसित करने का मानस बनाया। लेकिन इस क्षेत्र में आदिवासियों के विस्थापन व पर्यावरण जैसी समस्या उभरकर सामने आई जिसको हल करना सरकार की पहली प्राथमिकता थी। इस प्रकार विकास योजनाओं को लागू करने से पहले पर्याप्त सोच-विचार की आवश्यकता है।

→ राजनीतिक टकराव:
विकास से जुड़े निर्णयों से प्रायः सामाजिक – समूह के हितों को दूसरे सामाजिक – समूह के हितों की तुलना में तौला जाता है। साथ ही मौजूदा पीढ़ी के हितों और आने वाली पीढ़ी के हितों को भी लाभ-हानि की तुला पर मापना पड़ता है। किसी भी लोकतन्त्र में ऐसे फैसले जनता द्वारा लिए जाने चाहिए या कम से कम इन फैसलों पर विशेषज्ञों की स्वीकृति की मुहर होनी चाहिए। आजादी के बाद आर्थिक संवृद्धि और सामाजिक न्याय की स्थापना हो इसके लिए सरकार कौन – सी भूमिका निभाए? इस सवाल को लेकर पर्याप्त मतभेद था।

क्या कोई ऐसा केन्द्रीय संगठन जरूरी है जो पूरे देश के लिए योजनाएँ बनाये ? क्या सरकार को कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योग और व्यवसाय खुद चलाने चाहिए? अगर सामाजिक न्याय आर्थिक संवृद्धि की जरूरतों के आड़े आता हो तो ऐसी सूरत में सामाजिक न्याय पर कितना जोर देना उचित होगा ? इनमें से प्रत्येक सवाल पर टकराव हुए जो आज तक जारी हैं

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति

→ विकास की धारणाएँ:
भारत ने तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मिश्रित मॉडल को अपनाया स्वतन्त्रता के समय भारत के सामने विकास के दो मॉडल थे। पहला उदारवादी – पूँजीवादी मॉडल था। यूरोप के अधिकतर हिस्सों और संयुक्त राज्य अमरीका में यही मॉडल अपनाया गया था। दूसरा समाजवादी मॉडल था, इसे सोवियत संघ ने अपनाया था। भारत ने इन दोनों मॉडलों के तत्त्वों को सम्मिलित करते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाया। आजादी के आंदोलन के दौरान ही एक सहमति बन गई थी और नेताओं की इस पसंद में यही सहमति प्रतिबिंबित हो रही थी।

राष्ट्रवादी नेताओं के मन में यह बात बिल्कुल साफ थी कि आजाद भारत की सरकार के आर्थिक सरोकार अंग्रेजी हुकूमत के आर्थिक सरोकारों से एकदम अलग होंगे। आजाद भारत की सरकार अंग्रेजी हुकूमत की तरह संकुचित व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए काम नहीं करेगी। आजादी के आन्दोलन के दौरान ही यह बात भी साफ हो गई थी कि गरीबी मिटाने और सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण के काम का मुख्य जिम्मा सरकार का होगा।

→ नियोजन:
नियोजन के विचार को 1940 और 1950 के दशक में पूरे विश्व में जनसमर्थन मिला था। यूरोप महामंदी का शिकार होकर सबक सीख चुका था; जापान और चीन ने युद्ध की विभीषिका झेलने के बाद अपनी अर्थव्यवस्था फिर खड़ी कर ली थी और सोवियत संघ ने 1930 तथा 1940 के दशक में भारी कठिनाइयों के बीच शानदार आर्थिक प्रगति की थी। इन सभी बातों के कारण नियोजन के पक्ष में दुनियाभर में हवा बह रही थी।

→ योजना आयोग:
योजना आयोग की स्थापना मार्च, 1950 में भारत – सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के जरिये की। यह आयोग एक सलाहकार की भूमिका निभाता है और इसकी सिफारिशें तभी प्रभावकारी हो पाती हैं जब मन्त्रिमण्डल उन्हें मंजूर करे।

→ शुरुआती कदम:
सोवियत संघ की तरह भारत ने भी पंचवर्षीय योजनाओं का विकल्प चुना। योजना के अनुसार केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों के बजट को दो हिस्सों में बाँटा गया। एक हिस्सा गैर योजना- व्यय का था। इसके अंतर्गत सालाना आधार पर दैनंदिन मदों पर खर्च करना था। दूसरा हिस्सा योजना-व्यय का था।

→ प्रथम पंचवर्षीय योजना:
1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारूप जारी हुआ इस योजना की कोशिश देश को गरीबी के मकड़जाल से निकालने की थी। पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर जोर दिया गया था। इसी योजना के अंतर्गत बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया । भाखड़ा नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आबंटित की गई।

→ औद्योगीकरण की तेज रफ्तार:
दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया। पी.सी. महालनोबिस के नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों के एक समूह ने यह योजना तैयार की थी। हरा योजना के अंतर्गत सरकार ने देशी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्क लगाया। संरक्षण की इस नीति से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को आगे बढ़ने में मदद मिली। औद्योगीकरण पर दिए गए इस जोर ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को एक नया आयाम दिया। तीसरी पंचवर्षीय योजना दूसरी योजना से कुछ खास अलग नहीं थी। आलोचकों के अनुसार दूसरी पंचवर्षीय योजना से इनकी रणनीतियों में शहरों की तरफदारी नजर आने लगी थी।

→ विकेन्द्रित नियोजन:
जरूरी नहीं है कि नियोजन केन्द्रीकृत ही हो, केरल में विकेन्द्रित नियोजन अपनाया गया जिसे ‘केरल मॉडल’ कहा जाता है। इसमें इस बात के प्रयास किये गए कि लोग पंचायत, प्रखण्ड और जिला स्तर की योजनाओं को तैयार करने में शामिल हों। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि सुधार, गरीबी उन्मूलन पर जोर दिया गया।

→ मुख्य विवाद: विकास से जुड़े दो मुख्य विवाद या प्रश्न निम्न उठे

  • कृषि बनाम उद्योग
  • निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र

भारत जैसी पिछड़ी अर्थव्यवस्था में सरकार देश के ज्यादा संसाधन किस क्षेत्र अर्थात् कृषि में लगाये या उद्योग में तथा विकास के जो दो नये मॉडल थे, भारत ने उनमें से किसी को नहीं अपनाया। पूँजीवादी मॉडल में विकास का काम पूर्णतया निजी क्षेत्र के भरोसे होता है। भारत ने यह रास्ता नहीं अपनाया। भारत ने विकास का समाजवादी मॉडल भी नहीं अपनाया जिसमें निजी सम्पत्ति को समाप्त कर दिया जाता है और हर तरह के उत्पादन पर राज्य का नियन्त्रण होता है। इन दोनों ही मॉडलों की कुछ बातों को ले लिया गया और अपने-अपने देश में इन्हें मिले-जुले रूप में लागू किया गया। इसी कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा जाता है। इस मॉडल की आलोचना दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों खेमों से हुई।

→ मुख्य परिणाम: नियोजित विकास की शुरुआती कोशिशों को देश के आर्थिक विकास और सभी नागरिकों की भलाई के लक्ष्य में आंशिक सफलता मिली। नियोजित आर्थिक विकास के निम्न प्रमुख परिणाम निकले

  • बुनियाद: इस दौर में भारत के आगामी विकास की बुनियाद पड़ी। इस काल में भारत की बड़ी विकास- परियोजनाएँ, सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ भारी उद्योग, परिवहन तथा संचार का आधारभूत ढाँचा आदि की स्थापना हुई।
  • भूमि सुधार: इस अवधि में भूमि सुधार के गम्भीर प्रयत्न हुए। जमींदारी प्रथा को समाप्त किया गया, . छोटी जोतों को एक-साथ किया गया तथा भूमि की अधिकतम सीमा तय की गई।
  • खाद्य संकट: इस काल में सूखे, युद्ध, विदेशी मुद्रा संकट तथा खाद्यान्न की भारी कमी की समस्या का सामना करना पड़ा। खाद्य संकट के कारण सरकार को गेहूँ का आयात करना पड़ा।

→ हरित क्रान्ति: भारत में हरित क्रान्ति की शुरुआत 1960 के दशक में हुई। हरित क्रान्ति के तीन तत्त्व थे-

  • कृषि का निरन्तर विस्तार
  • दोहरी फसल का उद्देश्य तथा
  • अच्छे बीजों का प्रयोग

हरित क्रान्ति से उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि हुई, विशेषकर कृषिगत क्षेत्र में वृद्धि हुई तथा औद्योगिक विकास एवं बुनियादी ढाँचे में भी विकास हुआ। हरित क्रान्ति की कुछ कमियाँ भी रही हैं, जैसे- खाद्यान्न संकट बने रहना तथा केवल उत्तरी राज्यों को ही लाभ मिलना तथा धनी किसानों को ही लाभ मिलना इत्यादि।

→ बाद के बदलाव:
1960 के दशक में श्रीमती गाँधी के नेतृत्व में सरकार ने यह फैसला किया कि अर्थव्यवस्था के नियंत्रण और निर्देशन में राज्य बड़ी भूमिका निभायेगा। 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया लेकिन सरकारी नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था के पक्ष में बनी सहमति अधिक दिनों तक कायम नहीं रही क्योंकि

  • भारत की आर्थिक प्रगति दर 3-3.5 प्रतिशत ही रही।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भ्रष्टाचार, अकुशलता का जोर बढ़ा।
  • नौकरशाही के प्रति लोगों का विश्वास टूट गया।

फलतः 1980 के दशक के बाद से अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को कम कर दिया गया।

JAC Class 12 History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Jharkhand Board JAC Class 12 History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Important Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने वाला था –
(अ) जॉन मार्शल
(स) व्हीलर
(ब) कनिंघम
(द) प्रिंसेप
उत्तर:
(द) प्रिंसेप

2. बौद्ध और जैन धर्म के आरम्भिक ग्रन्थों में कितने महाजनपदों का उल्लेख मिलता है?
(अ) 8
(स) 16
(ब) 18
(द) 14
उत्तर:
(स) 16

3. अशोक के अधिकांश अभिलेख किस भाषा में हैं?
(अ) संस्कृत
(ब) पालि
(स) हिन्दी
(द) प्राकृत
उत्तर:
(द) प्राकृत

4. ‘अर्थशास्त्र’ का रचयिता कौन था?
(अ) बाणभट्ट
(ब) चाणक्य
(स) कल्हण
(द) मेगस्थनीज
उत्तर:
(ब) चाणक्य

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5. ‘इण्डिका’ की रचना किसने की थी ?
(अ) चाणक्य
(ब) कर्टियस
(स) मेगस्थनीज
(द) प्लूटार्क
उत्तर:
(स) मेगस्थनीज

6. अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए किस अधिकारी की नियुक्ति की ?
(अ) धर्माध्यक्ष
(ब) दानाध्यक्ष
(स) सैन्य महामात
(द) धर्म महामात
उत्तर:
(द) धर्म महामात

7. कौनसे शासक अपने नाम के आगे ‘देवपुत्र’ की उपाधि लगाते थे?
(अ) मौर्य शासक
(ब) शुंग शासक
(स) सातवाहन शासक
(द) कुषाण शासक
उत्तर:
(द) कुषाण शासक

8. ‘प्रयाग प्रशस्ति’ की रचना किसने की थी?
(अ) हरिषेण
(स) कालिदास
(ब) बाणभट्ट
(द) कल्हण
उत्तर:
(अ) हरिषेण

9. अभिलेखों के अध्ययन को कहते हैं –
(अ) मुखाकृति
(ब) पुरालिपि
(स) अभिलेखशास्त्र
(द) शिल्पशास्त्र
उत्तर:
(स) अभिलेखशास्त्र

10. निम्न में से सबसे महत्त्वपूर्ण जनपद था –
(अ) कुरु
(ब) मत्स्य
(स) गान्धार
(द) मगध
उत्तर:
(द) मगध

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11. मगध महाजनपद की प्रारम्भिक राजधानी थी –
(अ) पटना
(ब) राजगाह
(स) संस्कृत
(द) हिन्दी
उत्तर:
(ब) राजगाह

12. मौर्य साम्राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक केन्द्र
(अ) तक्षशिला
(ब) उज्जयिनी
(स) पाटलिपुत्र
(द) सुवर्णगिरि
उत्तर:
(स) पाटलिपुत्र

13. किस शासक को बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रवादी नेताओं ने प्रेरणा का स्रोत माना है?
(अ) अशोक
(ब) कनिष्क
(स) समुद्रगुप्त
(द) चन्द्रगुप्त मौर्य
उत्तर:
(अ) अशोक

14. प्रयाग प्रशस्ति की रचना की –
(अ) कल्हण
(ब) हरिषेण
(स) अशोक
(द) विल्हण
उत्तर:
(ब) हरिषेण

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15. आरम्भिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधिग्रन्थ है –
(अ) ऋग्वेद
(स) रामायण
(ब) मनुस्मृति
(द) महाभारत
उत्तर:
(ब) मनुस्मृति

16. छठी शताब्दी में सबसे पहले ढाले एवं प्रयोग किए गए चाँदी और ताँबे के सिक्के कहलाते हैं –
(अ) आहत
(स) सिक्का
(अ) मुहर
(द) रुपया
उत्तर:
(अ) आहत

17. सर्वप्रथम सोने के सिक्के किन शासकों ने जारी किए?
(अ) शक
(स) मौर्य
(ब) कुषाण
(द) गुप्त
उत्तर:
(ब) कुषाण

18. किस शासक के लिए देवानांपिय उपाधि का प्रयोग हुआ है?
(अ) समुद्रगुप्त
(स) अकबर
(ब) चन्द्रगुप्त
(द) अशोक
उत्तर:
(द) अशोक

19. जनपद शब्द का प्रयोग हमें किन दो भाषाओं में मिल जाता है?
(अ) पालि और प्राकृत
(ब) प्राकृत और पालि
(स) प्राकृत और संस्कृत
(द) पालि और संस्कृत
उत्तर:
(स) प्राकृत और संस्कृत

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20. अजातशत्रु तथा अशोक जैसे शासकों के नाम किन अभिलेखों से प्राप्त हुए हैं?
(अ) प्राकृत अभिलेख
(ब) पालि अभिलेख
(स) संस्कृत अभिलेख
(द) तमिल अभिलेख
उत्तर:
(अ) प्राकृत अभिलेख

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।

1. …………. का अर्थ एक ऐसा भूखण्ड है जहाँ कोई जन अपना पाँव रखता है अथवा बस जाता है।
2. प्राचीनतम अभिलेख ………….. भाषा में लिखे जाते थे।
3. जहाँ सत्ता पुरुषों के एक समूह के हाथ में होती है …………… कहते हैं।
4. …………. आधुनिक बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम है।
5. धम्म के प्रचार के लिए ……………. नामक विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई।
6. सिलप्यादिकारम् ………….. भाषा का महाकाव्य है।
7. प्रयाग प्रशस्ति की रचना …………… राजकवि …………. ने की थी।
उत्तर:
1. जनपद
2. प्राकृत
3. ओलीगार्की, समूह शासन
4. राजगाह
5. धम्म महामात
6. तमिल
7. समुद्रगुप्त, हरिषेण।

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
साँची में कौनसी प्रसिद्ध पुरातात्विक इमारत स्थित है?
उत्तर:
साँची में अशोक द्वारा बनवाया गया बृहद् तथा प्रसिद्ध स्तूप स्थित है।

प्रश्न 2.
शासकों की प्रतिमा और नाम के सिक्के सर्वप्रथम किस राजवंश के राजाओं ने जारी किये थे?
उत्तर:
कुषाण राजवंश के राजाओं ने।

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प्रश्न 3.
मौर्य शासकों की राजधानी पाटलिपुत्र का वर्तमान नाम क्या है?
उत्तर:
मौर्य शासकों की राजधानी पाटलिपुत्र का वर्तमान नाम पटना है।

प्रश्न 4.
भारत में सोने के सिक्के सबसे पहले कब और किस वंश के राजाओं ने जारी किए थे?
उत्तर:
प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण राजाओं ने जारी किए थे।

प्रश्न 5.
लगभग दूसरी शताब्दी ई. में सुदर्शन सरोवर का जीर्णोद्धार किस शक राजा ने करवाया था?
उत्तर:
रुद्रदामन ने।

प्रश्न 6.
अभिलेख किसे कहते हैं?
उत्तर:
अभिलेख पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन पर खुदे होते हैं।

प्रश्न 7.
अशोक के अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर उसका क्या नाम लिखा है?
उत्तर:
अशोक के अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ नाम लिखा है।

प्रश्न 8.
कलिंग पर विजय प्राप्त करने वाला मौर्य सम्राट् कौन था?
उत्तर:
सम्राट् अशोक।

प्रश्न 9.
छठी शताब्दी ई. पूर्व के चार महाजनपदों के नाम उनकी राजधानी सहित लिखिए।
उत्तर:
(1) अंग (चम्पा)
(2) मगध (राजगीर)
(3) काशी (वाराणसी)
(4) कोशल (श्रावस्ती)।

प्रश्न 10.
चौथी शताब्दी ई. पूर्व किसे मगध की राजधानी बनाया गया?
उत्तर:
चौथी शताब्दी ई. पूर्व में पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी बनाई गयी।

प्रश्न 11.
मगध महाजनपद के सबसे शक्तिशाली होने के दो कारण बताइये।
उत्तर:
(1) खेती की अच्छी उपज होना
(2) लोहे की खदानों का उपलब्ध होना।

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प्रश्न 12.
मौर्य साम्राज्य के इतिहास की जानकारी के लिए दो प्रमुख स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) कौटिल्य कृत ‘अर्थशास्त्र’
(2) मेगस्थनीज द्वारा लिखित ‘इण्डिका।

प्रश्न 13.
मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजधानी पाटलिपुत्र तथा चार प्रान्तीय केन्द्र- तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि, सुवर्णगिरि

प्रश्न 14.
सिल्लपादिकारम् क्या है?
उत्तर:
सिल्लपादिकारम् तमिल महाकाव्य है। प्रश्न 15. प्रयाग प्रशस्ति का ऐतिहासिक महत्त्व बताइये। उत्तर- प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त की विजयों, चारित्रिक विशेषताओं की जानकारी मिलती है।

प्रश्न 16.
मौर्य स्वम्राज्य का संस्थापक कौन था? उसने मौर्य साम्राज्य की स्थापना कब की ?
उत्तर:
(1) चन्द्रगुप्त मौर्य
(2) 321 ई. पूर्व

प्रश्न 17.
गुप्त साम्राज्य के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोतों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  • साहित्य
  • सिक्के
  • अभिलेख
  • हरिषेण द्वारा लिखित ‘प्रयाग प्रशस्ति’।

प्रश्न 18.
जातक ग्रन्थों का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
इनसे राजाओं और प्रजा के सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।

प्रश्न 19.
‘मनुस्मृति’ के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
‘मनुस्मृति’ आरम्भिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधिग्रन्थ है।

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प्रश्न 20.
प्रभावती गुप्त कौन थी?
उत्तर:
प्रभावती गुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-415 ई.) की पुत्री थी।

प्रश्न 21.
जातक कथाएँ अथवा जातक कहानी क्या
उत्तर:
महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियों के संकलन को जातक कथाओं के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 22.
गुप्त वंश की किस शासिका ने भूमिदान किया था और क्यों?
उत्तर:
प्रभावती गुप्त ने भूमिदान किया था क्योंकि वह रानी थी।

प्रश्न 23.
‘हर्षचरित’ की रचना किसने की थी?
उत्तर:
बाणभट्ट ने।

प्रश्न 24.
‘ श्रेणी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
उत्पादकों और व्यापारियों के संघ’ श्रेणी’ कहलाते

प्रश्न 25.
सोने के सबसे भव्य सिक्के प्रचुर मात्रा में किन सम्राटों ने जारी किये?
उत्तर:
गुप्त सम्राटों ने।

प्रश्न 26.
‘अभिलेख शास्त्र’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
अभिलेखों के अध्ययन को ‘अभिलेख शास्त्र’ कहते हैं।

प्रश्न 27.
गण और संघ नामक राज्यों में कौन शासन करता था?
उत्तर:
लोगों का समूह।

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प्रश्न 28.
महाजनपद के राजा का प्रमुख कार्य क्या
उत्तर:
किसानों, व्यापारियों तथा शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूल करना।

प्रश्न 29.
मगध राज्य के तीन शक्तिशाली राजाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • बिम्बिसार
  • अजातशत्रु
  • महापद्मनन्द।

प्रश्न 30.
अशोक के प्राकृत के अधिकांश अभिलेख किस लिपि में लिखे गए थे?
उत्तर:
ब्राह्मी लिपि में।

प्रश्न 31.
‘तमिलकम’ में किन सरदारियों (राज्यों) का उदय हुआ?
उत्तर:
‘तमिलकम’ में चोल, चेर तथा पाण्ड्य सरदारियों का उदय हुआ।

प्रश्न 32.
दक्षिणी भारत के सरदारों तथा सरदारियों की जानकारी किससे मिलती है?
उत्तर:
प्राचीन तमिल संगम ग्रन्थों में संग्रहित कविताओं

प्रश्न 33.
‘देवपुत्र’ की उपाधि किन शासकों ने धारण की थी?
उत्तर:
कुषाण शासकों ने।

प्रश्न 34.
प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख किस नाम से प्रसिद्ध
उत्तर:
‘इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख’ के नाम से।

प्रश्न 35.
प्राचीन भारत में राजाओं और प्रजा के बीच रहने वाले तनावपूर्ण सम्बन्धों की जानकारी किससे मिली है?
उत्तर:
जातक कथाओं से।

प्रश्न 36.
अग्रहार’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अग्रहार वह भू-भाग था, जो ब्राह्मणों को दान किया जाता था।

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प्रश्न 37.
श्रेणी से क्या आशय है?
उत्तर:
उत्पादक एवं व्यापारियों के संघ को श्रेणी कहा जाता है।

प्रश्न 38.
दानात्मक अभिलेखों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
इनमें धार्मिक संस्थाओं को दिए दान का विवरण होता था।

प्रश्न 39.
इस युग में भारत से रोमन साम्राज्य को किन वस्तुओं का निर्यात किया जाता था ?
उत्तर:
कालीमिर्च जैसे मसालों, कपड़ों, जड़ी-बूटियों

प्रश्न 40.
‘पेरिप्लस ऑफ एभ्रियन सी’ नामक ग्रन्थ का रचयिता कौन था?
उत्तर:
एक यूनानी समुद्री यात्री

प्रश्न 41.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में सबसे पहले किन सिक्कों का प्रयोग हुआ?
उत्तर:
चांदी और ताँबे के आहत सिक्कों का।

प्रश्न 42.
मुद्राशास्व’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
‘मुद्राशास्त्र’ सिक्कों का अध्ययन है।

प्रश्न 43.
पंजाब और हरियाणा में प्रथम शताब्दी ई. में किन कबाइली गणराज्यों ने सिक्के जारी किये?
उत्तर:
यौधेय गणराज्यों ने।

प्रश्न 44.
महाजनपद की दो प्रमुख विशेषताएँ क्या था?
उत्तर:
(1) अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था।
(2) प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जो

प्रश्न 45.
अशोक के धम्म के कोई दो सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर:
(1) बड़ों के प्रति आदर।
(2) संन्यासियों तथा ब्राह्मणों के प्रति उदारता।

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प्रश्न 46.
अशोक के अभिलेखों की लिपियों को किस विद्वान ने पढ़ने में सफलता प्राप्त की और कब ?
उत्तर:
1838 ई. में जेम्स प्रिंसेप को अशोक के अभिलेखों की लिपियों को पढ़ने में सफलता मिली।

प्रश्न 47.
अशोक के अभिलेख किन भाषाओं में लिखे गए?
उत्तर:
अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत में हैं तथा पश्चिमोत्तर में मिले अभिलेख अरामेइक तथा यूनानी भाषा में हैं।

प्रश्न 48.
मौर्यवंश के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • कौटिल्यकृत ‘अर्थशास्त्र’
  • मेगस्थनीज द्वारा रचित ‘इण्डिका’
  • अशोककालीन अभिलेख
  • जैन, बौद्ध और पौराणिक ग्रन्थ।

प्रश्न 49.
मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए कितनी समितियों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति तथा 6 उपसमितियों का उल्लेख किया है।

प्रश्न 50.
बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने अशोक को प्रेरणा का स्रोत क्यों माना है?
उत्तर:
अन्य राजाओं की अपेक्षा अशोक एक बहुत शक्तिशाली, परिश्रमी, विनम्र, उदार एवं दानशील था।

प्रश्न 51.
सुदर्शन झील का निर्माण किसने करवाया था तथा किस शक राजा ने इसकी मरम्मत करवाई थी ?
उत्तर:
सुदर्शन झील का निर्माण मौर्यकाल में एक स्थानीय राज्यपाल ने करवाया था तथा शक राजा रुद्रदामन ने इसकी मरम्मत करवाई थी।

प्रश्न 52.
किस महिला शासिका द्वारा किया गया भूमिदान का उदाहरण विरला उदाहरण माना जाता है ?
उत्तर:
वाकाटक वंश की शासिका प्रभावती गुप्त द्वारा किया गया भूमिदान विरला उदाहरण माना जाता है।

प्रश्न 53.
शासकों द्वारा किए जाने वाले भूमिदान के दो कारण लिखिए।
उत्तर:
(1) भूमिदान कृषि को नए क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी।
(2) भूमिदान से दुर्बल होते राजनीतिक प्रभुत्व का संकेत मिलता है।

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प्रश्न 54.
नगरों की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ
(2) प्राय: सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे।

प्रश्न 55.
‘हर्षचरित’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हर्षचरित कनौज के शासक हर्षवर्धन की जीवनी है। इसके लेखक बाणभट्ट थे, जो हर्षवर्धन के राजकवि थे।

प्रश्न 56.
आहत या पंचमार्क क्या है?
उत्तर:
6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में चाँदी के बने सिक्कों को आहत अथवा पंचमार्क कहा जाता है।

प्रश्न 57.
अशोक के ‘धम्म’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अशोक ने अपनी प्रजा की उन्नति के लिए कुछ नैतिक नियमों के पालन पर बल दिया। इन्हें ‘धम्म’ कहते हैं।

प्रश्न 58.
जातक कथाओं के अनुसार राजा और प्रजा के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों के दो कारण लिखिए।
उत्तर:
(1) राजा अपनी प्रजा पर भारी कर लगाते थे।
(2) लुटेरों की लूटमार से लोगों में असन्तोष व्याप्त था।

प्रश्न 59.
गहपति कौन था?
उत्तर:
गहपति घर का मुखिया होता था और घर में रहने वाली स्वियों, बच्चों, नौकरों और दासों पर नियन्त्रण करता था।

प्रश्न 60.
आरम्भिक जैन और बौद्ध विद्वानों के अनुसार मगध के सबसे शक्तिशाली महाजनपद बनने के क्या कारण थे?
उत्तर:
मगध के शासक बिम्बिसार, अजातशत्रु, महापद्मनन्द अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी थे तथा उनके मन्त्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।

प्रश्न 61.
ऐसे पाँच महाजनपदों के नाम लिखिए जिनके नाम जैन और बौद्ध ग्रन्थों में मिलते हैं।
उत्तर:

  • वज्जि
  • मगध
  • कोशल
  • कुरु
  • पांचाल

प्रश्न 62.
गणराज्यों की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
(1) गणराज्य में कई लोगों का समूह शासन करता था।
(2) इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था।

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प्रश्न 63.
अशोक के धम्म के चार सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  • बड़ों के प्रति आदर
  • संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता
  • सेवकों तथा दासों के साथ उदार व्यवहार
  • दूसरों के धर्मों का आदर करना।

प्रश्न 64.
अभिलेखों में किनके क्रियाकलापों एवं उपलब्धियों का उल्लेख होता है?
उत्तर:
अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियों, क्रियाकलापों एवं विचारों का उल्लेख होता है, जो उन्हें बनवाते हैं।

प्रश्न 65.
प्राचीन भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पूर्व को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल क्यों माना जाता है? दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) इस काल में जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म का उदय हुआ।
(2) इस काल में 16 महाजनपदों का भी उदय हुआ।

प्रश्न 66.
दो लिपियों का जिक्र करें जिन्हें सम्राट अशोक के अभिलेखों में उपयोग किया गया है?
अथवा
अशोक के अभिलेख किन लिपियों में लिखे गए थे?
उत्तर:
अशोक के प्राकृत के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में तथा पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में लिखे गए थे।

प्रश्न 67.
मौर्य साम्राज्य के अधिकारियों द्वारा किये जाने वाले दो कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) नदियों की देख-रेख करना
(2) भूमि मापन का काम करना।

प्रश्न 68.
मौर्य साम्राज्य क्यों महत्वपूर्ण था? दो बातों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) मौर्य साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य था, जिसकी सम्भावना बड़ी चुनौतीपूर्ण थी।
(2) मौर्यकाल में वास्तुकला एवं मूर्तिकला का अत्यधिक विकास हुआ।

प्रश्न 69.
मौर्य साम्राज्य की दो त्रुटियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्षों तक ही अस्तित्व में रहा।
(2) यह साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया।

प्रश्न 70.
अर्थशास्त्र का रचयिता कौन था? इसका क्या ऐतिहासिक महत्त्व है?
उत्तर:
(1) कौटिल्य
(2) इसमें मौर्यकालीन सैनिक और प्रशासनिक संगठन तथा सामाजिक अवस्था के बारे में विस्तृत विवरण मिलते हैं।

प्रश्न 71.
यूनानी इतिहासकारों के अनुसार मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के पास कितनी सेना थी?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य के पास 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार तथा 9 हजार हाथी थे।

प्रश्न 72.
दक्षिणी भारत में ‘सरदार’ कौन होते थे?
उत्तर:
सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता था, जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता था और नहीं भी।

प्रश्न 73.
सरदार के दो कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) विशेष अनुष्ठान का संचालन करना
(2) युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करना।

प्रश्न 74.
प्राचीन भारत में उपज बढ़ाने के तरीकों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) हल का प्रचलन
(2) कुओं, तालाबों, नहरों के माध्यम से सिंचाई करना।

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प्रश्न 75.
600 ई.पूर्व से 600 ई. के काल में ग्रामीण समाज में पाई जाने वाली विभिन्नताओं का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
इस युग में भूमिहीन खेतिहर मजदूर, किसान और बड़े-बड़े जमींदार अस्तित्व में थे।

प्रश्न 76.
इस युग में भूमिकर के सम्बन्ध में ब्राह्मणों को छोटे कौनसी सुविधाएँ प्राप्त थीं?
उत्तर:
(1) ब्राह्मणों से भूमिकर या अन्य कर नहीं वसूले जाते थे।
(2) ब्राह्मणों को स्थानीय लोगों से कर वसूलने का अधिकार था।

प्रश्न 77.
अशोक के अभिलेखों की क्या महत्ता है ?
उत्तर:
अशोक के अभिलेखों से अशोक की शासन- व्यवस्था उसके साम्राज्य विस्तार, धम्म प्रचार आदि कार्यों के बारे में जानकारी मिलती है।

प्रश्न 78.
‘राजगाह’ का शाब्दिक अर्थ बताइये।
उत्तर:
राजगाह’ का शाब्दिक अर्थ है ‘राजाओं का

प्रश्न 79.
जैन और बौद्ध ग्रन्थों में पाए जाने वाले महाजनपदों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. वज्जि
  2. मगध
  3. कोशल
  4. कुरु
  5. पांचाल
  6. गान्धार
  7. अवन्ति।

प्रश्न 80.
अभिलेखों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं, जो उन्हें बनवाते हैं।

प्रश्न 81.
जैन एवं बौद्ध लेखकों के अनुसार मगध महाजनपद के प्रसिद्ध सम्राट कौन थे?
उत्तर:
जैन एवं बौद्ध लेखकों के अनुसार बिम्बिसार, अजातशत्रु तथा महापद्मनन्द मगध महाजनपद के प्रसिद्ध सम्राट थे।

प्रश्न 82.
मगध महाजनपद के सबसे शक्तिशाली होने के क्या कारण थे?
उत्तर:

  1. मगध क्षेत्र में खेती की उपज अच्छी थी
  2. यहाँ लोहे की अनेक खदानें थीं
  3. जंगली क्षेत्र में हाथी उपलब्ध थे।

प्रश्न 83.
सामान्यतः अशोक को अभिलेखों में किस नाम से सम्बोधित किया गया है?
उत्तर:
अधिकांशतः अशोक को अभिलेखों में देवनामप्रिय प्रियदर्शी अथवा पियदस्सी नाम से सम्बोधित किया गया है।

प्रश्न 84.
प्राकृत भाषा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्राकृत उन भाषाओं को कहा जाता था, जो जनसामान्य की भाषाएँ होती थीं।

प्रश्न 85.
अभिलेखों में किनका ब्यौरा होता है?
उत्तर:
अभिलेखों में राजाओं के क्रियाकलापों तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्यौरा होता है।

प्रश्न 86.
अधिकांश महाजनपदों तथा ‘गण’ और ‘संघ’ नामक राज्यों में कौन शासन करता था?
उत्तर:
अधिकांश महाजनपदों में राजा तथा ‘गण’ और ‘संघ’ नामक राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था।

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प्रश्न 87.
मनुस्मृति क्या है? इसकी रचना कब की
उत्तर:
(1) मनुस्मृति प्रारम्भिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ है
(2) इसकी रचना दूसरी शताब्दी ई. पूर्व और दूसरी शताब्दी ई. के बीच की गई।

प्रश्न 88.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में पाटलिपुत्र और उज्जयिनी किन संचार मार्गों के किनारे बसे थे?
उत्तर:
पाटलिपुत्र नदी मार्ग के किनारे तथा उम्जयिनी भूतल मार्गों के किनारे बसे थे।

प्रश्न 89.
ओलीगार्की या समूह शासन से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
ओलीगार्की या समूह शासन उसे कहते हैं जहाँ सत्ता पुरुषों के एक समूह के हाथ में होती है।

प्रश्न 90.
कलिंग का आधुनिक नाम क्या है?
उत्तर:
उड़ीसा

प्रश्न 91.
अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किए हुए स्तम्भों पर सन्देश लिखवाने वाले पहले सम्राट् कौन थे?
उत्तर:
अशोक वह पहले सम्राट् थे जिन्होंने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किए हुए स्तम्भों पर सन्देश लिखवाए।

प्रश्न 92.
चीनी शासक स्वयं को किस नाम से सम्बोधित करते थे?
उत्तर:
चीनी शासक स्वयं को स्वर्गपुत्र के नाम से सम्बोधित करते थे।

प्रश्न 93.
गुप्त शासकों का इतिहास किसकी सहायता से लिखा गया है?
उत्तर:
गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है।

प्रश्न 94.
गंदविन्दु जातक नामक कहानी में क्या बताया गया है?
उत्तर:
गंदविन्दु जातक नामक एक कहानी में यह बताया गया है कि एक कुटिल राजा की प्रजा किस प्रकार दुःखी रहती है।

प्रश्न 95.
पालि भाषा में गहपति का प्रयोग किनके लिए किया जाता है?
उत्तर:
पालि भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और जमींदारों के लिए किया जाता है।

प्रश्न 96.
उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र से क्या अभिप्राय
उत्तर:
नगरों में मिले चमकदार कलई वाले मिट्टी के कटोरे, थालियाँ आदि उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र कहलाते हैं।

प्रश्न 97.
पियदस्सी शब्द से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
पियदस्सी अर्थात् देखने में सुन्दर।

प्रश्न 98.
देवानांप्रिय शब्द का क्या आशय है?
उत्तर:’
देवानांप्रिय शब्द का आशय है, देवताओं का

प्रश्न 99.
अभिलेखशास्त्रियों ने पतिवेदक शब्द का अर्थ क्या बताया ?
उत्तर:
अभिलेखशास्त्रियों ने पतिवेदक शब्द का अर्थ संवाददाता बताया।

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लघुत्तरात्मक प्रश्न 

प्रश्न 1.
अशोक द्वारा अपने अधिकारियों और प्रजा को दिए गए संदेशों को वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
अशोक ने अपने अधिकारियों और प्रजा को संदेश दिया कि वे बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परम्पराओं का आदर करें। वर्तमान समय में भी अशोक के संदेशों की प्रासंगिकता बनी हुई है।

प्रश्न 2.
“हड़प्पा सभ्यता के बाद डेढ़ हजार वर्षों के लम्बे अन्तराल में उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में कई प्रकार के विकास हुए।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(1) इस काल में सिन्धु नदी और इसकी उपनदियों के किनारे रहने वाले लोगों ने ऋग्वेद का लेखन- कार्य किया।
(2) उत्तर भारत, दक्कन पठार क्षेत्र और कर्नाटक आदि कई क्षेत्रों में कृषक बस्तियों का उदय हुआ।
(3) ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के दौरान मध्य और दक्षिण भारत में शवों के अन्तिम संस्कार के नवीन तरीके अपनाए गए। इनमें महापाषाण नामक पत्थरों के बड़े-बड़े ढाँचे मिले हैं। कई स्थानों पर शवों के साथ लोहे से बने उपकरणों एवं हथियारों को भी दफनाया गया था।

प्रश्न 3.
ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भारत में हुए नवीन परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भारत में हुए नवीन परिवर्तन- ई. पूर्व छठी शताब्दी से भारत में निम्नलिखित नवीन परिवर्तन हुए –
(1) इन परिवर्तनों में सबसे प्रमुख परिवर्तन आरम्भिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों का विकास है। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं के लिए कुछ अन्य परिवर्तन जिम्मेदार थे। इनकी जानकारी कृषि उपज को संगठित करने के तरीके से होती है।
(2) इस युग में लगभग सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में नए नगरों का उदय हुआ।

प्रश्न 4.
जेम्स प्रिंसेप कौन था? उसके द्वारा किये |गए शोध कार्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जेम्स प्रिंसेप ईस्ट इण्डिया कम्पनी में एक अधिकारी के पद पर नियुक्त था। उसने 1838 ई. में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। इन लिपियों का उपयोग सबसे आरम्भिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है। प्रिंसेप को यह जानकारी हुई कि अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी अर्थात् सुन्दर मुखाकृति वाले राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम अशोक भी लिखा था।

प्रश्न 5.
“जेम्स प्रिंसेप के शोध कार्य से आरम्भिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को एक नई दिशा मिली।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
(1) भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रन्थों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास की एक सामान्य रूपरेखा तैयार हो गई।
(2) उसके पश्चात् विद्वानों को जानकारी हुई कि राजनीतिक परिवर्तनों और आर्थिक तथा सामाजिक विकासों के बीच सम्बन्ध तो थे, परन्तु सम्भवतः सीधे सम्बन्ध सदैव नहीं थे।

प्रश्न 6.
अभिलेख आज भी इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। स्पष्ट कीजिए।
अथवा
वर्तमान इतिहास लेखन में अभिलेखों की उपादेयता सिद्ध कीजिए।
अथवा
इतिहास लेखन में अभिलेखों का क्या महत्त्व है?
अथवा
अभिलेख किसे कहते हैं? उनका ऐतिहासिक महत्त्व बताइये।
उत्तर:
अभिलेख अभिलेख उन्हें कहते हैं, जो पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं।

अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्त्व –
(1) अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियों, क्रियाकलापों तथा विचारों का उल्लेख मिलता है, जो उन्हें बनवाते हैं।
(2) इनमें राजाओं के क्रियाकलापों तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए दान का विवरण होता है।
(3) अभिलेखों में इनके निर्माण की तिथि भी खुदी होती है।

प्रश्न 7.
जिन अभिलेखों पर तिथि खुदी हुई नहीं मिलती है, उनका काल निर्धारण किस प्रकार किया जाता था?
उत्तर:
जिन अभिलेखों पर तिथि खुदी हुई नहीं मिलती है, उनका काल निर्धारण आमतौर पर पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधार पर किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, लगभग 250 ई. पूर्व में अक्षर अ ‘प्र’ इस प्रकार लिखा जाता था और 500 ई. में बह भ इस प्रकार लिखा जाता था।

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प्रश्न 8.
प्राचीनतम अभिलेख किन भाषाओं में लिखे जाते थे?
उत्तर:
प्राचीनतम अभिलेख प्राकृत भाषाओं में लिखे जाते थे। प्राकृत उन भाषाओं को कहा जाता था जो जनसामान्य की भाषाएँ होती थीं। प्राकृत भाषा में अजातशत्रु को ‘अजातसत्तु’ तथा अशोक को ‘असोक’ लिखा जाता है। कुछ अभिलेख तमिल, पालि और संस्कृत भाषाओं में भी मिलते हैं।

प्रश्न 9.
आरम्भिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पूर्व को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल क्यों माना जाता है?
उत्तर:
आरम्भिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पूर्व को निम्न कारणों से एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है-

  1. इस काल को प्रायः आरम्भिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग तथा सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा जाता है।
  2. इस काल में बौद्ध धर्म, जैन धर्म सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।
  3. इस काल में सोलह महाजनपदों का उदय हुआ।

प्रश्न 10.
‘जनपद’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
जनपद का अर्थ एक ऐसा भूखण्ड है, जहाँ कोई जन (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है। अथवा बस जाता है। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत व संस्कृत दोनों भाषाओं में मिलता है प्रारम्भ में इन जनों का कोई निश्चित स्थान नहीं होता था और अपनी आवश्यकतानुसार ये स्थान बदल लिया करते थे परन्तु शीघ्र ही वे एक निश्चित स्थान पर बस गए। भिन्न-भिन्न भौगोलिक क्षेत्र ‘जनों’ के बस जाने के कारण ‘जनपद’ कहलाने लगे।

प्रश्न 11.
बौद्धकालीन 16 महाजनपदों के नाम लिखिए।
अथवा
छठी शताब्दी ई. पूर्व के सोलह महाजनपदों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत में अनेक महाजनपदों का उदय हुआ। बौद्ध और जैन धर्म के आरम्भिक ग्रन्थों में 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।

इनके नाम हैं –

  1. अंग
  2. मगध
  3. काशी
  4. कोशल
  5. वज्जि
  6. मल्ल
  7. चेदि
  8. वत्स
  9. कुरु
  10. पांचाल
  11. मत्स्य
  12. शूरसेन
  13. अश्मक
  14. अवन्ति
  15. कम्बोज तथा
  16. गान्धार।

प्रश्न 12.
मगध के शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उदय के प्रमुख कारण लिखिए।
अथवा
मगध महाजनपद के सबसे शक्तिशाली बनने के क्या कारण थे?
थी।
उत्तर:
आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार मगध महाजनपद के सबसे शक्तिशाली बनने के कारण –

  1. मगध क्षेत्र में खेती की उपज बहुत अच्छी होती
  2. मगध क्षेत्र में लोहे की खदानें भी सरलता से उपलब्ध थीं। अतः लोहे से उपकरण और हथियार बनाना आसान होता था।
  3. मगध के जंगलों में बड़ी संख्या में हाथी उपलब्ध थे। ये हाथी मगध राज्य की सेना के एक महत्त्वपूर्ण अंग थे।
  4. गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता वसुलभ होता था।
  5. बिम्बिसार, अजातशत्रु की नीतियों मगध के विकास के लिए उत्तरदायी थीं।

प्रश्न 13.
आरम्भिक जैन एवं बौद्ध लेखकों के अनुसार मगध के सबसे शक्तिशाली महाजनपद बनने के क्या कारण थे?
उत्तर:
आरम्भिक जैन और बौद्ध लेखकों के अनुसार मगध के सबसे शक्तिशाली महाजनपद बनने के लिए मगध के पराक्रमी शासकों की नीतियाँ उत्तरदायी थीं। बिम्बिसार, अजातशत्रु, महापद्मनन्द आदि राजा अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी एवं पराक्रमी शासक थे जिनके नेतृत्व में मगध राज्य का अत्यधिक विस्तार हुआ। इनके मन्त्री भी योग्य थे जो इनकी नीतियों को सफलतापूर्वक लागू करते थे।

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प्रश्न 14.
महाजनपदों की शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था, परन्तु ‘गण’ और ‘संघ’ नामक प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। बन्जि संघ की ही भाँति कुछ राज्यों में भूमि सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा गण सामूहिक नियन्त्रण रखते थे। प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जो प्रायः किले से घेरी जाती थी।

प्रश्न 15.
मगध की प्रारम्भिक राजधानी राजगाह पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मगध की प्रारम्भिक राजधानी राजगाह (आधुनिक बिहार में स्थित राजगीर) थी। राजगाह का शाब्दिक अर्थ है—’राजाओं का घर’। पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबन्द शहर था। बाद में चौथी शताब्दी ई. पूर्व में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया, जो अब पटना के नाम से जाना जाता है। यह गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर स्थित था।

प्रश्न 16.
अशोक कौन था?
उत्तर:
अशोक बिन्दुसार का पुत्र तथा चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र था। वह आरम्भिक भारत का सर्वप्रसिद्ध सम्राट था। उसने कलिंग पर विजय प्राप्त की अशोक पहला सम्राट था, जिसने अपने अधिकारियों एवं प्रजा के लिए सन्देश प्राकृतिक पत्थरों और पालिश किए हुए स्तम्भों पर लिखवाये थे। उसने अपने अभिलेखों के माध्यम से ‘धम्म’ का प्रचार किया।

प्रश्न 17.
अशोक के अभिलेख किन भाषाओं और लिपियों में लिखे गए थे?
उत्तर:
अशोक के अभिलेखों की भाषाएँ एवं लिपियाँ – अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं जबकि पश्चिमोत्तर से प्राप्त अभिलेख अरामेइक और यूनानी भाषा में हैं। प्राकृत के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे परन्तु पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में लिखे गए थे। अरामेइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग अफगानिस्तान में मिले अभिलेखों में किया गया था।

प्रश्न 18.
मेगस्थनीज के द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के सैनिक विभाग के प्रबन्ध के बारे में क्या विवरण दिया गया है?
उत्तर:
मेगस्थनीज ने लिखा है कि सैनिक विभाग का प्रबन्ध करने के लिए एक समिति तथा छः उपसमितियाँ बनी हुई थीं। पहली उपसमिति का काम नौसेना का संचालन करना था। दूसरी उपसमिति यातायात तथा खानपान का संचालन करती थी। तीसरी उपसमिति का काम पैदल सैनिकों का संचालन करना था। चौथी उपसमिति अश्वारोही सेना का संचालन करती थी तथा पाँचवीं उपसमिति का काम रथारोहियों का संचालन करना था। छठी उपसमिति हाथियों का संचालन करती थी।

प्रश्न 19.
मेगस्थनीज के अनुसार सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए नियुक्त दूसरी उपसमिति क्या कार्य करती थी?
उत्तर:
मेगस्थीज के अनुसार दूसरी उपसमिति विभिन्न प्रकार के कार्य करती थी, जैसे उपकरणों के ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था करना, सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों को नियुक्त करना आदि।

प्रश्न 20.
मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य साम्राज्य के प्रमुख अधिकारियों के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) कुछ अधिकारी नदियों की देख-रेख तथा भूमि मापन का कार्य करते थे।
(2) कुछ अधिकारी प्रमुख नहरों से उपनहरों के लिए छोड़े जाने वाले पानी के मुखद्वार का निरीक्षण करते थे ताकि प्रत्येक स्थान पर पानी की समान पूर्ति हो सके। यही अधिकारी शिकारियों का संचालन करते थे।
(3) ये अधिकारी करवसूली करते थे और भूमि से जुड़े सभी व्यवसायों का निरीक्षण करते थे। इसके अतिरिक्त वे लकड़हारों, बढ़ई, लोहारों तथा खननकर्ताओं का भी निरीक्षण करते थे।

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प्रश्न 21.
मौर्य साम्राज्य के प्रमुख राजनीतिक केन्द्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे –

  1. पाटलिपुत्र- यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी थी
  2. तक्षशिला यह प्रान्तीय केन्द्र था।
  3. उज्जयिनी – यह भी प्रान्तीय केन्द्र था।
  4. तोसलि – यह भी एक प्रान्तीय केन्द्र था।
  5. स्वर्णगिरि – यह भी एक प्रान्तीय केन्द्र था।

मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र तथा उसके आस-पास के प्रान्तीय केन्द्रों पर सबसे सुदृढ़ प्रशासनिक नियन्त्रण था।

प्रश्न 22.
मौर्य साम्राज्य के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
(1) मौर्य काल में भवन निर्माण कला, मूर्तिकला आदि की महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई।
(2) मौर्य सम्राटों के अभिलेखों पर लिखे संदेश अन्य शासकों के अभिलेखों से भिन्न हैं।
(3) अन्य शासकों की अपेक्षा अशोक एक बहुत शक्तिशाली, प्रभावशाली और परिश्रमी शासक थे। वह बाद के राजाओं की अपेक्षा विनीत और नम्र भी थे।
(4) अशोक की उपलब्धियों से प्रभावित होकर बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना।

प्रश्न 23.
मौर्य साम्राज्य की कमजोरियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
(1) मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्ष तक ही अस्तित्व में रहा। इसे उपमहाद्वीप के इस लम्बे इतिहास में बहुत बड़ा काल नहीं माना जा सकता।
(2) मौर्य साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया था। इसके अतिरिक्त मौर्य साम्राज्य की सीमाओं के अन्तर्गत भी नियन्त्रण एक समान नहीं था। अतः दूसरी शताब्दी ई. पूर्व तक उपमहाद्वीप के अनेक भागों में नए- नए शासक और रजवाड़े स्थापित होने लगे।

प्रश्न 24.
अशोक ने अपने साम्राज्य को अखण्ड बनाए रखने के लिए क्या उपाय किये?
उत्तर:
अशोक ने अपने साम्राज्य को अखण्ड बनाए रखने के लिए ‘धम्म’ के प्रचार का सहारा लिया। अशोक के ‘धम्म’ के सिद्धान्त बड़े साधारण व्यावहारिक तथा सार्वभौमिक थे। उसने धम्म के माध्यम से अपनी प्रजा की लौकिक और पारलौकिक उन्नति का प्रयास किया। उसने धम्म के प्रचार के लिए ‘धर्ममहामात्र’ नामक विशेष अधिकारी नियुक्त किए।

प्रश्न 25.
सरदार और सरदारी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सरदार एक शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्ति होता था जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता था और नहीं भी। उसके समर्थक उसके वंश के लोग होते थे सरदार विशेष अनुष्ठान का संचालन करता था, युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करता था तथा लोगों के विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाता था। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता था और उसे अपने समर्थकों में बाँट दिया करता था। सरदारी में सामान्यतया कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते थे।

प्रश्न 26.
दक्षिण के राज्यों और उनके शासकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उपमहाद्वीप के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्र में स्थित तमिलकम (अर्थात् तमिलनाडु एवं आन्ध्रप्रदेश और केरल के कुछ भाग) में चोल, चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। ये राज्य बहुत ही. समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए कई सरदार और राजा लम्बी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व जुटाते थे। इनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक सम्मिलित थे।

प्रश्न 27.
प्राचीन भारतीय शासक देवी-देवताओं के साथ जुड़ने का प्रयास क्यों करते थे?
उत्तर:
प्राचीन भारतीय शासक उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं के साथ जुड़ने का प्रयास करते थे। कुषाण शासकों ने इस उपाय का सर्वश्रेष्ठ उद्धरण प्रस्तुत किया। कुषाण सम्राटों ने देवस्थानों पर अपनी विशालकाय मूर्तियाँ स्थापित कीं। वे इन मूर्तियों के माध्यम से स्वयं देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। कुछ कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र’ की उपाधि धारण की।

JAC Class 12 History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 28.
‘प्रयाग प्रशस्ति’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
‘प्रयाग प्रशस्ति’ के रचयिता हरिषेण थे, जो गुप्त वंश के सम्राट समुद्रगुप्त के राजकवि थे ‘प्रयाग- प्रशस्ति’ संस्कृत में लिखी गई थी। ‘प्रयाग प्रशस्ति’ से हमें समुद्रगुप्त के जीवन, विजयों, व्यक्तिगत गुणों, तत्कालीन राजनीतिक दशा आदि के बारे में जानकारी मिलती है। ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में समुद्रगुप्त की दिग्विजय का उल्लेख है। ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में समुद्रगुप्त को परमात्मा पुरुष, उदारता की प्रतिमूर्ति, कुबेर, वरुण, इन्द्र और यम के तुल्य बताया गया है।

प्रश्न 29.
हरिषेण द्वारा ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में समुद्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताओं का किस प्रकार वर्णन किया गया है?
उत्तर:
प्रयाग प्रशस्ति’ में हरिषेण ने समुद्रगुप्त के लिए लिखा है कि “धरती पर उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं था अनेक गुणों और शुभ कार्यों से सम्पन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया है। वे परमात्मा पुरुष हैं, साधु (भले) की समृद्धि और असाधु (बुरे) के विनाश के कारण हैं। वे करुणा से भरे हुए हैं। उनके मस्तिष्क की दीक्षा दीन-दुखियों विरहणियों और पीड़ितों के उद्धार के लिए की गई है। वे देवताओं में कुबेर ( धन-देव), वरुण (समुद्र-देव), इन्द्र (वर्षा के देवता) और यम (मृत्यु-देव)
के तुल्य हैं।”

प्रश्न 30.
शक- शासक रुद्रदामन के अभिलेख में सुदर्शन झील के बारे में क्या विवरण दिया गया है?
उत्तर:
शक- शासक रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील के बारे में वर्णन है कि जलद्वारों और तटबन्धों वाली इस झील का निर्माण मौर्यकाल में एक स्थानीय राज्यपाल द्वारा किया गया था। परन्तु एक भीषण तूफान के कारण इसके तटबन्ध टूट गए और सारा पानी बह गया। तत्कालीन शासक रुद्रदामन ने इस झील की मरम्मत अपने से करवाई थी और इसके लिए अपनी प्रजा से कर भी नहीं लिया था।

प्रश्न 31.
जनता में राजा की छवि के बारे में किस स्त्रोत से जानकारी मिलती है?
उत्तर:
जनता में राजा की छवि के बारे में जातकों एवं पंचतंत्र जैसे ग्रन्थों में वर्णित कथाओं से जानकारी मिलती है। इतिहासकारों ने पता लगाया है कि इनमें से अनेक कथाओं के स्रोत मौखिक किस्से-कहानियाँ हैं, जिन्हें बाद में लिखा गया होगा। इन जातकों से राजा के व्यवहार के कारण जनता की शोचनीय स्थिति तथा राजा और प्रजा के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।

प्रश्न 32.
‘गंदतिन्दु’ नामक जातक कथा से राजा और प्रजा के सम्बन्धों पर क्या प्रकाश पड़ता है?
उत्तर:
गंदविन्दु’ नामक जातक कथा से पता चलता है कि एक कुटिल राजा की प्रजा किस प्रकार से दुःखी रहती है। जब राजा अपनी पहचान बदलकर प्रजा के बीच में यह जानने के लिए गया कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, तो सभी लोगों ने अपने दुःखों के लिए राजा की आलोचना की। उनकी शिकायत थी कि रात में डाकू लोग उन पर हमला करते हैं तथा दिन में कर इकट्ठा करने वाले अधिकारी उन्हें परेशान करते हैं।

प्रश्न 33.
जातक कथाओं के अनुसार राजा और प्रजा के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण क्यों रहते थे?
उत्तर:
जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण रहते थे। इसका प्रमुख कारण यह था कि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए प्रजा से बड़े-बड़े करों की माँग करते थे, जिससे किसानों में घोर असन्तोष व्याप्त था। जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि राजा के अत्याचारों से बचने के लिए किसान लोग अपने घर छोड़कर जंगल की ओर भाग जाते थे। इस प्रकार राजा और ग्रामीण प्रजा के बीच तनाव बना रहता था।

प्रश्न 34.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में उपज बढ़ाने के तरीकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) भारी वर्षा होने वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों के माध्यम से उर्वर भूमि की जुताई की जाती थी। कुछ क्षेत्रों में खेती के लिए कुदाल का उपयोग किया जाता था।
(2) गंगा की घाटी में धान की रोपाई किए जाने से उपज में भारी वृद्धि होने लगी।
(3) उपज बढ़ने के लिए कुओं, तालाबों तथा नहरों के माध्यम से सिंचाई की जाती थी राजाओं द्वारा कुआँ, तालाबों तथा नहरों का निर्माण करवाया जाता था।

प्रश्न 35.
ग्रामीण समाज में पाई जाने वाली विभिन्नताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि भारत में खेती से जुड़े लोगों में भेद बढ़ता जा रहा था बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है। बड़े-बड़े जमींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली तथा प्रभावशाली माने जाते थे तथा वे किसानों पर नियन्त्रण रखते थे आरम्भिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे कि वेल्लालर या बड़े जमींदार, हलवाहा या उल्चर और दास अणिमई।

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प्रश्न 36.
मनुस्मृति के अनुसार सीमा सम्बन्धी विवादों के समाधान के लिए राजा को क्या सलाह दी गई है?
उत्तर:
मनुस्मृति में सीमा सम्बन्धी विवादों के समाधान के लिए राजा को निम्न सलाह दी गई है –
चूंकि सीमाओं की अनभिज्ञता के कारण विश्व में बार-बार विवाद पैदा होते हैं, इसलिए उसे सीमाओं की पहचान के लिए गुप्त निशान जमीन में गाड़ कर रखने चाहिए जैसे कि पत्थर, हड्डियाँ, गाय के बाल, भूसी, राख, खपटे, गाय के सूखे गोबर, ईंट, कोयला, कंकड़ और रेत। उसे सीमाओं पर इसी प्रकार के और तत्त्व भूमि में छुपाकर गाड़ने चाहिए जो समय के \
साथ नष्ट न हों।

प्रश्न 37.
‘हर्षचरित’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
हर्षचरित’ हर्षचरित’ संस्कृत में लिखी गई कनौज के शासक हर्षवर्धन की जीवनी है। इस ग्रन्थ की रचना हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने की थी। ‘हर्षचरित’ से हर्षवर्धन के जीवन, राज्यारोहण, उसकी विजयों, चारित्रिक विशेषताओं आदि की जानकारी मिलती है। इससे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाओं तथा समाज के विभिन्न वर्गों तथा उनके व्यवसाय के बारे में भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 38.
‘गहपति’ के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
पालि भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और जमींदारों के लिए किया जाता था। गहपति घर का मुखिया होता था तथा घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों, नौकरों और दासों पर नियन्त्रण करता था। घर से जुड़े भूमि, जानवर या अन्य सभी वस्तुओं का वह मालिक होता था । कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग नगरों में रहने वाले प्रतिष्ठित व्यक्तियों और व्यापारियों के लिए भी होता था।

प्रश्न 39.
बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘हर्षचरित’ में विश्य क्षेत्र के जंगल के किनारे की एक बस्ती के जीवन का किस प्रकार चित्रण किया है?
उत्तर:
‘हर्षचरित’ के अनुसार, बस्ती के किनारे का अधिकांश क्षेत्र जंगल है और यहाँ धान की उपज वाली, खलिहान और उपजाऊ भूमि के हिस्सों को छोटे किसानों ने आपस में बाँट लिया है। यहाँ के अधिकांश लोग कुदाल का प्रयोग करते हैं क्योंकि घास से भरी भूमि में हल चलाना कठिन है। यहाँ लोग पेड़ की छाल के गट्ठर लेंकर चलते हैं। वे फूलों से भरे अनगिनत बोरे, अलसी और सन, भारी मात्रा में शहद, मोरपंख, मोम, लकड़ी और पास के बोझ लेकर आते जाते रहते हैं।

प्रश्न 40.
भूमिदान का उल्लेख किन में मिलता है? भूमिदान किन्हें दिया जाता था ?
उत्तर:
भूमिदान – ईसवी की आरम्भिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं। कई भूमिदानों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। इनमें से कुछ अभिलेख पत्थरों पर उत्कीर्ण थे परन्तु अधिकांश अभिलेख ताम्रपत्रों पर खुदे होते थे। इन्हें सम्भवतः उन लोगों को प्रमाण रूप में दिया जाता था जो भूमिदान लेते थे साधारणतया भूमिदान धार्मिक संस्थाओं और ब्राह्मणों को दिए गए थे।

प्रश्न 41.
अभिलेखों से प्रभावती गुप्त के भूमिदान किए जाने के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर:
प्रभावती गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ई.) की पुत्री थी संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार महिलाओं को भूमि जैसी सम्पत्ति पर स्वतन्त्र अधिकार नहीं था। परन्तु एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रभावती गुप्त भूमि की स्वामिनी थी और उसने भूमिदान भी किया था। इसका एक कारण यह हो सकता है कि चूँकि वह एक रानी थी और इसीलिए उनका यह उदाहरण एक विरला ही रहा हो।

प्रश्न 42.
प्रभावती गुप्त के अभिलेख से हमें ग्रामीण प्रजा के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर:
प्रभावती गुप्त के अभिलेख से हमें तत्कालीन ग्रामीण प्रजा के बारे में जानकारी मिलती है। उस समय गाँवों में ब्राह्मण, किसान तथा अन्य प्रकार के वर्गों के लोग रहते थे। ये लोग शासकों या उनके प्रतिनिधियों को अनेक प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करते थे। अभिलेखों के अनुसार इन लोगों को गाँव के नए प्रधान की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता था। ये लोग अपने भुगतान उसी को ही देते थे।

प्रश्न 43.
भूमिदान के प्रभावों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:

  1. कुछ इतिहासकारों के अनुसार भूमिदान शासक वंश द्वारा कृषि को नये क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी।
  2. जब राजा का शासन सामन्तों पर कमजोर होने लगा, तो उन्होंने भूमिदान के माध्यम से अपने समर्थकों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया।
  3. राजा स्वयं को उत्कृष्ट स्तर के मानव के रूप में प्रदर्शित करना चाहते थे।
  4. भूमिदान के प्रचलन से राज्य तथा किसानों के बीच सम्बन्ध की झांकी मिलती है।

प्रश्न 44.
अपने अभिलेख में दंगुन गाँव के दान में प्रभावती गुप्त द्वारा दी गई रियायतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अपने अभिलेख में प्रभावती गुप्त ने निम्नलिखित रियायतों की घोषणा की। इस गाँव में पुलिस या सैनिक प्रवेश नहीं करेंगे। दौरे पर आने वाले शासकीय अधिकारियों को यह गाँव पास देने और आसन में प्रयुक्त होने वाले जानवरों की खाल और कोयला देने के दायित्व से मुक्त है। साथ ही वे मदिरा खरीदने और नमक हेतु खुदाई करने के राजसी अधिकार को कार्यान्वित किए जाने से मुक्त हैं। इस गाँव को खनिज पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल और दूध देने से भी छूट है।

प्रश्न 45.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में नये नगरों के विकास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
लगभग छठी शताब्दी ई. पूर्व में उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक नगरों का विकास हुआ। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थीं। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदी मार्ग के किनारे बसे थे। उज्जयिनी जैसे नगर भूतल मार्गों के किनारे बसे थे। इसके अतिरिक्त पुहार जैसे नगर समुद्र तट पर थे, जहाँ से समुद्री मार्ग प्रारम्भ हुए। मथुरा जैसे अनेक शहर व्यावसायिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।

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प्रश्न 46.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में नगरों में रहने वाले सम्भ्रान्त वर्ग और शिल्पकार वर्गों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
किलेबन्द नगरों में उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। सम्भवतः इनका उपयोग धनी लोग करते होंगे। इसके साथ ही सोने, चाँदी, हाथीदाँत, कांस्य आदि के बने आभूषण, उपकरण, हथियार भी मिले हैं इनका उपयोग भी धनी लोगों द्वारा किया जाता था। दानात्मक अभिलेखों में नगरों में रहने वाले बुनकर, लिपिक, बढ़ई, स्वर्णकार, व्यापारी, अधिकारी के बारे में विवरण मिलता है।

प्रश्न 47.
पाटलिपुत्र के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नामक एक गाँव से हुआ। पाँचवीं सदी ई. पूर्व में मगध शासकों ने अपनी राजधानी राजगाह (राजगीर) से हटाकर इसे बस्ती में लाने का निर्णय किया और इसका नाम पाटलिपुत्र रखा। चौथी शताब्दी ई. पूर्व तक पाटलिपुत्र मौर्य साम्राज्य की राजधानी और एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक बन गया। कालान्तर में इसका महत्त्व कम हो गया। जब सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग यहाँ आया, तो उरो यह नगर खंडहर में परिवर्तित मिला।

प्रश्न 48.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में उपमहाद्वीप और उसके बाहर के व्यापार मार्ग की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई. पूर्व से ही उपमहाद्वीप में नदी मार्ग और भूमार्ग विकसित हो चुके थे। ये मार्ग कई दिशाओं में विकसित हो गए थे। मध्य एशिया और उससे भी आगे तक भू-मार्ग थे। समुद्र तट पर बने अनेक बन्दरगाहों से जल मार्ग अरब सागर से होते हुए, उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया तक फैल गया था और बंगाल की खाड़ी से यह मार्ग चीन और दक्षिणपूर्व एशिया तक फैल गया था। राजाओं ने इन मार्गों पर नियन्त्रण करने का प्रयास किया।

प्रश्न 49.
छठी शताब्दी ई. पूर्व में उपमहाद्वीप में व्यापारी वर्ग तथा आयात-निर्यात पर प्रकाश डालिये।
उत्तर:
व्यापारी वर्ग-व्यापारिक मार्गों पर चलने वाले व्यापारियों में पैदल फेरी लगाने वाले व्यापारी तथा बैलगाड़ी और घोड़े खच्चरों के दल के साथ चलने वाले व्यापारी थे। साथ ही समुद्री मार्ग से भी लोग यात्रा करते थे। आयात-निर्यात- नमक, अनाज, कपड़ा, धातु और उससे बनी वस्तुएँ, पत्थर, लकड़ी, जड़ी-बूटी आदि वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाई जाती थीं भारत से कालीमिर्च जैसे मसालों, कपड़ों तथा जड़ी-बूटियों का निर्यात रोमन साम्राज्य को किया जाता था।

प्रश्न 50.
‘पेरिप्लस ऑफ एरीशियन सी’ नामक ग्रन्थ में एक यूनानी समुद्री यात्री ने मालाबार तट ( आधुनिक केरल) पर होने वाले आयात-निर्यात का क्या विवरण दिया है?
उत्तर:
यूनानी समुद्री यात्री के अनुसार भारी मात्रा में कालीमिर्च और दालचीनी खरीदने के लिए बाजार वाले नगरों में विदेशी व्यापारी जहाज भेजते हैं। यहाँ भारी मात्रा में सिक्कों, पुखराज, सुरमा, मूँगे, कच्चे शीशे, तांबे, टिन |और सीसे का आयात किया जाता है। इन बाजारों के आस-पास भारी मात्रा में उत्पन्न कालीमिर्च का निर्यात किया जाता है। इसके अतिरिक्त उच्च कोटि के मोतियों, हाथीदाँत, रेशमी वस्त्र, विभिन्न प्रकार के पारदर्शी पत्थरों, हीरों और काले नग तथा कछुए की खोपड़ी का आयात
होता है।

प्रश्न 51.
सिक्कों के प्रचलन से व्यापार और वाणिज्य सम्बन्धी गतिविधियों पर क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर:

  1. व्यापार में विनिमय कुछ सीमा तक आसान हो गया।
  2. बहुमूल्य वस्तु तथा भारी माश में अन्य वस्तुओं का विनिमय किया जाता था।
  3. दक्षिण भारत में अनेक रोमन सिक्कों के प्राप्त होने से पता चलता है कि दक्षिण भारत के रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध थे।
  4. गुप्तकाल में सिक्कों के माध्यम से व्यापार- विनिमय करने में आसानी होती थी जिससे राजाओं को भी लाभ होता था।
  5. यौधेय गणराज्यों ने भी सिक्के चलाए।

प्रश्न 52.
छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के कम संख्या में मिलने से किन तथ्यों के बारे में जानकारी मिलती है?
उत्तर:
कुछ इतिहासकारों का मत है कि –

  1. इस काल में कुछ आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया
  2. रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् दूरवर्ती व्यापार में कमी आई जिससे उन राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की सम्पन्नता पर प्रभाव पड़ा, जिन्हें दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।
  3. इस काल में नए नगरों और व्यापार के नये तन्त्रों का उदय होने लगा था।
  4. सिक्के इसलिए कम मिलते हैं क्योंकि वे प्रचलन में थे और उनका किसी ने भी संग्रह करके नहीं रखा था।

प्रश्न 53.
अशोककालीन ब्राह्मी लिपि का अर्थ किस प्रकार निकाला गया?
उत्तर:
ब्राह्मी लिपि का प्रयोग अशोक के अधिकांश अभिलेखों में किया गया है। अठारहवीं शताब्दी से यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय विद्वानों की सहायता से आधुनिक बंगाली और देवनागरी लिपि में कई पाण्डुलिपियों का अध्ययन आरम्भ किया और उनके अक्षरों की प्राचीन अक्षरों के नमूनों से तुलना शुरू की। विद्वानों ने यह अनुमान लगाया कि से संस्कृत में लिखे हैं, जबकि प्राचीनतम अभिलेख वास्तव में प्राकृत में थे जेम्स प्रिंसेप को अशोककालीन ब्राह्मी लिपि का 1838 ई. में अर्थ निकालने में सफलता मिली।

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प्रश्न 54.
विद्वानों द्वारा खरोष्ठी लिपि को कैसे पढ़ा गया?
उत्तर:
पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया है। इस क्षेत्र में शासन करने वाले हिन्द- यूनानी राजाओं (लगभग द्वितीय- प्रथम शताब्दी ई. पूर्व) द्वारा बनवाए गए सिक्कों में राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे गए हैं। यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने अक्षरों का मेल किया। चूँकि जेम्स प्रिंसेप ने खरोष्ठी में लिखे अभिलेखों की भाषा की पहचान प्राकृत के रूप में की थी, इसलिए लम्बे अभिलेखों को पढ़ना आसान हो गया।

प्रश्न 55.
अपने अभिलेख में अशोक ने पतिवेदकों को क्या आदेश दिए हैं?
उत्तर:
अपने अभिलेख में अशोक यह कहते हैं, “अतीत में समस्याओं को निपटाने और नियमित रूप से सूचना एकत्र करने की व्यवस्थाएँ नहीं थीं। परन्तु मैंने निम्नलिखित व्यवस्था की है लोगों के समाचार हम तक ‘पतिवेदक’ (संवाददाता) सदैव पहुँचायेंगे। चाहे मैं कहीं भी हूँ, खाना खा रहा हूँ, अन्तःपुर में हूँ, विश्राम कक्ष में हूँ, गोशाला में हूँ, या फिर पालकी में मुझे ले जाया जा रहा हो अथवा वाटिका में हूँ। मैं लोगों के मसलों का निराकरण हर स्थल पर करूँगा।”

प्रश्न 56.
मौर्यकालीन इतिहास के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए।
अथवा
मौर्य साम्राज्य के इतिहास का पुनर्निर्माण करने में इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त विभिन्न साधनों का विवेचन कीजिये।
उत्तर:

  1. अशोक के अभिलेखों से अशोक के शासन, उसके धम्म आदि के बारे में जानकारी मिलती है।
  2. कौटिल्यकृत ‘अर्थशास्त्र’ से मौयों की शासन- व्यवस्था तथा मौर्यकालीन समाज पर प्रकाश पड़ता है।
  3. मेगस्थनीज की पुस्तक ‘इण्डिका’ से चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था आदि के बारे में जानकारी मिलती है।
  4. जैन, बौद्ध पौराणिक ग्रन्थों और मूर्तियों, स्तम्भों आदि से भी मौर्यकालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

प्रश्न 57.
कलिंग युद्ध के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:

  1. इस युद्ध में लगभग एक लाख सैनिक मारे गए, 11⁄2 लाख बन्दी बनाए गए और इससे भी ज्यादा लोग मौत के मुँह में चले गए।
  2. इस युद्ध के बाद अशोक ने साम्राज्यवादी नीति का परित्याग कर दिया।
  3. अब अशोक ने धम्म का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया।
  4. कलिंग युद्ध के बाद अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया।
  5. इस युद्ध में हुए भारी नर संहार से अशोक को अत्यधिक पश्चाताप हुआ।

प्रश्न 58.
गुप्त शासकों का इतिहास लिखने में सहायक स्त्रोतों का वर्णन कीजिये।
अथवा
गुप्त वंश के इतिहास के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  1. पुराणों, स्मृतियों आदि से गुप्त वंश के इतिहास पर काफी प्रभाव पड़ता है।
  2. विभिन्न साहित्यिक रचनाओं से गुप्तकालीन शासन पद्धति, सामाजिक रीति-रिवाजों, राजनीतिक अवस्था आदि के बारे में जानकारी मिलती है।
  3. ‘प्रयाग प्रशस्ति’ से समुद्रगुप्त की विजयों, जीवन- चरित्र के बारे में जानकारी मिलती है।
  4. गुप्तकालीन सिक्कों से गुप्त शासकों के धर्म, साम्राज्य की सीमाओं के बारे में जानकारी मिलती है।

प्रश्न 59.
समुद्रगुप्त के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:

  1. समुद्रगुप्त एक वीर योद्धा, कुशल सेनापति तथा महान विजेता था ।
  2. ‘प्रयाग प्रशस्ति’ के अनुसार समुद्रगुप्त परमात्मा पुरुष हैं। वह साधु की समृद्धि और असाधु के विनाश के कारण हैं। ये उदारता की प्रतिमूर्ति हैं। वे देवताओं में कुबेर, वरुण, इन्द्र और यम के तुल्य हैं।
  3. समुद्रगुप्त योग्य शासक भी थे।
  4. वह उच्च कोटि के विद्वान तथा साहित्य एवं कला के संरक्षक थे।

प्रश्न 60.
गुप्तकालीन सिक्कों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गुप्त सम्राटों के अधिकांश सिक्के सोने के बने हैं। परन्तु कुछ गुप्त शासकों ने चाँदी तथा ताँबे के सिक्के भी चलाए। सोने के सबसे भव्य सिक्कों में से कुछ गुप्त – शासकों ने जारी किए। इन सिक्कों के माध्यम से दूर देशों से व्यापार विनिमय करने में आसानी होती थी जिससे शासकों को भी लाभ होता था। स्कन्दगुप्त ने भी सोने तथा चाँदी के सिक्के चलाए। उसके समय में सिक्कों की शुद्धता तथा सुन्दरता में कमी आ गई।

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प्रश्न 61.
अशोक के ‘धम्म’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
अथवा
अशोक के धम्म के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
अशोक के धम्म के सिद्धान्त बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे। उसके अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस लोक में तथा परलोक में अच्छा रहेगा। उसके धम्म के सिद्धान्त थे –

  1. बड़ों के प्रति आदर
  2. संन्यासियों तथा ब्राह्मणों के प्रति उदारता
  3. सेवकों तथा दासों के प्रति उदार व्यवहार
  4. दूसरे के धर्मों और परम्पराओं का आदर
  5. क्रोध, उग्रता, निष्ठुरता, ईर्ष्या तथा अभिमान का परित्याग ।

प्रश्न 62.
मौर्य सम्राट् के अधिकारी क्या-क्या कार्य करते थे?
उत्तर:
मेगस्थनीज के द्वारा लिखे गए विवरण से हमें मौर्य सम्राट् के अधिकारियों के कार्यों का विवरण मिलता है –
साम्राज्य के महान् अधिकारियों में से कुछ नदियों की देख-रेख और भूमि मापन का कार्य करते हैं। कुछ प्रमुख नहरों से उपनहरों के लिए छोड़े जाने वाले पानी के मुखद्वार का निरीक्षण करते हैं ताकि प्रत्येक स्थान पर पानी की पूर्ति समान मात्रा में हो सके। यही अधिकारी शिकारियों का संचालन करते हैं और शिकारियों के कृत्यों के आधार पर उन्हें इनाम या दण्ड देते हैं। वे कर वसूली करते हैं और भूमि से जुड़े सभी व्यवसायों का निरीक्षण करते हैं. साथ ही लकड़हारों, बढ़ई, लोहारों और खननकर्त्ताओं का भी निरीक्षण करते हैं।

प्रश्न 63.
” भारतीय उपमहाद्वीप में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से नए परिवर्तन के प्रमाण मिलते हैं।” कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से निम्नलिखित परिवर्तन हुए –
(1) भारतीय उपमहाद्वीप में आरम्भिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों का तीव्र गति से विकास हुआ है। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं के पीछे कुछ अन्य परिवर्तन जिम्मेदार थे। इसके बारे में जानकारी का कृषि उपज को संगठित करने के तरीके से पता चलता है।

(2) इस काल में लगभग सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में नए नगरों का उदय हुआ। इतिहासकार इस प्रकार के विकास का आकलन करने के लिए अभिलेखों, ग्रन्थों, सिक्कों तथा चित्रों जैसे विभिन्न प्रकार के स्रोतों का अध्ययन करते हैं।

प्रश्न 64.
महाजनपदों का उद्भव कैसे हुआ? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
मध्य गंगा घाटी में 1000 ई.पू. के मध्य प्रथमतः लोहे के साक्ष्य प्राप्त होना प्रारम्भ हो जाते हैं। इस काल में लोहे के आरम्भ के फलस्वरूप उन्नत कृषि के औजार तथा हलों का प्रयोग आरम्भ हुआ। इस प्रयोग के कारण प्रचुर मात्रा में खेती की पैदावार हुई। कृषि में इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप न केवल स्थायी जीवन को बढ़ावा मिला बल्कि राज्य को भरपूर राजस्व की भी प्राप्ति हुई। अधिक राजस्व की प्राप्ति के कारण राज्य को स्थायी सेना रखना सुगम हो गया। इस स्थायी सेना के माध्यम से राजाओं ने अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था स्थापित की, साथ ही साथ अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को विजित करके अपने क्षेत्र तथा राज्य को विस्तृत बनाया। अंततः यही विस्तृत क्षेत्र सोलह महाजनपदों के रूप में स्थापित हुए।

प्रश्न 65.
मौर्य साम्राज्य की स्थापना किसने की? भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य की स्थापना का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान् विजेता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने 321 ई. पू. में मगध के शासक घनानंद को हराकर मगध को अपने अधिकार में कर लिया। मगध प्रदेश भारत में मौर्य साम्राज्य की स्थापना का आधार बना। मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ ही भारत में छोटे-मोटे राज्य समाप्त हो गए और उनके स्थान पर एक विशालकाय साम्राज्य की स्थापना हुई। मौर्य साम्राज्य की स्थापना के पूर्व छोटे राज्यों का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं था। मौर्य साम्राज्य की स्थापना के पश्चात् भारतीय इतिहास का क्रमबद्ध आधार बना मौर्य साम्राज्य के दौरान विदेश व्यापार में खूब उन्नति हुई, भारत का विदेशों से व्यापक सम्पर्क स्थापित हुआ, इसके साथ ही भारत से विदेशी सत्ता का अन्त भी हुआ।

JAC Class 12 History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 66.
यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा वर्णित चन्द्रगुप्त मौर्य की सैन्य व्यवस्था पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य की | सैन्य व्यवस्था का विधिवत वर्णन किया है। मेगस्थनीज के अनुसार सैन्य व्यवस्था के समुचित संचालन हेतु एक समिति और छह उपसमितियों का गठन किया गया था। इन समितियों को पृथक् पृथक् सैन्य गतिविधियों के संचालन की जिम्मेदारी दी गई थी। जैसे एक समिति नौसैनिक गतिविधियों का संचालन करती थी तो दूसरी समिति सैनिकों की भोजन व्यवस्था का संचालन करती थी तीसरी समिति पैदल सेना का संचालन, चौथी समिति अश्वारोहियों की सेना का, पाँचवीं समिति रथारोहियों की सेना तथा छठी समिति हाथियों की सेना का संचालन करती थी।

प्रश्न 67.
मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्षों तक ही चल सका क्यों?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के केवल 150 वर्षों तक चलने के निम्न कारण हैं –

  1. अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य की बागडोर निर्बल शासकों के हाथ में आई जो मौर्य साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों को सम्भालने में सक्षम नहीं हुए।
  2. बौद्ध धर्म के अनुयायी होने के कारण अशोक को ब्राह्मण समाज के क्रोध का भाजन बनना पड़ा, वे मौर्य वंश के विरुद्ध हो गए।
  3. कलिंग विजय के पश्चात् अशोक पश्चात्ताप के भाव से भर उठे और उन्होंने अहिंसा की नीति अपनाई।
  4. साम्राज्य की सीमा के अन्तर्गत नियन्त्रण कमजोर होने के कारण अनेक राजे-रजवाड़ों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता घोषित कर दी।
    इस प्रकार धीरे-धीरे मौर्य साम्राज्य का अन्त हो गया।

प्रश्न 68.
दैविक राजा से क्या तात्पर्य है? संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
कुषाण शासक ने अपने राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने तथा प्रजा से पूजनीय तथा उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिए अपने आपको ईश्वर के रूप में प्रस्तुत किया। इसका सर्वोत्तम प्रमाण उनकी मूर्तियों और सिक्कों से प्राप्त होता है। कई कुषाण शासक अपने नाम के आगे देवपुत्र की उपाधि लगाते थे। अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने चीनी शासकों का अनुसरण किया जो अपने नाम के आगे ‘स्वर्गपुत्र’ की उपाधि लगाते हैं। कुषाण और शकों ने इस बात का प्रचार किया कि राजा को शासन करने का दैवीय अधिकार परमात्मा से प्राप्त है और यह अधिकार वंशानुगत है।

प्रश्न 69
प्रशस्तियों से आप क्या समझते हैं? इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख किसके सम्बन्ध में है?
उत्तर:
प्रशस्तियों का तात्पर्य राजाओं के यशोगान से है। तत्कालीन साहित्यिक कवियों द्वारा अपने राजाओं की प्रशंसा में प्रशस्ति लिखी जाती थी। गुप्त साम्राज्य के सबसे शक्तिशाली सम्राट् समुद्रगुप्त के राजकवि हरिषेण ने प्रयाग प्रशस्ति के नाम से एक रचना की जिसे इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख कहा जाता है। यह प्रशस्ति संस्कृत में लिखी गई थी। हरिषेण ने सम्राट् समुद्रगुप्त की प्रशंसा में लिखा है-

“धरती पर उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है, अनेक गुणों और शुभ कार्यों से सम्पन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया है। वे परमात्मा पुरुष हैं, साधु की समृद्धि और असाधु के विनाश के कारण हैं। वे अजेय हैं। उनके कोमल हृदय को भक्ति और विनय से ही वश में किया जा सकता है। वे करुणा से भरे हुए हैं। वे अनेक सहस्र गायों के दाता हैं। उनके मस्तिष्क की दीक्षा दीन-दुखियों, बिरहिणियों और पीड़ितों के उद्धार के लिए की गई है। वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति हैं। वे देवताओं में कुबेर, वरुण, इन्द्र और यम के तुल्य हैं। ”

प्रश्न 70.
अभिलेखों से भूमिदान के सम्बन्ध में क्या विवरण प्राप्त होते हैं?
उत्तर:
भूमिदान से सम्बन्धित अभिलेख देश के कई हिस्सों से प्राप्त हुए हैं, कहीं-कहीं भूमि के छोटे टुकड़े तो कहीं बड़े-बड़े क्षेत्रों के दान का उल्लेख है। कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गए थे। अधिकांश अभिलेख ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण हैं। साधारणतया भूमिदान ब्राह्मणों और सामाजिक संस्थाओं को दिया जाता था। अभिलेख मुख्यतया संस्कृत में लिखे जाते थे, कुछ अभिलेख तमिल और तेलुगु भाषा में भी हैं। कुछ महिलाओं द्वारा भी भूमिदान के साक्ष्य प्राप्त हैं। वाकाटक वंश के राजा की रानी प्रभावती ने ब्राह्मण को भूमिदान किया था।

प्रश्न 71.
नए नगरों के विकास पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में छठी शताब्दी ईसा पूर्व कई नगरों का विकास हुआ प्रमुख नगर महाजनपदों की राजधानियों के रूप में विकसित हुए। इन नगरों के विकास में प्राकृतिक रूप से संचार मार्गों की भूमिका रही है। पाटलिपुत्र गंगा नदी के किनारे, दक्षिण भारत में पुहार जैसे महाजनपद समुद्र तट के किनारे जहाँ समुद्री मार्ग प्रारम्भ हुए तथा मथुरा जैसे अनेक शहर व्यावसायिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे। उज्जयिनी जैसे नगर भूतल परिवहन मार्गों से देश के सभी भागों से जुड़ा हुआ था। इसके अतिरिक्त तक्षशिला, कन्नौज, वाराणसी, श्रावस्ती, वैशाली, राजगीर, पैठन, सोपारा, विदिशा, धान्यकंटक, कोडूमनाल जैसे प्रमुख अन्य नए शहर विकसित हुए।

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प्रश्न 72.
ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि का अध्ययन कैसे किया गया?
उत्तर:
ब्राह्मी लिपि भारत की सभी भाषा लिपियों की जनक है। यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने बंगाली और देवनागरी शब्दों को पढ़कर उनकी पुराने अभिलेखों के शब्दों से तुलना की आरम्भिक अभिलेखों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने कई बार यह अनुमान लगाया कि इन अभिलेखों की भाषा संस्कृत थी, वास्तव में अभिलेखों की भाषा प्राकृत थी।

1830 के दशक में जेम्स प्रिंसेप ने अथक प्रयासों से अशोककालीन ब्राह्मी लिपि को पढ़ने और उसका अर्थ निकालने में सफलता प्राप्त की। पश्चिमोत्तर भाग से प्राप्त होने वाली खरोष्ठी लिपि को पढ़ने की विधि अलग थी। यूनानी विद्वान् जो यूनानी लिपि को पढ़ने में समर्थ थे, ने खरोष्ठी भाषा के शब्दों को उसके
साथ मिलान करके पढ़ने में सफलता प्राप्त की।

प्रश्न 73.
गुजरात की सुदर्शन झील पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सुदर्शन झील एक कृत्रिम जलाशय था। हमें इस जलाशय के बारे में जानकारी लगभग दूसरी शताब्दी ई. के संस्कृत के एक पाषाण अभिलेख से होती है। इस अभिलेख में कहा गया है कि जलद्वारों और तटबन्धों वाली इस झील का निर्माण मौर्यकाल में एक स्थानीय राज्यपाल द्वारा किया गया था। लेकिन एक भीषण तूफान के कारण इसके तटबन्ध टूट गए और सारा पानी बह गया। बताया जाता है कि तत्कालीन शासक रुद्रदमन ने इस झील की मरम्मत अपने खर्चे से करवाई थी, और इसके लिए अपनी प्रजा से कर भी नहीं लिया था। इसी पाषाण खण्ड पर एक और अभिलेख है जिसमें कहा गया है कि गुप्त वंश के एक शासक ने एक बार फिर इस झील की मरम्मत करवाई थी।

निबन्धात्मक प्रश्न 

प्रश्न 1.
छठी शताब्दी ई. पूर्व के सोलह महाजनपदों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई. पूर्व के सोलह महाजनपद
(1) जनपद-‘जनपद’ का अर्थ एक ऐसा भूखण्ड है, जहाँ कोई जन (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है अथवा बस जाता है। बड़ा और शक्तिशाली जनपद ‘महाजनपद’ कहलाता था।

(2) सोलह महाजनपद-छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत में अनेक महाजनपदों का उदय हुआ। बौद्ध और जैन धर्म के आरम्भिक ग्रन्थों में सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि महाजनपदों के नाम की सूची इन ग्रन्थों में एक समान नहीं है, परन्तु वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गान्धार और अवन्ति जैसे नाम प्रायः मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि उक्त महाजनपद सबसे महत्त्वपूर्ण महाजनपदों में गिने जाते हैं।

छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत में निम्नलिखित सोलह महाजनपद अस्तित्व में थे –

  1. अंग
  2. मगध
  3. क्राशी
  4. कोशल
  5. वज्जि
  6. मल्ल
  7. चेदि
  8. वत्स
  9. कुरु
  10. पांचाल
  11. मत्स्य
  12. शूरसेन
  13. अश्मक
  14. अवन्ति
  15. कम्बोज
  16. गान्धार

(3) शासन व्यवस्था अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था, परन्तु ‘गण’ और ‘संघ’ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। वज्जि संघ की ही भाँति कुछ राज्यों में भूमि सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा गण सामूहिक नियन्त्रण रखते थे।

(4) महाजनपद की राजधानी- प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी, जो प्रायः किले से घेरी जाती थी। किलेबन्द राजधानियों की देखभाल और प्रारम्भिक सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोतों की आवश्यकता होती थी। शासकों का कार्य किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना माना जाता था। इसके अतिरिक्त पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकट्ठा करना भी सम्पत्ति जुटाने का एक वैध उपाय माना जाता था। धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तन्त्र तैयार कर लिए।

प्रश्न 2.
मौर्य साम्राज्य कितना महत्त्वपूर्ण था? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का महत्त्व उन्नीसवीं शताब्दी में जब इतिहासकारों ने भारत का आरम्भिक इतिहास लिखना शुरू किया, तो उन्होंने मौर्य- साम्राज्य को इतिहास का एक प्रमुख काल स्वीकार किया। इस समय भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक औपनिवेशिक देश था। उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदी के भारतीय इतिहासकारों को प्राचीन भारत में एक ऐसे साम्राज्य की सम्भावना बहुत चुनौतीपूर्ण तथा उत्साहवर्धक लगी।

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संक्षेप में मौर्य साम्राज्य के महत्व का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –
(1) कला के क्षेत्र में उन्नति मौर्य काल में भवन- निर्माण कला तथा मूर्तिकला की महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई। खुदाई में प्राप्त मौर्यकालीन सभी पुरातत्व एक उच्चकोटि की कला के प्रमाण हैं।

(2) मौर्य सम्राटों के अभिलेख अशोक ने अनेक शिलाओं, गुफाओं, स्तम्भों आदि पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाये। ये अभिलेख जनता की भलाई के लिए थे। इतिहासकारों के अनुसार इन अभिलेखों पर लिखे सन्देश अन्य शासकों के अभिलेखों से भिन्न थे।

(3) अशोक की महानता इतिहासकारों के अनुसार अन्य शासकों की अपेक्षा सम्राट अशोक एक बहुत शक्तिशाली और न्यायप्रिय शासक था। वह परवर्ती राजाओं की अपेक्षा विनीत और नम्र भी था, जो अपने नाम के साथ बड़ी बड़ी उपाधियाँ जोड़ते थे इसलिए बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रवादी नेताओं ने भी अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना

(4) मौर्य साम्राज्य की कमजोरियाँ – यद्यपि मौर्य- साम्राज्य अत्यन्त गौरवशाली था, परन्तु उसमें कुछ कमजोरियाँ भी थीं जिनका वर्णन निम्नानुसार है-

  • मौर्य साम्राज्य का केवल 150 वर्ष तक ही अस्तित्व में रहना- मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्ष तक ही अस्तित्व में रहा। इसे भारतीय उपमहाद्वीप के इस लम्बे इतिहास में बहुत बड़ा काल नहीं माना जा सकता।
  • मौर्य साम्राज्य का सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में विस्तार न होना- मौर्य साम्राज्य का उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में विस्तार नहीं हो सका साम्राज्य की सीमा के अन्तर्गत भी सभी प्रदेशों पर नियन्त्रण एकसमान नहीं था अतः दूसरी शताब्दी ई. पूर्व तक उपमहाद्वीप के अनेक भागों में नये-नये शासकों और रजवाड़ों की स्थापना होने लगी।

प्रश्न 3.
दक्षिण भारत में सरदारों और सरदारियों के उद्भव की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
दक्षिण भारत में सरदारों और सरदारियों का उद्भव 600 ई. पूर्व से 600 ई. के काल में भारत के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्र में स्थित तमिलकम अर्थात् तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश एवं केरल के कुछ भाग में चोल, चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ ये राज्य बहुत ही समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए।
(1) सरदार और सरदारी सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता था जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता था और नहीं भी हो सकता था। उसके सहयोगी और समर्थक उसके वंश के लोग होते थे सरदारों के प्रमुख कार्य थे –

  •  विशेष अनुष्ठानों का संचालन करना
  • युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करना
  • विवादों का निपटारा करने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना सरदार अपनी अधीन प्रजा से भेंट लेता था और उसे अपने समर्थकों में बाँट देता था। राजा लोग विभिन्न करों की वसूली करते थे सरदारी में प्राय: कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते थे।

(2) जानकारी के स्रोत हमें दक्षिण के इन राज्यों के विषय में विभिन्न प्रकार के स्रोतों से जानकारी मिलती है। उदाहरणार्थ- प्राचीन तमिल संगम ग्रन्थों में संकलित कविताएँ सरदारों का विवरण देती हैं।

(3) व्यापार द्वारा राजस्व प्राप्त करना-दक्षिण भारत के अनेक सरदार और राजा लम्बी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व प्राप्त करते थे इन राजाओं में मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन (लगभग द्वितीय शताब्दी ई. पूर्व से द्वितीय शताब्दी ईसवी तक ) और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर तथा पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक सम्मिलित थे।

(4) उच्च सामाजिक दर्जे का दावा करना – यद्यपि सातवाहनों की जाति के बारे में विद्वानों में मतभेद है, परन्तु सत्तारूढ़ होने के बाद उन्होंने उच्च सामाजिक दर्जे का दावा कई प्रकार से किया। अधिकांश विद्वानों के अनुसार सातवाहन ब्राह्मणवंशीय थे।

प्रश्न 4.
छठी शताब्दी ई. पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी तक के काल में भारत के राजाओं तथा ग्रामीण प्रजा के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
राजाओं तथा ग्रामीण प्रजा के बीच सम्बन्ध छठी शताब्दी ई. पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी तक के काल में भारत में राजाओं तथा ग्रामीण प्रजा के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों के बारे में जातकों तथा पंचतंत्र जैसे ग्रन्थों से पर्याप्त जानकारी मिलती है। जातक कथाओं की रचना पहली सहस्राब्दी ई. के मध्य में पालि भाषा में की गई थी। ग्रामीण प्रजा की दयनीय दशा- जातक कथाओं से पता चलता है कि इस काल में ग्रामीण जनता की दशा बड़ी दयनीय थी। ‘गंदतिन्दु’ नामक जातक में वर्णित एक कथा में बताया गया है कि राजा की प्रजा बड़ी दुःखी थी। इन दुःखी लोगों में वृद्ध महिलाएँ, पुरुष, किसान, पशुपालक, ग्रामीण बालक आदि सम्मिलित थे।

एक बार राजा वेश बदलकर लोगों के बीच में यह जानने के लिए गया कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं। उन सभी लोगों ने अपने दुःखों के लिए राजा को उत्तरदायी ठहराया तथा उसकी कटु आलोचना की। उन्होंने अपना दुःख व्यक्त करते हुए राजा को बताया कि रात्रि में डाकू लोग उन पर हमला करते थे तथा दिन में कर एकत्रित करने वाले अधिकारी उन्हें प्रताड़ित करते थे। इस परिस्थिति से मुक्ति पाने के लिए लोग अपने-अपने गाँव छोड़कर जंगलों में बस गए। राजा और प्रजा के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध-उपर्युक्त कथा से ज्ञात होता है कि इस काल में राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण रहते थे।

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इसका प्रमुख कारण यह था कि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए लोगों से विभिन्न प्रकार के करों की माँग करते थे। इससे किसानों में पोर असन्तोष व्याप्त रहता था। इस जातक कथा से ज्ञात होता है कि इस संकट से बचने के लिए ग्रामीण लोग अपने घरों को छोड़ कर जंगलों में भाग जाते थे। इस प्रकार इस काल की जनता में राजा की छवि बड़ी खराब थी क्योंकि वे जनता का शोषण करते थे और उसके कष्टों एवं समस्याओं को दूर करने के लिए प्रयत्न नहीं करते थे।

प्रश्न 5.
छठी शताब्दी ई. पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी तक के काल में किये जाने वाले भूमिदानों का वर्णन कीजिये। भूमिदानों के क्या प्रभाव हुए?
उत्तर:
भूमिदान प्राचीन भारत में शासकों, सामन्तों एवं धन-सम्पन्न लोगों द्वारा भूमिदान किये जाते थे अनेक भूमिदानों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। इनमें से कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गए थे परन्तु अधिकांश अभिलेख ताम्र- पत्रों पर उत्कीर्ण होते थे जिन्हें उन लोगों को प्रमाण रूप में दिया जाता था, जो भूमिदान लेते थे।
(1) प्रभावती गुप्त द्वारा भूमिदान देना प्रभावती गुप्त गुप्त वंश के प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ( लगभग 375-415 ई.) की पुत्री थी। उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक वंश के शासक रुद्रसेन द्वितीय के साथ हुआ था प्रभावती गुप्त ने दंगुन गाँव को भूमिदान के रूप में प्रसिद्ध आचार्य चनालस्वामी को दान किया था।

(2) भूमिदान अभिलेख से ग्रामीण प्रजा की जानकारी प्रभावती गुप्त के भूमिदान अभिलेख से हमें ग्रामीण प्रजा के बारे में जानकारी मिलती है। उस समय गाँवों में ब्राह्मण, किसान तथा अन्य प्रकार के वर्गों के लोग रहते थे। ये लोग शासकों या उनके प्रतिनिधियों को अनेक प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करते थे।

(3) भूमिदान की भूमि में अन्तर भूमिदान की भूमि की माप एक जैसी नहीं थी। कुछ लोगों को भूमि के छोटे- छोटे टुकड़े दिए गए थे तो कुछ लोगों को बड़े-बड़े क्षेत्र दान में दिए गए थे। इसके अतिरिक्त भूमिदान में दान प्राप्त करने वाले लोगों के अधिकारों में भी क्षेत्रीय परिवर्तन मिलते हैं।

(4) भूमिदान के प्रभाव-भूमिदान के निम्नलिखित प्रभाव हुए –

  • कुछ इतिहासकारों के अनुसार भूमिदान शासक- वंश के द्वारा कृषि को नये क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी।
  • कुछ इतिहासकारों का मत है कि भूमिदान से दुर्बल होते हुए राजनीतिक प्रभुत्व की जानकारी मिलती है।
  • कुछ इतिहासकारों के अनुसार राजा स्वयं को उत्कृष्ट स्तर के मानव के रूप में प्रदर्शित करना चाहते थे।

प्रश्न 6.
छठी शताब्दी ई. पूर्व के नये नगरों तथा नगरों में रहने वाले सम्भ्रान्त वर्ग और शिल्पकारों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
(1) छठी शताब्दी ई. पूर्व के नये नगर- छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में नये नगरों का उदय हुआ। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थीं। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदी मार्ग के किनारे बसे थे। उज्जयिनी जैसे अन्य नगर भूतल मार्गों के किनारे बसे थे। इसके अतिरिक्त पुरहार जैसे नगर समुद्रतट पर स्थित थे, जहाँ से समुद्री मार्ग प्रारम्भ हुए मथुरा जैसे अनेक नगर व्यावसायिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।

(2) नगरों में रहने वाले सम्भ्रान्त वर्ग के लोग और शिल्पकार – शासक वर्ग और राजा किलेबन्द नगरों में रहते थे। खुदाई में इन नगरों में उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे तथा थालियाँ मिली हैं, जिन पर चमकदार कलई चढ़ी हुई है। इन्हें ‘उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र’ कहा जाता है। सम्भवतः इन पात्रों का उपयोग धनी लोग किया करते होंगे। इसके अतिरिक्त सोने, चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथीदांत, शीशे जैसे विभिन्न प्रकार के पदार्थों के बने आभूषण, उपकरण, हथियार, वर्तन आदि मिले हैं। इनका उपयोग भी अमीर लोग करते थे। दानात्मक अभिलेखों में नगरों में रहने वाले बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, धोबी, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी आदि शिल्पकारों के बारे में जानकारी मिलती है।

(3) श्रेणी – शिल्पकारों और व्यापारियों ने अपने संघ बना लिए थे, जिन्हें ‘श्रेणी’ कहा जाता है। ये श्रेणियाँ सम्भवतः पहले कच्चे माल को खरीदती थीं, फिर उनसे सामान तैयार कर बाजार में बेच देती थीं। यह सम्भव है कि शिल्पकारों ने नगरों में रहने वाले सम्भ्रान्त वर्ग के लोगों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कई प्रकार के लौह उपकरणों का प्रयोग किया हो।

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प्रश्न 7.
प्राचीन काल में भारतीय शासकों द्वारा प्रचलित सिक्कों का वर्णन कीजिये। सिक्कों के व्यापार और वाणिज्य सम्बन्धी गतिविधियों पर क्या प्रभाव पड़े?
उत्तर:
प्राचीन काल में भारतीय शासकों द्वारा प्रचलित सिक्के प्राचीन काल में भारतीय शासकों द्वारा सोने, चाँदी, ताँबे आदि के सिक्के जारी किये गए। छठी शताब्दी ई. पूर्व में चाँदी और ताँबे के आहत सिक्कों का सबसे पहले प्रयोग किया गया। सम्पूर्ण भारत में उत्खनन में इस प्रकार के सिक्के मिले हैं।

(1) कुषाण राजाओं द्वारा प्रचलित सिक्के सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण राजाओं द्वारा जारी किए गए थे। उत्तर और मध्य भारत के अनेक पुरास्थलों पर कुषाणों द्वारा प्रचलित सिक्के मिले हैं। सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि बहुमूल्य वस्तुओं तथा भारी मात्रा में अन्य वस्तुओं का विनिमय किया जाता था। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं। इनसे जात होता है कि दक्षिण भारत के रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे।

(2) यौधेय शासकों द्वारा जारी किए गए सिक्के- पंजाब और हरियाणा के यौधेय (प्रथम शताब्दी ई.) कबायली गणराज्यों ने भी सिक्के जारी किये थे उत्खनन में यौधेय शासकों द्वारा जारी किए गए ताँबे के सिक्के हजारों की संख्या में मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि यौधेय शासकों की व्यापारिक गतिविधियों में बड़ी रुचि और सहभागिता थी।

(3) गुप्त शासकों द्वारा जारी किये गए सिक्के-सोने के सबसे उत्कृष्ट सिक्कों में से कुछ सिक्के गुप्त शासकों द्वारा जारी किए गए थे। गुप्त शासकों के आरम्भिक सिक्कों में प्रयुक्त सोना अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का था। सोने के कम सिक्के मिलने के कारण छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गए। इसके कारण निम्नलिखित थे प्रमुख

  • कुछ इतिहासकारों के अनुसार रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई जिससे इन राज्यों समुदायों और प्रदेशों की सम्पन्नता क्षीण हो गई, जिन्हें दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।
  • कुछ अन्य इतिहासकारों का मत है कि इस काल में नये नगरों और व्यापार के नवीन तन्त्रों का उदय होने लगा था।
  • यद्यपि इस काल के सोने के सिक्कों का मिलना तो कम हो गया, परन्तु अभिलेखों और ग्रन्थों में सिक्कों का उल्लेख होता रहा है।

प्रश्न 8.
“अशोक भारत का एक महान सम्राट था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
अशोक को महान क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
अशोक की गिनती भारत के महान सम्राटों में की जाती है।
अशोक के महान् सम्राट कहे जाने के आधार –
(1) महान् विजेता- गद्दी पर बैठते ही अशोक ने अपने पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य की भाँति साम्राज्यवादी नीति अपनाई। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से ज्ञात होता है कि अशोक ने कश्मीर को जीत कर मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ने कलिंग को जीतकर उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार अशोक ने अपने पूर्वजों से प्राप्त मौर्य साम्राज्य को सुरक्षित ही नहीं रखा, बल्कि उसका विस्तार भी किया।

(2) योग्य शासक अशोक केवल एक विजेता ही नहीं, अपितु एक योग्य शासक भी था वह एक प्रजावत्सल सम्राट था। वह अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के तुल्य समझता था तथा उसकी नैतिक और भौतिक उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था। उसने प्रशासनिक क्षेत्र में अनेक सुधार किये और अपनी प्रशासकीय प्रतिभा का परिचय दिया।

(3) धम्म – विजेता- कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने साम्राज्यवादी एवं युद्धवादी नीति का परित्याग कर दिया। उसने बुद्ध घोष के स्थान पर धम्म घोष की नीति अपनाई । उसने धम्म के प्रचार के लिए अपना तन-मन-धन समर्पित कर दिया।

(4) बौद्ध धर्म को संरक्षण देना बौद्ध धर्म के प्रचारक एवं संरक्षक के रूप में भी प्राचीन भारतीय इतिहास में कि अशोक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों ल को शिलाओं, स्तम्भों पर उत्कीर्ण करवाया। उसने भारत के च विभिन्न प्रदेशों एवं विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक धर्म प्रचारक भेजे।

(5) कला का संरक्षक अशोक कला प्रेमी था। उसने रा अनेक राजप्रासादों, स्तम्भों, स्तूपों, विहारों आदि का निर्माण ि करवाया। उसके द्वारा निर्मित पाषाण स्तम्भ मौर्यकालीन कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने हैं। बौद्धग्रन्थों के अनुसार अशोक ने 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया।

(6) अशोक की चारित्रिक विशेषताएँ- अशोक के स अभिलेखों का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों को यह प्रतीत हुआ कि अन्य राजाओं की अपेक्षा अशोक एक बहुत से ही शक्तिशाली तथा परिश्रमी शासक था। इसके अतिरिक्त वह बाद के उन राजाओं की अपेक्षा विनीत भी था जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ जोड़ते थे। इसलिए बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना है।

JAC Class 12 History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 9.
मौयों की आर्थिक व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मौर्यों की आर्थिक व्यवस्था मौर्यो की आर्थिक व्यवस्था का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –
(1) कृषि- इस काल के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। कृषकों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था। युद्ध के समय भी कृषकों को हानि नहीं पहुंचाई जाती थी। खेती हल और बैलों से की जाती थी। राज्य की ओर से सिंचाई की सुविधा दी जाती थी। अकाल और बाढ़ के समय कृषकों की सहायता की जाती थी मौर्य काल में गेहूं, जौ, चावल, चना, उड़द, मूंग, मसूर, सरसों, कपास, बाजरा आदि की खेती की जाती थी। मेगस्थनीज के अनुसार भारत के कृषक सदा प्रायः दो फसलें काटते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के गवर्नर पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। इससे ज्ञात होता है कि शासक सिंचाई के साधनों के विकास के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते थे।

(2) पशुपालन इस युग में पशुपालन भी एक प्रमुख व्यवसाय था। पशुओं में गाय-बैल, भेड़-बकरी, भैंस, गधे, ऊँट, सूअर, कुत्ते आदि प्रमुखता से पाले जाते थे।

(3) उद्योग-धन्धे इस काल में अनेक उद्योग-धन्धे विकसित थे। इस युग में सूती, ऊनी, रेशमी सभी प्रकार के वस्व जुने जाते थे। वस्यों का निर्यात विदेशों को किया जाता था। उच्चकोटि की मलमल बड़ी मात्रा में दक्षिण भारत से आयात की जाती थी। इस युग में विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया जाता था। इस समय जलपोतों का भी निर्माण होने लगा था, जिससे व्यापार का काफी विकास हुआ था। चमड़े का उद्योग भी उन्नत था।

(4) श्रेणियाँ मौर्यकाल में शिल्पियों तथा व्यवसायियों की अपनी श्रेणियाँ (संगठन) होती थीं। इन श्रेणियों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी और उन्हें सरकारी नियमों के अनुसार कार्य करना पड़ता था।

(5) व्यापार वाणिज्य मौर्यकाल में आन्तरिक और वैदेशिक व्यापार दोनों उन्नत अवस्था में थे। बड़े-बड़े नगर सड़कों से जुड़ गए थे। आन्तरिक व्यापार के लिए देश में सुरक्षित स्थल मार्ग थे। इनमें पाटलिपुत्र से तक्षशिला तक जाने वाला राजपथ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। राज्य की ओर से मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता था। आन्तरिक व्यापार देश की नदियों के मार्ग से भी होता था। मौर्य युग में विदेशी व्यापार भी उन्नत था लंका, बर्मा, पश्चिमी एशिया, मिस्र आदि के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे भारत से मिस्र को हाथी, कछुए सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी।

(6) मुद्रा – मौर्यकाल में नियमित सिक्कों का प्रचलन हो गया था। सिक्के सोने, चाँदी तथा तांबे के बने होते थे। ‘अर्थशास्त्र’ में सुवर्ण (स्वर्ण मुद्रा), कार्यापण, पण या धरण (चाँदी के सिक्के), माषक (ताँबे के सिक्के), काकणी (ताम्र मुद्रा) आदि का उल्लेख मिलता है। मुद्राओं को सरकारी टकसालों में ढाला जाता था।

प्रश्न 10.
समुद्रगुप्त के चरित्र एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
समुद्रगुप्त के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। उत्तर- समुद्रगुप्त का चरित्र एवं व्यक्तित्व (मूल्यांकन) –
समुद्रगुप्त प्राचीन भारत का एक महान् सम्राट था। उसके चरित्र एवं व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन के निम्नानुसार किया गया है –
(1) गुणसम्पन्न व्यक्ति समुद्रगुप्त एक गुणसम्पन्न व्यक्ति था। वह उदार, दयालु और दानशील व्यक्ति था। वह साधु की समृद्धि और असाधु के विनाश का कारण था।

(2) वीर योद्धा तथा महान विजेता-समुद्रगुप्त एक ये वीर योद्धा, कुशल सेनापति तथा महान विजेता था। उसके कि सिक्कों पर अंकित ‘पराक्रमांक’, ‘व्याघ्रपराक्रम’ जैसी उपाधियाँ न्ता उसके अद्वितीय पराक्रम तथा शूरवीरता की परिचायक हैं।

(3) योग्य शासक समुद्रगुप्त एक योग्य शासक भी था। उसका प्रशासन अत्यन्त सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित था। वह एक प्रजावत्सल शासक था तथा अपनी प्रजा की नैति एवं भौतिक उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था।

(4) कुशल राजनीतिज्ञ समुद्रगुप्त एक कुश राजनीतिज्ञ भी था। उसने देशकाल के अनुकूल भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया। जहाँ उसने आर्यावर्त के राज्य को जीतकर उन्हें अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया, वह उसने दक्षिणापथ के राजाओं को पराजित कर उनके राज्य वापस लौटा दिये तथा उनसे केवल कर लेना ही उचि
समझा।

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(5) साहित्य का संरक्षक समुद्रगुप्त साहित्य क संरक्षक था। वह स्वयं एक उच्च कोटि का विद्वान था औ विद्वानों, कवियों तथा साहित्यकारों का संरक्षक था। समुद्रगुप्त कविता भी करता था और अपनी काव्य निपुणता के कारण ‘कविराज’ की उपाधि से प्रसिद्ध था।

(6) कला का संरक्षक समुद्रगुप्त कला का भी संरक्षक था संगीत से उसे विशेष प्रेम था। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था। उसके कुछ सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि वह संगीत प्रेमी था।

(7) धर्म-सहिष्णु समुद्रगुप्त वैष्णव धर्म का अनुवायी था वैष्णव धर्म का प्रबल समर्थक होते हुए भी उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा न्यायपरक था उसने अपने राजदरबार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को आश्रय प्रदान किया था।

प्रश्न 11.
अभिलेखशास्त्री एवं इतिहासकार अशोक के अभिलेखों से ऐतिहासिक साक्ष्य किस प्रकार प्राप्त करते हैं?
उत्तर:
अभिलेखों से ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त करना –
(1) अभिलेखों का परीक्षण करना अशोक के एक अभिलेख में यह लिखा है कि “राजन देवानामपिय पियदस्सी यह कहते हैं।” इस अभिलेख में शासक अशोक का नाम नहीं लिखा है। इसमें अशोक द्वारा अपनाई गई उपाधियों (‘देवानाम्पिय’ तथा ‘पियदस्सी) का प्रयोग किया गया है परन्तु अन्य अभिलेखों में अशोक का नाम मिलता है।

जिसमें उसकी उपाधियाँ भी लिखी हैं। इन अभिलेखों का परीक्षण करने के पश्चात् अभिलेखशास्त्रियों ने पता लगाया है कि उनके विषय, शैली, भाषा और पुरालिपि विज्ञान, सबमें समानता है। अतः उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि इन अभिलेखों को एक ही शासक ने बनवाया था। अभिलेखशास्त्रियों तथा इतिहासकारों को इन अभिलेखों का अध्ययन करने के बाद यह पता लगाना पड़ता है कि अशोक ने अपने अभिलेखों में जो कहा है, वह कहाँ तक सही है।

(2) ब्रैकेट में लिखे शब्दों का अर्थ ढूँढ़ना- अशोक के कुछ अभिलेखों में कुछ शब्द ब्रैकेट में लिखे हुए हैं जैसे एक अभिलेख में अशोक कहता है कि “मैंने निम्नलिखित (व्यवस्था) की है ………….. ” इसी प्रकार अशोक ने अपने तेरहवें शिलालेख में कलिंग युद्ध मैं हुए विनाश का वर्णन करते हुए कहा है कि “इस युद्ध में एक लाख व्यक्ति मारे गए, डेढ़ लाख व्यक्ति बन्दी बनाए गए तथा इससे भी कई गुना व्यक्ति (महामारी, भुखमरी आदि) से मारे गए।” अभिलेखशास्त्री प्रायः वाक्यों के अर्थ स्पष्ट करने के लिए इन ब्रैकेटों का प्रयोग करते हैं। इसमें अभिलेखशास्त्रियों को बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है जिससे कि लेखक का मूल अर्थ बदल न जाए।

(3) युद्ध के प्रति मनोवृत्ति में परिवर्तन को दर्शाना- अशोक के तेरहवें शिलालेख से कलिंग के युद्ध के बारे में जानकारी मिलती है। इससे अशोक की वेदना प्रकट होती है। इसके साथ ही यह युद्ध के प्रति अशोक की मनोवृत्ति में परिवर्तन को भी दर्शाता है।

प्रश्न 12.
“अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की भी सीमा होती है।” विवेचना कीजिए
अथवा
“राजनीतिक और आर्थिक इतिहास का पूर्ण ज्ञान मात्र अभिलेख शास्त्र से ही नहीं मिलता है।” विवेचना कीजिये।
उत्तर:
अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की सीमा प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण के लिए अभिलेखों से प्राप्त जानकारी पर्याप्त नहीं होती है। अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की भी सीमा होती है। कभी-कभी इसकी तकनीकी सीमा होती है जैसे अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है, जिन्हें पढ़ पाना कठिन होता है। इसके अतिरिक्त -अभिलेख नष्ट भी हो सकते हैं, जिनसे अक्षर लुप्त हो जाते हैं। अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ के बारे में भी पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त करना भी काफी कठिन होता है क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से सम्बन्धित होते हैं।

खुदाई में कई हजार अभिलेख प्राप्त हुए हैं। परन्तु सभी के अर्थ नहीं निकाले जा सके हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक अभिलेख भी रहे होंगे, जो कालान्तर में सुरक्षित नहीं बचे हैं। इसलिए जो अभिलेख अभी उपलब्ध हैं, वे सम्भवतः कुल अभिलेखों के अंशमात्र हैं। यह भी आवश्यक नहीं है कि जिसे हम आज राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण मानते हैं, उन्हें अभिलेखों में अंकित ही किया गया हो।

उदाहरणार्थ, खेती की वन दैनिक प्रक्रियाएँ और जीवन के हर रोज के सुख-दुःख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता है क्योंकि प्रायः अभिलेख पर बड़े और विशेष अवसरों का वर्णन करते हैं। इसके अतिरिक्त अभिलेख सदैव उन्हीं लोगों के विचारों को प्रकट करते प हैं, जो उन्हें बनवाते थे। इसलिए इन अभिलेखों में प्रकट किये गए विचारों की समीक्षा अन्य विचारों के परिप्रेक्ष्य में करनी होगी ताकि अपने अतीत का उचित ज्ञान हो सके। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक और आर्थिक इतिहास त का पूर्ण ज्ञान मात्र अभिलेख शास्त्र में ही नहीं मिलता है।

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प्रश्न 13.
प्रारम्भिक राज्यों के रूप में महाजनपदों के राजनीतिक इतिहास का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रारम्भिक राज्यों के रूप में महाजनपदों के राजनीतिक इतिहास का वर्णन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –
(1) प्रारम्भिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई.पू. को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। इस काल का सम्बन्ध प्रायः आधुनिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग एवं सिक्कों के विकास के साथ स्थापित किया जाता है। इसी काल के दौरान बौद्ध एवं जैन धर्म सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का जन्म एवं विकास हुआ।

बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रारम्भिक ग्रन्थों में महाजनपद नाम से 16 राज्यों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि इन ग्रन्थों में महाजनपदों के सभी नाम एक जैसे नहीं हैं। लेकिन मगध, कोसल, वज्जि, कुरु, पांचाल, गांधार एवं अवन्ति जैसे नाम प्राय: एक समान देखने को मिलते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि अपने समय में इन सभी महाजनपदों की गिनती महत्त्वपूर्ण महाजनपदों में होती होगी।

(2) अधिकांश महाजनपदों का शासन राजा द्वारा संचालित होता था, लेकिन गण एवं संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर इन्हीं गणों से सम्बन्ध रखते थे। हालांकि इन राज्यों के इतिहास स्रोतों के अभाव के कारण नहीं ‘लिखे जा सके हैं, लेकिन यह सम्भावना है कि ऐसे कई राज्य लगभग एक हजार वर्षों तक अस्तित्व में रहे होंगे।

(3) प्रत्येक महाजनपद अपनी एक राजधानी रखता था। इस राजधानी के चारों तरफ किले का निर्माण किया जाता था। इन किलेबन्द राजधानी शहर के रख-रखाव एवं सेवाओं व नौकरशाही के खर्चों के लिए बहुत बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती थी।

(4) इस काल में शासकों का कार्य कृषकों, व्यापारियों एवं शिल्पकारों से कर एवं भेंट वसूलना माना जाता था। वनवासियों एवं चरवाहों से भी कर लिए जाने की कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई थी। इस काल में पड़ौसी राज्यों पर आक्रमण करके भी धन एकत्रित किया जाता था।

प्रश्न 14.
मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर;
मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्थाओं की चर्चा हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत कर सकते हैं –
(1) केन्द्रीय शासन राजकीय सत्ता का प्रमुख केन्द्र तथा प्रशासन का सर्वोच्च सम्राट् होता था। सम्राट् के पास असीमित शक्तियाँ होती थीं। सम्राट् नियमों का निर्माता, सर्वोच्च न्यायाधीश, सेनानायक एवं मुख्य कार्यकारिणी का अध्यक्ष होता था।

(2) राजा के अधिकारियों के दायित्व – राजा ने राज्य कार्यों में सहायता एवं परामर्श हेतु मन्त्रिपरिषद् की स्थापना की थी। मन्त्रिपरिषद् में चरित्रवान तथा बुद्धिमान व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी, परन्तु मन्त्रिपरिषद् का निर्णय राजा के लिए मानना अनिवार्य नहीं था कुछ अन्य अधिकारी भी होते थे, जैसे-अमात्य, महामात्य तथा अध्यक्ष आदि अमात्य मन्त्रियों के अधीन विभागों का काम संभालते थे।

(3) प्रान्तीय शासन संचालन की कुशल व्यवस्था हेतु मौर्य शासकों ने साम्राज्य को पाँच विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया था। प्रान्तीय शासन का प्रमुख राजपरिवार से सम्बन्धित होता था। उसका मुख्य कार्य प्रान्त में शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखना था।

(4) नगर की प्रशासनिक व्यवस्था उचित प्रशासनिक व्यवस्था हेतु नगर को कई भागों में बाँटा गया था। प्रत्येक नगर की अपनी नगरपालिका तथा न्यायपालिका थी। न्यायपालिका न्यायाधीश की सहायता हेतु न्यायाधिकारी न्य होते थे।

(5) ग्रामीण प्रशासनिक व्यवस्था-ग्राम प्रशासन की ह व्यवस्था, ग्राम पंचायतों के द्वारा की जाती थी। ग्राम का र मुखिया ‘ग्रामिक’ अथवा ‘ग्रामिणी’ कहलाता था। के

(6) दण्ड विधान दण्ड विधान काफी कठोर था। वहीं चोरी करने, डाका डालने एवं हत्या जैसे जघन्य अपराधों हेतु मृत्यु दण्ड का विधान था अपराधी का अंग-भंग भी ” किया जाता था। दीवानी तथा फौजदारी दो प्रकार के न्यायालय ता थे। सर्वोच्च न्यायाधीश स्वयं राजा होता था।

(7) सेना प्रणाली मौर्य शासकों ने शक्तिशाली सेना एवं का गठन किया था चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में 6 लाख पैदल, 30,000 घुड़सवार तथा 9 हजार हाथी और 8 हजार
रथ थे।

(8) समाज, कला, शिक्षा तथा आर्थिक स्थिति- चा। कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय था। कृषि आधारित पशुपालन, शिल्प तथा उद्योग काफी उन्नत अवस्था में थे। साहित्य और शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार था अशोक पहला सम्राट् था जिसके बनवाये स्तम्भ शिल्पकला के उदाहरण हैं।

प्रश्न 15.
मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लगभग 321 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। मौर्य वंश के उदय के साथ ही भारत का इतिहास रोचक बन जाता है क्योंकि इस काल में इतिहासकारों को तमाम ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य और विवरण प्राप्त होते हैं। प्रमुख स्रोतों का वर्णन निम्न है –
(1) मैगस्थनीज द्वारा रचित इंडिका मेगस्थनीज सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में 302 ई.पू. से 298 ई.पू. तक रहा। उसने अपनी पुस्तक इंडिका में भारत में देखे गए वृतान्त का प्रत्यक्षदर्शी विवरण लिखा है। मेगस्थनीज ने सम्राट् चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था, सैनिक गतिविधियों का संचालन तथा मौर्यकालीन सामाजिक व्यवस्था के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है। मेगस्थनीज द्वारा इंडिका में दिया गया वर्णन काफी हद तक प्रामाणिक माना जाता है।

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(2) चाणक्य का अर्थशास्त्र- चाणक्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र मौर्यकालीन इतिहास का अन्य प्रमुख स्रोत है। मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशाओं का अर्थशास्त्र में व्यापक वर्णन है।

(3) जैन, बौद्ध तथा पौराणिक ग्रन्थ जैन, बौद्ध तथा पौराणिक ग्रन्थों से भी मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। जैन विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, तमिल जैसी भाषाओं में साहित्य का सूजन किया है।

(4) पुरातात्त्विक प्रमाण पुरातात्त्विक प्रमाण भी मौर्यकालीन इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। उत्खनन में प्राप्त मूर्तियाँ, राजप्रासाद, स्तम्भ, सिक्के आदि उस काल के इतिहास को जानने में सहायक सिद्ध हुए हैं।

(5) अभिलेख सम्राट् अशोक ने अपने शासन काल में अनेक अभिलेख उत्कीर्ण करवाए। अभिलेखों से मौर्यकालीन शासन व्यवस्था, नैतिक आदर्शों, धम्मपद के सिद्धान्तों तथा जनकल्याण के लिए किए गए कार्यों की व्यापक जानकारी प्राप्त होती है। जूनागढ़ के अभिलेख तथा अशोक द्वारा लिखवाये गये अभिलेख इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। मौर्यकालीन शासकों के सिक्के भी इस काल का इतिहास जानने में सहायक सिद्ध हुए।

प्रश्न 16.
राजधर्म के नवीन सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए एवं दक्षिण के राजा तथा सरदारों, दक्षिणी राज्यों के उदय पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी भागों में नहीं फैल पाया। साम्राज्य की सीमा के अन्तर्गत भी प्रशासन का नियन्त्रण एक समान नहीं था दूसरी शताब्दी ई.पू. आते-आते राजधर्म के नवीन सिद्धान्त स्थापित होने शुरू हो गए थे। उपमहाद्वीप के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्रों में जिनमें आन्ध्र प्रदेश, केरल राज्य तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल थे जिसे संयुक्त रूप से तमिल कम कहा जाता था, में नयी सरदारियों का उदय हुआ। इन सरदारियों में चोल, चेर तथा पांड्य प्रमुख थीं तीसरी शताब्दी के आरम्भ में मध्य भारत तथा दक्षिण में एक नया वंश जिसे वाकाटक कहते थे, बहुत प्रसिद्ध था।

सरदार एक प्रभावशाली व्यक्ति होता था। प्रायः सरदार का पद वंशानुगत होता था। सरदारियों की राज्य व्यवस्था, साम्राज्यों की व्यवस्था से भिन्न होती थी उनकी व्यवस्था में कराधान नहीं था साम्राज्य व्यवस्था में लोगों को कर देना पड़ता था। सरदारी में साधारण रूप से कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते थे सरदार का कार्य विशेष अनुष्ठानों का संचालन करना था तथा विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता करना भी था।

कई सरदार और राजा लम्बी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व एकत्र करते थे। मध्य एशियाई मूल के इन शासकों के सामाजिक उद्गम के बारे में विशेष विवरण प्राप्त नहीं है, लेकिन सत्ता में आने के बाद इन्होंने राजधर्म में नवीन सिद्धान्त की स्थापना की और राजत्व के अधिकार को दैवीय अधिकार से जोड़ा। कुषाण शासकों ने अपने आपको देवतुल्य प्रस्तुत करने के लिए देवस्थानों पर अपनी विशालकाय मूर्तियाँ लगवाई।

चौथी शताब्दी ई. में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े- बड़े साम्राज्य के साक्ष्य प्राप्त हुए। इस काल को इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस काल में सामन्ती प्रथा का उदय हुआ। कई साम्राज्य सामन्तों पर निर्भर थे, वे अपने निर्वाह स्थानीय संसाधनों द्वारा करते थे, जिसमें भूमि पर नियन्त्रण भी शामिल था जो सामन्त शक्तिशाली होते थे वे राजा बन जाते थे और जो राजा दुर्बल होते थे वे बड़े शासकों के अधीन हो जाते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद राजधर्म के नवीन सिद्धान्तों का चलन प्रारम्भ हुआ। सरदार और सरदारी, सामन्त प्रथा, राजत्व का दैवीय अधिकार इन सिद्धान्तों के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

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Jharkhand Board Class 12 Political Science एक दल के प्रभुत्व का दौर InText Questions and Answers

पृष्ठ 27

प्रश्न 1.
हमारे लोकतन्त्र में ही ऐसी कौन-सी खूबी है? आखिर देर-सवेर हर देश ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपना ही लिया है न?
उत्तर:
भारत में राष्ट्रवाद की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए दुनिया के अन्य राष्ट्रों (जो उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए) ने भी देर-सवेर लोकतान्त्रिक ढाँचे को अपनाया। लेकिन हमारे लोकतन्त्र की खूबी यह थी कि हमारे स्वतन्त्रता संग्राम की गहरी प्रतिबद्धता लोकतन्त्र के साथ थी। हमारे नेता लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। भारत में सन् 1951-52 के आम चुनाव लोकतंत्र के लिए परीक्षा की घड़ी थी। इस समय तक लोकतंत्र केवल धनी देशों में ही कायम था। लेकिन भारतीय जनता ने विश्व के इतिहास में लोकतन्त्र के सबसे बड़े प्रयोग को जन्म दिया। इससे यह सिद्ध हो गया कि विश्व में कहीं भी लोकतन्त्र पर अमल किया जा सकता है।

पृष्ठ 31

प्रश्न 2.
क्या आप पृष्ठ 31 में दिए गए मानचित्र में उन जगहों को पहचान सकते हैं जहाँ काँग्रेस बहुत मजबूत थी? किन प्रान्तों में दूसरी पार्टियों को ज्यादातर सीटें मिलीं?
उत्तर:

  1. मानचित्र के अनुसार 1952 से 1967 के दौरान काँग्रेस शासित राज्य थे- पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, असम, मणिपुर, त्रिपुरा, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, मैसूर, पाण्डिचेरी, मद्रास आदि।
  2. जिन राज्यों में अन्य दलों को अधिकांश सीटें प्राप्त हुईं, वे थे – केरल में केरल डेमोक्रेटिक लेफ्ट फ्रंट (1957- 1959) तथा जम्मू और कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस पार्टी।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

पृष्ठ 36

प्रश्न 3.
पहले हमने एक ही पार्टी के भीतर गठबंधन देखा और अब पार्टियों के बीच गठबन्धन होता देख रहे हैं। क्या इसका मतलब यह हुआ कि गठबन्धन सरकार 1952 से ही चल रही है?
उत्तर:
भारत में ‘पार्टी में गठबन्धन’ और ‘पार्टियों का गठबन्धन’ का सिलसिला 1952 से ही चला आ रहा है लेकिन इस गठबन्धन के स्वरूप एवं प्रकृति में व्यापक अन्तर है। आजादी के समय एक पार्टी अर्थात् कांग्रेस के अन्दर गठबन्धन था। कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर प्रकार की विचारधाराओं के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल आ जुटते थे और राजनीतिक कार्यों में भाग लेते थे। कांग्रेस पार्टी ने इन विभिन्न वर्गों, समुदायों एवं विचारधारा के लोगों में आम सहमति बनाये रखी। लेकिन 1967 के पश्चात् अनेक राजनीतिक दलों का विकास हुआ और गठबन्धन की राजनीति शुरू हुई जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थन के आधार पर सरकारों का गठन किया जाने लगा। लेकिन यह गठबन्धन निजी स्वार्थी व शर्तों पर आधारित होने के कारण परस्पर सहमति बनाए नहीं रख पा रहे हैं।

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प्रश्न 1.
सही विकल्प को चुनकर खाली जगह को भरें:
(क) 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ-साथ ……………………. के लिए भी चुनाव कराए गए थे ( भारत के राष्ट्रपति पद / राज्य विधानसभा / राज्य सभा / प्रधानमंत्री )
उत्तर:
राज्य विधानसभा

(ख) ……………………… “लोकसभा के पहले आम चुनाव में 16 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी / भारतीय जनता पार्टी)
उत्तर:
भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

(ग) ………………………. स्वतन्त्र पार्टी का एक निर्देशक सिद्धान्त था। बैठाएँ (कामगार तबके का हित/ रियासतों का बचाव / राज्य के नियन्त्रण से मुक्त अर्थव्यवस्था / संघ के भीतर राज्यों की स्वायत्तता )
उत्तर:
राज्य के नियन्त्रण से मुक्त अर्थव्यवस्था।

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प्रश्न 2.
यहाँ दो सूचियाँ दी गई हैं। पहले में नेताओं के नाम दर्ज हैं और दूसरे में दलों के। दोनों सूचियों में मेल

(क) एस. ए. डांगे (i) भारतीय जनसंघ
(ख) श्यामा प्रसाद मुखर्जी (ii) स्वतन्त्र पार्टी
(ग) मीनू मसानी (iii) प्रजा सोशलिस्ट पार्टी
(घ) अशोक मेहता (iv) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

उत्तर:

(क) एस. ए. डांगे (iv) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(ख) श्यामा प्रसाद मुखर्जी (i) भारतीय जनसंघ
(ग) मीनू मसानी (ii) स्वतन्त्र पार्टी
(घ) अशोक मेहता (iii) प्रजा सोशलिस्ट पार्टी

प्रश्न 3.
एकल पार्टी के प्रभुत्व के बारे में यहाँ चार बयान लिखे गए हैं। प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ-
(क) विकल्प के रूप में किसी मजबूत राजनीतिक दल का अभाव एकल पार्टी प्रभुत्व का कारण था।
(ख) जनमत की कमजोरी के कारण एक पार्टी का प्रभुत्व कायम हुआ।
(ग) एकल पार्टी प्रभुत्व का सम्बन्ध राष्ट्र के औपनिवेशिक अतीत से है।
(घ) एकल पार्टी – प्रभुत्व से देश में लोकतान्त्रिक आदर्शों के अभाव की झलक मिलती है।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत।

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प्रश्न 4.
अगर पहले आम चुनाव के बाद भारतीय जनसंघ अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी होती तो किन मामलों में इस सरकार ने अलग नीति अपनाई होती ? इन दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों के बीच तीन अंतरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
यदि पहले आम चुनावों के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या जनसंघ की सरकार बनती तो विदेश नीति के मामलों में इस सरकार से अलग नीति अपनायी गयी होती। दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों में तीन प्रमुख अन्तर निम्नलिखित होते:

भारतीय जनसंघ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(1) जनसंघ संभवतः असंलग्नता की विदेश नीति को न अपनाकर अमरीकी गुट के साथ मिलकर चलती। (1) कम्युनिस्ट पार्टी असंलग्नता की नीति को अपनाते हुए सोवियत गुट के साथ मिलकर विदेश नीति का संचालन करती।
(2) जनसंघ अंग्रेजी भाषा को हटाकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने में महती भूमिका निभाती। (2) कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रभाषा के संदर्भ में कांग्रेस की नीति का ही समर्थन करती।
(3) जनसंघ कश्मीर में 370 का प्रयोग नहीं करती। इस तरह कश्मीर को भारत में अन्य राज्यों की तरह विलय करती। (3) कम्युनिस्ट पार्टी इस प्रकार का कोई प्रयास नहीं करती।

प्रश्न 5.
कांग्रेस किन अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी ? कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थितियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
आजादी के पूर्व से ही कांग्रेस ने परस्पर विरोधी हितों के कई समूहों को एक साथ जोड़ने का कार्य किया और आजादी के समय तक कांग्रेस एक सतरंगे सामाजिक गठबंधन की शक्ल अख्तियार कर चुकी थी। यथा

  1. इसमें विभिन्न वर्ग, जाति, भाषा तथा अन्य हितों से जुड़े हुए व्यक्ति इस गठबन्धन से जुड़ चुके थे।
  2. कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी । क्योंकि इसने अपने अंदर क्रान्तिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर विचारधारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया।
  3. सन् 1924 से 1942 तक भारतीय साम्यवादी दल कांग्रेस के एक गुट के रूप में रहकर ही कार्य करता था।
  4. कांग्रेस एक ऐसा मंच था जिस पर अनेक हित समूह, दबाव समूह और राजनीतिक दल आ जुटते थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे। स्वतंत्रता से पहले अनेक संगठन और राजनीतिक दलों को कांग्रेस में रहने की अनुमति थी।
  5. कांग्रेस ने सोशलिस्ट पार्टी, जिसका अलग संविधान व संगठन था, को भी कांग्रेस के एक गुट के रूप में बनाए रखा। इस प्रकार कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी।

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प्रश्न 6.
क्या एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ?
उत्तर:
यह कथन सत्य है, क्योंकि एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतान्त्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ। क्योंकि

  1. इस कारण कोई भी अन्य विचारधारात्मक गठबन्धन या पार्टी उभर कर सामने नहीं आ पाई।
  2. मतदाताओं के पास भी कांग्रेस को समर्थन देने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं था।
  3. दल प्रभुत्व की प्रणाली में राजनीतिक तानाशाही को भी बल मिला और लोकतान्त्रिक मूल्यों का ह्रास भी हुआ। बार-बार अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग हुआ और देश ने 1975 से 1977 तक

आपातकाल की स्थिति को जिया जिसमें नागरिकों के मूल अधिकारों का निलम्बन हुआ, संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग हुआ तथा जनता को अनेक अत्याचारों का सामना करना पड़ा।
अथवा
एकल पार्टी प्रभुत्व- – प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र का अच्छा प्रभाव हुआ। यथा

  1. इसने भारतीय लोकतंत्र तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
  2. तत्कालीन भारत में लोकतंत्र और संसदीय शासन अपनी शैशवावस्था में था। यदि इस समय एकल पार्टी प्रभुत्व न होता तो सत्ता के लिए प्रतिस्पर्द्धा होती इससे जनता का विश्वास लोकतंत्र से उठ जाता।.
  3. तत्कालीन मतदाता राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं था तथा मात्र 15% लोग ही शिक्षित थे। मतदाताओं में कांग्रेस के प्रति विश्वास था। इसी विश्वास ने यहाँ लोकतंत्र को सुदृढ़ किया।
  4. प्रभुत्व प्राप्त स्थिति होने पर भी विपक्षी दलों को सरकार की आलोचना का अधिकार था। इससे जनता राजनीतिक रूप से जागरूक होती रही।

प्रश्न 7.
समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के तीन अंतर बताएँ। इसी तरह भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी के बीच के तीन अंतरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
समाजवादी दल समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टी में अन्तर

समाजवादी दल कम्युनिस्ट पार्टी
(1) समाजवादी दल लोकतान्त्रिक विचार-धारा में विश्वास करते हैं। (1) कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के अधि-नायकवादी लोकतन्त्र में विश्वास करती है।
(2) समाजवादी दल पूँजीपतियों को और पूँजी को पूर्णतया अनावश्यक और समाज-विरोधी नहीं मानते। (2) कम्युनिस्ट पार्टी निजी पूँजी और पूँजी-पतियों को पूर्णतया अनावश्यक और राजद्रोही मानती है।
(3) समाजवादी दल मजदूरों और किसानों के पक्षधर तो हैं लेकिन वे सामाजिक नियन्त्रण, लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक उपायों के पक्षधर हैं। (3) कम्युनिस्ट पार्टी हर हाल में पूँजीपतियों के बजाय मजदूरों, जमींदारों की बजाय किसानों के हितों की की पक्षधर है चाहे वह हिंसात्मक तरीकों या सरकार के जबरदस्ती उत्पादन के साधनों और भूमि का राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर क्यों न हो।

भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी में अन्तर

भारतीय जनसंघ स्वतन्त्र पार्टी
(1) जनसंघ एक देश, एक संस्कृति तथा एक राष्ट्र के पक्ष में थी। (1) स्वतन्त्र पार्टी इस प्रकार के विचार के पक्ष में नहीं थी।
(2) जनसंघ भारत और पाकिस्तान को मिलाकर अखण्ड भारत बनाने के पक्ष में थी। (2) स्वतन्त्र पार्टी इस प्रकार के. अखण्ड भारत को व्यावहारिक नहीं मानती थी।
(3) जनसंघ आण्विक हथियार बनाने के पक्ष में थी। (3) स्वतन्त्र पार्टी आण्विक हथियारों की अपेक्षा विकास पर पर अधिक जोर दे रही थी।


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प्रश्न 8.
भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय तक एक पार्टी का प्रभुत्व रहा। बताएं कि मैक्सिको में स्थापित एक पार्टी का प्रभुत्व कैसे भारत के एक पार्टी के प्रभुत्व से अलग था?
उत्तर:
भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय में एक ही दल का प्रभुत्व था। परन्तु दोनों देशों में एक दल के प्रभुत्व के स्वरूप में मौलिक अन्तर था

  1. भारत में कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व मुख्यतः 1977 तक अर्थात् 27 वर्ष तक रहा जबकि मैक्सिको में आर.पी.आई का प्रभुत्व 60 वर्ष तक रहा। हुआ।
  2. मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं
  3. भारत में एक पार्टी (कांग्रेस) के प्रभुत्व के साथ-साथ शुरू से ही अनेक पार्टियाँ चुनाव में राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय स्तर पर विद्यमान थीं जबकि मैक्सिको में ऐसा नहीं हुआ। वहाँ एक दल की तानाशाही थी तथा लोगों को अपने विचार रखने का अधिकार नहीं था।
  4. भारत में प्रजातांत्रिक संस्कृति व प्रजातांत्रिक प्रणाली के अन्तर्गत कांग्रेस का प्रभुत्व रहा जबकि मैक्सिको में शासक दल की तानाशाही के कारण इसका प्रभुत्व रहा।

प्रश्न 9.
भारत का एक राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और उसमें निम्नलिखित को चिह्नित कीजिए-
(क) ऐसे दो राज्य जहाँ 1952-67 के दौरान कांग्रेस सत्ता में नहीं थी।
(ख) ऐसे दो राज्य जहाँ इस पूरी अवधि में कांग्रेस सत्ता में रही।
उत्तर:
(क) (i) जम्मू और कश्मीर (ii) केरल
(ख) (i) पंजाब (ii) उत्तर प्रदेश।
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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- कांग्रेस के संगठनकर्ता पटेल कांग्रेस को दूसरे राजनीतिक समूह से निसंग रखकर उसे एक सर्वांगसम तथा अनुशासित राजनीतिक पार्टी बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस सबको समेटकर चलने वाला स्वभाव छोड़े और अनुशासित कॉडर से युक्त एक सुगुंफित पार्टी के रूप में उभरे। ‘यथार्थवादी’ होने के कारण पटेल व्यापकता की जगह अनुशासन को ज्यादा तरजीह देते थे।

अगर ” आंदोलन को चलाते चले जाने के बारे में गाँधी के ख्याल हद से ज्यादा रोमानी थे तो कांग्रेस को किसी एक विचारधारा पर चलने वाली अनुशासित तथा धुरंधर राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलने की पटेल की धारणा भी उसी तरह कांग्रेस की उस समन्वयवादी भूमिका को पकड़ पाने में चूक गई जिसे कांग्रेस को आने वाले दशकों में निभाना था। – रजनी कोठारी
(क) लेखक क्यों सोच रहा है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए? (ख) शुरुआती सालों में कांग्रेस द्वारा निभाई गई समन्वयवादी भूमिका के कुछ उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
(क) लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासन पार्टी नहीं होना चाहिए, क्योंकि एक अनुशासित पार्टी में किसी विवादित विषय पर स्वस्थ विचार-विमर्श सम्भव नहीं हो पाता, जो कि देश एवं लोकतन्त्र के लिए अच्छा होता है। लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस पार्टी में सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं एवं विचारधाराओं के नेता शामिल हैं, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा हक है तभी देश का वास्तविक लोकतन्त्र उभर कर सामने आयेगा इसलिए लेखक कहता है कि कांग्रेस पार्टी को सर्वांगसम एवं अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए ।

(ख) कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कई विषयों में समन्वयकारी भूमिका निभाई, इसने देश के नागरिकों एवं ब्रिटिश सरकार के मध्य एक कड़ी का कार्य किया। कांग्रेस ने अपने अंदर क्रान्तिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर धारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। इसी प्रकार कांग्रेस समाज के प्रत्येक वर्ग कृषक, मजदूर, व्यापारी, वकील, उद्योगपति, सभी को साथ लेकर चली इसे सिख, मुस्लिम जैसे अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों, ब्राह्मण, राजपूत व पिछड़ा वर्ग सभी का समर्थन प्राप्त हुआ।

 एक दल के प्रभुत्व का दौर JAC Class 12 Political Science Notes

→ लोकतन्त्र स्थापित करने की चुनौती:
भारत में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के साथ ही एक और गम्भीर चुनौती लोकतन्त्र की स्थापना करना थी। भारतीय नेताओं ने लोकतन्त्र की स्थापना हेतु विभिन्न धार्मिक एवं राजनीतिक समूहों में पारस्परिक एकता की भावना को विकसित करने का प्रयास किया। इसके साथ ही राजनीतिक गतिविधियों का उद्देश्य जनहित में फैसला करना निर्धारित किया गया। भारत के विस्तृत आकार को देखते हुए निष्पक्ष चुनावों की व्यवस्था करना भी एक गम्भीर चुनौती थी। चुनाव कराने के लिए चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन जरूरी था। फिर मतदाता सूची अर्थात् मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की सूची बनाना भी आवश्यक था। इन दोनों कार्यों में बहुत सारा समय लगा। इस समय देश में 17 करोड़ मतदाता थे। इन्हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिए 489 सांसद चुनने थे।

इन मतदाताओं में केवल 15 प्रतिशत ही साक्षर थे। चुनाव आयोग को मतदान की एक विशेष पद्धति के बारे में सोचना पड़ा तथा चुनाव कराने के लिए 3 लाख से ज्यादा अधिकारियों और चुनाव कर्मियों को प्रशिक्षित किया। अधिकांश अप्रशिक्षित जनता को मतदान के विषय में जानकारी देना एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी। अन्ततः 1952 में आम चुनाव हुए। कुल मतदाताओं के आधे से अधिक ने मतदान में अपना वोट डाला। चुनाव निष्पक्ष हुए। ये चुनाव पूरी दुनिया में लोकतन्त्र के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए।

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→ पहले तीन चुनावों में कांग्रेस का प्रभुत्व-
→ पहले आम चुनावों में कांग्रेस को आश्चर्यचकित सफलता प्राप्त हुई। कांग्रेस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत प्राप्त थी, यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में था। इस पार्टी के लोकप्रिय नेता पण्डित जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई नेता थे। प्रथम आम चुनावों में कांग्रेस को 489 में से . 364 स्थानों पर विजय प्राप्त हुई।

→ दूसरे आम चुनावों (1957) में भी कांग्रेस ने अपनी स्थिति को बरकरार रखते हुए 371 स्थानों पर सफलता प्राप्त की। दूसरे राजनीतिक दल लोकसभा में विपक्षी पार्टी का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाए।

→ तीसरे आम चुनावों (1962) में भी कांग्रेस ने 2/3 बहुमत प्राप्त करके 361 स्थानों पर विजय प्राप्त की। केन्द्र और अधिकतर राज्यों में एक बार फिर एक – दलीय प्रभुत्व की व्यवस्था स्थापित हो गई। दूसरे राजनीतिक दल लोकसभा में बौने साबित हुए। किसी राजनीतिक दल को लोकसभा में विपक्षी दल की स्थिति प्राप्त नहीं हुई। कांग्रेस के प्रभुत्व की प्रकृति – भारत में कांग्रेस पार्टी की असाधारण सफलता की जड़ें स्वाधीनता संग्राम की विरासत में हैं। कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आंदोलन के वारिस के रूप में देखा गया। आजादी के आंदोलन में अग्रणी रहे उनके नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस पहले से ही एक सुसंगठित पार्टी थी। बाक़ी दल कांग्रेस के सामने बौने साबित हो रहे थे। 1952 से 1967 तक भारत कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के दौर से गुजरा। भारत का एक पार्टी प्रभुत्व दूसरे

→ देशों के एक पार्टी प्रभुत्व से भिन्न था क्योंकि:

  • अन्य देशों में एक पार्टी प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ जबकि भारत में एक पार्टी प्रभुत्व लोकतान्त्रिक स्थितियों में कायम हुआ।
  • अन्य देशों में एक पार्टी प्रभुत्व संविधान में एक पार्टी को ही शासन की अनुमति देने या कानूनी व सैन्य उपायों के चलते कायम हुआ जबकि भारत में एक पार्टी प्रभुत्व विभिन्न पार्टियों के बीच मुक्त और निष्पक्ष चुनाव के तहत हुआ।

→ केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार:
1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक गठबंधन सरकार बनी। यहाँ विधान सभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को बहुमत नहीं मिला। विधानसभा चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी को कुल 126 में से 60 सीटें हासिल हुईं। विश्व में यह पहला अवसर था जब एक कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए बनी। चुनाव प्रणाली – भारत की चुनाव प्रणाली में ‘सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत’ के तरीके को अपनाया गया। यह प्रणाली कांग्रेस पार्टी के पक्ष में सिद्ध हुई।

→ कांग्रेस एक सामाजिक और विचारधारात्मक गठबंधन के रूप में:

  • कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ था। इस समय यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का एक हित – समूह भर थी लेकिन 20वीं सदी में इसने जन-आंदोलन का रूप ले लिया। इस कारण से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका दबदबा कायम हुआ। आजादी के समय तक कांग्रेस एक सतरंगे सामाजिक गठबंधन की शक्ल ग्रहण कर चुकी थी।
  • कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, क्रान्तिकारी वामपंथी और हर· धारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह, हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे।
  • अपने गठबन्धनी स्वभाव के कारण कांग्रेस विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी। कांग्रेस के विभिन्न गुटों में कुछ विचारधारात्मक सरोकारों की वजह से तथा अन्य गुटों के पीछे व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा तथा प्रतिस्पर्द्धा की भावना भी थी। कांग्रेस की अधिकतर प्रांतीय इकाइयाँ भी विभिन्न गुटों से मिलकर बनी थीं। गुटों की मौजूदगी की यह प्रणाली शासक दल के भीतर सन्तुलन साधने के एक औजार की तरह काम करती थी।
  • चुनावी प्रतिस्पर्द्धा के पहले दशक में कांग्रेस ने शासक दल की भूमिका निभाई और विपक्ष की भी । इसी कारण भारतीय राजनीति के इस काल खण्ड को ‘कांग्रेस प्रणाली’ कहा जाता है।

→ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया:
→ 1920 के दशक के शुरुआती सालों में भारत के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी समूह (कम्युनिस्ट – ग्रुप) उभरे। ये रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित थे और देश की समस्याओं के समाधान के लिए साम्यवाद की राह अपनाने की तरफदारी कर रहे थे। 1935 से साम्यवादियों ने मुख्यतया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दायरे में रहकर काम किया। कांग्रेस से साम्यवादी 1941 के दिसम्बर से अलग हुए।

→ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं में ए. के. गोपालन, एस. ए. डांगे, ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद, पी. सी. जोशी, अजय घोष और पी. सुंदरैया के नाम प्रमुख हैं। चीन और सोवियत संघ के बीच विचारधारात्मक अन्तर आने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 1964 में एक बड़ी टूट का शिकार हुई। सोवियत संघ की विचारधारा को ठीक मानने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में रहे जबकि इसके विरोध में राय रखने वालों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सी. पी.आई. (एम.) नाम से अलग दल बनाया। ये दोनों दल आज तक कायम हैं।

→ भारतीय जनसंघ:
भारतीय जनसंघ का गठन 1951 में हुआ था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष थे। इस दल की जड़ें आजादी से पहले सक्रिय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) और हिन्दू महासभा में खोजी जा सकती हैं। जनसंघ अपनी विचारधारा और कार्यक्रमों की दृष्टि से बाकी दलों से भिन्न है। जनसंघ ने एक देश, एक संस्कृति, एक राष्ट्र के विचार पर जोर दिया।

→ विपक्षी पार्टियों का उद्भव:

  • पहले तीन आम चुनावों में विपक्षी पार्टियों का अस्तित्व नगण्य था। कई पार्टियाँ 1952 के आम चुनावों से पहले बन चुकी थीं। इनमें से कुछ ने साठ और सत्तर के दशक में देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • 1950 के दशक में इन सभी विपक्षी दलों को लोकसभा अथवा विधानसभा में कहने भर को प्रतिनिधित्व मिल पाया।
  • प्रारम्भिक वर्षों में काँग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच पारस्परिक सम्मान का गहरा भाव था।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ

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JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ

Jharkhand Board Class 12 Political Science राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ InText Questions and Answers

पृष्ठ 8

प्रश्न 1.
अच्छा! तो मुझे अब पता चला कि पहले जिसे पूर्वी बंगाल कहा जाता था वही आज का बांग्लादेश है तो क्या यही कारण है कि हमारे वाले बंगाल को पश्चिमी बंगाल कहा जाता है?
उत्तर;
देश के विभाजन से पूर्व बंगाल प्रान्त को दो भागों में विभाजित किया गया जिसका एक भाग पूर्वी बंगाल जो 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। 1971 में जिया उर रहमान के नेतृत्व में यह स्वतन्त्र बांग्लादेश बन गया तथा बंगाल का दूसरा भाग जो भारत में आ गया उसे पश्चिमी बंगाल के नाम से जाना जाता है।

पृष्ठ 15

प्रश्न 2.
क्या जर्मनी की तरह हम लोग भारत और पाकिस्तान के बँटवारे को समाप्त नहीं कर सकते ? मैं तो अमृतसर में नाश्ता और लाहौर में लंच करना चाहता हूँ।
उत्तर:
जर्मनी की तरह भारत एवं पाकिस्तान के बँटवारे को समाप्त करना सम्भव नहीं है क्योंकि जर्मनी के विभाजन व भारत के विभाजन की परिस्थितियों में व्यापक अन्तर है। जर्मनी के विभाजन का मूल कारण विचारधारा और आर्थिक कारण थे जबकि भारत के विभाजन में पाकिस्तान की धार्मिक कट्टरपंथिता की भावना विशेष स्थान रखती है

प्रश्न 3.
क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम एक-दूसरे को स्वतन्त्र राष्ट्र मानकर रहना और सम्मान करना सीख जाएँ?
उत्तर:
राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों में सुधार हेतु यह आवश्यक है कि वे एक-दूसरे को स्वतन्त्र राष्ट्र मानकर रहें तथा अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा का सम्मान करें। प्रायः यह देखा गया है कि भारत और पाकिस्तान के मध्य तनाव का मुख्य कारण दोनों देशों का एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना का न होना तथा पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ करना व आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना है। पाकिस्तान भारत विरोधी नीति को त्यागे तभी दोनों देशों के मध्य सम्मान का भाव पैदा हो सकता है।

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पृष्ठ 18

प्रश्न 4.
मैं सोचता हूँ कि आखिर उन सैकड़ों राजा-रानी राजकुमार और राजकुमारियों का क्या हुआ होगा? आखिर आम नागरिक बनने के बाद उनका जीवन कैसा रहा होगा?
उत्तर:
भारत में देशी रियासतों के एकीकरण के पश्चात् इन रियासतों के राजा, महाराजाओं के जीवन बसर के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष सहायता देने का प्रावधान किया गया जिसमें इनको प्रतिवर्ष विशेष सहायता राशि ‘प्रिवीपर्स’ के रूप में देने की व्यवस्था की गई। यह व्यवस्था 1970 तक रही। इसके पश्चात् ये व्यक्ति आम नागरिक की भाँति जीवन बसर कर रहे हैं। इनको भी संविधान द्वारा वही अधिकार प्रदान किये गये हैं जो एक आम नागरिक को प्राप्त हैं। आम नागरिक बनने के बाद वैभव-विलासितापूर्ण जीवन को छोड़कर उन्हें सामान्य जीवन अपनाने में अत्यन्त कष्ट का अनुभव हुआ होगा तथा अपना राजपाट छिनने का दुःख भी हुआ होगा।

पृष्ठ 20

प्रश्न 5.
पाठ्यपुस्तक में पृष्ठ 20 पर दिये मानचित्र को ध्यान से देखते हुए निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-
1. स्वतन्त्र राज्य बनने से पहले निम्नलिखित राज्य किन मूल राज्यों के अंग थे?
(क) गुजरात
(ग) मेघालय
(ख) हरियाणा
(घ) छत्तीसगढ़।
उत्तर:
(क) गुजरात मूलतः मुम्बई राज्य (महाराष्ट्र) का अंग था।
(ख) हरियाणा पंजाब राज्य का अंग था।
(ग) मेघालय असम राज्य का अंग था।
(घ) छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश राज्य का अंग था।

2. देश के विभाजन से प्रभावित दो राज्यों के नाम बताएँ।
उत्तर:
पंजाब, बंगाल, देश के विभाजन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले दो राज्य थे।

3. दो ऐसे राज्यों के नाम बताएँ जो पहले संघ – शासित राज्य थे
उत्तर:
(अ) गोवा (ब) अरुणाचल प्रदेश।

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पृष्ठ 23

प्रश्न 6.
संयुक्त राज्य अमेरिका की जनसंख्या अपने देश के मुकाबले एक-चौथाई है लेकिन वहाँ 50 राज्य हैं। भारत में 100 से भी ज्यादा राज्य क्यों नहीं हो सकते?
उत्तर:
राज्यों की संख्या में वृद्धि का आधार केवल जनसंख्या नहीं हो सकता। राज्यों की संख्या के निर्धारण में अनेक तत्त्वों का ध्यान रखना पड़ता है जिनमें जनसंख्या के साथ-साथ देश का क्षेत्रफल, आर्थिक संसाधन, उस क्षेत्र के लोगों की भाषा, देश की सभ्यता एवं संस्कृति, लोगों का जीवन व शैक्षणिक स्तर आदि तत्त्व प्रमुख हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का क्षेत्रफल भारत की तुलना में बहुत अधिक है तथा वह एक विकसित देश है और संसाधनों की तुलना में भी वह भारत से समृद्ध है। इस आधार पर संयुक्त राज्य में राज्यों की संख्या 50 है। भारत के क्षेत्रफल का कम होना, उसका विकासशील देश होना तथा संसाधनों की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका से कम समृद्ध होना आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनके कारण भारत में 100 से भी अधिक राज्य नहीं बनाए जा सकते।

Jharkhand Board Class 12 Political Science राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
भारत-विभाजन के बारे में निम्नलिखित कौन-सा कथन गलत है?
(क) भारत विभाजन ‘द्वि राष्ट्र सिद्धान्त’ का परिणाम था।
(ख) धर्म के आधार पर दो प्रांतों – पंजाब और बंगाल का बँटवारा हुआ।
(ग) पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में संगति नहीं थी।
(घ) विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।
उत्तर:
(घ) विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित सिद्धान्तों के साथ उचित उदाहरणों का मेल करें

(क) धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 1. पाकिस्तान और बांग्लादेश
(ख) विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 2. भारत और पाकिस्तान
(ग) भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन 3. झारखण्ड और छत्तीसगढ़
(घ) किसी देश के भीतर प्रशासनिक और राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन 4. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड

उत्तर:

(क) धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 2. भारत और पाकिस्तान
(ख) विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 1. पाकिस्तान और बांग्लादेश
(ग) भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन 4. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड
(घ) किसी देश के भीतर प्रशासनिक और राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन 3. झारखण्ड और छत्तीसगढ़

प्रश्न 3.
भारत का कोई समकालीन राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों ) और नीचे लिखी रियासतों के स्थान चिह्नित कीजिए-
(क) जूनागढ़
(ख) मणिपुर
(ग) मैसूर
(घ) ग्वालियर।
उत्तर:
JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ 1

प्रश्न 4.
नीचे दो तरह की राय लिखी गई हैं: विस्मय : रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतन्त्र का विस्तार हुआ। इन्द्रप्रीत : यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। इसमें बलप्रयोग भी हुआ था जबकि लोकतन्त्र में आम सहमति से काम लिया जाता है। देशी रियासतों के विलय और ऊपर के मशविरे के आलोक में इस घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है?
उत्तर:
1. विस्मय की राय के सम्बन्ध में विचार:
देशी रियासतों के विलय से पूर्व अधिकांश रियासतों में शासन अलोकतान्त्रिक रीति से चलाया जाता था और रजवाड़ों के शासक अपनी प्रजा को लोकतान्त्रिक अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे। इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से यहाँ समान रूप से चुनावी प्रक्रिया क्रियान्वित हुई। अतः विस्मय का यह विचार सही है कि भारतीय संघ में मिलाने से यहाँ जनता तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ।

2. इन्द्रप्रीत की राय के सम्बन्ध में विचार:
565 देशी रियासतों में केवल चार-पाँच को छोड़कर सभी स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल हुईं। लेकिन दो रियासतों (हैदराबाद एवं जूनागढ़) को भारत में मिलाने के लिए बल प्रयोग किया गया, क्योंकि इनकी भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की थी कि इससे भारत की एकता एवं अखण्डता को हमेशा खतरा बना रहता था। दूसरे, बल प्रयोग इन रियासतों की जनता के विरुद्ध नहीं, बल्कि शासन ( शासक वर्ग) के विरुद्ध किया गया क्योंकि इन दोनों राज्यों की 80 से 90 प्रतिशत जनसंख्या भारत में विलय चाह रही थी और जब से ये रियासतें भारत में सम्मिलित हो गईं, तब से इन रियासतों के लोगों को भी सभी लोकतान्त्रिक अधिकार दे दिए गए।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ

प्रश्न 5.
नीचे 1947 के अगस्त के कुछ बयान दिए गए हैं जो अपनी प्रकृति में अत्यंत भिन्न हैं: आज आपने अपने सर पर काँटों का ताज पहना है। सत्ता का आसन एक बुरी चीज है। इस आसन पर आपको बड़ा सचेत रहना होगा …………………… आपको और ज्यादा विनम्र और धैर्यवान बनना होगा …………………… अब लगातार आपकी परीक्षा ली जाएगी। – मोहनदास करमचंद गाँधी

………………… भारत आजादी की जिंदगी के लिए जागेगा …………………. हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाएँगे …………………… आज दुर्भाग्य के एक दौर का खात्मा होगा और हिंदुस्तान अपने को फिर से पा लेगा ……………………… आज हम जो जश्न मना रहे हैं वह एक कदम भर है, संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं…………………….. – जवाहरलाल नेहरू
इन दो बयानों से राष्ट्र-निर्माण का जो एजेंडा ध्वनित होता है उसे लिखिए। आपको कौन-सा एजेंडा जँच रहा है और क्यों ?
उत्तर:
गाँधीजी ने देश की जनता से कहा है कि देश में स्वतंत्रता के बाद स्थापित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक दलों में सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष होगा। ऐसी स्थिति में नागरिकों को अधिक विनम्र और धैर्यवान रहते हुए चुनावों में निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर देश हित को प्राथमिकता देनी होगी। जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिये गये बयान में कहा गया है कि स्वतन्त्र भारत में राजनीतिक स्वतन्त्रता, समानता तथा एक हद तक न्याय की स्थापना हुई है; उपनिवेशवाद समाप्त हो गया है; लेकिन इससे आगे अब आने वाली समस्याओं को दूर कर गरीब से गरीब भारतीयों के लिए नये अवसरों के द्वार खोलना है। राष्ट्र को आत्मनिर्भर तथा स्वाभिमानी बनाना है।

उपर्युक्त दोनों कथनों में महात्मा गाँधी का कथन अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह भविष्य में लोकतांत्रिक शासन के समक्ष आने वाली समस्याओं के प्रति नागरिकों को आगाह करता है कि राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के मोह, विभिन्न प्रकार के लोभ-लालच, भ्रष्टाचार, धर्म, जाति, वंश, लिंग के आधार पर जनता में फूट डाल सकते हैं तथा हिंसा हो सकती है । ऐसी परिस्थितियों में जनता को विनम्र और धैर्यवान रहते हुए देशहित में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करना चाहिए।

प्रश्न 6.
भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने किन तर्कों का इस्तेमाल किया? क्या आपको लगता है कि ये केवल भावनात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी हैं?
उत्तर:

  1. नेहरूजी के अनुसार भारत ऐतिहासिक और स्वाभाविक रूप में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। वे धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहते थे। उनका विचार था कि राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होना चाहिए, न ही उसे किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहित करना चाहिए और न ही उसका विरोध करना चाहिए। राज्य को सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करना चाहिए और सभी धर्मों को उनके क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता देनी चाहिए।
  2. नेहरूजी ने सदा इस बात पर बल दिया कि भारत की एकता और अखण्डता तभी चिरस्थायी रह सकती है जबकि अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार, धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता तथा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का वातावरण प्राप्त हो।
  3. नेहरू ने अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिमों के सम्बन्ध में यह तर्क दिया था कि भारत में मुस्लिमों की संख्या इतनी अधिक है कि चाहे तो भी वे दूसरे देशों में नहीं जा सकते। अतः उन्होंने मुस्लिमों के साथ समानता का व्यवहार करने पर बल दिया, तभी भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलायेगा। निष्कर्ष रूप में, यह कहा जा सकता है कि भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए प्रस्तुत किये गये नेहरूजी के तर्क केवल भावनात्मक व नैतिक ही नहीं बल्कि युक्तिपरक भी हैं।

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प्रश्न 7.
आजादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो मुख्य अन्तर क्या थे?
उत्तर:
आजादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो मुख्य अन्तर निम्नलिखित थीं।

  1. पूर्वी क्षेत्रों में भाषायी समस्या अधिक थी जबकि पश्चिमी क्षेत्र में धार्मिक एवं जातिवादी समस्याएँ अधिक
  2. पूर्वी क्षेत्र में सांस्कृतिक एवं आर्थिक सन्तुलन की समस्या थी, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में विकास की चुनौती

प्रश्न 8.
राज्य पुनर्गठन आयोग का काम क्या था? इसकी प्रमुख सिफारिश क्या थी?
उत्तर:
1953 में स्थापित राज्य पुनर्गठन आयोग का मुख्य कार्य राज्यों के सीमांकन के विषय में कार्यवाही करना था। इस आयोग की सिफारिशों में राज्यों की सीमाओं के निर्धारण हेतु उस राज्य में बोली जाने वाली भाषा को प्रमुख आधार बनाया गया। इस आयोग की प्रमुख सिफारिश यह थी कि भारत की एकता व सुरक्षा, भाषायी और सांस्कृतिक सजातीयता तथा वित्तीय और प्रशासनिक विषयों पर उचित ध्यान रखते हुए राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया जाये।

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि राष्ट्र एक व्यापक अर्थ में ‘कल्पित समुदाय’ होता है और सर्वसामान्य विश्वास, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षा और कल्पनाओं से एकसूत्र में बँधा होता है। उन विशेषताओं की पहचान करें जिनके आधार पर भारत एक राष्ट्र है।
उत्तर:
भारत की एक राष्ट्र के रूप में विशेषताएँ: भारत की एक राष्ट्र के रूप में प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. मातृभूमि के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम:
मातृभूमि से प्रेम प्रत्येक व्यक्ति का स्वाभाविक लक्षण एवं विशेषता माना जाता है। भारत में जन्म लेने वाले व्यक्ति अपनी मातृभूमि से प्यार करते हैं तथा अपने आपको भारतीय राष्ट्रीयता का अंग मानते हैं।

2. भौगोलिक एकता: भौगोलिक एकता भी राष्ट्रवाद की भावना को विकसित करती है। भारत सीमाओं की दृष्टि से कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा गुजरात से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक एक स्वतन्त्र भौगोलिक इकाई से घिरा है।

3. सांस्कृतिक एकरूपता:
भारतीय संस्कृति इस देश को एक राष्ट्र बनाती है। यह विभिन्नता में एकता लिए हुए है। इस संस्कृति की अपनी पहचान है। वैवाहिक बंधन, जाति प्रथाएँ, साम्प्रदायिक सद्भाव, सहनशीलता, त्याग, , पारस्परिक प्रेम, ग्रामीण जीवन का आकर्षक वातावरण इस राष्ट्र की एकता को बनाने में अधिक सहायक रहा है।

4. सामान्य इतिहास:
भारत का एक अपना राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक इतिहास रहा है। इस इतिहास का अध्ययन सभी करते हैं।

5. सामान्य हित:
भारत राष्ट्र के लिए सामान्य हित भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत एक संविधान, धर्मनिरपेक्षता, इकहरी नागरिकता, सरकारी का संघीय ढाँचा, मौलिक अधिकारों व कर्त्तव्यों की व्यवस्था लागू की गई है।

6. संचार के साधनों की विशिष्ट भूमिका:
भारत एक राष्ट्र है। इसकी भावना को सुदृढ़ करने के लिए साहित्यकार, लेखक, फिल्म निर्माता-निर्देशक, जनसंचार माध्यम, इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, यातायात के साधन, दूरभाष तथा मोबाइल टेलीफोन आदि भी भारत को एक राष्ट्र बनाने में योगदान दे रहे हैं।

7. जन इच्छा:
भारतीय राष्ट्र में एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व लोगों में राष्ट्रवादी बनने की इच्छा भी है।

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प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़िए और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
राष्ट्र-निर्माण के इतिहास के लिहाज से सिर्फ सोवियत संघ में हुए प्रयोगों की तुलना भारत से की जा सकती है। सोवियत संघ में भी विभिन्न और परस्पर अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषाई समुदाय और सामाजिक वर्गों के बीच एकता का भाव कायम करना पड़ा। जिस पैमाने पर यह काम हुआ, चाहे भौगोलिक पैमाने के लिहाज से देखें या जनसंख्यागत वैविध्य के लिहाज से, वह अपने आप में बहुत व्यापक कहा जाएगा। दोनों ही जगह राज्य को जिस कच्ची सामग्री से राष्ट्र-निर्माण की शुरुआत करनी थी वह समान रूप से दुष्कर थी। लोग धर्म के आधार पर बँटे हुए और कर्ज तथा बीमारी से दबे हुए थे। – रामचंद्र गुहा

(क) यहाँ लेखक ने भारत और सोवियत संघ के बीच जिन समानताओं का उल्लेख किया है, सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के लिए भारत से एक उदाहरण दीजिए।

(ख) लेखक ने यहाँ भारत और सोवियत संघ में चली राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच की असमानता का उल्लेख नहीं किया है। क्या आप दो असमानताएँ बता सकते हैं?

(ग) अगर पीछे मुड़कर देखें तो आप क्या पाते हैं? राष्ट्र-निर्माण के इन दो प्रयोगों में किसने बेहतर काम किया और क्यों?
उत्तर:
(क) सोवियत संघ के समान ही भारत में भी अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषायी समुदाय और सामाजिक वर्गों में एकता का भाव पाया जाता है। यथा – भारत में अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग धर्म और समुदाय के लोग रहते हैं, उनकी भाषा और वेश भूषा, संस्कृति भी भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सभी प्रान्तों के लोग एक-दूसरे के धर्म, भाषा तथा संस्कृति का सम्मान करते हैं।

(ख) (i) सोवियत संघ ने राष्ट्र निर्माण के लिए आत्म-निर्भरता का सहारा लिया था जबकि भारत ने कई तरह से बाहरी मदद से राष्ट्र निर्माण के कार्य को पूरा किया।
(ii) सोवियत संघ में साम्यवादी आधार पर राष्ट्र निर्माण हुआ जबकि भारत में लोकतान्त्रिक समाजवादी आधार पर राष्ट्र निर्माण हुआ।

(ग) यदि पीछे मुड़कर देखें तो हम पायेंगे कि भारत के लिए राष्ट्र निर्माण के प्रयोग बेहतर रहे, क्योंकि 1991 में सोवियत संघ के विघटन ने उसके राष्ट्र निर्माण के प्रयोगों पर प्रश्नचिह्न लगा दिया।

राष्ट्र निर्माण की चुनौतियाँ JAC Class 12 Political Science Notes

→ नए राष्ट्र की चुनौतियाँ: भारत सन् 1947 में आजाद हुआ लेकिन स्वतन्त्रता के साथ ही भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जहाँ एक ओर स्वतन्त्रता के साथ भारत का विभाजन हुआ वहीं दूसरी ओर हिंसा और विस्थापन की त्रासदी की मार भी झेलनी पड़ी।
→ तीन चुनौतियाँ: स्वतन्त्र भारत के समक्ष तत्कालीन समय में तीन चुनौतियाँ प्रमुख थीं-

  • विविधता में एकता की स्थापना: भारत अपने आकार और विविधता में किसी भी महादेश से कम नहीं था । यहाँ अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे विभिन्न धर्मों को मानने वाले थे । इन सभी में एकता स्थापित करना तत्कालीन समय की महान चुनौती थी।
  • लोकतन्त्र को कायम रखना: लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना करने के साथ ही संविधान के अनुकूल लोकतान्त्रिक व्यवहार एवं बरताव की व्यवस्था करना तत्कालीन समय की आवश्यकता थी।
  • सभी वर्गों का समान विकास-तीसरी चुनौती सम्पूर्ण समाज का भलां व विकास करने की थी। इस संदर्भ में संविधान में इस बात का उल्लेख किया गया कि सामाजिक रूप से वंचित वर्गों तथा धार्मिक-सांस्कृतिक अल्पसंख्यक समुदायों को सुरक्षा दी जाए।

→ विभाजन: विस्थापन और पुनर्वास – 14-15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश भारत दो राष्ट्रों ‘भारत’ और ‘पाकिस्तान’ में विभाजित हुआ । विभाजन में मुस्लिम लीग की ‘द्विराष्ट्र सिद्धान्त’ की नीति की भी भूमिका रही। इस सिद्धान्त के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ नाम की दो कौमों का देश था । इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की माँग की और अन्ततः भारत का विभाजन हुआ।

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→ विभाजन की प्रक्रिया:
इस प्रक्रिया में धार्मिक बहुसंख्या को विभाजन का आधार बनाया गया। इसके मायने यह थे कि जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे और शेष हिस्सा भारत कहलायेगा। विभाजन की इस प्रक्रिया में भी अनेक समस्याएँ थीं। ‘ब्रिटिश इण्डिया’ में ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमान बहुसंख्या में थे। एक इलाका पश्चिम में था तो दूसरा इलाका पूर्व में था। इस आधार पर पाकिस्तान दो इलाकों में विभाजित हुआ-पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान दूसरे, मुस्लिम बहुल हर इलाका, पाकिस्तान में जाने को राजी नहीं था। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के नेता खान अब्दुल गफ्फार खाँ द्विराष्ट्र सिद्धान्त के खिलाफ थे।

उनकी आवाज को अनदेखा करके पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। तीसरे, ब्रिटिश इण्डिया के मुस्लिम बहुल प्रान्त पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक और गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। फलतः दोनों प्रान्तों का बंटवारा किया गया। यह बंटवारा विभाजन की सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुआ। चौथे, सीमा के दोनों तरफ अल्पसंख्यक थे। जैसे ही यह निश्चित हुआ कि देश का बंटवारा होने वाला है, वैसे ही दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे।

→ विभाजन के परिणाम: सन् 1947 में भारत विभाजन से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुईं जिनमें प्रमुख थीं-

  • विभाजन के कारण दोनों सम्प्रदायों के मध्य अचानक साम्प्रदायिक दंगे हुए। मानव इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा। लाहौर, अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर साम्प्रदायिक अखाड़े में तब्दील हो गए।
  • बँटवारे के कारण शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हुई। लाखों लोग घर से बेघर हो गये तथा लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत आये जिनके पुनर्वास की समस्या का सामना करना पड़ा।
  • परिसम्पत्तियों के बँटवारे को लेकर भी दोनों देशों के मध्य अनेक मतभेद उत्पन्न हुए।
  • विभाजन के साथ ही दोनों देशों के मध्य सीमा निर्धारण को लेकर अनेक विवाद उत्पन्न हुए। कश्मीर समस्या इसी का परिणाम मानी जाती है।
  • एक समस्या यह उत्पन्न हुई कि भारत अपने मुसलमान नागरिकों तथा दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ क्या बरताव करे ? भारतीय नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष राज्य के आदर्श को अपनाकर इसका निराकरण किया।
  • रजवाड़ों का विलय – भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप विरासत के रूप में जो दूसरी बड़ी समस्या मिली, वह थी, देशी रियासतों का स्वतन्त्र भारत में विलय करना।

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले भारत दो भागों में बँटा हुआ था – ब्रिटिश भारत और देशी राज्य। ब्रिटिश भारत का शासन तत्कालीन भारत सरकार के अधीन था, जबकि देशी राज्यों का शासन देशी राजाओं के हाथों में था। रजवाड़ों अथवा रियासतों की संख्या 565 थी। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के मार्ग में देशी रियासतें सदैव बाधा बनी रहीं। स्वतन्त्रता के पश्चात् भी ये रियासतें एकीकरण के मार्ग में सिरदर्द बनी रहीं।

→ विलय की समस्याएँ: आजादी के तुरन्त पहले अँग्रेजी प्रशासन ने घोषणा की कि रजवाड़े ब्रिटिश राज की समाप्ति के पश्चात् अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हो जायें तथा यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया। यह अपने आप में गम्भीर समस्या थी। इससे अखंड भारत के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा।

→ सरकार का नजरिया: यद्यपि देशी रियासतों की भारत में विलय की समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी परन्तु सरदार पटेल ने इस समस्या को बड़े ही सुनियोजित ढंग से सुलझाया।
देशी रजवाड़ों के विलय के सम्बन्ध में तीन बातें अधिक महत्त्वपूर्ण थीं-

  1. पहली बात यह थी कि अधिकतर रजवाड़ों के लोग भारतीय संघ में शामिल होना चाहते थे।
  2. दूसरा, भारत सरकार का रुख लचीला था । वह कुछ इलाकों को स्वायत्तता देने के लिए तैयार थी। जैसा जम्मू-कश्मीर में हुआ।
  3. तीसरी बात, विभाजन की पृष्ठभूमि में विभिन्न इलाकों के सीमांकन के सवाल पर खींचतान जोर पकड़ रही थी और ऐसे में देश की क्षेत्रीय अखण्डता – एकता का सवाल सबसे ज्यादा अहम हो उठा था।

शांतिपूर्ण बातचीत के द्वारा लगभग सभी रजवाड़ों जिनकी सीमाएँ आजाद हिन्दुस्तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्त, 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गईं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय अन्य की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ। सितम्बर, 1948 में हैदराबाद के निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। मणिपुर के महाराजा बोधचन्द्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये और जून, 1948 में चुनावों के फलस्वरूप वहाँ संवैधानिक राजतंत्र कायम हुआ।

→ राज्यों का पुनर्गठन: बँटवारे और देशी रियासतों के बाद राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में राज्यों के पुनर्गठन की समस्या भी महत्त्वपूर्ण थी। राष्ट्र के समक्ष प्रांतों की सीमाओं को इस तरह तय करने की चुनौती थी कि देश की भाषायी और सांस्कृतिक बहुलता की झलक भी मिले, साथ ही राष्ट्रीय एकता भी खण्डित न हो राज्यों का पुनर्गठन करने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इस आयोग का कार्य राज्यों के सीमांकन के मामले में गौर करना था। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ।

इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केन्द्र शासित प्रदेश बनाये गये। इस अधिनियम में राज्यों के पुनर्गठन का आधार भाषा को बनाया गया। भाषा के आधार पर राज्यों का संगठन करने से भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हुईं। कई राज्यों के लोग इस भाषागत पुनर्गठन से सन्तुष्ट नहीं थे, क्योंकि कई राज्यों में रहने से लोग, अपनी भाषा के आधार पर अलग राज्यों की स्थापना चाहते थे। इसी कारण देश के कई भागों में लोगों द्वारा गम्भीर आन्दोलन आरम्भ कर दिए गए और भारत सरकार को विवश होकर नए राज्य स्थापित करने पड़े।